25 मई, 2025

विपिन चौधरी की कविताऍं


एक

अदृश्य को दृश्य 











सारी उपस्थितियां,

अपनी पसंद के फ़ूलों में 


सारी कामनाएं, 

अपनी अभिरुचि की धुनों में 

तब्दील हो गईं 


बाकी जो कुछ भी बचा 

वह अदृश्य सा

मन में ठहरा रहा 


मन का घड़ा यूं भरता ही रहा 

उन अदृश्यों से 

जो दृश्यों की पकड़ में नहीं आ सके 


दृश्य, 

निराशा की गिरफ़्त में रहे अक्सर 

और अदृश्यों ने कभी परेशान नहीं किया 


सिलसिला यही चला उम्र भर 

इसी के चलते वह पुल हाथ नहीं लगा 

जिसपर चलकर 

किसी अदृश्य को दृश्य में तब्दील कर 

उसके भीतर के यथार्थ की चिंगारी को 

हवा दी जा सके 


उन कुछ दृश्यों को भी कहाँ अनदेखा किया जा सका 

जो मेरे करीब ही ठहर गए थे 

स्मृतियों की शक्ल में   

००


दो

ये दिन, ये दरवाज़ें 


एक दिन का दरवाज़ा 

दूसरे दिन में खुलता है 

जहाँ सोई हुई हैं कुछ मीठी स्मृतियाँ 

उन्हें झकझोर कर उठाने से हिचकती हूँ 

कि उन्हें गहरी नींद में सोते देखने का सुख 

एक बहुत बड़ा सुख बन गया है

मेरे नज़दीक


दूसरे दरवाज़े से निकलकर 

तीसरे दरवाज़ें में प्रवेश करती हूँ 

जहाँ कुछ मधुर सुर सुनायी दे रहे हैं 

मालूम पड़ता है जैसे इतने मधुर सुरों पर 

आज से पहले कभी अपने कान नहीं धरे 

उन एक-एक सुरों को अपने भीतर उतारते हुए 

उन्हें भी वहीं छोड़ आती हूँ कि 

मुझे अधिक किसी और का हक़ उस मधुरता पर है 


तभी एक घंटी बजती है 

सारे खुले दरवाजों को होले से भेड़ते हुए 

लौट आती हूँ अपने भीतर 

खोजती हूँ ऐसी जगह जहाँ इन यादों को समेट कर रखा जा सके

इन पलों की यादों को थोडा-थोड़ा इस्तेमाल कर 

जिए जा सके आने वाले दिन  

अभिभूत हुआ जा सके उस वर्तमान से

जो अभी से जीने की तैयारी में लग गया है 

बीतेंगे जो इन सहेजे गए पलों के बूते

आखिर स्मृतियाँ का भी हिस्सा है इस जीवन पर 

और उम्मीदों का भी स्मृतियों के साथ होते होते उनसे आगे निकल जाती हैं 

   ००

तीन 

अचेतन


बहुत गहरा अंधेरा है  यहाँ  


इसी घटाटोप में 

दो हृदय मानो एक दूसरे को 

गलबहियाँ डाले 

इस तरह से रुदन कर रहे हैं 

मानों उसके निकट आ गई हो 

खोई हुई कोई अज़ीज़ स्मृति


अचेतन ऐसे ही बुनता है अक्सर कई किस्से 

दौड़ते-भागतों को 

वहीं पर जड़ करने के लिए 

००

चार

इस संसार में होने का दुख 


कहां है वह जीवन, 

जो बिना पुकारे ही बेहद करीब चला आया था

वह उम्मीद,

जो बिना खाद-पानी ही 

फैलने-फूलने लगी थी

सपनों का वह अद्भुत संसार, 

जो रोज़ आंख खुलते ही ऊंची मुंडेर पर जा बैठता था

और आंख बंद होते ही सीधा 

नींद के गिलाफ़ में प्रवेश कर जाता था

वह उर्जा,

जो दिन रात की चहल-कदमी के लिए 

रोज़ एक लम्बा पुल तैयार कर दिया करती थी


इधर जो गहरी खामोशी परोसने वाला

आत्मा तक को उलीच देने वाली पीड़ा अंतस में भर देने वाला

एक सुन्दर मन को देख-सुन न पाने की घोर

निराशा वाला कुकुरमुत्ता सा  संसार उग आया  है


उसे किसने रचा है ?


क्या ईश्वर ऐसी दुनिया बनाना भी सीख गया है

जहां वह सुख की तह के ठीक पीछे 

दुख को इस कारीगरी से चिपका देता है

कि कोई जान ही पाता की

सुख कभी का घिस चुका है 

और कोई बहुत देर से 

दुख की ज़मीन पर खड़ा होकर

अपने तलवों पर सुख का छ्द्म अनुभव कर रहा है


ऐसा शैतान, ऐसा पीड़क

ईश्वर 

पहले तो कभी ना था

००












पॉंच 

नेपथ्य में प्रेम 


प्रेम ने देख लिए थे कई समुन्द्र 

लांघ लिए थे कई दरिया


बोल चुका था कई शब्द 

जमा कर लिए थे कई अहसास 


वह स्वर्ग तक की सैर 

भी कर आया था


अब भी मगर उसे

बहुत कुछ देखना बाकि था


इस घड़ी वह आसमान के उन तारों की  

गिनती कर रहा है

जो कभी थे

उसकी झोली में सिमट आये थे 


उस खामोशी को गुन रहा है

जो प्रेम की वाचालता के बीच 

कहीं खो गयी थी


प्रेम का यह नया संसार है

पछाड़ खाती लहरों के बीच 

डूबते-उतरते हुए जब भी

घड़ी-घड़ी सांस लेने के लिए 

निकालाती है 

जल से बाहर अपना सिर 

दिखता है उसका वह सलोना 

रूप


प्रेम ने पहले जिसे 

अपने आंचल से पूरी तरह से

उघाड़ा भी नहीं था


तब तक वह प्रेम के इस नए पक्ष से 

परिचित भी कहां थी

००


छः 

इस मौसम को आने दो


सब मौसम गहरी टीस

गहरी उदासी देकर लौट जाते हैं

जैसे वे सब  पीड़ा देने के लिए ही

प्रकृति का अटूट हिस्सा बने हों

जैसे मनुष्य आते-जाते  मौसमों की इसी उदासी को अपने सिर-माथे लगाने के लिए अभिशप्त हों

 

एक बडा सा संसार 

प्रकृति  प्रदत्त  इन्ही उदासियों को अपने सीने पर उठाए ही दुनिया से कूच कर गया

जिसके बाशिंदे सभी प्रकार, सभी आकार के रंगों की उदासियों से रिश्तें निभाना पसंद करते थे 

उदासियों की कतरनों को इकट्ठा करते थे 

ऐसे लोग मुझे हमेशा से अपनी ही बिरादरी के लोग-बाग लगते रहे हैं 

उनकी पीड़ा अपनी ही पीड़ा लगती रही है

जैसे मेरे ही दुख की आंच में रंधा हो उनका भी दुख

जैसे दुख में मेरा विलाप

उनके ही दुख का आईना हो


यह सब जानते समझते बुझते हुए भी दुख के  मौसम को आवाज देती हूं

इस मौसम से बेइंतिहा प्रेम करने लगी हूं अब 

पुकार रही हूं इस मौसम को 

कि आओ और गुज़र जाओ ठीक मेरे बीच से 

सौंप दो मेरे पुरखों की तरह मुझे अकूत उदासी की दौलत 

आने दो इस मौसम को पहलू में मेरे 

मैं उसका चेहरा ठीक अपने चेहरे के करीब चाहती हूं

कि दूर ठहरा वह मौसम बेहद करीब का मौसम जान पड़ता है अब 

जान पड़ता है मेरा सबसे खोया हुआ कोई प्यारा सा सगा

००

संक्षिप्त परिचय 

विपिन चौधरी: महत्वपूर्ण कवयित्री। कहानीकार।अनेक किताब प्रकाशित। दिल्ली में रहती है।



खेमकरण ‘सोमन’की कहानी


दिनांक: 30 मई, सोमवार

पता गलत है।                      

हैल्लो अनुपमा जी!

