30 नवंबर, 2017

रूसी कवि अनतोली परपरा की कविताएँ

मूल रूसी से अनुवाद: अनिल जनविजय




कविताएं

एक

माँ की मीठी आवाज़


घर लौट रहा था दफ़्तर से मैं बेहद थका हुआ
मन भरा हुआ था मेरा कुछ, ज्यों फल पका हुआ
देख रहा था शाम की दुनिया, ख़ूबसूरत हरी-भरी
लोगों के चेहरों पर भी सुन्दर संध्या थी उतरी
तभी लगा यह जैसे कहीं कोई बजा हो सुन्दर साज
याद आ गई मुझे अपनी माँ की मीठी आवाज़

घूम रहा था मैं अपनी नन्ही बिटिया के साथ
थामे हुए हाथ में अपने उसका छोटा-सा हाथ
तभी अचानक वह हँसी ज़ोर से, ज्यों गूँजा संगीत
लगे स्मृति से मेरी भी झरे है कोई जलगीत
वही धुन थी, वही स्वर था उसका, वही था अन्दाज़
कानों में बज रही थी मेरे माँ की मीठी आवाज़

कितने वर्षों से साथ लिए हूँ मन के भीतर अपने
दिन गुज़रे माँ के संग जो थोड़े, वे अब लगते सपने
थका हुआ माँ का चेहरा है, जारी है दूसरी लड़ाई
चिन्ता करती माँ कभी मेरी, कभी पिता, कभी भाई
तब जर्मन हमले की गिरी थी, हम पर भारी गाज
याद मुझे है आज भी, यारों, माँ की मीठी आवाज़

आज सुबह-सवेरे बैठा था मैं अपने घर के छज्जे
जोड़ रहा था धीरे-धीरे कविता के कुछ हिज्जे
चहक रही थीं चिड़िया चीं-चीं, मचा रही थीं शोर
उसी समय गिरजे के घंटों ने ली मद्धिम हिलोर
लगी तैरने मन के भीतर, भैया, फिर से आज
वही सुधीरा और सुरीली माँ की मीठी आवाज
००

दो

अशान्तिकाल का गीत


समय कैसा आया है यह, मौसम हो गया सर्द
भूल गए हम सारी पीड़ा, भूल गए सब दर्द
मुँह बन्द कर सब सह जाते हैं, करते नहीं विरोध
कहाँ गया मनोबल हमारा, कहाँ गया वह बोध

क्यों रूसी जन चुपचाप सहे अब, शत्रु का अतिचार
क्यों करता वह अपनों से ही, अति-पातक व्यवहार
क्यों विदेशियों पर करते हम, अब पूरा विश्वास
और स्वजनों को नकारते, करते उनका उपहास?
००

तीन

जाता हुआ साल


इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है

देश पर चला दी आरी
लूट-खसोट मचा दी भारी
अराजकता फैली चहुँ ओर
महाप्रलय का आया दौर
इस गड़बड़ और तबाही ने जन को बहुत सताया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है

अपने पास जो कुछ थोड़ा था
पुरखों ने भी जो जोड़ा था
लूट लिया सब इस साल ने
देश में फैले अकाल ने
ठंड, भूख और महाकाल की पड़ी देश पर छाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है

भंग हो गई अमन-शान्ति
टूटी सुखी-जीवन की भ्रान्ति
अफ़रा-तफ़री-सी मची हुई है
क्या राह कहीं कोई बची हुई है
बस, जन का अब यही एक सवाल है
क्यों लाल झण्डे का हुआ बुरा हाल है
हँसिया और हथौड़े को भी, देखो, मार भगाया है
इस जाते हुए साल ने मुझे बेहद डराया है
००



गूगल से


चार

 मौत के बारे में सोच


मौत के बारे में सोच
और उलीच मत सब-कुछ
अपने दोनों हाथों से अपनी ही ओर
हो नहीं लालच की तुझ में ज़रा भी लोच

मौत के बारे में सोच
भूल जा अभिमान, क्रोध, अहम
ख़ुद को विनम्र बना इतना
किसी को लगे नहीं तुझ से कोई खरोंच

मौत के बारे में सोच
दे सबको नेह अपना
दूसरों के लिए उँड़ेल सदा हास-विहास
फिर न तुझ को लगेगा जीवन यह अरोच

देख, देख, देख बन्धु !
रीता नहीं रहेगा फिर कभी तेरा मन
प्रसन्न रहेगा तू हमेशा, हर क्षण
००


पांच

नववर्ष की पूर्व सन्ध्या पर


मार-काट मची हुई देश में, तबाही का है हाल
हिमपात हो रहा है भयंकर, आ रहा नया साल

यहाँ जारी इस बदलाव से, लोग बहुत परेशान
पर हर पल हो रहा हमें, बढ़ते प्रकाश का भान

गरम हवा जब से चली, पिघले जीवन की बर्फ़
चेहरों पर झलके हँसी, ख़त्म हो रहा नर्क

देश में फिर शुरू हुआ है, नई करवट का दौर
छोड़ दी हमने भूल-भुलैया, अब खोजें नया ठौर

याद हमें दिला रही है, रूसी माँ धरती यह बात
नहीं, डरने की नहीं ज़रूरत, होगा शुभ-प्रभात
००


छः

कैसे आए वर्ष


आज मन हुआ मेरा फिर से कुछ गाने का
फिर से मुस्कराने का
सिर पर मंडराती मौत को डरा कर भगाने का
फिर से हँसने औ' हँसाने का

चिन्ता नहीं की कुछ मैंने अपनी तब
जब सेवा की इस देश की
मैं झेल गया सब तकलीफ़ें, पीड़ा
इस जीवन की, परिवेश की

पर अब समय यह कैसा आया
कैसे आए वर्ष
छीन ले गए जीवन का सुख सब
छीन ले गए हर्ष

श्रम करता मैं अब भी बेहद
अब भी तोड़ूँ हाड़
देश बँट गया अब कई हिस्सों में
हो गया पन्द्रह फाड़

भूख, तबाही और कष्ट ही अब
जन की हैं पहचान
औ' सुख-विलास में मस्त दिखें सब
क्रेमलिन के शैतान

दिन वासन्ती फिर से आया है
कई वर्षों के बाद
जाग उठा है देश यह मेरा फिर
बीत रही है रात

मेहनत गुलाम-सी करता हूँ मैं
पर दास नहीं हूँ मैं
महाशक्ति बनेगा रूस यह फिर से
हताश नहीं हूँ मैं
००


गूगल से


सात

माया


नींद में मुझे लगा कि ज्यूँ आवाज़ दी किसी ने
मैं चौंक कर उठ बैठा और आँख खोल दी मैंने
चकाचौंध रोशनी फैली थी औ' कमरा था गतिमान
मैं उड़ रहा था महाशून्य में जैसे कोई नभयान

मैं तैर रहा था वायुसागर में अदृश्य औ' अविराम
आसपास नहीं था मेरे तब एक भी इन्सान

किसकी यह आवाज़ थी, किसने मुझे बुलाया
इतनी गहरी नींद से, भला, किसने मुझे जगाया
क्या सचमुच में घटा था कुछ या सपना कोई आया
कैसी अनुभूति थी यह, कवि, कैसी थी यह माया ?
००

आठ


फ़र्क


नहीं, ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किस घास पर चलता हूँ मैं
किसे बुलाऊँ स्नेह से--- रानी
और अपने खत्ती-बखार में
कौन अनाज भरता हूँ मैं

नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि किसे बनाता हूँ मैं मित्र
किसके साथ पीता हूँ जाम
किसके संग सुख-दुख बाँटूँ मैं
और किसके साथ खिचाऊँ चित्र

नहीं ऐसी बात नहीं कि मुझे इसमें कोई फ़र्क नहीं पड़ता
कि लोग मुझे किस नाम से पुकारते हैं
मुझे गर्व है अपने नाम पर
मैं पुत्र हूँ रूसी धरती का
आप भी समझिए इसे, दोस्तों !
सब यह बात जानते हैं
००

नौ

काई


टुण्ड्रा प्रदेश में
जहाँ कठोर ठण्डी हवाएँ चलती हैं
अंगुल भर ज़मीन भी दिखाई नहीं देती
सिर्फ़ बर्फ़ ही बर्फ़ है जहाँ चारों ओर
अँधेरे का साम्राज्य है, होती नहीं है भोर
फूल, पत्तियाँ, पेड़ जैसी कोई चीज़ नहीं
मैंने धड़कते देखा वहाँ जीवन
काई के रूप में

और वहाँ
फटा था विशाल एक ज्वालामुखी जहाँ
धुआँ ही धुआँ था, लावा ही लावा चारों ओर
आसमान में बादल भी करते नहीं थे शोर
मैंने देखा वहाँ भी जीवन-फूल खिला
काई के रूप में

काई को प्रकाश नहीं चाहिए
कोई भोजन, सान्त्वना, कोई आस नहीं चाहिए
कहीं भी उग आती है वह
कैसी भी हालत हो, कैसा भी मौसम हो
जीवन हो कैसा भी, देती है सुख
जब से मैंने ख़ुद को काई जैसा ढाला
भूल गया मैं इस दुनिया के सारे दुख
००

अवधेश वाजपेई



दस

तेरा चेहरा


शरदकाल का दिन था पहला, पहला था हिमपात

धवल स्तूप से घर खड़े थे, चमक रही थी रात
पिरिदेलकिना स्टेशन पे था मुझे गाड़ी का इन्तज़ार
श्वेत पंखों-सा हिम झरे था, कोहरा था अपार

कोहरे में भी मुझे दीख पड़ा, तेरा चारु-लोचन भाल
तन्वंगी काया झलके थी, पीन-पयोधर थे उत्ताल
खिला हुआ था तेरा चेहरा जैसे चन्द्र अकास
याद मुझे है, प्रिया, तेरे मुखड़े का वह उजास
००



ग्यारह

दोस्ती


दोस्त ने धोखा दिया
मन में तकलीफ़ है
कष्ट है, दुख है बहुत
लेकिन इसमें ग़लती नहीं कोई
दोस्ती की
उसे मत कोस तू

सूर्योदय के पहले जब मन शान्त हो
पक्षियों का आनन्दमय कलरव सुन
और ग़लती तूने कहाँ की, यह गुन
००

बारह

बरखा का एक दिन


हवा चली जब बड़े ज़ोर से
बरसी वर्षा झम-झमा-झम
मन में उठी कुछ ऐसी झंझा
दिल थाम कर रह गए हम

गरजे मेघा झूम-झूम कर
जैसे बजा रहे हों साज
ता-ता थैया नाचे धरती
ख़ुशियाँ मना रही वह आज

भीग रही बरखा के जल में
तेरी कोमल चंदन-काया
मन मेरा हुलस रहा, सजनी
घेरे है रति की माया
००


अवधेश वाजपेई

तेरह

सौत सम्वाद


(एक लोकगीत को सुनकर)
ओ झड़बेरी, ओ झड़बेरी
मैं तुझे कहूँ व्यथा मेरी

सुन मेरी बात, री झड़बेरी
आता जो तेरे पास अहेरी

वह मेरा बालम सांवरिया
न कर उससे, यारी गहरी

वह छलिया, ठग है जादूगर
करता फुसला कर रति-लहरी

न कुपित हो तू, बहना, मुझ पे
बहुत आकुल हूँ, कातर गहरी
००

             
                अनुवादक : अनिल जनविजय



अनतोली परपरा का जन्म 15 जुलाई 1940 को रूस के स्मालेंस्क ज़िले के तिनोफ़्का गाँव में हुआ था। आज 77 वर्षीय परपरा रूस के विश्वप्रसिद्ध कवियों में से एक हैं। इनकी कविताओं का अनुवाद हिन्दी, तमिल, तेलुगु सहित दुनिया की छियालीस भाषाओं में हो चुका है।

29 नवंबर, 2017

विजय गौड़ की कविताएं


देहरादून में जन्मे विजय गौड़ का एक काव्य संकलन- सबसे ठीक नदी का रास्ता, एक कहानी संग्रह- खिलंदड़ी ठाट और दो उपन्यास- फांस वह भेटकी प्रकाशित है। विजय को शतरंज खेलने और दुर्गम पहाड़ियों की यात्रा करने का शौक है। उत्तराखंड व हिमाचल की पहाड़ियों के कई द्रव्यों से गुजरने का अनुभव हासिल किया है। लद्दाख का जांस्कर इलाका ख़ास पसंद है और वहां बार- बार जाना चाहते हैं। इन अपनी इन्हीं यात्रा ओं के संस्मरण लिखने में व्यस्त हैं। आज हम इस घुमक्कड़ कवि की कविताओं से रूबरू होते हैं।

कविताएं

मौके की जगह

पुश्तैनी जमीन का बँटवारा भाइयों में कुछ इस तरह हुआ
एक तिकोना टुकड़ा ही घोलू के हाथ रहा
बड़े वाले ने अपने तीनों बेटों के नाम भी
हिस्से में लगाए
घर से लेकर गाय की गोठ और उससे छूती खेत की सरहद को भी
अपने नाम कर लिया
बीच वाले को उसने
खाने कमाने भर का एक हिस्सा दे दिया
बहन, जिसका बेटा पड़ोसी राज्य की मुख्यमंत्री का ड्राइवर है,
उस पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रहा
बगीचे के साथ वाली जमीन जो सड़क से बिलस्त भर ऊँची है
उसके नाम कर दी;
घोलू का तिकोन दूसरी ओर की सड़क वाली उसी जमीन के ठीक सामने तय रहा
जहाँ एक छोटी सी दुकान पान की उसने खोल ली
हर आने जाने वाले को रोक-रोक कर वह न जाने क्या क्या बोलता है
राहगीर उसे पागल समझने लगे हैं
शराब के नशे में वह अपनी पत्नी का जिक्र करता है
कभी खुद को दुनिया का सबसे बेवकूफ और उसे बुद्धिमान बताता है,
कभी कहता है, देखो साहब मैं दुकान करता हूँ
फिर भी वह डिफेन्स एरिया की कोठियों की
जूठन पर आस टिकाये रहती है
बहुत भली है साहब वो
हमारा बच्चा नहीं है साहब
शादी को दस साल हो गये साहब
बहुत भली है वो
आप उसे समझा दो न साहब कि उन डिफेंस वालों के यहाँ
बर्तन माँजने मत जा
उन्‍होंने ही तो बन्द किया हुआ है हमारा रास्‍ता सामने यह जो कच्चा रास्ता है,
डिफेंस वालों के घेटो से होकर ही जाता है बड़ी सड़क तक
हमें समझते हैं चोर
बनने ही नहीं देते पक्‍की सड़क

