31 जनवरी, 2018

प्राथमिक जांच रिपोर्ट: बवाना प्लास्टिक कारखाना में आग

20 जनवरी 2018 को बवाना इंडस्ट्रीयल क्षेत्र, सेक्टर पांच, नई दिल्ली में एक फैक्टरी में आग लगने से मजदूरों की जलकर हुई दर्दनाक मौत 




दिल्ली से लगभग 23 किमीे उत्तरी-पश्चिम इलाके में बसा बवानाक्षेत्र इस सदी के शुरू होने के पहले तक राजधानी का अंतिमग्रामीण क्षेत्र माना जाता था। 1999 में इस इलाके को उद्योगिकविकास के अंतर्गत लाया गया और इसके लिए लगभग 778 हेक्टेयर जमीन को विभिन्न सेक्टर में विभाजित किया गया।इसके बाद से यहां उद्योगिक क्षेत्र के फैलाव में तेजी आई।आॅटोमोबाईल, इंजिनियरिंग, टूल्स, प्लास्टिक, टैक्सटाइल्स आदिके उद्योग पर जोर दिया गया। इस क्षेत्र में उद्योगिक विकास केठीक पहले से यानी 1995 और उसके बाद के समय में दिल्ली मेंमजदूर बस्तियों को उजाड़ने का दौर चलाकर मजदूरों को बवानामें ‘बसाने’ का दौर शुरू हो चुका था। लेकिन जितने मजदूरों कोउजाड़ा जा रहा था उसके चंद हिस्से को ही इस ‘बसावट’ मेंजगह मिली। शेष मजदूर स्थानीय निवासियों के जैसे तैसे बनायेघरों में रहने के लिए विवश हुए। बहरहाल, इस उद्योगिक विकासकी गति तेजी से बढ़ी। कुल पांच सेक्टर बसाई गई बवानाइंडस्ट्रीय एरिया में आज लगभग 6 लाख मजदूर काम करते औररहते हैं। ‘2016 में 18,000 उद्योगिक इकाईयां थी जो अब51,697 इकाईयों तक पहुंच चुकी हैं। लेकिन दिल्ली राज्यउद्योगिक और अधिरचना विकास निगम लिमिटेड, एमसीडी औरफायर विभाग के पास इसका सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। -हिन्दुस्तान टाइम्स पोर्टल न्यूज,21जनवरी 2018।’ अवैधफैक्टरियों का चलन मानों उद्योगिक विकास का हिस्सा हो चुकाहै जिसमें राज्य के प्रशासनिक संस्थानों और यहां तक सत्ताशालीपार्टियों और स्थानीय दबंगों की भागीदारी मुख्य रहती है। ये हीलोग मजदूरों की रिहाईश ही नहीं बल्कि उनके काम, हालात औरमजदूरी तक भी तय करते हैं जो सरकारी मानकों कत्तई मेल नहींखाते।

20 जनवरी 2018 की शाम को बवाना के सेक्टर पांच जिसमेंमुख्यतः प्लास्टिक की फैक्टरियां काम करती हैं, की एफ-83 नम्बर की एक फैक्टरी में आग लगी। इस फैक्टरी में पटाखें बनतेथे। बारूद के धमाकों और तेजी से आग फैलने, एक ही निकासीहोने की वजह से वहां काम कर रहे मजदूर भयावह मौत केशिकार हो गये। लगभग सारे ही अखबारों ने खबर लगाई किआग लगने के समय फैक्टरी में कम से कम 30 मजदूर काम परथे जिसमें से 17 मजदूर जलकर मर गये।

23 जनवरी 2018 को हम पांच सदस्यीय टीम ने इस मामले कीतहकीकात करने के उद्देश्य से बवाना के उद्योगिक इलाका केसेक्टर पांच में गये। टीम सदस्य रोहित (छात्र, दिल्लीविश्वविद्यायल), जयगोबिन्द (संयोजकः मजदूर एकता मंच, दिल्ली), अभिनव (मजदूर वर्ग अध्ययन केंद्र, डीयू), अविनाश(छात्र, दिल्ली विश्वविद्यालय) और खालिद(संयोजकः दरख्त, सांस्कृतिक संगठन) थे। हमने आग लगी फैक्टरी और आसपासकी फैक्टरीयों को देखा। आसपास के मजदूरों और चाय कीरेहड़ी लगाने वाले, ट्रांसपोर्ट में काम करने वाले और फैक्टरी मेंआग लगने से प्रभावित हुए कुछ लोगों से बातचीत किया। इसइलाके के मजदूरों से बात करते समय यह साफ था कि मजदूरडरे हुए हैं और बात करते हुए अपने नाम का उल्लेख करने सेबच रहे थे। लेकिन लगभग सभी लोगों का कहना था कि फैक्टरीमें आग लगने से मजदूरों की मौत की संख्या 17 से अधिक है।और, यह आग एक ऐसी जानीबूझी घटना है जो मुनाफा कीहवस में इन मजदूरों को वहां झोंक दिया गया।

फैक्टरी के आसपास रह रहे लोगों ने बताया:

1.            शाम साढ़े चार बजे 46 चाय का आर्डर मिला थाजिसे मैंने फैक्टरी में पहुंचा दिया था। फैक्टरी में बाहर से तालाबंद रहता है इसलिए चाय हमें एक जगह रख देनी होती थी। फिरशाम को पांच बजे इतनी ही चाय का आर्डर आया। लेकिन मुझेदुकान बंद करनी थी इसलिए मैंने चाय नहीं दी। एक अन्य चायवाले ने यह आर्डर लिया। (आग लगी फैक्टरी में चाय बनाकरपहुंचाने वाले)। नोटः फैक्टरी में आग लगभग साढ़े सात लगी थी।

2.            आग बुझाने के लिए 15 के आसपास दमकल थे।आग विस्फोट के साथ लगी। इसमें बारूद था और आग एकदमसे पकड़ लिया। आग बुझने के बाद मैंने लाश निकलते हुए देखा।हमने खुद 29 लाश को निकलते हुए देखा है। (फैक्टरी माल ढोनेवाला एक ड्राइवर)।

3.            इस दौरान कुछ फैक्टरीयों में होली के त्योहार से जुड़ेहुए सामानों का उत्पादन होता है। यह फैक्टरी भी इसी तरह केमाल बनाने के नाम पर आई। हम लोगों को नहीं पता था कि यहांपटाखे बन रहे हैं। इस सेक्टर में तो प्लास्टिक का ही उत्पादनहोता था। बीच बीच में फैक्टरी के भीतर कुछ छोटे विस्फोट कीआवाजें तो आती थीं लेकिन हम लोगों ने इतना ध्यान नहीं दिया।(पास की फैक्टरी में काम करने वाला मजदूर)।

4.            आमतौर पर शनीवार को फैक्टरी बंद रहती है लेकिनइस फैक्टरी का मालिक पूरे हफ्ते 12 घंटे के शिफ्ट पर कामकराता था और इसके बदले 5000 हजार रूपये देना तय था।मेरी रिश्तेदार भी काम पर गई थी और उसी में जलकर मर गई।फैक्टरी में आग लगने की सूचना हमें रात लगभग दस बजेमिली। हम भागकर फैक्टरी पहुंचे फिर अस्पताल पहुंचे। वहांहमने मदीना (मृत महिला मजदूर) की शिनाख्त किया। परिवार मेंएकमात्र वही कमाती थी जिससे बच्चों का खर्च चलता था।(अख्तर, साईकल बनाने की दुकान चलाने वाले और मदीना केरिश्तेदार और फिरोज, मदीना का बेटा; मेट्रो विहार कालोनी केनिवासी)।

5.            मेरी बहन रीता वहां काम करती थी। वह फैक्टरीआग में जलकर खत्म हो गई। उसकी उम्र फैक्टरी में काम करनेवाली थी। वह 18 वर्ष से कम की थी। घर की आर्थिक हालतखराब होने की वजह से वह भी काम करती थी। फैक्टरी में 13-14 साल के और भी बच्चे काम करते थे। (दीपू, रीता का भाई)।

6.            मुझे पता था कि वहां पटाखे बनते हैं। मैंने अपने बेटेको कई बार मना किया लेकिन फैक्टरी का मालिक उसे दारू कीलत लगा दिया था और उससे काम कराता रहता था। पैसा भीअधिक नहीं देता था।(मृतक मजदूर अविनाश के पिता)।

