03 फ़रवरी, 2019



जिंदादिली का दूसरा नाम : कृष्णा सोबती

विपिन चौधरी

लगभग सात-आठ साल पहले जब लगभग 89 वर्षीय कृष्णा जी  मुक्तिबोध पर एक पुस्तक पर काम कर रही थी जो  बाद में  राजकमल  प्रकाशन से “मुक्तिबोध : एक व्यक्तित्व सही जीवन की तलाश “ शीर्षक से प्रकाशित हुई. मेरा परिचय उन्हीं दिनों कृष्णा जी से हुआ. उस समय भी  स्वास्थ्य अच्छा नहीं  था, मगर पिछले तीन-चार सालों की तरह अस्पताल में  निरंतर एडमिट रहने की नौबत नहीं आयी थी. 
अक्सर नोएडा  जाते समय मयूर विहार मेट्रो स्टेशन पर उतरने का मन करता फिर यह सोच कर ठहर जाती कि वे जब बिलकुल सही हो जाएंगी तब मिलूंगी। ऐसी स्थिति में परेशांन करना ठीक नहीं। मन में तसल्ली रहती कि कृष्णा जी हमारे बीच हैं मगर आज वैसी स्थिति नहीं है एक मलाल भीतर बस गया है उनसे एक और मुलाकात न हो पाने का. लेकिन उनसे हर मुलाकात के बाद भी एक और मुलाकात की इच्छा जरूर बची रह जाती ऐसा मैं जानती हूँ.
कृष्णा सोबती जी पर केंद्रित यह लेख 2016 फेमिना हिंदी में प्रकाशित हुआ था.

विपिन चौधरी
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विपिन चौधरी





दिल्ली महानगर  हिंदी साहित्यकारों का गढ़  माना जाता है. यहाँ लगभग हर-रोज़ ही साहित्यिक आयोजनों की चहल-पहल होती है,  तमाम तरह की खेमेबाजी और विमर्श को यहाँ जगह ज़मीन मिलती आयी  है. कई बड़े साहित्यकारों की पनाहगाह है दिल्ली. देश से कोने-कोने से यही आकर बसे साहित्यकार दिल्ली की ज़मीन पर उर्वर हुए यहीं की आबो-हवा में वे सब अपनी साहित्यक काबिलियत के बल पर शीर्ष तक  पहुंचे और युवा रचनाकारों की प्रेरणा स्रोत्र  बने. इसी दिल्ली  में रहती है  91 वर्षीय कृष्णा सोबती,  जिनके लेखन का अंदाज़- ए- बयां  अपनी अलहदा  विशिष्टता के लिए हिंदी साहित्य में अलग से चिन्हित किया जाता है. पकिस्तान के गुजरात शहर में जन्मी कृष्णा जी आज भी जब  अपने बचपन अपने परिवेश को शिद्दत से याद करती हैं तो उनकी आवाज़ में गज़ब की मिठास  और आँखों की चमक देखने लायक होती है. कई बार मैं उनकी आँखों की इसी चमक से हो कर गुज़री हूँ.  गाहे-बगाहे उनकी बातों में कराची शहर, जिसे ‘रोशनियों का शहर’ माना जाता है, प्रवेश करता है. फिर बातों से बातें निकलती जाती हैं, गुज़रे समय की यादों के शहर, वहां का खान-पान, वहां का फैशन, बातचीत का तौर-तरीका, वहां के लोगों में खरीददारी का जूनून, वहां के पुराने घरों और बड़ी-बड़ी हवेलियों की वास्तुकला का सौंदर्य और फिर ‘बगीचों का शहर’, लाहौर  से जुडी  यादें चली आती हैं और कृष्णा जी फिर  उन यादों की हो कर रह जाती हैं और मैं एकटक उन्हें देखती हूँ और सोचती हूँ इतनी बातों और इतनी यादों को मैं कैसे समेट सकूंगी. उनकी स्म्रतियों में विभाजन से पहले के भारत का परिवेश, उस समय की गहमागहमी अच्छा खासा दबदबा रखते हैं. हर बुजुर्ग की तरह पुरानी यादों में गुम होना, गुज़रे समय को मुड- मुड कर देखना उन्हें अज़ीज़ है. लेकिन एक साहित्यकार का मन-मस्तिष्क होने के कारण, वे गुजरते समय के साथ बहते हुए भी वर्तमान की विभीषिका पर भी नज़र रखते हुए अपनी असहमति दर्शाती हैं. ‘महामहिम के नाम’ लिखा पत्र हो, या फिर वर्तमान सरकार के प्रति नाराज़गी उनके लेखों को प्रमुखता से प्रतिष्ठत अख़बारों में जगह दी जाती है. अपनी अस्वस्थता के बावजूद वे आम-जन के दर्द से आज भी पल प्रतिपल गुजरती हैं, बिसरे दिनों की बेपनाह दुःख और अलगाव भरी यादें आज भी उन्हें सालती हैं. उनके लेखन में उसी विभाजन का ठहरा हुआ दर्द बार-बार अपना कद निकालता है. उनके प्रतिष्ठित उपन्यास,' जिंदगीनामा' में विभाजन से पहले का ग्रामीण परिवेश अपनी पूरी धूसर तबियत और स्फटिक धमक के साथ मौजूद है. अपने लेखन में इसी बानगी के तहत वे युवा पीढी के रचनाकारों में अपने लिए एक अलग तरह की मिठास पाती है.