आप तो समझ ही सकते है
यह सड़क यदि होती वहाँ तक
तो मौके की जगह पर कही जाती मेरी दुकान

पर तब मेरे पास होती क्या ये भी ?
००

के रवीन्द्र

पुस्तक मेला

खरीदी गई किताबें मित्रों की थी
अपना मामला तो मित्रों से मिलने और
पुस्तकों के संसार के बीच होना था
ऑटो से उतरा
आनन्द विहार बस-स्टैण्ड पर लदा-फदा

चौराहे के छोर पर
ठीक मुँह के आगे
सोने की घड़ी के लिए लड़ते-झगड़ते
हुए थे प्रकट वे तीन
घड़ी वाला पुकार रहा था सहायता के लिए
बाकी दोनों झपट रहे थे
चाहते थे मनमानी कीमत पर मिल जाए
सोने की घड़ी
घड़ी वाला था असहाय

जमाने को जानने की समझ ने उकसाया,
बिना दिये ध्यान अपने में ही रहूँ खामोश,
हथेली पर उड़ेली तम्बाकू
चूना निकाला
मलने लगा खूब
फटकी भी मारी खूब-खूब

अपनी होशियारी पर हुआ यकीन
जब पाया कि बेकाम का साबित हुआ उनके लिए

चाल में बढ़ी थोड़ी अकड़
किया चौराहा पार
पहुँचा दूसरे छोर,
दृश्य वही था-
सोने की घड़ी के लिए झगड़ रहे थे दूसरे तीन
चौंका-क्या पहचान लिया गया मैं-मूर्ख हूँ ?
और बेबात ही बीच में पड़ जाऊँगा ?

जतलाते हुए फिर से, मत समझो बेवकूफ
तुम लम्पटों से भी ज्यादा हूँ लम्पट
एक किनारे रुककर घूरने लगा घड़ीबाजों को

बेकाम का साबित हुआ अब भी

थैलों से लदा-फदा ही दिखा जैसे दूसरा
सोने की घड़ी की छीना-झपटी का खेल खेलते
प्रकट हुए अन्य तीन
यात्री होशियार था
तेजी से निकल गया दूसरे छोर

मन था कि रुकूं कुछ देर
देखूं कुछ और दृश्य
चौराहे पर हर दिशा में थे
छीन-झपट कर हथिया लेने वाले
सोने की घड़ी के खरीददार
और सोने की घड़ी वाला असहाय

खेल रुका होता तो दिखते
एक दूसरे में गलबहिया डाले
निगाहें ताक रही होतीं शिकार

थोड़ा अक्‍लमंद, थोड़ा चालाक और थोड़ा लम्पट
दिखते हुए
न जाने कितने गुजरे
खिलाड़ी फिर भी थे तत्पर

बेहद मासूम और प्यारे-से लगने लगे वे बीस
जो साबित हो रहे थे उन्नीस
मन हुआ फिर से गुजरूं चौराहे के एक छोर से दूसरे छोर
और लुट ही जाँऊ

जबकि उपथिति मेरी दर्ज हो चुकी थी
अनजान बने रहते हुए भी
वे नहीं थे अनजान कि ताक रहा हूँ मैं भी उन्हें
जैसे ताक रहा था मुझे प्रगति मैदान।

००

कहाँ पर

क्या आपकी जेब मार गया पॉकिट-मार
पड़ोसी ने दाब ली जमीन
या किसी हुड़दंगी मोटर-साइकिल सवार
की चपेट में आकर गंवा चुके अपना कान

आपका मामला
क्या उस बहन के मामले से ज्यादा है दिक्‍कत भरा
अब भी खड़ी है जो थाने में बिना साक्ष्य के
कि सीने पर उसके पँजे गड़ा तेजी से गुजर गया है
मोटर-साइकिल सवार

पुलिस वाला सीने पर जगह-जगह
रख-रखकर हाथ
पूछता है,
यहाँ पर, यहाँ पर,
कहाँ पर
मारा था हाथ उस हरामी ने मेडम
बताइये तो ?
००


भरे बाजार

दोहरे पल्लों के साथ
दरवाजा बंद है जाली वाले दरवाजे से अँधेरे के पार दिखता नहीं कुछ
खिड़की से दिख जाता है दृश्‍य समूचा
आगन्तुक की आहट,
कॉल बेल की आवाज,
सब सुनायी देती हैं भीतर
लेकिन कदम उठते हैं तसल्‍ली के बाद ही
खमोशी घिरी रहे तो
बना रहता है भ्रम
भीतर किसी के न होने का
लौट ही जाता है आगन्तुक

हुनरमंद सैल्समैन लेकिन, जानता है
खिड़की पर टिकी हैं निगाहें

झाड़ फानुस पर जमीं धूल के साथ
खींच लेता है वैक्यूम क्लीनर
कीमत बताने से पहले
खुले गये खिड़की के पल्‍ले  के रास्‍ते
सरका देता है गिफ्टनुमा, कुछ,
खुले अंगों को धोने वाला साबुन ही सही
एकदम मुफ्त

तुरन्‍त नहीं जरूरत, कोई बात नही नाम पता दर्ज कर लेता है मरदूद
घर में होते हुए भी खींच ही लेता है भरे बाजार।


सुना सुना ही
एक

कितना तो मुश्किल होता है, जब जान लेते हैं
परागकणों के निषेचन से कली बनती है फूल
पत्तियों का कलोरोफिल जड़ों से सोख लाये लवण की
धूप भरे आकाश के नीचे जुगाली करता है
भैसों के थनों से उतरने वाला दूध
माँ  के दूध से अलग है ही नहीं

मुश्किल हो जाती है बड़ी,
जब जान लेते हैं, अँधेरा यूंही नहीं
जगमगाते सूरज का प्रकाश कहीं ओर गिर रहा है
हम उस जगह पहुँचना भी चाहें तो
अँधेरे में डूबी वहाँ की बस्तियों में
ठहरने के लिए भी नहीं कोई ठौर
००

दो

दारा सिंह सुना गया योद्धा है
देखा गया पूँछ वाला वानर नहीं

कितनी ही बार तो बच्चे
जब आपस में खेलते हुए झगड़ रहे होते थे
तो दूसरे को कहते ही थे -
बड़ा दारा सिंह बना फिरता है, देख लूंगा तुझे तो
सचमुच के दारा सिंह को
उसने देखा नहीं होता उस वक्त तक
सुने सुनाये से ही दारा सिंह
दारा सिंह होता है

देख लेने की जितनी उत्सुकता
बच्चों को थी -
क्या दारा सिंह भी उतना ही उत्सुक था,
खुद को प्रकट कर देने के लिए
हनुमान बना उछल-कूद मचाता हुआ
टेलीविजन स्क्रीन पर दौड़ रहा दारा सिंह तो
वैसा ही बहादुर है
जैसा बादशाह का मुकुट पहना कोई फिल्मी एक्टर

बच्चा हो जाता है उदास
झूठ मूठ में ही डरता रहा और
डराता रहा वह अपने साथियों को आज तक।

००

महावीर वर्मा

भाषांतर

भाषा व्यवहार को बरतने
और व्यक्त करने का
सीधा-सीधा यंत्र है

एक ही भाषा को बरतते हुए भी
पनवाड़ी के पान का स्वाद
और पीक से दीवारें रंगने वाले
दलाल, माफिया और गुंडई का रंग
एक जैसा दिख सकता है
भाषा में चमत्कार पैदा करके
कवियों में कवि हो जाता है विशिष्ट
तराशे हुए शिल्प में चालाकियों को भी
छुपा लेता है कलाबाज

कर्ज में डूबे देश की सांख्यिकी बताती है

जो अभी-अभी पैदा हुए तीन सौ नवजात शिशु
हमारे कर्जों का बंटवारा उनके सिर भी चढ़ गया
इतराये नहीं कि औसत बिगड़ गया और कर्ज हो गया कुछ कम
एक और आंकड़ा है मरने वालों का
जिनके हिस्सों का कर्ज औसत को संतुलित कर रहा है
एक दूसरा आंकड़ा है,
दुनिया पर राज करती मुद्रा के बरक्स
हर सैकेण्ड गिरती जा रही मुद्रा का
उस पर भी गौर करें
आंकड़ों का भी पसीना छूट रहा है जिससे

एक ही भाषा में तीनों का मतलब
कैसे समझाएं कि अक्षर ज्ञान से दूर रखे गए
कारीगर को भी समझ आ जाए कि
कितनी कुशलता करोगे हासिल दोस्त
कि नयी से नयी तकनीक पिछड़ जाए
बल्ली, फट्टे, पतरें लोहे की, टिक जाएं तो छत पड़े
लुहार के छील गए हाथों से रक्त बहता नहीं
कील घुँप गई हैं पतरें सेट करने में
आच्छादित लोहे की छड़ों पर दौड़-दौड़कर
गारे-सीमेन्ट का मसाला दौड़ते-दौड़ते
धप्प गिर रहा है मिस्त्री के पांवों पर
कितनी मंजिला इमारत बनाना चाहते हो ?

तराई के लिए लबालब भरी छत पर खड़े होकर  कहो
कारीगर की आँखों में झाँककर
जो तीसरी मंजिल तक सीधी खड़ी दीवार पर
छाप रहा है अपनी कारीगरी का छपाक
पहले फंटी फिर समदा-रूसा, उसके बाद
गुरमाला से हल्के-हल्के दबाव
सूत डाल कर देख लो कितनी सीधी है दीवार
गोले-खसके जो भी चाहिए
बनाने में उसको कहाँ इतना खपना है

सिर्फ भाषा से रची नहीं जा सकती
सीधे सिर उठाकर भीतर घुसने वाली
ऊँचाई भर की देहरी भी।      



ठेकेदार
एक

राज-मिस्त्री नहीं था वह
न ही था बिजली फिटिंग करने वाला कारीगर
प्लम्बर  नहीं था, बढ़ई भी नहीं
और न ही था जाम हो गई नाली को
कीचड़-कीचड़ उतरकर साफ करने वाला

झूठ बोलना उसका पेशा है
इधर का झूठ उधर का सच
उसका कार्यव्यापार
दलाल है वह
कहलाता बिल्डर, सप्लायर और कभी ठेकेदार

दो

बोले गये उन झूठों का मत करें मिलान;
वायदे के मुताबिक काम पर न पहुँचने वाले राज-मिस्त्री ने भी बोला था जिसे,
उलझी हुई तारों को
स्विच में खोंस कर काम निपटाने की बजाय
न आने के झूठे बहाने बनाने को भी भूल जायें
जानते तो हैं ही
अगले काम की तलाश की भटकन को छुपा लेने की
बेअभ्‍यासी कोशिशें थीं वे

आपका नाराज होना वाजिब होता,
पहचाना होता जो आपने
वह कौन था जो बोल गया
बिल्कुल सफेद झूठ।



तीन

घिस रहे पत्थरों पर
उभर रही आकृति कितनी,
कितनी-कितनी चमक

और, और घिस मेरे घिसय्या
और, और, और कर साफ मेरे भय्या
चमक देख मालिक हो जाए खुश

देख न पाये कि कैसे रह गया मिलने से रेशा
भूल जा कि जमाकर निकल चुका है वह मरदूद
पत्थरों को जमाने का सौंपा था जिस मैंने काम

मालिक अनजान है
मत बोल
बता मत तू उसे
बस फिकर कर कि लगातार खुलती रहे चमक
देखने वाला हो जाए दंग
दिहाड़ी तब ही दे पाऊंगा मैं तेरी,
बदरंग !

००

28 नवंबर, 2017

पड़ताल: गर्माहट से बर्फ करतीं कविताएं

नवनीत शर्मा


नवनीत शर्मा
उमा जी की कविताएं पढ़ता रहा। कभी मैं तस्सवुफ यानी अध्यात्म की नदी में नहाया... कभी प्रेम की सघन बूंदों ने मेरे पाठक के बाल सँवारे, कभी मेरा दिल किया कि मैं एक पेड़ के पास जाकर खड़ा हो जाऊं और उसे उसे कहूँ, 'मुझे अपनी आगोश में ले लो।' पहली कविता है, 'बर्फ आैर खा़क।' यहीं से एक सघन यात्रा शुरू हुई और काफी आगे तक गई। सिलाइयां जब मौन की हों तो सन्‍नाटे की ही स्‍वेटर बननी थी लेकिन उसकी गरमाहट में कोई बर्फ हो रहा था और कोई खा़क़। वाह..। प्रेम की इस सघन अनुभूति को इतने संक्षेप में कहने के लिए आभार। यहीं मुझे बशीर बद्र का शे'र याद आया,

वो जाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
जो दूसरा उसे पहने तो दूसरा ही लगे

लेकिन उमा जी कविता में स्वेटर और उसके संदर्भ और हैं, कहीं अधिक फलित हैं। यहां गरमाहट में भी बर्फ होने की विडंबना है। यहीं आकर कविता हमें अलग रूप में मिलती है।

दूसरी कविता ने मुझे तत्‍काल पाश के पास ले जा पटका..सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना। यह उर्दू शब्‍दावली के मुताबिक चरबा नहीं है। चरबा यानी चोरी। महफूम कहीं भी किसी से भी मिल सकते हैं। और इस कविता की बनावट और बुनावट दोनों अलग हैं। यहां बात सपनों के गायब हो जाने के खतरे से आगाह कर रही है। एक अंग्रेजी कहावत याद आती है, who dream the most do the most... खूबी यह भी है कि इस कविता के साथ भले ही कविता में ट्रीटमेंट अलग है और कहन भी अपनी है लेकिन ऐसा लगा कि इतनी नफीस और सूक्ष्‍म बात कहने वाली कविता आडंबर जैसे घोर गद्यात्‍मक और कविता की गति को मंथर करने वाले शब्‍द के मोहपाश में क्‍यों फंस गई।

उमा झुनझुनवाला
चौथी कविता ने मुझे गहरे तक उदास कर दिया। बहुत खूब। ऐसी गरिमामयी पीड़ा कि घुट घुट कर रोने को जी किया। थॉमस हार्डी का निराशावाद में भी आशावाद और रॉबर्ट ब्राउनिंग का अपनी प्रेमिका की कब्र पर फूल रख कर यह कहना कि यह तुम्‍हें मेरी याद अगले जन्‍म में भी दिलाएगा....यानी आशावाद में भी एक निराशा। यह कविता इन दोनों स्थितियों के बीच कहीं यह कविता हमें ला पटकती है। उदास भी करती है और ढाढस भी बंधाती है। यहां लुटपिट कर भी पिफर से होने की जो उम्‍मीद है, वह अवसाद और संतोष के बीच कहीं खड़ा करती है। कल से इस कविता को पढ़ कर सुबह ग्रीन बनाते हुए गुनगुा रहा था...

