03 फ़रवरी, 2019

स्नेह भारती की कविताएँ





स्नेह भारती



   माँ

माँ देखती होगी राह
कि तुम आओगी
शाम ढले
हमेशा की तरह
छोटे रस्ते की संकरी पगडंडी से
अपना छोटा सा बैग उठाए ।
माँ देखती होगी राह
कि तुम आओगी
तीन भाईओं की इकलौती बहन ।
माँ ने कभी चाहा नहीं तुम्हे भाईओं सा...।
पिता आते थे तुमसे मिलने
माँ नहीं आती थी कभी भी ।
माँ पालती रही भ्रम
बेटों का ....
कहती थी
कर्ज़ में डूब गये, उसके बेटे
तुम्हारे कारण ।
ज़ार-ज़ार रोती थी भाग्य पर ।
समझ नहीं पाती थी तुम,
दो जोड़ी कपड़े,
एक पहनती थी,
दूसरी धोती थी
कैसा था क़र्ज़ ।
बस तुमने झट से लिख दी थी,
पिता की सम्पति
भाईओं के नाम।
लिख दिया था
कुछ नहीं चाहिए तुम्हें
बस बना रहे
मायके आना जाना कभी-कभार ।
भाईओं ने बंद कर दिये थे
अपने दरवाजे
तुम्हारे लिये ।
माँ चुप थी, संतुष्ट थी ।
मझले भाई ने किया भव्य कोठी में
ग्रह-प्रवेश ।
पूरा शहर था वहां
बस तुम्हारा परिवार नहीं था,
माँ तब भी चुप थी, संतुस्ट थी,
धीरे-धीरे बंद होते गये
माँ के लिये सभी दरवाजे ।
माँ आज अकेली हैं,
बीमार हैं,
लाचार है ।
तुम्हारे चेहरे पर,
चिंता की रेखाएँ सपष्ट हैं ।
पर माँ आज भी पाले बेठी है
बेटों का भ्रम ।
बच्चे रोकते हैं,
नाते-रिश्तेदार मना करते हैं
कहतें हैं पहले अपना घर देखो।
हर सुबह
तुम उठती हो,
एक नई चिंता के साथ
एक डर सा बना रहता है,
तुम्हारे चेहरे पर ।
किसी निर्णय पर पहुंचना चाहती हो
पति का चेहरा पढ़ती हो,
सोचती हो,
हो आती हूँ एक बार
माँ है आखिर
जरूर देखती होगी राह ।
००


माँ (2)

माँ सचमुच देखती थी
तुम्हारी राह...
क्योंकि तुम जानती हो
माँ होने का अर्थ...
तुम जानती हो
कि जुड़ी रहती है, नाल
आजीवन....।
तुम आई तो
माँ की आँखों में याचना थी,
पश्चाताप था,
उम्र भर के लिए ।
तुम आई तो
आश्वस्त हो गई थी, माँ
बहुत संतुष्ट थी
कि अब ख़राब नहीं होगी उसकी मिट्टी ।
जिस बेटे के लिए
उम्र भर
करती रही थीं, जोड़-तोड़,
उसने महज एक एस.एम.एस.भेज दिया था,
"मुझ से कोई अपेक्षा नहीं रखना,
अंतिम संस्कार के लिए"
कहाँ-कहाँ से टूटी थी, माँ
कोई जान नहीं पाया ।
तुम आई तो
कह-सुन लिया था
और चली गयी
चुपचाप बैठे-बैठे
पता भी नहीं चला
शायद...
माँ सचमुच देखती थी
तुम्हारी राह...........।                     




 मेरा शहर

कभी मीडिया की ताम-झाम से
 फुरसत मिले तो
आना मेरे शहर ।
मेरा शहर
सुनते हैं कि सिफ्ती का घर है ।
देश-विदेश से हजारों पर्यटक
आते है हर रोज़
और बंद करके ले जाते हैं
अपने स्मार्टफोन में
जगह-जगह लगे कूड़े कचरे के ढेर ।
कभी फुरसत मिले तो
आना अवश्य मेरे शहर ।
बूढ़ा हो गया है मेरा शहर
अब डरता बहुत है ।
देखता है, सुनता है, भोगता है चुपचाप ।
कचरे पर राजनीति
राजनीति पर कचरा
कचरा-कचरा घोषणाएं
कचरा-कचरा आश्वाशन
शहर में कचरा
कचरे में शहर
गलिओं-बाज़ारों से निकल कर बढ़ने लगा है
घरों की ओर ।
बहुत भयानक होती है
कचरा होती सोच
स्मार्ट सिटी की परिकल्पना ऐसी तो नहीं थी शायद
कभी फुरसत मिले तो
आना अवश्य मेरे शहर
बूढ़ा हो गया है मेरा शहर
अब डरता बहुत है ।












