11 फ़रवरी, 2015

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं : रोहिणी अग्रवाल






सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। व्यवस्था से लड़ते हुए झब्बू ने अपनी जातिगत और लिंगगत पहचान से ऊपर एक चेतन कर्मशील योद्धा की छवि गढ़ी है। अपनी सीमाओं में जकड़ी ग्रामीण समाज की अति पिछड़ी दलित स्त्रियों को आर्थिक-नैतिक-वैचारिक रूप से सक्षम बनाने की मुहिम में वह स्वयं क्रमशः व्यक्ति से संस्था बनती गई है। लेकिन अपनी पूर्ववर्ती कथाकार-पीढ़ी की तरह सत्यनारायण पटेल रोमानी आदर्शवाद से अपनी लेखनी को आक्रांत नहीं होने देते। बाज़ार जब महानगरीय संस्कृति के कंधे पर सवार होकर गांवों को मिटाने के लिए तेजी से खेतों को निगलने लगा हो, चांदी का जूता जीवन और जगत के तमाम रहस्यों को खोलने की कुंजी बन गया हो, अपमान का गरल पीकर सत्ता-सुख का अमरत्व हासिल होता हो, तब ऊर्ध्वमुखी महत्वाकांक्षा चांद के पार सूरज से होड़ लेने की लिप्सा में कब रसातल की ओर उन्मुख हो जाए, पता नहीं चलता। सत्यनारायण पटेल रोमान और आदर्शवाद दोनों से सायास पल्ला बचाकर झब्बू के जरिए जितनी विश्वसनीयता से व्यक्ति के महानायक बनने की कथा कहते हैं, उतनी ही प्रामाणिकता से महानायक के भीतरी क्षरण की जांच भी करते हैं। झब्बू का अभ्युदय और पतन कथा से बाहर निकलकर समाज में एक बड़ी संभावना के पनपने और नष्ट हो जाने की त्रासदी कहता है, जिसे घटित करने में जितनी भूमिका व्यवस्था को इशारों पर नचाती उपभोक्तावादी संस्कृति की है, उतनी ही अपने भीतर खदबदाती लिप्साओं और बर्बरताओं की भी। जाहिर है उपन्यास 'गांव भीतर गांव' पाठक को अपने इस अनपहचाने 'स्व' को देखने की आंख देता है। तब रोशनी, राधली, जग्गा, श्यामू या दामू, संतोष पटेल, ठाकुर और विधायक आदि दो खेमों में बंटे पात्र नहीं रहते, अपने ही भीतर की निरंतर द्वंद्वग्रस्त मनोवृत्तियां बन जाते हैं।
कहना न होगा कि उपन्यास में एक-दूसरे को काटती, घुलमिल कर आगे बढ़ती घटनाओं का अंतर्जाल है; पात्रों का मेला है और उसी अनुपात में अंतस्संबंधों की कई-कई बारीकियां भी। मिट्टी की सांेधी गंध से महकती बोली-बानी पात्रों को चरित्र-रूप में साक्षात् उपस्थित भी करती है और लोक-जीवन की विश्वसनीयता को भी गहराती है। कहानियों में जिस बेलौस अक्खड़ अंदाज में सत्यनारायण पटेल अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर कथा-साहित्य को एक नई रंगत और रवानगी देते हैं, उसी की सतत् निरंतरता है उपन्यास 'गांव भीतर गांव', यानी अपने वक्त का अक्स।


रोहिणी अग्रवाल

04 फ़रवरी, 2015

कवितांए तितिक्षा जी की और टिप्पणी तुषार धवल जी की हैं।

मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ और
टिप्पणी प्रस्तुत है....

कविताएँ

1 चले आना

चले आना जब मेरी याद आए
चले आना जब दिल भर आए
चले आना जब कोई पास न हो
चले आना जब कोई राह न मिले
चले आना गर कुछ तुम्हारे पास न रहे
चले आना जब सुकून तलाशते थक जाओ
चले आना
चले आना
चले आना कि तुम्हें तुम्ही से मिला सकूँ
वो तुम जो मुझमें बसते हो....


2 अनकहे शब्द

शब्द चले गए
कई दफा की गई
नाकाम कोशिशों से हारकर
रोये-बिलखे, चीखें
सब अनसुना किया गया
किसी मुख द्वारा व्यक्त किये जाने को आतुर
उनका अव्यक्त रहना नियति बना दिया गया
आखिर
वे चले गए
बिना किसी आहट के
और छोड़ गये
मूक इंतज़ार
अपने लौट आने तक...


3   माँ

काश माँ होती
सृष्टि के सारे नियमों के विरुद्ध
मिलने आती

स्नेहपूर्ण स्पर्श करते ही
बरसों से ना आई मीठी नींद
पलों में आ जाती

प्यार भरी मुस्कान से
दिन की सफल शुरुअात होती
इस तरह उसके होने
या न होने की अहमियत को
बेहतर जानते हुए
जीवनरस ले पाते

बहुत कुछ बच जाता फिर

टूटने और टूट जाने से..


4  उलझन

बड़ी उलझन है
रिश्तों में
निभाने से ज्यादा
उन्हें चुनने में
किसी एक के लिये
दूसरे का बलिदान

कहीं परिवार के लिए
प्यार का बलिदान
कहीं प्यार के लिए
परिवार का
बड़ी उलझन है

कहीं रीती-रिवाजों का झमेला
कहीं समाज की बेड़ियां
देना पड़ता है बलिदान
बड़ी उलझन है

एक तरफ नौकरी की हार
दूजी और पैसों की मार
देना पड़ता है बलिदान

समाज से डरती स्त्री
और उसके स्त्रीत्व की असुरक्षा
देना पड़ता है बलिदान

तोड़ दे गर बेड़ियाँ
भुला दे गर रीती-रिवाज़
उसकी इस लड़ाई में
खड़ा नहीं समाज

अस्वीकृति है भाग्य में
साहस गर वो कर बैठे
कोई साथ न दे तो
देना पड़ता है बलिदान...


5 आत्ममंथन

आत्म मंथन करना
हर मोड़ पर
सही गलत के पैमाने पर तोलना विचारों को
किसी एक बात पर अटकना मन का
लगातार विचारना कई पहलुओं पर
दिनों दिन चलता मंथन
और निर्णय न ले पाने की विवशता
बढ़ते हुए इस बोझ से मुक्ति पाने
खुद को जिंदादिल बनाए रखने को
उठते कई बार कदम
जो न सही है न गलत
है बस एक आखरी आस
किसी पेड़ पर लगे आखरी पत्ते की तरह..
०००
04:59, Feb 2 - Satyanarayan:

टिप्पणी                                                                                  

पहली झलक में ही एक चीज़ जो साफ नज़र आती है वह यह कि इस कवि में कवित्त की एक नैसर्गिक सम्पदा है। मन पर उठते भावों और विचारों की अन्तर्लय को समझने की एक 'इन्ट्यूटिव' समझ है। ये तथ्य रूप में इन कविताओं के शिल्प और शब्दों के चयन में झलक जाते हैं।
निश्चय ही कवि के ये शुरुआती दिन हैं। सूरज जैसे जैसे उठेगा, उसका ताप भी बढ़ेगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। यहाँ चन्द और बातें हैं जिनके प्रति सतर्कता कवि को और अच्छी कवितायें दे सकती हैं। मसलन,

'चले आना' कविता के जन्म लेने के पहले की हड़बड़ाहट में लिखी गई प्रतीत होती है। यहाँ 'चले आना' का बार बार दुहराव और हर 'चले आना' के बाद फीका सा कोई वाक्य अपने ऊपर फिल्मी या सस्ती शायरी का प्रभाव दिखाता है। 'चले आना' के दुहराव में कसाव या तनाव पैदा नहीं हो सका है क्योंकि ऐसे विषय की प्रेम सिक्त कविता की यह आन्तरिक माँग होती है कि वह भावों के वेग पर उमड़े। हृदय से उठती पुकार का एक थके हुए मन ने जैसे यहाँ बुद्धि के जोर पर सिर्फ अनुवाद भर कर दिया है। उसे तराशा नहीं है। कवि थोड़ा सब्र से अपने भीतर उतरे, उन भावों को, उनकी ऊष्णता को महसूस करे तो निश्चय ही अभिव्यक्ति और प्रखर हो जायेगी।
लेकिन फिर भी, यह अवश्य कहा जाना चाहिये कि इस कविता में कवि ने एक आन्तरिक लय हासिल कर लिया है और उसे अपनी अभिव्यक्ति में तब्दील भी किया है। यह एक अच्छा प्रयास है।

'अनकहे शब्द' एक बेहतर कविता है। यहाँ कवि ने अपने भीतर अधिक झाँका है, उसे महसूस भी किया है। जीवन में बहुत बार हठात् ही कोई चला जाता है और बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। एक मूक इन्तजार अपने उन्हीं शब्दों की उलझनों को लिये बैठा रहता है। इसकी खलिश और ख़ला की अभिव्यक्ति अच्छी हुई है।

माँ पर अमूमन हम सबने कवितायें लिखी हैं। हमारे काव्य पूर्वजों से ले कर हम तक और हमारे बाद भी कविता में माँ की सनातन उपस्थिति बनी रहेगी।
              'बहुत कुछ बच जाता फिर
               टूटने और टूट जाने से'
इस कविता का एक ताकतवर वाक्य है जो माँ की कमी को झेलते मन की हताशा को बड़ी खूबी से समेट लेता है। यह एक अच्छी कविता है।

'उलझन'  कविता में कवि अपने दिमाग में ही जैसे भुनभुना रहा/ रही है। ठीक है, ये उलझने हैं, पर क्या सिर्फ इतना ही कह देने भर से कविता बन जायेगी ? 'कहीं परिवार के लिये... बड़ी उलझन है' एक अत्यन्त सतही अभिव्यक्ति है और एक चलताऊ किस्म की मंचीय कविता (जैसे 'सब' चैनल के 'वाह वाह' वाली बेहद सस्ती कविताओं ) के प्रभाव में उगी हुई लगती है। इस कविता पर कवि/ कवयित्री को फिर से काम करने की आवश्यकता है।

'आत्ममंथन' अच्छी कविता है। इस कविता में भी मन की कशमकश पर कवि/कवयित्री की उंगली सही पड़ी है। इसमें अपने भीतर के ऊहापोह के भाव से एक तालमेल बन पाया है और यह कविता पाठक के मन को अपनी तरफ खींचती है।

कुल मिला कर यह एक अच्छा प्रयास है । स्पष्ट है कि कवि नया है और ये लिखने के शुरुआती दिन हैं। एक सुझाव देना चाहता हूँ। कवि को 'अपने' स्वर की तलाश और शिनाख्त करनी होगी। बाहर बहुतेरी आवाज़ें हैं और उनके शोर का आवर्तन भी बहुत है। इन सबमें, थोड़ा ठहर कर अपने मनोभावों, चिन्तन और अपने मूल स्वभाव में डूबना होगा, मद्धिम आँच पर पकने देना होगा। यहीं वह सम्पदा मिलेगी जिसे कविता कहते हैं। एक और बात, मेरी यह राय है कि अच्छी कविता में भाव और विचारों का सन्तुलन बहुत आवश्यक है, यानि हृदय और मस्तिष्क का। कवि को विचारों के स्तर पर पुख्ता होने के लिये बहुत अध्ययन करना चाहिये, लगभग हर तरह के विषय पर। ये विचार कवि के व्यक्तित्व को गढ़ेंगे और उसके भावों में जब डूब कर निकलेंगे तो कविता एक ऊँचाई हासिल कर लेगी।
फिर भी, हम सभी यहाँ सहमत होंगे ही कि कवि ने बहुत अच्छा प्रयास किया है। उन्हें बहुत बहुत बधाई और उतनी ही शुभकामनायें।

कवितांए तितिक्षा जी की और टिप्पणी  तुषार धवल  जी की हैं।
31.01.2015


आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है

मित्रो आज आपके बीच कहानी - कछार प्रस्तुत है...और उस पर टिप्पणी भी....पहले टिप्पणी पोस्ट कर रहा हूँ...
और फिर..कछार

टिप्पणी                                               

स्त्री जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों को एक बहुत ही सहज भाषा-शैली में उठाती है यह कहानी। ग्रामीण परिवेश में व्याप्त स्त्रियों की आपसी बातें, परस्पर ईर्ष्या, कानाफूसी और हास-परिहास के बीच एक स्वतंत्रचेता स्त्री के प्रति पारंपरिक समाज के पूर्वाग्रहों को बिना किसी अतिरिक्त तामझाम और आडम्बर के रेखांकित किया जाना कहानी का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन स्त्रियों की परस्पर बातचीत के बीच यदि रूपा और दुखंता फूआ के मनोविज्ञान को भी गहराई से विवेचित किया जाता तो कहानी ज्यादा प्रभावशाली होती। ग्रामीण परिवेश और वहां की बोली-वाणी का वर्णन जीवंत है। भाषा, परिवेश, बहाव, पठनीयता सब कहानी के लिए जरूरी होते हैं, इस कहानी में हैं भी। पर कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं होती। परिवेश और मन के द्वंद्वों को कहानी में और जगह मिलनी चाहिए थी, जिसके अभाव में यह एक साधारण कहानी बन के रह गई है और कुछ नया नहीं कह पाती।
०००
06:57, Jan 30 - Satyanarayan:

कहानी कछार

                       पूरा गांव इंतज़ार कर रहा था उसमें  भी ख़ासतौर  पर  स्त्रियां।उन्हें रूपा के ससुराल से वापस  भेज दिए जाने का इंतज़ार था।यह दृढ विश्वास स्त्रियों के मन में रूपा के  विवाह केभीसालों पहले से  उसके प्रति बना हुआ था किकिसी भी दिन रूपा ससुराल से भगाई जा सकती है । पुरुष भी कभी-कभी स्त्रियों के तिखरवाने पर हामी भर देते थे या अक्सर  उन्हें  झिड़क कर या  अनसुना  ही करके घर से निकल जाते थे। वे शायद इस मामले में या   रूपा के बारे में उतनी गहराई से नहीं सोच पाते थे न ही इतनी जांच पड़ताल   करने में अपना दिमाग  खर्च करते थे ।  स्त्रियां भयवश  शायद  कुछ अधिक सोचतीं थी या उनके अपने दुःख उन्हें ऐसा सोचने के लिए बाध्य करते थे, क्या मालूम ! मगर बात की बात में  गांव की तेज़-तर्रार   लड़कियों को   स्त्रियां मर्दमार कहा करतीं थीं.रूपा के लिए तो यहस्त्रियों का तकियाकलाम ही था - "अच्छी भली का तो गुजारा मुश्किल है, इस मर्दमार लड़की का गुज़ारा भला ससुराल में कहाँ  होने वाला है" ।
 दूसरी कहती " ससुराल में साल  भर बीत  जाए तो बड़ी बात होगी '।  तीसरी  कहती- " जो किसी से नहीं हारता वह अपनी संतान से हारता है। देखती नहीं हो राम नरेश की मेहरारू आँख मिला  कर बात   नहीं करती है " ।
चौथी  कहती -"यहाँ थी तो यहाँ नाक में दम किया ।  माँ बाप की  नाक कटा के गांव भर  में घूमती रही और वहाँ  तो बिना सास का घर ही  मिल गया है ! सुना सास  नहीं हैं, न ही घर में कोई दूसरी स्त्री है और इसके अंदर स्त्री के  कोई गुण  मौजूद हैंनहीं।  अलबत्ता अवगुण ही भरे हैं "
  पांचवी कहती  "ससुराल  में  ये रह  पायेगी ?  घर को सराय बना  देगी! बर्दाश्त करेगा कोई इसे ?घर से निकाल देंगें सब।"
छठी  कहती -"यहाँ तो छुट्टा सांड थींवहाँ ये पांव  देहरी के बाहर भी  न निकाल पाएंगी"।सांतवी कहती -" पता नहीं महतारी कैसी थी. वह भी नैहर में  ऐसी ही रही होगी   तभी तो बेटी को रोक नहीं पायी।  वह तो राम नरेश जैसा आदमी था जिसनेइसकोनाधा,  नहीं तो एक तो रूप रंग और गढ़न अच्छी ही थी ऊपर से इतना दहेज़  लेकर आयी थी कि किसी की  मजाल न होती बोलने की।   तभी छठवीं  फिर कह देती -" सच पूछो तो राम नरेश   भी तो मौगा निकले जो हरदम अपनी मेहरारू केहीगुन   गाते रहते हैं"।
सातवीं फिर  कहती -"पूरा गांव थू थू करता है लेकिन रूपा की माँ के ऊपर कोई असर  है कहीं । बेटी  कभी किसी लडके के साथ पकड़ी जाती है तो कभी किसी के साथ। गांव भर में बात उड़ जाती है और इनको जैसे कुछ मालूम ही नहीं है। बेटी कोदुनिया कुछ भी कहे   पर महतारी पर कोई असर ही नहीं होता  ।  क्या मजाल जो बेटी पर कभी  एक थप्पड़ भी उठाया  हो।  उलटा ये खा ले, वो खा ले करती रहती है " सबेरे सबेरे दुखंता फुआ की  चौपाल में यह पंचायत अपनी   खुमारी  में  लहरा रही थी .
        बस दो बरस  पहले की ही बात तो थी।सबेरे चार बजे  से ही गांव भर  की  स्त्रियां  अलस उत्सुकता लिए सुदर्शन मिसिर  के घर की ओर चली जा रहीं थीं ।  कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें या उनके पदचापों की आवाज़ के साथ पायल के घुंघुरुओं की  छन-छन  की आवाज़ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं।  भोर से धुले चमकते हुए तारों की छांव पूरे गांव पर थी ।  उजाले की सुनगुनी शुरू हो गई थी । सुदर्शन मिसिर के घर के सामने घर के जवान लडके  जो रात भर में  दो घंटे सोकर जाग गए थे  बारात के सुबह के नाश्ते और विदाई के सामानों की  तैयारी में व्यस्त थे । औरतें चुपचाप खुले दरवाजे से दालान में घुसती घर के भीतरी हिस्से में दाखिल होती  जा रहीं थीं। आँगन के बीच में पियरी के ऊपर लाल बनारसी गोटेदार  चादर ओढ़े  रूपा  बैठी है। चुपचाप  नीचे देखती हुई ,किसी सोच में डूबी हुई। सोने के मांग टीके का रंग, बड़ी सी नथनी का रंग , उसकी पियरी का रंग और उसकी  नरम-नरम गोरी  देह का रंग, तीनों एकसार हैं। जैसे तारों को आसमान में छोड़कर चाँद धीरे से सुदर्शन मिसिर के आँगन में आ बैठा था।
                     यह  वही रूपा है यह पहचानना कठिन था । और ससुराल  जाती रूपा को याद आ  रहा था  फकीरे। फकीरे के साथ गांव की कोई बँसवारी , गांव का कोई  ऐसा पेड़ रुख नहीं ,  गांव की  कोई  गली कोई पोखरा, तालाब नहीं, जो छूट गया  हो।वहाँ कहाँ मिलेगा फकीरे ! खेलते-खेलते दांव ही  भूल गयी रूपा।जैसे आस्मां  छूते छूते रह गई। अचानक जिंदगी  शादी के सेवार में  फंस  गयी। उसने गांव की बहुत सी लड़कियों को विदा होते ससुराल जाते देखा था लेकिन उसके साथ भी यही होगा यह तो दूर दूर तक भी नहीं  सोचा था ।
         रूपा को वह शाम याद आ रही है जब बाबा ने  माँ से कहा था- "घर परिवार बहुत अच्छा है,पूरा परिवार रूपा के मन के माफिक है. किसी   दबाव में नहीं रहना होगा इसको . अब ब्याह की उम्र भी हो रही है,ऐसा घर-वर फिर मिले कि न मिले"। उसपर  लगन लग गयी ! घर से बाहर आने-जाने के लिए अम्मा ने  मना कर दिया । फकीरे , दीपक और राधेश्याम   उसके  सखा मिलने आये थे। तीनों उदास थे  रूपा उनसे भी अधिक उदास थी । अब  हमेशा के लिए उसका खेल बंद हो गया।यह कौन सी बात हुई। ससुराल में न पेड़ पर चढ़ेगी न लखनी पताई खेलेगी , न कबड्डी।  लेकिन बाबा कहते हैं- बेटी, एक दिन हर लड़की की  ज़िंदगी में ऐसा होता है जब  बहते-बहते अचानक उसकी धार बदल  जाती है लेकिन तब भी उसका लहलहाना घटता नहीं है। किसी और  जमीन पर  बहती है वह और धीरे धीरे वही उसका  ठौर  हो जाता है।नैहर तो लड़की की जिंदगी का कछार है .
        "सब ठीक है, वहाँ जाकर तुमको अपने गुन से सबका दिल जीतना होगा।  मेरी बेटी ऐसा कर लेगी "कहते कहते बाबा की आवाज रुँध क्यों जाती है !वह कहना चाहती थी पर जाने क्यों रुक गयी कि बाबा मेरा खेल ! अम्मा चुपचाप वहाँ से हट गयीं थीं। अजीब सा बिछोह था जिसमें एक  उछाह था।घर झंकृत था ।
                      औरतें आँगन में  बैठती जा रहीं हैं। औरतों की  इतनी बड़ी संख्या की वजह है नहीं तो सबेरे ही तो सभी ज़रूरी काम निपटाने होते हैं जिन्हें छोड़कर औरतें यहाँ आ गयीं हैं।   बदनाम और बदचलन   रूपा   को कैसा घर वर मिल रहा है यह देखने आने के लिए यह संख्या वृद्धि हुई है।  हर घर से दो जनी    नहीं तो  किसी घर सेतीन  जनी भी।  नीरवता में कोई खुसफुसाहट मुखर हो जायेगी इस लिए सबनेभीगी-भीगी आँखों के साथएक बनावटी धैर्य  भी ओढ़ रखा है।आजरूपा की  विदायी है।  ५। ३०  का मुहूर्त निकला है। साज सामान तैयार है।  दूल्हा आँगन में आने वाला है। रूपा  और  सिमट गयी है।  कई जोड़ा आँखें   देखने में लगी हैं कि देखें रूपा  में लाज का प्रतिशत कितना है। उनकी निगाहों में रूपा की   सुंदरता ऊपरी त्वचा भर है।  लेकिन चमड़ी से  घर नहीं चलता है।  विदाई की बेला पास आती जा रही है। रूपा  की  माँ रोते-रोते खोइंचा भरा रहीं हैं।  दूब , हल्दी, अक्षत  ,पैसा  पांच बार रूपा  के आँचल में डालकर माथे पर टीकते टीकते उमड़  पड़ीं हैं। दूधो नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद देते हुए रूपा  को भींच लेतीं  हैं। रूपा  सच में बहुत सुकुमार है यही सोचती उसके मंगल की कामना करते उनकी छाती दरक रही है लेकिन अपने घर लड़की को जाना ही होता है कब तक वे उसको अपने पास रख पाएंगीं।  पूरे घर में औरतों के रोने की आवाज़ें भर गयीं हैं। विदाई पर रोना परम्परा है यह बात सारीं औरतें जानतीं हैं। जो नहीं रोयेगा उसको कठकरेजी कह दिया जाएगा , वे  यह भी जानती हैं .
केकरा रोअला से गंगा नदी बहि गइलीं, केकरे जिअरा कठोर।
आमाजी के रोअला से गंगाजी बहि गइलीं, भउजी के जिअरा कठोर।
सखिया -सलेहरा से मिली नाहीं पवलीं, डोलिया में देलऽ धकिआय।
सैंया के तलैया हम नित उठ देखलीं, बाबा के तलैया छुटल जाय।          
          रूपा की भाभी सुलोचना औरतों का रोना-गाना सुनती  रोती  हुई रूपा को विदाई के लिए  तैयार करने  में जुटी  है।  अब अकेले कैसे कटेंगे  इस घर में रात दिन। सास का बक्सा बंद करती,  रोती अपनी  ननद-सखी का जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। भाभी से भेंटकर अलग होते रूपा की रुलाई तोरोके नहीं रुक रही है । सबसे बढ़कर भाभी ही हो गयी ? गांव की औरतों को यह तो बिलकुल न भाया। शहर में पाली बढ़ी सुलोचनासमझ ही  पाती थी कि औरतेंभेंटते समय  गातीं हैं कि  रोतीं हैं। लेकिन रूपा  के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकली है। बस आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं  उन्हीं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है।  सुदर्शन  मिसिर से देर तक गले लगी रही रूपा  और छोटे भाई के भी। कार खडी है।  गहनों , भारी साडी से लदी-फंदी चेहरा ढंके गाड़ी में बैठी   रूपा आज दूसरे ही रूप में है ।  सारी  औरतें अपने अपने घर की ओर चल दीं।  लेकिन दुखंता फुआ  की  दालान में चौपाल न लगे तो कैसे खाना पचे  ए भाई ! गांव की नई लड़कियां भी बदमास हैं पीठ पीछे सुखंता फुआ कहतीं हैं और फुआ के सामने दुखंता फुआ।दुखंता फुआ बाल विधवा हैं और छोटी उम्र से ही नैहर ही उनका सब कुछ है।  वहीं गुजर बसर है।
      "अपने  गांव घर का मान रख पायेगी"?  अमरावती  फुसफुसा ही पड़ीं   इसका आदमी तो पहली रात ही इसके सारे कारनामे जान लेगा। आदमियों को बहुत तजुर्बा होता है।  वे खायी खेली लड़की को एक निगाह में जान लेते हैं।"
     "निगाह तो क्या बहिन देह कोई पराया मर्द जो  छुवे भी रहेगा तो आदमी भला वह  जाननलेगा " ? पारबता बोलीं - "उनको तो बहुत देह छूने का तजुर्बा न होता है।" सब  खिलखिला कर ऐसे हंसने लगीं जैसे  सबसे बड़ाकोईचुटकला हो  गया  और   बहुत मजेदार बात कह दी हो पारबती ने।
    "अपने गांव की इज्जत बचा के रखें  हम लोग कुछ और थोड़े ही चाहते हैं।  इस गांव की लड़कियां जहाँ भी गयीं हैं नाम कुनाम नहीं किया है।  भले यहाँ कैसे  भी  रहीं हों तो क्या। अपने घर जाकर सब सह लिया और निभा लिया है" दुखंता फुआ बोलीं।
लालमणि बोली " इनको जिस दिन उसने पूरा  चूस लिया बस उसी दिन निकाल बाहर करेगा।  आखिर आवारागर्दी से बाज़तो आएंगीनहीं। मायके वालीवहाँमौज मिलेगी इनको भला ! जब आदत खराब हो तो कोई लाख रोकना चाहे  रोक नहीं सकता है किसी तरह. सुना कई देवर हैं"।
 मालती  भी वहीँ आकर बैठ गयी है।  औरतों के आधे चेहरे ढके हैं। सबकी बात सुनते मालती चिहुंक उठती है - "क्या ? घर बिना सास का है ? और ससुर "? "ससुर तो हैं।  लेकिन ससुर क्या दिनभर इनकी  रखवाली करेंगे . ये तो उड़ती चिड़ियाँ हैं" खखारती हुई रमोला बोल पड़ीं। दुखंता फुआ फिर बोलीं - "देखो किसी की  भी लड़की हो बाकिर अपने घरे-दुआरे सुखी रहे लेकिन हाँ महतारी का करम भी कुछ होता है।  इनकी महतारी को हम तब से जान रहे हैं जब से वे डोली से उतरीं। तभी हाथ पैर सब खुले थे ।कोई लाज-लिहाज ही नहीं था । बस मिसिर की इज्जत खातिर मुंह जरूर ढका रहा।  हँसे तो इनको हँसी गांव के पच्छू के ढाल तक सुनाये।  तो जब माई  ऐसी तो धिया काहे न हो वैसी। उहे जौन  कहावत है - जइसन माई वइसन धीया जइसन कांकर वइसन बीया।अपनी  सास के साथ ऐसी बैठी रहतीं थीं जैसे कि पतोहू  नहीं बेटी हों"।  
                आंसू सूखने के बाद औरतें  दूसरे रूप में हैं . दुखंता फुआ के घर चाय चढ़ गयी है।  सुड सुड चाय पीतीं वे जल्दी घर की ओर निकल लेना चाहतीं हैं।मनबदल गया है।  सबेरे सबेरे खूब घूम-घाम हो गयी  - अब घर चलें काकी।  कह के सुनंदा उठी तो धीरे धीरे सारी  औरतें गम्भीर और मंथर चाल से गांव गांव की पतली गली के नाली-पड़ोहा  बचातीं अपने-अपने घरों  की ओर चल दीं   .
                                  एक साल बीत गया और रूपा की ससुराल से  कोई शिकायती ख़त भी न आया. यह तो अब उलटा लगने लगा था। इस बीच अलबत्ता यह खबर ज़रूर आ गयी कि रूपा के बेटा हुआ है। जो सोचा वह न हुआ।अब औरतें मायूस होने लगीं हैं।उनकी पंचायत की लहकघट गयी थी
  बेमौसम ही मौसम ठंढा हो गया था।पंचायत के लिए  कोई तीखा चटपटा गर्म मसाला नहीं रहता तो स्त्रियों की दुपहरिया बेरंग हो जाती है।  इस बीच उन्हें  काम चलाने के लिए कई  चटपटे मसाले मिले। गांव में लड़कियों की  कमी कहाँ है। जब लड़कियों की  कमी नहीं तो लड़कों कीक्यों होगी। जब दोनों हैं तो गर्मागर्म खबरें भी होंगीं ही लेकिन रूपा जैसी लड़की अपने अंजाम तक नहीं पहुंची यह सवाल गांव की छाजन में खोंस दिया गया है। समय समय पर  सवाल छाजन से उतार कर टटोलने लगतीं हैं औरतें ।
         रूपा बस एक बार दो दिन के लिए आयी तो खूब  खुश और स्वस्थ थी।  कुछ मोटी भी हो गयी थी . दो दिनों में ही वापस चली गयी।  किसी से मिलने भी न गयी  तो गांव की औरतें फुसुर  फुसुर कर के रह गयीं। इतना घमंड हो गया है बेटा  जो हुआ है। माँ बेटी के पांव जमीन परकहाँ हैं।  देखती हो न राम नरेश की मेहरारू कितना हंस हंस सबसे बतियाती है , बाप रे, बोली में  तो ऐसी चाशनी बहती है कि कौन न भूल   तभी तो राम नरेश भी गुलाम हैं।  हंसती है तो आँख भी हंसती है उसकी। तब सुरेखा  ठमक कर बोली –