रहें न रहें हम, महका करेंगे...

अरे !!!!! तुफैल चुतर्वेदी का एक शे'र भी याद आया :

अपनी तस्‍वीर तो दे जा एे बिछड़ने वाले
डूबते शख्‍़स से तिनका नहीं छीना करते।

इस कविता पर निशब्‍द हूं। पांचवीं कविता भी ग़ज़ब है। अन्‍य कविताओं की अपेक्षा यह अधिक मुखर है लेकिन इस मुखरता में भी जो शालीनता है, वही उमा झुनझुनवाला होना है शायद। प्रवीन शाकिर की याद किसी टिप्‍पणी में की गई है। हिज्र कविता को पढ़ते हुए वाक़ई याद आईं मुझे भी मेरी पंसदीदा शायरा। और....दरख्‍़त पे टंगी मेरी रूह को हिज्र की आदत है...सच कहूं तो लुट गया मैं।

महावीर वर्मा

एक नया ब्रह्माण्ड में अंधेरे और उजाले के संदर्भ बहुत शिद्दत के साथ आए हैं। तीरगी और राेशनी पर बहुत शायरों ने लिखा है, कवियों ने भी। ये दोनों बिंब बहुत प्रयोग हुए हैं। कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्‍मा छूट जाने के अज्ञेय के भय की कट अभी तक तो निकली नहीं है लेकिन इस कविता में भी बात बिलकुल नई आई है। बहुत बार उजाला चौंधिया देता है लेकिन अंधेरा सुकून देता है, अपने पार झांकने की अनुमति देना उजाले के वश का नहीं है। इस कविता के कई अर्थ हैं। एक बड़ा सीधा सा अर्थ है विसंगतियों के साथ लेकर चलने की कुव्‍वत। इसके और पाठ आवश्‍यक हैं।


उन्नत करें
फिर...
सम्पूर्ण सौन्दर्य की मीमांसा
खाएँ अँधेरा पीएँ उजाला
पा लें शीर्ष परमानंद
और रच दें
एक नया ब्रह्माण्ड


उमा झुनझुनवाला जी रंगमंच से जुड़ी हैं....इन कविताओं में मुझे वे इफेक्‍ट भी दिखे हैं। टू द पाइंट बात और वही कहना जो कहने को है। वही कह सकना, जो कहना हो, बड़ी बात है। वरना बहुत लोग बाय प्रॉडक्‍ट से खुश हो जाते हैं। मेरे साथ भी ऐसा होता है, एक शे'र आमद का लग गया... बाकी ग़ज़ल पूरी करने के लिए कसरत। लेकिन इन कविताओं की खूबी यही है कि ये वही कहती हैं जो यह कहने वाली थीं। ये कविताएं रहेंगी और बाखूबी रहेंगी।


जब कभी तुम
अपनी बाईं ओर देखोगे
मेरे होने की गंध
पिघल कर चुपके से
तुममे व्याप जायेगी

फिर बतियाएंगे
हम वही सारे क़िस्से
शब्दविहीन ज़ुबानो में
और मुस्कुराएंगे
कई कई जन्मो तक
००
उमा झुनझुनवाला की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़ी जा सकती है - https://bizooka2009.blogspot.in/2017/11/blog-post_52.html?m=1

नवनीत शर्मा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं। दैनिक जागरण में वरिष्‍ठ समाचार संपादक के पद पर कार्यरत। एक कविता संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' 2016 में प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह शीघ्र प्रकाश्‍य। एक पुस्‍तक ' साग़र पालमपुरी - व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व। ग़ज़लें रेख्‍ता पर उपलब्‍ध। 

27 नवंबर, 2017

प्रतिभा चौहान की कविताएं:


प्रतिभा चौहान:  हैदराबाद में जन्मी प्रतिभा चौहान ने एम ए ( इतिहास ) और एल एल बी की पढ़ाई की है। आप प्रमुखता से कहानी और कविता लिखती है।
आपकी रचनाएं वागर्थ, हंस,  निकट, अक्सर, जनपथ, अंतिम जन, छपते-छपते, चौथी दुनिया, कर्तव्य-चक्र, जागृति, यथावत, गौरैया, सरिता, वाक्-सुधा, साहित्य निबन्ध ,पंजाब टुडे, सृजन पक्ष, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, प्रभात खबर, दैनिक जागरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हुई है।

शब्दांकन, लिटरेचर पाइंट, कृत्या, मीडिया मिरर, प्रतिलिपि ब्लाॅग्स, कविता कोश  में कविताएं प्रकाशित हुई है।

आपके लेख आजकल ,अंतिम जन, विकल्प है कविता , इरावती, चौथी  दुनिया, संवेदना एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की संचयिका एवं जर्नल में प्रकाशित हुए हैं।

आपका कविता संग्रह- पेड़ों पर मछलियाँ , प्रकाशित है।

एक कहानी संग्रह  " स्टेटस को" शीघ्र प्रकाश्य है।

आपकी रचनाएं  देश की विभिन्न भाषाओं में  अनूदित हुई है।  आप अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय सेमिनार में शिरकत व आलेख का पाठ कर चुकी है। आज बिजूका के साथियों के लिए प्रतिभा चौहान की कविताएं प्रस्तुत है।




कविताएं



एक

राष्ट्रीय-चरित्र

यूनान की खूबसूरती,
रोम की विधि,
इस्राइल का मजहब,

हे देवों
भारत का धर्म तो
ईश्वरीय पूँजी का पुँज है

आकाश की गूँज है
सूरज की गठरी है

तुम धरती पर आकर देखो
उन्हें कर्मकाण्ड मिले हैं सौगात में
और मुझे तत्वज्ञान का दर्शन

उन्हें अभिमान है ईश्वर होने का
तो प्राणियों पर दया मेरा मौलिक स्वभाव

उनकी भेद भरी दृष्टि
तो मेरी एकात्म अनुभूति--बेमेल है

प्रदीप्ति अतीत से
छनकर आती सुनहरी धूप की गरमी
दीप्तिपूर्ण प्रिज्म की त्रिविमीय श्रृंखला है

पर
शायद तुम्हें अहसास भी नहीं
चन्द दिनों पूर्व उड़ता हुआ चाँद
नीली झील में गिर गया

जिसे ढूँढा गया
खेल के मैदान से विज्ञान की लैब तक
सुनो
कल रात्रि दूसरे देशों ने
उसे अपनी नीली झील से निकाल लिया

जानते हो ?
त्रासदी पूर्ण नाकामी में
उनकी खामियों की जड़ें
राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में पोषित हो रही है

हे देव
अभी समय है
बिखेर दो धरा पर राष्ट्रीय रंग
गढ़ दो नया चरित्र

ओ धरा
अब जन्म दो
वीर सपूतों को
जो निकाल सकें उतराते हुए चाँद को
दिन रात के अथक प्रयत्नों में
अपनी देह -पाँवों को छलनी कर देने वाले ज़ज़्बों के साथ
जन्म जन्मान्तर के लिए।
००

महावीर वर्मा


                  दो

हमारे हिस्से की आग

पत्थर सरीखे जज़्बात
एक टोकरी बासे फूल भर हैं ,

शब्दों का मुरझा जाना
एक बड़ी घटना है
पर चुप्पियों को तोड़ा जाना
शायद बड़ी घटना नहीं बन पायेगी कभी ,

इस रात्रि के प्रहर में
घुटे हुये शब्दों वाले लोगों की तस्वीर
मेरी करवटों सी बदल जाती है

खामोशी की अपनी रूबाइयाँ हैं
जिसका संगीत नहीं पी सकता कोई

सूरज की पहली किरन को रोकना
तुम्हारे बस की बात नहीं
न आखिरी पर चलेगा तुम्हारा चाबुक
थाम नहीं सकते तिल तिल मरते अँधेरे को

नहीं बना सकते तुम हमारे रंगों से
अपने बसंती चित्र ,

नहीं पी सकते
हमारे हिस्से की आग
हमारे हिस्से का धुँआ
हमारे हिस्से की धूप
हमारे हिस्से की हँसी
पत्थरों से फूट निकली है घास
नही रोक सकते
उनका उगना , बढ़ना , पनपना
जिस पर प्रकृति की बूँद पड़ी है

अंतहीन सौम्यता की जुब़ान
अपनी भाषा चुपके तैयार कर रही है
जो खौफनाक आतंक को फटकार सके
कर सके विद्रोहियों से विद्रोह
सीना ताने , सच बोले ,
जिसका संविधान की अचुसूचि में दर्ज किया जाना जरुरी न हो

तब,
यदि ऐसा होगा

हे भारत।।
वो इस ब्रह्माण्ड की
सबसे शुभ तारीख होगी।
००


            तीन

आज का दिन

शताब्दियों ने लिखी है आज
अपने वर्तमान की आखिरी पंक्ति

आज का दिन व्यर्थ नहीं होगा
चुप नहीं रहगी पेड़ पर चिड़िया
न खामोश रहेंगी
पेड़ों की टहनियाँ

न प्यासी गर्म हवा संगीत को पियेगी
न धरती की छाती ही फटेगी
अंतहीन शुष्कता में

न मुरझायेंगे हलों के चेहरे
नहीं कुचली जायेंगी बालियाँ बर्फ की मोटी बूँदों से

बेहाल खुली चोंचों को
मिलेगी समय से राहत

नहीं करेगी तांडव नग्नता
आकाश गंगा की तरह ,

पीली सरसों से पीले होंगे बिटिया के हाथ
अबकी जेठ- घर – भर,
आयेगा तिलिस्मी चादर ओढ़े ,

न अब उड़ेगा ,न उड़ा ले जायेगा
चेहरों के रंग
आँखों के सपने ,
दिलों की आस,

भर देगा आँखों में चमक
आँखों से होता हुआ आँतों तक जायेगा

बुझायेगा पेट की आग ये बादल
आज के वर्तमान में।
००




                  चार

   कैक्टस

शायद कैक्टस के रहस्य
थार के रेगिस्तान में मिल जायें......

तब तुम अपने व्यक्तित्व की ऊपरी परत को छूना......

उभर आयेगी आँखों में
एक ही तरह के कई प्रतिबिम्ब

फिर छूना भीतरी तह.......

धो देना तब बरसों से
गले में अटकी फाँस को ।
००

महावीर वर्मा


     पांच

गौरव-अतीत

इस देश के चेहरे में उदासी
नहीं भाती मुझे
बजूद की विरासत बंद रहती है
तहखानों में कैसे कोई राजा अपना स्वर्ण  बंद रखता है
पेड़ों पर उगने दो पत्ते नए
गीत गुनगुनाने दो हमें
हमारे गीतों की झंकार से
उन की नींद में आएगी शिकन
मेरी वज़ूद की मिट्टी कर्जदार है
मेरे देश की
अपनी परछाई की भी
इन चमकती आंखो में
खुद को साबित करने का हौसला
नसों में दौड़ता करंट जैसा लहू
नई धूप के आगोश में
बनेंगे नए विचार
जिनकी तहों लिखा हुआ हमारा प्रेम
रेत सा नही फिसलेगा
हमारी विरासत की प्रार्थनाओं में विराजमान हैं
हमारे वर्तमान के संरक्षक
हमारे डाले गए बीज
प्रस्फुटित होने लगे हैं
धरा ला रही है बसंत
देखो
फिर से गौरव-अतीत लौट रहा है
००

             

                छः

मानवीयता एक नैतिक आग्रह

मानवीयता
एक नैतिक आग्रह है,
संघर्ष की जिजीविषा है...

अभिषप्त दायरों को तोड़ती दुनिया पत्थरों की तरह
विद्रूपता और मिथकीयता में
सभ्यता विमर्ष
बस, बौद्धिक स्वर भर

बदलाव की खाई भरने के लिये
त्र्मृण की लिपि व स्याही सूख चुकी है
अब बंद करो देवताओं के गान
चीत्कारों मे मत ढूँढो संगीत

नई कलम तराशकर लिख जाने दो
स्वाभाविकता का प्रेम संदेश

क्योंकि अब न राजा है
न प्रजा
न साम्राज्य ।
००


सात


जानी पहचानी

पुनर्जन्म सी

अपने जातिगत उभार में

आदिम प्रकृति का समकालीन पाठ करती हैं


घात में बैठा है हर एक शिकारी....


कोई फर्क नहीं

शिकार चाहे जानवर का हो

या इन्सान का ,

खून जानवर का बहे

या इन्सान का ,

कोई फर्क नही पड़ता


आखि़र....