भीड़-भाड़ और तमाम तरह की चौंधयाती रोशनियों से दूर कहीं शांत जगह में झिलमिलाता हुआ दीपक, मन को असीम शांति से भर देता है ठीक उसी तरह ही दिल्ली की भागमदौड़ और शोर शराबे से दूर मैंने, कृष्णा सोबती के सानिध्य को अपने भीतर ग्रहण किया । सच में उनका सानिध्य  शांत और मद्धम आंच बिखेरते  दीपक जैसा ही महसूस हुआ । गाँव के घरों में छोटे-छोटे से आलों में दीपक जिस सुंदरता से अपने प्रकाश को उजागर करते हुए दिख पड़ते हैं उनकी सहज सुन्दरता की व्याख्या करना सहज नहीं, जीवन में कहीं शांति है और रचने- पकने की सहूलियत है तो इन्हीं चीज़ो के आज-पास है.







कृष्णा जी का साथ मेरे मन को हमेशा तसल्ली देता आया है, जीवन को जीने का सलीका और अनुशासन मैंने उनके सीखा है.  निजता की घोर हिमायती, कृष्णा जी अपने पास सिर्फ अपनी मौजूदगी ही चाहती है. यह एक लेखक का निजत्व है, जो उन्हें हद दर्ज तक प्रिय है फिर कोई क्यों उसपर सेंध लगाये। किसी परिचित, अपरिचित से मुलाकात के बाद वे फिर से अपनी सीपी में बंद हो जाती हैं और दुनिया के समुन्दर में शांत किल्लोल करती लहरोँ जैसा उनका रचा हुआ साहित्य जिसका धरातल, लोक की बहुलता की सयंमित अभिव्यक्ति और साफ-सुथरी रचात्मकता नज़र आती है.

कृष्णा सोबती से पहली मुलाक़ात

दिल्ली महानगर की कोलाहल से दूर अपने घर में एक शांत सुकून से भरे वातावरण में कृष्णा जी से पहली मुलाक़ात अपने एक कवि दोस्त की मार्फ़त हुयी।  वरिष्ठ साहित्यकार और अपनी विशिष्ट खूबियों के कारण किवदंती बन चुकी कृष्णा सोबती,  अपनी बढ़ती वय के कारण लेखन कार्यों में हाथ बटाने के लिए वे किसी साहित्यिक सहायिका की तलाश में थी और मैं उनकी मदद के लिए उनके समक्ष थी। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि इसके पीछे एक वरिष्ठ साहित्यकार से नजदीकी की चाह का हाथ जरूर था. इसी मधुर चाह के चलते ही उम्र की लंबे अंतर के बावजूद कृष्णा जी की स्नेहिल दोस्ती पनपी सकी।  लगभग चार साल साल पहले का एक दिन, जब शाम, रात में तब्दील होने को थी, ठीक उसी  वक़्त के आस-पास कवि दोस्त आर. चेतन क्रांति जी का फ़ोन आया उन्होंने यह कहते हुए कि  'कृष्णा जी तुमसे बात करना चाहती हैं', फ़ोन कृष्णा जी को थमा दिया और कुछ सेकंड के अन्तराल पर एक बेहद मधुर आवाज़ मेरे कानों में उतरी, बड़ी ही मीठी आवाज़ में  उन्होंने अपना पता नोट करवाया। अगले ही दिन मैं कृष्णा जी की उसी मधुर आवाज़ के आरोह अवरोह में डूबते-उतरते हुए मयूर विहार फेज़-1 में उनके फ़्लैट के सामने थी. उनसे मेरा यह पहला परिचय था, पहली भेंट आज भी स्मृतियों में सबसे मुखर है.

