28 फ़रवरी, 2018

पूनम पाण्डेय की कविताएं



एक 
हवाओं की संगत

आज हवाएं
मुझे फुसफुसा कर
कुछ कह रहीं हैं
आज मेरे पास
बहुत प्यारी सखी हैं
आज हवाएं
मेरे
चेहरे पर
बार बार
खुशबू
लेप जाती है
आज सारी
झुर्रियां
मिट जायेंगी

आज
हवाएं
आसमान में
मेरा नाम
लिख रहीं हैं
आज बादल
उमड़ कर
बरस जायेंगे

आज हवाएं
मेरी आंखों से
धूल मिटा
रही है
आज
मेरी दुनिया में
शिकायतें
नहीं रहेंगी

आज हवाएं
शरारती
हो रही है
आज
हंसते-हंसते
मेरा चेहरा
गुलाबी हो जायेगा

आज हवाएं
जंगल में
कहीं
गुम नहीं
होगी
मैंने

बाहें फैलाए
उन्हें रोक लिया है

आज हवाएं
खुशी की
गुल्लक फोड़ रहीं हैं
मैं
बटोरने में
मगन हूं



दो 
कभी कभी

भूल जानी चाहिए
एक दूसरे की
गलतियां
कमियां
कभी कभी
शिकायतें नहीं
गप्पे होनी चाहिए
चर्चा में
कभी कभी
खामोशियों में
खुद की
रौनक
खोजनी चाहिए
कभी कभी
अपनी हैसियत
भूल कर
कुछ और भी
हो जाना चाहिए
कभी कभी
खुलकर
अपनी
सारी कमजोरियों के
साथ
बेझिझक गर्व से
जी लेना चाहिए
कभी कभी
निष्कपट भाव
के लिए
औरों से
उम्मीद की जगह
खुद को
पहले तैयार
कर लेना चाहिए
कभी कभी
निरुददेश्य भी
जी लेंना चाहिए







तीन 
सचमुच किसी साहसिक फैसले से

कम नहीं है
निर्लिप्त भाव से
जीना
अपना रोना नहीं रोना
गलतियों को याद नहीं करना
सचमुच एक साहसिक कदम है
पीड़ा के बोझ को
लादकर नहीं रखना
असहाय नहीं बनना
लालसा में नहीं डूबना
दुःख और उदासी में
पत्थर न बनना
सचमुच हिम्मत
का काम है
प्रेम के लिए
पहल करना
शांति के लिए
पहल करना
सरलता को जीवन शैली
बना लेना
सचमुच
बड़े जिगर
का काम है



चार 
आसमान को सब कुछ

पता है
आसमान
जानता है कि
धरती के सीने मे
कुछ धुंआ  धुंआ है
इसीलिए बड़े लगाव से
वो फुहार भेज दिया करता है
प्रकृति के निशुल्क और निश्छल प्रेम
के साथ तुरंत जुड जाना चाहिए ।
हम भूल जाते है कि
समंदर के आंसू  सहेजकर
शीतल रिमझिम बनाकर
आसमान ने कोई  मजाक नही किया है
उसकी साधना के साथ जुड़ने से ही हमे
उसका अपनापन  समझ मे आयेगा।




पांच 
केवल कोमलांगी होने के कारण

मत देना मुझ पर जान
कमनीय देह वाली सी हू
केवल इसीलिए
प्यार मत लुटाना
मुझे भी इक
आत्मा मान लेना
ध्यान  मत देना
इन मूंगे से अधरो पर
मत चुम्बन करना
गुलाबी कपोलो का
मत उलझते फिरना इन रेशमी ,
खुशबूदार केशो के झाड मे
मत स्पर्श करना
कलाई को
कमल की
डंडी जानकर
मुझे
धडकनो समेत
मानव स्वीकार करना ।
ताकि अपनी जरावस्था के
एकाकी, लम्बे दिनो मे
तुम्हारे पावन प्रेम् के
अमृत को
जी भर कर
छकती रहू ।






छः 
एकाकीपन
हरने वाले
जज्बे मे रंग
भरने वाले
तुम्ही हार
और जीत
मेरे सच्चे मीत

चिंता के पल
गिनने वाले
मेरे सुख मे
खिलने वाले
मन के सुरमयी गीत
मेरे सच्चे मीत

डग मे
हाथ पकडने वाले
मंजिल दिखा
चहकने वाले
तुम जीवन
की रीत
मेरे सच्चे  मीत

हर खामोशी
पढने वाले
मेरी महफिल
बनने वाले
जन्मो की
यह प्रीत
मेरे सच्चे मीत



सात 
ऐसे अटपटे
मौसम में कैसे
बरसे बादल
जब किसी की
प्यास को महसूस
करना ही बडा
कठिन हो गया हो ।

पोखर से कोई
मेढक वो उस तरह
से
बैचेन
होकर वैसे
मचलता  नही

कोई  टिटहरी
अब अंडे  सहेजती
भी
वैसी आतुर
नही दिखती ।

न चीटियां
कतार लगाकर
किसी
सुरक्षित जगह
ले जाती है
अपना अपना
भोजन ।

किसान भी तो
कोई यत्न कहाँ
करते है
मेरी तरफ
बेकरारी के साथ
टकटकी लगाए
यो ही
हल बैल लेकर
जमीन से
साक्षात्कार
नही करते ।

सबसे ज्यादा
अखरने वाली बात यह है
कि कोई
नही दिखाता
अपनी
कागज की कश्ती
और मुझे
आवाज
भी नही देता
कि
मै उमड कर
घुमड कर
बरस जाऊ



आठ 

मन के बिस्तर पर
खिन्नता पसरी हुई थी
मित्र तुमने
उस बदल दिया
खुशी के
रंग मे

हदय के
आकाश पर
भारी पडती थी
जमाने की
फब्तिया।
मित्र तुमने
उसे बदल दिया
हंसी की
तरंग मे

उदास मन
किसी चट्टान सा
धंसा था
धरा पर
मित्र तुमने
उसे बदल दिया
किसी
विहंग मे

धडकने
किसी
औपचारिकता सी
मौजूद तन मे थी
मित्र तुमने उसे
बदल दिया
मस्ती की
चंग मे ।

दिनचर्या किसी
खामोश
पगडंडी
सी बेढंगी थी
मित्र तुमने उसे
बदल दिया
चुस्की के
ढंग मे








नौ 

बडे रेशमी थे 
 मेरी जिंदगी थे।
 महकते हुए  खत कहाँ
 गुम हुए
 उनहे
 याद करके
 नयन नम हुए ।

 दरवाजे पर
 डाकिये का
 आना ।
 गुलाबी लिफाफा
 सरकाते  जाना ।
 हथेली पर
 रखकर
 हदय से लगाना
 पलको से
 धीरे से
 सब पढते जाना

 लिफाफे सहित
 खत तिजोरी मे
 रखना।

 वो दिन  थे। सपन थे
 कि    मतिभ्रम हुए ।
 जिनहे
 याद करके
 नयन नम हुए ।

 कभी कभी
 चार पन्नो
 से ज्यादा ।
 मगर मन
न भरता
 अधिक ही
 लिखाता ।
 टिकट
चस्पा करने
 के बाद
बताता
ये मन बावरा
 टोकता  छेड जाता ।
जो लिखना
जरूरी था
 फिर फिर
 चिढाता।
 वो क्षण
 कितने
 दिलकश
 मधुरतम हुए
 जिन्हे
 याद करके
नयन नम हुए ।




दस 

कभी कभी
एक गौरैया
आती जाती रहती है
गौरैया को बहुत लगाव है
उस
इकलौते तरूवर से
जो जीवनशक्ति के
सच को स्वीकार करते हुए
लगातार जमा रहा
इस नितान्त
मरूस्थल मे
बीचोबीच
जीवित
यह वृक्ष
गौरैया को
बहुत पसंद है
वो अक्सर
इससे मिलने आती है
क्योंकि उसने
जीवन जीने की कला
सीखी है
इसी विटप से
मगर ताली दोनो हाथो से
बजती है ।
यह वृक्ष भी
इसी भरोसे के साथ
डटकर खडा है
क्योंकि इसे भी
गौरैया के लगाव से
लगाव हो चला है
दोनो एक दूजे के
शक्ति पुंज
फिर भी एक दूसरे के लिए
आभारी ।



ग्यारह 

संगीत के सुर 
मध्यम
कोमल और
तीव्र
हो सकते है
लेकिन
कानो के
रास्ते
हदय तक जाने के बाद
तेरे
और मेरे
सुकून
एक जैसे ही
होते है
क्योंकि
जरूरत और
पूर्ति के लिए
एक जरूरी माध्यम है
आवाज
या संकेत
कभी कभी
इसी सिलसिले मे
आनंद भी
कदमताल
कर लेता है
और
सार्थक  हो जाता है
अभिव्यक्ति का
प्रयास
फिर
चाहे
कोमल   सुर   हो
या शुद्ध ।
यो तो
कुछ लोग ऐसा
भी कहते हैं कि

सन्नाटा भी एक सुर ही है


परिचय 
डॉ पूनम पाण्डेय
शिक्षा पी एच डी
तीन पुस्तकें प्रकाशित
एक बाल कहानी संग्रह
एक लघुकथा संग्रह
कविता संग्रह

राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित तीन
रचनात्मक कार्यशाला  कविता
कहानी
नाट्य में समन्वयक की भूमिका रही
कुछ समय से केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की
मानवाधिकार शाखा में सहभागिता
विगत चौबीस वर्ष से निरंतर लेखन


26 फ़रवरी, 2018

यह खोखलापन अब तो जीवन की भी बलि लेने लगा  है

रमेश शर्मा

समाज का नजरिया इस कदर नीचे चला गया है कि किसी भी कीमत पर सुंदर दिखना आज बेहद जरूरी है । सुंदर दिखने का यह दबाव आज के बाजारू सामाजिक परिस्थितियों में स्त्रियों के ऊपर इतना अधिक बढ़ा है कि स्त्रियों के लिए यह विषय जीवन-मृत्यु से भी ऊपर का विषय बनकर उभरा है ।






हाल ही में फिल्मी अदाकारा श्रीदेवी की मृत्यु ने इस प्रसंग पर सोचने को हमें मजबूर किया है कि सुंदर दिखने के लिए क्या हम अपने जीवन को भी दांव पर लगा दें ?? सूत्र बताते हैं कि श्रीदेवी ने 29 कॉस्मेटिक सर्जरियाँ करवाई थीं उनमें से एक सर्जरी असफल हो गई थी जिसके कारण वे एंटीबायोटिक पेनकिलर जैसी तरह तरह की दवाइयां लिया करती थीं । इन दवाइयों के कारण उनका खून गाढ़ा हो गया था और खून गाढ़ा हो जाने के कारण उनको हृदय संबंधी परेशानियों से जूझना पड़ रहा था । यह कितना दुर्भाग्य का विषय है कि महज सुंदर दिखने के लिए एक स्त्री ने अपने जीवन को दांव पर लगा दिया । शायद फिल्मी दुनिया का घिनौना सच यही है कि दर्शकों को हर हालत में सुंदर अदाकारा ही चाहिए । इसी घिनौने सच की दुनिया को अब हम अपना आदर्श मान बैठे हैं और फिल्मी दुनिया से बाहर की स्त्रियां भी इसी राह पर चल पड़ी हैं,  वे भी तरह तरह की सर्जरी  करवा रही हैं और अपने जीवन को उन्होंने भी दांव पर लगा दिया है । विवाह करने के लिए आज हर लड़के को एक सुंदर लड़की ही चाहिए। इसलिए लडकियों के ऊपर सुंदर दिखने का यह दबाव और अधिक सघन हुआ है  । क्या हम वैचारिक रूप से इतने खोखले हो चुके हैं कि महज सुंदर दिखने के लिए अपने जीवन को भी दांव पर लगा दें ?
समाज के लिए यह कितना दुर्भाग्य का विषय है कि समाज बाजार की गिरफ्त में इस कदर आ चुका है कि वह जीवन की भी बलि लेने लगा है । जीवन अगर इतने सस्ते में जाया होता जाएगा तो सोचिए कि हम किस सीमा तक खोखले हो चुके हैं ?



रमेश शर्मा
कहानीकार, समीक्षक
संतोष श्रीवास्तव की कविताएँ


संतोष श्रीवास्तव 

कविताएँ


हथेलियों का कर्ज

जिस दिन मेहंदी लगी
एक एक रंग चढ़ता गया
मन के कुंवारे
कैनवास पर
चित्रित हुई वे सारी
ठोस परते
समय जिन्हें
आश्वस्त करता रहा
कुछ देखे अनदेखे
ख्वाबों से
वजूद मेरा
सिमटने लगा
हथेली पर सजे
मेहंदी के बूटे में
मै मै न रही
मेहंदी ने कर दिया
खुद से पराया
मिटाकर मुझे
सारी उम्र भ्रम में रही
निज को सौंपकर
मेहंदी के नाम
आज आईने में
खुद को देख चौंक पडी
मेहंदी सर चढ़कर
हथेलियों का कर्ज
वसूल रही थी
और मेरा मधुमास
विदा ले रहा था
आहिस्ता आहिस्ता

मेरी धड़कनों की
आकुल धुन में बजते रहे
उसके पदचाप
लगातार........




कैनवास पर बादल

मैंने तुम्हें अपने ब्रश से
कैनवास पर क्या उतारा
तुम तो रेखाओं को तोड़
रंगों को चुरा उड़ गए
और छा गए आकाश पर
अभिसार का गुलाबी रंग
एक धमक के साथ
खड़ा है सामने
और कैनवास पर बिखरे
रंगों में खलबली
मच गई है
काले ,सलेटी ,सफ़ेद
रंगो का अट्टहास
सहा नहीं जाता
आहत है गुलाबी रंग
चित्र से बिछड़कर
व्याकुल भी
और इसीलिए
मेरे चित्र में
उठा है तूफान
जिसे तुम और भी
डरावना कर रहे हो
बार-बार बिजली
चमका कर
बार बार गरजकर
ये कैसा परिहास है बादल
मेरे चित्र को अधूरा कर
तुम कौन सा सुख
पा रहे हो
जब कि पूरा आसमान
तुम्हें धारे रहेगा
पूरी एक ऋतु










गीत चल पड़ा है

मेरे मन के कोने में
इक गीत कब से दबा हुआ है

सुना है
जल से भरे खेतों में
रोपे जाते धान के पौधों की कतार से
होकर गुजरता था गीत

बौर से लदी आम की डाल पर
बैठी कोयल के
कंठ से होकर गुजरता था गीत

गाँव की मड़ई में
गुड़ की लईया और महुआ की
महक से मतवाले ,थिरकते
किसानों के होठों से
होकर गुजरता था गीत

अब गीत चल पड़ा है
सरहद की ओर
प्रेम का खेत बोने
ताकि खत्म हो बर्बरता

अब गीत चल पड़ा है
अंधे राजपथ और
सत्ता के गलियारों की ओर
ताकि बची रहे सभ्यता




गोधूलि

उजाला ,जो कभी नष्ट नहीं होता
उजाले की उंगली पकड़
अंधेरा पसर जाता है
घुप्प अंधेरे में भी आंखें
टटोल लेती हैं
अपने हिस्से का उजाला

आंगन में उतर आती है सुबह
सुनहले मोहक रंगों से
बुनती है एक पुल
थके पांव
अपनी संवेदनाओ को ढोते
पार कर ही लेते हैं
दिन के बीहड़ रास्ते

बड़ी उदास लगती है सांझ
दो वक्तों का मिलन
एक सवाल की तरह मंडराता है

न जाने कौन सा संदेशा
ले आती है गोधूलि बेला
कि अंतहीन प्रतीक्षा में
हम गुजरते रहते हैं अंतिम सांस तक





 जिल्द

मेरी जिंदगी के साल दर साल
जैसे किताब के पन्ने.....
हर पन्ना आश्चर्य ,हादसा और पीड़ा की
समवेत दास्तान............
कब खत्म होगी यह किताब ???
कब मेरे नज़दीक होगा
आँख मूंदकर खोला गया वो पन्ना
जिस पर ज़ख्मों के सिरे
सिरे से गायब होंगे
और मेरी टूटन गवाह होगी
कि जुगनुओं को करीब ले
मैंने अंधेरे पार किए हैं
और अरमानों को गलाकर,कूटकर ,छानकर
उसके रेशों से
किताब की जिल्द बनाई है








 शहादत

कुछ कलियां है रातरानी में
खिलेंगी रात तलक
गूंथ दूंगा तुम्हारे बालों में
हम मना लेंगे बीसवां साल शादी का
कहा था तुमने

मैं हैरान ,परेशान
ये क्या हुआ तुमको
सूखे सूखे से रहे बीस बरस
अब ये मौसम की ,बहारों की
दस्तक कैसी

जमा था खून रगों में
बह चला जैसे
मेरा वनवास
खत्म हो चला जैसे
गुनगुनाती सी लगी बाद-ए-सबा
हर तरफ शम्मा जल उठी जैसे

खुशी से खाली
सूनी आंखों में
हसीन ख़्वाब तैरने से लगे

कि फट पड़ा बादल
खून से तर तुम्हारी वर्दी पर
आतंकी हमले का खौफनाक मंजर था
सुलग उठी थी मुबंई
कि ढह गया था ताज

पोलीस की आला अफसरी में तैनात
झेली थी गोलियां तुमने
ये शहादत बहुत खूब
मेरे मौला
गर्व से उठ गया था सर मेरा

चढ़ा दिए थे खिले फूल रातरानी के
तुम्हारे चरणों में
कि बीस बरस की शहादत
मेरी भी तो थी
साथ हमसफ़र मेरे




परिचय 
संतोष श्रीवास्तव
 जन्म....23 नवँबर
जबलपुर शिक्षा...एम.ए(हिन्दी,इतिहास) बी.एड.पत्रकारिता मेँ बी.ए
प्रकाशित पुस्तके....बहके बसँत तुम,बहते ग्लेशियर,प्रेम सम्बन्धोँ की कहानियाँ आसमानी आँखों का मौसम (कथा सँग्रह) मालवगढ की मालविका.दबे पाँव प्यार,टेम्स की सरगम,हवा मे बँद मुट्ठियाँ, लौट आओ दीपशिखा,ख्वाबों के पैरहन (उपन्यास) मुझे जन्म दो माँ(स्त्री विमर्श) फागुन का मन(ललित निबँध सँग्रह) नही अब और नही तथा बाबुल हम तोरे अँगना की चिडिया  (सँपादित सँग्रह) नीले पानियोँ की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)