आखेट की संतुष्टि भर कहानी ही तो है

शिकार और शिकारी

घात प्रतिघात

चलता परस्पर युद्ध


सतर्क बैठा है वो

खुद शिकार किये जाने के भय के साथ

कभी कभी दंश भी

उसको सतर्क किये रखता है


आईने में आईने झाँकते हैं -

और चेहरे !

चेहरे गायब

जटिल प्रश्न ?


अब कौन सवाँरेगा उन चेहरों को

गंभीर , नम्र, सादगी भरे चेहरों को

कौन पढ़ेगा

उनके हृदय की गीता -रामायण को,


शायद अब

प्रतिद्वन्द्विता में

नहीं सँवरेंगे चेहरे

ना साफ होगी आईनों की धूल


क्योंकि

परम सुख , इह लोक माया

चरम सुख है आखेट

होड़ है , बाजार में

कौन बनेगा सबसे बड़ा शिकारी,

जो समाज में ईनाम पायेगा

सिर उठाकर फक्र से जियेगा


मरने के बाद

इतिहास लिखा जायेगा ।
००



                   आठ


सार्थकता की तलाश में


सार्थकता की तलाश में

ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर

चलती है राष्ट्र भावना की संवेदना की भाषा...


घर द्वार, प्रेम व्यवहार

जीवन की आशा ,

जीने की अभिलाषा

खेत खलिहान

बाग-बगीचों , खपरैल छप्पर

कच्ची गली, ताल-तलैय्या

अंतर्मन को याद दिलाती

भीनी भीनी मिट्टी की खुशबू की भाषा


परिवेश ,मनोवृत्ति में

शिक्षा , अनुभव,

व्यवहार और संस्कृति में

संबंधों की भाषा

अनुशाषन और अन्तर्द्वन्द्वों की भाषा,


जनने दो

कोमल मन की पवित्रता और ईमान की भाषा

बढ़ने दो.

पुरखों से सीखी प्रेम ,त्याग और समर्पण की भाषा

पढ़ने दो,

दबे कुचलों को तिरस्कार की भाषा

समझने दो

लड़ने दो हक के लिये,

मिटने दो

आततायियों की भाषा।
००

   
महावीर वर्मा

नौ


नियति


काला बादल निगलने की फिराक में है....

नीला आसमान

लाल सूरज

हरी धरती

पर हजार बृह्माण्डों की ताकत भी

असफल रही नियति को निगलने में।
००


        दस


माँओं की नींद


गुथ जाती है माँओं की नींद

लोरियों में,

जिनसे बुना होता है

हमारे सपनों का संसार

आजाद पंखों से उड़ने वाली बुलबुलें

उड़ा ले जातीं हैं माँओं की नींद भी

गूँथती हैं अब वे

अपनीं नींदों को

नये सपनों को बुनने के लिये,


माँयें कभी नहीं सोतीं.......
००



    ग्यारह

समर्पण


मैं दरिया हूँ

निश्चित है कि समुन्दर में मिलूँगी


और तुम मेरे समुन्दर हो

निश्चित है कि

मुझे अपने आगोश में लोगे


कुछ इस तरह मुझे अपने वजू़द को

तुममें मिटाने की ख़्वाहिश है।
००

26 नवंबर, 2017

संजय कुमार अविनाश की कहानी:

                                 परबतिया
                          संजय कुमार अविनाश

ज्योंही आंखें खुली, रोने की आवाज सुनाई पड़ी। चौंक गई, पता नहीं किसकी आवाज थी।बिछावन छोड़ इधर-उधर झांकने लगी, कहीं किसी की छाया तक नहीं मालूम पड़ी।
आखिर आवाज किसकी है, करूण स्वर में रोये जा रही थी। फिर उसी कमरे में पहुंच, आती आवाज को ढूंढ़ने लगी। सोची, कहीं मैं भ्रमित तो नहीं?
शौच व ब्रश के बाद, अलमीरा से कपड़े निकाली और बाथरूम की ओर चली गई। स्नान कर ही रही थी, फिर वही स्वर, इस बार पीड़ा से भरी थी। आश्चर्य हो सोची, अभी-अभी तो हर जगह ढूँढ़ कर आई हूँ, फिर है कहाँ? डरी-सहमी हुई, अधोवस्त्र में स्नानघर से बाहर निकल आई और आवाज लगाई, "कौन हो तुम? कहाँ छुपी हो, क्यों रोये जा रही हो? सामने आओ, मैं मदद करूंगी।"
प्रतिउत्तर में वही स्वर आई, "मुझे बचा लो। मैं मरना नहीं चाहती।मैं भी जीना चाहती हूँ, इस दुनिया को देखना चाहती हूँ।"
बारंबार एक ही बात सुनाई दे रही थी, "मुझे मत मारो, देश का भविष्य हूँ, मैं।"
मेरी परेशानी बढ़ने लगी। हिम्मत करके बोली, "तुम कहाँ हो, मुझे बताओ। मैं जरूर मदद करूंगी। विश्वास करो और सामने आओ।"
"मैं अंदर हूँ।मारोगी नहीं न---?" फिर आवाज के साथ रोने की आवाज।
अपने आप को संभाली और उसी समय संकल्प कर बैठी, "जो भी हो, इस मासूम को दुनिया की सैर करवाऊंगी। मरने नहीं दूंगी, प्रकृति से ही क्यों न लड़ना पड़े, कोई आंच नहीं आने दूँगी।"
अचानक सुरीली आवाज में खिलखिलाती हुई आवाज आई, "तुम मेरी सबसे अच्छी माँ हो।"
माँ शब्द सुनते ही मैं बलवती हो गई। एक अच्छी माँ की सार्थकता महसूस करने लगी।
दरअसल, मैं पास के ही जी.डी. काॅलेज में पढ़ती थी। काॅलेज में सराही जाती।खासकर खेलकूद में तो लड़कियों में अव्वल रहती ही थी। मेरी खुशी में दखलअंदाजी बढ़ गयी। बाहर तो बच जाती, पर घर में ही भेड़िया वास कर गया। माँ सब कुछ जानती हुई भी अनजान बनी रही। जब कभी जी मिचलाता या उल्टियां होती तो कोई दवाई मंगा, खिला देती। कई बार तो गर्भपात की गोली भी खिला चुकी थी। दवाई खाने के बाद पत्ते को पढ़ती तो नाम भी गजब, अनवानटेड किट। समझ नहीं पाती, यह अनवानटेड से क्या ताल्लुक, अब समझ में आई, वह अनचाहे गर्भ की दवा होती थी। अबकी बार गर्भ के विषय में किसी को नहीं बताई और न ही उबकाई। खुशी के साथ घिन भी आती, आखिर जन्म देने के बाद नाम क्या दूँगी।
मन का सुनूँ या समाज का--- किसी का भी सुनूँ, बिखड़ना तो तय है।
घर के बाहर आंगन में सीढ़ी के साथ हो, सोचने में तल्लीन हो गई कि अचानक गौरव की आवाज सुनाई पड़ी, "कहाँ खोई हो?"
उसकी आवाज सुन अचंभित हो गई। कहीं मेरी सोच तो नहीं समझ गया। अस्तव्यस्त मन को सुदृढ़ किया और गौरव की ओर मुखातिब हो बोली, "कब आये हो?"
"मैं तो काफी देर से देख रहा हूँ, अपनी धुन में मगन हो। सुंदर दिख रही थी, देखता रहा।" उसने कहा।
"कैसी जरूरत पड़ी? क्यों आए हो? पिताजी को पता चला कि घर भी आते हो, पता नहीं और कितनी मुसीबतों से तालमेल करनी पड़ेगी। अभी निकल जाओ। काॅलेज आ रही हूँ।" डरती व इधर-उधर निहारती हुई एक साथ बोल गयी, वह समझ गया। वह कोई बच्चा तो था नहीं। साथ ही बी.ए. पार्ट टू, समाज शास्त्र का छात्र था।
***

K Thouki

समय से कुछ मिनट पहले काॅलेज परिसर पहुंची ही कि वह हांफता हुआ आया, जैसे वर्षों से बिछुड़े हो। करीब पहुंचते ही बोला, "पारो, बहुत ही कीमती चीज खो गई है, तुम्हारी मदद चाहिए?"
देखने से तो ऐसा ही लगा। उसकी बेचैनी में खोना जैसा ही महसूस किया।
 "ऐसा क्या?"
वह थोड़ा गंभीर होते हुए जवाब दिया,  "तुम्हारी हँसी जो किसी अंधेरे में गुम होती जा रही है। बताओ कहाँ है?"
मैंने भी उसी गंभीरता में हँसी की पुट भरी और बताई, "मुझे नहीं मालूम,  ढूँढ़ निकालो।"
उसने मेरे नाक पर अंगुली का स्पर्श करते हुए कहा, "ये रहा, मिल गई।"
उस हरकत से गुस्से में लाल हो गई। आसपास छात्र-छात्राओं की भीड़ जो थी।उसे डांटती हुई बोली, "बेमतलब की चुहलबाजी मत किया करो, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।"
उसने कुछ दूरी बनाते हुए संकोची बन कहा, "ऐसा ही है तो, यही प्रश्न तुमसे करता हूँ; आखिर हुआ क्या? न तो पढ़ाई पर ध्यान देती हो, न ही अपनी हँसी पर?"
क्षण भर के लिए मेरी चुप्पी बनी रही। कुछ भी जबाव देने से कतराती रही।
दरअसल, हमदोनों के मित्रता में पारदर्शिता के साथ प्रोत्साहन की भी अभिव्यक्ति थी।
गुमसुम रहना उसके अंतर्मन को झकझोर दिया। शायद सोचने लगा, कुछ तो ऐसा है, जो दूरियाँ बढ़ा रही है। उसने तरह- तरह से मेरी खुशी के लिए प्रयासरत रहा। फिर भी पता नहीं चल रहा था कि परेशानी कहाँ से उत्पन्न हो रही है। 
एक दिन अनायास क्या सोचा या देखा कि वह अचेत हो गया। उसकी जब आंखें खुली तो खुद को अस्पताल में पाया। इर्द-गिर्द अपनों-परायों की भीड़ लगी हुई थी। बुदबुदा रहा था, "मुझे छोड़ गई---।"
मालूम पड़ते ही मैं गौरव को देखने अस्पताल पहुंच आई। गौरव वह मुझे देख, मुँह फेरते हुए बोला, "चली जाओ, तुम्हें देखना नहीं चाहता।"
उसकी बात सुन अवाक रह गई। आखिर कैसी गलती हुई मुझसे।हिम्मत नहीं जुटा सकी, कुछ देर रूक जाएं। धीरे- धीरे उससे ओझल होती गई। हालात तो चलती- फिरती लाश जैसी हो गई थी। बिना जवाब-तलब किए गौरव को भी असमंजस में डाल दिया।
इधर जब-तब नहीं बल्कि हमेशा मेरे बारें में ही सोचना उसकी नियति बन गई। तबीयत में सुधार होने के बाद, नजदीक के ही बाजार में उससे मुलाकात हुई। अबोध की तरह जिद मचाते हुए कहा, "बताओ, सच्चाई क्या है? ऐसी हालात क्यों बनाई जा रही हो?"
"तुम भी एक वजह हो।एक तो है ही, उसे खोना नहीं चाहती।" रुआँसी हो उससे मैंने कहा।
"मुझे क्यों नहीं पता?" उसका फिर एक एक प्रयास था।
"मैं नहीं चाहती कि जिस दलदल में पांव जा चुकी है,  छींटे किसी औरों के दामन पर जा गिरे?" मैंने कहा।
"अच्छा! यह दोस्ती है? सुना करता हूँ, दोस्ती तो आईना है।" उसने दार्शनिक अंदाज में बयां किया।
"आईना होता तो देखा क्यों नहीं कि पारो में दाग है। मेरी चुप्पी को क्यों नहीं परख पाया। सच यही है कि आज भी तुम अबोध हो।" वह सुनता रहा, मैं बोली जा रही थी, "पारो को जानते हो? न-न, तनिक भी नहीं जानते। जानते तो पता होता, कोशिश भी नहीं करोगे। समुद्र की गहराई मापने से, डूबने के सिवाय और कुछ नहीं। आंकना, संभव नहीं गौरव?"
"हाँ,  मेरी हार हुई।"  हँसते हुए उसने मेरी बात टाल गया।
पलक झपकते हीउसकी भी हँसी निकल आई। मन का बोझ जो दूर फेंक दिया। घड़ी की सुई देख, अचंभित हो गई। आनन-फानन में घर पहुंचने को व्याकुल दिखी। वह भी समय से दूर नहीं, मेरे निकलने के बाद वह भी घर के लिए निकल पड़ा।
***