घोड़ा

लोहे के बड़े से बंद दरवाजे के
इस तरफ बैठा हूँ मैं ।
बाहर बहुत बड़ा मैदान है
जिसके बीचों बीच लोहे के खूंटे से बंधा है
एक घोड़ा ।
जाने क्या चरता रहता है दिन भर ।
बीच बीच में हिनहिनाता है
मेरे भीतर उपजता है
दयनीयता का सा भाव ।
लेकिन कभी कभार चिंघाड़ता है वह
दोनो पैर उठा कर
खूंटे से आज़ाद होने को
बहुत रोमांचित हो उठता हूँ मैं
कई दिनों से जारी है यह सिलसिला ।
चिंघाड़ना अब बदलने लगा है
हिनहिनाहट में ।
सूखी मुरझाई घास
मेरे भीतर अजीब सी बैचेनी पैदा करती है
लगता है मेरी तनी हुई मुट्ठियों मे
कसाव कम होने लगा है ।


 





 घोड़ा (2)

भूख़ से निढ़ाल
वहीं गिर गया है घोड़ा
दुर्गंध फैलने लगी है
लेकिन मेरी मुट्ठियों में
नहीं लौटता कसाव ।
सरकारी तंत्र आता है
मिट्टी खोद कर वहीं दबा देता उसे ।
बंद दरवाज़े के झरोखे से झांकता हूँ मैं ।
एक गंदी सी उबकाई
गले मे आ कर अटक जाती है
भीतर दुर्गंध ही दुर्गंध फैलने लगी है ।



 धूप की वापिसी

इतिहास गवाह है
कि दस्तकें एक उपक्रम हैं
बेमानी प्रतीक्षा की ।
दस्तकें सिर्फ शोर होतीं हैं
आँखें नहीं होतीं ।
मैंने चाहा था
इससे पूर्व कि हमारे मध्य से
संवाद की स्थिति चूक जाये
हम दस्तकों के सम्मोहन से मुक्त हो लें ।
मैंने चाहा था,
कि तुम
दस्तकों की राह से नहीं
किसी झरोखे से नहीं
तुम आओ
बेखटके
चिट्खी हुई धूप की तरह
और पूरी छत पर बिखर जाओ
मैं ठिठ्कुं
भले ही स्तव्ध रह जाऊं
लेकिन, एक चुल्लू स्पर्श
छत से उठाऊँ
पी जाऊं
और सूरज सा दमक उठूँ ।


एक लम्बी कविता का अंश
 (20 जनवरी 1981)






 कच्चे बांसों का जंगल

पहले-पहल
जब हँसा करती थी
उसकी आँखें
तब उनमें उतर आता था
एक हरा जंगल
और कच्चे बांसों की महक
फैल जाती थी, दूर-दूर तक ।
लेकिन अब,
सिर्फ दो स्याह गढ्ढे हैं
जिन में ठहर गया है
एक वीहड़, मीलों लम्बा ।

अब उनमें
कोई खनकती कौंध
नहीं दिखती ।
लोग कहते हैं
एक अरसा हुआ
उसकी आँखों में
कच्चे बांसों का जंगल
अचानक जल गया था ।
अब उनमें
कोई खनकती कौंध
नहीं दिखती ।
वहां एक पीला पन
जो धीरे-धीरे
निगलने लगता है
उसके समूचे आस्तित्व को ।

लोग कहते हैं
बौरा गया है वह
क्योंकि उसकी आँखें
अब कभी नही हंसती ।
वह घूमता है, पूरे शहर में
कच्चे बांसों की महक तलाशता ।
लेकिन शहर की हर गली
उतर जाती है
एक सुरंग में ।
और इतिहास गवाह है
कंच्चे बांसों की महक की तलाश में
न जाने कितने युग
खो गए हैं
उस सुरंग में.....।

लोग कहते हैं
वह सुरंग के मुँहाने पर बैठा
सिर्फ प्रतीक्षा करता है।
और उसकी आँखों में
ठहर गया बीहड़
घना और घना होता जाता है

                                           