7.            पांच सदस्यीय एक परिवार फैक्टरी में काम करताथा। वह पूरा परिवार उसमें जलकर मर गया है। यह फैक्टरी यहांपर 15 दिन पहले से ही काम करना शुरू किया था लेकिन इसकेपहले वह दूसरे सेक्टर में काम किया। वहां पर भी आग लगने कीवजह से उसे भगा दिया गया था। फिर यहां आया। यह हमेशाफैक्टरी में बाहर से ताला लगा देता था। कभी फैक्टरी के बाहरबोर्ड नहीं लगाया जाता कि यहां पर क्या बन रहा है, किस तरहकी सावधानी रखनी है, आदि। (मेट्रो विहार काॅलोनी के कईमजदूर)।

फैक्टरी में आग लगने और मजदूरों की मौत के बाद मीडिया मेंखबर तेजी से फैली। आमतौर पर रिपोर्ट प्रशासन के हवाले सेदिया गया। फैक्टरी में आग लगने के बाद दिल्ली सरकार औरएमसीडी के पार्टी नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलाऔर एक दूसरे को दोषी ठहराने का क्रम जारी रहा। हालांकिदिल्ली में इस तरह आग लगने और मजदूरों के मरने की पहलीघटना नहीं थी। लेकिन यह घटना बहुत तेजी से राजनीतिकपरिदृश्य से गायब हो गया। आईए, एक नजर इन औपचारिकरिपोर्ट पर डालते हैंः

1.            हिन्दुस्तान टाइम्स, न्यूज पोर्टल, 21 जनवरी 2018, श्वेता गोस्वामी की रिपोर्ट के अनुसार वहां कम से कम 30 लोगघटना के समय काम कर रहे थे। और फैक्टरी के भीतर सिर्फ दोआग बुझाने वाले बाॅक्स थे। रिपोर्टर के अनुसार, ‘कायदे से वहांप्रत्येक फ्लोर पर धुंआ डिटेक्टर, अलार्म और पानी छिड़कनेवाला संयत्र होना चाहिए था। लेकिन इस बिल्डिंग में ऐसा कुछभी नहीं था। (अतुल गर्ग, अतिरिक्त निदेशकः दिल्ली फायरसर्विस)’।

2.            उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार फैक्टरी बेसमेंट, ग्राउंडऔर प्रथम तल पर काम करती थी। ‘बेसमेंट में एक और ग्राउंडफ्लोर पर तीन लोग मिले। 13 लोग प्रथम तल में थे। मृतकों में सेकुछ एक दूसरे को पकड़कर लेटे या बैठे हुए थे। (अतुल गर्ग, अतिरिक्त निदेशकः दिल्ली फायर सर्विस)।’

3.            ‘अब तक की जांच में उसने बताया है कि हरिद्वार, उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों से विस्फोटक और विस्फोटकसामग्री, कच्चा माल यहां रखता था। उसे इस तरह का सामानरखने की लाइसेंस नहीं था। (पुलिस अफसर का कोर्ट में 23 जनवरी 2018 को बयान)।’

4.            ‘फैक्टरी मालिक मनोज जैन को पुलिस के अनुसारशनिवार की शाम को गिरफ्तार कर लिया गया। उस पर इंडियनपीनल कोड की धारा 285, 304, 337 के तहत बवाना पुलिसस्टेशन में मामला दर्ज किया गया है। (इंडियन एक्सपे्रस, 21 जनवरी 2018)।‘

5.            22 जनवरी 2018, इंडियन एक्सप्रेसः ‘यहां ज्यादातरफैक्टरीयां अवैध है इसके चलते हमें कोई सुरक्षा कार्ड उपलब्धनहीं है। आमतौर पर हमारी तनख्वाह में से 150 रूपये काटलिया जाता है, ...जो हमारे स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए है लेकिनचूंकि फैक्टरी कागज पर होता नहीं इसलिए हमें कोई लाभ भीनहीं मिलता। (जौनपुर से आया एक मजदूर)।’ ‘यह जमीन एकआदमी को डीएसआईआईडीसी से मिली। इसने एमसीडी से एकखास फैक्टरी के लिए लाईसेंस लिया। लेकिन यह होता नहीं है।अस्सी प्रतिशत फैक्टरीयों के मालिक इसे बंद कर देते हैं औरफिर किसी किराये पर उठा देते हैं। यह नया आदमी नया लाईसेंसनहीं लेता। लेकिन वह वही पैदा करने में लग जाता है जिसकाउत्पादन वह चाहता है। इसलिए यहां असली बंदा नहीं मिलेगाक्योंकि जो रिकार्ड बुक में है वह नहीं बल्कि कोई और फैक्टरीचला रहा है। (गोरखपुर से आया हुआ एक मजदूर।)’ नोटःफैक्टरी चलाने वाला मनोज जैन है लेकिन इस फैक्टरी कोकिराया पर उठाने वाला ललित गोयल है, वह भी अबसहअभियुक्त है। इस फैक्टरी आग में मरने वाले सबसे अधिकमहिला और बच्चे हैं।

6.            ‘फैक्टरी आग से बच निकलने वाले दो लोगों में सेएक 40 साल की सुनिता हैं। उन्हांेने बताया कि वह वहां दो दिनसे काम कर रही थीं। ‘मुझे 6000रूपये प्रति महीने ...200 रूपये प्रतिदिन मिल रहा था। ...मैं पटाखों में बारूद भरने काकाम कर रही थी तब मुझे दिखा कि धुंआ उठ रहा है। किसी नेभाग निकलने के कहा और मैं सबसे ऊपरी तल पर चली गई।तब तक लोग चीखने चिल्लाने लगे थे। वे बोल रहे थे कि कूदने केअलावा कोई रास्ता नहीं है। इस तरह मैं कूद गई और बेहोश होगई। जब मैं उठी तो मैं अस्पताल में थी और मेरा पैर टूटा हुआथा। (21 जनवरी 2018, इंडियन एक्सपे्रस)।’ इसी रिपोर्ट मेंऔर लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं थे। अब भी लोग ‘गायब’ हैंऔर उनके बच्चे इस उम्मीद में हैं कि ‘उन्हंे’ हम खोज लेंगे।देखेंः 21 जनवरी 2018, इंडियन एक्सपे्रस, अभिषेक अंगदऔर आनंद मोहन की रिपोर्ट।

7.            घोषित मृतकों की संख्या 17 है जिसमें से 10 महिलाएं हैं।

हमारी टीम फैक्टरी इलाका और मजदूर बस्ती के एक हिस्से में23 जनवरी 2018 को छह घंटे तक जांच-पड़ताल किया।निश्चित रूप से यह जांच-पड़ताल सीमित स्तर तक ही हो पाया।हम प्रभावित परिवारों और उस क्षेत्र लोगों से मिले जो निश्चय हीतकलीफ, डर और संशय से गुजर रहे थे। इस दौरान हमअखबारों में छप रही खबरों पर नजर रखे हुए थे। अन्य मजदूरइलाकों और आमतौर पर मजदूरों के काम के हालात की खबरें, लेखों से रूबरू होने पर यह साफ था कि यहां भी हालात अन्यजगहों जैसे ही बदतर हैं। हम अपनी ओर से फैक्टरी में आग, मृतकों की संख्या और अन्य मसलों पर अपनी राय रख रहे हैंः

1.            फैक्टरी में काम के हालात अत्यंत खराब हैं।फैक्टरीयों में आमतौर पर निकासी गेट और प्रवेश गेट एक ही है।फैक्टरी के बाहर सुरक्षा निर्देश, फैक्टरी के बारे में जानकारी केबोर्ड हमें कहीं नहीं दिखे। जिस फैक्टरी में आग लगी थी उसफैक्टरी में काम करते वक्त बाहर से ताला लगा दिया जाता था।यह भी फैक्टरीयांें में मालिकों द्वारा बंधक बनाकर काम लेने काएक तरीका है। फैक्टरीयों के भीतर रजिस्टर, मजदूरों कापंजीकरण नही ंके बराबर होता है। ठेका प्रथा ने इस स्थिति कोऔर भी बदतर बना दिया है। प्रवासी मजदूर आमतौर पर अकेलेही काम करने आते हैं। उनकी रिहाईश की स्थिति भी बदतरस्थिति में होने और नियमित काम न होने से यह जान सकना भीमुश्किल रहता है कि मजदूर किस फैक्टरी में कब काम कर रहाहै। इस हालात में फैक्टरी के भीतर आग लगने पर होने वालीमौतों की संख्या निर्धारित करना एक कठिन काम है। ज्यादातरअखबारों ने फैक्टरी के भीतर काम करने वालों की संख्या 30 निर्धारित किया है। आमतौर पर वहां के मजदूर लोग यह संख्या40 या उससे ऊपर बता रहे हैं। हमारा मानना है कि बताई गईमृतकों की संख्या संदिग्ध है। इस संदर्भ में एक जांच कमेटीबननी चाहिए।