विभिन्न भाषाओ मेँ रचनाएँ अनूदित,पुस्तको पर एम फिल तथा शाह्जहाँपुर की छात्रा द्वारा पी.एच.डी,रचनाओ पर फिल्माँकन,कई पत्र पत्रिकाओ मेँ स्तम्भ लेखन व सामाजिक,मीडिया,महिला एवँ साहित्यिक सँस्थाओ से सँबध्द, प्रतिवर्ष हेमंत फाउँडेशन की ओर से हेमंत स्मृति कविता सम्मान एवं विजय वर्मा कथा सम्मान का आयोजन,महिला सँस्था विश्व मैत्री मँच की संस्थापक,अध्यक्ष पुरस्कार.... अठारह राष्ट्रीय एवं दो अँतरराष्ट्रीय साहित्य एवँ पत्रकारिता पुरस्कार जिनमे महाराष्ट्र के गवर्नर के हाथो राजभवन मेँ लाइफ टाइम अचीव्हमेंट अवार्ड तथा म.प्र. राष्ट्र भाषा प्रचार समिति द्वारा मध्य प्रदेश के गवर्नर के हाथों नारी लेखन पुरस्कार ,महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्य स्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान विशेष उल्लेखनीय है। एस.आर.एम.विश्वविद्यालय चैन्नई के  बी.ए.के कोर्स में कहानी “एक मुट्ठी आकाश” सम्मिलित।
 मुझे जन्म दो माँ पुस्तक पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी की मानद उपाधि।  महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी का राज्यस्तरीय हिन्दी सेवा सम्मान।भारत सरकार अंतरराष्टीय पत्रकार मित्रता सँघ की ओर से 25 देशो की प्रतिनिधी के रूप मेँ यात्रा।

संप्रति लेखन,पत्रकारिता सँपर्क..
505 सुरेन्द्र रेज़िडेंसी
दाना पानी रेस्टारेंट के सामने
बावड़ियां कलां
भोपाल 462039 (मध्य प्रदेश)
 मो .09769023188
Email Kalamkar.santosh@gmail.com

24 फ़रवरी, 2018

स्कन्द शुक्ल की कविताएं




स्कन्द शुक्ल 




स्त्रीलिंग-पुल्लिंग

संस्कृत में देवता स्त्रीलिंग रहा
तुमने उसे पुल्लिंग कर लिया ,
संस्कृत में अग्नि पुल्लिंग रहा
तुमने उसे आग कर स्त्रीलिंग बना लिया ,
इस तरह औरत के सामने आदमी के अर्पित
होने के क्रम का विपर्यय हुआ
और औरतें आदमियों के सामने अर्पित स्वधा-स्वाहा होने लगीं।





जन्मदिन की ड्रेस

हर साल मेरे जन्मदिन पर तोहफ़ा देता है समय
एक पुरानी पड़ती देह के लिए
नयी ड्रेस बिना प्राइस-टैग के
कि इसे पहनो , विचरो , दुनिया-भर में घूम आओ।
बिना जताये परिधान धरने का ढंग
और न बताता था गुर कि साल-भर ढँके घूमने का ड्रेस-कोड क्या है।
दिनों के रेशों से बनीं-सिलीं महीनों की तहें
उन तहों से बने तमाम क़िस्म के वार्षिक डिज़ायन
अपनी-अपनी फ़ितरत के अनुसार
जिस्म की अलग-अलग कमज़ोरियों को छिपाते समाज से।
हर वर्तमान जो मैंने जिया वस्त्र हो लिया
यादों-सबकों के ढेर को रखने लगा इतनी देर तक
कि दिन-दिन मेरे ही अतीत में घिर कर दम घुटने लगा और थमने लगीं साँसें।
समय को पुरानेपन के साथ पहनते जाना है
आलमारियों में नहीं धरना
इतने उपहार हर साल मिलते हैं कि उनका भण्डार बेकार है
सबसे नये बासी साल वस्त्र बनते हैं फिर होते हैं घर
और फिर अगर उन्हें पहन-पहन कर नहीं फाड़ा-झाड़ा गया
तो हो जाते हैं कब्र
इसलिए मैंने अपनी नग्नता से सीखा गुज़रे समय को तार-तार करने का हुनर
हर बीतते वर्ष के साथ स्वयं को देह के और क़रीब पाया है
सामने सड़क पर गुज़रते उस नंगे आदमी को देखते हुए
जिसके पास सालों से अपना कोई अतीत नहीं है।





निजता-सार्वजनिकता

कुछ भी कविता करते समय
किसी को भी मन में भरते समय
मैं आँखों के आगे अपना पसरा अँधेरा रखता हूँ ,
जो मेरे इर्द-गिर्द मुझे और केवल मुझे नज़र आता है।
जब कहीं उस किये-भरे को सुनाता हूँ
तो फिर ठहरता हूँ मेधा की मचान पर सामने चढ़ी काली कालीनों पर ;
क्योंकि ये ही तो हैं जो आगे की उम्मीद हैं ,
कालिम तरुणाई ही बुझेगी-जूझेगी अपने समय के अँधेरे से
क्योंकि समस्याओं और उनके समाधानों के गुणधर्म समान होते हैं।
वसुधा इतनी कुटुम्ब कभी न थी
कभी न जोड़ा गया था इस तरह सबके उजालों-अँधेरों को
पर फिर भी आदमी किसी यन्त्र का पुर्ज़ा नहीं है
इसलिए उसे अपने निजी प्रकाश और अन्धकार की पहचान भूलनी नहीं चाहिए।
ताकि सहयोग-साझेपन के इस दौर में भी बनी रहे मौलिकता
क्योंकि बिना व्यक्ति हुए कोई कितना भी कहे , समष्टि हो नहीं सकता
इसलिए मुझे नौजवानों से प्रत्याशा है
कि वे अपनी निजता को बनाये रखकर
दुनिया के हर दर्द को उतना ही महसूस करेंगे
जितना दूरी को दूर से और नज़दीकी को नज़दीक से किया जा सकता है
और जब सालों बाद जब वे सारे सफ़ेद हो जाएँगे
तो नज़र आएगा उनका गढ़ा समाज तमाम मूलों की माला-सा
जब कोई कवि उन्हें यहाँ मंच से अपनी कोई कविता सुनाएगा।








चिड़िया

कम्प्यूटर-स्क्रीन पर मरी हुई चिड़िया
को उभरा देखकर फटी रह गयी थीं
तुम्हारी जिज्ञासु आँखें अचानक
जम गया था माउस के सहारे
पेजों को कुतरता हाथ वह
गायब हो गये थे जबड़े के थम जाने से
उठते-मिटते कपोलों के वे कोमल उभार।
'नक़ली है' मैंने कहा था :
चिड़िया नहीं मरती किसी चूइंग गम को खाकर इस तरह
चबैने को चीन्हना उसकी चोंच जानती है ,
मगर उतनी ही कृत्रिम है
मशक़्क़त करते मुँह के संग
तुम्हारी मुक्ति की मेहनतकश चाह
---- समय आ गया है कि तुम यह भी जान लो !
समय आ गया है कि तुम यह भी जान लो
कि जानकारियों की फेहरिस्त में ज़्यादातर नक़ली हैं
उड़ानों की कोशिशें इस तरह नहीं की जातीं
अधिकांश आसमान यों झूठमूठ उड़कर नहीं न…




नग्नता-बोध

लगभग छह के हो चले मेरे बेटे ने
जब मना किया सबके सामने बदलने से अपने कपड़े
कहा कि वह अब अकेले नहा सकता है बिना किसी सहयोग के ,
मैं जान गया कि वह भी हम सब की तरह
अदन के बगीचे से बाहर निकल आया है
खाकर वह शैतानी फल जिसे अनजाने चखकर
हम सब बाहर निकले थे कभी।
आदमी का जान जाना कि वह नंगा है
और नंगे होकर रहना सम्भव नहीं है
क्योंकि उसके पास इतना कुछ है ढाँपने-छिपाने के लिए
उसे अदन छोड़ना ही होगा आख़िर गगन में जाने के लिए
उसे आग जलानी है , उसे चाक चलाना है
यन्त्रों पर चढ़कर उसे आगे तक जाना है
पहनावे की एक प्रथा-सी बढ़ती भीड़ में
नग्नता एक पतनप्रियता का अपवाद है
विकास की क़समें खाते हमें पोशाकें पहननी ही होंगी
टहलना होगा सुरक्षा और सरपरस्ती के बगीचों के बाहर
अपनी चाम को बचाते , आराम को धता बताते
लेकिन इस तरह कि भीतर के किसी सूने कोने में गिलहरी की कोई फुदकन बाकी रहा करे।
इसलिए मेरे बेटे , तुम्हें इस नग्नता-बोध के लिए बधाई देता हूँ
लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा प्रसन्नता उस दिन होगी
जिस दिन तुम पोशीदगी के साथ कुछ ऐसा कर जाओगे
कि कोटर से बाहर झाँकेगी वह गिलहरी
कुतूहल से कहती हुई कि अब भी ज़िन्दा हूँ मैं।






आदमी-औरत

सिर झुकाये आदमी उदास नहीं होता हमेशा
वह परकार-सा अपने केन्द्र में गड़ा
अपनी ही परिधि के निर्माण में लगा होता है
भीड़भरे जवान बस-अड्डे पर , सुनसान बुज़ुर्ग पार्क में
दिन में दफ़्तर , रात में घर पर
ज़िन्दगी में फैलने के लिए पहले कोशिश करता है
वह गड़ने की
क्योंकि बिना ख़ुद में खूँटा लगाये कहीं जाया न जा सकेगा
और औरत ? वह क्या ?
वही तो एक है जो
बिना केन्द्रों के कहीं भी वृत्त बना सकती है
जो त्रिज्याओं के तीरों पर वापसी के विश्वास के साथ
कहीं बिना जाए भी हर जगह जा सकती है !








अंग-विन्यास 

आदमी शरीर लिए जन्मा
उसमें अलग-अलग अंग थे
और उन अंगों का अपना अलग-अलग विधान।
पैर सबको ढोने लगे
पेट सबको पालने लगा
बाँहों ने जिम्मा सम्हाला सबकी सुरक्षा का
और मुँह ने सबको , सबके जिम्मे बताने-सिखाने का।
बात यहाँ तक ठीक थी
लेकिन फिर एक दिन जब पैरों ने
मुँह बनने की इच्छा जतायी
तो उन्हें जूते दिखाये गये
याद दिलाया गया उन जूतों में उनका ठिकाना है
और यह बताया गया कि उनके पास जीभ और दाँत नहीं हैं
इसलिए शिक्षा और स्वाद उनके लिए नहीं है
अपनी पंजों-एड़ियों से वे वही करें जो आज तक इतने साल करते आये हैं
यह तो बहुत पहले तय कर लिया गया था कि कौन क्या करेगा
कि किसका किरदार क्या होगा
तो आज फिर यह सवाल क्यों उठाया जाता है ?
और बहुत से जरूरी काम भी तो हैं शरीर के
आओ , क्यों न हम मिलकर उनपर चर्चा करें।
एक अनुमोदन भरे ठहाके से पेट फूला ,
और आज्ञाकारी भुजाओं ने पैरों को मोज़ों में कसकर
उन्हें वहीं पहुँचा दिया जहाँ उनका पुराना ठिकाना था।
पैरों ने खूब कोशिश की भरोसा जीतने की ,
यह समझाया कि उनमें बिवाइयाँ तो फूटा ही करती हैं
उनमें से किसी एक को वे गहरा कर देंगे , मुँह के छेद सा
स्वाद और भाषा की गहराई समेटने के लिए
और किसी एक उँगली को पतला-मुलायम-सुर्ख करके
जीभ भी पैदा करने का प्रयास करेंगे।
और हो सकता है कि इतनी लगन देख कर
दाँतों की पैदावार भी अन्ततः होने ही लगे।
मगर बात बन न सकी , कैसे बनती ?
भला अंग-विन्यास भी कभी ऐसे बदला है ?
इसलिए मुँह का स्वस्तिवाचन जारी रहा
और पसीने में तर पैर चमड़े के ठिकानों से उन्हें हसरत लिए सुनते रहे ,
और फिर अपनी ऐच्छिक राह पर चल पड़े
फिर उनमें बिवाइयाँ फूटी , उनमें से एक मुँहनुमा गहरी हुई
एक पतली उँगली ने जीभ की भूमिका में खुद को ढाल लिया
और ज्यों ही दाँतों की पहली पंक्ति फूटने को हुई
तो नोकदार जीभ चलाकर मुख ने पूछ लिया अचानक चुभता सवाल
कि इतनी देर से श्रम-साधन में लगे पाद-युगल !
तुम तो परन्तु दो हो ,
और मेरा किरदार एक ,
सोच तो लो आख़िरकार
दोनों में से कौन उसे निभायेगा ?





चौदह फ़रवरी

आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
सिसक रहे हैं , फफक रहे हैं
आँसुओं के सैलाब में वसन्त को गीला कर रहे हैं
उनकी पुरानी दुकान जो कॉलेज के सामने थी
आज सुबह बेरहमी से तोड़ी गयी है
बिन पते के रंगीन ग्रीटिंग कार्ड फाड़े गये हैं
नाज़ुक गिफ़्टों को क्रूरता से पटका गया है।
जो कुछ क़िस्मत से बच गया है ,
उसे वे सहेज कर सँजो रहे हैं।

आज चौदह फरवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
उनकी जीविका को जम कर लहूलुहान किया गया है
उनके लड़कों को ख़ूब पीटा-घसीटा गया है
वे मुझसे पूछते हैं कि यह कैसी ऋतु खिली है ?
पैंसठ सालों की ज़िन्दगी में यह आज कैसा वसन्त है ?
अपनी पुरानी फरवरियों की यादों को वे सिरे से पिरो रहे हैं।
आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं।

आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
उन्होंने वैलेंटाइन और वसन्त को एक ही माना था
आज उन्हें सुबह बताया गया कि वैलेंटाइन और वसन्त
दो अलग-अलग मेल के इश्क़ हैं
एक फिरंग है , दूसरा स्वदेशी
इसलिए भारत में विदेशी ढंग से प्यार नहीं किया जाएगा
आप भला क्यों आधुनिकता के नाम पर
अश्लीलता छात्रों में बो रहे हैं ?

मत रोइए अंकल
आँसू पोंछ दीजिए अपने
जिन्होंने यह बलवा काटा है
वे जानते नहीं कि सरस्वती और कामदेव , दोनों
एक ही दिन की पैदाइश हैं
उनका असर एक ही उम्र पर गहरा है
उन दोनों को लाख कोशिश के बाद भी
अलग-अलग किया नहीं जा सकता।
तालीम और मुहब्बत , एक ही दिमाग के कमरे में
एक उम्र तक , एक ही संग रहा करते हैं
अगर एक पर चोट की जाएगी
तो दूसरा चोटिल होगा
अगर एक को घाव दिया जाएगा
तो दूसरा घायल होगा
वैलेंटाइन तो बहाना है अंकल
दमन का दर्द तो असल में दिया जा रहा है
सरस्वती और कामदेव को , एक साथ
प्रेम और विद्या एक ही मेल के होते हैं
हमेशा , हर जगह , हर समय
और अगर दोनों ही नहीं जन्मेंगे
तो न जिस्म पैदा होंगे और न बुद्धि
और तब पूरी दुनिया में
अखण्ड , एकछत्र राज्य होगा मौत का।
ग्रीटिंग कार्ड फाड़ने वाले ,
कोर्स की किताबों को भी नहीं बख्शेंगे
और न गिफ्ट तोड़ने वाले ये देखेंगे कि वह फैंसी पेन
कभी इम्तेहान लिखने के भी काम आ सकती है
इसलिए यह ऋतुराज के मौसम में पतझड़ की आहट है
पर्यावरण बदल रहा है , इसे बूझिए भलीभाँति
आप क्यों वैलेंटाइन और वसन्त के नामों में
उलझ कर उनके गहरे सारांश को खो रहे हैं ?