अवधेश वाजपेई

पिता को दरवाजे पर देख सहम गई। कुछ देर पहले की खुशी और आत्मसम्मान को दरकिनार करने की नौबत आने वाली थी। मन ही मन कोसने लगी, जब माँ ने ही पिता का हक नहीं दिया तो जन्म ही क्यों दिया। मेरी तरह वह भी तो मार सकती थी---- इतने में मीठी स्वर कानों से टकराई, "ऐसा नहीं सोचते, हरेक गर्भ में पलने वाला बच्चा कर्णधार होता है। इसे मत मारो! मत कोसो! अपनी जिंदगी से प्यार करो! सब ठीक हो जाएगा।"
जब-जब नन्हीं की आवाजें सुनाई देती, हिम्मत हिलोरें मारने लगती। दुनियावी से लड़ने को तैयार हो जाती--- तब तक मजबूत हाथों ने खींच लिया। गुस्से से लाल हो गई, बगल में पड़ी रड को उठाकर उसपर प्रहार कर दिया। न जाने कहाँ से अपार शक्ति का आगमन हुआ। मानो, सैकड़ों लोग भी विफल हो जाए।इस रूप से भयभीत हो, वह अमानुष पीछे हटता गया। गुस्सा सीमा लांघ चुकी। सामने उसकी पत्नी आई, वह भी देख दंग रह गई। सिर से बहते खून देख सहम-सी गई--- परमेश्वर जो लहूलुहान थे!
मन ही मन सोच रही होगी, अगर हिम्मत करती तो आज पार्वती ऐसी नहीं होती।उसने मुझे गले से लगा फफकती हुई बोली, "जो मैं देखती आई, तुम कभी मत देखना।"
शोर-शराबे सुन आसपास के लोग इकट्ठे होने लगे। शहर की ओर जाती सड़क होने के कारण आते-जाते लोग भी एक नजर जरूर देते। कानों में आवाजें आती, "बाहर में गुलछर्रे उड़ाती होगी, बाप ने ही जरूरत का ख्याल रखा और पूरा कर दिया।दोनों की मिलीभगत होगी।चलो, क्यों समय बर्बाद करें।" आती आवाज को गले तक घुटती रही।
मदद के लिए कोई नहीं तैयार। हर कोई अनसुने कर निकलते रहे। एक युवा कुछ बोलना भी चाहा तो साथ वाले टपक पड़े, "काहे फालतू के चक्कर में पड़ते हो, अपने विषय में सोचो।" वह भी युवक चलता बना।
भीड़ की ओर आंखें तरेर कर बोली, "अरे! आपलोग क्यों अपने जमीर को गिरवी रख दिये हो, मदद तो करके देखो? तुम्हारी भी माँ-बहन मुसीबत में पड़ेगी तो कोई न कोई मददगार आ ही जाएंगे। क्यों इक स्त्री को कमजोर करने पर तुले हो?" अंधेरे में तीर चलाती रही। किसी की जुबान खुलती नहीं देख, फिर धिक्कारती हुई चिल्लाई, "सदियों से एक औरत ही मिली? जानवरों से भी बदतर जाति सुकून की सांसे लिए जा रहे हो। खुद की गलती को महसूस न कर, औरतों पर लांछन लगाने में शर्म नहीं आती? कब तक ऐसा करते रहोगे? कब तक सहेगी? शोषण भी करते हो और चुप रहने की तहजीब भी सिखाते हो? इसीलिए न, पुरूष होने का गुरूर मिट न जाए और सीना तान कर ताल भी ठोंकते फिरो, जिसमें कोई गलती नहीं, वह मुँह छुपाये किसी कोने में सिसकती रहे?"
"आखिर ऐसा क्यों? मुझे भी आजादी चाहिए। हरेक साल आजादी के नाम ढ़ोल-नगाड़े पीटते रहे हो, इस जश्न में कि अपनी माँ को गोरों से आजाद कर लाया हूँ; लेकिन वही माँ उजागर करने में असमर्थ मालूम पड़ रही है, मैं पुरूषों की गिरफ्त में हूँ।शर्म आनी चाहिए, मेरे बिना तुम कहाँ?"
मैं पागलों की भांति बकी जा रही थी। भीड़ की ओर से निगाहें पलटकर फिर शुरू हो गई,  "सुन, तुम्हारी ही तरह औरतों को भी भूख लगती है, पर सहनशील होने का तमगा दे रखे हो। अब तो आदी हो गई है।" 
"सुनो, जब तक अपनी ताकत को छुपाई हूँ, अपनी साख और झूठी शान बघार रहे हो। सोचो, एक नारी शिशु के माथे पर काला टीका लगाती कि अमानत रहो, किसी की नजर न लगे, लेकिन वही काला टीका नंगा करने के लिए भी पर्याप्त है--- उस समय तुम क्या, तुम्हारी रूह भी कांप उठेगी, तब एक जज्बाती रूह से तुलना करोगे, सहवास के समय भी कांपोगे, उसके बिना पुरूषपन भी बेईमानी होगी।"
बोलती हुई थक-सी गई। भीड़ भी छंटती गई।जमी भीड़ की निगाहों में विक्षिप्त करार दी गई।
***
उस भीड़ में गौरव भी था जो अपनी उबाल को दबाये रखा था, उसने सही निर्णय लिया था। अपनी पारो को देख, वीरांगना याद आ रही होगी। सोच रहा होगा, कोई तो है जो काल रूप धारण करने में तौहीनता नहीं समझ रही है। मामला शांत देख, वह भी बिखरती भीड़ के साथ हो गया। 
इस दौरान कईयों के दरवाजे खटखटाई। किसी ने दुत्कार कर भगा दिया तो कोई धंधेबाज बोल तृप्त होता रहा। पुलिस के पास जाने से पहले गांठ बांध ली, वहाँ भी मनुष्यता की बलि ही चढ़ेगी।
***

आखिरी महीने के पड़ाव से पहले नन्हीं सी जान दस्तक दी घर में।लाज-हया को दरकिनार कर, छुपाई रखी थी माँ ने। कोई फर्क नहीं पड़ा।कई बार गर्भपात के लिए भी खरोंची गई, वासनारत था, भोगी। समय मिलते ही नन्हीं सी जान को गोद में लेकर उसने पुचकारने लगा, "उसका भी बाप हूँ और तुम्हारा भी।"
प्रसव पीड़ा से उबर भी नहीं पाई थी, ऐसी बातें सुन झपट पड़ी नन्हीं जान के लिए और उसे ले निकल पड़ी घर से। यही सोचकर कि इस मासूम के साथ कुछ नहीं होने दूँगी। किसी तरह गौरव तक पहुंचकर उससे बोली, "गौरव! अब मुझसे सहन नहीं होता। इस नायाब को अच्छी शुरुआत देना चाहती हूँ, तुम्हारी जरूरत आ पड़ी है?"
वह भी बिना लाग-लपेट लिए कहा, "उससे बचने का रास्ता तो कई है, सुगम एक ही; मेरी हो जाओ। बेटी को ले कहीं दूर चले जाएंगे, जहाँ कोई कीड़े तक न हो।" 
"नहीं गौरव! ऐसा नहीं चाहती, घसीटना नहीं चाहूंगी। पहले भी अपनी सोच उजागर कर चुकी हूँ। ऐसे भी मुझमें है क्या।विवाह क्या है, दो शरीरों का सिर्फ मिलन ही न? वह तो सामने है, अब आत्माओं का मिलन, वह कहने की आवश्यकता नहीं। शरीर के साथ आत्मा की भी छलनी हो चुकी है।" मैंने उससे कहा। उसकी बात से भी संतुष्टि नहीं मिली। उसके पास समय देना उचित नहीं समझी और उल्टे पांव नन्हीं को साथ लिए   बाहर निकल आई। रास्ते भर सोचती रही। अनाप-शनाप बातें दिमाग में कौंधती रही, कभी मर जाऊं तो कभी बेटी को भी साथ ले चलूं। फिर खुद को रोक लेती, आखिर में वही ठौर, बाप के घर पहुंच गई।पहर का इंतजार खत्म होने वाली थी। नींद भी हमेशा अधूरी रहती थी। 
वह जिस्मखोर मासूम को उठा बोले जा रहा था, "जल्दी बड़ी हो जा, मेरे ही साथ रहना। अभी तो काम---- (बातें पूरी भी नहीं हुई) मेरी आंखें खुल गई। भेड़िया को सामने देख क्षण भर के लिए सकुचाई, फिर उसे जोर का धक्का दे मारी। जमीन पर गिरते हुए उसने बोला, "इसे फेंक दूंगा। जितनी जल्दी करीब आओगी, इसे लोगी।"
ममत्व ने समर्पण करने के लिए कहा और प्रसव होने के पखवाड़े दिन बाद ही रौंदी गई।
सुबह फिर उसी एक का सहारा लेना जरूरी समझी। सारी बातें बता दी उसे।उसकी दलील भी समझ नहीं पाई। आखिरकार उससे बोली, "गौरव! जा रही हूँ। दुःख बांटने में भी दुख ही मिलता है। किसी को विपत्ति मंजूर नहीं।"
"मैंने भी तो ऐसा नहीं कहा। इतना तो जरूर कहूँगा, अब तो संभालो, उठाओ खड़ग और कूद पड़ो जंग के लिए।" उसकी बातों में मेरी भी सहमति बनी और उससे बोली, "गौरव! आज मेरी आखिरी नींद हो सकती है। तब तक इस मासूम पर ख्याल रखना।" नन्हीं परी को गौरव के हाथों देती हुई, कठोरता को आत्मसात कर चल दी, भेड़िया की मांद में ।
***
अवधेश वाजपेई

मानसिक रूप से तैयारी पूरी थी। दरिंदगी मिटाने के लिए नींव डाल चुकी थी। मेरी चुप्पी उसने सहमति समझ लिया। उसे पौरूष शक्ति पर गुमान था। मेरी आंखों के सामने एक अलग चमक मालूम पड़ने लगी।असीम उर्जा से पल्लवित हो चुकी थी। वह तो हमेशा भूखा ही रहता था, हरियाली देख मुँह मारना उसकी नियति में था।
उजाले में रौशनी की आहट देख वह भी पास आई और मेरी खुशी देख अचंभित हो गई। शायद उसकी आत्मा अनहोनी की ओर इशारा करने लगी होगी। उस समय तो पतिव्रता मालूम पड़ी, दुनिया का सबसे अच्छा इंसान, हाँ! उसका पति। वह समझ चुकी, अंदर कुछ है। वह समझाने लगी, "पार्वती, उसे नुकसान पहुंचाई तो तुम क्या करोगी?" संभवतः एक से दो का ख्याल आया होगा।
बंद दरवाजे के ठीक बाहर मुस्तैदी के साथ खड़ी थी, मैं। उसकी बातों पर आखिरी बार निर्मात्री का ओहदा दिया, "माँ, अब उसे कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा, हाँ! एक मेरे सिवाय।"
वह सन्न रह गई।अंदर से चीख भरी आवाज आ रही थी। वह चुड़ैल गुस्सा में आ गई और बोली, "तुम क्यों जिंदा हो, तू भी मर जा" और दरवाजा तोड़ डाली। उसकी चीख में अब भी कोई कमी नहीं। चीखते जा रहा था। उसकी चीख में मदद की मांग थी।
अब मैं पार्वती नहीं रही, उसी मांसल देह से रौंदी जा चुकी थी। समय को अपने पक्ष में करती हुई, माँ ने मुझे भी घर के अंदर धकेल दिया और बाहर से दरवाजा बंद कर चिल्लाने चली गई।

धुआं की लपटें व उस महिला की आवाजें सुन आसपास के लोगों में उत्सुकता जगी और क्षण भर में ही लोग इकट्ठे हो गए। बंद दरवाजे के अंदर से मेरी आवाजें बाहर जा रही थी, "तुम मर्दों का कभी मन नहीं भरेगा, जब तक मांस रहेगा। अब तू भी मरेगा और मैं भी, फर्क भी सामने, तुम्हारी जीत होगी और मेरी हार--- फिर भी तुम तड़पोगे, इसलिए कि तुममें भोगने की लालसा बनी हुई है, लेकिन यह अग्नि, अंग-अंग जलाएगा, जिन्दगी की भीख के बदले बद्दुआ मिलेगी और तुम्हारा समाज भी ऐसी ही भाषा समझने में माहिर है।"
बाहर लोगों की जमघट बढ़ती गई।आपस में कानाफूसी शुरू थी। सब कोई दलील देने में ही मशगूल थे। शायद किसी एक को सहन नहीं हुआ और बच्ची को संभाले दरवाजा में जोर का धक्का दिया, दरवाजा टूट गया। टूटते ही, आग की जलन और जीने की चाह ने उसे बाहर निकलने को मजबूर किया, आग की लपटें लिए सड़क की ओर दौड़ पड़ा। बेरहम हैवान और आग की लपटें भी साथ-साथ। उस लपटों से भी आवाजें आ रही थी,  "बचा लो---कोई मुझे बचा लो।" 
वही समाज के विकृत सोच वाले मर्दों ने हवा के अनुकूल मुहावरे दुहरा रहे थे, "जैसी करनी, वैसी भरनी।"
मैं तबतक दृढ़ बनी रही, जब तक दूषित मांस जल नहीं गया। आखिर में मैं भी लड़खड़ाती हुई बोली, पिता का नहीं, जिस्मखोर का दहन किया। वरना, न जाने कितनी बेटियाँ शिकार होतीं, अब मुझे कोई परवाह नहीं; जिऊँ या मरूं।"
भीड़ में से सिर्फ एक जानी-पहचानी आवाजें सुनाई पड़ी, "ये तुम क्या कर बैठी?"
मासूम की ओर इशारा करती हुई बोलना चाही, " मेरी प्रति--छा-----या।"
अचानक मेरी आवाजें कहाँ गुम होती चली गई, मालूम नहीं। हाँ!  वही स्वर कानों तक पहुंच रही थी, "माँ मत रो! मुझमें ही तुम हो!!"
संभवतः मासूम का स्वर ही लक्ष्य की ओर धकेल दिया और मेरी आंखें मंद-मंद आश्रय ढूंढने लगी।
भीड़ से आवाजें आ रही,  "बेचारी परबतिया थी, भले मर गई------ भला रखैल माय------! " 
जिन बातों से अनजान थी, किसी की आवाज ने पुष्टि किया और मेरी आँखें क्षण भर के लिए खुल गई।
उसकी निगाहें गोद में  मासूम पर टिकी हुई थी।

 संजय कुमार अविनाश: जन्मतिथि 02/02/1976।शिक्षा- इंटरमीडिएट (जीवविज्ञान)।प्रकाशित पुस्तकें-1. अंतहीन सड़क (उपन्यास), 2. नक्सली कौन? (उपन्यास), 3. कोठाई शुरूआत (उपन्यास),   पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट कहानी व  आलेख प्रकाशित। 