" लेकिन जब आँख में पानी नहीं है तो ऐसा हंसना किस काम का "।
                    रूपा   विदा तो हो गयी  आधा रास्ता ख़तम होते होते नैहर भी छूट गया।  अब जहाँ जा रही है वहाँ की चिंता सताने लगी थी   रास्ते भर रूपा को एक चिंता सताती रही। मर्दों के घर को सम्भालना बहुत कठिन होगा ।रह रह कर बगल में बैठे नए साथी को भी देख लेती थी।यह  फकीरे जैसा नहीं लगता। पता नहीं कैसा होगा।
   कैसे लोग  होंगे।  बड़के कक्का जैसे गुस्से वाले होंगे या   उसके दोस्तों जैसे। उसको अपने सारे सखा याद आने लगे।  यहाँ उसके चार देवर हैं  लेकिन  उसके दोस्तों जैसे थोड़े होंगे। यही सब सोचती डरती घबराती  अम्मा की हिदायतें याद करती रूपा  ने   ससुराल  में पांव रखा।  पड़ोसकी देवरानी  जिठानी जैसे रिश्तों ने उसको सम्भाला। रूपा को  ससुराल के लोग भले लगे।  रूपा को  कोई क़ैद पसंद कहाँ लेकिन वह बिखरा हुआ घर।  रूपा ने सब समेटना बटोरना शुरू किया कि एक छिन  की भी फुर्सत नहीं मिली।   एक सप्ताह के भीतर घर घर हो गया।  सुई से लेकरकुदाल तक की  जगह  तय हो गयी।  महेंद्र पांडे एकदम तृप्त हो गए उन्हें रूपा में  बेटी  का रूप मिलने लगा ।  घर पहले जैसा हो गया जैसा महेंद्र  पांडे  की पत्नी के जीते था।  रूपा खुद भी हैरान।  उसको तो घर के काम करने का शऊर  नहीं था।  वहाँ अम्मा माँ की डाँट खाती थी जब शामहोने पर धीरे से घुसती थी तब माँ बरसने लगती  थी लेकिन तभी पिता आकर माँ की ऊंची आवाज़ पर अपनी शांत आवाज़ से ठंढा पानी डाल देते थे। " अरे, खेल घूम लेने दो लड़की को।  ससुराल जाकर तो नहीं कर पायेगी न यह सब"।  " नाक कटा रही है घूम घूम। बैताल बनी रहती हैदिनभर।  तुम क्या जानो।"अम्मा गुस्से में कहती।  
        गांव की  प्रपंची  औरतों की आस निराशा में बदल गयी। लौटकर नहीं आयी रूपा।  हाँ आयी तो उसकी तारीफ आयी।  ससुर आये थे।  रूपा ने घर को स्वर्ग बना दिया है । वह रूपा तो है ही आपने लक्ष्मी  भी  भेजी है।  औरतें हक्का बक्का हैं। लेकिन अब फुआ की  पंचायत में जोर परहै चर्चा । वे तो हवा के रुख के साथ बहतीं हैं।
                  अब प्रपंच  में हवा दूसरी बहने लगी है लेकिन ऐसे जैसे उस लड़की में अवगुण होते तो ससुराल में टिकती ? अब औरतों में फूट पड़  रही है। तब जो यहाँ वहाँ लड़कों के साथ पकड़ाती थी उसका क्या ?
“सब झूठ था  जब हमने नहीं देखा अपनी आँख से तब झूठे न था"।  " ए,  बहिन  तुम्हीं न आयी थी दौड़ती हुई कि  भुसवल में पकड़ायी है"।रमोला और अमरावती के बीच विवाद हो गया।  
"पागल हो ? उसकी अम्मा भी तो वहीँ थी।  किसी ने झूठे जाकर उसकी अम्मा  से कह दिया था कि तुम्हारी बेटी भुसवल में फकीरे के साथ है।  तो इतना सुन के वे पगला गयीं थीं और दौड़ कर भुसवल में गयीं तो रूपा भूसा  के ढेर के  बीच में धंसी हुई थी । "और फकीरे ?" अमरावती नेपूछा।  
 "उसकी अम्मा जोर से चिल्लाई कि  का कर रही है वहाँ ।  रूपा  हंसी और बोली .  अम्मा आओ न यहाँ से नीचे गिरने में बहुत मजा आ रहा है ? उसकी अम्मा तो गुस्से में

कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है

30.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ ब्रज श्रीवास्तव जी की है..और उन पर टिप्पणी अलक नंदा साने जी ने की है...

मित्रो बातचीत के लिए आज की कविताएँ
और टिप्पणी पोस्ट कर रहा हूँ....

कविताएँ
------

तुम.

तुम अपने पैरहन पर मोहित हो,
अपने कहन के अंदाज़ पर किस कदर फिदा हो.
बादलों की तरह नहीं होना है क्या
अपनी तृप्ति से किस कदर तृप्त हो

बुद्धि न हुई एक पर्दा हुई
जिसके पीछे करते हो तुम निक्ममी कार्रवाई

उम्र का विराट हंसता है
कि तुम कैसे कैद होकर रह गये हो लम्हों में.

तुम चतुराई बरतते हो बाहर आते हुए
शिकारी का मन लेकर जाते हो.
और तुम्हें अब तक पता ही न चला
कि तुम खुद ही शिकार हो चुके हो.
०००

संसार ही हूँ.

अपनी अलग सूरत लिए
अनगिनत विचार हैं
लिए हुए अपने इरादे

मुझे पानी की ज़रूरत है
जैसे कि समुद्र को जरूरत है
इतनी ज्यादा जगह की

भावनाओं की कई टन हवा बही
मेरे अंदर
इच्छाओं की फली- फूली फसलें
कट गईं
जो मासूम पहचान के संग उगी थीं कभी

बहुत तप्त हूँ मैं
सूरज के
गोले के संवहन से

बहुत शीतल हूँ मैं
पाकर मनचाहा स्नेह
बहुत नम हूँ मैं
बर्फ के स्वभाव पर चकित होते हुए

अपने चेतन में स्थित हूँ
अपनी ही अनेक कोशिकाओं से
कर नहीं सका हूँ मुलाकात
जाने कहाँ कहाँ रहा हूँ जड़

उस दुनिया में विलय हो जाने से
करते हुए गुरेज़
एक संसार ही हूँ मैं भी.

००००

स्मृति ने.

कई बार कहना चाहा
अलविदा
कई बार कह भी दिया.

हर अलविदा ने स्वीकारा नहीं
स्वयं को
उसने फिर एक स्थिति
पैदा कर ली मुलाकात की
हालाँकि वहाँ अलविदा का सन्नाटा
फहरा रहा था

चहूंओर फुसफुसाता रहा कान में
कि लो अब अन्तिम विदा
अब सांस का एक हिस्सा भी
नाजायज है
एक दृष्टि भी दरकिनार कर सकती है
रही सही चीजों से

हवा पानी आग मिट्टी
आए बारी बारी से समझाने के लिए
कि अब बेदखल हो जाओ

विछोह का यह विलाप सबने सुना
सब विवश हैं
परिवेश के दरबार में
सब सहमत हुए इस एलान से

केवल स्मृति ने दिया सहारा
जिसकी आगोश में सुना मैंने
कोई जरूरत नहीं है इधर
कहने की उसे अलविदा.
०००
07:23, Jan 29 - Satyanarayan

टिप्पणी                                                               
पहली कविता ''तुम'', एक दार्शनिक अंदाज़ में , उन लोगों पर व्यंग्य करती-सी लगती है, जो सिर्फ बुद्धि और तर्क के आधार पर ज़िंदगी बिताते हैं। अक्ल पर पर्दा पड़ना यह मुहावरा ख़राब अर्थों में इस्तेमाल होता है, लेकिन 'बुद्धि का पर्दा' यह शब्द प्रयोग एक आड़ के लिए करके प्रचलित अर्थ निहायत खूबसूरती से बदल दिया गया है। निकम्मे काम करनेवाले किस तरह अपनी बुद्धि को परे रखकर कुटिलता  करते हैं यह सिर्फ दो पंक्तियों में स्पष्ट हो जाता है। बादलों की तरह नहीं होना है क्या , इन पंक्तियों का संदर्भ समझ में नहीं आया। कविता की सबसे उम्दा पंक्तियाँ है --- उम्र का विराट हँसता है और इन्हीं पंक्तियों में जीवन का अटल सत्य सामने आता है।  एक छोटी कविता अपने आप में बहुत कुछ कह जाती  है और कवि के शब्दों में कहें तो उसके कहन  के अंदाज़ पर फ़िदा होने को जी करता है।

दूसरी कविता ''संसार ही हूँ'' ऐसी ही एक गंभीर कविता है। यह कविता भी कवि के दार्शनिक मन को दर्शाती है। पंच तत्वों में से जल,वायु,अग्नि को अपने होने से जोड़कर कवि ने एक अद्भुत संसार रचा है। यदि शेष दो तत्वों को लेकर कोई संलग्नता बन पाती तो यह कविता पूर्णता को प्राप्त कर सकती थी। इन पंक्तियों में कवि ने जड़ और चेतन का विरोधाभास बड़े सुंदर तरीके से व्यक्त किया है ----

अपने चेतन में स्थित हूँ
अपनी ही अनेक कोशिकाओं से
कर नहीं सका हूँ मुलाकात
जाने कहाँ कहाँ रहा हूँ जड़

फिर भी लगता है कि  एक अच्छा विचार लेकर चला कवि कविता का पूरा निर्वाह करने में असफल रहा है। इस कविता में और अधिक निखार की गुंजाईश बाकी दिखाई देती है.  आलोच्य कविताओं को देखकर लगता है कि कवि को  छोटी कविताएँ पसंद हैं और विस्तार के भय से इसे अकस्मात समेट  लिया गया है। अक्सर वैचारिक कविताएँ लम्बाई के डर से अचानक  समाप्त कर दी जाती हैं , लेकिन तब मुक्तिबोध की ''अँधेरे में'' या देवतालेजी की ''भूखंड तप रहा है'' अनायास याद आती है और यहीं नहीं हाल ही में तुषार धवलजी ने बिजूका के लिए जो ऑडियो प्रस्तुत किया है , वह कविता भी काफी लम्बी है।

तीसरी और अंतिम कविता ''स्मृति'' एक साधारण कविता नहीं है। यूँ तो कवि की एक भी कविता एक बार पढ़कर छोड़ देने जैसी नहीं है।  न तो वे सामान्य हैं और न ही सरल , लेकिन स्मृति को पढ़ने के लिए मस्तिष्क पर कुछ जोर अलग से डालना पड़ता है। इस कविता में भी दार्शनिकता पूरी शिद्द्त  के साथ मौज़ूद है , पंच तत्व की अवधारणा भी है। बिछोह और विदा का शाश्वत सत्य है , लेकिन इन सबके साथ साथ स्मृति भी अभिन्न रूप से चल रही है और अंत में यही स्मृति एक परिजन की तरह सहारा देती है , आश्वस्त करती है।

कोई जरूरत नहीं है इधर
कहने की उसे अलविदा.

 कविता की ये अंतिम पंक्तियाँ चौंकाती है और कविता दोबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं।  तीनों कविता के भाव करीब-करीब एक समान हैं।  तीनों में सांसारिकता है, ध्रुव सत्य है और चरम वैचारिकता है , बावज़ूद इसके तीनों कविताएँ अलग-अलग हैं।  उनकी शब्द रचना अलग है। कविताएँ दोबारा पढ़ने को मजबूर करती हैं , सोचने को विवश करती है। भाषा सरल है , कथ्य स्पष्ट है।  कठिन विषयों को   कवि ने सहज उकेरा  है और इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

कविताएँ ब्रज श्रीवास्तव जी की है..और उन पर टिप्पणी
अलक नंदा साने जी ने की है...
दोनों साथियो  का..और समूह के बाक़ी मित्रो का आभार....

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ परमेश्वर फुंकवाल जी की और टिप्पणी पंकज मिश्र जी की ..


आज की कविताएँ और टिप्पणी भी पोस्ट कर रहा हूँ....उम्मीद है कि आप उनकी ठीक से पड़ताल करेंगे....

मुझ सा कोई

पहले वहां से कोई आता था
तो लेता आता था मिठाई
फिर पोस्टकार्ड आने लगे
कभी ज्यादह सीख होती तो अंतर्देशीय
राखी पर कुमकुम लगा लिफाफा

एक बार तार भी आया
जा न सका

अब तो दुनिया इतनी बदल चुकी
उस ओर से कोई शब्द नहीं
इधर टेक्स्टिंग करते करते
होती जा रही है बीमारी उँगलियों में

कंपनी का हरकारा गया था
कुछ दिनों पहले उधर
मोबाइल का कोई टावर लगाने की जगह देखने
लौटने पर कहता था
वहां रहता है एक शख्स
जिसकी सूरत मुझसे मिलती है.

हम यहाँ तक

वे सभी मासूम थे
एक वयस्क हिरन यदि देखता
शेर के नवजात पिल्लों को
तो किस नज़र से देखता

एक हलके झोंके से
शुरू होते हैं बड़े से बड़े तूफ़ान

अभी अभी बोला गया एक झूठ
रिश्वत में कल मिली दौलत
आपको मिठास से मुग्ध किये है
कैसा होगा इनका सामना
समय की धूप में इनके पक जाने के बाद

अमेज़न की चींटीयां
मिल जुल कर अपने से कई गुना बड़े
तिलचट्टे को जीवित ही कर रही हैं स्वाहा

सब कुछ जानते हुए भी
कहाँ हो पाता है
भ्रम में भटकते रहने के बजाय
समय से
इनकी हद छोड़ कर भाग जाना

खुरदुरापन कुरूपता पाप
सबकी शुरूआत नर्म सुन्दर और निष्पाप थी
सोच समझ कर
पूरे होशो हवास में पहुंचे हैं हम यहाँ तक.