ओले की गलन

कमरे के भीतर से झाँकते हैं शहरी
कि आज बाहर ओले गिरे हैं !
पकौड़ियाँ तली जा रही हैं यहाँ
चाय के घूँटों के साथ उतारी जाएँगी नीचे हलक से अभी ,
यहाँ से महज डेढ़ किलोमीटर दूरी पर
गेहूँ की खड़ी फसल चित हो गयी है
मगर अन्नदाता के पास आँसू भी नहीं बचे हैं अब
हलक से नीचे उतारने को।
ये ओले नहीं हैं
रबर की गोलियाँ हैं
जो प्रदर्शन करती हरी भीड़ पर
आसमानी सत्ता ने चलायी हैं
उपज को तितर-बितर करने को
ताकि भूख का वर्चस्व यों ही कायम रहे।
ये ओले नहीं हैं
मधुमक्खियों का झुण्ड है
शान्ति से प्रदर्शन करती जनता पर
किसी ने आन्दोलन को रफा-दफा करने के लिए
ऊपर नीले छत्ते पर शरारत से ढेला उछाला है।
और यहाँ ? न जाने क्या खाया जा रहा है तल कर
गर्म पकौड़ियाँ , ठंडे ओले या निश्ताप अन्नदाता !
ओला भी क्या चीज़ है
कितनी तरह से रूप बदल कर
वह लोगों की भूख मिटाता है
गाँवों में वह स्वर्ग से पेट पर पथराव है
और शहर के लिए वह तेल पर तैरती पकौड़ियाँ और मरते किसान है ,
गाँवों और शहरों दोनों के लिए
ओलों की बारिश की मार एक सी ही है
मगर गाँव तुरन्त और सीधे मरता है
और शहर कल पकौड़ी और किसान को खाकर मरेगा।





संक्षिप्त परिचय

सितम्बर 22 1979 को राजापुर , बान्दा में जन्म।
वर्तमान में लखनऊ में गठिया-रोग-विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत।
वृत्ति से चिकित्सक होने के कारण लोक-कष्ट और उसके निवारण से सहज जुड़ाव।
साहित्य के प्रति गहन अनुराग आरम्भ से।
अनेक कविताएँ-कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
साथ ही दो उपन्यास 'परमारथ के कारने' और 'अधूरी औरत' भी।
सामाजिक मीडिया पर भी अनेकानेक वैज्ञानिक-स्वास्थ्य-समाज-सम्बन्धी लेखों-जानकारियों के माध्यम से सक्रिय।
फ़ोन : 9648690457
ईमेल : shuklaskand@yahoo.co.in

22 फ़रवरी, 2018


पड़ताल: महेश पुनेठा की कविताएं


मैं जीते जी मुर्दा बनना नहीं चाहता हूं

डॉ अनिल कुमार सिंह



"आजकल " का जनवरी अंक 'युवा कविता के प्रखर स्वर' पर केन्द्रित है।इसमें एक बड़ा एवं महत्वपूर्ण स्वर मेरे प्रिय कवि महेश चंद्र पुनेठा जी का भी है।उनकी कविताएं उनके सहज व्यक्तित्व और जन सरोकारों की सच्ची बानगी हैं। अपने जीवन में वह जितने सरल और कोमल हैं, अपनी वैचारिकी और रचना में उतने ही सुदृढ़। सत्ता के सामने घनघोर चुप्पी के दौर में भी मरने से पहले उन्हे 'मुर्दा-चुप्पी' स्वीकार नहीं है-

मुझे मालूम है कि 
मेरे बोलने की सजा मृत्यु दंड भी हो सकती है
लेकिन मैं चुप नहीं रहूँगा क्योंकि 
मुझे यह भी मालूम है कि 
मुर्दे बोलते नहीं हैं 
मैं जीते जी मुर्दा नहीं बनना चाहता हूँ ।



अनिल कुमार सिंह

महेश जी अपनी एक छोटी सी कविता 'गांव में सड़क' में विकास की पूंजीवादी अवधारणा की पूरी पोल पट्टी खोल देते हैं और उसमें विन्यस्त आमजन के शोषण के मंसूबे को सरेआम नंगा कर देते हैं ।आमजन इस कविता की रौशनी में समझ सकते हैं कि कैसे विकास के नाम पर उनके संसाधनों को छीना जा रहा है और इसका विरोध क्यों जरूरी है?सड़क के बहाने महेश जी इस कविता में संवाद करते हैं ठीक वैसे ही जैसे कबीर अपने समकालीनों को बार-बार 'सुनों भई साधो' कहकर संबोधित और सचेत कर रहे थे। कविता में संबोधन की यह प्रविधि गहरी निष्ठा, गहरी पीड़ा और खुद विक्टिम होने से पैदा होती है।

अब पहुंची हो सड़क तुम गांव 
जब पूरा गांव शहर जा चुका है 
सड़क मुस्काई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खटिया तो बची है न।

इस कविता को हमारी युवा पीढ़ी को जरूर पढ़ना चाहिए जो दलाल मीडिया के प्रभाव में कई बार लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और सोशल एक्टिविस्टों को विकास विरोधी समझने लगते हैं ।दरअसल यह हमारे संसाधनों की लूट का सवाल है, असमान विकास का मुद्दा है और सबसे बढ़कर यह बहुत कुछ को बेरहमी से नष्ट कर दिए जाने का प्रतिकार है।सैकड़ों वर्षों में जो प्रकृति और संस्कृति विकसित होती है उसे विकास के नाम पर पल भर में खत्म कर दिया जाता है ।यह साझी मनुष्यता की अपूर्णनीय क्षति है।जिसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सहन करना बहुत कठिन है, इसलिए कवि अपने दोस्तों से प्रार्थना करता है कि शहर से गांव लौटी आमा को मत बताना कि उसका गांव भी डूब क्षेत्र में आने वाला है।आमा के लिए गांव महज गांव भर नहीं है।यह एक भरी-पूरी संस्कृति है।जहां स्मृतियों का एक जीवन्त कोलाज़ सांसे लेता है जिसे विस्थापित करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। यह जीवन से सम्पृक्त है।इस कविता में महेश जी ने शहर से गांव लौटती आमा के उमंग और उत्साह को व्यक्त करने के लिए एक अद्भुत बिम्ब रचा है-

गांव को लौटते वक्त जिसकी चाल में 
बहुत दिनों बाद गोठ से खोले गये
बछिया की सी गति देखी गई ।

दरअसल केवल आमा का गांव ही डूब क्षेत्र में नहीं है, हम सभी इसकी जद में हैं ।राजेश जोशी की कविता 'जो सच बोलेंगे मारे जायेंगे 'की तर्ज पर, क्योंकि बहुत थोड़े से स्वर हैं जो सच के हक में मुखर हैं ।शेष समाज सोये हुए आदमियों का समाज है ।सोया हुआ आदमी सबसे कमजोर और अपने ही प्रति सबसे लापरवाह होता है।बावजूद इसके कि -

दुर्घटना में मारे जाने की
सबसे अधिक आशंका सोए हुए 
आदमी की ही होती है 

उसे जगाए रखना आसान नहीं ।



यह और मुश्किल तब हो जाता है जब सोने वाले को लगातार जाति,धर्म, नस्ल की शक्ल में नींद की गोलियां दी जाती रही हो और वह इसी में आनंद पाने का आदी हो जाए। पर जैसा कि हमारे साहित्यिक पुरखे कह गये हैं कि 'अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है ' महेश जी जगाने को उद्धत हैं ।

उनकी कविताएं यह चुनौती स्वीकार करती है ।अपनी ग्राह्य भाषा और सहज शिल्प के कारण कविताएं पाठक को रुचती हैं और इन्हें पढ़कर पाठक वही नहीं रहता जो पढ़ने से पूर्व था।ये कविताएं बकौल मुक्तिबोध 'अन्तः करण के आयतन' को विस्तारित करने में सक्षम हैं ।
पड़ताल:  प्रवेश सोनी की कविताएं

 राकेश पाठक


आप समाज में घटित हो रही चीजों को जैसे देखते है..जिस रूप और स्वरूप में आपके आंखों से गुजरते है वह घटनाक्रम, अगर उन्हें उसी रूप-दृश्य को शब्द रूप में पढ़ना है तो प्रवेश सोनी की कविताएं एक बार आपको पढ़नी चाहिए..

दरअसल कविता और अभिव्यक्ति दोनों के अनुनाश्रिक संबंधों के बीच भी एक बारीक अन्तर है.. भाव प्रकटीकरण और प्रस्तुति का..अभिव्यक्ति प्रस्तुति का हिस्सा है और कविता भाव स्वरूप का..काव्योक्त होना पाठक का शर्त नहीं है बल्कि आलोचक का है पर पाठक को कविता में संवेदना चाहिए और वो सारी चीजें, संवेदना, उत्स, भाव, रस सब प्रवेश सोनी जी कि कविताओं में प्रचुरता से मौजूद है..

राकेश पाठक

बिजूका पर इनकी कविताएँ पढ़ी ..प्रकृति और स्त्री पर लिखी इनकी कविता ग़जब की प्रच्छन्न उच्छ्वास से भरी है..उन बिम्बों को आप पढ़कर बेचैन भी होते है और चिंतित भी..जब पाठक इन चिंताओं से कविता पाठ के क्रम में खुद को जोड़ने लगे तो समझिए कविता अपनी उत्स पा रही है..यह कविता पढ़ते वक्त ऐसा उत्स पाठक को महसूस होता है और यही कवि और उसके रचनाकर्म की विशिष्टता का निरूपण करता है....

 इनकी स्त्रियोक्त कविताएँ बेचैनी और भय से संयुक्त है एवम रोष और चिंता से भरी हुई कई सवाल भी खड़े कर रही है..दरअसल इन रचनाओं की प्रकृति और शैली पाठक से सीधे संवाद से जोड़ती है..पहली, दूसरी, तीसरी कोई भी कविता देखे अन्त में कवियत्री एक प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है..इतने कम शब्दों में जब पाठक के समक्ष कविता कोई सवाल छोड़े तो मानिये कविता अपना प्राप्य पा चुकी हैं..

बहुत बोलती औरतें कविता भी अपने कहन में अलहदा है...कहा जाता है कि दुनिया का आठवां आश्यर्च दो औरतें का एक साथ चुप बैठना है..यह दिखावटी तौर पर सच है पर  इतना बोलने के बाद भी औरतें बहुत कुछ अनकहा रखे रखती है..जज्ब सीने के भीतर..औरत के सीने में कितनी औरतें छिपी है इसके लिये आपको स्त्री का सौंदर्य छोड़ आपको स्त्री को अलग रूप में समझना होगा.. यह औरतों की वाचालता नहीं सहनशीलता की पराकाष्ठा की प्रतीति बता रही है...

इनकी पहली कविता चुप्पी देखिये..कितनी वाचाल है अपने कहन में..इसकी लाउडनेस इनकी अंतिम पंक्तियों में बड़े ही सरलता के साथ ही मन पर उभर आता है एक आश्चर्य मिश्रित संवेदना के साथ..यही इनकी दूसरी और तीसरी कविता में व्यक्त हुआ है..
देह का अवदान रही स्त्रियां.. इस कविता की यह पंक्ति कोई रूपक या अतिश्योक्ति सी नही लिखी गयी है बल्कि स्त्री के समस्त अवदान पर एक लंबी रेख खींच रही है..नर्तकियों, गणिकाओं, गायिकाओं, अप्सरा जैसे शब्दों की प्रतीति कर जब अंत में देह के अवदान पर कवियित्री बात करती है तो स्त्री के समस्त दुःख, पीड़ा, बेबसी, परम्परा औऱ पुरुष भोक्त समाज की स्त्रियों का वेबस चित्र खींच देती है..स्त्री और देह के अनुनाश्रिक संबंधों में जो शोषण और ज़लालत है वह अनायास ही कविता पढ़ते समय पाठक के मन में अनुगुंजित होने लगता है..कविता का बिम्ब प्रधान ज्यादा न होना भले ही आपको खल रहा हो पर कविता पढ़ते से पाठक के अंदर प्रश्न पैदा कर जो लाउडनेस यह कविता भरती है फिर बिम्बों की कहाँ जरूरत रह जाती है कविता में..??

तीसरी कविता कहती है कि पुरुष और स्त्री दो इकाइयां है जो कभी सम नही हो सकते..एक वैचारिकी के लिये एक सवाल भी छोड़ती है कि तुम्हारा नफा जीत था औऱ मेरा..!!!

यह कविता स्त्री पुरुष संबंधों के केंद्र में रखकर लिखी गयी है ..सदियों से चली आ रही परम्पराओं में भी स्त्री का सम न होना ही सृष्टि का नींव है..जब जनन, मातृत्व, समागम और संधान जैसे शब्दों के साथ इस कविता को पढ़ते है तो कविता का भाव आलोचना के लिये मजबूर करता है..इस कविता में एक स्त्री मन को व्यक्त करने का जो प्रयास किया गया है वह उतना सफल नही हो पाया..कविता के भाव और बिम्ब में कई विरोधाभासी  तत्व है..स्त्री के पूर्णता का सत्व भी अगर कवियत्री बताती तो यह कविता थोड़ा ज्यादा स्पष्टता से प्रकट होकर सामने आती..होता क्या है स्त्री को नायक बनाकर लिखी जा रही कविताओं में विचार स्पस्ट रूप से उभरकर सामने नही आ पाता परिणामतः कविता अपना सत्व और कवियत्री अपनी कहन में सम्प्रेषणीयता नही ला पाती..

पाँचवी कविता बेचैनी और पीड़ा के साथ शहर में जूझते लोगों की सन्त्रास कथा है..कविता थोड़ा ज्यादा ही सपाट है और एक पाठकीय रिदमता जो कविता में होनी चाहिए उसकी थोड़ी कमी सी लगी हमें..कविता के हर शब्द एक दूसरे से समाधिस्थ होनी चाहिए तब वह पाठक को अपने जद में लिए चलती है..यहां कविता को पुनर्लेखन किया जाए तो एक बेहतरीन कविता पाठक को पढ़ने को मिलेगी..

दरअसल कविता लिखना भी एक समाधी की अवस्था है..भाव में डूबकर ही भावनात्मकता से भरी जाती है..पीड़ा को महसूस कर के ही पीड़ा के बिम्ब उकेरे जा सकते है..यह दुख, संत्रास, प्रेम, गुस्सा आदि कविता की परिधि होते है..यही बाह्य भ्रम रचते है और यही कविता में उत्फुलता लाते है..जब कविता सोची जा रही होती है तो अतीत में होते है इतिहास गुनते हुए..जब कविता लिखी जा रही होती है तो वर्तमान में दुख, सुख, गुस्सा, प्रेम को जी रहा होता है आदमी..समाधिस्थ होकर...जब कविता लिख दी जाती है तो संत और बुद्ध की तरह सुकूँ से भरा हुआ निर्लिप्त होता है आदमी..

बहुत बोलती औरतें कविता हो या उदास अकेले कविता उगा रही स्त्री हो हर स्वरूप में कवियित्री एक प्रयोग कर रही है..एक नया वितान रचने का प्रयास कर रही हैं..कुछ कविताएँ बेहद साधारण है और कुछ गंभीर कविताओं की प्रतीति भी साधारण की तरह हो रही है जिसका कारण कविताओं का सपाट होना है..कवियत्री अगर चाहे तो थोड़े शब्दों के और प्रयोग से कविताओं का अलग वितान मूल भाव के साथ रच सकती है जो शायद पुनर्पाठ में संभव हो जायेगा.. कुछ जो गंभीर कविताएँ है इन्ही सपाट कविताओं के कारण पाठक को साधारण लगेगी परन्तु इसका मूल स्वरूप बेहद सारगर्भित और अर्थपरक है..उनकी अर्थवत्ता भी बिल्कुल ही अलहदा और जुदा है..जरूरत है एक बार इन कविताओं को कवि के नजरिये से पढ़ने समझने की...

कवियत्री की कुछ रचना काव्य की स्थापित विधा से हटकर अलग लकीर खींचती है..मैं इन्हें कला मर्मज्ञ तो मानता ही हूँ और एक कवियत्री के तौर पर बेहद संभावनाशील मानता हूं...
००
प्रवेश सोनी की कविताएं यहां पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.in/2018/02/blog-post_8.html?m=1




संक्षिप्त परिचय..

6 वर्षो तक स्टिंगर के रूप में एक अखबार में काम..फिर नक्सल क्षेत्र में एनजीओ में यायावरी...राजस्थान के एक सीमेंट कंपनी, श्री सीमेंट में एडमिनिस्ट्रेशन एवम बिज़नेस डेवलपमेंट में 6 साल गुजारे... सम्प्रति उत्तर रेलवे के हरिद्वार स्टेशन पर मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक के रूप में कार्यरत..वैदिक साहित्य में गहरी रुचि और इन पुरातन साहित्यों में विज्ञान के तत्वों के अन्वेषण व पड़ताल में रुचिगत शोध...इन शोध के तत्वों पर भास्कर के अहा जिंदगी में एक लेख प्रकाशित..दैनिक जागरण पटना में मगधी भाषा के कॉलम..'अप्पन बात ' का कुछ समय तक लेखन भी किया था....


सादर

राकेश पाठक
मुख्य स्वास्थ्य निरीक्षक
उत्तर रेलवे, हरिद्वार रेलवे स्टेशन
पाठक मिलते, तो कहानी रचता

उमा


मेरा ताल्लुक बीकानेर से रहा है, एक ऐसा शहर जहाँ आज भी पाटा संस्कृति का चलन है, मुँह में पान दबाये हुए लोग घंटों पाटे पर बैठे बतियाते रहते हैं, कई तो ऐसे भी हैं, जिनकी रात भी इन पाटे पर गुजर जाया करती है। यहाँ से निकले कुछ किस्से बड़े कमाल के होते हैं, जो शहर की सीमा लाँघ जाते हैं और सब जान जाते हैं कि यहाँ के लोग तसल्ली पसंद है, भांग के नशे से ज्यादा, बातों का नशा पसंद करते हैं, लेकिन अधिकतर शहरों ने ऐसे कल्चर को बहुत पीछे छोड़ दिया है, लेकिन बतकही के बिना चैन कहाँ! 