25 नवंबर, 2017

दामिनी की कविताएं



दामिनी: ' माहवारी ' कविता से चर्चा में आयी युवा कवियत्री की अब तक तीन किताबें प्रकाशित हो चुकी है। दामिनी की पहली किताब ' मादा ही नहीं, मनुष्य भी ' में स्त्री विमर्श केन्द्र में है। इनकी दूसरी किताब ' समय से परे सरोकार ' समसामयिक लेखों का संकलन है। तीसरी किताब ' ताल ठोक के ' उनकी कविताओं की पहली किताब है। दामिनी का कविता कहने का अंदाज़ इनके कविता संग्रह के शीर्षक से समझा जा सकता है। वे ताल ठोकने और हुंकार भरने वाले अंदाज़ में कविताएं कहती हैं। दामिनी की काव्य भाषा पारंपरिक काव्य भाषा जैसी नहीं है। उनके कहने में मुझे क़िस्सा भी नज़र आता है और कविता की लय भी महसूस होती है।

दामिनी का आलेख ' वितान' सातवीं कक्षा की पाठ्यपुस्तक  में भी  सम्मिलित किया गया है।

आप ‘हिन्द पॉकेट बुक्स’, ‘मेरी संगिनी’ तथा डायमंड प्रकाशन की पत्रिका ‘गृहलक्ष्मी’ में क्रमशः सहायक संपादक व वरिष्ठ सहायक संपादक के रूप में अपनी सेवाएं दे चुकी हैं।
कुछ वर्षों तक आकाशवाणी दिल्ली से भी जुड़ी रहीं है। आपकी रचनाएं
समय-समय पर नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, हिंदुस्तान, आउटलुक, नया ज्ञानोदय, हंस, अलाव और संवदिया आदि समाचार पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आप डी.डी. नेशनल, जी.सलाम पर प्रसारित कई काव्यपाठों में हिस्सा ले चुकी हैं।
 विश्व पुस्तक मेला व साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित काव्य पाठों और देश  के कई भागों में आयोजित हुए  काव्यपाठों में भाग लेती रही हैं। बहरहाल स्वतंत्र रूप से लेखन, संपादन व अनुवाद आदि करती हैं। आज बिजूका के मित्रों के समक्ष दामिनी की कविताएं प्रस्तुत हैं।



कविताएं


एक


माहवारी
...............
आज मेरी माहवारी का
दूसरा दिन है।
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियां
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
जबड़ों की सख़्ती में भिंची हुई है।
कल जब मैं उस दुकान में
‘व्हीस्पर’ पैड का नाम ले फुसफुसाई थी,
सारे लोगों की जमी हुई नजरों के बीच,
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
ऑफिस में कुर्सी पर देर तलक भी
बैठा नहीं जाता है।
क्या करूं कि हर महीने के
इस पांच दिवसीय झंझट में,
छुट्टी ले के भी तो
लेटा नहीं जाता है।
मेरा सहयोगी कनखियों से मुझे देख,
बार-बार मुस्कुराता है,
बात करता है दूसरों से,
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
अचानक मेरा बॉस मुझे केबिन में बुलवाता है,
कल के अधूरे काम पर डांट पिलाता है।
काम में चुस्ती बरतने का
देते हुए सुझाव,
मेरे पच्चीस दिनों का लगातार
ओवरटाइम भूल जाता है।
अचानक उसकी निगाह,
मेरे चेहरे के पीलेपन, थकान
और शरीर की सुस्ती-कमजोरी पर जाती है,
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
दो-चार दिन में दिल लगाकर।’’
केबिन के बाहर जाते
मेरे मन में तेजी से असहजता की
एक लहर उमड़ आई थी।
नहीं, यह चिंता नहीं थी
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
‘‘इन औरतों का बराबरी का
झंडा नहीं झुकता है
जबकि हर महीने
अपना शरीर ही नहीं संभलता है।
शुक्र है हम मर्द इनके
ये ‘नाज-नखरे’ सह लेते हैं
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूं
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
सेनेटरी नैपकिन या नालियों में बहाती हूं,
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं।
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूं,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं।
...........

गूगल से


दो

इज्जत
..............
यह बात इतनी खास भी नहीं
मगर इतनी आम भी नहीं,
बताती हूं आपको
यह किस्सा-ए-मुख्तसर
आपने भी देखा होगा ये अक्सर
सड़क के किनारे या झाड़ियों-पेड़ तले मुंह किए या
किसी दीवार की तरफ चेहरा छिपाए
बहुत से मर्द
करते रहते हैं
लघु शंकाओं के दीर्घ निवारण।
कभी बेचारे तन्हा खड़े हो जाते हैं,
कभी दो-तीन मिलकर
पेंच-से-पेंच लड़ाते हैं,
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
बीच-चौराहे से
मौहल्ले-चौपाल तक
भरे बाजार से लेकर
अपने घर-ससुराल तक
जब देखो ‘वहां’ खुजाते रहते हैं,
क्या यह इस तरह से बार-बार
अपने पुरुषत्व का
भरोसा जुटाते रहते हैं?
और झिझकते भी नहीं!
क्या पुरुषों की इज्जत नहीं होती?
हम औरतों की लघुशंकाएं
बस शंकाएं बनी रह जाती हैं
अक्सर आसानी से नहीं मिलता
कोई ‘सुलभ’ ठीया, कोई मुकाम
और सब्र बांधे हो जाती है
सुबह से शाम, क्योंकि
सब कहते हैं
औरतों की इज्जत होती है।
अगर हम जींस पहनें
तो किसी कॉलेज में,
बैन लगवा लेती हैं,
स्कर्ट-स्लीव्लेस में
‘आइटम’, ‘माल’
कहला लेती हैं,
नाइट शिफ्ट से लौटें तो
कुल्टा बन जाती हैं,
इस घर से उस घर तक की
पगड़ी का मान जुटाती हैं,
कर लें अगर
प्यार या मनमानी कभी
तो बीच चौराहे-चौपाल
बेसूत कर दी जाती हैं।
चलो, आपने समझाया
और हमने समझा
कि सारी मर्यादाएं और मान
हम ही से होती हैं और
इनके ठींकरें भी
हमीं ढोती हैं, पर
क्या पुरुषों की इज्जत
वाकई नहीं होती?
................

तीन


मां
.......
मानती हूं कि किसी ने मेरी कोख में
खलबली नहीं मचाई,
ये भी माना कि दूध की नदियां
मेरी छातियों ने नहीं बहाई,
सच है, किसी के रोने से
मेरी नींद नहीं अचकचाई,
मैं सोई हूं सदा सूखे बिछौने पे
किसी ने मेरी चादर नहीं भिगाई,
ये सब भी है कुबुल मुझे कि
मैंने किसी के लिए लोरी नहीं गाई,
किसी के शुरुआती कदमों को
ऊंगली भी नहीं थमाई,
मगर, पूछना चाहती हूं मैं ये सवाल,
क्या यही सब बातें हैं मां होने का प्रमाण?
भला कब नहीं थी मुझमें ममता?
कब नहीं थी मैं मां?
हां, मैं तब भी मां थी,
जब सुलाती-जगाती, दुलारती-लताड़ती
और खिलाती-पिलाती थी अपनी गुड़िया को,
कम भावभीनी नहीं थी मेरे लिए
उसकी शादी और विदाई।
मैं तब भी मां थी,
जब अम्मा की गोद में था मुन्ना,
और अपने से दो बरस छोटी मुन्नी के लिए,
मैंने ही थी मां जैसी गोद जुटाई,
मैं तब भी मां थी,
जब रूठे भाई को,
मैंने लाड़-मुनहार से रोटी खिलाई ,
मैं अपनी मां के लिए भी,
मां बनी हूं तब,
जब बिखरे घर की,
मैंने जिम्मेदारी उठाई।
समेटकर अपनी विधवा मां के
बिखरे वजूद को अपनी बांहों में
मां की ही तरह,
मैंने उसके लिए सुरक्षा की छत जुटाई।
बताओ, कहां नहीं दी
तुमको मुझमें मां दिखाई?
नहीं कहा मैंने कभी कि
मेरे भींचे होठों में सैकड़ों लोरियां
हजारों परी-कथाएं खामोश हैं,
मैंने ये भी नहीं बताया कभी कि
जो दूध मैने छातियों में सूख जाने दिया,
वो आंखों में अब भी छलछलाता है,
मेरी कोख में जो बंजर सूख गया,
वो सिर्फ उम्र का एक गुजरता पल था,
ममता तो बिखर गई है मेरे सारे वजूद में।
आ जाए कोई भी,
किलकारियां मारता या भरता रुलाई,
मुझमें पा जाएगा
मां जैसी ही परछाईं,
फिर भी आप कहते हैं
तो मान लेती हूं,
कि बस मां जैसी हूं,
मैं मां नहीं हूं,
चलो ये क्या कम है,
अगर मेरी कोख किसी को
दुनिया में नहीं लाई
तो किसी जिंदगी की पहली सांस को ही,
सड़क किनारे की झाड़ियों में,
मौत की नींद भी नहीं सुलाई।
नहीं भरा किसी अनाथालय का
एक और पालना मैंने,
ना ही जिंदगी की वो लावारिस सौगात
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाई।
कोई माने, ना माने,
क्या फर्क पड़ता है मुझे।
मैं जानती हूं कि ममता की खुशबू
किस कदर है
मेरे कुंवारे वजूद में समाई।
-----
अवधेश वाजपेई


चार

गद्दार कुत्ते

आवारा कुत्ते खतरनाक बड़े होते हैं
पालतू कुत्ते के दांत नहीं होते हैं
दुम होती है,
दुम टांगों के बीच दबी होती है
दरअसल पालतू कुत्ते की
धुरी ही दुम होती है,
वो दुम हिलाते हैं
और उसी हिलती दुम की
रोटी खाते हैं,
आवारा कुत्ते दुम हिलाना नहीं
गुर्राना जानते हैं,
जब उनमें भूख जागती है,
वो भूख अपना हर हक मांगती है
और हर भूख का निवाला
सिर्फ रोटी नहीं होती है,
वो निवाला घर होता है,
खेत होता है, छप्पर होता है,
उस भूख की तृप्ति,
कुचला नहीं, उठा हुआ सर होता है,
इन हकों की आवाज
उन्हें आवारा घोषित करवा देती है
और ये घोषणा उन्हें
ये सबक सिखा देती है
कि मांग के हक नहीं,
भीख मिला करती है
इसीलिए पालतू कुत्तों की दुम
निरंतर हिला करती है,
यही रूप व्यवस्था  को भी भाता है,
सो उन्हें हर वक्त चुपड़ा निवाला
बिना नागा मिल जाता है,
व्यवस्था उनसे
तलवे चटवाती है
और बीच-बीच में
उन्हें भी सहलाती है,
आवारा कुत्ते उन्हें डराते हैं,
वो पट्टे भी नहीं बंधवाते हैं,
इसलिए चल रही हैं कोशिशें
कि इन आवारा कुत्तों को
खतरनाक घोषित कर दो
और इनके जिस्म में
गोलियां भर दो,
अपनी सत्ता वो
ऐसे ही बचाएंगे,
चुपड़े निवालों के लालच में
हर उठती आवाज को
पट्टा पहनाएंगे,
हक मांगती हर आवाज का
घोंट देंगे गला
और पालतुओं से सिर्फ
तलवे चटवाएंगे,
सिर्फ पालतू कुत्ते ही
मिसाल होंगे वफादारी की,
आवारा कुत्ते सजा पाएंगे
थोपी हुई गद्दारी की
जमाना इन्हें नहीं अपनाएगा
पर इनके नाम से जरूर थर्राएगा,
हो जाओ सावधान
सत्ता और व्यवस्था के ठेकेदारो
कि जब ये आवारा कुत्ते
अपने जबड़ों से
लार नहीं लहू टपकाएंगे
तब ओ सत्ताधीश
वो तुम्हारी सत्ता की
नींव हिला जाएंगे
और इस नींव क
हर ईंट चबा जाएंगे।
.....................


पांच


जद्दोजेहद

मेरे बचपन ने काठ के हाथी-घोड़े
नहीं मांगे थे,
वक़्त की सवारी गांठना सीखने में
छिलवाए है घुटने मैंने,
मैंने गुड़ियों के मंडप
नहीं सजाये कभी,
खुद को किसी बाज़ार की गुडिया
बनने से बचाने को
किये हैं हाथ ज़ख़्मी,
मैं नहीं जानती,
आसीस देते हाथ कैसे लगते हैं,
मैं दिखा सकती हूँ,
पीठ पर सरकने को बेचेन कई हाथों पर
अपने दांतों का पैनापन,
मुझे नहीं मालूम ,
घुटी सिसकियाँ क्या होती हैं,
खूंखार गुर्राहटों को अपने हलक में पाला है मैंने,
मेरे तीखे पंजों ने दूर रक्खा है,
सच्चे रिश्तों का झूठ,
अपने भीतर के जानवर को.
दिन-रात जगाया है मैंने,
तब कहीं जा के,
इंसा बन के
जिंदा रहने का हक पाया है मैंने............
............................