प्रलय

मैं हाथ की सफाई करूँगा
एक चमत्कार की तरह दिखूंगा
आप कायल हो जायेंगे
सीधी सच्ची बात कहूँगा नहीं मानेंगे

जिनके ऊपर भूत सवार है
वे बुरी आत्माओं से मुक्ति की राह दिखा रहे हैं

दुनिया की सारी बेहतरीन चीज़ें मुफ्त हैं
लेकिन आप टिकट कटाकर समागम में जाना चाहेंगे
रक्षा कवच दिव्य कुंडल की कीमत पर मोल भाव करेंगे
कृपा आने के रास्ते ढूंढेंगे
और वो रास्ते में मिलेगी तो पहचानने से इनकार कर देंगे

हथियार धर्म की नहीं
आपकी रक्षा के साधन हैं
उसके लिए तो सलीब काफी है
काफी है एक सारथी
मुरली की एक लम्बी तान
अपने सबसे प्रिय को त्याग देने का साहस

एक बच्चा भी कहीं रोए
धर्म का नाश अवश्यम्भावी


टिप्पणी                                                    
मुझ सा कोई कविता यांत्रिक समय में शब्दों को बचाने की कोशिश है। इसी के सहारे संवेदनाएं बचेगी। शब्दों की तरलता भागमभाग वाले समय के अंधड़ में कहीं गुम हो रही है। मुझ सा कोई इसी तरलता को बचाने की कोशिश करती है। यह एक कहानी का अच्छा विषय हो सकता है। मुझे लगता है कि कविता को थोड़ा और विस्तार देना चाहिए था।

हम यहां तक में ऐसे ही खुरदुरेपन का बयान है। निरंतर हमारी संवेदनाओं के छीजते जाने की व्यथा है। शुरुआत ऐसे नजरिये से होती है जो सवाल खड़ा करती है। शुरुआत सुंदर ही हुआ करती है। धीरे-धीरे वह कितनी खतरनाक हो जाती है।वीरेन डंगवाल की कविता दुष्चक्र में सृष्टा यहां याद आती है, जिसमें सब कुछ सुंदर बनाकर ईश्वर कहीं छिप गया है। यह कविता भी ठीक वैसी ही एक कोशिश है। कहन में भी यही है। सुंदरता को खत्म करके की साजिशों से आगाह भी करती है ये कविता। जो सुंदर है उसका खत्म हो जाने का अर्थ है मनुष्यता का खत्म हो जाना। कवि ने अच्छी शुरुआत की और कविता के अंत तक उस सवाल को लेकर गया। मुझे शब्दों की लय कहीं-कहीं टूटती लगी, यही वजह है कि कविता देर तक टिक नहीं पा रही है। कविता सवाल खड़े करती है बजाय ऐसे समय के सवालों से मुठभेड़ के।

धीरे-धीरे बर्बर होते गए धर्म के रूप को बेहद संवेदनशीलता के साथ प्रलय कविता सामने रखती है। कथ्य के स्तर पर कवि जो कहना चाहता है, उसे गहरे बोध के साथ कह दिया है। सबसे खास यह कि कविता में किसी तरह की उत्तेजना नहीं है। साफगोई है और अंतत: मनुष्यता को बचा लेने की जिद भी दिखती है। एक भी बच्चा कहीं रोए तो धर्म का नाश अवश्यम्भावी है। कवि यही कहना चाहता था, जिसे वह मजबूती से कह गया। हां मुझे इस कविता में पैनेपन की कमी नजर आई।

कविताएँ परमेश्वर फुंकवाल जी की और टिप्पणी पंकज मिश्र जी की ..
दोनो मित्रो और आप सभी का आभार.....
27.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ डॉ. आशा पाण्डेय जी की हैं..और टिप्पणी श्री राजेश झरपुरे जी की हैं...

मित्रो आप सभी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ....
आज बातचीत के लिए कविताएँ और टिप्पणी प्रस्तुत है....
कविताएँ


1- बड़ा कोन-
             
                  तुम बड़े गर्व से पूछते हो
                  बताओ,
                  धरती बड़ी है या आकाश ?
                  नदी बड़ी है या सागर ?
                   मै मुस्करा देती हूँ
                   तुम्हारा आशय समझ कर |
                   तुम्हेँ क्यों है इतनी शंका ?
                   सृष्टि के आदि से अब तक
                   बिना प्रतिवाद के
                   स्वीकारी है मैंने तुम्हारी श्रेष्ठता
                  लेकिन आज
                  जब तुम पूछते हो
                  तब कहती हूँ मै भी
                  बड़े आदर के साथ
                  कि,
                  बड़ा तो आकाश है
                  लेकिन आश्रय धरा ही देती है
                   बड़ा तो सागर है
                   लेकिन प्यास नदी ही बुझाती है |
2-मै एक नदी -
               
                   मै एक नदी
                   तटों, बांधो का नियंत्रण सहती
                   दुःख को समेटती
                   सुख को बिखेरती
                   सींचती, उगाती
                    अनवरत श्रमरत हूँ |
                    मुझे डुबाने का प्रयास सतत जारी है
                    किन्तु मै स्थिर हूँ|
                    आता है उफान अन्तस् में मेरे भी
                    किन्तु संयम रख लेती हूँ
                    ताकि कल-कल की स्वर लहरी का
                    संगीत फूटता रहे
                    पथिक ले सकें विश्राम मेरे आंचल में|
                    फूटती रहें असंख्य प्रेमधाराएँ
                     जो हरा-भरा कर दें
                     सूखे बंजर हृदय को |
                     युगों-युगों से पाला  गया यह भ्रम
                     कि रोक देगे  मेरी निर्बाध गति को
                     पोसती रही मै खुश होकर
                     क्रोध में उफन पडूं
                     और डुबा दूँ ब्रह्मांड
                     ये शक्ति है मुझमें
                     किन्तु सृष्टि चलती रहे
                     और सभ्यताएं फैलती रहें
                     इसलिए मै स्वयं ही डूबती हूँ
                     और डूबती ही जा रही हूँ
                     स्वयं की अथाह गहराई में|
                   
3-बेटा-    
                     बेटा प्रश्न करता है
                     अपनी असहमति के साथ
                     बेटी कुछ नहीं पूछती
                     वह सब समझती है
                     पालन करती है निर्देशों का
                     सिर झुकाकर
                     सब खुश हैं घर में
                      बेटी के मौन से
                     उसकी जीभ सबने
                     बचपन में ही
                     काट दी थी|
4. तर्पण भोग-
                      पितृ-मोक्छ अमावस्या की रात
                      स्वर्ग सिधार चुके सज्जन को
                      अपने दरवाजे पर खड़ा देख
                      मैंने पूछा----
                      आप यहाँ कैसे?
                      वे बड़ी निरीह आवाज में बोले ----
                      बहुत भूखा हूँ, कुछ खिला दो
                      मैंने कहा --आज आपके बेटे ने
                      आपका श्राद्ध किया,
                      हजारों लोगों को भोजन कराया
                      आपकी आत्मा तृप्त रहे
                      इसलिए पैसे को पानी की तरह बहाया
                      फिर भी आप भूखे हैं?
                      उन्होंने कहा--बेटी!
                      जिस बेटे ने जीते जी
                      कभी मेरी सुधि नहीं ली
                      उसके तर्पण भोग को
                      मै कैसे स्वीकार करूं ?
                      अरे, मै मर गया तो क्या
                      स्वाभिमान अब भी बाकी है
                      मै युगों-युगों तक भूखा-प्यासा रह जाऊंगा
                      किन्तु बेटे के श्राद्ध-तर्पण को
                       हाथ नहीं लगाऊंगा|
         
   5-पिता-
                        पिता!
                         नहीं देखा मैंने अब तक
                         तुम-सा गछ्नार वृक्ष
                         जिसके पत्तों के बीच
                         बारीक़ -सी भी फांक ना हो
                         कि झर कर न आ सके
                         सूरज की चिलचिलाती धूप|
                          न ही देखा ऐसा आकाश
                          जिसके नीचे बैठ सकूँ
                          निश्चिन्त होकर
                          कि नहीं भिगो सकता है मुझे
                          चाहे जितना भी बरसे बादल|
                          न ही होता है विश्वास पलभर भी
                          कि नहीं बिगाड़ सकेगा कोई कुछ भी मेरा
                           रहूँ चाहे अपने घर में
                           बंद दरवाजों के बीच|

                           इतने अपनों के होने पर भी
                           असुरक्छा का गहरा भाव!!

                       
                            एक तुम ही काफी थे पिता
                            पतझड़ ,धूप  एवं  बरसते आकाश से
                             मुझे बचाने के लिये |
                             बस ,तुम ही थे पिता
                             मेरे लिये
                             ख़ुशी एवं सुरक्छा से भरी
                             पूरी दुनिया|
                         
                       

टिप्पणी                                             
सभी पांचों कविता सरल-सहज भाषा में अपनी बातें पाठकों के सामने रखती है ।बिना किसी बौध्दिक चतुराई या छद्म के कवित्री अपनी कोमल भावनाओं के साथ पाठकों से रूबरू होती हैं। कविता में यही मौलिकता  प्रभावित कर जाती है ।
(1) बड़ा कौन
बड़ा तो आकाश
आश्र धरा देती
बड़ा सागर
प्यास नदी बुझाती ।
इस कविता में कवित्री का प्रकृति प्रेम स्पष्ट झलकता है ।छोटे-बड़े कः चक्कर में उलझे तो इस दुनिया को सुन्दर और सुरक्षित बनाने के लिए सभी ज़रूरी है ।अपने विचारों से हम उसे छोटे-बड़े का दर्जा देते रहे है ।

(2) मैं एक नदी हूँ
स्त्री और नदी दोनों एक प्रवृति की होती है । नदी अपने आंचल में धरती पुत्रों की कितनी गंदगी, कितनी मलिनता छुपा लेती है पर ऊफ तक नहीं करती। प्रतिकार नहीं लेती, कष्ट नहीं पहुँचाती ।वह चाहे तो अपनी विनाशकारी ताकतों सः इस धरा को नेस्तानाबूद भी कर सकती है पर करूणा और ममता से ब॓धी वह सदैव सृष्टि और सभ्यता के विकास का ही स्वप्न आँखों में स॔जोये रहती हैं ।

(3)बेटा
यह कविता थोड़ा विस्तार और सघन दृष्टि की मांग करती है ।

(4) तर्पण भोग
पिता-पुत्र के सम्बन्ध को लेकर लिखी यह कविता मेरे व्यक्तिगत जीवनानुभाव में मात्र पुत्र को नीचा दिखाने का षड्यंत्र जैसी लगी ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए.जिन्होंने अपनी पुत्रवधु के साथ मुह काला कर समाज को लज्जित किया ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए जिन्होंने दहेज के लोभ में अपने पुत्र से निगाह बचाकर अपनी बहू को जला दिया । इसी समाज ऐसे पिता भी है जिन्हें अपने बेटे को छोड़ बाकी सभी कः बेटे में अच्छाई ही अच्छाई नज़र आती है और अपने बेटे में ढूँढ़ने पर भी एक भी अच्छाई नज़र नहीं आती ।हालांकि माता-पिता से अधिक पूजनीय इस धरती पर अन्य कोई नहीं हो सकता- यह सच्चाई मैं स्वीकार करता हं पर यह भी उस बड़े सच के सामने एक छोटा सच है।सच छोटा होने के कारण झूठ नहीं हो सकता। अत: मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जब भी इस विषय पर लिखा जाये-पुत्र की मन: स्थिति, उनकी विवशता को भी समझने की कोशिश करना चाहिए ।

(5) पिता
तर्पण भोग,बेटा और पिता कविता में प्रत्यक्ष और परोक्ष रंप से पिता विद्यमान है । इस कविता में पिता,अपने पिता होने के एहसास और कत्तव्यों से लबरेज एक आदर्श पिता के रूप में हमारे सामने आते है ।पुत्र का माता से.पुत्री का पिता से बेहद संवेदनशील रिश्ता होता है जो प्रकृतिजन है ।इस कविता की भाषाशैली और बुनावट अन्य कविताओं की अपेक्षा ज़्यादा सटीक हैं ।
अन्त में कवि/कवित्री को अच्छी कविताओं के लिए बधाई

कविताएँ डॉ. आशा पाण्डेय जी की हैं..और टिप्पणी श्री राजेश झरपुरे जी की हैं...
दोनों साथी का बहुत-बहुत शुक्रिया...
और बाक़ी मित्रो का भी आभार.....
26.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ श्रुति जी की हैं...और उन पर टिप्पणी प्रेमचंद गाँधी जी की है

मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ और टिप्पणी
प्रस्तुत है....

ये कविता आज़म खान की भैसों को समर्पित......
.................

कौन जात तुम...........

सुनउ महाराज
तुम्हारी भैस कौन जात है
कि उसे ढूंढने खातिर
पुलिस महकमा हलकान हो गया
हमारी तो बिटिया खो जाने पर भी
दारोगा ने नहीं लिखी थी रिपोर्ट..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारे घर पिसा गेहूं
कि सबके चेहरों पर ताब ही ताब है
हमारे खेतों में उगने पर भी
हमको ही ताकत नहीं देते ससुरे..

सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी रातें
जो हमारी मेहरारू को छूने पर गंदी नहीं होती
जबकि दिन तो हमारी परछाई से ही
हो जाते है अपवित्तर..

सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी हवा, कुएं, मंदिर
जहां हमारी गंध पहुंचना भी पाप है
जो हम आदमजात को नहीं पहचानते..

सुनउ महाराज
कौन जात है ये समाज
जहां जच्चाघर में बच्चा जनते ही
तुम्हारे यहां बन जाता है मालिक
और हमारे यहां बंधुआ मजदूर....
०००

सबसे सही वक़्त 

आसमान जब आग उगल रहा होता है
खेतों में उगने लगता है बारूद
हवा में घुलने लगता है ज़हर
जब बिकने लगता है धर्म
घायल हो जाती है आस्था
चेहरे हो जाते हैं पत्थर
दिखने में आदमी जैसा
जब नहीं रह जाता आदमी
जब चहुं ओर मंडराता है संकट
वही वक़्त होता है
कविता लिखने का सबसे सही वक़्त
०००

शोकगान......

शोक ही करना है

तो प्रेम पर क्यों

समय पर करें

समय..जिसने अपने नाखूनों की धार तेज़ कर ली है

अब जीने के लिए और कवच जुटाने होंगे..

विलाप ही करना है

तो कुछ महाविलाप हो

जूझने, लड़ने और संघर्ष की वेदनाओं पर

मनुष्य के वर्गों में बंटने की नियति पर

शताब्दियों से चली आ रही साज़िश पर..

बाज़ार पर..जो बन गया है जीवन

और जीवन..जो बन गया बाज़ार

आप या तो बिचौलिये हो सकते हैं

..या मोहरा

बाज़ार से बाहर रहना अब मुमक़िन नहीं

आओ एक शोकगीत गाए

समय, बाज़ार, स्वप्न, सत्य, भीड़, शोर, समर्पण और विवशता के नाम

जिनके बीच खो गया है जीवन
और हम सांसों के आरोह अवरोह में
जीने का भ्रम पाल बैठे हैं....
............................................