कहानीकार उमा 


पहले आरकुट, फिर फेसबुक, ट्विटर और वॉट्सएप के चलन ने बतकही के लिए एक नया ठिकाना दे दिया। सोशल मीडिया पर वर्चुअली बस जाने के लिए लोगों की बाढ़ सी आ गई। शुरुआती जान-पहचान के बाद, जब याराना पुराना हो चला, तो फिर वहीं पाटा संस्कृति यहाँ भी दिखाई देने लगी। आज क्या बनाया, क्या पहना से लेकर क्या हुआ तक। बात इतनी बढ़ी है कि कुछ लोग इधर-उधर का सामान जुटा कर पोस्ट करने लगे, तो कुछ लोग फेसबुक की भित्ती पर आखर मढ़ते रहे। कुछ लोगों को लिखा इतना दिलचस्प बन पड़ा कि अखबारों-पत्रिकाओं की नजरें भी इन दीवारों को निहारने लगी और छपने लगे वो लोग भी, जिनकी रचनाएँ बिना पढ़े ही लौटा दी जाती थीं। बोधि प्रकाशन की ओर से फेसबुकिया कवियों को छपने का मौका दिया गया। स्त्री विमर्श पर किताब आई 'स्त्री होकर सवाल करती हैं वहीं एक अन्य संग्रह 'शतदल'  में सौ लोगों की कविताओं को प्रकाशित किया गया। ई-पब्लिकेशन और साहित्यिक वेबसाइट के चलन से तकनीक पसंद लेखकों की जमात लगातार बढ़ती ही गई। ये सोशल मीडिया का ही कमाल है कि नई पीढ़ी जल्दी से पुरानी हो रही है, वहीं पुरानी पीढ़ी अपने वजूद को बनाए रखने के लिए वर्चुअल ठिये तलाशना शुरू कर चुकी है। लेखक को यह तो समझ आ ही गया है कि जो दिखेगा वो ही बिकेगा। हालांकि अब भी कई लेखक हैं, जिन्हें यहाँ ठहरना रास नहीं आता, लेकिन वे भी यहाँ यदा-कदा आते हैं और साझा कर जाते हैं कि वे फलां फलां जगह छप रहे हैं, फलां फलां रचनाएँ आ रही हैं। लेखक प्रचार का एक तरीका सीखता है, इतने में दूसरा आ जाता है। लेखक असमंजस में है, पाठक उससे भी ज्यादा असमंजस में। अखबार में साहित्य कम हो गया है और सोशल मीडिया में ज्यादा, ऐसे में नई किताबों के बारे में जानने का जरिया भी सोशल मीडिया बन चुका है, तो एक नई चुनौती है लेखक के सामने, अपनी किताब के लिए पाठक ढूँढऩा। और पाठक को चाहिए कुछ नया। नये शब्द गढ़े नहीं जा रहे, नए मुहावरे हैं नहीं, तो नए प्रयोग ही सही! शायद यही वजह है कि फेसबुकिये लेखकों ने एक नया प्रयोग किया। फेसबुक पर एक ही कहानी को तीस लोगों ने आगे बढ़ाया और तीस दिन में लिख डाला और सामने आया एक उपन्यास '30 शेड्स ऑफ बेला'। पत्रकार जयंती रंगनाथन के संपादन में आई यह किताब इसलिए ज्यादा खास है कि इसे लेखकों ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से ही आगे बढ़ाया है। किताब खूब चर्चा में है, नया प्रयोग एक स्त्री के जीवन में कैसे-कैसे रोचक मोड़ लेकर आता है, पाठक जानना चाहता है।
लेखन में प्रयोग करना यूँ तो नया नहीं है। सालों पुरानी पंरपरा है, पर सालों पीछे जाने से पहले करीब दो साल पीछे जाना होगा आपको याद आ जाएगा कि किस तरह फेसबुक और ट्वीटर पर सिक्सवर्डस्टोरी ट्रेंड कर रहा था। छह शब्दों में कहानी लिखना हर किसी के बस का है नहीं, फिर भी लोग कुछ भी लिख रहे थे, पर कुछ ने कमाल भी लिखा।  शब्दों की जादूगरी खूब दिखाई। उन दिनों खूब वायरल हुई कुछ कहानियाँ इस तरह हैं-
कहानी होती, संवार लेते, जिंदगी थी।
वह चुप रहा, चुप्पी बोलती रही।
चलने से बनी पगडंडी, खुला रास्ता।
न जाने किसने ये कवायद शुरू की, न जाने ये कहाँ से नन्ही सी कहानियाँ चली आईं! बात निकली थी, तो दूर तलक जानी ही थी, गई भी, करीब सौ साल पीछे और एक अमेरिकन लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे तक जा पहुँची। कहा जाता है कि वे ही अति लघु कथा या यूँ कहें कि अति लघु वाक्य कथा के प्रवर्तक और जन्मदाता थे। उनकी कहानी 'फॉर सेल, बेबी शूज, नेवर वोर्न' ही पहली सबसे छोटी कहानी मानी जाती है, हालांकि यह अभी तक प्रमाणिक नहीं है। फिर भी इस कहानी के पीछे भी एक छोटी सी कहानी है कि एक बार हेमिंग्वे अपने दोस्तों के साथ एक रेस्त्रां में बैठे थे। उनमें शर्त लगी कि कोई सबसे छोटी कहानी लिख कर दिखाए। हेमिंग्वे ने इस चुनौती को स्वीकारा और छह शब्दों में कहानी लिखी। कुछ इसे कहानी नहीं मानते, बल्कि अखबार में छपा एक विज्ञापन मानते हैं। खैर जो भी हो, वो कहानी हो या विज्ञापन हो, वो आज तक चर्चित है, संदेश पाठक तक पहुँचना सबसे अहम जरूरत है। सिक्स वर्ड स्टोरी के नाम से एक वेबसाइट भी चलन में हैं, जहां ऐसी ही कहानियों को मंच मिलता है। ऐसी प्रतियोगिताएं भी आयोजित होने लगी हैं। ट्विटर पर भी बाकायदा एक ट्विटर हैंडिल 'टेल्स ऑन ट्वीट' के नाम से मौजूद है, जिसे मनोज पांडेय संचालित करते हैं। 
ट्विटर के बढ़ते चलन को देखते हुए मनोज ने एक प्रयोग किया, जो बेहद सफल रहा। वे दुनियाभर से बड़े से बड़े लेखकों, विचारकों को इससे जोड़ते हैं। 140 अक्षरों में सिमटी नन्ही कहानियाँ हमेशा मासूम नहीं होती, कभी सरकार पर तंज कसती हैं, कभी इतिहास को खंगालती हैं, तो कहीं जीने का सलीका सिखाती हैं। मनोज की इस पहल में शशि थरूर भी शामिल हुए। उनकी कहानियाँ भारत के इतिहास और राजनीति पर केंद्रित होती हैं। उसके बाद सलमान रुश्दी और जीत थाइल जैसे लेखक भी जुड़े। टेल्स ऑन ट्वीट्स अब किताब के रूप में भी मौजूद है। हालांकि ये माइक्रो कहानियाँ खास संदर्भ लिए हुए होती हैं, ये एक लेखक को तो माँजती है, उसके शब्दों की धार को तो पैना करती हैं, लेकिन सामान्य पाठक को उस तरह समझ नहीं आती और जो एक लेखक की जिद है, समाज को बदलने की, वो पूरी नहीं हो पाती। ये माइक्रो कहानियाँ एक खास रूप में, जैसे अनमोल वचन के रूप में या किसी विज्ञापन के रूप में ही आम लोगों के गले उतर सकती है और ये दोनों ही चीजें बेहद मुश्किल है। एक लेखक का संत बन जाना या एक लेखक का खुद को बाजार को सौंप देना ही ऐसा करवा सकता है। 
'घड़ा है, उसमें पानी भी है, पर प्यास मर चुकी है।' सोचिए ऐसा हो, तो कोई क्या करेगा, वो घड़े में ही दोष निकालता रहेगा। अगर आप प्यासे हैं, तो रोज सुबह आपके वाट्सअप पर आपके साहित्यिक ग्रुप में पोस्ट की गई रचनाएँ आपके लिए ही हैं, बशर्ते वो ग्रुप अनुशासन में रहे, जैसे इंदौर के सत्यनारायण पटेल का बिजूका ग्रुप। सोशल मीडिया के इस दौर में सेल्फी तो लेनी चाहिए, लेकिन अपने अंतर्मन की, एक सवाल करने की जरूरत है कि आप क्यों लेखक हैं? वरना तो प्रेम ऋतु चल रही है और पिछले साल की तरह ही फिर कोई चुनौती आपको मिल सकती है, पांच शब्दों की एक प्रेम कहानी लिखिए। आप सोचिए आप क्या लिखेंगे! क्या कुछ ऐसा- 'यार मिलता, तो इश्क करता ' या फिर कुछ ऐसा-'पाठक मिलते, तो कहानी रचता! '
००

20 फ़रवरी, 2018

द इनसाइडर: सत्य की कीमत 
विजय शर्मा




विजय शर्मा 


‘आर यू ए बिजनेसमैन ओर ए न्यूजमैन?’

यह एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न है। खासकर आज के समय में जब न्यूज पेड न्यूज हो गई है और पत्रकार बड़े मीडिया हाउस घरानों के गुलाम। एक समय था जब पत्रकरिता का मतलब मिशन था। लोग जोखिम ले कर यह काम किया करते थे। अधिकतर देशों में यह उनकी आजादी के प्रश्न से जुड़ा हुआ था, उनके स्वतंत्रता आंदोलन का प्रमुख हिस्सा था। अब प्रतिबद्ध और खोजी पत्रकारिता के दिन लद गए हैं, नैतिकता को बाय-बाय किया जा चुका है, तिलांजलि दी जा चुकी है। आज पत्रकारिता स्वतंत्र मिशन नहीं एक उद्योग में परिणत हो चुकी है। आज की पत्रकारिता भी फ़ैशन की चकाचौंध से ग्रस्त है। खासकर टीवी पत्रकारिता पर टीआरपी तथा गंदी प्रतियोगिता हावी है। एक्सक्लूसिव न्यूज, पहली बार, इतिहास में पहली बार शब्दों से अपना डंका खुद पीटा जाता है। इंफ़ोटेनमेंट, खबर सब को मनोरंजक बना कर प्रस्तुत करना चलन में है। चेनल वालों का कर्मचारियों से स्पष्ट कहना है, यदि खबर के पीछे पड़ना है तो अपना रास्ता नापों, बहुत खड़े हैं लाइन में, कौड़ी के चार मिलते हैं पत्रकार। बेरोजगारी का जमाना है और परिवार का पेट पालना है तो कैसा मालिक कहे वैसा करने में ही भलाई है।

दूसरी ओर हैं भ्रष्ट उद्योगपति। मुनाफ़े के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। व्यापार में मुनाफ़ा इनका ईश्वर है। इन्हें झूठी कसमें खाने से भी परहेज नहीं होता है। पैसे के बल पर ये सबको खरीदने का मुगालता पाले बैठे हैं। मजाल क्या कोई अखबार, टीवी इनके खिलाफ़ कोई खबर प्रसारित करे। इनके काले कारनामे सबको पता हैं। लेकिन बिल्ली के गले में कौन घंटी बाँधे। मोटी सैलरी दे कर इसीलिए लोगों को काम पर रखते हैं ताकि लोग इनके काम पर परदा डाले रहें। ऐसे में कोई कर्मचारी भले ही वह कितने ऊँचे पद पर हो से वफ़ादारी की उम्मीद पालना गलत कैसे? फ़िर भला कोई ऑफ़ीसर कंपनी के हित को ताक पर रख कर अपनी आत्मा की बात सुनने लगे तो ऐसे व्यक्ति के साथ कंपनी की सहानुभूति क्यों हो? और क्यों भूल जाते हो नौकरी ज्वाइन करते समय गोपनीयता की शपथ नहीं खाई थी? वह भी मौखिक नहीं लिखित रूप में। और हस्ताक्षर करते समय बारीक लिखावट में दिए नियम नहीं पढ़े थे क्या? अगर इसके बाद भी कंपनी की पोल खोलने पर तुले हो तो कंपनी से क्या उम्मीद करते हो? वह तुम्हें सिर-माथे पर बैठाएगी? नहीं, कदापि नहीं। वह तुम्हें पहले चेतावनी देगी और न माने तो धमकी देगी और इस पर भी न सुना तो धमकी को कारगर करेगी। इसके बावजूद कुछ लोग जीवन और परिवार को दाँव पर लगा कर सत्य का पक्ष लेते हैं। परिणाम उन्हें ज्ञात है, मगर बिगाड़ के भय से वे क्या ईमान की बात न करेंगे?






कुछ इसी तरह की घटना कुछ साल पहले अमेरिका में घटी थी। जेफ़री विगैंड अमेरिका की एक बहुत बड़ी तम्बाखू कम्पनी ब्राउन एंद विलियमसन में एक बहुत ऊँचे ओहदे पर काम कर रहे थे। वे वैज्ञानिक हैं। कंपनी के तम्बाखू में खतरनाक रसायन मिलाने के खिलाफ़ थे नतीजन उन्हें कंपनी से १९९३ में निकाल दिया गया। वैसे उन्हें निकालने का कारण उनकी संप्रेषण कुशलता अच्छी न होना बताया गया। इतना ही नहीं उन्हें चेतावनी दी गई, वे कंपनी की गोपनीयता के नियमों का पालन करने का ध्यान रखे वरना उन पर कानूनी कार्यवाही की जाएगी, उनके परिवार को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाएँ रोक दी जाएँगी। इसके बावजूद उन्होंने एंटी टोबाको इन्वेसीगेटर्स के साथ सहयोग करने का निर्णय लिया। खबर फ़ैलते ही उन्हें धमकियाँ मिलने लगीं। जान की परवाह न करते हुए उन्होंने जूरी के सामने अपनी बात रखी। इतना ही नहीं अमेरिका के सीबीएस चेनल के प्रसिद्ध टीवी शो ’६० मिनट्स’ पर भी साक्षात्कार दिया। १९९६ में उनका केस ‘कोरपोरेट विसल ब्लोअर’ के नाम से विख्यात हो गया। टीवी साक्षात्कार, कोर्ट (फ़िल्म में वास्तविक मिसिसिपी कोर्ट में यह दृश्य फ़िल्माया गया है) तथा ‘वॉल स्ट्रीट जरनल’ में उन्होंने कहा कि ब्राउन एंड विलियमसन जानबूझ कर तम्बाखू में अमोनिया जैसे रसायन मिलाते हैं ताकि सिगरेट धूँए में निकोटिन का प्रभाव बढ़ जाए। साथ ही ये कंपनियाँ इन बातों को छिपाने और अपने उत्पाद्य के प्रचार-प्रसार के लिए कई अभियान चलाती हैं। लेकिन ऐसी सिगरेट की लत पड़ जाती है और यह फ़ेंफ़ड़ों के कैंसर का प्रमुख कारण बनती है। नतीजा हुआ, ब्राउन एंड विलियमसन कंपनी पर मुकदमा चला और कंपनी को २४६ बिलियन डॉलर का हरजाना राज्य को देना पड़ा।

यह सत्य था, ब्राउन एंड विलियमसन सिगरेट कंपनी स्वास्थ्य के खतरों को जानते हुए भी रसायन मिला कर निकोटिन की मात्रा बढ़ाती थी। साथ ही कई तम्बाखू कंपनियों के सीओ ने कॉन्ग्रेस के समक्ष शपथ ग्रहण कर कहा था कि उनका उत्पाद्य स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित है। जेफ़री ने यह काम नैतिकता के दवाब में किया, कहीं प्रतिकार की भावना भी अवश्य थी। जेफ़री को अपने लिए ‘विसल ब्लोअर’ शब्द अच्छा नहीं लगता है लेकिन यह उनसे जुड़ गया है। न ही वे खुद को शहीद के रूप में देखते हैं। कंपनी में वाइस प्रेसीडेंट के पद पर रहते हुए उन्हें न केवल बहुत मोटा वेतन मिलता था वरन लीसविले के एक बहुत पॉश इलाके में बहुत बड़ा घर (८,३०० वर्गफ़ुट), महँगी कार, कीमती गोल्फ़ क्लब की सदस्यता और अन्य तमाम सुविधाएँ मिली हुई थीं। उनकी दोनों बेटियाँ खूब अच्छे-महँगे स्कूल में पढ़ रही थीं।

अब उनका जीवन पूरी तौर पर बदल चुका है। वे बच्चों को तम्बाखू के खतरों से आगाह करने के लिए एक फ़ाउंडेशन ‘स्मोक-फ़्री किड्स’ चलाते हैं। सत्य बहुत महँगा होता है और जेफ़री सत्य का मूल्य चुका रहे हैं। अपने खर्च के लिए एक समय वे ड्युपोंट मैनुअल मैग्नेट हाई स्कूल में जापानी भाषा और केमिस्ट्री पढ़ा रहे थे। उन्हें १९९६ में केंटकी राज्य का टीचर ऑफ़ दि इयर का नाम मिला। इन परेशानियों के बावजूद उनका कहना है यदि मौका आया तो वे फ़िर से बिना किसी हिचकिचाहट के ऐसा ही करेंगे। वे अपनी आंतरिक शांति से संतुष्ट है। उन्हें अच्छा नाम मिला है, वे इस नाम की रक्षा करना चाहते हैं।

इसी सत्य घटना पर मिशेल मान ने ‘दि इनसाइडर’ फ़िल्म बनाई है। मिशेल मान के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में जेफ़री विगैंड की भूमिका में हैं रसल क्रो। लेकिन फ़िल्म का सारा शो ले गए हैं, ‘६० मिनिट्स’ के प्रोड्यूसर  लोवेल बर्गमैन बने एल पैचिनो ने। पिछली सदी के छठवें दशक में हर्बर्ट मारकस का नव वाम पर बड़ा प्रभाव था, बर्गमैन उसे अपना मेंटर मानता है। वह एक बार कहता है कि वह अब भी कठिन स्टोरीज करता है और ’६० मिनिट्स’ बहुत सारे लोगों तक पहुँचता है। पत्रकारिता के नियमों तथा नैतिकता की रक्षा के लिए वह अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। वैसे वह भी दूध का धुला नहीं है। अपने काम के लिए लोगों का भावात्मक दोहन करता है।







लोवेल बर्गमन जेफ़री विगैंड को अपने शो ‘६० मिनिट्स’  के द्वारा जनता के सामने जाने के लिए प्रेरिक,  एक तरह से मजबूर करता है। वह जेफ़री पर सत्य उगलने के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव बनाता है। अंतत: जेफ़री तैयार हो जाता है। इस तरह जेफ़री के साक्षात्कार की रिकॉर्डिंग तो हो जाती है लेकिन तभी टीवी चेनल के सामने मुसीबत खड़ी हो जाती है। यदि वे इसे प्रसारित करेंगे तो उनके चेनल की खैर नहीं। इस समस्या का असर होता है और चेनल के बिग बॉस, प्रेसीडेंट शो का प्रसारण रोक देते हैं। बर्गमैन नैतिकता के नाम पर पत्रकारिता के नियमों का हवाला देते हुए शो के प्रसारण के लिए लड़ता है। उसकी अपनी नौकरी खतरे में पड़ जाती है, उसे लंबी छुट्टी पर जाने का आदेश दे दिया जाता है। लेकिन वह पीछे नहीं हटता है। इसके लिए वह अखबारों की सहायता लेता है। फ़िल्म ‘दि इनसाइडर’ दिखाती है कि अंतत: शो का प्रसारण होता है। लेकिन बर्गमैन का मन खट्टा हो जाता है और प्रसारण के बाद जब सब उसे बधाई दे रहे हैं वह चेनल से इस्तीफ़ा दे देता है। एल पैचिनो का अभिनय सदैव की भाँति लाजवाब है। एक परेशान, मानसिक द्वंद्व में फ़ँसे व्यक्ति जेफ़री विगैंड का अभिनय रसल क्रो ने भी बखूबी किया है।