अवधेश वाजपेई


छः

एक औरत, दूसरी औरत



ओ शहरी औरत!
तुम मुझे हैरानी से क्यों देख रही हो?
हां,
मैंने भवें नहीं नुचवाई है,
वैक्स भी नहीं कराई हैं,
मेरे चेहरे पर ब्लीच की दमक नहीं है
फेशियल की चमक भी नहीं है
फिर भी स्त्री तो मैं भी हूं
आज की स्त्री।
तुम मुझे हैरानी से देख रही हो
देहाती-गंवार समझ
मैं मजबूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं झेल सकती हूं धूप की तपिश
बिना सनस्क्रीन के
और मैं करियाऊंगी भी नहीं
लाल-तांबई रंगों की धमक उठेगी मुझसे।
मैं ईंट-गारा ढोती
या खेतों में फसल बोती
मिलूंगी कहीं तुम्हें,
या कहीं पीठ पर बच्चा और
सिर पर गट्ठा ढोते पाओगी तुम मुझे।
मैं मज़बूत हूं तुमसे कई गुना,
क्योंकि मैं रात-बिरात भी
निकल पड़ती हूं अकेले,
बिना आदमखोरों या मादाखोरों के डर के।
मुझे मर्दोंं से डर नहीं लगता है
मेरा कांधा रोज उनके कांधे से भिड़ता है।
मैं लो वेस्ट, स्लीवलैस या बैकलैस तो नहीं जानती,
पर शहरों में भी मैं तुम्हें
किसी उठती इमारत की बुनियाद तले
धोती या लहंगा लापरवाही से खोंसे दिख जाऊंगी।
आओ जंगलों में तो
मेरे आंचल का फेंटा ही मेरी चोली पाओगी।
मैं तुम्हारी तरह शिक्षा के संकोच से
इंच-भर नहीं मुस्कराऊंगी
मारूंगी पुट्ठे पर हाथ और
ज़ोर से ठट्ठा लगा खिलखिलाऊंगी,
हैरान हो तो हो जाओ मुझे देख
क्योंकि जिस वक़्त तुम अपने सवालों की तलाश में
अपने अस्तित्व को खंगालती भटक जाओगी,
मुझ अनपढ़ की बेबाक दुनिया में ही
आज की औरत की सच्ची परिभाषा गढ़ी हुई पाओगी।
...............


सात

अबॉर्शन
...............
अभी तो तुम्हारे आने का
आभास-भर हुआ था
अभी तो मेरी कोख को तुमने
छुआ-भर था
कि सब जान गए,
तुम्हारे वजूद की आहट
पहचान गए,
नहीं, तुम्हारा वजूद
नहीं है कुबुल
लड़कियों का जन्म होता है
सेक्स की भूल,
ये भूल इस परिवार में
कोई नहीं अपनाएगा।
कल मुझे अस्पताल
ले जाया जाएगा
मेरी जाग्रति को
एनेस्थीसिया सुंघाया जाएगा,
मैं भी नहीं करूंगी प्रतिकार
अनसुनी कर दूंगी तुम्हारी
अनसुनी पुकार,
डॉक्टर डालेगी मेरी योनि में
लोहे के औज़ार
उन के स्पर्श से तुम
मेरी कोख में
घबरा के सिमट जाओगी।
शायद किसी अनचीन्ही आवाज़ में
मुझे चीत्कार कर बुलाओगी,
पर अपने नन्हे-नरम
हाथ, पांव, गर्दन, सीने को
उन औज़ारों की कांट-छांट से
बचा नहीं पाओगी,
क्योंकि लेने लगे हैं वो आकार,
ओ कन्या!
इस दुनिया में आज भी
तुम नहीं हो स्वीकार।
तुम्हारे वजूद के टुकड़ों को
नालियों में बहा आऊंगी
और इस तरह मैं भी
लड़की जनने के संकट से
छुटकारा पा जाऊंगी,
वरना इस दुनिया में मैं तुम्हें
किस-किस से बचाऊंगी।
अगर बचा सकी अपना ही वजूद,
तभी तो क्रांति लाऊंगी,
मिट जाएगी मेरी पीढ़ी शायद
करते-करते प्रयास,
तब जाकर कहीं मैं इस दुनिया को
तुम्हारे लायक कर पाऊंगी
पर अभी तो ओ बिटिया!
तुम्हें मैं,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
जनम नहीं दे पाऊंगी,
..............


रमेश आनंद

आठ

चेतावनी

हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो!
तुम्हें मेरा शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद,
आखिर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो,
तुम्हीं ने धकेला है मुझे
साधारणता से
असाधारणता के मार्ग पर।
तुम्हीं ने छीना है मुझसे
मेरा संकोच, मेरी लज्जा
मेरा भय, मेरी सज्जा,
तुम ही ने किया है निर्माण
मुझ ही को तोड़कर
मुझ ही से मेरे
प्रस्तर व्यक्तित्व का
तुम्हीं ने प्रदान की है मुझे
दृढ़ इच्छाशक्ति।
आशा और निराशा
पाने और खो जाने के
भय से छुटकारा,
घनघोर अंधेरों से
केवल और केवल
आशा की ओर
सत्य की ओर
सफलता की ओर
इच्छित की ओर
बढ़ते जाने का साहस।
तुम्हें शत्-शत् प्रणाम
कोटि-कोटि धन्यवाद
आख़िर तुम मेरे
श्रद्धेय हो
पूजनीय हो
प्रेरणा हो, परंतु
हे सभ्य समाज के
व्यंग्य बाणो, सावधान!
तुम कोई भी अवसर
मुझे तोड़ने का
झिंझोड़ने का
रूलाने का, सताने का
चूक ना जाना,
भरपूर करो वार,
और वार पे वार
और करो इंतज़ार
मेरे संपूर्ण प्रस्तर होने का
क्योंकि, तब तक
तुमसे टूटते-टूटते
मैं तुम्हें तोड़ने योग्य हो जाऊंगी।
--------

नौ

ताल ठोक के
........................
आज फिर तुमने मेरा बलात्कार कर दिया
और मान लिया कि
तुमने मेरा अस्तित्व मिटा दिया है
क्या सचमुच?
तुम्हें लगता है कि तुम्हारी इस हरकत पर
मुझे रोना चाहिए,
पर देखो, देखो
मेरी हंसी है कि
रोके नहीं रुक रही है।
मैं हंस रही हूं व्यवस्था पर
उसी व्यवस्था से उपजी
तुम्हारी मानसिकता पर,
मेरे कपड़ों के चिथड़े उड़ा
तुम्हें क्या लगा
कि तुमने मुझे भी तार-तार कर दिया है!
मैं भी नंगी हो गई हूं!
वैसे, मेरी नग्नता का प्रमाण ही है
तुम्हारी देह, तुम्हारा अस्तित्व
फिर क्या, क्यों देखना चाहते हो
मुझे बार-बार नंगा?
शायद मेरे अस्तित्व की गहनता
तुम्हारे सिर के ऊपर से गुजर जाती है
इसीलिए उस गहनता को
तुम मेरी योनि में
सरिये, मोमबत्ती, बोतलें डालकर नापना चाहते हो।
फिर भी नाकाम ही होते हो
मुझे समझने में,
तभी क्यों नहीं नाप लिया था तुमने
इस असीमता को
जब तुम खुद इसी योनि से
गुजरकर जनमने आए थे?
तुम तब भी मुझे
समझ नहीं पाए थे।
अपनी हताशा से उपजी तिलमिलाहट में,
भर देते हो मेरी योनि में मिर्ची पाउडर!
फिर भी नाकामयाब ही होते हो
मुझे जलाने में।
इसी झल्लाहट में
मेरे शरीर को
काटकर, नोंचकर वीभत्स कर देते हो
फिर भी नाकामयाब होते हो
मेरी आत्मा को घायल कर पाने में,
तुम कितने शरीरों को रौंदकर
मेरा अस्तित्व मिटाने चले हो?
मेरा अस्तित्व मेरे शरीर से परे है,
मैं तुमसे मिटी नहीं
मैंने तुमको मिटाया है।
यकीन नहीं होता तो देखो,
अब मैं तुमसे छलनी होकर भी
ताल-तलैया, कुआं-बावड़ी
ढूंढ़ने की बजाय
पुलिस स्टेशन ढूंढ़कर
एफ.आई.आर. दर्ज कराती हूं।
तुम्हारे चेहरे की पहचान कर
सजा देने को सबूत जुटवाती हूं।
अब आओ, आओ
कि ताल ठोककर
मैं तुम्हें चुनौती देती हूं,
करो मेरा बलात्कार फिर से
और देखो मुझे धूल झाड़कर
वीभत्स-लहूलुहान शरीर से ही सही
फिर से खड़ा होते।
मैं अब भी तुम्हें
गली-कूचों, बाजारों में नजर आऊंगी
चौके-चूल्हे, ऑफिस, मीडिया
सत्ता के गलियारों में नज़र आऊंगी
अब सुनो!
ताल ठोककर मैं देती हूं तुम्हें चेतावनी
कि सुधर जाओ।
मुझे रौंदने के सपने देखने से
बाज आ जाओ,
वरना मैं तुम्हारे होश ठिकाने लगा दूंगी,
मर्द से बना दूंगी भू्रण
और जैसा कि करते आए हो
तुम मेरे साथ
मैं भी गर्भ में ही
तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगी,
या फिर भू्रण से बना दूंगी अंडाणु
और माहवारी के जरिये
बजबजाती नालियों में बहा दूंगी।
छोड़ दो कोशिशें
मुझे लहूलुहान करने की
अपने लिंग की तलवार से।
बरसों खौला है मेरा रक्त
मेरी शिराओं में,
मेरे संस्कारों की दरार से
अब तुम्हारी बारी है,
बचो-बचो!
रक्तबीज बने मेरे नए अवतार से।
........................

दस


प्रेम कविता की मौत पर

जब मैं प्रेम कविताएं लिखती हूं
तुम कहते हो मुझमें दर्द नहीं ह,ै
जब मैं दर्द को नंगा करती हूं
तुम कहते हो मुझ में शर्म नहीं है,
जब मैं शर्म से बोझिल पलकें
उठा तक नहीं पाती हूँ,
तुम कहते हो मुझे अभी जमाना देखना है
जब मैं जमाने को देखकर
तुम्हें दुनिया दिखाती हूं,
तुम कहते हो
मुझे प्रेम करने की जरूरत है,
पर मेरी शर्म से झुकी पलकें
जो तुमने जबर्दस्ती उठवाईं
खुली आँखों में जो तुमने
अपनी नंगी सच्चाइयां घुसाईं
वो देखती हैं सड़क पर जन्मते
जन्मकर मरते किसी इंसान के बीज को
वो ठिठक जाती हैं,
बलात्कार से उधड़े शरीर पर,
वो देखती हैं सबका पेट पालने वाले
भूख से बिलबिलाते मरते किसान को,
भूख की कीमत पर आबरू का
सौदा करवाते किसी धनवान को,
ढाबे पर चाय बांट-बांट बुढ़ाते
किसी बचपन को,
अपने हक की आवाज से
अपराधी की श्रेणी में आते किसी नक्सल को,
ये कड़वी सच्चाइयां हैं परत-दर-परत
नहीं है इनका कोई समाधान, कोई हद,
मुझे अब फूल-पत्ती, चुंबन-आलिंगन
नदियां-सागर, इंद्रधनुष-बादल
नजर नहीं आते हैं,
सिर्फ खामोश चीखें और दर्द ही
मेरे कान तक पहुंच पाते हैं,
फिर भी सुना तो यही है
दुनिया गोल है
और घूम भी रही है अपनी धुरी पर निरंतर
मैं इंतजार में हूं शायद
कभी पहुंच ही जाऊं उस बिंदु पर दोबारा
जब मैं फिर लिख पाऊँ प्रेम कविताएं,
पर तब ना कहना
कि मुझमें दर्द नहीं रहता है,
देख सको तो देखो
मुझमें अब दर्द का लावा बहता है,
अब मैं शरमाऊंगी भी नहीं
तुम्हें ही शर्मसार कर दूंगी,
क्योंकि मैं अब जान गई हूं
तुम्हारा भी राज कि
कपड़ों के नीचे सबकी तरह
तुम्हारा जिस्म भी नंगा रहता है,
तुम्हारी जबान कुछ कहती है
तुम्हारा जिस्म कुछ और कहता है,
इसीलिए तो देखो
तुम्हारी दोगली समझदारी का ठीकरा
अब मेरे ठेंगे पे रहता है।
............................

निज़ार अली बद्र


ग्यारह

चांद और सूरज
...........................
गांव की कच्ची सड़क पर
पसरता यह पक्कापन
सुना है विकास के सूरज तक
जाता है।
इसी बनती सड़क के किनारे
कूटे हुए पत्थरों की ढेरी पर लेटा
गुदड़ी में लिपटा एक ‘चांद’
खिलखिलाता है।
सामने पत्थर तोड़ने में लगी
वो बच्ची ही
इस बच्चे की मां है,
शायद वो इसकी ममता ही है
जो धरातल की कठोरता पर
मुलायमियत बन पसरी हुई है
जभी तो तपती दोपहरी में भी
बच्चे के चेहरे पर
हंसी बिखरी हुई है।
बच्चे को सीधे धूप से बचाने को
एक चिथड़ा हवा में तिरछा टंगा हुआ है,
उसके एक पैबंद से बीच-बीच में
सूरज झिलमिला जाता है,
बच्चा समझ रहा है उसे भी
कोई खिलौना और
हाथ-पांव झटकता-पटकता
उसे पकड़ में आने को
हुलसकर पुकारता है।
यह बनता रास्ता तो
कहीं-न-कहीं पहुंच ही जाएगा,
पर मुझे नहीं मालूम
पत्थरों से अटी,
जमीन पर पड़ी
इस मासूमियत की पकड़ में
कभी विकास का कोई सूरज आ पाएगा?
................

24 नवंबर, 2017

उमा झुनझुनवाला की कविताएँ



कविताएं



एक

बर्फ़ और ख़ाक


मौन की सलाइयों पे
किसी एक रोज़
बुनी थी तुमने

सन्नाटे की एक स्वेटर

जिसकी गरमाहट में
तुम बर्फ़ हो रहे थे
----और मैं ख़ाक

००


दो

संभावित ख़तरा


जब जब नींद टूटती है
सपने टूट जाते हैं
लेकिन सपनों का टूटना
उतना ख़तरनाक नहीं होता
जितना खो जाना...

मेरे सपने हर नींद पे टूटते हैं
मगर रात ख़त्म होते होते
दिन भर बुन लेती हूँ
फिर कुछ नए नए सपने
टूट कर बिखर जाने के लिए

सुनो मेरे सपनों
टूटना और बुनना चक्र है जीवन का
इसकी सार्थकता भी इसी में है
टूटने पर ही
बुनने का होश रहता है

बस एक गुज़ारिश है तुमसे
तुम कभी खो मत जाना  
आडम्बरों की बड़ी भीड़ है यहाँ
जहाँ कुचल दिए जाने का
एक संभावित ख़तरा बना रहता है हरदम

००



तीन

देह का अदेह होना



देह अदेह हुई
पिघल गई
मिट्टी हो गई
खुशबू बन गई
और समा गई
उसकी रूह में
मेरी रूह बनकर

अब देह उसकी
रूह मेरी है
और देह का अदेह होना
जारी है
लगातार...

