ज़िद
थोड़ी मिट्टी
थोड़ी-सी नमी,
सूरज की कुछ किरणें
हवा का हल्का झोंका.
एक अंकुर के उपजने के लिए
बीज के विस्तार के लिए
जिंदगी के लहलहाने के लिए।
नहीं,
यह पर्याप्त नहीं है।
झुलसने, गलने, कुम्हल जाने के
खतरे लेकर,
मिट्टी की परत-दर-परत चीर
जन्मने, जीने की,
सतह पर दस्तक दे सकने की
ज़िद, जद्दोजेहद और संकल्प से ही,
वृक्ष बनता हैं
एक बीज ।
०००
विभाजन
जमीन पर खींची
एक विभाजक रेखा का
नाम नहीं है
सीमा।
यूं एक ही दिन में
नहीं खींच जाती है सीमा रेखा।
बरसों, दशकों या सदियों की
पृष्ठभूमि
आकार देती है इसे।
सबसे पहले
मन में ही खिंचती है दीवार।
मन की धरती ही
बंटती है द्वीपों में,
बीहड़, खाई और टीले,
अपना अलग संसार रचते है,
तो उभर आते हैं कहीं
नागफणियों के जंगल।
छोटे छोटे मतभेद ,
मनभेद बन जाते हैं।
सद्भाव के पुल,
मतलब की गरजती लहरों में
ढह जाते हैं।
अलगाव का एक अंकुर
पनपने लगता है
आशंकाओं की घनी झड़ियों में।
मस्तिष्क
जुटा लेता है
अनुकूल तथ्य, संदर्भ और आंकड़े।
मौजूद ही रहती हैं,
कच्ची दीवारों को
कंक्रीट-सी मजबूती देने,
आवाजाही को
बंद करने को तत्पर,
कुछ साजिशे ।
नफरत का सुनामी
इतिहास और भूगोल ही नहीं,
धर्म, राष्ट्र और राजनीति को भी
परिभाषित करने लगता है।
घोषित हो जाते हैं,
अपने लोग,
अपनी जमीन
रातोंरात पराए ही नहीं
दुश्मन भी।
कुछ भी हो सकता है
नफरत का नाम।
कुरुक्षेत्र से लेकर
गाजा पट्टी,
कहीं भी हो सकती है
वह खूनी विभाजक रेखा।
०००
ड़र
अभेद्य नहीं होता
सुरक्षा का कोई भी घेरा।
लांघी जा सकती है
हर एक लक्ष्मण रेखा,
तोड़ा जा सकता है
कोई भी कवच।
भ्रमित और चकित किया जा सकता है
किसी भी व्यवस्था को,
लौह गुंबद को चीर कर
बरसाए जा सकते हैं गोले।
धरती आकाश समुद्र में
कहीं भी ढूँढा जा सकता है
सूराख.....
डर के
डर से मुक्ति
डरा कर तो नहीं हो सकती।
०००
संबल
अंतिम नहीं होती कोई पराजय।
अंधेरे, घुटन और अपमान के
अवसाद भरे कोनों में
कहीं न कहीं छिपी ही होती है
संभावना की हल्की सी किरण,
दिये की लौ सा टिमटिमाता
कुछ उजाला।
गहराती डरावनी अमावस की
लंबी सघन रातों के बाद
होती ही है पूर्व दिशा में
कुछ सुगबुगाहट ,
सन्नाटे और स्तब्धता को चीरते
पखेरूओं के गीत,
सूरज की पहली किरणों के स्वागत में
खिलती पंखुड़ियों के रंग।
अंजुरी में ओस की बूँदें सहेजे
पत्तियां चमकती हैं
और जीवंत हो जाती है
रुकी थमी हुई सी यह दुनिया।
सूख जाती है जब धरती
सूरज की दहकाती आँच से
बूँद बूँद के लिए तरसते हैं पखेरू ,
झुलसते दहकते हैं
उन्हें बसेरा देते जंगल.....
भाप बन कर उड़ जाते हैं
नदियाँ बावड़ी कुएं ....
ठीक तभी आकाश बुन रहा होता है
बादलों के साथ एक स्वप्न
और सैलाब बन कर
बहने लगती हैं खुशियाँ।
जब भी लगता है मुझे कि
मुरझा गई है शब्दों की क्यारी
सूख चूकी कलम की स्याही
और बाँझ हो चली है
संवेदनाओं की धरती......
ठीक उस वक्त
किसी अंकुर से प्रस्फुटित होते हैं शब्द
संवेदनाओं के गीले-अंधेरे कोने में,
और बांध तोड़
बहने लगते हैं कागज़ पर.
एक अर्से बाद
मैं पूरी करती हूँ अपनी कविता।
०००
इन दिनों
इन दिनों
पलकों की कोर में
नही झिलमिलाते मोती.
आंखों ने ही
सोख लिए है सारे आंसू।
लुप्त हो गई है
ओठों पर से हंसी,
लिपिस्टिक की पर्ते
और गहराती हुई
उनके रंग कुछ अधिक चटकीले।
इन दिनों
बढ़ते जा रहे है नाखून
बेतहाशा...
और नुकीले होते जा रहे
हथियारों की तरह।
ख़त्म हो गए है
आपस के सारे संवाद
सन्नाटे के खंडहरों में
गूँजती है निश्शब्द चीखें।
इन दिनों
सुनाई नही पड़ती
बच्चों की किलकारियाँ
माँओं की लोरियाँ।
अक्सर कानों पर पड़ता है
अपना ही अट्टाहास
क्रूर, वीभत्स, भयावह...