खुद जेफ़री विगैंड इस फ़िल्म को देख कर बहुत खुश हैं और अपनी बेटियों को भी दिखाना चाहते हैं। उनके बच्चे उनको ले कर बहुत गर्वित हैं। होना ही चाहिए। हालाँकि उनकी पत्नी से उनका तलाक हो गया है। उनका यह तलाक सामान्य नहीं था। उनके लिए तलाक की घटना बहुत दर्दनाक और कटु अनुभव सिद्ध हुई।  इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कोई रकम नहीं ली है, उनके अनुसार उनको इससे मनोवैज्ञानिक लाभ मिला है। उन्होंने जीवन में बहुत उथल-पुथल देखी है, अब वे अपना जीवन शांतिपूर्ण ढ़ंग से बिताना चाहते हैं। वे कैंटकी से निकल आए हैं और अब वे चार्ल्सटन में रहते हैं। सत्य का खुलासा करना बहुत कठिन कार्य है। यह समय उनके लिए बहुत तनावपूर्ण था। वे खूब शराब पीने लगे थे। कंपनी ने उनकी इन आदतों का खूब फ़ायदा उठाया और उन्हें बदनाम करने का कोई मौका नहीं छोड़ा, इसका खूब प्रचार-प्रसार किया। जान बचाने के लिए उन्हें बहुत दिनों तक छिप कर रहना पड़ा, बॉडीगार्ड रखना पड़ा। इन सारी घटनाओं के दौरान कुछ लोग उनके साथ थे, उनका बचाव कर रहे थे तो कुछ लोग उनके खिलाफ़ थे, उन पर आक्रमण कर रहे थे। अब उनके मन में कोई भय नहीं है। जेफ़री का कहना है, उन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था, उन्हें किसी तरह का अफ़सोस नहीं है जरूरत पड़ी तो वे फ़िर से यही करेगे। उनका मानना है कि वे सामान्य लोग हैं जो असामान्य परिस्थिति में पड़ गए हैं और उन्होंने जो किया वह ठीक है...सबको ऐसा करना चाहिए।

असल में फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है लेकिन इसका आधार एक आलेख भी है। मारी ब्रेनर ने एक लेख वेनिटी फ़ेयर में लिखा था, ‘द मैन हू नो टू मच’। इसी के आधार पर मिशेल मान तथा एरिक रॉथ ने फ़िल्म ‘दि इनसाइडर’ की पटकथा लिखी है। १९४२ में न्यू यॉर्क सिटी में पैदा हुए जेफ़री विगैंड ने बायोकेमिस्ट्री में मास्टर्स डिग्री ली तथा पीएच डी भी की है। प्रतिभाशाली जेफ़री का स्वप्न डॉक्टर बनने का था। उन्होंने कुछ समय तक वैसार ब्रदर्स हॉस्पीटल में नर्स का काम किया। कुछ समय उन्होंने मिलिट्री में रहते हुए वियतनाम में भी समय व्यतीत किया। उनके अनुसार उन्होंने किसी को मारा नहीं। उन्होंने जापान में रहते हुए जापानी भाषा और जूडो भी सीखा हुआ है। अब उन्हें कई अन्य देशों से सम्मानित डिग्रियाँ मिल चुकी हैं। १९८९ में ब्राउन एंड विलियमसन में काम शुरु करने से पहले जेफ़री ने फ़ेज़र, जॉनसन एंड जॉनसन जैसी स्वास्थ्य संबंधित कंपनियों में काम किया था। जापान में वे यूनियन कार्बाइड के जनरल मैनेजर तथा मार्केटिंग डायरेक्टर थे। टेक्नोकोन इंस्ट्रूमेंट्स में उन्होंने सीनियर वाइस प्रेसीडेंट के रूप में काम किया था। अब तो उन्हें विभिन्न देशों तथा संस्थानों से लेक्चर देने के लिए आमंत्रण मिलते हैं। कनाडा, स्कॉटलैंड, इजरायल, इटली, जर्मनी, फ़्रांस, नीदरलैंड, जापान की सरकारें तम्बाखू नियंत्रण नियम बनाने के लिए उनसे सलाह लेती हैं।







फ़िल्म प्रारंभ होती है जेफ़री की द्वंद्वात्मक मानसिक स्थिति से लेकिन एक बार टीवी पर साक्षात्कार रिकॉर्ड होते ही फ़िल्म चेनल वालों के आंतरिक संघर्ष की ओर मुड़ जाती है। खोजी पत्रकारिता एक लंबी, उबाऊ, धीमी और परेशान करने वाली प्रक्रिया है। इसके तमाम जोखिम हैं। फ़िल्म दिखाती है चेनल पत्रकारिता के नियमों और नैतिकता को ताक पर रख कर अपना हित बचाना चाहता है। वे अपने स्टॉक को बचाना चाहते हैं। उनका बाजार भाव न गिर जाए इसकी चिंता करते हैं। यहीं पर आ कर चेनल हेड और चेनल प्रोड्यूसर में तकरार होती है। इस फ़िल्म की एक विशेषता है, इसे बनाने से पहले किया गया शोध कार्य। मिशेल मान तथा एरिक रॉथ ने खूब शोध करके स्क्रिप्ट लिखी है। इसकी सफ़लता के पीछे इन लोगों की मेहनत है, जो फ़िल्म में स्पष्ट नजर आती है।

फ़िल्म एक थिलर की भाँति आगे बढ़ती है। कई दृश्य बहुत डरावने लगते हैं। यह डान्टे स्पिनोटी के कैमरे का कमाल है, जब जेफ़री रात को अकेले गोल्फ़ मैदान में है, पूरा दृश्य बहुत डरावना और तनावपूर्ण हो जाता है। दर्शक सांस रोक कर कुछ बहुत भयंकर होने की प्रतीक्षा करता है और सारे समय लीसा जेरॉल्ड तथा पीटर बौर्क का बैकग्राउंड म्युजिक इस दृश्य की सघनता को बढ़ा देता है। रात का समय खूब बड़ा मैदान, जेफ़री गोल्फ़ स्टिक से गेंद पूरी ताकत से फ़ेंक रहा है। थोड़ी देर बाद एक अन्य व्यक्ति भी गोल्फ़ क्लब का उपयोग कर रहा है। दोनों एक-दूसरे को जिस तरह देखते हैं, कुछ भी हो सकता है। प्रकाश और अंधकार सीन को रहस्यमयता प्रदान करते हैं। इसी तरह जब जेफ़री की बेटी रात को कुछ आवाज सुन कर उसे जगाती है और वह पिस्तौल ले कर अपने घर के पिछवाड़े जाता है, हर कदम पर दर्शक साँस रोक कर किसी अनहोनी की प्रतीक्षा करता है। इसमें शक नहीं वहाँ कोई था। और जब बर्गमैन निराश-हताश समुद्र किनारे एकाकी खड़ा है, समुद्र स्वयं एक चरित्र बन जाता है। जेट में बैठे हुए व्यक्ति से फ़ोन पर बात करने के लिए जिस व्यक्तित्व की आवश्यकता है वह व्यक्तित्व एल पैचिनो जैसे अभिनेता में है। और जब विगैंड मानसिक ऊहापोह में है, कोर्ट जाए अथवा नहीं तय नहीं कर पा रहा है तब वह भी समुद्र तट पर है। लेकिन दोनों तटों में अंतर है। यह चाक्षुष अंतर लिख कर बताने का नहीं देख कर अनुभव करने का है। इसी तरह जब सरकारी एजेंट जेफ़री का निजी कम्प्यूटर उठा कर ले जा रहे हैं, कम्प्यूटर जिसमें उसकी तमाम जानकारियाँ हैं, वह बहुत बेबस है। सरकारी लोग न केवल उसका कम्प्यूटर ले जा रहे हैं वरन धक्का दे कर जेफ़री को गिरा भी देते हैं। अड़ौसी-पड़ौसी सब देख रहे हैं, रसल क्रो का अभिनय बहुत सहज-स्वाभाविक है। कैमरे का कमाल है कि वह फ़िल्म की गुणवत्ता बढ़ा देता है।
अभिनय के मामले में रसल क्रो और एल पैचिनो में कौन उन्नीस है और कौन बीस बातना कठिन है। १९९९ में जब फ़िल्म बनी रसल क्रो मात्र ३३ साल के थे लेकिन अपनी प्रतिभा के बल पर, साथ ही वजन बढ़ा कर, मेकअप की सहायता और जेफ़री का अध्ययन करके उन्होंने पचास साल से ऊपर के व्यक्ति का अभिनय बड़ी कुशलतापूर्वक किया है। उन्होंने उसकी चाल-ढ़ाल तथा बोलने का तरीका और आवाज सबको बड़ी कुशलता के साथ अंजाम दिया है। जेफ़री की पत्नी की भूमिका में डायने वेनोरा ने टिपिकल अमेरिकी पत्नी की भूमिका निभाई है, जिसे पति की चिंता नहीं है बल्कि उसे चिंता है उसके पद और पैसे तथा उससे मिलने वाली ढ़ेर सारी सुविधाओं की। हालाँकि वह कहती है, मैं अपने पति के साथ रहना चाहती हूँ, लेकिन उसकी बॉडी लैंग्वेज और चेहरे के हाव-भाव से ऐसा कभी भी प्रकट नहीं होता है। कंपनी की लीगल एडवाइजर हेलेन कैपेरेली के रूप में जीना गर्शोन बहुत कम देर के लिए परदे पर आती है लेकिन वह बड़ी त्वरा, कुशलता और आधिकरिक तरीके से कंपनी को इस प्रसारण से होने वाले खतरों से आगाह कर देती है। वह कहती है विगैंड का स्टेटमैंट जितना सत्य होगा, उतना ज्यादा चेनल को नुकसान होगा। और कोई भी व्यापारिक घराना (चेनल व्यापार है) क्यों नुकसान उठाना चाहेगा। बर्गमैन (एल अपिचिनो) जब देखता है कि चेनल विगैंड का इंटरव्यू प्रसारित नहीं करने जा रहा है तो वह साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाता है। वह डॉन हेविट (फ़िलिप बेकर हॉल) को यह भी बता देता है कि इस तरह के इंटरव्यू के प्रसारण से १५ मिनट की ख्याति मिलती है और कुख्याति इससे लंबी होती है। माइक वैलास के रूप में क्रिस्टोफ़र प्लमर का अभिनय भी बहुत अच्छा है।







१६० मिनट की इस फ़िल्म की प्रशंसा करते हुए फ़िल्म समीक्षक रोजर एबर्ट कहते हैं, ‘दि इनसाइड’ का मुझ पर ‘ऑल द प्रेसीडेंट्स मेन’ से अधिक असर पड़ा, जानते हैं क्यो? मेरे पेरेंट्स को वाटर्गेट ने नहीं मारा था। सिगरेट ने मारा था।’ इस फ़िल्म को सात श्रेणियों में अकादमी पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। फ़िल्म में कुछ तो खास है तभी तो प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक क्वेन्टिन टैरनटीनो इसे अपनी पसंद की २० फ़िल्मों की सूचि में शामिल करते हैं। पत्रकारिता पर. वह भी सच्ची घटना पर बहुत कम फ़िल्में बनी हैं। इस विषय पर अच्छी फ़िल्में तो और भी कम बनी हैं। ‘दि इनसाइडर’ उनमें बनी एक बहुत अच्छी फ़िल्म है।
०००



डॉ. विजय शर्मा, ३२६, न्यू सीतारामडेरा, एग्रीको, जमशेदपुर ८३१००९

18 फ़रवरी, 2018

सीमा संगसार की कविताएं


सीमा संगसार


 काफ़िर
1..

तमाम असहमतियों के पक्ष में
दर्ज होती रही
तुम्हारी सारी गवाहियां
तुम नकारते रहे
उन सारे साक्ष्यों को
जिसमें मुझे खारिज करने के
सारे तथ्य छुपे थे....

तुम्हारे इस नकारने की प्रक्रिया ने
बंद कर दिए
उन सारे दरवाजों को
जो तुम तक पहूंचती थी....

सुनो काफ़िर ,
देह के रास्ते
बंद कर देने से
रूह के रास्ते बंद नहीं हुआ करते!!

बंद करो ये सारे जिरहें
उन सारे आरोपों और प्रत्यारोपों.के
कि प्रेम में मौन हो जाना
मोक्ष के द्वार का
खुल जाना होता है ....




2 ...

प्रेम
उतना ही शुद्ध है
जितना की
जीसस को पाने के लिए
किया गया
बपतिस्मा
जब तुम्हें
लगानी पङ़ती है,
डूबकी
गहरे पानी में
सिर झुकाते हुए
आंखें मूंद कर ....

श्रद्धा और प्रेम का
अन्योन्याश्रय संबंध है
ईश्वर की तरह
जहाँ भरोसा काबिज है
धूप बत्ती के धूएं की तरह ...

सुनो काफ़िर
मेरे खुदा
कहीं न कहीं
तुम खुदा के करीब हो
जब तक कि
मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ
कि ईश्वर रकीब है तुम्हारा
और / मैं बाइबिल की तरह
चूम लेना चाहती हूँ
तुम्हारे बेतरतीब कपोलों.को ....







3....

तुम करते रहे घुर्णन
अपनी परिधि में
मैं
देखती रही
अपलक
पृथ्वी का घूमना
मैं
चाहती थी
अक्ष होना
उस धूरी की
जिसम़े
तुम्हारा संसर्ग हो
और / तुम मुझे समझाते रहे
तटस्थता के नियमों को ....

सुनो काफ़िर ,
इश्क़ कोई
उदासीनता वक्र विश्लेषण का सिद्धांत नहीं
जहाँ हम तटस्थ रहे ....

आवेगो़ को
कभी बांध नहीं पाई मैं
अपने जूङे की
उपत्यकाओं म़े
और / तुम्हें पसंद नहीं
मेरा यो़ खुलकर बह जाना ....

मैं
दोनों वक्रों की
 वह संयोग हूँ
जहाँ तुम्हारी
उदासीनता भंग होती है ...

वक्रों के इस
 कुटिल चाल में
मैं चाहती हूँ " संग " होना
और तुम " सार " किए जाते हो ....






इंतज़ार

इंतज़ार
मछलियों की आंखों का
वह सूनापन है
जो छोड़ आती है
पानी में
एक दिन ...

जब उड़ जाती है
उनके
ख्वाहिशों की
आखिरी चिंदीयां
एक दिन ...

छटपटाने लगती हैं
तब
जीवन की अंतिम ख्वाहिशें

कि प्रेम मछलियों का जीवन राग है ....





 ढील मारती लड़कियाँ

तंग गलियों के भीतर
सीलन भरे
तहखाने नुमा घर के भीतर
सीढियों पर बैठी
ढील मारती लड़कियों के
नाखूनों पर
मारे जाते हैं ढील
पटापट
ठीक उसके सपनों की तरह
जो रोज - ब -रोज
मारे जाते हैं
एक - एक करके
अंधेरे में ......

नहीं लिखी जाती हैं
इन पर कोई कहानियां
कविता
और न ही बनती है
इन पर कोई सिनेमा
कि ये कोई पद्मावती नहीं
जो बदल सके
इतिहास के रुख को ....

भूसे की तरह
ठूंस - ठूंस कर
रखे गये संस्कार
उसके माथे में
भर दी जाती हैं
जिसे वे बांध लेती हैं
कस कर
लाल रिबन से ....

कि वह नहीं खेल सकती
खो - खो कबड्डी
नहीं जा सकती स्कूल
गोबर पाथना छोङ़कर...

वह अपने सारे अरमानों का
लगाती हैं छौंक
कड़ाही में
और भून डालती हैं उन्हें
लाल - लाल
अपने सपनों को
जलने से पहले ....







 गर्भ गृह

उंची मीनार पर
लाल - लाल पताके
लहराते हुए
गुंबदों के नीचे
गर्भ गृह में स्थित
ईश्वर को पूजा जाता है!
लाल सिन्दूरों से पोतकर ....

लाल रुधिर से
सना हुआ
गर्भ गृह
फिर अछूत क्यों ??
जहाँ सृजन की प्रक्रियाएं
चलती रहती हैं
नौ मासा ....

हे रत्नगर्भा
जीवनदायिनी
सद्यः प्रसूता
अपने नवांकुर पर
जब उङ़ेलती हो
अपना अमृत कलश
उलट कर !

ईश्वर के समूद्र मंथन से उत्पन्न
सारा का सारा क्षीर
उतर आता है
तुम्हारे स्तनों में ....

हे ईश्वर
बता दो
तुम अपनी
कोई ऐसी मौलिक कृति
जिसे तुमने रचा हो
अपने गर्भ में
स्थित होकर




 सांकल

कुछ दरवाजे
कभी बंद नहीं होते
उन पर सांकल चढ़ा दी जाती है
कुछ देर के लिए
ताकि
आवागमन
बाधित हो जाए
थोड़ी देर ....

कुछ आवाजें
पीछा नहीं छोङ़ती
जब तक कि
बंद कपाटों की
झिड़कियों से
आती रहें उनकी आहटें ...

उन्हें बंद करने के लिए
अपनी आंखें बंद कर
अपनी सांसों को रोक कर
बस एक बार
पीठ टेक कर
कस कर दबा देना पङ़ता है
उन सारे
आवाजाहियों को
जो हमारे सांसों की तरह
आती -जाती रहती है...

शनैः शनैः
वह शोर
सन्नाटे में तब्दील होता जाता है
और /हमारी बंद पङ़ी मुट्ठियाँ
शिथिल पङ़ती जाती हे ....

सांकल लगा देना ही
काफी नहीं
गहरे ध्यान की प्रक्रिया से
गुजरे बिना
स्मृतियों का विलोपन
असंभव.है




 प्रसव कक्ष में

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
असभ्य मानी जाती हैं !
बचपन से ही इनके मुँह में
जड़ दिया जाता है ताला
ताकि वह इसे खोलने की
हिमाकत न कर सके
इसीलिए नाक - कान छेद कर
जकड़ा जाता है इन्हें बेड़ियों में----

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
घुट घुट कर रोती हैं
इनके रूदन और संताप से
जन्म लेते हैं
मुट्ठी भींचे हुए
ललछौंहे नवजात शिशू
लाल लाल गुलाब की तरह---

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
खून के छींटे से लिखती हैं
अपने बलिदान और संघर्ष की गाथा
उनके लाल लहू से
हम उतारते हैं
समूची पृथ्वी का ऋण
ताकि हमारी अगली पीढियां
करें हमारा अनुसरण ---

प्रसव कक्ष में चीखती औरतें
किसी वर्ग में नहीं गिनी जाती हैं
न इनका कोई " वाद " होता है
ये बस " औरतें " होती हैं
और शिशु बस शिशु होता है
वर्ग विहीन / जाति विहीन

इस दुनिया का सबसे पवित्र कक्ष
प्रसव कक्ष है ----






रमरतिया

ध्वस्त हो चुकी
मान्यताओं के ख़िलाफ़
सिर उठाती रमरतिया
पीसा की मीनार की तरह
झुकी जरूर है
पर उसके इरादे बुलंद हैं
आज भी प्राचीन धरोहर की तरह---

जूठन की परंपरा
दुर्गंधयुक्त हो चुकी है
बासी भोजन की तरह

ईश्वर की दासता से मुक्त
देशवासियों ने
बांध ली हैं घुंघरूएँ
अपने पाँवों में
उन्हें तोड़ देने के लिए

रमरतिया महज एक देह नहीं
जिस पर वर्षों से प्रभुत्व था
किसी और का
वह अब एक जीती जागती
प्रतिमूर्ति है , देवी की
जिसे लोग पूजते तो हैं
पर हाथ नहीं लगा सकते ----





 एक स्त्री जब हँसती है.....