2.            दिल्ली सरकार ने मृतकों को पांच लाख और घायलोंको एक लाख मुआवजा देने की घोषणा किया है। इस रिपोर्ट कोआप के सामने पेश करने तक अखबारों ने खबर दी है कि यहरकम चेक द्वारा प्रभावित लोगों को दिया जा चुका है। हमारामानना है कि यह रकम एक परिवार को आर्थिक और सामाजिकरूप से खड़ा करने के लिए अत्यंत कम है। यह रकम कम से कम20 लाख रूपये होनी चाहिए।

3.            दिल्ली सरकार के श्रम मंत्री और एमसीडी मेयर दोनोंही अवैध तरीके से चल रही फैक्टरी और उसमें लगी आग मेंमजदूरों की मौत के लिए जिम्मेदार हैं। उन्हें अपने पद पर बनेरहने का कोई अधिकार है। हम उनसे उनकी इस्तिफे की मांगकरते हैं। पुलिस और एमसीडी कर्मचारियों की फैक्टरी मालिकके साथ मिलीभगत साफ है। हम मांग करते हैं कि दोषी लोगों केखिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाय।

4.            फैक्टरीयों में काम के जो हालात हैं उसमें मजदूरों कीमृत्यु या दुर्घटना ग्रस्त होने संभावना कहीं ज्यादा है। फैक्टरीयों केभीतर न तो न्यूनतम सुविधाएं हैं और न ही न्यूनतम मजदूरी दियाजाता है। ऐसे में मजदूरों और उसके परिवार की जीवन सुरक्षाकी गारंटी दिल्ली और केंद्र की सरकार को लेनी चाहिए।

5.            जिसके नाम से फैक्टरी पंजीकृत था उसने उसे बंदकर दिया था और इसे वह मनोज जैन नाम के व्यक्ति को फैक्टरीचलाने के लिए किराये पर उठा दिया था। यह वहां सारे नियमोंका उलंघन कर विस्फोटक इकठ्ठा करने और पटाखा बनाने आदिका काम कर रहा था। ऐसे में एमसीडी मेयर और दिल्ली सरकारके मंत्री के बीच आरोप-प्रत्यारोप से इतना साफ है कि फैक्टरीचलाने वाले पैसे और पहुंच का इस्तेमाल कर मजदूरों की जिंदगीदांव पर लगाकर मनमाने तरीके से मुनाफा कमाने में लगे हुए हैं।ऐसे में दोषी अधिकारियों और पार्टियों के पदाधिकारियों केखिलाफ भी मामला दर्ज करना चाहिए।

6.            मनोज जैन इस फैक्टरी को लगाने के पहले अन्यजगहों पर फैक्टरी लगाया था। ऐसा लगता है कि वह अपनीफैक्टरी किराये पर चलाता आया है। लोगों ने बताया कि इसकेपहले भी उसकी फैक्टरी में दुर्घना हो चुकी है। ऐसे में नये जगहपर फैक्टरी लगाते समय पुलिस को जानकारी न हो, ऐसा नहीं होसकता। खासकर, बारूद मंगाना, उसे रखना, उसका प्रयोगकरना आदि पुलिस की जानकारी के बिना संभव नहीं है। पुलिसकी संदिग्ध भूमिका और इसे नजरअंदाज करने वाले अफसरों केखिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।

7.            मनोज जैन और ललित गोयल पर जिन धाराओं केतहत मुकदमें दर्ज हुए हैं वह नाकाफी हैं। उसने फैक्टरी के गेटपर ताला लगाकर मजदूरों से काम कराया जबकि ये मजदूरबारूद के साथ काम कर रहे थे और फैक्टरी के अंदर सुरक्षा कीकोई गारंटी नहीं थी। ऐसे में इन पर मुकदमा इसके अनुरूपधाराओं के तहत दर्ज होना चाहिए। यहां हम मारूती सुजुकी मेंएक प्रबंधक की मौत पर सैकड़ों मजदूरों को हत्या के मामलों मेंपकड़ा गया, कई सालों तक मजदूरों को जेल में रखा गया औरअंततः न्यायाधीश ने 13 मजदूरों को आजीवन कारावास कीसजा दी। जबकि प्रबंधक की मौत संदिग्ध हालत में हुई थी औरकिसी एक मजदूर या मजदूरों के समूह पर आरोप तय सकना भीमुश्किल था। वस्तुतः यह पुलिस की भूमिका थी जिसने एकप्रबंधक की मौत पर सैकड़ों मजदूरों को जेल में डाला और कुल17 मजदूरों को सजा तक पहुंचा दिया। यह पुलिस ही है जोबवाना में फैक्टरी मालिक की वजह से कम से कम 17 लोगों कीमौत को मालिक के ‘लापरवाही’ तक सीमित कर देना चाहता है।हम मांग करते हैं कि मनोज जैन और ललित गोयल के खिलाफमजदूरों की इरादतन हत्या करने की धाराओं के तहत मामलादर्ज किया जाय। और, साथ ही उन पर बंधुआ मजदूर निवारणअधिनियम 1976 के तहत भी मुकदमा दर्ज किया जाय।

8.            हम मांग करते हैं कि दिल्ली में मजदूरों के काम केहालात, न्यूनतत मजदूरी, नियुक्ति, नियमितिकरण, सुरक्षा, जीवनबीमा नीति, संगठन और रिहाईश जैसे मसलों का अध्ययन केलिए कमेटी गठित करे और इसे ठीक करने के लिए तुरंत कदमउठाये। मजदूर परिवारों की सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिएतुरंत कदम उठाये। दोषी फैक्टरी मालिकों के खिलाफ सख्तकदम उठाया जाय।

9.            हम छात्रों और बुद्धिजीवी समुदाय से अपील करते हैंकि वह मजदूर वर्ग के पक्ष में खड़े हो। मजदूर वर्ग को संगठितहोने में अपनी भूमिका दर्ज करे और देश में जनवाद को बनाने केलिए उनके साथ खड़े होकर एकजुटता प्रकट करे।
००
प्राथमिक जांच दल के साथी:
रोहित कुमार(08743803045), जयगोबिन्द(08802903407),
अविनाश(07836816345),              खालिद(07838624792),
अभिनव(08789234469)
 जारी; दिनांक: 29 जनवरी 2018,
दिल्ली



परिशिष्टः दिल्ली और एनसीआर में आग लगने और उसमें हुईमौतों का एक छोटा सा विवरण-

2018

Jan 16: Factory gutted in fire in west Delhi’s Peeragarhi

Jan 15: Four people were critically injured after a fire broke out at a plastic factory in Sriniwaspuri

2017

Nov 18: A massive fire broke out in a plastic scrap market in Mundka

Oct 24: A major fire gutted numerous shops and godowns in Kamla Market area. No casualties

Oct 16: Close shave for six firemen as a building on fire collapsed in Mansarovar Garden

Sept 7: One dead after fire engulfed Haldiram’s factory in Noida

May 26: A 50-year-old man died in a fire at a plastic factory in Narela

May 22: A major fire in Chandni Chowk area gutted over 50 shops

March 26: One man was killed in a fire at a plastic factory in Narela

April 19: Six killed as a fire broke out in a Noida electronic goods unit

Feb 24: Two firemen killed in a fire at a restaurant in Vikaspuri

2016

Sept 30: Three killed when a plastic factory on fire collapsed in the middle of rescue ops in Narela

April 26: A huge collection at the National Museum of Natural History was destroyed in a fire

April 12, 2013: Two kids died when a fire broke out in Bawana slums

Nov 20, 2013: Fourteen dead when a fire broke out in Nandnagari

April 28, 2011: 10 labourers charred to death in a major fire in Peeragarhi

June 22, 2009: Two killed in a fire at a slum in Karkardooma

May 31, 1999: 57 persons were killed when a fire broke out at Lal Kuan chemical market complex

June 13, 1997: 59 people were killed and 103 wounded when Uphaar cinema in Green Park caught fire

1992: Fire in Naya Bazar. Three houses collapsed. Three dead

1996: Three dead after transformer catches fire in Khari Baoli

1987: Four dead after fire in chemical godown in Gandhi Gali, Tilak Bazar

January 1986: A fire broke out at The Siddharth Hotel in Vasant Vihar killing 37 and injuring 39. It was later renamed Vasant Continental

30 जनवरी, 2018

नागराज मंजुले की कविताएं
मराठी से हिन्दी अनुवाद: टीकम शेखावत





नागराज मंजुले 


कविताएँ


धूप की साज़िश के खिलाफ़

इस सनातन
बेवफ़ा धूप
से घबराकर
क्यों बन रही हो तुम
एक सुरक्षित खिड़की की
सुशोभित बोन्साई!
एवं
बेबसी से मांगती हो.... छाया.