मैंने आज के अखबार में आपके बारे में पढ़ा। आपकी रूचियों के बारे में पढ़ा। इससे पहले मैं भी इसी पेज पर छपा हूँ। शायद आपने देखा होगा। उसके बाद भी कोई बहुत अच्छा फ्रेण्ड नहीं है मेरा। आपको ‘हैल्लो यंग’ पेज पर देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। मन किया कि मैं आपसे दोस्ती करूँ। इसलिए मैं अपना बायो-डाटा भेज रहा हूँ। आपको अजीब लगेगा लेकिन कोई बात नहीं। इसमें मेरे बारे में सब कुछ लिखा हुआ है। ए टू जेड। कुछ बातें ऐसी भी हैं जो मेरे मम्मी-पापा भी नहीं जानते। प्लीज...मेरी दोस्ती स्वीकार कर लेना। आपको पत्र लिखकर आज मैं बहुत खुश हूँ।

शुभकामनाओं के साथ

आापका दोस्त,

आकाश

           












दिनांकः 28 जून, मंगलवार

हैल्लो अनुपमा जी, 

पहले तो मैं खुश हुआ कि मेरा कोई पत्र आया है ! लेकिन लिफाफा खोलकर देखा तो उसमें मेरा ही पत्र निकला। लिफाफे के ऊपर लिखा हुआ था पता गलत है। जबकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ, आपका पता बिलकुल सही है। लिफाफा देखकर लगता है कि आपने इसे खोलकर भी पढ़ा है।

अनुपमा जी, अब यह न समझिएगा कि मैं आपसे नाराज हो गया हूँ। आपने मेरी दोस्ती स्वीकार नहीं की है तो इसका कारण भी अच्छी तरह जानता हूँ। आप लड़की हैं, मैं लड़का हूँ। और हम दोनों ही अजनबी हैं। इसलिए यकाएक दोस्ती भी नहीं होनी चाहिए। कुछ जाँच-परख भी तो आवश्यक है। इस कारण आपकी शंका-आशंका मैं भलीभांति जान रहा हूँ तथा एक पत्र अब और भेजने की गुस्ताखी कर रहा हूँ ताकि आप मेरी दोस्ती स्वीकार कर लें। इसी के साथ मैं अपना पेन कार्ड-वोटर आई.डी. की जेरोक्स कॉपी भी भेज रहा हूँ। जिसे देखकर आप जान-समझ सकें कि मैं एक सही लड़का हूँ। प्लीज अनुपमा जी प्लीज... अब पत्र वापिस मत भेजिएगा। 

आई होप कि... आप अच्छी होंगी।

आापका दोस्त,

आकाश    


दिनांकः 20 जुलाई, बुद्धवार  

हैल्लो अनुपमा जी!

आपने फिर वही, 30 मई के पत्र की तरह, 28 जून को लिखे गए पत्र को भी बहुत बेरहमी के साथ वापिस कर दिया! वही, पुरानी बात लिखकर कि पता गलत है! जबकि पत्र को देखकर, साफ-साफ पता चल रहा है कि आपने इस बार भी इसे पढ़ा है! लिफाफा उस तरह चिपका नहीं हैं, जिस तरह मैं चिपकाकर भेजता हूँ। लिफाफे को देखकर कोई भी ये बातें कह सकता है!


सच! मैं अपने कमरे में आज बहुत रोया। आज मेरा जन्मदिन भी है। मुझे पूरा विश्वास था कि आप जन्मदिन की शुभकामनाएँ देंगी। हो सकता है कुछ गिफ्ट भी भेजें। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। रियली... आज मैं बहुत अपसेट था। मम्मी-पापा जी भी कह रहे थे कि बेटा एनी प्रॉब्लम! अब उन्हें क्या बताता ? बस चुप ही रहा। अब रात 11 बजे आपको पत्र लिख रहा हूँ।

अनुपमा जी, मैं बहुत सी लड़कियों को जानता हूँ लेकिन, मैंने कभी किसी से कोई अपशब्द नहीं कहा। कभी किसी से कोई बद्तमीजी नहीं की। मैं माँ-बहनों की इज्जत करने वाला बहुत ही अच्छा लड़का हूँ। मेरे अच्छे माता-पिता को मुझसे बहुत अपेक्षा है कि मैं इस दुनिया के लिए कुछ बेहतर करूँ। सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करूँ। मेरी छोटी बहन संजना इस दुनिया में मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। परन्तु मैं चाहता हूँ कि मेरी सबसे अच्छी दोस्त आप बनें। प्लीज!


अनुपमा जी, आपसे दोस्ती करने के पीछे भी कुछ ठोस वजह है। मैंने जब से आपकी फोटो देखी है, तब से मेरे मन-मस्तिष्क पर आप छा गई हो। यकीन कीजिए, आप बेहद खूबसूरत हैं। शायद, मुझे आपसे प्यार भी हो गया है। मैंने आपको फेसबुक पर खोेजने की बहुत कोशिश की परन्तु आप नहीं मिली। मैंने ट्वीटर पर भी आपको बहुत खोजा लेकिन...यहाँ भी असफल रहा। गूगल ने भी मेरी मदद नहीं की। मैं अब क्या करूँ? मेरे पास आपका फोन नम्बर भी नहीं है। ले-देकर अखबार वाली फोटो ही बची है। इन दिनों मैं आपको लेकर बहुत बेचैन रहने लगा हूँ। पता नहीं किस स्थिति में होंगी आप?

 

प्लीज इस बार मेरा पत्र वापिस नहीं भेजिएगा। प्लीज, मैं हाथ जोड़कर निवेदन करता हूँ। प्लीज… कुछ तो लिखकर भेजिए। हो सके तो अपना नया फोटो भेजिएगा। मोबाइल नम्बर भी और खासकर अपना व्हाट्सऐप नम्बर तो जरूर।

घर में सभी सदस्यों को मेरा प्रणाम कहिएगा।

आापका दोस्त,

आकाश    

           

दिनांकः 25 अगस्त, बृहस्पतिवार

हैल्लो अनुपमा जी!

आपको पत्र भेजे आज पैंतीस-छत्तीस दिन हो गए हैं। आपने मुझे उत्तर नहीं दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि आप मुझे पत्र जरूर लिखोगी। क्योंकि इस दुनिया में मेरी सबसे अच्छी दोस्त आप हो। सिर्फ आप!


पता है आपको! आज संजना ने वो सारे पत्र पढ़ लिए जो मैंने आपको लिखे थे, जिसे आपने वापिस कर दिया था। वह बोली भैया आपको कुछ-कुछ प्यार हो गया है। उसने अपनी सहेलियों को भी बता दिया। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने उसे एक जोर का तमाचा मार दिया। शायद अपने जीवन में पहली बार मारा होगा। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसका भाई ऐसा भी कर सकता है।


अनुपमा जी, मैं नहीं चाहता कि मेरे और आपके बीच में कोई दूसरा आए। सच कह रहा हूँ, इन दिनों मेरा मन किसी भी काम में नहीं लग रहा है।

आपके पत्र के इन्तजार में,

आपका दोस्त,

आकाश

 

 दिनांकः 23 सितंबर, शुक्रवार

हैल्लो अनुपमा जी, 

आपने फिर मेरे दोनों पत्रों को अलग-अलग दो बड़े लिफाफों में रखकर वापिस भेज दिया है। लिफाफे के ऊपर आपने फिर लिखा है-पता गलत है। अगर पता गलत है तो पत्रों को जैसे मैंने भेजा है, ठीक उसी रूप में वापिस आने चाहिए, लेकिन ऐसा तो हो नहीं रहा। लिफाफे को देखकर लगता है कि आप हर बार मेरे पत्रों को पढ़ती हो! फिर लिफाफे को बंद करके उसे नए लिफाफे में वापिस भेज देती हो, यह लिखकर कि पता गलत है! क्यों अनुपमा जी? क्यों करती हो ऐसा? क्या मुझसे कोई गलती हो गई है? क्या मैं आपको पसंद नहीं हूँ? अगर आपको मैं पसंद नहीं हूँ तो एक-दो पत्र लिख ही सकती हो। पत्र लिखकर कह तो सकती हो आकाश, तुम मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं हो। लेकिन मैं जानता हूँ आप मेरी दोस्त हो और मेरी दोस्ती व मेरे प्यार की परीक्षा ले रही हो! बिलकुल आप लीजिए। ये आपका हक है।


अनुपमा जी, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि आपका पोस्टल एड्रेस सही है, इसलिए प्लीज... आप ये मत लिखा कीजिए कि पता गलत है।


बहुत ही बेसब्री से आपके पत्र के इन्तजार में,

आपका दोस्त,

आकाश


दिनांकः 15 अक्टूबर, शनिवार

हैल्लो अनुपमा जी!

कैसी हो? मेरी प्यारी, दोस्त कुछ तो बताओ?


मैं अपनी तैयारियों के सम्बन्ध में इलाहाबाद गया था। मेरे भविष्य के लिए चिन्तित मम्मी-पापा ने कहा जाओ कुछ बनकर आना लेकिन अनुपमा जी, आपके लिए वापिस अपने घर आ गया हूँ। मम्मी-पापा कह रहे थे क्या हुआ? अचानक वापिस क्यों आ गए? मम्मी-पापा तो कितनी बार कह चुके हैं कि इधर कुछ महीनों से मैं गुमसुम-गुपचुप सा रहने लगा हूँ। कुछ दुखित सा-कुछ उदास सा। अब उनको ये कैसे बताता कि मेरा मन तो, मेरी दोस्त अनुपमा के बिना नहीं लग रहा है। जब इलाहाबाद में था तो बार-बार लगता था कि आपने मेरे पत्रों का जवाब दिया होगा। वहाँ तो मेरी एकमात्र सहारा वही आपकी खूबसूरत फोटो थी। और यहाँ भी हैं। 


अनुपमा जी, मै आपको बहुत चाहता हूँ। लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि पिछले पाँच-छह महीनों से आप मुझे क्यों नहीं कुछ तबज्जो दे रही हो? जबकि मैं तमीज-तहजीब वाला लड़का हूँ। प्लीज एक बार तो मेरी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दीजिए। बस एक बार...।


आपकी खुशियों की कामना करते हुए,

आपका दोस्त,

आकाश

 

दिनांकः 06 नवम्बर, रविवार

हैल्लो अनुपमा जी!