एक स्त्री जब हँसती है
पहाड़ों पर
उतर आता है आकाश
अपने नीले पङ़ गए
होठों की
लालिमा के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
आंखों में
उतर आती हैं नदियां
छलकते हुए सैलाब के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
अपने एकांत से
चुन लाती हैं
कुछ खामोशियां
लरजते होठों के साथ ...

एक स्त्री जब हँसती है
हवाओं का बहना
रुक जाता है
थम जाती है सांसे
प्रकृति की
कि एक स्त्री का हंसना
सुरम्य स्थलों पर
भू स्खलित होने की एक प्रक्रिया है ....







प्रेम फरवरी 

प्रेम में
शिकायतों को
समेट कर
उंचा उठाकर
जूड़े में
बांध लेना
और अपनी उदासियों को
खोंस लेना
उसमें
कोई बासी फूल
मुझे कभी नहीं आया ....

मैं चाहती हूँ
कि कुछ उदासी ओढ़ लूं
गंभीरता की शक्ल में
गालों पर
झूल आए
जिद्दी लटों को
परे हटा कर !!

लेकिन मेरे बाल
मेरी ही तरह हल्की हैं
जो एक स्पर्श से
खुल कर
खिलखिलाने लगती है
मानो कुछ हुआ ही न हो ...

प्रेम में गर शिकायत न हो तो
तेल से चुपड़े बालों की
दो चुटिया बना डालती
एकदम अनुशासित ....

कि प्रेम में होना
खुले बालों का लहराना होता है ....




आत्म परिचय 

नाम - सीमा संगसार 
जन्म तिथि - ०२ – १२ -१९७८
पता -फुलवड़िया १ , बरौनी , बेगुसराई , (बिहार)
अब तक प्रकाशित : अंतरंग, नया ज्ञानोदय , नया पथ , लहक , लोक विमर्श , दुनिया इन दिनों इन्द्रप्रस्थ भारती (हिंदी अकादमी ) ,लहक , मंतव्य सहित हिन्दुस्तान समाचार पत्र व कई अन्य पत्रिकाओं और शब्द सक्रिय हैं , स्त्री काल पहली बार आदि ब्लॉगों में रचनाएं प्रमुखता से प्रकाशित ...



चित्: गूगल से साभार 

16 फ़रवरी, 2018

ममता सिंह की कहानी:  राग मारवा



                                                      ममता सिंह                                                                           


जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं  
कि जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं 
                                    ..... फैज़ 




पारुल की खुशी छलक-छलक पड़ रही है। उसका मन आसमान में उड़ा जा रहा है। रूई के फाहों सरीखे बादल उसके ऊपर से उड़ रहे हैं। बादलों का ठंडा स्‍पर्श मन में पुलक पैदा कर रहा है। इतने सालों तक किराए के घर में मकान मालिक के बनाए नियमों के मुताबिक़ रहना पड़ता था। फटी दरी जिसमें पैबंद लगे थे, सीलन से कमरे में ख़ास किस्‍म की गंध पसरी होती थी, जिसे पारुल आज इस खुशी के मौक़े पर याद नहीं करना चाहती। लेकिन अभावों और परेशानियों में जिया हुआ इतना लंबा समय भला कोई कैसे भूल सकता है। फटी दरी की जगह कालीन बिछ गया है। अब जाकर अपना घर हुआ। खस के पर्दे की जगह ब्‍लाइंड्स लग गये हैं। सजावट से घर की खुशहाली नज़र आ रही है। आज वो ‘अपने’ घर में है। अब उसे बार बार किराए का घर नहीं बदलना होगा।

मेहमानों का आना शुरू हो गया है। पारुल के पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे हैं। वह पंख लगाकर आसमान में उड़ रही है। इस कमरे से उस कमरे तक जाती है, बरामदे में नए सजाए गमले को घुमाकर ठीक कर देती है, उसे होश नहीं है। ख़ुशी के मारे अपनी सुध-बुध खो बैठी है।
'मुबारक हो पारुल, कितनी नसीब वाली हो। कितना आलीशान घर मिला है तुम्‍हें। देर आयद- दुरूस्‍त आयद' --फूलों का गुलदस्ता थमाती हुई रज्‍जो बोली। शुक्‍लाइन चाची ने भी सुर मिलाया। 'भई सास हो तो पारुल की सास जैसी, नहीं तो ना हो। इस बुढ़ापे में भी अपने बहू-बेटे का लालन-पालन कितनी कुशलता से कर रही है बेचारी। -- सचमुच बड़े दिल वाली और जांगर वाली है तुम्‍हारी कुसुम जिज्जी। अपने शौहर के दम पर तो कभी नहीं ख़रीद सकती थी इतना आलीशान घर-- अस्‍फुट स्‍वर में बोलती है--नंबर एक का शराबी...... बेचारी कुसुम जिज्जी इस बुढ़ापे में भी कितना खटती है इन लोगों के लिए। ऐसा करमजला बेटा किसी को ना मिले,  फुसफुसाते हुए रज्‍जो बोली। बहू कम से कम कुसुम जिज्जी के साथ तो लगी रहती है।

कोई प्‍यार में नहीं लगी रहती-- स्‍वार्थ से....कुसुम जिज्जी के गाने का प्रोग्राम वही सेट करती है- 'कुसुम जिज्जी गायेंगी तो झोला भर के पैसा आयेगा घर में और इनकी रोज़ी रोटी चलेगी। इस उम्र में गाना उनके लिए कितना तकलीफदेह होता होगा। इस बुढ़ापे में जब आराम की जरूरत है तो बुढ़िया सबका पेट पाल रही है।’ --शुक्‍लाइन चाची बोलीं।

पारुल के कानों में ये अस्‍फुट बातें जा रही थीं। ये तल्‍ख़ अलफ़ाज़ पारुल पर कटार जैसे वार कर रहे थे। मन का कसैलापन चेहरे पर ना झलके,  इस प्रयास में दोनों होठों को आपस में रगड़कर वो लिपस्टिक ठीक करने की कोशिश कर रही है। ज़बर्दस्‍ती मुस्‍कुराती हुई साड़ी के पल्‍लू को आगे कर कमर में खोंसने लगी और दूसरे मेहमानों से मुखातिब हो गयी। लेकिन शुक्‍लाइन चाची कहां मानने वाली थीं। रस लेकर बताने लगीं--'पता है रज्‍जो,  इस घर को पाने के लिए इसकी बुढ़िया सास ने ऐड़ी-चोटी का पसीना बहाया है। समाज-सेवियों के चक्‍कर काटे। नेताओं से सिफ़ारिश की। फिल्मी कलाकारों की चिरौरी की। गिड़गिड़ायी कि मैं इतनी बड़ी गायिका हूं। इतने सारे कंसर्ट किए,  मैंने बड़ी-बड़ी महफिलों में गाया, लेकिन हमारे पास घर नहीं है, वग़ैरह वग़ैरह। किसी नेता ने जोड़ तोड़ करके मुफ़्त में दिलवाया ये घर। शुक्‍लाइन चाची की बातें ललाइन चाची अपने मुंह को रूमाल से ढंके ऐसे आश्‍चर्य से सुन रही थीं मानो दुनिया का आठवां आश्‍चर्य बयां किया जा रहा हो सचमुच ये औरतें बातों में इतनी माहिर हैं कि गुड़ रस मलाई बन जाए और रसगुल्ला करेले के रस में बदल जाए। कुसुम जिज्जी के बारे में इस तरह विमर्श हो रहा था, जैसे उन्‍होंने कोई बुरा काम किया हो।

कुसुम जिज्जी खुश हैं कि नये घर में अब एक कमरा उनका होगा जिसमें वो तितली की तरह उड़ेंगी, सपने बुनेंगी। संगीत के सागर में तैरेंगी। हारमोनियम, तबला, तानपुरा सब उनके आसपास रहेगा। जब चाहे छेड़ेंगी कोई सुर...उन सुरों में फिर उगेंगे ख्‍वाबों के अंकुर। उन सुरों में पकेगी-घुलेगी फिर से वो चाशनी,  जिसका जमाना कभी कायल हुआ करता था। ख्‍वाबों के कई अंकुर अभी भी फूटने बाक़ी हैं। बहुत-सी मुरादें कभी पूरी नहीं होतीं। ख्‍वाबों के वो अंकुर अब यादों के सिक्‍कों में तब्‍दील हो गए हैं। कुछ ख्‍वाब स्‍टील के बक्‍से में आज भी बंद हैं, जिसमें पुरानी तस्‍वीरें, अख़बारों की कतरनें, कई एल.पी. रिकॉर्ड और सीडीज़ हैं।







वो गरमी की सुस्‍त दोपहर थी। सीलन भरे कमरे को पुराने फर्नीचर से नए सलीक़े से सजा रखा था। पुराना बड़ा-सा टेबल, जिसके पाए दीमक के खाने से खोखले हो रहे थे...उसी के एक कोने पर ग्रामोफ़ोन रखा रहता था, जो उनके उत्‍कृष्‍ट गायन पर किसी क़द्रदान ने उपहार-स्‍वरूप दिया था। गरमी की वो ऐसी उमस भरी, अलसाई दोपहर थी, जब धूप भी छांव का इंतज़ार कर रही हो। कुसुम जिज्जी चटाई को पानी से बार-बार भिगो रही थीं, ताकि कमरे में सुकून और ठंडक कायम रहे। वैसे उन्‍हें हर तरह से सुकून तब मिलता है जब वो अपनी पसंद का संगीत सुनती हैं। उस्‍ताद बड़े गुलाम अली ख़ां उनके पसंदीदा गायक हैं और उनके लिए तालीम की तरह हैं। ग्रामोफ़ोन पर बड़े गुलाम अली ख़ां की ठुमरी मांड बज रही है....

याद पिया की आए...
ये दुख सहा ना जाए......
बाली उमरिया सूनी सेजरिया,
जीवन बीतो जाए हाय राम………….

ये बंदिश उस्‍ताद जी ने अपनी पत्‍नी के गुज़र जाने के बाद बनायी थी। किस क़दर दर्द रचा-बसा है उनकी आवाज़ में। कुसुम जिज्जी का मन सुरों के झरने से भीग रहा है। उसी के साथ वे ताल दे रही थीं, मंद मंद मुस्‍कुरा रही थीं। एक ताल और चार ताल में उन्‍हें बड़ा संशय होता था। स्‍कूल के ज़माने में ‘धिन धिन, धागे तिरकिट, तूना कत्‍ता’ की जगह पर वो ‘धा धिन, धिन धा, किट धा, धिन धा’ कर देती थीं और टीचर की डांट मिलती थी लेकिन बाद में उनका यही एक ताल और चार ताल एकदम पक्‍का हो गया था। क्‍लास की टेबल या चौके के बर्तनों पर भी वो एक ताल को दुगुन, तिगुन, चौगुन में बजाया करती थीं। बहरहाल.. उस्‍ताद गुलाम अली ख़ां को सुनते हुए कुसुम जिज्जी किसी और ही दुनिया में पहुंच गयी थीं, जहां संगीत की इबादत होती है…..तभी इस तपती भीषण गरमी में बिन मौसम बरसात आ गयी। बड़ी ज़ोर से बादल गरजे। गड़गड़ाहट से कुसुम जिज्जी के कान झनझना गये। ग्रामोफ़ोन की सुई खट से रिकॉर्ड से हटा दी गयी थी। चलता रिकॉर्ड दीवार पर फेंक दिया गया था। 78 आर पी एम का रिकॉर्ड दीवार से टकराकर तड़ाक से टूट गया था और कुसुम जिज्जी का दिल चकनाचूर हो गया था।

....ये लो एक नई सौग़ात, तुम्‍हारे उस आशिक का नया पैग़ाम।
....ओह, गुरूजी ने भेजा.........?
....गुरू-शिष्‍य परंपरा को तुम जैसी दो कौड़ी की गायिकाओं ने बदनाम किया है। मत कहो गुरूजी।
..........
....तुम जैसी गायिकाओं को वो स्टेज पर नहीं ले जायेंगे तो समाज को क्‍या जवाब देंगे कि बरसों अपने आग़ोश में बिठाकर क्‍या सिखाया। इसी बहाने वो अपना नाम भी तो रोशन कर लेते हैं।
...उफ़...
....उस्ताद रहमत ख़ां, उस्ताद सलामत ख़ां... कितने उस्‍तादों का जी बहलाओगी।
.......
नीले रंग के गिफ्ट रैपर में से छोटा-सा ट्रांज़िस्टर झांक रहा था...जिसे देखकर दर्द के इस अंधेरे में भी कुसुम जिज्जी के लिए जैसे चिराग़ जल उठा। कुसुम जिज्जी ने आंसुओं से भीगी आंखों को कस के झपकाया, मिचमिचाया, पलकों में बंद दो-तीन बूंदें गालों पर ढुलक गयीं। इसी रेडियो ने कुसुम जिज्जी को सुरों की पालकी पर बैठाया था। रेडियो ने ही सुरों के पंख लगाकर उन्‍हें उड़ना सिखाया था। स्‍कूल कॉलेज के उन्‍हीं दिनों में विविध भारती से जब संगीत-सरिता कार्यक्रम प्रसारित होता था तो कुसुम जिज्जी अपनी कॉपी और कलम लेकर बैठ जातीं। रागों के गायन का समय, वादी-संवादी, शुद्ध और कोमल स्‍वर…सब कुछ बाक़ायदा नोट करतीं और जो राग जिस प्रहर में गाया बजाया जाता है, उसका अभ्‍यास वो उसी प्रहर में करतीं। संगीत सरिता सुन सुनकर उन्‍होंने आकाशवाणी बनारस के शास्‍त्रीय-संगीत के ऑडीशन की तैयारी की। ऑडीशन पास किया तो अपनी सहेलियों को लड्डू खिलाया। बी ग्रेड और फिर टॉप ग्रेड आर्टिस्ट बनीं। उनकी गायकी के कई टेप तैयार हुए और वो एक प्रतिष्ठित गायिका बन गयीं। उनकी ‘सुर सरिता’ जब पहली बार विविध भारती के एक बड़े और लोकप्रिय कार्यक्रम ‘अनुरंजिनी’ में बही- तो कई दिन तक वो सुरों की बारिश में भीगती रहीं। इस तरह ट्रांज़िस्टर कुसुम जिज्जी के जिगर का टुकड़ा बन गया। जहां जातीं साथ में एक ट्रांज़िस्टर और उसकी बैटरी ज़रूर ले जातीं। रेडियो से ही उनकी शोहरत की शुरूआत हुई। ग़म और तन्‍हाई के पलों में उनका हमदम भी बना रेडियो। तन्हाई के लम्हों में ली गयी अपनी सिसकियों को कुसुम जिज्जी ने रेडियो और अपनी गायकी से ही तो बांटा। इस पल भी जब पूरे घर पर ग़म की बदली छायी है, उनका अपना ही जीवन-साथी जब उनका कलेजा छलनी बना रहा है... ये देखकर कुसुम जिज्जी एक बार फिर जिंदगी की सिलवटों को मिटाने के लिए बेतहाशा दौड़ पड़ीं। लेकिन वो ट्रांज़िस्टर उनके लिए उस दिन खुशी की सौगात नहीं बल्कि ऐसी आंधी लेकर आया था, जो कई महीनों तक शांत नहीं हुई। गानों के कई मौक़े हाथ से निकल गये। पंडित जसराज की प्रस्‍तुति के बाद उनकी प्रस्‍तुति का मौक़ा जाता रहा। मुंबई में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ग़ज़लें गानी थीं, वो मौक़ा छूटा। ऐसे कई सुनहरे मौक़े उन्‍हें अपने घरेलू विवादों के कारण छोड़ने पड़े।






वक्‍त कभी एक जैसा नहीं रहता। आंधियां चलती हैं, थमती भी हैं। कुसुम जिज्जी की जिंदगी में भी बहार आयी और पतझरों की दस्‍तक कम हो गयी। बनारस से मुंबई की सुखद यात्रा और बस कुसुम जिज्जी का सुर कोयल-सा कूकने लगा।

नेहरू सेन्‍टर का भव्‍य हॉल, स्‍टेज के किनारे किनारे फूलों के वंदनवार सजे थे। मौक़ा था विदूषी गिरिजा देवी और उस्‍ताद अमजद अली ख़ां की कजरी और सरोद की जुगलबंदी की प्रस्‍तुति का..
‘झिर झिर बरसे सावन,
रस बुंदिया की आई गइले ना
अब बहार की... आई गइले ना’।

राग मिश्र मांड में दादरा ताल में निबद्ध इस कजरी की जुगलबंदी पर दर्शक झूम रहे थे जैसे सावन की बयार हो। कुसुम जिज्जी का मन बादलों के बीच उड़ चला था। कजरी की तान पर खूब ऊंची ऊंची पींगेँ भर रही थीं। उनके मन का झूला आसमान में उड़ा जा रहा था। होंठ इस कजरी के साथ गुनगुना रहे थे। पंडित अच्‍छेलाल तबला संगत कर रहे थे। ‘धा धी ना, धा तू ना, धा धी ना, धा तू ना’ दादरा ताल के ठाह, दुगुन और त्रिगुन की ताली के साथ-साथ मन ही मन उनका सोलो गायन भी चलने लगा था। इसी कजरी के बाद तो कुसुम जिज्जी को भी ठुमरी गानी थी। पहली बार उन्‍हें इतना बड़ा मौक़ा मिला था। वो आहिस्‍ता आहिस्‍ता मंच सीढ़ियां चढ़ रही थीं, होठों से मुस्‍कान के मोती झर रहे थे, लाल चौड़े पाड़ वाली क्रीम कलर की साड़ी के पल्‍लू को सलीके से आगे सरकाती हुई मंच पर जब वो बैठीं, और लंबी नाक में चमचमाती हीरे की लौंग पर जैसे ही रोशनी पड़ी—मानो दिये जल उठे। बनारसी पान की ललाई उनके होठों पर ऐसे फब रही थी कि उसके सामने ब्रांडेड लिपस्टिक का रंग भी फीका लगे। आंखों में गहरा काजल, माथे पे लाल बिंदी उनकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे। तानपूरे और तबले के मिलान के बाद जब उन्‍होंने बोल-आलाप लिया तो दर्शक हवा में इठलाती टहनी की तरह झूमने लगे थे। उन्‍होंने जब बोल-बनाव की ठुमरी गायी, तो रसिकों के बीच से आवाज़ आई-‘वाह खटका और मुरकी का कैसा अदभुत समन्वय है’। उनकी गायकी से, राधा-कृष्‍ण के प्रेम और नोंक झोंक का दृश्‍य तिलस्म पैदा कर रहा था।