इस अनैतिक संस्कृति में
नैतिक होने की हठ की खातिर......
क्यों दे रही हो
एक आकाशमयी
मनस्वी विस्तार को
पूर्ण विराम!

तुम खिल
क्यों नहीं जाती
आवेश से
गुलमोहर की तरह.....
धूप की साज़िश के ख़िलाफ़.



दोस्त

एक ही स्वभाव के
हम दो दोस्त

एक दुसरे के अजीज़
एक ही ध्येय
एक ही स्वप्न को जीने वाले

कालांतर में
उसने आत्महत्या की
और मैंने कविता लिखी.












 मेरे हाथो में न होती लेखनी


मेरे हाथो में न होती लेखनी
तो....
तो होती छीनी
सितार...बांसुरी
या फ़िर कूंची

मैं किसी भी ज़रिये
उलीच रहा होता
मन के भीतर का
लबालब कोलाहल.




‘क’ और ‘ख’

क.

इश्तिहार में देने के लिए
खो गये व्यक्ति की
घर पर
नहीं होती
एक भी ढंग की तस्वीर.



ख.

जिनकी
घर पर
एक भी
नहीं होती ढंग की तस्वीर
ऐसे ही लोग
अक्सर खो जाते हैं.



जनगणना के लिए

जनगणना के लिए
‘स्त्री / पुरुष’
ऐसा वर्गीकृत कागज़ लेकर
हम
घूमते रहे गाँव भर

और गाँव के एक
जटिल मोड़ पर मिला
चार हिजड़ो का
एक घर






मैं किताब ही धारदार करता हूँ

अकेला हूँ मैं
और इस  निर्दयी संसार में
अकेले दुकेले इन्सान को
अपनी रक्षा हेतु
रखना चाहिए कुछ...
इसलिए साथ रखता हूँ किताब


कही भी रहूँ मैं,
किताब होती है साथ

नहीं पढ़ रहा होता हूँ
तब भी
लेटा होता हूँ उसे सीने पर रखकर
प्रेयसी की तरह

समय असमय,
मुझे अकेला पाकर
धावा बोलती शून्यता के लिए
मैं किताब ही धारदार करता हूँ ..तलवार की तरह








तुम बोल सकती हो

तुम बोल सकती हो, मनचाहे सटीक शब्द
मेरी कविता से झूठाएँ होठों से
बता सकती हो होठों पर पड़े निशानों की
कहानी कोई और

तुम नकार सकती हो
जनकत्व
मेरे भीतर के खालीपन का
पगली को नामालूम स्वयं के फुले गर्भ जैसा

जीर्ण पीपल के पत्ते पर नहीं ठहरते
उँगलियों के निशान
ख़त तुम्हारे अब भी हैं मेरे पास
परन्तु लिखते लिखते अब
बदल ही गई होगी लिखावट तुम्हारी

इतनी क्रूर समझ आ ही गई होगी तुम्हें
कि
बलात्कार का रहस्य
नहीं करता उजागर मृत गर्भाशय
तुम पूछ सकती हो मुझसे मेरी नई पहचान
मैं मृतदेह की खुली आँखों में पर्दानशीन एक आशय




प्रश्न

किसी के बाप बन जाने की
खुशखबर सुनकर
कोई हिजड़ा
नाचते नाचते,
कहाँ जाएगा

सूर्योदय का वर्णन सुनकर
कोई जन्मांध
क्या देख सकेगा!




तुम अब

तुम
अब
मेरे लिए
जैसे
आत्महत्या का
कोई ख़त पुराना सा





स्पर्शातुर अबोध काँटों को

स्पर्श के लिए आतुर
अबोध कांटे
नहीं जानते
हेतु के जंतु
दरअसल काँटों को सहलाना
सदा ही
होता है खतरों से भरा....
फिर से कहोगे
ऐसा अपेक्षित न था




तुम्हारे आने से पहले एक ख़त

छत्रपति शिवाजी पुल तक ही
तुम्हारी फ़ोर व्हीलर आ सकेगी!
आगे  की ओर झोपड़पट्टी तक
अब भी एक संकरी पगडंडी ही
सीध में
कूड़े के ढेर से निकलकर आगे की ओर आती है.
पुल पर से देखोगी तब
नगर निगम के सार्वजनिक शौचालय के समीप
जिन जर्जर टीन-पतरों का धड़ पीछे समां गया है
वैसे बौने से मकान
खाली माचीस के गुबार समान नज़र आएंगे.
तुम्हें मन और संतुलन दोनों संभालकर
आगे की ओर आना होगा.
आगे आओगी तब  मिलेंगे
चिंघाड़ते  स्पीकर
शराब के ठेके पर उलझे संवाद

तिकड़मबाजों, मियां बीवी के रोज़ वाले विवाद!
कुछ एक गालियाँ भी तुम्हारे कानो में आएगी...शायद
शरम मत करना!
फटेहाल कुछ छोटे बच्चे
तुम्हें कुतूहल से देखेंगे!
वो बच्चे जिनके रास्ते खो गए हैं
उन्हीं से मेरे घर का रास्ता पूछ लेना!
तुम्हारे परफ्यूम की खुशबू से चाल महक जाएगी
उन बच्चो के पीछे तुम जिस रास्ते से आओगी
संभवतः उस रास्ते पर पीछे से लोग इकट्ठे हो जायेंगे
घबराना म़त!
जब तुम बड़ी सी गटर पार कर लोगी
तब दिखेगा
स्वप्नपुर्ती बिल्डर्स की विशालकाय होर्डिंग्
के खम्बों के सहारे
टिका मेरा घर.
आओगी मेरे दस बाय दस के घर में
तब
मेरी  भोली भाली माँ करेगी
अपनी हैसियत संभव स्वागत!
रहूँगा बनियान-तौलिये में मैं
जलता-बूझता हमारा चूल्हा
और स्याह काली चाय
आल इन वन-घर हमारा!
...यह सब
आखों में देखकर तुम्हारे
कि तुम्हें आ रही है घिन
विवश हो जाऊंगा मैं
घृणा करने खुद से ही.....
तुम्हें मुझसे बेहद प्रेम है
तुम्हारे ‘डेड’ मुझे नया नवेला भविष्य भी खरीद के दे ही देंगे
ठीक हैं
परन्तु....
मैं खुद से घृणा करने लगु
इतनी मेहरबानी मत करना मुझ पर!
हो सके
तो मत आना  मेरे गरीबखाने पर....
तुमने जो सपने देखे हैं
वे इस ज़मीन पर पनप नहीं पाएंगे...
और बोन्साय हो जाना मुझे स्वीकार नहीं!
ले जाओ तुम
तुम्हारे सपनों के बीज!
खोज लो एक नई उर्वर ज़मीन
मेरी यह बंजर ज़मीन
कभी न कभी गर्भवती होगी ही
यहाँ भी फूल खिलेंगे
सपने पुरे होंगे....
किन्तु तब तक
मुझे मेरे सपनों को खाद और पानी देना होगा
मुझे उसी में जुट जाना होगा
मेरे अपने निस्तेनाबुद लोगों की खातिर.....









मैं छाव ढूंढता हूँ.

एक निर्मम दोपहरी
घूम घामकर आ जाता है बाप
सुलगते हुए...
धूप की ही तरह .