क्या तुम जानते हो

क्या तुम जानते हो डौआला की जूली की कहानी

16 की उम्र में जिसके वक्षों को गर्म पत्थर से दागा गया था

मर्दों की गंदी नजरों से बचाने के लिए

कैमरून में अर्से से हो रही है ब्रेस्ट आयरनिंग..

क्या तुम्हे पता है पद्मा डोंगवाल के बारे में

बच्चा पैदा करने के लिए -35 डिग्री तापमान में

जिसे बर्फ से ढंकी नदी पर पैदल चलकर जाना पड़ा..

क्या तुम जानते हो लक्ष्मी के बारे में

15 साल की उम्र में शादी से इनकार पर

जिसपर फेंक दिया गया था तेज़ाब..

क्या तुम्हे पता है अमीना शेख की कहानी

भाई के प्रेमविवाह के बदले

जिसके साथ 13 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया..

चलो ये सब छोड़ो...

क्या तुम जानते हो

सालों से अपने घर के भीतर रहने वाली

अपनी पत्नी के बारे में

जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद

हर सुबह उठती है तुमसे पहले

क्या उसने नींद पर विजय पा ली है

जो हर वक्त पकाती है तुम्हारी पसंद का खाना

क्या यकीनन उसे भी वही पसंद है हमेशा से

जो बिस्तर बन जाती है तुम्हारी कामना पर

क्या वो हर बार तैयार होती है देह के खेल के लिए...

सच बताओ

क्या तुम इनमें से किसी के भी बारे में

कुछ भी जानते हो

जानते हो...?

कि औरत होकर पैदा होना ही

एक आजीवन संघर्ष की शुरूआत है...
०००.

वक़्त कितना कठिन है साथी

वक्त कितना कठिन है साथी

मैं कैसे प्रेम के गीत गाऊं

जबकि मैं ही महफूज़ नहीं प्रेम गली में

जाना-अनजाना कोई भी

नोंच सकता है मेरी देह

मैं कैसे घर का सपना संजोऊं

घर के भीतर भी तो है मर्द ही

मर्द जो भाई पति प्रेमी है

वो दूसरी लड़कियों के लिए

भेड़िया साबित हो सकता है कभी भी

मैं कैसे विश्वास की नाव चढ़ूं

जबकि उसमें छेद ही छेद है हर तरफ

वक्त कितना कठिन है साथी

कि देश दुनिया समाज

मेरे पास किसी को सोचने का वक्त नहीं

हर समय अपने शरीर पर पड़े

गंदी नजरों के निशान खुरचते खुरचते

उसके दाग मेरी आत्मा पर पड़ने लगे हैं

वक्त कितना कठिन है साथी

मैं औरत हूं

और हर वक्त बलात्कार के भय से घिरी हूं

हां - ये मेरा आधिकारिक बयान है....


टिप्पणी                                                               
ये कविताएं हमारे समय की विडंबनाओं पर सवालिया निशान लगाकर उन बड़े सवालों की ओर ले जाती हैं, जिन्‍हें हम जानबूझ कर या तो टाल जाते हैं या फिर जान कर भी अंजान बने रहते हैं और लगभग प्रतिक्रियाविहीन तरीके से मौन साधे रहते हैं। यही हमारे समय के समाज की सबसे बड़ी विडंबना या कहें कि नियति है।

पहली कविता आजम खां की भैंसों से शुरु होकर श्रेष्ठि वर्ग और दमित वर्ग के फासले को रेखांकित करती हुई प्रश्‍नों की एक पूरी शृंखला खड़ी कर देती है। दूसरी कविता मनुष्‍यता के संकटकाल में रचनाकार के दायित्‍व की पड़ताल करती हुई बताती है। 'शोकगान' हमारे समय की लाचारियों को बताती है और एक निर्विकल्‍प स्थिति में छोड़ देती है, जैसे हम इसी के लिए बने हैं। चौथी और पांचवीं कविता स्‍त्री के संघर्ष और मर्दवादी समाज की मानसिकता को प्रश्‍नांकित करती है और बहुत गहरी चोट करती है। अंत तक आते-आते ये दोनों कविताएं पाठक के विवेक को झकझोरते हुए अवाक कर देती हैं।

इन कविताओं की प्रश्‍नाकुलता हमारे समय की सतत और सघन चुनौतियों के प्रति कवि का एक सार्थक प्रतिरोधी स्‍वर है। कवतिा में ऐसी प्रश्‍नाकुलता, प्रतिरोध के तौर पर सामाजिक संवेदना का काव्‍यात्‍मक प्रतिफलन है अर्थात सुप्‍त समय और समाज की आवाजें हैं ये कविताएं।

लेकिन कई जगह कविता छूट जाती है और कवि का क्षोभ सपाटबयानी में बदल जाता है। यह बहुधा भाषा के तौर पर असहज होने या कि रचना पर और पूरे डिक्‍शन पर  कविता लिखे जाने के बाद गहराई से पुनर्विचार न करने के कारण होता है। जैसे पहली कविता 'आजम खां की भैंसों को समर्पित' है, यह एक प्राणी के तौर पर भैंसों को राजनैतिक अंतर्वस्‍तु में बदल देता है, जबकि बिचारी भैंसों का कोई दोष नहीं। ऐसी असावधानियां कविता को ही गलत ट्रैक पर ले जाती हैं, शुक्र है कि यहां कविता सही रास्‍ते पर थी, बस शीर्षक में ही गड़बड़ी रही।

ये कविताएं बहुत कुछ अविश्‍वास की कविताएं भी हैं, जहां किसी पर भरोसा नहीं। लेकिन कितना भी विकृत समय हो मनुष्‍यता कहीं न कहीं बची ही रहती है। कवि को संबंधों पर नहीं मनुष्‍य और मानवता पर तो विश्‍वास करना ही चाहिए, यही कवि का 'आधिकारिक बयान' होना चाहिए।

कविताएँ श्रुति जी की हैं...और उन पर टिप्पणी प्रेमचंद गाँधी जी की है
23.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ शहनाज़ इमरानी जी की हैं और उन पर टिप्पणी श्री अरुण आदित्य ने की है..

आज मैं आपको बिजूका एक में कल पोस्ट
की गयी कविताएँ और टिप्पणी पढ़ने के लिए
पोस्ट कर रहा हूँ....
इन कविताओं और टिप्पणी पर बिजूका एक में ख़ूब बातें हुई. है...
समूह में कुछ साथी ऐसे भी हैं..जो बिजूका एक में भी है...उनसे अनुरोध है कि वे बातचीत भाग ले लेकिन कवि और टिप्पणीकार का नाम ओपन न करे

1. शब्दों का जाल
 शब्द छोटे बड़े
शब्द हलके वज़नदार
शब्द कड़वे, मीठे, तीखे
शब्द दुश्मन शब्द ही दोस्त
शब्द बोलते अन्दर और बाहर
शब्द उलझ जाते बातों में
शब्द बहे जाते भावनाओं में
शब्द फँस जाते मोह-माया में
शब्द जल जाते है नफरतों में
शब्द भाषण की आग बनते है
शब्द राजनीति कि शतरंज बनते है
शब्द फटते बम कि तरह
शब्द सवाल खड़े करते
शब्द जवाब बन जाते
शब्द सूरज में धूप बने
शब्द अँधेरों में मशालों से जले
शब्द गोल रोटी में बेले गए
शब्द बुझे चूहले की राख़ बने
शब्द स्त्री की पीड़ा में उतरे
शब्द परुष का एहम बने
शब्द ज़ंजीरों में क़ैद हुए
शब्द गुलाम बने
शब्द बने बटवारा
शब्द बने ज़ख्म
शब्द बने जंग
शब्द बने क्रान्ति
कुछ शब्द गुम हुए
कुछ नए आये
शब्द बच्चे की मुस्कान बने
शब्द लड़की कि खिलखिलाहट बने
शब्द खिलते हैं फूलों कि तरह
शब्द उड़ते है तितलियों कि तरह
शब्द मौसम में बाद जाते है
शब्द इंद्रधनुष बनाते है
शब्द उगते है प्यार की तरह।

2 . दीवारें

बरसों से बनती आ रही है दीवारें
मिट्टी गारे की, ईंट पत्थरों की
लकड़ी, मार्बल, सीमेंट की
तरह-तरह की दीवारें
कुछ सीलन से भरी ,काई लगी
झुकी हुई गिरती हुई
कुछ मज़बूत और बहुत ऊँची
छोटी और कमज़ोर दीवारों
मज़बूत दीवारें को देखती हैं
पर मज़बूत दीवारें तनी रहती है
वो झुक कर छोटी और कमज़ोर
दीवारों को नहीं देखतीं
दीवारें दिलों में नफ़रत की
दीवारें घरों में सुरक्षा की
कुछ टूटे हुए लोग रोते हैं इनसे लिपट कर
कुछ थके हुए लोगों का सहारा होती है
कुछ दीवारें फलांग जाते है और कुछ दीवारें तोड़ते है
कुछ तस्वीरें ,पोस्टर और नारो से भरी
कहीं कैनवस बनी चित्रकार का
और कहीं इंसान के हाथों दुरपयोग का
लिखी जाती है इन के ऊपर गालियाँ
अशलील शब्द और थूक दिया जाता है
यह तब भी चुप रहती है
कहते हैं इनके कान होते हैं
यह सब कुछ सुनती है
कोई विरोध नहीं गुस्सा नहीं
जब चाहो बना दो जब चाहे गिरा दो
कुछ दीवारें समय के साथ गिर गयीं
कुछ दीवारों के निशान बाक़ी हैं
कुछ अनदेखी दीवारें लगातार बन रही है।


3 . गंदी बस्ती


दौड़ती सड़कों और रौशनियों की चकाचोंध
ऊँची इमारतों के पीछे
जहाँ सभ्यता का कचरा पड़ा होता है
इस बस्ती को लोग
गंदी बस्ती के नाम से जानते हैं
कच्चे आधे अधूरे घर
बेतरतीब ऊग आई झोंपड़ियां
गन्दे पर्दों के पीछे से झाँकती औरतें और बच्चे                
बस्ती में रहने वाले लोग के
कपड़ों के नाम पर चीथड़े और
ज़ुबान के नाम पर इनके पास
बेशुमार गालियाँ हैं
इनकी एक अलग दुनिया है
जिसके सारे कायदे -कानून पेट से शुरू और
पेट ही में खत्म होते है
भूखे ,नंगे, कुपोषण और बीमारियों के बीच
बच्चे पलते और बूढ़े मर जाते
मर्द शराब और जुए में डूबे रहते है
औरतें दूसरों के घरों में बर्तन मांझतीं
कपड़े धोतीं ,पोछा लगतीं
रोज शाम को मर्द नशे में घर आते
कभी पत्नी और बच्चों को पीटते
कभी ज़्यादा पी लेने से उल्टियाँ करते
औरतें कपडे धोतीं बच्चे पालतीं
मर्दों के हाथों पिटतीं है
फिर भी उनकी सेवा करती
और उनकी इच्छायें पूरी करतीं
हर एक महानगरों के हैरान
करने वाले मंज़र और रोमांच में
यह बस्तियां भी शामिल है।

4 . हादसा

एक हादसा हुआ
कहाँ हुआ क्यों हुआ
इससे क्या फ़र्क़ पढ़ता है
हादसे के बाद
दूसरे हादसे का इंतज़ार
ज्यादा नहीं करना पढता
कुछ नाके सूंघ सकती हैं
कुछ आँखें पढ़ सकती है
कुछ साँसें तैज़ हो कर
इज़हार करती है
और कुछ साँसे
मुतावातिर चलती रहती है।



5 . हद

हद का ख़ुद कोई वजूद नहीं होता
वो तो बनाई जाती है
जैसे क़िले बनाये जाते थे
हिफ़ाज़त के लिए
हम बनाते है हद
ज़रूरतों के मुताबिक़
अपने मतलब के लिए
दूसरों को छोटा करने के लिए
कि हमारा क़द कुछ ऊँचा दिखता रहे
छिपाने को अपनी कमज़ोरियों के दाग़-धब्बे
कभी इसे घटाते हैं कभी बड़ा करते हैं
हद बनने के बाद
बनती हैं रेखाएं,दायरे
और फिर बन जाता है नुक्ता
शुरू  होता है
हद के बाहर ही
खुला आसमान , बहती हवा
नीला समन्दर , ज़मीन की ख़ूबसूरती
06:21, Jan 20 - Satyanarayan:


टिप्पणी                                                                                  

प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि-चिंतक क्रिस्टोफर काडवेल ने लिखा है कि कविता वह है जो पढ़ते हुए पाठक के भीतर घटित होती है। एक पाठक के रूप में मुझे भी लगता है कि किसी कविता की सफलता इस बात पर निभर्र करती है कि उसे पढ़ने के बाद पाठक के मन के भीतर क्या होता है। क्या वह उसकी संवेदना के तंतुओं को कुछ और सक्रिय करती है। पढ़ते हुए उसे आनंद की कोई लय मिलती है, या उदासी के वलय में घिरा महसूस करता है। आखिर उसे पढ़ने के बाद हासिल क्या है, कोई नई दृष्टि, कोई रोष-आक्रोश, तनकर खड़े होने का आत्मबल, या कम से कम एक बेबसी या बेकली का अनुभव ही। क्या उसे पढ़ने के बाद पाठक वह नहीं रह जाता, जो कविता पढ़ने के पहले था। इन कविताओं को पढ़ने के बाद मेरा पाठक ऐसी किसी समृद्धि का अनुभव नहीं कर पा रहा है, यह मेरा पूर्वाग्रह भी हो सकता है। पर इन कविताओं में कहीं-कहीं विचार और संवेदना के जो स्फुलिंग हैं, उनके आधार पर मुझे पक्का विश्वास है कि इस कवि में श्रेष्ठ कविताएं रचने की संभावना और क्षमता है। कवि के पास दमदार कथ्य है। थोड़े से सृजनात्मक-संयम, शिल्प की थोड़ी सी सजगता से कवि अगर इन कविताओं पर फिर से कुछ काम करे तो ये महत्वपूर्ण कविताएं हो सकती हैं। बहरहाल इन कविताओं के बारे में कुछ छिटपुट बातें-
' दीवारें' कविता में दीवार के अनेक रूपक हैं। इसमें दीवार को कहीं सकारात्मक तो कहीं नकारात्मक बिम्ब के रूप में रचा गया है। यह दीवार कहीं समर्थ और असमर्थ, शक्तिशाली और कमजोर के बीच भेद करने वाली हद है तो कहीं टूटे और थके लोगों का सहारा भी है। कहीं वह नफरत की प्रतीक है तो कहीं सुरक्षा की। ' शब्दों का जाल' कविता की तरह यहां भी लगता है कि दीवार के बारे में कवि को जो कुछ सूझा, सब पंक्ति-दर-पंक्ति लिख दिया गया है। टीवी चैनलों पर एक विज्ञापन आता है, जिसमें शिक्षिका छात्र से कहती है, दीवार पर निबंध लिखो। चंद सेकंड्स के उस विज्ञापन में बहुत कम शब्दों में पर्याप्त खूबसूरती के साथ अपनी बात कह दी गई है। संवेदनाओं को बेचने वाले विज्ञापन के बरअक्स संवेदना को बचाने वाली कविता को ज्यादा मर्मस्पर्शी होना पडे़गा। संवेदना की नमी, विचार के ताप और शिल्प की रोशनी के बीच ही एक अच्छी कविता का अंकुरण होता है।
' हद' शीषर्क कविता मनुष्य द्वारा स्वार्थ के लिए बनाई गई सीमाओं की सीमा बताती है। कि हदें किस तरह हमारी स्वतंत्रता को बाधित करती हैं, कि किस तरह आदमी अपने कद को बड़ा दिखाने के लिए दूसरों की हदें तय करता है। कविता बताती है कि ' हद के बाहर ही शुरू होता है खुला आसमान, बहती हवा, नीला समंदर, जमीन की खूबसूरती'। इन पंक्तियों में जो कुछ कहा गया है, सब सच है, लेकिन कविता अपने कहन में इस सच की खूबसूरती को वहन नहीं कर पाती। एक अच्छा कवि इस बात को लेकर हमेशा सजग रहता है कि कविता सिर्फ अपने भाव में नहीं बल्कि अपने रचाव में भी रहती है। शिल्प की दृष्टि इस कविता पर और काम करने की जरूरत है।
' शब्दों का जाल' कविता खुद भी शब्दों का जाल बनकर रह गई है। लगता है कि शब्दों के बारे में जो भी विशेषण, भाव, विचार कवि के मन में आए, उन्हें एक के ऊपर एक ऐसे रख दिया गया है, जैसे कोई एक के ऊपर एक ईंटें रख दे। ईंटों का यह ढेर किसी सुगठित संरचना का आभास नहीं देता। इस कविता में शब्दों के बारे में तमाम बड़ी-छोटी बातें हैं, पर इस शब्द-मीमांसा से हासिल कुछ नहीं होता।
'हादसा' कविता के केंद्र में यह भाव है कि आज हमारे जीवन में हादसे इस तरह आम हो गए हैं कि किसी को किसी हादसे से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। यह कविता बहुत सपाट तरीके से शुरू होती है -' एक हादसा हुआ, कहां हुआ, क्यों हुआ, इससे क्या फर्क पड़ता है।' सवाल यह है कि एक के बाद एक हादसे हों, तो भी क्या इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई हादसा क्यों हुआ, कहां हुआ? हर हादसा एक नया दर्द, एक नया सबक देकर जाता है। ऐसे में एक सजग कवि 'क्या पर्क पड़ता है' जैसी सरलीकृत शब्दावली से काम नहीं चला सकता है। 'कुछ सांसे मुतवातिर चलती रहती हैं', जैसे सपाट बयान के साथ यह कविता खत्म हो जाती है और पाठक अपने हासिल का हिसाब लगाता जहां का तहां खड़ा रह जाता है।
'गंदी बस्ती' कविता में कवि कहना चाहता है कि महानगरों की जो चकाचौंध है उसे बनाने संवारने में इन तथाकथित गंदी बस्ती वालों का महत्वपूर्ण योगदान है। बात में दम ह लेकिन कविता में स्थूल विवरणों को बहुत सरलीकृत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कविता जब चीजों को सतह पर देखकर लिखी जाती है, तो शायद इसी तरह बनती है। जबकि एक कवि को कुछ अलग तरह से चीजों को देखना होता है। इस बारे में युवा कवि काप्पुस को संबोधित प्रसिद्ध जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के की पंक्तियां किसी भी युवा कवि के लिए मार्गदर्शक साबित हो सकती हैं- " एक अच्छी कविता लिखने के लिए तुम्हें बहुत से नगर और नागरिक वस्तुएँ देखनी जाननी चाहिए। बहुत से पशु पक्षियों के उड़ने का ढब। नन्हे फूलो के किसी कोरे प्रात में खिलने की मुद्रा। अज्ञात प्रदेशों और अनजानी सड़कों को पलटकर देखने का स्वाद। औचक के मिलन । कब से प्रस्तावित बिछोह। बचपन के निपट अजाने दिनों के अनबूझे रहस्य। माता-पिता, जिन्हे आहत करना पड़ा था, क्यों कि उनके जुटाए सुख उस घड़ी आत्मसात नहीं हो पाए थे। आमूल बदल देने वालीं छुटपन की रुग्णताएँ। खमोश कमरों में दुबके दिन। समुद्र की प्रात। समुद्र खुद। सब समुद्र सितारों से होड़ लगातीं यात्रा की गतिवान रातें। नहीं इतना भर नहीं। उद्दाम रातों की नेह भरी स्मृतियाँ... प्रसव में छटपटाती औरत की चीखें। पीला आलोक। निद्रा में उभरती सद्यः प्रसूता। मरणासन्न के सिरहाने ठिठकें क्षण। मृतक के साथ खुली खिड़की वाले कमरे में गुजारी रात्रि और छिटका शोर। नहीं, इन सब यादों में तिर जाना काफी नहीं। तुम्हें और भी कुछ चाहिए-इस स्मृति संपदा को भुला देने का बल। इनके लौटने को देखने का अनन्त धीरज। जानते हुए कि इस बार जब वे आएँगी तो यादें नहीं होंगी। जो अचानक अनूठे शब्दों में फूट कर, किसी भी घड़ी बोल देना चाहेंगी अपने-आप को।"


कविताएँ  शहनाज़ इमरानी जी की हैं और उन पर टिप्पणी श्री अरुण आदित्य ने की है..
.दोनों ही  साथी बिजूका एक से हैं...यह पोस्ट वहीं से ली थी....
इस टिप्पणी और कविताओं पर ख़ूब बात हुई उस समूह में....
यहाँ भी जिन्होंने अपना मत ज़ाहिर किया उनका शुक्रिया...
जिन्होंने सिर्फ़ पढ़ा उनका भी आभार....
21.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

कविताएँ श्री राजेश झरपुरे जी की.. उन कविताओं पर टिप्पणी साथी परमेश्वर फुंकवाल जी की

रिटायरमेन्ट से एक दिन पहले
............................
आज वह पूर्ववत अपनी नौकरी पर है
कल वह नहीं रहेगा
कल वह रिटायर हो जायेगा
उसका रिटायरमेन्ट तय था
और तय समय पर ही हो रहा है

वह अपनी नौकरी और
तयशुदा ज़िदगी से बाहर आने वाला है

तयशुदा ज़िदगी में तय थी, उसकी गली
रोज सुबह आठ बजे जहाँ से गुज़र कर
पहुँच जाना होता था बस स्टाप,
बस स्टाप में बस भी तय थी
साढ़े आठ बजे छीनवाड़ा-नरसिंहपुर
बस मे सीट भी तय थी
कांडक्टर के पीछे तीसरी पंक्ति में
पंक्ति में क्रम भी निश्चित था
खिड़की वाली पहली सीट
और सीट पर सह-यात्री भी तय होते
और तो और बैग में रखे टिफिन-बाक्स में
सब्जी भी तय होती
जैसे कद्दू , लौकी , गिलकी ,कुन्दरू या पालक भाजी
जो हलके से बघार से पक जाये
और लंच बाक्स समय पर तैयार हो सके

कल जब वह रिटायर हो जायेगा
सुबह आठ बजे कौन गुज़रेगा, उस गली से
साढ़े आठ वाली बस में
कौन बैठकर जायेगा,उसकी सीट पर
उसके सह-यात्री क्या बदल लेंगे
अपनी-अपनी सीट,उसके न होने पर
और क्या कल सुबह
पत्नी के माथे पर होगी इतनी ही चिन्ता
और सुबह के कामों में इतनी ही तत्परता
जो कद्दू,लौकी और गिलकी को
टिफिन बाक्स में पहुँचा देने में होती थी
और उसे आफ़िस

वह जानता है
कल जब वह रिटायर हो जायेगा
उसकी पत्नी भी रिटायर हो जायेगी
उसका रिटायरमेन्ट आफ़िस,बस. बस-स्टाप,गली
और घड़ी की सुईयों पर दौड़ती-भागती जिन्दगी से
और पत्नी का सुबह-सुबह की भागम-भाग से

सचमुच पत्नी के नौकरी किये बगैर
ढंग से एक दिन भी
नौकरी नहीं कर सकता था-वह रिटायर होता आदमी
००

छोटी बहन
............................

मेरे होने से पूर्व भी थी
इस पृथ्वी पर
अपेक्षा और उपेक्षा
मैं तो उपेक्षा की कोख से ही जन्मी
और चोली दामन की तरह रही
मैं जिस कोख से जन्मी
जन्म चुकी थी
मुझ से पहले भी दो लड़कियाँ
मैं तीसरी
मारे जाने के
तमाम प्रयासों के बाद भी जन्मी
मेरे तो हिस्से में
आना ही था-उपेक्षा
पर मुझ से पहले जो आईं
उनके हिस्से भी कहाँ आया-प्रेम
पर वे हुई कम शिकार
मैं भरपूर
अच्छा हुआ मेरी जगह
उस कोख से नहीं आया कोई लड़का
वरन् मुझ से ज्य़ादा
उपेक्षित होती वे दोनों
इस तरह मैंने बचा लिया
उन्हें भरपूर उपेक्षा से
आखिर उनकी छोटी बहन जो ठहरी
उनकी अपेक्षा में खरी उतरी ।
कविता तारीख (01.01.2015)

जगह  : 
एक बुरे आदमी से
निजात पाने का सुख
और उसके बाद
एक अच्छे आदमी के
आने का इंतज़ार
खुसियों से भर देता हैं-हमें
पर अफ़सोस
अच्छे आदमी
कभी बुरे आदमी की
जगह नहीं लेते ।

(कविता तारीख़-31.12.2014)

जिद्द   ::

सुखदयाल दु:खी
रामप्रसाद भी खुश नहीं
उन दोनों की तरह
कई और सुखदयाल और रामप्रसाद
सब दु:खी, सब परेशान ।
उन सबके बीच- दु:खीलाल
न दु:खी, न परेशान
और उसका इस तरह होना
सभी को अचम्भित कर जाता
दु:खों के बीच वह कैसे
खिलखिलाकर हँस सकता है
चिंता को चिता तक स्थगित कर ।
वह न एश्वर्य से भरा
न सुखों से लदा
वह जैसे का वैसा
उसके परे कुछ और हो जाना
उसे स्वीकार नहीं ।
जो सुखदयाल सरीके
वे, वह नहीं रहना चाहते
जो है ।
वे सब चाहते थे कुछ और हो जाना ।
कुछ हुए भी
कुछ नहीं
कुछ होकर दु:खी हुए
कुछ न होकर
पर दु:खी सभी ।
दरअसल
होने और न होने के बीच
जब-जब जिद्द आई
लोग दु:खी हुए. परेशान हुए
यह बात
दु:खीराम अच्छी तरह जानता है ।
कविता तारीख ( 03.01.2015)

पिता होकर  ।।
न जाने कितनी- कितनी बातों में
असहमतियाँ थी
और गुस्सा भी-पिताजी से
पर अपनी जगह
वे ही सही थे
ऐसा घर मानता था
घर में माँ भी ।

सबके सही होने
और अपने सही न होने का कारण
कभी जान ही नही पाये-हम ।

हमारी नासमझी पर
माँ सदैव मुसकुराती
सही और गलत के बीच
उसका झुकाव सदैव हमारे तरफ़ होता
पर सही पिता ही ठहराये जाते।

हम माँ को भी
समझ की उसी तराजू में धर देते
जिसके दूसरे पलड़े में थे-पिता ।
माँ झुक जाती
पिता ऊँचे उठ जाते
वह जितना झुकती
पिताजी उतना ऊँचा उठ जाते ।

तमाम असहमतियों के बाद
हम माँ के जितना करीब होते
पिता से उतना ही दूर ।

एक समय बाद तो
हम समझ ही बैठे
पिता ही घर के वह सदस्य है
जिनसे सदैव हम दूर ही दूर रहे
हालाँकि वे हमसे
कभी दूर नहीं गये।

दूर-दूर के इसी एहसास में
हमारे बेटे ने बना दिया-हमें
वही पिता
जैसे थे हमारे पिता ।

क्या बच्चा जब असहमत
होना सीखता है
उसकी पहली असहमती के सामने
पिता खड़ा होता है..?
यह बात हमने पिता होकर
और पत्नी ने मुसकुराकर जाना
माँ की तरह ।
कविता तारीख (05.10.2015)


टिप्पणी                                                              
1.
समय घड़ी में हम पुरजों की तरह चल रहे हैं। धीरे धीरे हम एक लीक पकड़ लेते हैं और उसे ही जीवन समझने लगते हैं। अक्सर यह भी भूल जाते हैं कि जीवन रथ के अन्य पहियों की क्या भूमिका है। यह कविता इन सभी पहलुओं को बहुत संवेदनशीलता से छूती है। अंत में एक कृतगयता का भाव कविता को अपने उद्देश्य तक ले जाता है जहां एक स्वीकार है उसकी दुनिया के सच का जो उम्र भर चुपचाप  समांतर चलती रही।

2.
छोटी बहन एक बेहद मार्मिक रचना है। अपने संक्षिप्त रूप में एक विस्तृत फलक रचती हुई। इसमें शब्द एक ऐसा तानाबाना बुनते हैं कि आप अपने आप को उपेक्षित लडकियों की पीड़ा के द्वार पर पाते हैं। यह कविता भारत के अनेक परिवारों की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से बयान करती है।
3.
अंतहीन प्रतीक्षा की उब और नैराश्य से उपजी है यह कविता।अच्छाई कायम रहे और नियन्ता की भूमिका में हो यही हम चाहते हैं पर आशा का किला हर बार टूट जाता है। पूरे समाज को संबोधित करते हुए कवि ने सरल शब्दों का प्रयोग किया है जो इसकी पहुंच को विस्तृत करता है।

4.
ईच्छाओं के वशीभूत होकर अपनी खुशी गंवाते समय के लिए एक अमूल्य सोच लिए इस कविता में कवि उपदेशक के बजाय एक दृष्टा की भूमिका में है जिसने इस कविता की ग्राह्यता में वृद्धि की है। नाम के स्थान पर काम की महत्ता को सहजता से प्रतिपादित किया गया है। एक बार फिर भाषा की सरलता काबिले तारीफ़ है।
5.
अंतिम कविता में घर का ताना बाना बुना गया है जहां झुक कर मां बच्चों के मन में एक जगह बनाती है। पिता की असहमति हमें तब समझ में आती है जब एक असहमत संतान के सामने हम खड़े होते हैं। पर क्या है जो पुरुष को पिता की असहमति और महिला को माँ की मौन समझ देता है,  समाज का ताना बाना या कुछ और। यही मां को माँ बनाता है और यह कविता इसे बहुत खूबसूरती से बयान करती है।

विशेष रूप से पहली, दूसरी ओर पांचवीं कविता के लिए कवि को साधुवाद देना चाहता हूं। इन परिपक्व और सार्थक कविताओं के लिए शुक्रिया।
सादर।