अपनी सेविका, विमलेश जी  के साथ थोडा झुककर छोटे छोटे क़दमों से कृष्णा जी ड्राइंग रूम में आई और अंग्रेजी में कहा, ‘यू आर ए स्मार्ट गर्ल’. उन दिनों कृष्णा जी मुक्तिबोध पर केंद्रित एक किताब पर काम कर रही थी और उसी दौरान उनके साथ उन्हें कुछ सुनाते और उनके लिखे को टंकित करते हुए, मैंने मुक्तिबोध को नज़दीक से जाना और फिर उन्हें तफ़सील से पढने की कोशिश जारी रखी.

हिंदी साहित्य, कृष्णा सोबती की बेबाक और संयमित अभिव्यक्ति और कलात्मक रचनात्मकता से परिचित है, उन्होंने हिंदी की कथा भाषा को विलक्षण ताज़ग़ी से नवाजा हैं. कृष्णा जी ने पचास के दशक में अपने लेखन की शुरुआत की और उनकी पहली  कहानी, 'लामा' में 1950  में प्रकाशित हुई। मुख्यत: उपन्यास, कहानी, संस्मरण विधाओं में लिखने वाली कथाकार की दिलचस्पी कविताओं में हैं। शायद इस बात को कम ही लोग जानते होंगे.

कृष्णा जी हिंदी की स्टार लेखिका हैं, लेकिन ऐसी स्टार लेखिका जिनके यहाँ किसी तरह की शोशेबाजी नहीं. हमेशा लंबी ड्रेस में नज़र आने वाली और और ‘हशमत’ नाम से खुद को संबोधित करने वाली कृष्णा जी की  हिंदी साहित्य में जो पैठ है उसका कोई सानी नहीं।

उनके साथ काम करते हुए इतने अरसे में ही मैं जान पायी हूँ कि  भीड़ और जमवाड़ा उन्हें बिलकुल नहीं सुहाता,  आयोजनो से दूर रहना उन्हें सुहाता हैं.  सीधे-सीधे इंटरव्यू देना उन्हें पसंद नहीं, उन्हें कागज़ पर प्रश्न लिख कर दे दो समय मिलने पर वे उनका उत्तर लिख देंगी, काम समय पर हो जाएगा पर उनकी शर्तें अडिग हैं. उनकी ये सारी स्वभावगत आदतें मुझे उनसे दैनिक व्यवहार और बातचीत में साफ दिखी। आँखों में तकलीफ के कारण वे काफी बड़े -बड़े सुंदर शब्दों में लिखती हैं । हशमत, यानी खुद कृष्णा सोबती, अपने आप को एक अर्धनारीश्वर में प्रस्तुत करती हैं यह मानते हुए कि एक स्त्री में आधा पुरुष है और आधी स्त्री और ठीक इसी तरह एक पुरुष में भी आधी स्त्री का समावेश है और इसी तरह दोनों को मिला कर एक पूरा व्यक्तित्व बनता है.

कृष्णा जी ने हमेशा से ही अपने लेखन के लिए रात का समय तय किया हुआ है. फिर दोपहर 12 से 12.30 के आसपास उनके दिन की शुरूआत, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेज़ी, हिंदी के अखबारों के साथ. होती है

आज सोचती हूँ कि कभी ऐसा सोचा होता की कृष्णा जी पर कभी लिखने का अवसर आएगा तो शयद उनसे हुई  ढेर सारी बातें रिकॉर्ड कर लेती.