सवाल पूछ रही हैं
हम बच्चों की उम्मीद भरी गीली आँखे
और उसकी आँखों से
टपक रही है ज़माने भर की धूप
जब सांस छोड़ता है
तो उड़ता है
प्रस्थापित पगडंडियों का रास्ता
बंजर व धुल भरा

तपी हुई ज़मीन की दरारे
जैसे देखती हैं आकाश को
वैसे ही बाप देखता है मेरी ओर
तब
मैं छांव तलाशता हूँ
इस निर्धारित निराशामयी पुस्तक में!
परन्तु धीमे धीमे
यही भ्रष्ट धूप
फैल गई है मेरे भी मस्तिष्क में




पर्याय

मैंने खोजना चाहा पर्याय प्रेमिका का
और मैंने खोजना चाहा पर्याय माँ का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले ही भटकते रहने का
दारुण दुःख का और निर्दयी खालीपन का
मैंने खोजना चाहा पर्याय अकेले में आँसू बहाने का
मैंने लोगो के बीच घुलमिल कर रहा
दोस्त बनाये
आदतें बदल के देखी
और बदला समय सोने-जागने का
मैंने खुद को डुबो के देखा शराब के प्याले में
कई सारे व्यसन कर के देखे
छान दिए प्रदेश
भटकते रहा अच्छी बुरी गलियों में
एवं जो भी मिली
उस किताब के पन्ने पन्ने छान दिए  प्रेम से
मैंने समा कर देखा आत्मीयता से
हर तरह के व्यक्ति के भीतर
फ़िर भी नहीं मिला
मेरे काँटों भरे जीवन जीवन का पर्याय

मैंने जी कर देखा
मैंने मर कर देखा
मेरे जीने मरने का नहीं है
कविता के सिवा और कोई पर्याय




नागराज मंजुले सिनेमा की दुनिया का एक सशक्त युवा सितारा हैं जिसने बहुत कम समय में दर्शको के दिलों मे घर कर लिया हैं। फिल्म 'पिस्तुल्या' के उन्हें को 2010 में 58वां नेशनल फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। इसके अलावा फिल्म 2013 में फिल्म 'फैंड्री' के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड और इंदिरा गांधी अवॉर्ड, बेस्ट फर्स्ट फिल्म अवॉर्ड मिल चुका है। 2016 में ही सैराट फिल्म को 69 वें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा गया है। इसके साथ ही वे मराठी के जाने माने कवि भी हैं। उनका काव्यसंग्रह ‘उन्हाच्या कटाविरुध’ (धूप की साज़िश के खिलाफ़) ख़ासा चर्चा मे रहा है।

इन कविताओं का मराठी से हिंदी अनुवाद किया है टीकम शेखावत ने. टीकम शेखावत टाइम्स ऑफ़ इंडिया, पुणे के ह्यूमन रिसोर्स डिपार्टमेंट में डिप्टी चीफ मैनेजर हैं. इसके अलावा वे कवि, अनुवादक एवं  फ़िल्म समीक्षक भी हैं.

संपर्क : ई-पत्र  tikamhr@gmail.com



टीकम शेखावत 



28 जनवरी, 2018

 हालीना  पोस्वियातोव्स्का की कविताएं 

रूसी से अनुवाद — अनिल जनविजय




हालीना 




कविताएँ


कितनी बार मरा जा सकता है प्रेम में

कितनी बार मरा जा सकता है प्रेम में
पहली बार लगती है धरती कटु
कड़वा-सा स्वाद
कसैला रंग
और आग-सा लाल गुडहल

दूसरी बार— स्वाद कुछ खाली-सा
श्वेत तरल
ठंडी हवा
अघोष गूँजते पहियों के स्वर

फिर तीसरी बार, चौथी बार, पाँचवी बार
दिनचर्या गुम हुई, पहले से कम बुलन्द
चारों तरफ़ दीवार है
और मेरे ऊपर छा रही है परछाईं तुम्हारी





जब मैं मर जाऊँगी, प्रिय

जब मैं मर जाऊँगी, प्रिय
जब छोड़ दूँगी यह दुनिया
बन जाऊँगी चीज़ वह बेचारी, जिसे सँभाल नहीं पाए तुम ।

तुम मुझे हथेली पर उठा लोगे
और इस पूरी दुनिया से छुपा लोगे
पर क्या तब बदल सकोगे तुम भाग्य को ?

मैं तुम्हारे बारे में सोचती हूँ
मैं तुम्हें पत्र लिखती हूँ
मेरी भोली बातों में रहता है मेरा प्यार ।

सारे ख़त मैंने वे छुपा रखे हैं चूल्हे में
हर पंक्ति में उनकी आग छुपी है
जब तक मैं सो नहीं जाती इस अकेलेपन की राख में ।

प्रिय, देखती हूँ लपट को और सोचती हूँ
क्या होगा मेरे इस बेचैन मन का
जो चाहता है तुझे ?

तुम मुझे मेरे प्रिय
मरने नहीं दो इस दुनिया में
जो इतना ठंडी है, काली है, मेरे दर्द की तरह ।









मैं अंकों के जादू पर क्यों मोहित हूँ? 

अकों के जादू पर क्यों मोहित हूँ मैं ?

अंकों से आँक सकती हूँ मैं अनंत और अपार
अपनी यह उदासी और अपना प्यार

अंकों से बाँध सकती हूँ मैं उसे
ताकि दिन मेरे फिसलें वैसे ही
जैसे हीरे पर फिसलती है धूप

ताकि जीवन चले वैसे ही चुपचाप
औ’ उदासी की उस पर पड़े न कोई छाप ।




हमारा प्यार मुज़रिम है

हमारा प्यार मुज़रिम है
मौत की सज़ा मिल चुकी है उसे
मर जाएगा
बस्स, दो ही महीनों में

बहुत जगह है दुनिया में
समय है बहुत
अब तुम छोड़ दो मुझे

दुनिया बहुत कमज़ोर है
मज़बूर है
चूम कर भी
अब मैं रोक नहीं सकती तुम्हें




क्या दुनिया भी मर जाएगी कुछ

क्या दुनिया भी मर जाएगी कुछ
जब मरूँगी मैं ?

देख रही हूँ मैं
दुनिया चल रही है अपनी गति से
लोमड़ी की खाल में लिपटी

लोमड़ी की खाल का एक रोआँ भर हूँ बस्स
कभी यह सोच भी न पाई थी मैं

मैं हमेशा यहीं रही
और वह रहा वहाँ पर

लेकिन फिर भी
यह सोचना अच्छा लगता है
कि दुनिया भी मर जाएगी कुछ
जब मर जाऊँगी मैं








मेरी बर्बर भाषा में

मेरी बर्बर भाषा में
फूलों को फूल कहा जाता है
और हवा को हवा

सड़क की हड्डियों को रौंदते हुए
मेरी जूतियों की एड़ियाँ
ठकठकाती हैं ठक-ठक

इतनी कोमलता से कहती हूँ — पत्थर
मानो वह पत्थर नहीं मखमल का टुकड़ा हो

अपना सिर तेरी गोद में छिपाती हूँ
जैसे बिल्ली गर्म फ़र में छिपाती है मुँह

मुझे पसन्द है
अपनी यह बर्बर भाषा
कहती हूँ — पसन्द है यह भाषा




एक ग्रह है पूरा अकेलेपन का

मेरा यह नक्षत्र है एकाकी
औ’ एक नन्हा रेतकण तेरी हँसी का

एक समुद्र है पूरा एकान्त का
औ’ यह सेवा तुम्हारी
समुद्र पर आकाश में भटकती कोई चिड़िया

सारा आकाश एकाकी है मेरा
बस्स, एक देवदूत है वहाँ
तेरे शब्दों के पंखों पर उड़ता हुआ




उदास होना मुझे पसन्द है

मुझे पसन्द है उदास रहना
रंगों और आवाज़ों के जंगले पर चढ़ना
अपने खुले होठों से
सरदी की गंध को पकड़ना

मुझे पसन्द है अकेलापन
लटका है जो
उस ऊँचे पुल से भी ऊपर
बहुत-बहुत ऊपर
आकाश को अपनी बाहों में बाँध|