अब मैं झूठ रचने में दक्ष हो गया हूँ ।

एक अरसे  से
गढ़ रहा हूँ
झूठे किस्से-कहानियां
लेकिन जीवन से
अनुपस्थित होती जाती है, लय ।
झूठ कितना भी आकर्षक क्यों न हो
झूठ ही रहता है अन्तत:।
बहुत शिद्दत से चाहता हूँ
सिर्फ एक बार
सारे का सारा झूठ
बदल जाये सच में।
और जीवन बहुत करीब से
छु कर गुजरे...
अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराता हुआ ..
सचमुच सच की ही तरह ।




 मोहभंग

बेहतर तो यही था
कि एक अरसा पहले
जहाँ, जिन रास्तों पर
हम ठहर गए थे
उन रास्तों को
फिर से गति न देते,
क्योंकि टूट कर जुड़ना
कितना भी आकर्षक क्यों न हो
टूटने के खौफ से
कभी सुरक्षित नहीं होता ।

हमें कितना गल्त दावा है
कि हमने एक-दूसरे की ख्वाहिश की है ।
सच तो यह है
हम एक दूसरे को ढ़ोते रहे हैं
कांच के मर्तबानों की तरह ।
जहाँ एक दुसरे को पाने को ख्वाहिश नहीं
महफूज़ रखने का डर होता है ।

अचानक जब होता है
मोहभंग...
तब सब कुछ साफ दिखने लगता है ।
आखिर कौन-कौन स्वीकारेगा इसे
कि परम्पराओं के टूटने के,
दुःख से या डर से
हमें बुजदिल होना है ।

सच कितना कड़वा हो
सच होता है
मैं टूट कर नहीं गिरा
यह उतना ही सच है
जितना यह...
कि तुमने मेरी यातना से नहीं
अपनी सहानुभूति से मुझे जाना है ।

अचानक जब होता है मोह-भंग
तो सब कुछ साफ दिखने लगता है ।
मैं देखता हूँ
बहुत से भयावह हाथ
जो एक अरसा
मेरा शोषण करते रहे हैं
इकठ्ठा हो
एक छाया में गुम हो जाते हैं,
और उस छाया के धड़ पर
अचानक उग आता है
सिर्फ तुम्हारा चेहरा ।

लोग भले ही कहें
लेकिन यह सच नहीं
कि मैने ख़ुदकुशी की है
मैं तो बहुत गहरे से रौंदा गया हूँ ।

यह सच है
कि मैं झुलस गया हूँ
भीतर बहुत दूर तक
लेकिन मैंने ख़ुदकुशी नहीं की
बस धूप की ख्वाहिश में
सूरज को निगल लिया है ।

                             




अंतर सिर्फ जानने भर का होता है

हाँ,
होता है कई दफ़ा ऐसा
कि कुछ नहीं कर पाते हम
और ताकते रहतें हैं
नंगी बेशर्म आँखों से
वक़त की फिसलन ।

कई दफ़ा होता है ऐसा भी
कि हम निश्चय ही
हो जाते हैं जड़,
उस पड़ाव पर
जो हुआ जाता है
उम्र से लम्बा ।

लेकिन हर दफ़ा,
नहीं होता ऐसा ।
क्योंकि वक्त
अपने में लिए रहता है
एक निश्चित अन्तराल...।
और उम्र,
कभी एक लम्हा नहीं होती।
उम्र एक अरसा है
एक पूरा अरसा।

अंतर सिर्फ जानने भर का होता है ।
यातना....
अकेली हो या सामूहिक
अर्थ रखती है ।

तनाव में टूट जाना
या तान लेना मुठ्ठियाँ
दो अलग स्थितियां हैं,
बिल्कुल अलग...।
लेकिन अंतर
सिर्फ जानने भर का है ।
०००






                             
 स्नेह भारती
पंजाब के अमृतसर जिले से सम्बंध ।
 हिंदी पुस्तकों और पत्रिकाओं लगभग अकाल। 
पहली नौकरी के सिलसिले में चंडीगढ़ में बिताया दो वर्ष का समय स्वर्णिम काल । 
परिवार के भरण-पोषण मे समय हाथ से रेत सा निकल गया । 
रिटायरमेंट के बाद दूसरी पारी ने शून्य से फिर शून्य की यात्रा में खूब साथ दिया । 
लेकिन अभी भी उम्मीद करता हूँ सब ठीक होगा ।


2 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन से जुड़ी , जीवन में ही यात्राएं यात्राएं करती , जीवन की विसंगतियों , जीवन की विषमताओं से रूबरू करवाती , सच्ची कविताएं । मन को गहरे से आंदोलित करने वाली कविताएं । स्नेह भारती जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं ।

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