आप भी तो मुझे हाय-हैल्लो कह दिया करो!


मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप मुझे खारिज क्यों कर रहीं हो? क्यों मेरे पत्रों को बार-बार लौटा रही हो? हर बार लिफाफे पर लिख देती हो-पता गलत है। पता गलत है और पता गलत है! मुझे बताईए कि मुझसे कहाँ गलती हो गई है? सच कह रहा हूँ। मैं अन्दर से अब पूरी तरह टूट चूका हूँ। आपने मुझे बहुत निराश किया है। आप न मेरी दोस्ती को समझ पा रही हो न ही मेरी भावनाओं को। मैं मई से ही आपके लिए बहुत डिस्टर्ब रहा हूँ। कुछ कमजोर भी हो गया हूँ। पढ़ाई में तो बिलकुल भी मन नहीं लगता। किताब के हर पन्ने पर सिर्फ आप दिखती हो। दिन में भी पता नहीं कहाँ खोया रहता हूँ। खीझ भी उत्पन्न होती है। इसी कारण कितनी बार अपने मम्मी-पापा को बुरा भला भी कह दिया है मैंने। अनुपमा जी, मैंने आपको इतने पत्र लिखे हैं लेकिन आपने मेरे किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया। प्लीज एक बार...बस एक बार। मेरी ओर तो देखो! कब तक मेरी परीक्षा लोगी! अरे! मैं तो ऐसा हूँ कि आपके लिए जान भी दे सकता हूँ!

अनुपमा जी, इसलिए यदि अब आपने मुझे पत्र नहीं भेजा या इस पत्र को वापिस लौटाया तो मुझे अपने परिवार की कसम! मैं आपके घर हापुड़ आ जाऊँगा। बस, सात घण्टे के अन्दर आप तक पहुँच जाऊँगा! तब आप मुझे ठुकरा नहीं पाओगी! मैं हण्ड्रेड परसेण्ट श्योर हूँ कि आपका पोस्टल एड्रेस सही है। 


ये पत्र अधूरा है। मैं चाहता हूँ कि आप इसी अधूरे पत्र को पूरा कीजिए। इसी अधूरे पत्र में अपनी बात कहिए!


प्लीज अनुपमा जी, प्लीज... आपको मेरी कसम!

आपके जवाब के इन्तजार में,

आपका दोस्त,

आकाश      

 












दिनांकः 05 दिसबंर, सोमवार

प्रिय आकाश, खुश रहो हमेशा। 

आशा है घर-परिवार में सब लोग कुशल मंगल होंगें।

प्रिय आकाश, अभी तक मैंने तुम्हारे सारे पत्रों को पढ़ा हैं। इसलिए तुम मेरे लिए खुली किताब हो और कोई शक भी नहीं कि तुम अच्छे लड़के हो। अपने महाविद्यालय के टॉपर रहे हो। अच्छा काम भी करते हो। वहीं, मेरे प्यारे दोस्त, किसी लड़की को जाने बिना, उसकी दोस्ती या कहूँ प्यार के लिए आप बहुत नीचे और पीछे भी चले जाते हो। दुनिया की सबसे अच्छी दोस्त अपनी बहन को भी पीट देते हो। सिर्फ इस बात पर कि उसने तुम्हारा प्रेम-पत्र पढ़ लिया है, जो कि मेरी नजरों में प्रेम पत्र भी नहीं है। अपने माता-पिता पर भी झल्लाते हो। इलाहाबाद से भी वापिस आ जाते हो। प्यार के कारण अपनी पढ़ाई चौपट कर लेते हो। बायोडेटा में दुनिया को बदलने का दावा करने वाले आकाश, तुमको ये क्या हो गया है! न कैरियर का ख्याल, न परिवार का ध्यान। अपनी दयनीय हालत तो देखो।


प्रिय आकाश, तुम्हारे पत्रों को पढ़कर पता चलता है कि पिछले सात-आठ महीनों में तुम बहुत डगमगा गए हो। अब जब तुमने पत्रों के उत्तर न देने पर अनुपमा के घर हापुड़ आने की बात कही तो मुझे लगा कि अब समय आ गया है कि इस अधूरे पत्र को पूरा किया जाए। कलम उठाई जाए।


प्रिय आकाश, ये सच है कि अनुपमा का पोस्टल एड्रेस सौ प्रतिशत सही है। मैं भी हर बार तुम्हारे पत्रों को लेकर अनुपमा के पास जाता रहा, लेकिन वह लड़की पत्र-लेने से इनकार करती रही। मैं तुम्हारे पत्रों को घर आकर पढ़ता था। फिर मूल लिफाफे पर ‘पता गलत है’, इतना लिखकर उस पत्र को एक नए लिफाफे में रखकर तुमको भेज दिया करता था। हर बार यही सोचकर कि अब तुम पत्र नहीं भेजोगे लेकिन भाई! तुम तो गजब के प्रेमी निकले! तुमने तो पत्रों  की झड़ी ही लगा दी। कोई ऐसा भी कर सकता है? हद है भाई!


प्रिय आकाश! अब आगे सुनो! मैंने जिंदगी भर ईमानदारी से काम किया है। मैं आज भी दूर-दराज के गाँव में पत्र लेने-देने जाता हूँ। आँधी तूफान, बारिशों में भी। मेरा कोई भी दिन नागा नहीं जाता है। जानते हो क्यों? हो सकता है उस पत्र में किसी का भविष्य छुपा हो ताकि मुझे, तुम जैसे कुछ करने का जज्बा रखने वाले युवा और ईमानदार अधिकारी मिल सके, क्योंकि हमारा समाज अभी बहुत अच्छा बन नहीं पाया है। व्यवस्था दमघोंटू है। समाज को अभी बहुत बदलावों से गुजरना है। और वो बदलाव होगा तुम जैसे युवाओं से। गम्भीरता से सोचोगे, तब लगेगा कि तुम तो खुद ही समस्याओं की गढ़ उत्तराखण्ड में रहते हो! तुम्हारे यहाँ के युवाओं की निष्क्रियता के कारण ही उत्तराखण्ड के नेता-मंत्री पहाड़ और मैदान लूट रहे हैं! उत्तराखण्ड की आपदाएँ-समस्याएँ यहाँ के नेताओं-मंन्त्रियों के लिए लंच, ब्रेकफास्ट और डिनर है। क्या कहूँ, लगभग यही स्थिति पूरे भारत की है! आशा है, तुम मेरी बातें गम्भीरता से समझ रहे होगे! 


प्रिय आकाश! लड़कियों से दोस्ती करना या प्यार करना बुरा नहीं हैं। बुरा है अखबारी फोटो देखकर प्यार करना और स्वयं के मर जाने की धमकी देना। अपने परिवार को हाशिये पर ही रख देना। बड़ा ही अजीब मामला है तुम्हारा! लेकिन विश्वास करता हूँ कि तुम मुझ अदने से पोस्टमैन की यह बात भी समझ रहे होगे। बातचीत के क्रम में मैं यह भी बता दूँ कि इसे  संयोग ही समझा जाए कि मेरा नाम भी आकाश है, और तुम्हारा नाम भी आकाश! बहरहाल, मुझे माफ करना कि मैंने तुम्हारा पत्र पढ़ा, लेकिन कभी-कभी ऐसा काम भी कर लेता हूँ मैं।


अंत में इतना ही कहूँगा कि अब कभी भी अनुपमा को पत्र मत लिखना, उसकी शादी की बात चल रही है, अतः पढ़ाई लिखाई की ओर ध्यान देकर नए जीवन की शुरूआत करो और अपने समय का उद्घोषक बनो। 

शुभकामनाओं के साथ,

तुम्हारा दोस्त,

आकाश

०००


संक्षिप्त परिचय 

जन्म:  02 जून 1984,  रूद्रपुर, उत्तराखण्ड।

शिक्षाः राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रूद्रपुर, ऊधम सिंह नगर (कुमाऊँ विश्वविद्यालय नैनीताल) से हिंदी विषय में एम0ए0, सरस्वती इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट टेक्नोलोजी से बी0एड0, टीईटी, यूजीसी-सेट, यूजीसी नेट-जेआरएफ, और डॉ0 सावित्री मठपाल जी के निर्देशन में हिंदी लघुकथा पर पीएच0 डी0। उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय हल्द्वानी से समाजशास्त्र में एम0ए0।