००


चार

मुस्कुराहटें


झील किनारे
साँझ सवेरे
मैं और एक सूखा पेड़
और अनवरत अनंत
टहलती शब्दविहीन बातें

सुनो पेड़
जब मैं चली जाऊँगी
किसी एक रोज़
तब भी रहूंगी यहीं
अदेह बन कर

जब कभी तुम
अपनी बाईं ओर देखोगे
मेरे होने की गंध
पिघल कर चुपके से
तुममे व्याप जायेगी

फिर बतियाएंगे
हम वही सारे क़िस्से
शब्दविहीन ज़ुबानो में
और मुस्कुराएंगे
कई कई जन्मो तक
००




पांच


सच वही नहीं होता



सच सिर्फ़ वही कहाँ होता है
---शब्दों में घुलकर जो हमारी कविता में बहता है

कुछ अक्षरों को छू नहीं पाते
कुछ स्पंदित होने से डरते हैं
कुछ जन्मने से पहले मर जाते हैं
कुछ आँखों में जम कर रह जाते हैं
---------सच हमेशा सच जैसा कहाँ होता है

बादल का सच शहरों के रोमांस में नही होता
उसका सच खेत की छाती में दफ़्न होता है
सच हमेशा पेड़ का हरा नही होता
ठूँठ उसका कहीं किसी कोने दमकता रहता है
------------बादल का सच हमेशा पेड़ कहाँ होता है

बहती हवा का सच आज़ाद होना नही होता
जैसे बन्द पिंजरे का स्वर्ग जन्नत नही होता
खुली आँखों मे पोसा गया सपना, सपना नही होता
झूठ का सच प्रायोजित खेल सा होता है
---------रोटी में दिखता चाँद अब चाँद कहाँ होता है

क़त्ल एक हादसा और हादसा साज़िश है
संसद से सड़क तक का ये एक ऐलान है
घोषित भीड़ का सच झूठ नही होता है
वह घोषित द्रोहियों का स्थापित सच होता है
----मरनेवालों का सच इंसान का सच नही होता है
सच सिर्फ़ वही कहाँ होता है
---शब्दों में घुलकर जो हमारी रगों में बहता है

००



छ:

हिज्र

मुबारकां ए चाँद
कि--- तू है
तेरा मुर्शिद है
वस्ल की रात है

फ़िक्र न कर
दरख़्त पे टँगी
मेरी रूह को
हिज्र की आदत है

००



सात

एक नया ब्रह्माण्ड


मैं और तुम
जैसे...
घुलनशील पदार्थ
जैसे अँधेरे में उजाला
और उजाले में अँधेरा
मेरे अन्दर
तुम्हारे अन्दर

मेरी अभिलाषाएँ
जैसे...
मैं बन अँधेरा देखूँ
तुम्हारी उजली रूह
और घुल जाऊँ तुममें
तुम उजली पोशाक बन
बन जाओ मेरा आवरण

उन्नत करें
फिर...
सम्पूर्ण सौन्दर्य की मीमांसा
खाएँ अँधेरा पीएँ उजाला
पा लें शीर्ष परमानंद
और रच दें
एक नया ब्रह्माण्ड

००



आठ

मिलन


मैं क्षितिज के
उस कोण पे खड़ी हूँ
जहाँ अँधेरा और उजाला
दो विपरीत ध्रुवों पे
मौजूद है

अँधेरा और उजाला
दो अलग अलग अस्तित्व हैं
लेकिन इस कोण से
मुझे सब अँधेरे की तरफ़
बढ़ते नज़र आ रहें हैं


अँधेरे में
आकर्षण बहुत है
सारे गुरुत्वाकर्षणों से परे
अंतरिक्ष के उस काले छिद्र
के खिंचाव में सारी अभिलाषाएं
समा जाने को आतुर हैं

समुद्र में घटनाएं घटित हो रही हैं
घटनाएँ बादल बन रही हैं
बादल नम हो रहें हैं
नमी में उजालों के कण
अंतरिक्ष में फ़ैल रहे हैं

क्षितिज के
जिस कोण पे मैं खड़ी हूँ
वहाँ एक छोटी सी चाह
अपनी बड़ी बड़ी आँखों से
उजालों के उन कणों को
सुडुक रही है अपने अन्दर

उन आँखों का गुरुत्वाकर्षण
ज़्यादा मुलायम था जो
मेरे रोमकूपों को भरता गया
अपनी कोमल सिक्त बूंदों से
मेरी रूह को उजाला दे गया

मैंने देखा
क्षितिज के इस कोण पे
चल रहा था जो संघर्ष
अँधेरे और उजाले में
आकाश और समंदर के मिलन ने
उसे एक नीली रेखा में बदल दिया

अब नीला उजाला
नर्म चाहतों के साथ
अँधेरे की आकर्षक धुन पर
लहरों सा नर्तन करते झूम रहे हैं
और चाँद की मीठी रौशनी में
आकाश और समंदर आलिंगनबद्ध हैं

मैं क्षितिज के
इस कोण पे खड़ी
इस अदभुत मिलन की साक्षी
उस नीली रेखा में


घुलती मिलती घटती बढती
अँधेरे उजाले में समाती
उत्सव के महा उत्सव की
प्रतीक्षा में...
पुलक...
अनवरत...

००


नौ

एक आम आदमी का संलाप - २


छद्म शत्रुओं का विनाश कर
अपने रहनुमाओं के आदेश पर
जब आप अपने घरों को लौटेंगे
चाहे वो छोटी सी झोपड़ी हो
या कब्रगाह,
आप मामूली होते हुए भी
वर्तमान और भविष्य के नौजवानों के लिए
एक बेहतरीन मिसाल होंगे

अब तक आप अपने पूर्वजों की शान थे
पीढ़ी दर पीढ़ी उनके कारनामों की
करते आए थे आप चर्चा
अब आपकी औलादें जिंदा गवाह होंगी
आपके कारनामों की
जो आने वाली नस्लों को
आपकी बहादुरी के कारनामे
बड़े फ़क्र के साथ सुनाएँगी

आप सभी जाने और अनजाने लोगो ने
एक नई तारीख़ क़ायम की है आज
आप चाहे नज़र आएँ या न आएँ,
लेकिन आपकी ग़ैर मौजूदगी में भी
आपकी मौजूदगी बरक़रार रहेगी
उन सारे लोगो के लिए
जो आपको रंगीन तस्वीरों में देखेंगे
और आपको अपनी विरासत मानेंगे

आज के बाद
आप सभी घोषित विजेता
अपने मालिक और आकाओं की
चौकस आंखों के नीचे
सूरज की गर्मी में
अपने जिस्म के पसीनों में लथपथ
अपनी रोजमर्रा की रोटी कमाने के लिए
बहादुरी से आगे बढ़ पाएँगे

अपने आकाओं की काबिलियत
और इज्ज़त-ओ-एहतराम का
आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं
आपकी खामियों के बावजूद
वो आपसे प्यार करते हैं
इसलिए वो आपकी कहानियाँ बुनेंगे
और फिर आने वाली नस्लें दाद देगी
आपकी दानिशमंदी और हुनर की

ओ आम आदमी की संतानों
फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं
आपके आकाओं ने आपकी परवाह करते हुए
फ़र्ज़ की परिभाषा को नया रूप दे दिया है
इसलिए पूरा का पूरा तंत्र
आपकी आम से ख़ास की यात्रा को
स्वर्णिम इतिहास में बदलने की तैयारी में है
उद्धहरण चिह्नों में अंकित आपके नाम
विस्मयकारी चिह्नों में नज़र आएँगे

अब आम आदमी के संलाप की आवश्यकता ख़त्म हो गई है
००
अवधेश वाजपेई

दस

दशहरा


उठा धनुष
चढ़ा प्रत्यंचा
कि ठीक तेरे सामने
खड़ा है छद्मरूपी रावण
तेरे पहचानने भर की देर है
नीले रंग से सराबोर
झूठ को शिवत्व बता
मानस को छलने का
हुनर हासिल है इसे
मगर याद रखना
खुली आँखों का अंधापन
रोग नहीं, मूर्खता है

बार बार दोहराने पर
झूठ भी सत्य जान पड़ता है
बाज़ार के विज्ञापनों सा
फिर वह चमचमाने लगता है
सच के सत्यापन की होड़ में
नए नए झूठों का आविष्कार
नवनिर्मित दुनिया का
नया नया आसमान लगता है
मित्रता और शत्रुता का भेद
यकीन को धोखा देने लगता है
शब्दों के जाल में लिपटा सुख
बेबसी को चौंधियाने लगता है

जादूगर है ये स्वयंभू
चिह्नित आकारों को
बार बार बदल, हर बार
नया चोगा पहन
मुस्कुराता है, बातें करता है
हिमायती बन लुटता है
एक अनदेखे शत्रु का
हवाई निर्माण करता है
उससे लड़ने के लिए फिर
उकसाता है, हथियार थमाता है
डिब्बों में आँसुओं का समंदर भर
तालियों का सुख बटोरता है

आँखों पे चढ़ा रखा है
तुमने जो ये पर्दा
वह गाँधी के ऐनक सा नहीं है
ये न्याय के नाम पर
गांधारी के आँखों पे बंधी पट्टी है
जीना चाहते हो अगर
दिन और रात को समझना होगा
इसलिए हे मनुज
उठा धनुष, चढ़ा प्रत्यंचा
अब भी वक़्त है
असत्य पर वार कर
कि दशहरा तभी सार्थक होगा

००
संपर्क:
उमा झुनझुनवाला
लेक गार्डन्स गवर्नमेंट हाउसिंग
४८/४ सुलतान आलम रोड
ब्लाक - X/७
कलकत्ता - ७०० ०३३
९३३१०२८५३१


परिचय: उमा झुनझुनवाला
जन्म - 20 अगस्त 1968, कलकत्ता
शिक्षा - एम.ए (हिंदी) बीएड
नाट्य क्षेत्र में सन १९८४ से सक्रिय
निर्देशन के साथ साथ अभिनय
नाट्य लेखन -
पूर्णांग मौलिक नाटक -
1. रेंगती परछाईयाँ- ऑथर्स प्रेस
2. हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी...
एकांकी -
3. राजकुमारी और मेंढक,
4. बुरे बुरे ख़्वाब,
5. शैतान का खेल,
6. हमारे हिस्से की धुप कहाँ है,
7. आग़ अब भी जल रही है,
8. जाने कहाँ मंजिल मिल जाए,
9. शपथ
अनुदित नाटक -
उर्दू से हिंदी -
10. यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा) - राजकमल प्रकाशन
11. आबनूसी ख्याल (एन रशीद खान) राजकमल प्रकाशन
12. लैला मजनू (इस्माइल चुनारा) दृश्यांतर, नई दिल्ली

अंग्रेजी से हिंदी -
13. एक टूटी हुई कुर्सी एवं अन्य नाटक (इस्माइल चुनारा)- ऑथर्स प्रेस (दोपहर, एक टूटी हुई कुर्सी, पत्थर और यतीमखाना)
14. धोखा (राहुल वर्मा)
15. बलकान की औरतें (जुलेस तास्का)

बंगला से हिंदी -
16. मुक्तधारा (टैगोर), (उर्दू में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित / अनुवाद - उमा और अज़हर आलम )
17. गोत्रहीन (रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता),
18. अलका (मनोज मित्र)
रानी लक्ष्मी बाई संग्रहालय, झाँसी के लिए स्क्रिप्टिंग, लाइट, संगीत की परिकल्पना
बंगला डॉक्यूमेंट्री फिल्म का हिंदी में अनुवाद
पत्र-पत्रिकाओं में रंगमंच पर आलेख, कविताएं और कहानी प्रकाशित

निर्देशन -
पूर्णांग नाटक
यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा), अलका (मनोज मित्र), जब आधार नहीं रहते हैं (मोतीलाल केमू), नमक की गुड़िया (अज़हर आलम) आदि

कथा मंच के अंतर्गत लाइसेंस और खुदा की कसम (मंटो), आखरी रात और दुराशा (टैगोर), बड़े भाईसाहब और सद्गति (प्रेमचंद), बदला (अज्ञेय), मवाली (मोहन राकेश), सुइंयों वाली बीबी (इकबाल माजिद), पेशावर एक्सप्रेस और शहज़ादा (कृष्ण चंदर), माता विमाता (भीष्म साहनी), बाजिया तुम क्यों रोती हो, इश्क़ पर ज़ोर नहीं (मुज़फ़्फ़र हनफ़ी),  फाइल (मधु काकडिया),एक माँ धरती सी, रश्मिरथी माँ व एक अचंभा प्रेम (कुसुम खेमानी), एक सपने की मौत (शैलेंद्र), रिहाई (सईद प्रेमी), पॉलीथिन की दीवार (अनीस रफ़ी), दोपहर, पत्थर (इस्माइल चुनारा), एक वृश्चिक की डायरी (शिव झुनझुनवाला) एवं अन्य कहानियाँ l
बाल रंगमंच के अंतर्गत - शैतान का खेल, मेरे हिस्से की धुप कहाँ है, ओलोकुन, राजकुमारी और मेंढक, शपथ, बुरे बुरे ख़्वाब एवं अन्य
45 से ज़्यादा नाटकों में अभिनय :-
बलकान की औरतें , धोखा, रेंगती परछाइयाँ, अलका, गैंडा, पतझड़, सवालिया निशान, यादों के बुझे हुए सवेरे, शुतुरमुर्ग़, कांच के खिलौने , लोहार , नमक की गुड़िया, सुलगते चिनार, महाकाल आदि