पोलिश कविता में हालीना  पोस्वियातोव्स्का का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने जीवनभर दुख झेला और अपने जीवन का अधिकांश समय अस्पतालों में बिताया। 9 मई 1935 को पोलैण्ड के चेंस्तख़ोवा शहर में जन्म लेने वाली हालीना मीगा ने क्राकोव विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम० ए० किया। लेकिन उन्हें अस्थमा हो गया और जब इस बीमारी का पता चला, तब तक बीमारी ने उन्हें बुरी तरह से घेर लिया था। इसके बाद अस्पताल ही जैसे उनका घर बन गया था।  11 नवम्बर 1967 को लम्बी बीमारी के बाद 32 वर्ष की उम्र में ही उनका देहान्त हो गया। उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे — आज का दिन (1963), हाथों का गीत (1966), एक और स्मृति (1967) । इसके अलावा उन्होंने एक आत्मकथात्मक लघु उपन्यास भी लिखा है, जिसका शीर्षक है —  दोस्त के लिए एक कहानी।



रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय

अनिल जनविजय 


26 जनवरी, 2018


डॉ राकेश जोशी की गज़ले 



डॉ राकेश जोशी 



एक 
हर तरफ नारे लिखे हैं

बेवज़ह सारे लिखे हैं


जिसने ये धरती लिखी है

उसने ये तारे लिखे हैं


आदमी के नाम काँटे

और अंगारे लिखे हैं


यूँ भटकने के लिए तो

सिर्फ़ बंजारे लिखे हैं


बस ग़रीबों के लिए ही

सारे अँधियारे लिखे हैं


सभ्यता के नाम पर अब

गिट्टियां, गारे लिखे हैं


इस ज़मीं पर ढेर-सारे

दर्द के मारे लिखे हैं




दो 

अँधेरों में भटकना चाहता हूँ

उजालों को परखना चाहता हूँ


ये अंगारे बहुत बरसा रहा है

मैं सूरज को बदलना चाहता हूँ


हवा ये क्यों अचानक रुक गई है

मैं थोड़ा-सा टहलना चाहता हूँ


कई दिन से तुम्हें देखा नहीं है

मैं तुमसे आज मिलना चाहता हूँ


मैं काँटे बन नहीं रह पाऊंगा अब

मैं फूलों-सा महकना चाहता हूँ


सड़क पर तो बहुत मुश्किल है चलना

मैं गलियों से निकलना चाहता हूँ


ये रूपया तो फिसलता जा रहा है

मैं गिरकर फिर सँभलना चाहता हूँ




तीन 

ख़ुद से मिलकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे

जब भी घर पर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे


चौबे जी जब चले थे छब्बे जी बनने

दूबे जी बन लौटे तो फिर ख़ूब हँसे


बड़े मदारी बनते थे वो शहर-शहर

साँप से डरकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे


जब भी लौटे सदा उदासी में लौटे

हँसकर जिस दिन लौटे तो फिर ख़ूब हँसे


ख़ुद को ढूंढ रहे थे जो जंगल-जंगल

बंदर से मिल लौटे तो फिर ख़ूब हँसे


दुनिया के दुःख देख के जब भी आँखों में

आँसू भरकर लौटे तो फिर ख़ूब हँसे









चार 

रात फिर देर तक जगी होगी

चाँदनी छत पे सो गई होगी


मैं जिसे कल ही भूल आया था

वो मुझे याद कर रही होगी


मैंने उसको नहीं दिया धोखा

उसकी चाहत में ही कमी होगी


जिसके खेतों में थी फ़सल कल तक

उसको रोटी नहीं मिली होगी


ख़ूब पैसे बहा दिए होंगे

पर ग़रीबी नहीं मिटी होगी


वक़्त के इन उदास पन्नों पर

मेरी आँखों की भी नमी होगी




पांच 

ये जनता अब न सहना चाहती है

निज़ामों को बदलना चाहती है


छतों पर जम गई है बर्फ़ शायद

हरेक  दीवार ढहना चाहती है


मैं उसके दिल में रहना चाहता हूँ

वो मेरे साथ रहना चाहती है


नदी कितनी अकेली हो गई है

मेरी आँखों से बहना चाहती है


यहाँ जो ज़लज़ला

 आया है फिर से

ये धरती कुछ तो कहना चाहती है








छः 

बंद हैं सब इस शहर की बत्तियां

पेड़ पर भी अब नहीं हैं पत्तियां


फूल हमको हर बग़ीचे में मिले

भूख में पर याद आईं सब्ज़ियां


भूख के क़िस्से थे, तुम थे, और मैं

रास्ते में जब मिलीं कुछ बस्तियां


दम मेरा घुटने लगा था आज फिर

दूर से दिखती रहीं कुछ खिड़कियां


रात बचपन की कहानी फिर सुनी

याद आईं ढेर-सारी छुट्टियां


एक दिन दुनिया को बदलेंगी यही

आँगनों में खेलतीं ये लड़कियां


सात 

तुम अँधेरों से भर गए शायद

मुझको लगता है मर गए शायद


दूर तक जो नज़र नहीं आते

छुट्टियों में हैं घर गए शायद


ये जो फ़सलें नहीं हैं खेतों में

लोग इनको भी चर गए शायद


काग़ज़ों पर जो घर बनाते थे

उनके पुरखे भी तर गए शायद


क्यों सुबकते हैं पेड़ और जंगल

इनके पत्ते भी झर गए शायद


तुम ज़मीं पर ही चल रहे हो अब

कट तुम्हारे भी पर गए शायद


उनके काँधे पे बोझ था जो वो

मेरे काँधे पे धर गए शायद


सिर्फ कुछ पत्तियाँ मिलीं हमको

फूल सारे बिख़र गए शायद




आठ 

वो जो चालाकियाँ समझ पाया

उसने धोखा कभी नहीं खाया


मैंने पत्थर कभी नहीं तोड़े

तुमको लिखना कभी नहीं आया


अक़्ल का मैं बड़ा ही दुश्मन हूँ

जो न संसार को समझ पाया


ज़ुल्म वैसे तो वो भी ढाते थे

ज़ुल्म ऐसा मगर नहीं ढाया


उसकी ग़ज़लें बहुत ही अच्छी हैं

गीत लेकिन वो गा नहीं पाया


उसको डरपोक लोग भाते हैं

मेरा तेवर उसे नहीं भाया


मैंने सोचा चलो तुम्हें मिल लूँ 

इसलिए मैं यहाँ चला आया


वैसे मिलने को भीख मिलती है

माँगकर खाया भी तो क्या खाया




नौ 
बंद सारी खिड़कियाँ हैं, सो रही हैं

नींद में गुम बत्तियाँ हैं, सो रही हैं


तुम इन्हें परियों के सपने सौंप दो

इस तरफ कुछ बस्तियाँ हैं, सो रही हैं


किसने पतझड़ को बुलाया है इधर

पेड़ पर कुछ पत्तियाँ हैं, सो रही हैं


इक सितारा घिर गया तूफ़ान में

और जितनी कश्तियाँ हैं, सो रही हैं


याद तुमको कर रहा हूँ इस समय

क्योंकि जो मजबूरियाँ हैं, सो रही हैं


पास मेरे चंद ख़त हैं, साथ ही

ढेर सारी तितलियाँ हैं, सो रही हैं


मैं तुम्हारे ख़्वाब में गुम हो गया

बीच में जो दूरियाँ हैं, सो रही हैं








दस

लील ली धरती की तुमने हर नदी है

नाम की है हर नदी, पानी नहीं है


बाँध बनते जा रहे हैं हर नदी पर

और अब कहते हो तुम, बिजली नहीं है


खेत थे जो वो तुम्हारे हो गए हैं

दूर तक भी अब कोई चिड़िया नहीं है


पेड़, पत्ते और जंगल थे हमारे

अब कहा तुमने, हमारा कुछ नहीं है


अब बहुत बंजर हुई धरती हमारी

अब हिमालय पर कोई दरिया नहीं है




ग्यारह 

हम कहाँ से हैं अब कहाँ पहुँचे

थे जहाँ, लौटकर वहाँ पहुँचे


हम कहीं पर भी तो नहीं पहुँचे

हर तरफ दर्द के निशां पहुँचे


काश, हम चाँद पर रहें जाकर

और उन तक ये दास्तां पहुँचे


ये करम कर तू दिल में हो मेरे

और तुझ तक मेरी अज़ां पहुँचे


ये दुआ है कि तेरी महफ़िल में

साथ तारों के आसमां पहुँचे


हम हवन हो गए ख़बर लेकर

तुम तलक राख और धुआँ पहुँचे


लिख दे ‘राकेश’ ऐसा कुछ कि जहाँ

तू न पहुंचे, तेरा बयां पहुँचे




बारह 

ये शहर बहुत ही हसीन है

यहाँ ज़िंदगी रंगीन है


तू अपने ग़म की न बात कर

यहाँ हर कोई ग़मगीन है


कहाँ जाके सोएं ये लोग फिर

न तो आसमां, न ज़मीन है


तेरा दिल धड़कता है, बोल मत

ये जुर्म है, संगीन है


मेरा यार भूखा सो गया

पर ख्व़ाब तो बेहतरीन है


वो भला-सा, भोला आदमी

अब शहर में है, मशीन है



परिचय
डॉ. राकेश जोशी
अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतः राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेज़ी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी
भविष्य निधि संगठन, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के पद
पर मुंबई में कार्यरत रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए
आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी
ग़ज़लें और कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में", दो
ग़ज़ल संग्रह “पत्थरों के शहर में”, और "वो अभी हारा नहीं है", तथा हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तक “द क्राउड बेअर्स विटनेस” अब तक प्रकाशित हुई है.