कार्यक्षेत्र: अध्यापन-लेखन। कविता, कहानी, समीक्षा, आलोचना और बाल साहित्य आदि विधाओं में सक्रिय। सामाजिक-सांस्कृतिक और शैक्षिक मुद्दों पर लेखन। 

प्रकाशित कृतियाँ: 

कविता संग्रह: नई दिल्ली दो सौ बत्तीस किलोमीटर, संस्करण 2022

कविता संकलन: दस्तक (दस कवि), संस्करण 2022

लघुकथा संकलन: 

पड़ाव और पड़ताल, खण्ड-15 (छह लघुकथाकार)

लघुकथा सप्तक (सात लघुकथाकार) 

कई कविता संग्रह-लघुकथा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित।


पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग में प्रकाशन: कथाक्रम, परिकथा, कथादेश, लमही, बया, वागर्थ, यथावत, पुनर्नवा, अनुनाद, पहली बार, सब लोग, पाखी, दैनिक जागरण, विभोम-स्वर, नया ज्ञानोदय, लघुकथा कलश, आधारशिला, सेतु, पुरवाई, वीणा, गुफ्तगू, लघुकथा डॉट कॉम, कविता विहान, शैक्षिक दखल, युगवाणी, गुलमोहर, उत्तरा महिला पत्रिका, गाथांतर, आजकल, कादम्बिनी, कृति ओर, प्रतिश्रृति, साहित्य अमृत, पाठ, मेहनतकश, विज्ञान प्रगति, अविराम साहित्यिकी, शिवना साहित्यिकी, अविसद, सोच विचार, एक और अंतरीप, हिंदी चेतना, अमर उजाला, प्रेरणा-अंशु, परिंदे, जनकृति, सरस्वती सुमन, दि संडे पोस्ट, मधुराक्षर, युगवाणी, आधारशिला, अक्सर, साहित्य यात्रा, साहित्य कुंज, परिवर्तन, उदंती.कॉम, नैनीताल समाचार, अमर उजाला और उत्तर उजाला आदि पत्र-पत्रिकाओं-ब्लॉग में प्रकाशित। रचनाओं का आकाशवाणी रामपुर (उत्तर प्रदेश) से नियमित प्रसारण। डेढ़ दर्जन से अधिक शोधपत्रों का प्रकाशन।


सम्मान/पुरस्कार:

कहानी ‘लड़की पसंद है’ पर दैनिक जागरण द्वारा युवा प्रोत्साहन पुरस्कार।

कथादेश अखिल भारतीय हिंदी लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा ‘अन्तिम चारा’ को तृतीय पुरस्कार।


सम्प्रति: असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, 

राजकीय महाविद्यालय तलवाड़ी-थराली, जिला : चमोली, 

उत्तराखण्ड, पिनकोड : 246482


संपर्क:  खेमकरण ‘सोमन, 

द्वारा श्री बुलकी साहनी, 

प्रथम कुंज, अम्बिका विहार, भूरारानी, वार्ड-32, रूद्रपुर, जिला- ऊधम सिंह नगर, 

उत्तराखण्ड-263153, मोबाइल : 09045022156

ईमेल : khemkaransoman07@gmail.com

06 मई, 2025

कहानी: सच्चा दोस्त


मूल रूसी- लिअनीद अन्द्रयेइफ़ 

मूल रूसी से अनुवाद : सरोज शर्मा


व्लदीमिर जब रात को देर से अपने घर लौटते और दरवाज़े की घंटी बजाते, तो घंटी की आवाज़ के तुरंत बाद उन्हें अपने कुत्ते का भौंकना सुनाई देता। उन्हें कुत्ते के भौंकने के स्वर ऊपर-नीचे होने से इस बात का अंदाज़ हो जाता था कि वह किसी अजनबी के घर में घुसने से डर रहा है या फिर अपने किसी क़रीब के व्यक्ति के घर लौटने पर ख़ुश हो रहा है। कुत्ते के भौंकने के बाद उन्हें दरवाज़े की तरफ़ बढ़ते क़दमों की आहट और अंत में दरवाज़े की कुंडी खुलने की चरमराहट सुनाई देती थी। घर में घुसते ही व्लदीमिर अँधेरे में ही अपने जूते और कोट उतारने लगते थे। उनकी चाची एक तरफ़ खड़ी होकर उनींदेपन में अनमनी सी उनके हाल-चाल पूछतीं और दूसरी तरफ़ उनका कुत्ता वास्युक गर्मजोशी से उनका स्वागत करता। वह पूँछ हिलाता हुआ उनके चारों तरफ़ चक्कर लगाता, उछलता हुआ अपने पंजें बार-बार उनके घुटनों पर टिकाता और अपनी गरम जीभ से उनके ठण्डे हाथ चाट-चाटकर गरम करता।











व्लदीमिर अपनी चाची के सारे सवालों का एक छोटा-सा जवाब देते, — ‘मैं थक गया हूँ’ और फिर अपने कमरे में घुस जाते। उनके पीछे-पीछे वास्युक भी उनके कमरे में आकर उनके पलंग पर चढ़ जाता। वे बत्ती जलाते और जैसे ही कमरे में रौशनी होती, व्लदीमिर साहब की निग़ाहें अपने कुत्ते की कजरारी आँखों से मिलतीं। वास्युक निग़ाहों ही निगाहों में उन्हें अपने पास बुलाता। उसे देखकर लगता कि वह कह रहा है — मेरे पास तो आओ ! आओ न मेरे पास, सहलाओ न मुझे ! इसके बाद वह उनका ध्यान पूरी तरह से अपनी ओर आकर्षित करने के लिए अपने आगे के पाँव सामने फैलाकर, उन पर अपना मुँह टेककर व्लदीमिर को एकटक निहारता रहता और अपनी पूँछ हिला-हिलाकर बार-बार ख़ुद को सहलाने का हठ करता। व्लदीमिर उसके पास आते, पलंग पर बैठते और उसके घने चमकीले बालों में हाथ फेरते हुए कहते — इस दुनिया में, बस, एक तू ही तो मेरा सच्चा दोस्त है !


जब व्लदीमिर वास्युक के पास बैठकर उसे सहलाते तो उसे बेहद मज़ा आता था और वह तेज़ी से अपनी पूँछ हिला-हिलाकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करता था। वह अपने आपको एकदम ढीला छोड़कर कभी एक करवट लेटता तो कभी दूसरी, और बीच-बीच में किकियाता भी। कुत्ते को ख़ुशमिज़ाज देखकर व्लदीमिर ख़ुद भी ख़ुशी से मंद-मंद मुस्कुराते, उसे दुलारते और मन ही मन कहते — जितना तुम मुझे चाहते हो, इस दुनिया में कोई और दूसरा मुझे इतना नहीं चाहता !


व्लदीमिर अभी जवान ही थे और लिखने-पढ़ने में उनकी गहरी रुचि थी। वे लेखक बनना चाहते थे। जब कभी वे काम से घर जल्दी लौट आते और बहुत अधिक थके हुए नहीं होते, तो वे लिखने के लिए बैठ जाया करते थे। तब उनका कुत्ता भी अपने चारों पाँव और मुँह समेटकर, एक गठरी-सी बना उनके पास बैठा रहता था। वह नींद में ही कभी-कभी एक आँख थोड़ी-सी खोलकर उनकी तरफ़ देखता और धीरे-धीरे पूँछ भी हिलाता। व्लदीमिर को जब कोई शब्द भूल जाता था, तब वे कुर्सी से उठकर कुछ सोचते हुए कमरे में चहलक़दमी करते और एक के बाद एक दो-तीन सिगररेटें पी जाते। व्लदीमिर का बहुत अधिक सिगरेट पीना वास्युक को कतई नहीं सुहाता था। तब वह अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से पूँछ हिलाकर किकियाता था।


उसकी बेचैनी देखकर व्लदीमिर वास्युक के पास आकर उससे बातें करते और उसे दुलराते हुए उससे पूछते — वास्युक, तुम्हें क्या लगता है, क्या मैं कभी जानामाना लेखक बन पाऊँगा ? क्या कभी हम दोनों को भी शोहरत मिलेगी ? इसके जवाब में कुत्ता अपने हाव-भाव से ’हाँ’ कहता और हिनहिनाता।


— यह हुई न बात, तो, मेरी जान, जब मैं मशहूर हो जाऊँगा तब तुम्हें ख़ूब गोश्त खिलाऊँगा। पेट भरकर खाना और मस्त हो जाना। ठीक है न ?