बारिश हो या कड़ी धूप, हर मौसम में कुसुम जिज्जी के गायन के कंसर्ट में हॉल खचाखच भरा रहता। हॉल में पिन-ड्रॉप-साइलेन्‍स बना रहता था शुरू से आखिर तक। कुसुम जिज्जी के पास स्‍मृतियों का विराट समुद्र है, जिसमें अकसर ही वो गोते लगाती हैं। कई बार तो वो ये भी चाहती हैं कि इन सुरीली यादों की बूंदों से उनके घर वाले भी भींगें। खासतौर पर वो पारुल को बहुत कुछ बताना चाहती हैं क्‍योंकि पारुल उनके साथ परछाईं की तरह रहती है। लेकिन पारुल के तो अपने ही जोड़-घटाव हैं। कुसुम जिज्जी के करीब बस उतना ही रहना चाहती है, जब तक उसे फायदा पहुंचता रहे। पारुल का बस चले तो कुसुम जिज्जी की यादों के सिक्‍कों को या तो बाज़ार में भुनाए या फिर ‘फिक्‍स डिपॉजिट’ करके दोगुना होने तक इंतज़ार करे। लेकिन स्‍मृतियां किसी तिजोरी में भला कहां कैद होती हैं, वो तो मन की वादी में हमेशा भटकती हैं तो कुछ स्‍मृतियां इंसान के जीने का मक़सद बन जाती हैं। आज जब भी पारुल कुसुम जिज्जी के कंसर्ट के लिए कोई सिटिंग रखती है, तो उनका दिल खुद से विद्रोह करता है...और व्रिदोह के पलों में उनका तनाव और दर्द बहने लगता है। दरअसल जब उम्र का सूरज ढलता है तो सपनों के रंग फीके पड़ जाते हैं। पूरी दुनिया बेनूर लगने लगती है। आवाज़ में कशिश तब आती है, दिल में खुशी की धूप खिली हो... लेकिन मेरी दुनिया में तो हमेशा ही बदली छायी रही, इतना गहन अंधेरा है कि किसी का चेहरा पहचान नहीं आता। बहू, बेटे, पोते सब अदृश्‍य हैं। उम्र के इस पड़ाव में इतनी अकेली हूं जैसे पहाडी किले में कोई मंदिर। कोई भूला-भटका आकर फूल चढ़ा जाता है। मेरे लिए समय जैसे अविरल बहाव है जिसमें ना कोई तारीख है, ना कोई समय, ना ही कोई पर्व है। फिर भी पारुल सिटिंग करती है, तारीख तय करती है और मैं गाने को तैयार हो जाती हूं..... अब और नहीं.... आखिर उम्र के इस ढलान में मैं क्‍यों गाऊं...किसके लिए गाऊं... गाकर क्‍यों इनका पेट पालूं, जबकि मेरे इस परिवार में मुझे सिर्फ कांटे ही कांटे दिये हैं। पिछली बार जब मैं बीमार होकर बिस्‍तर पर थी, झूठ-मूठ को भी कोई मेरे पास नहीं फटकता था, जैसे-तैसे बोझ की तरह पारुल दो वक्‍त खाना पटक जाती थी, वो खाना मैंने खाया या नहीं, ये देखती भी नहीं थी... और मैं अपना कांपता हाथ तकिये के नीचे ले जाकर टटोलती थी, दवा का पत्‍ता ढूंढती थी और दवा निग़ल लेती थी। पोते को मेरे क़रीब इसलिए नहीं आने दिया जाता था कि मेरी बीमारी से उसे इंफेक्‍शन ना हो जाए। मेरे कान तरस गये, इस वाक्‍य के लिए—‘मां बस करो, तुम अब आराम करो…तुम्‍हें कुछ चाहिए तो नहीं’। लेकिन कहां.... इस घर के लिए तो मैं सिर्फ ए.टी.एम मशीन हूं। पर क्‍या कहूं अपने मन को, ये भी बड़ा अजीब है। नहीं गाती हूं तो भी चैन नहीं मिलता। बचपन से आज तक गायकी जैसे रगों में घुली मिली है। बिना गाए तो मैं जी भी नहीं सकती। ये गाना ही तो है, जिसने मुझे जिंदगी की कड़ी धूप में ठंडी छांह दी है।

…..‘बाज़ूबंद खुल-खुल जाये सँवरिया रे
कैसा जादू डारा रे...
जादू की पुड़िया भर-भर मारी रे
क्‍या जाने बैद बिचारा रे’.....
 
राग भैरवी की ये बंदिश उन्‍हें बहुत पसंद है। अपनी तन्हाई में कुसुम जिज्जी गाने के तरह तरह के प्रयोग करती हैं। अभी वो दीपचंदी ताल की इस बंदिश को कहरवा ताल में बदलने की कोशिश कर रही हैं....धागे नाती नाक धिन...


जैसा मीठा गला, वैसा ही ठसकदार कुसुम जिज्जी के गाने का अंदाज़। ग़रीब परिवार में पली-बढ़ी कुसुम जिज्जी अपनी दम पर कामयाब हुईं। पिता ने उन्‍हें इस डर से नहीं पढ़ाया कि वो पढ़–लिखकर कर भाग जायेंगी। घर में उनके गाने का जमकर विरोध हुआ। लेकिन कुसुम जिज्जी कहां मानने वाली थीं। गायकी उनकी रग-रग में, सांसों में बसी थी। जब वो छोटी थीं, तो गाना सीखने के लिए उन्‍होंने जिद ठान ली, -‘गाना सिखाओ वरना कुंए में कूदकर जान दे दूंगी’। घर वाले उनकी जिद के आगे लाचार हुए और उस्ताद रहमत ख़ां से गंडा बंधवा दिया और उन्‍हें गाने की तालीम दिलवाई गयी। इस तरह शुरू हुआ था, उनके गाने का सफर। उन्‍हें गाने और तारीफ बटोरने का इतना शौक़ था कि शुरूआती दौर में जब वो मंच पर गातीं, तो सहेलियों और रिश्‍तेदारों से कह देतीं, कि मैं रहूँगी मंच पर,  तुम लोग तालियां बजाने आना। धीरे-धीरे सिलसिला बढ़ता गया और गायिका के रूप में वो मशहूर होने लगीं।
गायकी तो जैसे उनके लिए कुदरत की एक अनमोल नेमत थी।  दर्शकों में बैठे वो लोग, जो पेशे से व्‍यापारी थे- लेकिन थे संगीत के क़द्रदान, कुसुम जिज्जी के शो के बाद उन्‍हें दंडवत प्रणाम करते और उपहार स्‍वरूप सोने चांदी के गहने और रूपए देते थे। गायकी के इन्‍हीं पैसों और उपहारों से कुसुम जिज्जी के भाई-बहनों की परवरिश हुई। कुसुम जिज्जी बड़ी सरल मिज़ाज की थीं। जिन्‍होंने कभी अपने लिए जीना नहीं सीखा। हर कोई उनसे बेपनाह मोहब्बत करता। जब जिसे जरूरत पड़ती वो उनसे पैसे वसूल ले जाता था। आज के ज़माने में ऐसी मदर टेरेसा कहां मिलेंगी भला। ठसकदार रोबीले व्‍यक्‍तित्‍व को लोग आज भी नमन करते हैं। मजाल है कि उम्र में छोटे लोग उनसे नज़र मिलाकर बात करें। बावजूद इसके कुसुम जिज्जी अपनी सरलता और मासूमियत से वो पेशेवर ऊंचाई नहीं छू पायीं जिसकी वो हक़दार थीं। अपनी काबलियत से उन्‍हें शोहरत तो खूब मिली, पर दौलत नहीं मिल पायी, जो उनके ठाट-बाट को रौनक कर सके। लेकिन हां, अपनी गायकी के दम पर उन्‍होंने अपने बेटी-बेटे को अच्‍छी परवरिश दी। बेटी तो ब्‍याहकर चली गयी ससुराल, लेकिन बेटा हो गया नालायक। जब तक पति साथ थे,  गाने में अड़चनें ही पैदा करते थे। उस ज़माने में औरतों का स्‍टेज पर गाना निचले दर्जे का माना जाता था। उनके पति को कतई गवारा नहीं था कि उनकी धर्म-पत्‍नी उस ज़माने की मशहूर गायिकाओं की तरह कुसुम-बाई के नाम से विख्यात हों। बहरहाल, कुसुम जिज्जी की जिंदगी में परेशानियों की धुंध भी छायी, कामयाबी की रोशनी भी हुई। अंधेरे और उजाले के इस संघर्ष में धीरे-धीरे कुसुम जिज्जी के पास कामयाबी के तमग़े आते चले गये। लेकिन उनकी निजी जिंदगी में अंधेरा गहराने लगा। एकाकीपन बढ़ता गया। लेकिन वो थकी नहीं, उम्र की इस दहलीज़ पर ना आराम है, ना दिली सुकून, ना ही अब वो शोहरत रही। किसी आयोजक का एक फोन आता है, तो पारुल दसियों फोन करती है- और जुगाड़ करके एक स्‍टेज प्रोग्राम फिक्‍स करवा ही लेती है। और उसके बाद कुसुम जिज्जी की सिफारिश शुरू कर देती है। फिर तो उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रहती। कुसुम जिज्जी को मिश्री डालकर गरम पानी देती है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर देती है। इस डर से कि कहीं उनका गला ना ख़राब हो जाए। पारुल की इस एहतियात से कुसुम जिज्जी का गला बिलकुल दुरुस्‍त रहता है। भले ही शरीर उनका जर्जर हो, लेकिन उनका मन और गला कभी नहीं बिगड़ता।




........’दादी दादी, आपकी फोटो फट गयी.......ये अख़बार’
…‘अरे ये तो मेरे सम्‍मान की तस्‍वीर है रे’।
...लेकिन दादी इस अखबार में भेल वाला भेल बेच रहा था। मैंने देखा तो उससे माँगकर ले आया। मैंने उससे कहा, इस अख़बार में मेरी दादी की तस्‍वीर है, दे दो ना’
...कुसुम जिज्जी अवाक रह गयीं। लगा मानो अखबार के टुकड़ों की तरह कुसुम जिज्जी का दिल भी कई टुकड़े हो गया है। दर्द जैसे छाले में बदल गया......तन्‍हा मन उदासी के उस जंगल में चला गया, जहां कोई ऐसा पौधा नहीं जिसमें हरापन हो... शुष्‍क बेजान....ठूँठ पेड़ों में मैं खोज रही हूं रिश्‍तों की बीर बहूटी। जब यहां मिट्टी ही नहीं है, सिर्फ कंकड़-पत्‍थर वाली बंजर धरती है, तो बीज कैसे रोपे जाएंगे.... कहां से जड़ पकड़ेगी... ये घर तो दूर तक फैला निर्जन मरूस्‍थल है जिसमें सिर्फ रेत के टीले हैं, जो भरभराकर कब के गिर चुके हैं। मुझे ये पता है, फिर भी मैं झूठी उम्‍मीद पर जी रही हूं। इस घर में मेरी अहमियत सिर्फ एक ग्रामोफ़ोन जितनी है, जब चाहा बजा लिया, फिर एक कोने में सजा दिया। लेकिन अब मैं इनकी ज़रूरत नहीं पूरी करूंगी। अब मैं कोई वस्‍तु बनकर नहीं रहूंगी। पारुल के कहने पर किसी तरह का कंसर्ट या स्‍टेज प्रोग्राम नहीं करूंगी...लेकिन क्‍या करूंगी, बार बार मजबूर करती है पारुल मुझे गाने को.....।

....दुल्‍हन तुमने ये क्‍या किया?
....जिज्जी वो रखने की जगह नहीं थी ना। अब नये घर में ये कूड़ा-कबाड़ कहां रखा जाए। इसलिए मैंने रद्दी वाले को दे दिया। हां एक कॉपी रख ली है। बस इतना काफी है ना।
दुल्‍हन, तुम्‍हें याद है। इससे भी छोटा घर था, जब रौनक पैदा हुआ था। उसका एक-एक खिलौना, एक एक कपड़ा मैंने संभाल कर रखा था जिसे झाड़-पोंछकर तुम अब भी इस्‍तेमाल करती हो।

कूड़ा कबाड़.... अपने आप से ही कुसुम जिज्जी कहती हैं......... ये रद्दी, ये कूड़ा-कबाड़ ही मेरे जीवन का आसरा है। इसी ने मेरे भीतर सुरों की सरिता प्रवाहित की है। फांस की तरह चुभ गया ये शब्‍द कुसुम जिज्जी के भीतर। कुसुम जिज्जी का मन पीड़ा से आर्द्र हो गया है। ये काग़ज़ के टुकड़े, ये तस्‍वीरों, संगीत की नोट-बुक, बंदिशों की स्‍वर-लिपियां, पुरानी डायरी… इन सबमें दर्ज हैं यादों के दस्‍तावेज़....तन्‍हाईयों का सफ़र....नोटबुक के पन्‍नों में मुरझाए फूल मेरे आंसुओं से मुस्‍कुराने की फरियाद करते हैं। डायरी के पन्‍नों में कुछ शब्‍द हैं, कुछ भाव हैं, अंजुरी भर सरगम है जिसके सहारे मैं जीती हूं, वरना इतनी सारी बीमारियों को ओढ़कर मैं कब की मर चुकी होती। मैं अपने ही कोखजने बेटे और बहू पर बोझ बन गयी हूं। ये मेरी लाचारी का फायदा उठाते हैं। मेरे दुख, मेरी पीड़ा उन्‍हें दिखायी नहीं देती। इन लोगों को मुझसे सिर्फ पैसों का सरोकार है। शायद मैं जिस दिन पैसों का जरिया ना रहूं, उस दिन ये लोग मुझे निकाल फेंकेंगे घर से। इस घर में मेरी रोज़मर्रा की ज़रूरतें तक नहीं पूरी की जातीं। चश्‍मे की डंडी टूटी है। कई दिनों से एक हाथ से डंडी पकड़कर काम चला रही हूं। मैं इनके लिए भला क्‍यों गाऊं। अब मैं नहीं गाऊंगी। मैं क्‍यों इतना कष्‍ट सहूं इनके लिए। अब तो कुर्सी पर बैठते भी नहीं बनता... कमर और घुटनों में असह्य पीड़ा होती है। लेकिन करूं क्‍या... दुल्‍हन फिर रोना रोएगी... आप गाएंगी नहीं तो आपके पोते की पढ़ाई का ख़र्च कहां से आएगा, हमारे लिए ना सही, उसके लिए तो गाइये। मैं इनके दिए दुखों से रोज़ तार-तार होती हूं फिर भी पारुल की एक चिरौरी पर गाने को तैयार हो जाती हूं.....

......पारूल मेरे तानपूरे का तार टूटा है। कितनी दफ़े कहा, ठीक करवा दो। गाने की सिटिंग से पहले करवा ही देना ज़रा.....तुमने मेरे ब्‍लाउज़ की तुरपाई भी नहीं की ना...लोग क्‍या कहेंगे कि मैं इतनी बड़ी गायिका, उधड़ा ब्‍लाउज़ पहने हूं। हर प्रोग्राम के बाद जब पैसे मिलते हैं तो सोचती हूं अपने लिए दो-चार साड़ी-ब्‍लाउज़ खरीद लूंगी, लेकिन उससे पहले ही तुम्‍हारी ज़रूरत की चीज़ों की लंबी लिस्‍ट तैयार हो जाती है। कराहती हुई धीरे-धीरे वो अपने शरीर के बोझ को उठाने की कोशिश करती हैं.... सुई में धागा डालने की कोशिश करती हैं...सुई के चुभन से रिसती खून की बूंद को देख रही हैं।
नए घर के हॉल में लोगों की भीड़ जमा है। कुसुम जिज्जी के पिछले कंसर्ट के पैसों से आया नया म्‍यूजिक सिस्टम तेज़ तेज़ बज रहा है और इन आवाज़ों से कमरा गूँज रहा है। म्‍यूजिक बंद होने पर लोगों की हंसी और क़हक़हे छन छनकर भीतर वाले कमरे तक चले आते हैं। जहां बैठी हैं कुसुम जिज्जी। चारों ओर संगीत का शोर है। चहल-पहल है। लेकिन कुसुम जिज्जी के भीतर एक खोह है,  जहां सिर्फ ख़ालीपन है,  वीरानी है और है इक दश्त। उनकी घुटनों की तकलीफ़ बढ़कर ऑस्टियोपोरोसिस में बदल गयी है। बिना सहारे के वे उठ नहीं सकतीं वो। पारुल हाथ में उपहारों का बंडल लिए कमरे में दाखिल हुई, जल्‍दी-जल्‍दी आलमारी में रखकर बाहर निकल ही रही थी कि कुसुम जिज्जी की आवाज़ आयी,  दुल्‍हन-दुल्‍हन, भूख लग आयी है। खाना ले आ।
- अं.. हां जिज्जी।
-गोली खाने का वक्‍त हो गया है दुल्‍हन।
-आई जिज्जी, कहती हुई पारुल कमरे से जो बाहर गयी तो पलटकर नहीं आयी।
जब किसी कंसर्ट की तारीख़ तय होती है तो दुल्‍हन कैसे दौड़-दौड़कर मेरी सेवा करती है। कुसुम जिज्जी मन ही मन बुदबुदाईं..... उसे तो मिल गया है नया घर। अब फिलहाल मेरी जरूरत नहीं है। प्रोग्राम ख़त्‍म तो कुसुम जिज्जी की देखभाल भी ख़त्‍म। रद्दी की टोकरी में पड़े बेकार सामान की तरह मैं घर के एक कोने में पड़ी रहती हूं.......वॉश-रूम जाना है। सालों से डायबिटीज़ की पीड़ा से जूझ रही हैं। बिना सहारे के वॉश-रूम नहीं जा सकती हूं... पारुल को ये बात अच्‍छी तरह पता है... लेकिन वो अपनी खुशियों में मस्त है, उसे तमाशे और नाच के सिवा कुछ नहीं दिखायी दे रहा। मस्त रहें मस्‍ती में, आग लगे बस्‍ती में। 