फिर भी इस लेख को लिखते हुए बहुत सी चीज़े टुकड़ों में याद आ रहीं हैं, उनके साथ उनके टेलीविज़न पर देखी फिल्म, जिसमे उनकी रिश्तेदार युवती ने किरदार अदा किया है. उनका यह कहना कि ‘शरीर अब पुराना हो गया है’. इकाबल बानो की ग़ज़लें उन्हें बहुत अज़ीज़ हैं कई बार खाना खाते हुए वे विमलेश से कहकर इकबाल बानों की सी. डी. लगवाती हैं और फिर देर तक,  इकबाल बानों की बुलंद आवाज़ से घर गूंजता है, साथ ही कृष्णा जी का मेज़ पर थपथापना ज़ारी रहता है और फिर शुरू हो जाती हैं इकबाल बानों के गायन की चर्चा. बीच-बीच में अपनी मौज़ में कृष्णा जी कभी कराची की गलियों से गुज़र जाती हैं तो कभी दिल्ली के बनने बिगड़ने की कहानी बयां कहती हैं  और  मैं उनकी बातों के साथ उनके स्वभाव की नरमी को अपने भीतर ज़ज्ब करती जाती हूँ.
उनकी मेहनावाजी भी गज़ब की है. खूबसूरत चाय टिकोजी के साथ  और ढेर सारे खाने के माल-असबाब, विपिन को केक भी खिलाओ, कुकीज़ भी, मिठाई भी. खाने की मेज़ पर बार-बार पूछना और यह कहना की जो भी पसंद हो विमलेश से बनवा लो. एक बार सर्दियों के दिनों में कृष्णा जी के लिए बाजरे की रोटी बना कर ले  गयी जिसे उन्होंने गुड के साथ चाव से खाया और कहा अरसे बाद बाजरे का स्वाद चखा है. उनका घर एक खूबसूरत संग्राहलय जैसा दिखता हैं, ड्राइंग रूम में इतिहासकार प्रेम चौधरी द्वारा बनायीं गयी एक बड़ी सी पेंटिंग  और बड़े से फोटोग्राफ, रैक में सजी किताबें, सोफे, कालीन सब पर सादगी तारी है. याद हैं मेरे यह कहने पर आपके घर की सारी चीज़े काफी पुरानी हैं ऐसी चीज़े अब नहीं मिलती. इसपर उनका यह कहना, ‘हम भी तो पुराने हैं’. मुझसे परिचय के बाद जाने कितनी बार उन्होंने कहाँ, कि मैंने कई बार पुरानी पत्रिकाओं को पलटते हुए तुम्हारी कविताओं को पढ़ा. एक बार उन्होंने कहा कवितायें भी अच्छी हैं और इसके साथ छपी तुम्हारी तस्वीर भी. मैंने कहा की तस्वीर तो चाहे कैसी भी हो उसका क्या?  इसपर उन्होंने कहा, नहीं हमारे प्रकाशकों को इस पक्ष पर भी ध्यान देना चाहिए, हम हिंदी वाले इतने गए गुज़रे नहीं हैं. अपनी खुद की अवस्था के बावजूद बार-बार फ़ोन कर, सर्दी  जैसी आम व्याधि पर भी मुझे फ़ोन पर कई हिदायतें देना. हमेशा मेरे भीतर गहरे में घर कर जाता है.

एक साहित्यिक अभिरुचि के चलते मैं  हमेशा यह मानती रही हूँ कि कृष्णा सोबती एक ऐसे ज़ज्बे का नाम है एक ऐसा नाम जो हिंदी साहित्य के स्तम्भ को मजबूत आधार देता है. लेखन उनके लिए जीवन का पर्याय है, एक कठोर अनुशासन है जिसको उन्होंने बरसो ओढा-बिछाया है.