वास्युक को गोश्त बहुत पसंद था, इसलिए वह एक बड़ी-सी अंगड़ाई लेकर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करता ।


कभी-कभी व्लदीमिर के घर में दोस्तों की महफ़िलें जमती थीं। उन पार्टियों के इंतज़ाम का सारा बोझ चाची के सर पर पड़ता था। वे खाने के सामान से लेकर वोदका तक ख़रीदकर लाया करती थीं। अपनी जेब में पड़े चिकटे और मुड़े-तुड़े रूबलों में से कुछ खर्च करते हुए उन्हें बहुत दुख होता था। जब व्लदीमिर की महफ़िल जमती तो उसके दोस्त खाने के साथ-साथ वोदका पीते, हँसी-ठठ्ठा करते और सिगरेटों का धुआँ उड़ाते हुए ज़ोर-ज़ोर से बातें करते। वे सब के सब अपनी ज़िन्दगी से नाख़ुश थे। उन सभी को अपने नसीब से शिकायत थी और दूसरों की कामयाबी देखकर उनके मन में जलन होती थी। व्लदीमिर के कुछ दोस्त ऐसे भी थे, जो उन्हें लेखन का घटिया काम छोड़कर दूसरा कोई ऐसा काम शुरू करने की सलाह देते, जिससे अच्छी कमाई हो। उनके कुछ पियक्क्ड़ दोस्त उनके साथ सिर्फ़ जाम टकराने के लिए उनके पास आते थे, तो उनके कुछ मित्र ऐसे भी थे, जो उन्हें शराब से सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में उन्हें नसीहतें देते। उनके ये मित्र उन्हें यह भी समझाते कि उनमें कोई अनोखी पहल करने की जो सनक-सी उठती है और समय-समय पर उन्हें अवसाद के जो दौरे पड़ते हैं, उन सबकी जड़ यह वोदका ही है।


एक बार व्लदीमिर के घर में महफ़िल जमी हुई थी। काफ़ी देर से उनके पियक्क्ड़ दोस्त वहाँ बैठे हुए थे और अपने घर जाने का नाम नहीं ले रहे थे। वे लोग घर जाने के बजाय किसी क्लब या शराबख़ाने में बैठकर मौज़-मस्ती करना चाहते थे। मेज़बान व्लदीमिर भी उनकी इस बात से सहमत थे। जब वे लोग बेबात ही ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए घर से शराबख़ाने के लिए निकल रहे थे, तब चाची को उनपर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था। वास्युक भी व्लदीमिर को इस हालत में देखकर बेहद परेशान था और उसकी आँखें नम थीं।


अगली सुबह जब व्लदीमिर घर लौटे, तो उनका हाल बे-हाल था। उनकी टोपी कहीं खो गई थी और कपड़े धूल-मिट्टी में सने हुए थे। शराब के असर से वे अपने होशो-हवास में नहीं थे। वे अपने यार-दोस्तों के साथ गाली-गलौज कर रहे थे। उन्होंने बिना बात ही चाची को भी ख़ूब डाँटा-फटकारा। वे पहले भी कई बार इस तरह की हरकतें कर चुके थे। उनके ऐसे बरताव से चाची बहुत दुखी रहती थीं। कभी-कभी तो वे इतनी नाराज़ हो जातीं कि ख़ुदकुशी कर लेने की धमकी तक दे डालती थीं। व्लदीमिर अपने सबसे प्यारे दोस्त वास्युक को भी नहीं बख़्शते थे। वास्युक जब देखता कि व्लदीमिर के पाँव डगमगा रहे हैं, तो वह उनसे कतराने लगता था। व्लदीमिर जब उसे पास बुलाते तो वह उनके पास जाने के बजाय एक कोने में दुबककर बैठ जाता था। यह देखकर व्लदीमिर आग-बबूला हो जाते और उसे दो-चार बेल्टें जड़ देते और फिर सो जाते।


शाम के समय जब सुबह से काम पर गए लोग घर लौट रहे होते थे, तब व्लदीमिर साहब की आँखें धीरे-धीरे खुलतीं और उन्हें पहले दिन की शाम और रात का ख़याल आता। वे वोदका की खुमारी में होते। उनका सर दर्द से फट रहा होता, पाँवों में खड़े होने की ताक़त तक न होती थी। उनकी तबियत बहुत बिगड़ जाती थी। कभी-कभी तो हालत इतनी ख़राब हो जाती थी कि ऐसा लगता कि अब उनका अख़िरी समय दूर नहीं है। जिस कमरे में वे सोते थे उसी से सटी हुई रसोई थी। वहाँ से चाची के काम करने और बर्तन भांडों की आवाज़ पूरे घर में गूँजती। जब-जब व्लदीमिर का ऐसा हाल होता था, चाची उनका पूरा ख़याल रखतीं, पर अपनी नाराज़गी जताने के लिए उनसे बात नहीं करती थीं।












एक दफ़ा व्लदीमिर की तबियत काफ़ी बिगड़ गई। बिस्तर पर पड़े-पड़े वे छत पर एक धब्बे को ताकते हुए सोच रहे थे कि मेरा जीवन यूँ ही बरबाद हो रहा है। उनके दिल में ऐसे-ऐसे विचार आ रहे थे कि जीवन में न तो उन्हें कभी ख़ुशी मिलेगी और न ही शोहरत हासिल होगी। वे ख़ुद को एकदम अकेला और कमज़ोर महसूस कर रहे थे। तब उन्हें ऐसा लग रहा था कि इस भरी दुनिया में एक भी आदमी ऐसा नहीं है, जिसके साथ वे अपने ग़म, नाक़ामयाबी और ख़ुदक़ुशी करने जैसे पागलपन के दुखड़े को बाँट सके। वे अपने आप को धिक्कारते हुए कह रहे थे — ये जीना भी कोई जीना है… उन्हें अपनी ज़िन्दगी बेमानी लग रही थी।


रात में उन्हें बेहद तकलीफ़ हो रही थी। उनका माथा पसीने से तर था और वे रुआँसे-से हो गए थे। वे काँपते हुए हाथों से अपनी कनपटियाँ कसकर दबा रहे थे। उन्हें अपने बदन से वोदका और सस्ते चुम्बनों की बू आ रही थी। उनकी आँखें बंद थीं और मुँह से कराह निकल रही थी। पास में ही बैठा वास्युक उन्हें एकटक देख रहा था, उसके कान खड़े थे और वह उनकी लम्बी-लम्बी साँसें सुन रहा था। उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था मानो वह उन्हें दिलासा देते हुए फुसफुसा रहा हो :


— मेरे प्यारे दोस्त ! तुम्हें क्या हो गया है ? क्या तुम बीमार हो गए हो ?


जब व्लदीमिर उस बीमारी से उबर रहे थे, तब उनके यार-दोस्त उन्हें देखने और उनका हालचाल पूछने उनके घर आया करते थे। कुछ लोग उन्हें प्यार से डाँटते और पीना छोड़कर अपनी सेहत का ख़याल रखने की सलाह देते।


धीरे-धीरे व्लदीमिर ने अपने पियक्क्ड़ दोस्तों से छुटकारा पा लिया और उनके घर अड्डा जमना बंद हो गया। पर वे एकदम अकेले हो गए। शोहरत की चाह और अपनी तन्हाई से मुक्ति की तलाश में वे ख़ुद से ही गुफ़्तगू करते और अकेले बैठकर पीते। इस वजह से उनकी रातें बेहोशी में और दिन मदहोशी में गुज़रने लगे। सुनसान घर में चाची के तेज़ क़दमों की आवाज़ें अक्सर सुनाई देतीं। और बिस्तर पर पड़े व्लदीमिर लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए बुदबुदाते :


— मेरे प्यारे वास्युक ! तुम अकेले मेरे दोस्त हो !...


समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। आख़िर व्लदीमिर के दिन भी पलटे और उनके लेखन को मान्यता मिलने लगी। ज़िंदगी में शोहरत उनके क़रीब आने लगी थी, जिसके वे अक्सर सपने देखा करते थे। उनके सुनसान घर में रौनक छाने लगी, फिर से संगी-साथियों के जमावड़े होने लगे। उनके शोर के बीच चाची के क़दमों की आवाज़ न जाने कहाँ ग़ायब हो गई और व्लदीमिर की तन्हाई भी छूमंतर हो गई। इन सबके साथ ही कुत्ते की फ़ुसफ़ुसाहट भी शांत हो गई।


शोहरत आने के साथ ही शराब का साथ भी छूट गया। अब व्लदीमिर लिखने में इतने मशगूल हो जाते कि न तो उन्हें वोदका पीने का ख़याल आता और न ही वे अपनी चाची को भला-बुरा कहकर उन्हें नाराज़ करते। अब उनपर शोहरत का नशा छाने लगा था।