बेटे को जब पैसों की ज़रूरत होती है, तब उसे अपनी मां यानी कुसुम जिज्जी याद आती हैं।  शाम से अब रात हो चली है। पार्टी का शोर मद्धम होता चला जा रहा है और कुसुम जिज्जी के भीतर का अकेलापन भी गहराता जा रहा है। ठसकदार शख्सियत, एक मशहूर गायिका घर के एक कोने में बैठी खाने का इंतज़ार कर रही है। उसकी भूख शांत हो, तो वो दवा खाए। कोई आए, उन्‍हें सहारा तो वो वॉश-रूम जाएं। अब तो उनकी साड़ी भी गीली हो चुकी है।  ऑस्टियोपोरोसिस की तकलीफ इन दिनों इतनी बढ़ गयी है कि डॉक्‍टर की दवा भी कभी-कभी काम नहीं करती है। एक की बजाय कई बार दर्द की दो गोलियां लेनी पड़ती हैं। थोड़ी राहत और फिर तकलीफ़ शुरू। कमाल की बात तो ये है कि कुसुम जिज्जी का शरीर तो जर्जर हो गया है लेकिन आवाज़ आज भी ताज़ा है, गला उनका आज भी जवान है। आवाज़ में पहले जैसी बुलंदी, लोच और कशिश बरक़रार है। शरीर की तकलीफ़ मन को भी बेचैन करती है। एक कलाकार बेहद बेचैनी के पलों में अपनी कला से इश्क़ फ़रमाता है। जहां सारे दर्द, दर्द की सीमा से ऊपर हो जाते हैं। इश्‍क़ में दर्द का अहसास मीठा लगता है। अकसर कुसुम जिज्जी के साथ भी ऐसा ही होता है। जब वो कराहने लगती हैं - तो अपने साज़ उठाती हैं। छेड़ती हैं कोई राग,  सुरीले आलाप और तान के बाद......गाती हैं विलंबित और द्रुत ख्‍याल की बंदिश। और फिर अपनी इस प्रिय ठुमरी में डूब जाती हैं—
‘भर भरी आयीं मोरी अंखियां पिया बिन.....
घिर घिर आयी कारी बदरिया....
धड़कन लागी मोरी छतियां।’

वर्तमान से जब जी घबराने लगे, हर पल इंसान छटपटाता रहे... अपनी तकलीफ़ों से लाचार होने लगे, तो उसका अतीत में विचरना आदत-सी बन जाती है। अतीत के सबसे ऊंचे पहाड़ पर चढ़ रही हैं कुसुम जिज्जी। यादों की मीठी बारिश से आज फिर भीगना चाहती हैं वो। कामयाबी के भूले-बिसरे चित्रों को देखना चाहती हैं, मन के आइने में......।


कुसुम जिज्जी बैठे-बैठे ही अपना घुटना मोड़कर घिसट कर थोड़ा आगे तक सरकीं तो तिपाई तक हाथ पहुंच गया। तानपूरे का ऊपरी सिरा हाथ आया, उसे अपनी ओर खींचा। बूढ़े-झुर्रीदार हाथों में इतनी ताक़त नहीं बची कि तानपूरे को सही पो़ज़ीशन में लाकर अपने सामने खड़ा कर सकें। तानपूरा आधा लेटा कर उसका कवर हटाया, साड़ी के पल्‍लू से उस पर जमी धूल साफ की। और फिर धीरे-धीरे खुलता गया, उनके मन का भीतरी परदा। यादों के साज़ पर पड़ी गर्द भी साफ़ होती गयी। उस पार ठहरा अतीत, आंखों के सामने झिलमिलाने लगा। अपने गाने पर हॉल में बज रही तालियों की गूंज, उनकी गायकी की लहरों से सराबोर होते दर्शक-श्रोता, ग्रामोफ़ोन कंपनियों के लिए गाना, एल-पी रिकॉर्ड्स का रिलीज़ होना, दुनिया भर में मशहूर होना, अपना दमकता हुआ जवान चेहरा, रिकॉर्ड के कवर पर छपा अपना श्‍वेत श्याम चित्र, रिलीज के बाद की पार्टी और रेडियो-पत्र-पत्रिकाओं में इंटरव्‍यू---चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगे। सरपट भागती ट्रेन की तरह गुज़र गये वो दिन। और बचा रह गया पटरियों का धड़कना। कुसुम जिज्जी इस वक्‍त सवार हैं यादों की ट्रेन पर। अनगिनत स्‍टेशन आ रहे हैं यादों के। वर्षा-चौमासा के चार दिनों का बहुत बड़ा आयोजन था, जिसमें कजरी, चैती, टप्‍पा, ठुमरी गाकर खूब शोहरत पायीं और पहली बार उन्‍होंने आयोजकों के सामने पैसों के लिए ज़बान खोली थी। उन्‍हें मुंह-मांगी रकम मिली भी थी। उन्‍हीं पैसों से बेटे के लिए गाड़ी ख़रीदी। किराए पर चलवाई। लेकिन 'पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय'। यादों के समंदर में ग़ोते लगाती कुसुम जिज्जी ने जब तानपूरे के तार को छेड़ा, तो अहसास हुआ कि तार तो कब के ढीले पड़ गये....तानपूरा अब बेसुरा हो गया है, लेकिन एक कलाकार की जिद के सामने साज़ को अपनी जिद छोड़नी पड़ती है। आखिरकार तानपूरा मिलाया और कुसुम जिज्जी को अहसास ही नहीं हुआ कि उनके कंठ से ठुमरी के ये बोल फूटने लगे हैं......

'घिर आयी कारी बदरिया,
राधे बिन लागे ना मोरा जियरा.....
बदरा बरसे, नैना बरसे,
घन और श्याम की लागी है होड़वा,
राधे बिन लगो ना मोरा जियरा’।







इस ठुमरी के साथ, बोल-आलाप और बोल-तान कुसुम जिज्जी गा रही हैं। कहीं भी उनका सुर भटक नहीं रहा है। बाक़ायदा खटका-मुरकी, गमक और मीड़ का वैसा ही प्रयोग जैसा वो मंच पर पहले करती थीं। कुसुम जिज्जी के गाने का वही ठसकदार अंदाज़ आज भी कायम है। जब मंच पर वो गाती थीं,  तो हॉल में तालियों की गूंज होती थी। हालांकि अब कुसुम जिज्जी सिर्फ दौलत के लिए मजबूरी में गाती हैं,  बेटे-बहू की ज़रूरतों के लिए। पोते को MBA कराना है इसलिए गाती हैं। बेटे को दुकान ख़रीदनी है। दुल्‍हन को हर महीने ब्‍यूटी पार्लर जाने के लिए पैसे चाहिए। सब्जियों, फलों और अनाज के दाम आसमान छू रहे हैं। जिनके घर में हर सदस्‍य कमाता है, वहां भी किल्‍लत मची है। यहां तो ढंग से कमाने वाला कोई है भी नहीं। गाती हूं मैं, गाने के पैसे लेती है पारुल, उन्‍हीं पैसों से आता है घरेलू सामान और पकती है रोटी। यही रोटी रोज़ मुझे सबके खाने के बाद मिलती है। जब सब खा लेते हैं, तब बचा-खुचा खाना मेरे हिस्‍से में आता है। आज भी जबकि गृहप्रवेश की पार्टी मेरी बदौलत है, फिर भी मुझे ही सबसे अंत में खाना नसीब होगा....कलझ रही हूं मैं भूख से, लेकिन पारुल खुशी के नशे में चूर है। उसे तो होश तब आएगा, जब अगला कोई आयोजक मिलेगा प्रोग्राम के लिए।

'कुसुम जिज्जी, कुसुम जिज्जी, सुनिए तो, ग़ज़ब हो गया, अपने तो भाग खुल गये'...ये पारुल थी, जिसकी आवाज़ सुनकर कुसुम जिज्जी की ठुमरी का स्‍वर वहीं रूक गया।
-हुआ क्‍या दुल्‍हन, तुम्‍हें कब से आवाज़ दे रही हूं। भूख से मेरा कलेजा मुंह को आ रहा है। कमर-घुटने ऐसे अकड़ गये हैं कि बैठे नहीं जा रहा है। कमर दर्द सहा नहीं जा रहा है। गाना शुरू किया तो दर्द ज़रा कम हुआ। पारुल ने तानपूरा जिज्जी के हाथों से लगभग छीनते हुए जल्‍दी जल्‍दी उसे प्रणाम किया, जैसे तानपूरा ही उसकी सास हो। उसे तिपाई पर खड़ा कर दिया।
-‘क्‍या कर रही हो दुल्‍हन, मेरा तानपूरा कहां हटा रही हो। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके तार ठीक किये हैं।
अब कुसुम जिज्‍जी का मन जैसे दर्द के दरिया में डूबने लगा है। मन ही मन वो कहती हैं—हुंह पारुल को अब सुधि आई है मेरी। लगता है फिर कोई कार्यक्रम जुगाड़ कर आयी है... उसका चेहरा देखकर ही मैं भांप लेती हूं कि इस बार मुझसे उसे कितना फ़ायदा पहुंचने वाला है। पारुल तानपूरे के एक-एक तार को बेचेगी और एक-एक तार के नोट वसूल करेगी।

-कुसुम जिज्‍जी, इस बार तो आपके लिए नया तानपूरा ख़रीद लायेंगे, यही नहीं सितार, गिटार, ढोलक, मजीरा, हारमोनियम सब ख़रीद देंगे।  इस बार आप हमारा घर दौलत से भर देंगी। अब हम अपनी दुकान ख़रीद सकेंगे। एक बार जो दुकान चल पड़ेगी, तो फिर आपको हम मसनद पर बिठा कर रखेंगे। आप सिर्फ कंठी-माला लेकर राम नाम जपियेगा। बस एक आखिरी बार हमारे लिए गा दीजिए मंच पर’।
-- 'दुल्‍हन, आंखें थक गयीं इंतज़ार करते करते। भूख से अंतडियां अंदर घुस गयी हैं। होंठ सूखे जा रहे हैं। बार बार जीभ फेर रही हूं, ज़बान पर।’....कहते-कहते कुसुम जिज्जी की आंखों में अटके मोती गालों पर ढुलक आए।

एल.ई.डी. लाईट की तेज़ रोशनी में भी कुसुम जिज्जी के सामने स्‍याह अंधेरा छा गया। दिमाग़ चक्‍कर खाने लगा। जैसे अब वो गिर पड़ेंगी। हॉल से अभी भी शोर छनकर आ रहा है और कुसुम जिज्जी के कानों को चोट पहुंचा रहा है।---—‘कुंडी मत खटकाओ राजा, सीधा अंदर आओ राजा’- पारुल इन बेढब बोलों के साथ सुर मिलाती हुई, झूमती कुसुम जिज्जी के गले में हाथ डालकर झूल गयी। कुसुम जिज्जी का नथुना तेज दुर्गंध से भर जाता है। और वो झटके से अपना मुंह दूसरी तरफ फेर लेती हैं। उनका रूका हुआ बांध टूट जाता है। दर्द बेतरह फट पड़ता है। शरीर और मन ज़ार-ज़ार रोने लगते हैं। उन्‍हीं की कमाई से ये घर आबाद हुआ है। और वही घर के एक कोने में अपनी बदनसीबी पर रो रही हैं। उनकी साड़ी अभी और गीली हो गयी है। घर के दूसरे हिस्‍से में जश्‍न मनाया जा रहा है। गाना गूंज रहा है—‘ले ले रे सेल्‍फी ले ले रे’। इस गाने पर कुसुम जिज्जी का बेटा नाच तो सकता है लेकिन ‘बजरंगी भाईजान’ बनकर उन्‍हें अकेलेपन के महासागर से उबार नहीं सकता।

मेहमान जा चुके हैं'। पारुल कुसुम जिज्जी को बच्‍चों की तरह बहलाने की कोशिश करती है। उन्‍हें सहारे से उठाकर वॉशरूम ले जाती है। 'सरगम ग्रुप वाले एक बहुत बड़ा स्‍टेज प्रोग्राम कर रहे हैं। वो लोग आपसे मिलना चाहते हैं। चलिए जिज्जी आपको हाथ मुंह धुलाकर खाना खिला देती हूं। फिर ये नयी साड़ी पहन लीजिए। तैयार हो जाइये। वो लोग अभी आयेंगे और आपसे मिलेंगे। एडवांस पचास हज़ार का चेक देने का वादा कर गये हैं। लगता है हमारे भी अच्‍छे दिन आ गये हैं जिज्जी'। पारुल खुशी के समंदर में डुबकी लगा रही है। कुसुम जिज्जी उदासी से तार-तार झीनी हुई जा रही हैं,   पारुल हाथ में साड़ी लिए खड़ी है। कुसुम जिज्जी साड़ी की तह खोल कर उसमें पड़ी शल ठीक कर रही हैं। पारुल उन्‍हें हाथों से सहारा देती है। दोहरी हुई कमर के दर्द से कुसुम जिज्जी चीत्‍कार कर उठती हैं.......उफ़......घुटने तो सीधे ही नहीं हो रहे दुल्‍हन ..... यूं ही पहना दो ना साड़ी.....
उस रात भी पारुल मुझे इसी तरह साड़ी पहना रही थी। पड़ोसी आकर खड़े थे, डॉक्‍टर के यहां ले जाने के लिए ऑटो रिक्‍शा बुलाया गया था। बीमार हालत में मुझे अकेला छोड़ ये लोग सिनेमा देखने गये थे। पोते ने जिद की थी.......
--‘मैं दादी के साथ रहूंगा, बेचारी दादी कैसे उठकर पानी लेगी’
--‘तांबे वाला लोटा यहां भरकर रख देते हैं’- पारुल बोली थी।
--‘अगर बिजली गुल हो गयी तो’?
-- ‘मोमबत्‍ती और माचिस भी रखे दे रहे हैं ना, दादी कोई छोटी बच्‍ची नहीं हैं कि उन्‍हें अकेला नहीं छोड़ सकते’।
रौनक से दुल्‍हन से झुंझलाते हुए अस्‍फुट स्‍वर में कहा था—‘जिज्‍जी तो जी का जंजाल बन गयी हैं, अब इनकी वजह से हम सिनेमा में भी ना जाएं’।

ये सब मैं बीमारी की अशक्‍त अवस्‍था में में सुन रही थी...और सचमुच उस दिन बिजली गुल हो गयी थी। मुझे जोरों की प्यास लगी थी, मैं पानी लेने के लिए कोशिश करके उठी थी। और धड़ाम.....अपने ही गिरने की आवाज़ से मैं डर गयी थी। उसके बाद क्‍या हुआ...मुझे कुछ होश नहीं। जब मैं चेतन अवस्‍था में लौटी, तो अपने को अस्‍पताल के बेड पर पाया था। सलाइन लगा हुआ था… मैं असह्य वेदना से कराह रही थी। डॉक्‍टर के आने पर पारुल ने फुसफुसाकर पूछा, ‘कितना ख़र्चा लगेगा, कितने दिन यहां रखना होगा……हमें जितना जल्‍दी हो सके, प्‍लीज़ डिस्‍चार्ज दे दीजिए..... और हां डॉक्‍टर साहब ये बात आप अपने तक ही रखिएगा’।

....’मैं ज़रिया हूं कमाई का, लेकिन मेरे इलाज में पैसे ना ख़र्च हों...पारूल की इन बातों ने आज के इन हालात में मेरा कलेजा चीर दिया था। मेरे घाव पर मरहम की बजाय जैसे नमक घिस दिया गया हो, जैसे मीठी छुरी से मुझे मद्धम-मद्धम हलाल किया जा रहा हो। बूंद-बूंद बह रहा था दर्द का दरिया मेरी आंखों से....बहुत देर तक अस्‍पताल का सफेद झक तकिया गीला होकर मटमैला हो रहा था। सांत्‍वना और प्‍यार के हाथों के स्‍पर्श के लिए मन ज़ार-ज़ार रोकर तड़पा था उस दिन...उस दिन तो क्‍या जाने कितने बरस हो गए, स्‍नेह और अपनेपन की छांह मिले हुए....। जिंदगी की कड़ी धूप में जब-जब प्‍यार की प्‍यास की महसूस हुई, तब-तब कड़वा प्‍याला ही नसीब हुआ.... अब तो लगता है मेरे दुखों के सफर का अंत मेरी आखिरी सांस के विराम पर ही होगा।


कमरे में रखे रेडियो पर कोई FM चैनल बज रहा है....पुरानी चीज़ों को मत फेंकिए...olx पर बेचिए। कुसुम जिज्जी की कराह और ये विज्ञापन दोनों आपस में घुल-मिल गये हैं... और अब बज रही है ये शास्‍त्रीय बंदिश--

'सखी मोरी कोई ना जाने पीर
मोरे नैना बहाए नीर
सांवरिया मोरा दरस दियो ना
लागे हृदय में तीर.....'

ढलती रात के इस सन्‍नाटे में राग मारवा की ये बंदिश कुसुम जिज्‍जी के कलेजे में टीस पैदा कर रही है। कुसुम जिज्‍जी को लग रहा है.. ना तो इस रात का कोई अंत है, ना उनकी इस पीड़ा का।






परिचय- ममता सिंह
हंस, पाखी, रचना-समय, कथाक्रम, कादंबिनी, तथा अन्‍य पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। विविध-भारती सेवा मुंबई की लोकप्रिय उद्घोषिका। ‘रेडियो-सखी’ के नाम से पहचानी जाती हैं। इलाहाबाद वि.वि. से संस्‍कृत में स्‍नातकोत्‍तर। शास्‍त्रीय संगीत में प्रभाकर। रूसी भाषा में डिप्‍लोमा। नवभारत टाइम्स (मुम्बई संस्करण) में शास्त्रीय संगीत के दिग्गज कलाकारों से बातचीत पर आधारित श्रृंखला का प्रकाशन । आकाशवाणी और विविध भारती से रूपकों, कहानियों का प्रसारण