कविताएँ श्री राजेश झरपुरे जी की हैं..
उन कविताओं पर टिप्पणी साथी परमेश्वर फुंकवाल जी ने की थी...
दोनों ही साथियो का आभार....
आप लोगों ने कविताओं पर बात की...और उन्हें अपने ढँग से खोलने की कोशिश की...
आप सभी का भी बहुत-बहुत शुक्रिया...
19.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

ज्योतिमा प्रकाश की कवितायें : टिप्पणी समूह के ही साथी श्री राजेश झरपुरे जी ने की है

मित्रो आज की कविताएँ प्रस्तुत हैं

~~ सर्दी कुछ कह जाती है ~~

सर्दी भी अजीब है
जाने से पहले कुछ बतला कर जाती है
एक पलंग पर साथ में टीवी देखना
रिमोट के लिए झगड़ा करना
गर्म रोटी के इंतज़ार में मूंगफली चबाना
ताश के  गठ्ठर का  फिर से गिरना
अंगीठी की आग में दिलों का पिघलना
रुके हुए आंसू को फिर से एक बार पोछना
रज़ाई की गर्माहट में खींचा तानी
वहीँ पेंसिल और पेन की टकराव में तनातनी
टूटे प्याले में चाय की सुड़ सुड़
बहार पत्तों के बीच सर्र सर्र
अंदर किताबों के पन्नो की झीकं  झीकं
बाहर हो चला अँधेरा
घर में है अभी उजाला
सर्दी भी कुछ कह जाती है
सबको जोड़ जाती है

~~~ पहचान ~~~

सोचा न था यूँ हम खाली बैठेंगे , शब्दों में खो कर अपने को ढूढेंगे |

आज का समय कुछ इस तरह गुजरा , सारा मंजर खुद ही सामने आ बैठा |

ये है हकीकत जिसकी कोई पहचान नहीं, जिसे हम पहचान समझे वह हकीकत है ही नहीं |

तराजू में तौलते हुए अपनी शख्सियत , कहीं दूर निकल गए जिसका कोई भार नहीं |

पलट कर देखा तो ये समझ आया , अकेले थे हम हमेशा बस साथ का एहसास मात्र था |

डूबने से रोका बहुत अपने को, पर किनारा कहीं नज़र नहीं  आया |


***********************************

~~ आईना झूठ  नहीं बोलता ~~

आज तो आईना भी झूठ नहीं बोल सकता , आँखों  के  नीचे  इन गहरे गाढ़े काले धब्बो को देखकर |

नाखून पोलिश तो नहीं परन्तु कुछ उखड़े हुए से नाखून  जैसे पूछ रहे हो कहाँ गया तुम्हारा श्रृंगार |

काम की उलझन ऐसी हुई की फिर न सुलझा सकी इन रूखे कुछ सफ़ेद बेजान केशों को |

जो होंठ कभी गीले शिकवे करते न थकते थे वह आज सूखे हुए मुरझाये गुलाब की पंखुरी की तरह बस पानी  का इंतज़ार कर रहें हैं |

जो पाँव कभी कालीन से उतारते नहीं थे आज उन्ही पाँव की एड़ियो में बिवाइयां आ गई हैं |

इन कोमल हाथों में आज किस्मत की गहरी लकीरें साफ़ साफ़ अपनी कहानी सुना रहीं हैं |

कभी सोचा न था इस कदर में जिम्मेदारी निभाते निभाते थक जाऊँगी कुछ पाने के लिए खुद को ही खो दूँगी |

कल था जो मेरा योवन वो आज भी हो सकता है , कुछ फुरसत के पल अपने लिए भी निकल सकता है |

इतनी भी क्या मसरूफियत की अपने को ही भुला दिया , मैंने क्या खोया क्या पाया |

आइना तो आज भी झूठ हीं बोलता |


टिप्पणी                                                                        

सर्दी कुछ कह जाती है ...

सर्दी कविता में कवि की कुछ स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, जिसे वह पंरी शिद्दत से महसूस कर पाती है ।इसमें स्मृतियाँ शेष है तो जीवन भी ।सम्बन्धों की निकटता और निजता अन्य मौसम की अपेक्षा वे सर्दियों में ज्यादा आत्मियता से महसूस कर पाती है -जैसे विचारों और भावों को फलीभूत करती है-कविता ।
पहचान...
पहचान कविता नदी के ठीक बीच से गुज़र रही स्त्रीमन की कविता है । जिस उम्र में पुरूष पूर्णता पाता है उसी उम्र में स्त्री अपने आपको आधी अधूरी महसूस करती है ।संतान और घर की खुशियों में उसकी खुशियां कहाँ दफ़न होकर रह जाती है वह समझ ही नहीं पाती । इस तरह न समझ में आ सकने वाला दुख उसे कचोटता रहता है ।

आईना झूठ नहीं बोलता...
नहीं बोलता ।
आईना वर्तमान है ।
वर्तमान एक पल पीछे,न एक पल आगे । तटस्थ । जब देखो तब वर्तमान । हमारे समाज में कमोवेश स्त्रियों की यही स्थिति है कि घर-गृहस्थी के बोझ तले इस तरह दब जाती है कि अपनी इच्छाओं और भावनओं स्थापित कर पाना उनकी सामर्थ में नहीं रह पाता ।परिवार के सुख में अपना सुख, परिवार के संघर्ष में अपना संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य मान लेती है मानों उनका अपना स्व-अस्तित्व ही न हो । कुछ इसी तरह के मनोभाव की स्त्री आईने के सामने खड़ी होती तो सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाती ।
अन्त में तीनों कविता पर व्यक्तिगत रूप से कहना चाहूँगा-कविता की शुरूआत इसी तरह होती है ।ज्य़ादा से ज्य़ादा पढ़ना, पढ़े हुए को गुनना, गुनकर कहना और कहन में विविद्यता लाना ताकि भीड़ में गुमें नहीं,उबरे ।यह शुरूआती दौर की कवितायें है लकिन बेहद सम्भावनाओं से भरी हुई ।आगे बेहतरीन कवितायें पढ़ने को मिलेगी ।

कवितायें हमारे समूह की ही साथी ज्योतिमा प्रकाश की
हैं... टिप्पणी समूह के ही साथी श्री राजेश झरपुरे जी ने की थी...
मित्रो आपसे पुनः अनुरोध...यदि आप इस व्यवस्था को पसंद करते हैं...तो अपना रचनात्मक सहयोग दें....टिप्पणी करने वाले
साथी भी आगे आयें....यह ज़रूरी है...
दूसरे समूह के साथियो की रचना और टिप्पणी हमेशा साझा नहीं की जा सकती....
रचना भेजने के लिए..bizooka2009@gmail.com
है
16.01.2015

आपका साथी
सत्यनारायण पटेल

रचनाएँ सुश्री अनिता चौधरी की हैं... और टिप्पणी श्री दिनेश कर्नाटक की है..

मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ प्रस्तुत है


1 -
डरती हूँ उन लोगों से
जो करते हैं दावा स्वयं को
प्रगतिशील व विचारवान होने का
और दूसरे ही पल बदल लेते हैं
अपने को उस समाज के
बुद्धहीन व अर्थहीन ढांचे में,
जो करता है छींटाकसी
दुनिया को उत्पादित करने वाली इकाई पर |
मानती रहे उसकी हर बात
पूजता है एक देवी की तरह
अगर वहीँ करती है
अपने मन की बात
कहता है उसे
कुल्टा और चरित्रहीन |

2 -
चारों तरफ है
किसी भयानक तूफ़ान के,
गुजर जाने के बाद का
घोर सन्नाटा |
दिख रहे है सबके
झुलसे हुए चेहरे
एक दूसरे से डरे सहमे
कर रहे हैं ढोंग
खुश होने का |
लेकिन
कहीं कोने में बैठा है |
वही डर
जो, कभी भी किसी दिशा से
धारण कर सकता है
अपना विराट रूप |

3 -
वे कर रहे है दावा
एक प्रेमी होने का
खा रहे है कसमें
हर कदम साथ चलने की
दे रहे है आवश्वासन
एक सच्चे मित्र होने का
लेकिन
ख़त्म नहीं कर पा रहे है
अपने भीतर बैठे
उस पुरुष को
जो, हर पल ओढ़े रहता है|
एक पुरुषवादी अधिकारों का लबादा |


4-
आज वह बहुत खूबसूरत भी दिखेगी,
पहले नहीं |
वे , उसका दिन में
चार बार हाल भी पूछेंगे |
उसके लिए कोई अच्छा सा
तोफहा भी ले जायेंगे |
कुछ ढंग के शब्द भी सोचेंगे
जो , उसके मन को भाये |
क्योंकि
आज वीक एंड है
उन्हें , उसकी जरुरत है |

5 - आधुनिक लड़की

जीन्स पर कट स्लीव टॉप
आँखों पर बड़े लैंस का सफ़ेद चश्मा
कन्धों पर झूलते घुंघराले घने बाल
और एक हाथ में
किताबों से भरा लटकता हुआ पर्स
कान पर लगाए मोबाइल
बतियाती हुई निकल जाती है
गली से बाहर
तेज हवा की तरह
मैं करता हूँ उसका पीछा दूर तक
कि
वह देखेगी मुझे पीछे मुड़कर
पर नहीं देखती वह
चलती जाती है अपने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
अपने मित्रों के अनुसार
मैं भी चाहता हूँ उससे बतियाना
पास बैठकर उसको छूना
हर कीमत के साथ
लेकिन, अब कुछ दिनों से
दिखाई नहीं देती वह
मैं ढूंढता हूँ उसे
देखना चाहता हूँ एक झलक उसकी
अपनी प्रबल इच्छा के साथ
तभी, सुनाई देता है एक शोर
गली के बाहर
चली आती है एक भीड़
हाथों में तख्ती लिए
मेरी तरफ
भीड़ में है सबसे आगे
मेरी वह कल्पना
हाथ में झंडा लिए
जिस पर लिखा है
नहीं सहेंगे अब अत्याचार
स्त्री , पुरुष एक समान
हम भी है आखिर इन्सान
मैं , उस भीड़ को
जाता हुआ देखता रहा
स्वर मेरे कानों में
देर तक गूंजते रहे
अब अक्सर दिखाई देती है वह
कभी विचार गोष्ठियों में
मजदूरों के सम्मेलनों में
तो कभी दलित बस्तियों में

टिप्पणी                                                                               

मुझे जिन कविताओं को पढ़ने को दिया गया है, इनकी संख्या पांच है. शीर्षक की जगह क्रम संख्या है. अंतिम कविता का शीर्षक है- आधुनिक लड़की ! कवितायेँ स्त्री विमर्श पर केन्द्रित हैं. इसलिए स्त्री विरोधी मानसिकता वाला पुरुष इन कविताओं के निशाने पर है.

पहली कविता में पुरुषों के उस दोहरेपन पर कटाक्ष किया गया है, जहाँ वे अपनी सुविधा के लिए वैचारिक रूप से प्रगतिशील होने का दिखावा करते हैं, लेकिन स्त्री के प्रति उनका नजरिया पुरातनपंथी होता है. अगली कविता में किसी तूफान के गुजरने का बिंब है. यूं तो समझना मुश्किल है कि कवियत्री किस तूफान के गुजरने की बात कर रही है लेकिन पिछली कविता के संदर्भ से समझा जा सकता है कि तूफान स्त्री उत्पीड़न का है. जिसे आए दिन औरतों को झेलना होता है और समाज में सब ठीक होने का अभिनय करना पड़ता है. तीसरी कविता में अपनी शारीरिक तथा मानसिक आवश्यकता के लिए पुरुष के द्वारा स्त्री के समक्ष प्रेम का प्रदर्शन करने तथा अपने अंदर के पुरुष को न बदल पाने पर कटाक्ष किया गया है. कवियत्री का प्रश्न जायज है. प्रेम करने वाले स्त्री-पुरुष को बदलना चाहिए. बेहतर इंसान बनना चाहिए. वरना प्रेम को पाखंड ही कहा जायेगा. चौथी कविता में अपनी शारीरिक जरूरत के लिए पुरुष के द्वारा स्त्री को फुसलाने का जिक्र किया गया है.

इन कविताओं में कवियत्री जीवन में हावी होते जाते भोगवाद तथा उपयोगिता वाद चोट करती है. जिसके तहत व्यक्ति के हर काम के पीछे फ़ायदा या मतलब छिपा होता है. अंतिम कविता जिसका शीर्षक “आधुनिक लड़की” है, इन सब स्थितियों के फलस्वरूप अपना रास्ता चुनती हुई लड़की के स्वरूप को स्पष्ट करती हुई कविता है. इस स्त्री ने पुरुष के असली चरित्र को समझ लिया है. अब यह स्त्री को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने की मुहीम में शामिल हो चुकी है.

इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि यह कवियत्री की आरंभिक रचनाएँ हैं. इनमें अपनी बात को कहने की जल्दबाजी है. संवेदना की वह गहराई नहीं है जिससे कविता बनती है. इसलिए विचार को कविता की शक्ल में ढाल देने की कोशिश की गई है. साहित्य जीवन अनुभव को कला में ढालना है. बात को ऐसे कहना कि वह पाठक को संवेदित कर सके. कहानी, निबंध, संस्मरण में अपनी बात को सीधे कहने की सुविधा होती है, मगर कविता की पहली शर्त संवेदना तथा कला है. वह तभी कविता है जब वह रूखे नहीं मार्मिक अंदाज में अपनी बात को कहे. कुछ प्रतीक चुने, कुछ बिंब का निर्माण करे. कविता में सपाटबयानी भी होती है, यह कोई बुराई नहीं है. विचारों को भी व्यक्त किया जा सकता है. हिंदी में धूमिल ने यह कार्य किया है. पंजाबी में पाश की कवितायेँ इसका उदाहरण हैं. कबीर के दोहे हमारे सामने हैं.

लिखना जिम्मेदारी का काम है. जिस विधा में लिख रहे हैं, उसकी परंपरा से परिचित होना आवश्यक है. यानी पढ़ना बहुत जरूरी है. क्योंकि दुनिया तो वही है. मुद्दे, प्रश्न और समस्यायें भी अमूमन वही होती हैं. हर रचनाकार उनके बारे में अपने अंदाज में पहले ही कुछ न कुछ कह चुका  होता है. आज के रचनाकार को समस्या समझकर बात को बिल्कुल नए अंदाज में कहना होगा. कहीं हम उन्हीं बातों को, उसी अंदाज में तो नहीं दुहरा रहे जिससे लोग अन्य कई माध्यमों से पहले से परिचित हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, हम सुनी-सुनाई बातों को पढ़ रहे हैं. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए स्त्री विमर्श पर रंजना जायसवाल की एक कविता “जब मैं स्त्री हूँ” दे रहा हूं, जो अपने कहन के मारक अंदाज के कारण हमें झकझोर कर रख देती है-