व्लदीमिर की ज़िन्दगी में होने वाले इन नए बदलावों से वास्युक भी बेहद ख़ुश था। उन दोनों की दोस्ती और गहराने लगी थी। जब अपनी काम-काजी बैठकों के बाद व्लदीमिर शाम को ख़ुशमिज़ाजी में घर लौटते, तो वास्युक पहले की तरह तेज़-तेज़ भौंककर उनका स्वागत करता। उन्हें इतने अच्छे मूड में देखकर वह भी मुस्कुराता, उसने भी हँसना सीख लिया था। जब वह हँसता था तो उसका ऊपरी होंठ थोड़ा ऊपर उठ जाता, उसके सफ़ेद दाँत झलकने लगते और नाक के पास सलवटें पड़ जाती थीं। वह बहुत चुलबुला हो जाता और अपने मालिक के साथ खेलने के लिए आतुर हो उठता। उनके हाथ में जो भी चीज़ होती, वह उसे उनसे छीनकर, अपने होठों से पकड़कर ऐसे दिखाता, जैसे उसे लेकर कहीं भाग जाएगा। जैसे ही व्लदीमिर उसे पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाते, वह एक क़दम पीछे चला जाता और उसकी चंचल-कज़रारी आँखें चमक उठतीं। कभी-कभी व्लदीमिर हाथ से चाची की तरफ़ इशारा करके कुत्ते से कहते ‘काट इन्हें, काट ले, ओ कटखने !’। वास्युक सच में चाची के चारों तरफ़ चक्कर लगाता हुआ उन पर झपट्टा मारकर, अपने दाँतों से उनकी घघरी (स्कर्ट) थोड़ी-सी नीचे सरका देता। उसके बाद तिरछी निग़ाहों से वास्युक व्लदीमिर की ओर देखता। उसकी ये हरकतें देखकर बहुत कम हँसने वाली चाची भी मुस्कुराने लगतीं। वे उसे दुलराते हुए कहतीं — बहुत समझदार है हमारा वास्युक। बस, इसे सूप पीना ही पसंद नहीं है।



2


रात को पूरे घर में शांति छाई होती, बस, कभी-कभार जब कोई बड़ी गाड़ी सड़क पर से गुज़रती, तो खिड़की के काँच धीरे-से झनझनाने लगते। व्लदीमिर जब रात को देर क बैठकर लिखने का काम करते, तब कुत्ता उनके पास बैठा झपकी लेता रहता। व्लदीमिर के ज़रा-सा भी हिलने-डुलने से उसके कान खड़े हो जाते थे। तब वे उसकी तरफ प्यार से देखते हुए कहते — क्या है, भई ? क्या तुझे भूख लगी है ? क्या तू गोश्त खाना चाहता है ?


कुत्ता अपनी पूँछ हिलाता हुआ उनकी तरफ़ ऐसे देखता, मानो कह रहा हो — हाँ।


— हाँ, हाँ मैं तेरे लिए गोश्त ज़रूर ख़रीदूँगा। तू थोड़ा सब्र तो कर मेरे प्यारे, तुझे और क्या चाहिए ? तुझे सहलाऊँ क्या ! पर अभी तो नहीं सहला पाऊँगा। अभी मैं लिख रहा हूँ। तेरे साथ खेलने और तुझे दुलारने के लिए अभी मेरे पास समय नहीं है। जा अभी तो सो जा।


व्लदीमिर हर रात कुत्ते से गोश्त के बारे में पूछते और हर दिन उसे ख़रीदना भूल जाते। इसकी एक वजह यह थी कि उनके दिमाग़ में नई-नई रचनाओं के ख़याल तारी रहते थे और दूसरी बात उन्हें एक लड़की से मोहब्बत हो गई थी। अब वे हर समय या तो किसी रचना के बारे में सोचते या फिर अपनी माशूका के बारे में ही सोचते रहते थे। एक बार जब हाथ में हाथ डाले वे उसके साथ सैर कर रहे थे, तब एक दुकान के पास से गुज़रते समय उन्हें अपने कुत्ते के लिए गोश्त ख़रीदने का ख़याल आया तो, पर न जाने क्या सोचकर वे दुकान में नहीं घुसे। उन्होंने मज़ाक-मज़ाक में अपनी प्रेमिका को अपने कुत्ते वास्युक के बारे में बताया और उसकी सूझ-बूझ की ख़ूब तारीफ़ भी की। बातों-बातों में यह भी बताया कि जब वो ख़ुद बुरे दौर से गुज़र रहे थे, तब, बस, उसी को अपना अकेला दोस्त मानते थे। अँधेरी रातों में उसके साथ बतियाते हुए, उसे दुलराते हुए कई बार उससे यह वायदा किया था कि जब मेरे अच्छे दिन आएँगे, तब उसके लिए गोश्त खरीदूँगा …


उस लड़की ने हँसते हुए कहा — जनाब, आप महान हैं ! आपके क्या कहने, आप तो पत्थर में भी जान डाल सकते हैं ! महामहिम, आप मेरी एक बात ध्यान से सुन लीजिए कि मुझे कुत्ते ज़रा भी पसंद नहीं हैं। उनसे बीमारी होने का बहुत डर रहता है।


यह सुनकर व्लदीमिर ने चुपचाप हाँ में सिर हिला दिया। उस समय उन्हें अपने कुत्ते का ख़याल आया और यह भी याद आया कि वे उसके साथ खेलते समय कैसे उसे चूम लिया करते हैं, पर इस बारे में उन्होंने कुछ नहीं कहा।


एक शाम को जब व्लदीमिर घर वापस आए, वास्युक हमेशा की तरह दौड़कर उनके स्वागत के लिए दरवाज़े के क़रीब नहीं आया। चाची ने उन्हें बताया कि उसकी तबियत ख़राब है। यह सुनते ही व्लदीमिर को उसकी चिंता हुई और वे तुरंत उसे देखने के लिए उसके पास गए। वास्युक एक पतली-सी गद्दी पर एकदम उदास लेटा हुआ था। उसने व्लदीमिर को देखकर धीरे से पूँछ हिलाई। व्लदीमिर ने उसे छूकर देखा। उसका बदन और साँसें गरम थीं। व्लदीमिर ने कुत्ते को पुचकारते और सहलाते हुए कहा : — ओह ! बेटा तुम्हें तो बुखार हो गया ? तुम्हारा तो बदन जल रहा है। अब तुम आराम करो। ठीक हो जाओगे।


जवाब में कुत्ते ने धीरे से पूँछ हिलाई, उसकी कजरारी आँखें नम थीं।


व्लदीमिर ने मन ही मन कहा — वैसे तो इसे डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए, लेकिन मैं तो कल सारा दिन ही फँसा रहूँगा। खैर, कोई बात नहीं। ये ऐसे ही ठीक हो जाएगा।


अगले ही पल व्लदीमिर को अपनी महबूबा के साथ अगले दिन होने वाली मुलाक़ात का ध्यान आया और वे कुत्ते के बारे में भूलकर उसके बारे में और उसके साथ की जाने वाली मस्ती के बारे में सोचने लगे। अगले दिन शाम तक उसके साथ मौज़-मस्ती करने के बाद जब वे घर वापस आये, तो दरवाज़े के पास खड़े-खड़े थोड़ी देर तक दरवाज़े की घंटी का बटन ढ़ूँढ़ते रहे। और जब बटन मिल गया तो सोचते रहे कि इस बटन का करना क्या है ? जब उन्हें यह समझ आया कि घंटी बजाने के लिए बटन दबाना है… उन्हें ख़ुद पर हँसी आई।




— अरे भई दरवाज़ा खोलो ! मैं कब से खड़ा हूँ, दरवाज़ा खोलो !


आख़िर घंटी बजी। अंदर से दरवाज़े की तरफ़ बढ़ते क़दमों की आहट और अंत में दरवाज़े की कुंडी खोलने की चरमराहट भी सुनाई दी। व्लदीमिर मज़े में कुछ गुनगुनाते हुए सीधे अपने कमरे में चले गए और थोड़ी देर इधर से उधर टहलते रहे। इसके कुछ देर बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि बत्ती भी जलानी चाहिए। बत्ती जलाकर, कोट उतारा और फिर एक जूता खोलकर, उसे हाथ में पकड़कर देर तक ऐसे निहारते रहे, मानो यह वही सुंदरी हो, जिसने उनसे दिन में अपने प्यार का इज़हार करते हुए कहा था — मुझे आपसे मोहब्बत है।


बिस्तर पर लेटने के बाद भी वे तब तक अपनी माशूका के बारे में सोचते रहे, जब तक उन्हें अपनी बग़ल में कुत्ते की काली चमकती हुई थूथन दिखाई नहीं दी। कुत्ते को देखकर व्लदीमिर के दिमाग़ की बत्ती जली और उन्हें यह सोचकर थोड़ी शर्म आई कि वे बीमार वास्युक के बारे में तो पूरी तरह से भूल ही गये थे। लेकिन जल्दी ही उन्होंने ख़ुद को यह कहकर समझा लिया कि कुत्ता बीमार है तो क्या हुआ ? वह तो पहले भी कई दफ़ा बीमार हो चुका है और फिर ठीक भी हो गया। उसे दिखाने के लिए डॉक्टर को कल घर बुलाया जा सकता है। अभी मुझे न तो बार-बार कुत्ते के बारे में सोचने की फुर्सत है और न ही इस बात पर पछताने की ज़रूरत है कि मैं इसके बारे में भूल गया था। इससे कुछ होना-वोना तो है नहीं, सिर्फ़ मेरी ख़ुशी ही कम होगी।