संपर्क:
डॉ. राकेश जोशी
असिस्टेंट प्रोफेसर (अंग्रेजी)
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, डोईवाला

देहरादून, उत्तराखंड


ई-मेल: joshirpg@gmail.com


फ़ोन: 9411154939

23 जनवरी, 2018

असंगघोष की कविताएं


 कवि असंगघोष 




गणेश! बताओ तो

गणेश!
तुमने दूध
क्या पिया
फासीवाद ने
मेरा दरवाजा
खटखटा दिया, और
घर में घुस आया
बताओ तो
अब तुम
क्या पीने जा रहे हो?




धर्म! तुम्हें तिलांजलि देता हूँ 

धर्म!
तुम भी एक हो
मेरे पैदा होने के बाद
जाति के साथ
चिपकने वाले।

कमबख्त जाति को
मैं नहीं त्याग सकता
यह सदियों पूर्व से
मेरे पुरखों के साथ
थोपी गई है।
यदि मैं
जातिबोधक शब्द न लगाऊँ तो
तुम्हारा घाघ पुरोधा
जासूसी कर
मेरी जाति खोज लाता है
लेकिन मैं
तुम्हें तो त्याग ही सकता हूँ
भले ही
तुम्हारा बाप बामन
घड़ियाली आँसू बहाए
लाख कहे हमारा दोष क्या है
हम बामन के घर पैदा हुए, पर
वह पीठ पीछे वार करना नहीं भूलता
तुम्हारा ठेकेदार जो है
फिर मैं
तुम्हें क्यों न छोडूँ
लो
मैं तुम्हें तिलांजलि देता हूँ।




रोको ब्राह्मण!

रोको ब्राह्मण!
यदि तुम रोक सको तो
उस हवा को जो
मुझे छूकर
तुम तक आ रही है
जिसमें मेरे द्वारा छोड़ी गई
साँस भी
घुलमिल गई है
तुम्हारा धर्म भ्रष्ट करने।

साफ कर सकते हो तो करो
नदी के उस पानी को
जिसमें नहाया है
पिता ने
पिछले गाँव में,
तो छोड़ दो
अपना यह ढकोसला
हर बहता पानी गंगा है।

रोक सको तो
रोको ब्राह्मण!
उस प्रकाश किरण को
जो तुम तक पहुँचने से पहले ही
मुझे छूकर गई है
तुम्हें अपवित्र करने।

रोक सको तो
रोको ब्राह्मण
मेरे हिस्से की धूप व चाँदनी
तुम्हारे खेत की मानिन्द
मेरे खेत में भी
समान रूप से
बरसता पानी।

तुममें हो हिम्मत तो
डालो गर्म-गर्म पिघला शीशा
मेरे कानों में
मैंने तुम्हारे ऋग्वेद की
ऋचाएँ पढ़ीं ‘औ’ सुनी हैं
रोको ब्राह्मण!
रोक सको तो।




महावीर वर्मा 



तुझे रौंदूँगा


मैंने झाँका
तेरे समाज के आइने में
वहाँ मेरा अक्श
मौजूद नहीं था
तेरी कुदृष्टि की मार से
आइना खण्ड-खण्ड विखण्डित हो
यत्र-तत्र फैला हुआ
दिखा

तूने बताया
एक बड़े टुकड़े के सामने
मेरा अक्श
मैं और तू
दोनों ही खड़े थे जहाँ

मैंने जानना चाहा तुझसे
तेरा बताया मेरा अक्श
किरचों-किरचों बिखरा
कटा-फटा धुँधलाया हुआ
क्यों है?
तू मौन रहा
अब भी मौन ओढ़े है, पर
तेरी आँख व हाथ का
इशारा बता रहा है
मेरा अक्श
तेरे निष्ठुर समाज में
धुँधलाया हुआ क्यों है
ठीक तेरे पाँवों के नीचे
इस तरह
तू सदियों से
मेरा जन्म अपने पाँवों से बता
मुझे रौंदता आया

अब समझ गया हूँ
तेरी करतूत
अब तू तैयार रह
मैं रौंदूँगा
तुझे अब अपने पैरों तले।




कहां हो ईश्‍वर !

ईश्वर!
तू है तो
है कहाँ?
स्वाद लोलुपों की जिह्वा पर
भव्य प्रसादों में बैठे
कपटी बामनों
धन्ना सेठों की तोंद में, या
सड़ाँध मारती मरी गाय की खाल में, या
मन्दिर-मन्दिर पुजाते पत्थरों
अष्टधातु की मूर्तियों,
मखमली वस्त्रों में लिपटी पोथियों,
गलाफाड़ गाते भजनों में, या
खाल पकाने की कुण्डियों के बसाते चूने में
कहाँ-कहाँ बसा है तू
अपनी तथाकथित
ज्ञानेन्द्रियाँ बन्द किए
आखिर तू है तो
है कहाँ?




खा जाओ दीमको !

दीमको!
चाट क्यों नहीं जातीं
मनुस्मृति
पचा क्यों नहीं जातीं
अन्याय की प्रतीक
रामायण
खा क्यों नहीं जातीं
वेद-पुराण
क्यों नहीं
छेद देतीं तुम
उनकी खोपड़ी
जहाँ सिर्फ
और सिर्फ
कुटिलता भरी पड़ी है।




महावीर वर्मा 


भाड़ में जाए

हमारा
पिता होना
माँ होना
बेटा होना
बेटी होना
बहु होना
कोई मायने नहीं रखता
तुम्हारे लिए
हम केवल गुलाम हैं

तुम माई हो
बाप हो
हुजूर हो
मालिक हो

मुझसे चाहते हो
कि
मैं तुम्हें कहूँ
गोड़ पडूँ महराज,
और
तुम साले
पैदा होते ही
हो जाते हो
महाराज
पंडिऽऽऽऽऽजी

भाड़ में जाएँ
साहब...
सलाम
और
तुम्हारे पाँव

मैं
इन पर
मारता हूँ कुल्हाड़ी।





मैं दूँगा माकूल जवाब


समय
माँगता है
मुझसे हिसाब

पढ़े क्यों नहीं!

नहीं है इसका जवाब
मेरे पास

तुमने अपनी वर्जनाओं से
काट ली थी मेरी जिह्वा
मेरे होंठ ही
सिल दिए थे

मेरे कानों में
पिघला हुआ शीशा भी
उड़ेल दिया था
मेरी आँखों में
गर्म सलाखें भी
तुम्हारे ही कहने पर
घुसेड़ी गईं

तुम्हारी इस करनी पर
मेरी धमनियों में
खौल रहा है, बहता लहू

समय के साथ
इसका
मैं दूँगा माकूल जवाब
मेरी जगह
पढ़ेंगे मेरे बच्चे
जरूर।






तथागत तुम क्यों मुस्कराए ?  

ओ! गांधारकला की मूर्तियो
तुम्हारे वजूद पर
सब तरफ
अब हमले होने लगे हैं
बामियान का बुद्ध
आग के गोलों की मार से
खण्ड-खण्ड हो
बिखर गया है

यह देख
मेरा लहू खौलता है
तथागत!
जिसे देखकर भी
तुम चुप हो?
तुम्हारी अहिंसा
करुणा फिर दाँव पर है
और तुम हो
कि मुस्करा रहे हो
भंते!
गांधार के बाद मथुरा
मथुरा के बाद अमरावती
और अमरावती के बाद?
पोखरण!
पोखरण के काँपते ही
तुम्हारी मुस्कराहट के साथ
खत्म होती जाएँगी
तुम्हारी शिक्षाएँ ओ’ सभ्यता?