जब मैं स्त्री हूँ

तो मुझे दिखना भी चाहिए स्त्री की तरह

मसलन मेरे केश लंबे

स्तन पुष्ट और कटि क्षीर्ण हो

देह हो ढली, इतनी की इंच कम न छटांग ज्यादा

बिल्कुल खूबसूरत डस्टबिन की तरह

जिसमें डाल सकें वे

देह, मन, दिमाग का सारा कचरा

और वह मुस्कराता रहे-‘प्लीज यूज मी !

सत्यनारायण पटेल :

मित्रो मेरा पुनः अनुरोध है...चुप्पी न साधे..हमारी चुप्पी से न साथी रचनाकार का कोई भला होना है और न अपना....बोलने से ज़रूर कोई बात बन सकती है...हमारी कोई एक बात..एक सलाह हमारी साथी रचनाकार के बहुत काम की हो सकती है...उसे कोई राह दिखा सकती है...इसलिए जैसी लगती है रचनाएँ...वैसी कहे...और यदि कोई सुझाव दे सकते हैं तो दें...

रचनाएँसुश्री अनिता चौधरी की हैं...
और टिप्पणी श्री दिनेश कर्नाटक की है..
दोनों मित्रो को इस सहयोग के लिए आभार....
मित्रो आभार
आप सभी साथियो का भी कि आपने कविताओं पर अपने विचार रखे....और मुखरता की ज़रूरत है...

मित्रो समूह के साथियो से अनुरोध है कि वे अपनी रचनाएँ भेजे...और जिन साथियो को मैंने कुछ मित्रो की रचनाएँ टिप्पणी के लिए भेजी है...वे भी भेजे...ताकि क्रम बग़ैर नागा चलता रहे
14.01.2015

कविता विदुषी जी की हैं टिप्पणी डॉ.शशांक शुक्ला की है..

पटरी

मैं खड़ी थी जहाँ
मेरे पैरों के नीचे की मिट्टी मेंथे
कंकर पत्थर और काँच के टुकड़े
जो चुभते मैं दुखी हो जाती
बैठ जाती वहीं
देखती रहती अपने लहूलुहान पैरों को
एक दिन मुझे लकड़ी की एक पटरी मिली
मैं खड़ी हो गई उस पर
मिट्टी को छानकर
अलग कर लिए कंकर पत्थरऔर काँच के टुकड़े
कंकरों से मैने एक मन्दिर बना लिया
पत्थर को मूर्ति बना प्रतिष्ठित कर दिया
काँच के रंगीन टुकड़ों से अल्पनाएं बना लीं
अब मेरे पैरों के नीचे की मिट्टी मुलायम है
बहुत खुश हूँ मैं
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होलिका दहन

अनाचार की होलिका
भले ही पहने हो
संरक्षित वस्त्र
जलाने जाएगी जब
विश्वास के नन्हें प्रहलाद को
तो सच मानो
जलेगी वह स्वयं
अक्षत बचेगा विश्वास
तो आओ
इस होलिका दहन में
तपाएं आस्था जौं
नई फ़सल के
फूटने दें उल्लास
झूम उठे लयबद्ध
लोकमन

मौसम

दिन भर सजा के बाद
मौसम के मास्टरजी ने
दे दी है छुट्टी
देखो..
हवा की शैतान बच्ची
कन्धे पर चढ़ गई है
नीम दादू के
तभी तो
झुका जा रहा है वो

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बिटिया

मेरे मन में उतर आती ह
पहाड़ों से उतरती
उछलती
पत्थरों से इक्कल दुक्कल खेलती
एक अल्हड़ नदी
जो लगा लेती है अपने माथे पर
लाल बिंदिया
ओढ़ लेती है चुनरी सुनहरी
कभी सजा लेती है चाँदी का बोड़ला
और बालों में मोती की लड़ियाँ
मेरे भी अधरों पर
खिल उठते हैं फूल
दुपहरिया के
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ना जाने क्या बात हुई

बदले रंग फ़िज़ाएं बदलीं बिन मौसम बरसात हुई
भरी दोपहरी गोधूली है ना जाने क्या बात हुई
पकते बौर झूमते अमुवा मस्त मल्हारें कहाँ गईं
गंगा वैसे ही बहती है पर होली की आँच गई
नानी का चौबारा छूटा बस की आपाधापी में
छत पर लेटें किस्सों वाली खत्म सुहानी रात हुई
मिलते थे हम रोज सखा रे गलबहियों के हारों संग
मिट्टी नरम घरौंदों वाली लील कौन बरसात गई
गिट्टू पौटिक्का पोशम्पा गुल्ली डंडा भूल गए
टीवी सीडी इन्टरनैट ही बचपन की सौगात हुई
पाती के दिन कहाँ गए अब फोन हमेशा खड़के है
सम्बन्धों की निश्छलता तो अब अतीत की बात हुई

टिप्पणी                                                                        

पटरी,होलिका दहन ,मौसम ,बिटिया और न जाने क्या बात हुई...सभी छोटी कवितायेँ हैं।छोटी कविताओं की ख़ूबी उसकी भाषा मितव्ययता तो होती ही है इसके अतिरिक्त वह संवेदना के प्रभाव को पकड़ने का कार्य भी लम्बी कविताओं के मुकाबले ज्यादा बेहतर करती हैं। बड़ी कविताओं में व्यौरे-इतिवृत्त के माध्यम से संवेदना तक कवि पहुँचता है तो छोटी कविता में संवेदना तक कवि प्राय:सीधे ही पहुँचना चाहता है ।आलोच्य कविताओं में कवि/कवयित्री ने जीवन के उल्लास को अन्दर से पकड़ने का अच्छा प्रयास किया है ।होलिका दहन ,मौसम और बिटिया जैसी कविताएँ मन-संवेदना के मूल तंतुओं को बख़ूबी पकड़ती हैं। इन कविताओं में प्रकृति-मनुष्य की गति को एक-दूसरे के सापेक्ष में रखा गया है। न जाने क्या बात हुई कविता जीवन की विसंगति को पकड़ती है तो 'पटरी' कविता जीवन बोध को ...इस दृष्टि से यह कविता मुझे विशेष प्रिय लगी। अब बात कविताओं पर -

पटरी

'पटरी' कविता विवेक की छलनी में आस्था को तार्किक रुप दे देने का कौशल विकसित कर देना है ।यहाँ मिट्टी समाज के रुपक में ढल गया है।कांकर-पाथर ब़ेगढ़ संवेदना /आस्था में ।भावों के अनगढ़पन को ठोस आस्था और विवेक में ढाल कर सृजनात्मक रुप दे दिया गया है ।
जब तक हमारी भावनाएं-संवेदनाएँ कच्चे रुप में होती हैं ,तब तक हम लहुलुहान ही होते रहते हैं...भावनाओं की कच्चाई हमारे स्थिर जीवन का ही प्रतिफल है ।हमें जो मिला है , उसके साथ जीना जड़ता नहीं तो और क्या है ? कंकड़ को मंदिर ,पत्थर को मूर्ति तथा कांच को अल्पना में ढाल देना  'विवेक का सृजन ' है ।यहाँ कविता कबीर के विद्रोही तेवर से अलग सृजन-पथ पर चली जाती है। वास्तविक रुप में ख़ुशी- आनन्द हमारे कर्मों का सृजनात्मक हो उठना ही है ।इस दृष्टि से यह कविता अपनी प्रभावान्विति में सफल है ।

होलिका दहन

'होलिका दहन' कविता विश्वास के बच निकलने की थीम पर आधारित है ।होलिका-दहन के पौराणिक - वृत्त को लेकर यह कविता चलती है....होलिका यहाँ असत् के जल जाने और सत् के निखर उठने के प्रतीक रुप में आई है। लेकिन होलिका दहन में आस्था का तपना , नई फ़सल के कोंपल रुपी उमंग में लोकमन के उल्लास का रुपक भी निर्मित हुआ है ।अनाचार की होलिका पर विश्वास की विजय के मिथ को लोक की स्वीकृति की कविता ही 'होलिका दहन' है ।

मौसम

'मौसम' कविता केदारनाथ अग्रवाल के 'बासंती हवा ' कविता का स्मरण कराती है ।मौसम मास्टरजी में , हवा शैतान बच्ची में रूपांतरित हो गई है...नीम का झुक जाना वस्तुत: प्रकृति की उमंग का परिचायक भी है और व्यक्ति मन के साथ प्रकृति के तादात्म्य और साहचर्य का भी...... कविता अपेक्षाकृत छोटी है...बिम्ब अधूरे लगते हैं अत: कविता अधूरे रूप में हमारे सामने आती है ।कुछ और चित्र कविता को संभवत: ज्यादा प्रभावी बनाते ....

बिटिया

'बिटिया' कविता में प्रकृति और मानव गति के बीच साहचर्य को सुन्दर ढंग से पकड़ा गया है ।मन से भावों का उतर जाना ...पहाड़ के बीच से नदी का निकल जाना है। समाज- सभ्यता की जटिलता , कृत्रिम ऊँचाई के बीच जो तरलता है...उमंग है ,वह जीवन है ।इस कविता में बिटिया नदी में रूपांतरित होती है...फ़िर जीवन में और फ़िर 'खिल उठते हैं फूल दुपहरिया के ' के माध्यम से प्रकृति और मानव-सम्भावना के तादात्म्य को खोजा गया है। पूरी कविता बिम्बों के संगीत से रची गयी है....प्रकृति अनुभूति में और अनुभूति प्रकृति की जीवंतता में ढल  गई है। यह छोटी कविता है किन्तु बिटिया रुपी मानव-सम्बन्ध को संगीतात्मक रवानगी से जीवंत किया गया है ।

न जाने क्या बात हुई ।

इस कविता में बिन मौसम बरसात ,दोपहरी गोधूली जैसे विभावनात्मक- विसंगतिपूर्ण भाषा प्रयोग से जीवन की विसंगति के चित्र खींचे गये हैं ।प्रारंभ में कविता में आशा के दृश्य रखे गये हैं किन्तु क्रमश: कविता जीवन के यथार्थ पर खड़ी हो गयी है ।कविता मल्हार ,होली की आँच , नानी के चौबारे के छूट जाने के माध्यम से समाज के रीतेपन का अच्छा चित्र खींचती है ।क़िस्सों का ख़त्म हो जाना कहीं हमारे जीवन में "स्मृति लोप " का हो जाना तो नहीं है ? इतिहास- जीवन सम्बन्ध को बांधने वाले क़िस्से की समाप्ति हमारे अतीत-भाव का चूक जाना भी है ।'संबंधों की निश्छलता को अतीत' कहना इसी प्रकार की स्वीकारोक्ति है। बचपना पूँजी में खोता जा रहा है.... ।सभ्यता -विस्तार के क्रम में मनुष्य के भाव -प्राकट्य के तौर-तरीके भी बदले हैं और उनमें आंतरिक संघर्ष भी बढ़ा है ....अंत:करण पर बाह्य दबाव क्रमश: बढ़ता ही गया है और उसी अनुपात में संवेदनाओं का क्षरण भी....यह कविता 'न जाने क्या बात हुई ' के प्रश्न सूचक संकेत के माध्यम से हमारा ध्यान इसी ओर खींचती है

कवि विदुषी जी हैं.. कविताओं पर टिप्पणी हमारे साथी डॉ.शशांक शुक्ला जी ने की है..दोनों साथियो का बहुत-बहुत आभार...

12.01.2015

हाँ! मैं इस दुनिया का/ सबसे नाकाम प्रेमी हूँ! : अमृत सागर

1. हाँ!  मैं इस दुनिया का/ सबसे नाकाम प्रेमी हूँ!
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जो अंत तक
नहीं कर सका/ तुम्हारे दोनों हाथों में अंतर!
और न ही/ पार कर सका/ तुम्हारे आँखों का समंदर!

क्योंकि तुम्हारी आँखें/ मुझे हमेशा
किसी कराहते कांच सी लगीं
जिन्हें किसी नरम दिल में/ बेवजह
धंसने और विलगने की प्रक्रिया से
गुजार दिया गया था!

असल में/ मुझे तुममें/ प्रेमिका कम
मां ज्यादा नजर आती रही!

शायद/ तभी मैं
तुम्हारे चले जाने के बाद भी
तुम्हे खोना नहीं चाहता!

मैंने हर उस याद को/ भींच रखा है!
जो मेरी स्मृतियों में ठहर सकी

शायद! इसलिए ही मैंने
तुम्हारे आने से पहले/ और जाने के बाद तक
तुम्हारा इन्तजार किया!

यह मेरी नाकामी है/ कि मैंने तुम्हे
हवा नहीं नदी समझा!

और भूल गया
कि जब भी हवा पहाड़ों से टकराती है
बारिशें होती है!

जिसे अक्सर/ नदियों में ही मिल जाना होता है!
पर उसे पहाड़ कभी साबित नहीं कर पाता!

आखिर में बचता है/ एक नाकाम प्रेमी!
और उसकी स्मृतियों में उसकी प्रेमिका!


जो चेहरे से बिलकुल मेरी मां जैसी है!
पर आदतों में मुझ सी!

◽अमृत सागर

2. कवि की रसोई      
(कवी का नाम मेरे पास उपलब्ध नहीं है)                                                              

ज़रा आराम से बाहर बैठो
मेरे प्‍यारे श्रोता-पाठक
इधर मत तांको-झांको
आनंद लो खुश्‍बुओं का
आने वाले जायके का
मेरी कविता की कड़वाहट का

कुछ हासिल नहीं होगा तुम्‍हें
इधर आकर देखने से
बहुत बेतरतीबी है यहां
कोई चीज़ ठिकाने पर नहीं

सुना आज का अखबार पढ़कर
जो डबाडबा आये थे आंसू
उन्‍हें मैंने प्‍याले में जमा कर लिया था

पहले प्रेम के आंसू
बरसों से सिरके वाली बरनी में सुरक्षित हैं
किसानों के आंसुओं की नमी
मेरे लहू में है
भूख-बेरोजगारी से त्रस्‍त
युवाओं की बदहवासी
मेरे भीतर अग्नि-सी धधकती रहती है
जिंदगी के कई इम्‍तहानों में नाकाम
खुदकुशी करने वालों की आहें
मेरी त्‍वचा में है चिकनाई की तरह

विलुप्‍त होते जा रहे
वन्‍यजीवों के रंग मेरी स्‍याही में
जंगल और पहाड़ों के गर्भ में छुपे
खनिजों की गर्मी है मेरी आत्‍मा में
और इन पर जो गड़ाये बैठे हैं नजरें
पूंजी के रक्‍त-पिपासु सौदागर
उन पर मेरी कविता की नज़र है लगातार

अभावग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों के
अक्षत हैं मेरे कोठार में
हिमशिखरों से बहता मनुष्‍यता का
जल है मेरे पास दूध जैसा
प्रेम की शर्करा है
कभी न खत्‍म होने वाली
दु:ख, दर्द और तकलीफों के मसाले हैं
चुनौतियों का सिलबट्टा है
कड़छुल जैसी कलम है
हौंसलों के मर्तबान हैं
कामनाओं का खमीर है मेरे पास

अब बताओ
तुम क्‍या पसंद करोगे ?


10.01.2015