अगली सुबह वास्युक की हालत और बिगड़ गई। बुखार तो पहले से ही था अब उलटी और होने लगी। वह कभी भी घर में गन्दगी नहीं करता था। उलटी आने पर वह हर बार घर से बाहर निकला करता था। लड़खड़ाते हुए जब वह चलता तो ऐसा लगता था, मानो नशे में हो। उसके बाल हमेशा की तरह चमक रहे थे, लेकिन उसमें बिलकुल भी ताक़त नहीं थी, इसलिए उसका सर नीचे झुका हुआ था। उसे बीमारी से भी ज़्यादा कष्ट व्लदीमिर के बर्ताव से हो रहा था। पहले जब कभी वह बीमार होता था, तब व्लदीमिर अपनी चाची के साथ मिलकर उसकी पूरी देखभाल करते थे। वे ख़ुद उसका मुँह पकड़कर दवाई अंदर डालते थे, पर इस बार वह बहुत बुरी तरह से बीमार हो गया था और उसे बहुत तकलीफ़ हो रही थी और व्लदीमिर उसकी तरफ़ से लापरवाह थे। हालाँकि उसकी हालत उनसे देखी नहीं जा रही थी, लेकिन फिर भी उन्होंने उसे चाची के सहारे छोड़ दिया था। जब उसकी कमज़ोर और मार्मिक कराह उनके कानों में पड़ती, तो वे अपने दोनों हाथों से दोनों कान बंद कर लेते और यह याद करके हैरान भी होते कि वे उसे कितना प्यार करते थे।


शाम को घर से बाहर निकलने से पहले व्लदीमिर ने एक बार कुत्ते की ओर झाँककर देखा। तब चाची वास्युक के पास बैठी उसे सहला रही थी। कुत्ता पाँव फैलाकर एकदम बेहोश-सा गद्दी पर पड़ा हुआ था। वह हिल-डुल भी नहीं रहा था। उसे पास से देखने पर यह समझ में आ जाता था कि उसकी साँसें तेज़-तेज़ चल रही हैं और वह दर्द से कराह रहा है। जब व्लदीमिर धीरे-धीरे उसका सर सहला रहे थे, तब उसका कराहना तेज़ हो गया और ऐसा लग रहा था मानो वह उनसे शिकायत कर रहा हो। व्लदीमिर उसे पुचकारते हुए बोले — अरे भई ! तुम्हारा तो हाल काफ़ी ख़राब है। मुझे पता है कि तुम ठीक हो जाओगे। जब तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी, मैं तुम्हारे लिए गोश्त खरीदूँगा। पास खड़ी चाची मज़ाक में बोली — मैं तो इसे सूप खिलाकर ही रहूँगी।


कुत्ता आँखें बंद किए वैसे ही लेटा रहा। चाची के मज़ाक से व्लदीमिर थोड़ा मुस्कुराकर जल्दी से घर से बाहर निकले और घोड़ागाड़ी में बैठकर चले गए। उन्हें इस बात का डर था कि कहीं वे अपनी महबूबा के पास देर से न पहुँचे।


हलकी-हलकी सरदी शुरू हो गई थी। बाहर हवा ताज़ा और साफ़ थी। पूनम की उस शाम आकाश में बहुत सारे तारे चमक रहे थे। एक ख़ूबसूरत लड़की अपने आशिक़ का इंतज़ार कर रही थी। गहरे अँधेरे कुएँ में चाँद की परछाई की तरह… प्यार में डूबे दो दिल अपने में मस्त थे। उन्होंने मिलकर बहुत अच्छा समय बिताया, ज़िन्दगी और सुख-दुख की ख़ूब बातें कीं।



व्लदीमिर जब रात को घर वापस लौट रहे थे, तब वे ख़ुशी से सातवें आसमान पर थे। जब वे घर पहुँचने वाले थे तब उन्हें अचानक अपने कुत्ते का ध्यान आया और उनके दिल में एक टीस-सी उठी। जैसे ही चाची ने दरवाज़ा खोला उन्होंने पूछा : — हमारा वास्युक कैसा है ? — वह तो ख़तम हो गया। तुम्हारे जाने के एक घंटे बाद उसने दम तोड़ दिया।



मरे हुए कुत्ते को चाची जंगल में दफ़ना आई थीं। वैसे भी व्लदीमिर कुत्ते की लाश नहीं देखना चाहते थे क्योंकि उनके लिए उसे देखना बेहद दर्दनाक होता। घर में सन्नाटा छाया था। व्लदीमिर थोड़ी देर आँखें बंद करके चुपचाप बैठे रहे, परन्तु जैसे ही वे सोने के लिए लेटे, अचानक उनकी रुलाई फूट पड़ी। उन्हें इस बात की ग्लानि हो रही थी कि जब उनका एकमात्र सच्चा दोस्त यहाँ घर में अकेला मर रहा था, उस वक़्त वे एक लड़की को चूम रहे थे। उन्हें यह सोचकर रोने से भी डर लग रहा था कि यदि चाची को मालूम चलेगा कि वे कुत्ते को याद करके रो रहें हैं तो वे उनके बारे में क्या सोचेंगी।


व्लदीमिर के सच्चे और वफ़ादार दोस्त वास्युक को गए काफ़ी समय बीत चुका था। जैसे यकायक उन्हें लेखन में शोहरत मिली थी वैसे ही एक झटके में उनकी शोहरत के दिन बीत गए। उनके पाठकों ने उनसे बड़ी उम्मीदें लगाई थीं, पर अब उन सब पर पानी फिर गया था। कहते हैं न कि मुसीबत अकेले नहीं आती। पाठकों ने बड़ी जल्दी उन्हें भुला दिया और उनकी माशूका ने भी उनसे मुँह मोड़ लिया। उस लड़की को लगा कि उनके साथ दोस्ती करके उसने बड़ी भूल की थी।


व्लदीमिर की रातें फिर से बेहोशी में और दिन मदहोशी में गुज़रने लगे। सुनसान घर में चाची के तेज़ क़दमों की आवाज़ें पहले से भी ज़ोर से सुनाई देतीं। और बिस्तर पर पड़े व्लदीमिर लम्बी-लम्बी साँस लेते हुए बुदबुदाते :


— मेरे प्यारे दोस्त ! तुम मेरे अकेले दोस्त हो !...

व्लदीमिर अपना कमज़ोर हाथ कुत्ते के सिर पर फेरने के लिए नीचे लाते, पर उनका अकेला सच्चा दोस्त वास्युक वहाँ नहीं होता।

०००

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’द्रूक’ (Леонид Андреев — Друг)

प्रभा मुजुमदार की कविताऍं

 

 ज़िद 


थोड़ी मिट्टी 

थोड़ी-सी नमी,

सूरज की कुछ किरणें 

हवा का हल्का झोंका.  


एक अंकुर के उपजने के लिए

बीज के विस्तार के लिए 

जिंदगी के लहलहाने के लिए। 


नहीं, 

यह पर्याप्त नहीं है। 

                                                                                                                                                                       झुलसने, गलने, कुम्हल जाने के 

खतरे लेकर, 

मिट्टी की परत-दर-परत चीर 

जन्मने, जीने की, 

सतह पर दस्तक दे सकने की 

ज़िद, जद्दोजेहद और संकल्प से ही, 

वृक्ष बनता हैं 

एक बीज । 

०००












विभाजन

  

जमीन पर खींची 

एक विभाजक रेखा का 

नाम नहीं है 

सीमा।


यूं एक ही दिन में 

नहीं खींच जाती है सीमा रेखा। 

बरसों, दशकों या सदियों की 

पृष्ठभूमि 

आकार देती है इसे। 


सबसे पहले 

मन में ही खिंचती है दीवार। 

मन की धरती ही 

बंटती है द्वीपों में,

बीहड़, खाई और टीले, 

अपना अलग संसार रचते है, 

तो उभर आते हैं कहीं 

नागफणियों के जंगल।  


छोटे छोटे मतभेद ,

मनभेद बन जाते हैं। 

सद्भाव के पुल,

मतलब की गरजती लहरों में 

ढह जाते हैं। 

अलगाव का एक अंकुर 

पनपने लगता है 

आशंकाओं की घनी झड़ियों में। 


मस्तिष्क 

जुटा लेता है 

अनुकूल तथ्य, संदर्भ और आंकड़े। 

मौजूद ही रहती हैं, 

कच्ची  दीवारों को 

कंक्रीट-सी  मजबूती देने,

आवाजाही को 

बंद करने को तत्पर, 

कुछ साजिशे ।  


नफरत  का सुनामी 

इतिहास और भूगोल ही नहीं,

धर्म, राष्ट्र और राजनीति को भी 

परिभाषित करने लगता है। 

घोषित हो जाते हैं, 

अपने लोग,

अपनी जमीन

रातोंरात पराए ही नहीं 

दुश्मन भी।  


कुछ भी हो सकता है 

नफरत का नाम। 

कुरुक्षेत्र से लेकर 

गाजा पट्टी, 

कहीं भी हो सकती है

वह खूनी विभाजक रेखा।

०००


 ड़र 


अभेद्य नहीं होता

सुरक्षा का कोई भी घेरा।


लांघी जा सकती है

हर एक लक्ष्मण रेखा,

तोड़ा जा सकता है

कोई भी कवच। 

भ्रमित और चकित किया जा सकता है

किसी भी व्यवस्था को,

लौह गुंबद को चीर कर

बरसाए जा सकते हैं गोले।


धरती आकाश समुद्र में

कहीं भी ढूँढा जा सकता है

सूराख.....