इन दिनों
अक्सर पूछने लगी हूं अपने से
क्या जिंदा रहना जरूरी है
इस तरह ?
०००
इन दिनों
इन दिनों
स्थगित करती हूं मै
एक लड़ाई अपने आप से
अनिश्चित सी अवधि के लिए,
मुठभेड़ का वह निर्णायक क्षण
किसी और अवसर के लिए
टाल देती हूं।
इन दिनों
आईने में झांकते ही चौक जाती हूँ मैं
अपनी ही शक्ल
किसी अजनबी की तरह
जान पड़ती है।
इन दिनों
अपने ही कदमों की आहट
बेहद डरा देती है मुझे
हवा में फैले हुए
षडयंत्र की दुर्गंध
सांस सांस में
रच बस गई लगती है।
इन दिनों
कुछ भी देखने सुनने
और कहने से
बचने लगी हूँ मैं
पता नहीं कब
मेरी प्रतिक्रिया को ही
बयान की तरह दर्ज कर लिया जाए।
०००
चुप्पी
इतनी भी चुप नहीं होती है चुप्पियां
कि सुनी ही न जा सकें
उनकी आवाजें
गूंज प्रतिगूंज चीखें और ठहाके ...
हवा की साँय साँय सी
वे गूँजती है हमारे आसपास
और अनसुनी रह जाने पर
पीछा करती है दबे पाँव.
मन के गलियारों में
कभी चहलकदमी करती है
अस्तव्यस्त, निरुद्देश्य
तो कभी भीड़ के शोर सी
विजय जुलूसों के अहंकार सी
दंगाइयों के उन्माद सी
अट्टहास करती हैं ।
चुप्पियाँ
चुप भी हो जाती हैं
हत्यारों के षडयंत्र सी
या बंधक बन कर
सांस रोक विवश समर्पण सी।
अपने ही आँसू पीकर
सुबकती है चुप्पिया
पथराती हैं
पिघलती हैं ....
खिलखिलाती है,
गुनगुनाती थिरकती भी हैं.
कितनी वाचाल होती हैं
चुप्पियाँ।
०००
चुप्पी
चुप्पी की ही परतों में
तह दर तह जा कर
पकड़ी जा सकती है
शब्दों की कंपकपाहट....
आश्वस्ति की आंच,
उत्सव की गुनगुनाहट.
सुकून और तृप्ति को
अनुभव किया जा सकता है।
चुप्पी की परतों से ही
मापी जा सकती है,
संबंधों के बीच उठती
बर्फीली चट्टानों की ऊंचाई
और अतल गहराइयाँ भी.
पिघलती हुई बर्फ का
धधकते ज्वालामुखियों का
अहसास भी किया जा सकता है।
चुप्पिया पढ़ लेती हैं
आंखों में बसी आकुलता
आस और उत्कंठा
पीड़ा और छटपटाहट
भय और दुश्चिंता .
दिलासा भरे हाथों का स्पर्श
पहचान जाती है।
.
चुप्पी की कोई भाषा नहीं होती,
तमाम भाषाओं की
सीमा और सामर्थ्य के
चुक जाने के बाद
सघनता से गूँज उठती है
चुप्पी ।
०००
अनुत्तरित
हर प्रश्न
एक तलाश में बदल गया
और तलाश
अंततः भटकन में.
अन्धेरे में टटोलने के सिवाय
कुछ भी नही किया
तमाम उम्र।
प्रश्न .......
अब भी वहीं खडे हैं
अन्धेरे और गहरे होते हुए
जीने की जिजीविषा
अब भी वैसी ही,
आँख मिचौली का यह खेल
यूँ ही चलता रहेगा
जिन्दगी की शर्तों के बावजूद।
०००
शब्द
खामोशी में ड़ूबे कुछ शब्द
सहमें और बेबस,
थके, दुःखी और आहत
घुप्प अंधेरे में,
अपना वजूद तलाश रहे हैं।
बचा रहे हैं अपने को
विद्रुप चेहरों की आँखों से
झरते अंगारों में
झुलस जाने से,
हिंस्त्र पशुओं सी दहाड़
वीभत्स हंसी, अश्लील चुटकुलों
गालियाँ और धमकियों के बीच
सहमें ठिठके हुए हैं।
देख रहे हैं
उन्माद के सैलाब में
उत्सव मनाती भीड़
को तालियाँ पीटते,
जीने के अधिकार को
किसी धर्म किसी नस्ल का
पर्याय बना कर ,
निरंकुश सेनाओं को
तत्काल न्याय करते देख,
वक्त की नब्ज
महसूस कर रहे हैं।
सभ्यताओं की नदियों को
कंटीले रेगिस्तानों में
गुम होते
या सड़ांध मारते
गंदले नाले में बदलते देख,
शब्द
तलाश रहे हैं
अपनी झुलसती क्यारियों को
बचा सकने के विकल्प।
उन्हें विश्वास है
नफरती हवा
प्रदूषित पानी
और खाद के नाम
जहरीले रसायनों से
भर दी गई क्यारियों की
गहरी तहों के भीतर,
जरूर बचा ही होगा
अपनी मिट्टी का स्वाद
रंग और खुशबू।
०००
परिचय
(डॉ प्रभा मुजुमदार) 9969221570
बी8 803, ला मरीना,
अदानी शांतिग्राम , एस जी हाई वे
गांधीनगर, गुजरात – 382421
एक साथ आपकी इतनी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा। अच्छी लगी कविताएं। नाराज़गी की धार के साथ उम्मीद के चित्र प्रभावित करते हैं।
जवाब देंहटाएं