कृष्णा जी अपने लेखन में शिल्प और कथ्य के सुन्दर और नए प्रतिमान रचती हैं. उनके शांत और स्थिर लेखन के पीछे उनके स्वाभाव की जीवंतता साफ़ झलकती है. उन्होंने अपने शर्तों पर जीवन जिया और एक बादशाह की विराटता की तरह लेखन में अपनी अभूतपूर्व ऊँचाई को स्थापित किया. अपने जीवन की लम्बी साहित्य यात्रा में उन्होंने जो लकीरे खींची वे आने वाली पीढ़ी में एक आदर्श लेखन की तरह मील का पत्थर साबित होंगी. अपने समकालीनों में वे अलग से पहचानी जा सकती हैं. उनके पास शिल्प की असीम गहराई, भाषा का घनत्व, संप्रेक्षण की जीवंत सजलता है, जिसे  वे लगातार मांजती आई है इसलिए उनकी हर नई कृति  नए प्रतिमान रचती है. वे जीवन की मैल को अपने लेखन के धोबी पटके से इस तरह धोती है सारी तथाकथित पाखंडता, नैतिक आडम्बर धरे के धरे रह जाते हैं. अपने अस्तित्व को लेकर वे सदा सचेत रही शायद यही कारण है कि उनके किरदार अपनी पूरी ठसक के साथ सामने द्रष्टिगोचर होते हैं.








अपने पूरे लेखन काल में उन्होंने कभी गुटबंदी का साथ नहीं दिया. वे किसी खेमे विशेष में शामिल नहीं हुयी. उन्होंने सिर्फ और सिर्फ अपनी लेखनी पर विश्वास किया और ताउम्र एक सच्चे शिल्पकार की तरह अपने पात्रो को तराशा. उनके पात्र जीवन की तलझट से कई ऐसे मोती निकाल के सामने लाते हैं जिन्हें अक्सर हम अनदेखा कर देते हैं. उनकी लंबी साहित्यिक यात्रा में रची गयी कृतियों के पात्र हमेशा पाठक की जीवन यात्रा में हस्तक्षेप करते रहते हैं क्योंकि उनके पास अपनी अस्मिता की आवाज़ है और जो आज के निपट अलोकतांत्रिक समय में सबसे जरुरी चीज़ है. ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘यारों के यार’, ‘तिन पहाड़’, ‘बादलों के घेरे’, ‘सूरजमुखी अँधेरे में’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘ए लड़की’, ‘दिलो दानिश’, हम हशमत, ‘समय सरगम’, ‘शब्दों के आलोक में’ और ‘जैनी मेहबान सिंह’ ने बौद्धिक विमर्श को जन्म दिया और समय के साथ हर बार उनके द्वारा रचित पात्रो पर चर्चा  करना जरुरी समझा गया.  सर्वसाधारण लोक की उजास उनके लेखन की महत्वपूर्ण कड़ी है. उनकी कृतियों के पात्रो का इतिहास कभी न मृत होने वाले इतिहास है क्योंकि वर्तमान में आते ही वे पात्र फिर से जीवत हो अपने दैनिक कर्मो में निवृत हो जाते हैं और पाठक को वे अपने करीब का जीवन का आभास देते हैं. कहते हैं जितना बड़ा इंसान होगा उसके साथ उतने ही बड़े विवाद जुड़े होंगे. कृष्णा जी का जीवन भी विवादों से घिरा रहा और उन्होंने हमेशा उससे डट कर सामना किया. कभी अपनी किताबों के शीर्षकों पर अधिकार के लिए लड़ी तो कभी  आज की उम्र में भी वे वकील केस बहस आदि के झगड़ों से अलग नहीं हुयी हैं अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा उन्हें इन विवादों में खर्च करना पड़ा है. पर जो थक कर हाथ खड़े कर दे वो खिलाड़ी ही क्या. वे सच के साथ रहती है इसलिए पीछे हटने का सवाल ही नहीं अपने निज की अस्मिता को गहरे से समझने की वकालत करने वाली कृष्णा जी अपने लेखन की तरह ही अपने जीवन में अनोखी और अद्भुद हैं. बिना किसी लाग लपेट के जीवन के पत्तों को दुनिया के सामने रखने वाली कृष्णा जी कभी सनसनीखेज़ और दिखावटी जीवन में नहीं पड़ी. कृष्णा सोबती जी के साथ बिताया गया समय मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
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विपिन चौधरी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

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