डर के

डर से मुक्ति

डरा कर तो नहीं हो सकती।

०००


संबल


अंतिम नहीं होती कोई पराजय।  

अंधेरे, घुटन और अपमान के

अवसाद भरे कोनों में

कहीं न कहीं छिपी ही होती है

संभावना की हल्की सी किरण,

दिये की लौ सा टिमटिमाता

कुछ उजाला। 


गहराती डरावनी अमावस की 

लंबी सघन रातों के बाद

होती ही है पूर्व दिशा में 

कुछ सुगबुगाहट ,

सन्नाटे और स्तब्धता को चीरते

पखेरूओं के गीत,

सूरज की पहली किरणों के स्वागत में 

खिलती पंखुड़ियों के रंग। 

अंजुरी में ओस की बूँदें सहेजे

पत्तियां चमकती हैं 

और जीवंत हो जाती है

रुकी थमी हुई सी यह दुनिया। 


सूख जाती है जब धरती 

सूरज की दहकाती आँच से

बूँद बूँद के लिए तरसते हैं पखेरू ,

झुलसते दहकते हैं 

उन्हें बसेरा देते जंगल.....

भाप बन कर उड़ जाते हैं 

नदियाँ बावड़ी कुएं .... 

ठीक तभी आकाश बुन रहा होता है 

बादलों के साथ एक स्वप्न 

और सैलाब बन कर 

बहने लगती हैं खुशियाँ। 


जब भी लगता है मुझे कि

मुरझा गई है शब्दों की क्यारी

सूख चूकी कलम की स्याही 

और बाँझ हो चली है 

संवेदनाओं की धरती...... 

ठीक उस वक्त

किसी अंकुर से प्रस्फुटित होते हैं शब्द 

संवेदनाओं के गीले-अंधेरे कोने में,

और बांध तोड़

बहने लगते हैं कागज़ पर.


एक अर्से बाद

मैं पूरी करती हूँ अपनी कविता। 

०००


 इन दिनों


इन दिनों

पलकों की कोर में

नही झिलमिलाते मोती.

आंखों ने ही

सोख लिए है सारे आंसू।

लुप्त हो गई है

ओठों पर से हंसी,

लिपिस्टिक की पर्ते

और गहराती हुई

उनके रंग कुछ अधिक चटकीले।


इन दिनों

बढ़ते जा रहे है नाखून

बेतहाशा... 

और नुकीले होते जा रहे

हथियारों की तरह।

ख़त्म हो गए है

आपस के सारे संवाद

सन्नाटे के खंडहरों में

गूँजती है निश्शब्द चीखें।


इन दिनों

सुनाई नही पड़ती

बच्चों की किलकारियाँ

माँओं की लोरियाँ।

अक्सर कानों पर पड़ता है

अपना ही अट्टाहास

क्रूर, वीभत्स, भयावह...


इन दिनों

अक्सर पूछने लगी हूं अपने से

क्या जिंदा रहना जरूरी है

इस तरह ? 

०००

इन दिनों 


इन दिनों 

स्थगित करती हूं मै 

एक लड़ाई अपने आप से

अनिश्चित सी अवधि के लिए,

मुठभेड़ का वह निर्णायक क्षण 

किसी और अवसर के लिए 

टाल देती हूं। 


इन दिनों

आईने में झांकते ही चौक जाती हूँ मैं 

अपनी ही शक्ल

किसी अजनबी की तरह  

जान पड़ती है।


इन दिनों

अपने ही कदमों की आहट

बेहद डरा देती है मुझे

हवा में फैले हुए

षडयंत्र की दुर्गंध

सांस सांस में 

रच बस गई लगती है। 

  

इन दिनों 

कुछ भी देखने सुनने

और कहने से 

बचने लगी हूँ मैं 

पता नहीं कब 

मेरी प्रतिक्रिया को ही

बयान की तरह दर्ज कर लिया जाए।

०००


चुप्पी 


इतनी भी चुप नहीं होती है चुप्पियां

कि सुनी ही न जा सकें 

उनकी आवाजें 

गूंज प्रतिगूंज चीखें और ठहाके ...

हवा की साँय साँय सी 

वे गूँजती है हमारे आसपास 

और अनसुनी रह जाने पर

पीछा करती है दबे पाँव.


मन के गलियारों में

कभी चहलकदमी करती है 

अस्तव्यस्त, निरुद्देश्य 

तो कभी  भीड़ के शोर सी

विजय जुलूसों के अहंकार सी

दंगाइयों के उन्माद सी

अट्टहास करती हैं ।


चुप्पियाँ

चुप भी हो जाती हैं 

हत्यारों के षडयंत्र सी

या बंधक बन कर

सांस रोक विवश समर्पण सी।


अपने ही आँसू पीकर

सुबकती है चुप्पिया

पथराती हैं 

पिघलती हैं ....

खिलखिलाती है,

गुनगुनाती थिरकती भी हैं.


कितनी वाचाल होती हैं 

चुप्पियाँ।

०००












चुप्पी 


चुप्पी की ही परतों में

तह दर तह जा कर

पकड़ी जा सकती है

शब्दों की कंपकपाहट.... 

आश्वस्ति की आंच, 

उत्सव की गुनगुनाहट. 

सुकून और तृप्ति को

अनुभव किया जा सकता है।


चुप्पी की परतों से ही 

मापी  जा सकती है,

संबंधों के बीच उठती

बर्फीली चट्टानों की ऊंचाई 

और अतल गहराइयाँ भी.

पिघलती हुई बर्फ का

धधकते ज्वालामुखियों का 

अहसास भी किया जा सकता है।


चुप्पिया पढ़ लेती हैं

आंखों में बसी आकुलता

आस और उत्कंठा

पीड़ा और छटपटाहट

भय और दुश्चिंता .

दिलासा भरे हाथों का स्पर्श 

पहचान जाती है।

.

चुप्पी की कोई भाषा नहीं होती,

तमाम भाषाओं की 

सीमा और सामर्थ्य के 

चुक जाने के बाद 

सघनता से गूँज उठती है

चुप्पी ।

०००



अनुत्तरित


हर प्रश्न 

एक तलाश में बदल गया

और तलाश 

अंततः भटकन में.

अन्धेरे में टटोलने के सिवाय

कुछ भी नही किया

तमाम उम्र। 

प्रश्न .......

अब भी वहीं खडे हैं

अन्धेरे और गहरे होते हुए

जीने की जिजीविषा

अब भी वैसी ही,

आँख मिचौली का यह खेल

यूँ ही चलता रहेगा

जिन्दगी की शर्तों के बावजूद। 

०००

 


शब्द


खामोशी में ड़ूबे कुछ शब्द

सहमें और बेबस, 

थके, दुःखी और आहत

घुप्प अंधेरे में, 

अपना वजूद तलाश रहे हैं। 


बचा रहे हैं अपने को 

विद्रुप चेहरों की आँखों से

झरते अंगारों में 

झुलस जाने से,

हिंस्त्र पशुओं सी दहाड़ 

वीभत्स हंसी, अश्लील चुटकुलों 

गालियाँ और धमकियों के बीच

सहमें ठिठके हुए हैं।

 

देख रहे हैं 

उन्माद के सैलाब में

उत्सव मनाती भीड़

को तालियाँ पीटते, 

जीने के अधिकार को 

किसी धर्म किसी नस्ल का

पर्याय बना कर ,

निरंकुश सेनाओं को 

तत्काल न्याय करते देख, 

वक्त की नब्ज 

महसूस कर रहे हैं। 


सभ्यताओं की नदियों को 

कंटीले रेगिस्तानों में

गुम होते 

या सड़ांध मारते 

गंदले नाले में बदलते देख, 

शब्द 

तलाश रहे हैं

अपनी झुलसती क्यारियों को  

बचा सकने के विकल्प। 


उन्हें विश्वास है 

नफरती हवा 

प्रदूषित पानी 

और खाद के नाम 

जहरीले रसायनों से 

भर दी गई क्यारियों की 

गहरी तहों के भीतर, 

जरूर बचा ही होगा 

अपनी मिट्टी का स्वाद 

रंग और खुशबू। 

०००



परिचय 


(डॉ प्रभा मुजुमदार) 9969221570 

बी8 803, ला मरीना, 

अदानी शांतिग्राम , एस जी हाई वे 

गांधीनगर, गुजरात – 382421