मेरी मानो
भंते!
तुम अब बार-बार
मुस्कराना छोड़ दो
तुम्हारे पीछे
एक अकेला मैं ही नहीं
पूरा समुदाय है
वादा करो
अब इस तरह नहीं मुस्कराओगे!





समय को इतिहास लिखने दो

मुझे
समय से
कोई शिकायत नहीं है
जिनसे शिकायत रही है
उनके कान में
मखमली पैबन्द लगे हैं
इसलिए
उन तक
पहुँच पाती नहीं
मेरी आवाज।

उनकी आँखों के सामने
छाई हरियाली से
उन्हें केवल
हरा-हरा दिखता है
कहाँ दिखाई देगा
उन्हें मेरा दलन।

वे कब तक
अंधे और बहरे बने रहेंगे
यह समय ही बताएगा

आओ इस नई भौर में
महाड़ के पानी से
आचमन कर
नई स्फूर्ति के साथ
अंकुरित हो
हम व्याप जाए
इस नभ में
दारुण दुःख छोड़
करें सामना
इन आतताइयों का,

समय को
अपना
काम कर लेने दो
उसे अब हमारा भी
इतिहास लिखना है।



महावीर वर्मा 


तू मौन क्‍यों है ॽ

तुम्हारे!
तमाम तरह के हथियार
मेरे बैरी क्यों हैं?
तुम्हारी कुपित दृष्टि
मुझ पर ही मेहरबान क्यों हैं?
तुमने मेरे पुरखों का ही वध क्यों किया?
इक्कीस बार धरा से
क्षत्रियों का नाश करने वाला
वह तेरा ही पुरखा क्यों था?
और कहाँ से पैदा हुआ
बार-बार मरने के लिए क्षत्री?
कौन थे वे क्षत्री?
क्या थी उनकी वंशावली?
जिन्हें तेरे पुरखे ने मारकर
इस धरा को इक्कीस बार
क्षत्रियों रहित किया
कौन थे वे?
कैसे बार-बार पैदा होते रहे?
इस पर तू मौन क्यों है?
तेरी इस शौर्य गाथा का बखान
तेरे ही मुख से है
यह भी बता
तेरे ग्रंथों में उल्लेखित
सभी राक्षस मार कर
कहाँ दफनाए गए?

किस सत्ता के लालच में?
तेरे पुरखे ने ऐसा जघन्य कृत्य किया
इन प्रश्नों पर तू मौन क्यों है?
बोल स्याऽऽऽऽऽले बोल
कुछ तो बोल!




इज्ज़त वाली जात

मुझे
अपने भविष्य का
कोई डर नहीं है
मेहनत करना जानता हूँ
पेट भरने लायक कमा लूँगा
मुझे नहीं जानना
अपना भविष्य
तू सोच अपनी
क्या करेगा
माँग खाएगा?
कौन डालेगा
महँगा अनाज
तेरी झोली में
इसलिए कहता हूँ
पोथी-पतरा
समेट
चूतिया बनाना छोड़
कुछ काम कर
चल दरांती उठा
घास काट कर लाते हैं
बाजार में बेजेंगे,
चल आर उठा
बैलों को हाँक
खेत जोत
फसल उगाएँगे
उससे दो पैसा कमाएँगे
इसके बाद जिस दिन
तू छोड़ आए अपने घर
अपनी इज्जत वाली जात
तब मिलकर चमड़ा गलाएँगे
और जूते बनाएँगे।




वराह अवतार

वह सुअर का बच्चा
अपनी थूथनी उठाऐं
निर्बाध चलता था
भीड़ भरे रास्तों पर
लोग छिटक कर
दूर हो जाते थे
कहीं छू ना जाएँ।
उनके बस में नहीं था
इसके गले में घण्टी बांधना
इसलिए खुद ही भागते रहे
सुअर से दूर।

थूथनी उठायें
वह दोड़ता रहा
सरेआम
दौड़ते
लूटते-खाते
काफी मोटा हो गया
फिर मंथर गति से
चलने लगा
इधर-ऊधर मूँह मारता हुआ
आखिर सूअर था
नालियों-गड्डों में पड़ा
गंदगी से सराबोर हो घूमता रहा,
मोहल्ला-मोहल्ला
गाँव-गाँव
शहर भर
को
थूथनी पर उठाता
जहाँ चाहे चला जाता
उसके लिए कोई रोक नहीं थी
न ही कोई वर्जना
समय बीतते
उसके निकल आए
एक जोड़ी ढड्डे
जिसे तुम कहते हो खींसें
दाँत !
देखते-देखते खींसे
इतने बड़े हो गए
कि अपनी धूरी पर घूमना छोड़
उन पर जा टिक गई धरती
तबसे वहीं टिकी है
और यह सुअर कमबख्त!
वराह अवतार हो विष्णु का
तुम्हारें पुराणों और मंदिरों में
बिराजमान है।




मैं बनाता रहूँगा वसूले की धार

मैं
वसूला लिए
अपने हाथों छिलता हूँ
तुम्हारी गांठ
बार-बार
कि वह छिलती नही
चिकनाते हुए
बहुत गहरे पैठ गई है
उस पर किंचित खरोंचें आती है
मेरे किए वार से
हर बार
मेरे वसूले की ही धार
भोथरी हो जाती है
किन्तु मैं कतई विचलित नही हूँ
ना कभी विचलित होऊंगा
रोज लगाऊँगा
इस वसूले पर धार
तेरी गांठ
कब तक
अपनी जड़ों से बिंधी रहेगी
एक ना एक दिन
कटना ही होगा इसे
और उस दिन के इंतजार में ही
बार-बार
मैं घिसता रहूँगा वसूला
करता रहूँगा
इसकी धार
तेज ओर तेज....





तू और तेरी श्रैष्ठता 

कड़े पत्थर पर
अशोक के शिलालेख
मैनें ही खोदे
छैनी-हथोड़े से
एरण में
रूपनाथ में
सारनाथ में
केवल यहीं नहीं
हर कहीं
अशोक ही क्यों
सारे के सारे
शिलालेख
खोदते वक्त
हर जगह
मैं था
तू नहीं था
कहीं भी।
हाँ हमारे हाथ काटते समय
कुटिल मुस्कराहट के साथ
हाथों में मनुस्मृति लिए
खड़ा था तू

सारे एैतिहासिक ध्वंसावशेष
हमारे श्रम की श्रैष्ठता के साक्षी है
जिनका गाते है गुणगान
इतिहासकार
तत्कालीन आश्रयदाता
राजा-महाराजाओं का
उसमें तू कहीं श्रैष्ठ नहीं था
फिर भी
तू खुद को
श्रैष्ठतम कहता है।



महावीर वर्मा 




गीला माल 

रंग बिरंगे फूलों से लबरेज
अफीम के इन खेतों की मेढ़ां पर
खेत-सड़क के बीच बची जमीन पर
बसे बाछड़ा1 डेरों में
सड़क किनारे
दिन-रात चलते ढाबों के पीछे की
अधबनी कोठरी में
आधी रची-बसी! स्त्री
सोचती है
खुद को कब और कैसे ॽ
असमय कन्या से
स्त्री हो जाने के बारे में

रात के घने अंधेरे में
कोई खटखटाता है
अधबनी कोठरी की साँकल
जोर से पुकारता हुआ
ए कुड़ी कोई खाली हैॽ
कुड़ी कहाँ से खाली होगी
वह तो कब की चली गई है
बड़े शहरों में
अपनी आजीविका के लिए
बार बाला बनने
नाचने

जो रह गई यहीं
उन्हें बसों में आते-जाते
चढ़ते देख
तुम्हारे लौण्डे
अभी-अभी जिनकी मूंछों की
हल्की सी रेखाऐं आई है
फुसफुसाते हुए कहते हैं
गुरू !  बस में गिला माल लदा है।
उसको साफ सुनाई देता है
और उसके फलक पर
बिजली कौंधती है

क्या वह स्त्री नहीं है!
किसी की पत्नी नहीं है!
उसकी कोई भावना ही नहीं है।
लुच्चों के शब्दों में
वह हैं सिर्फ गीला मालॽ
ऐसे ही कई - कई
प्रश्नों से घिरी-बंधी
मात्र बाँछड़ा स्त्री होने से ही अभिशप्त!
वह आहत मन की गहराई से
चिल्लाती हुई कहती है
घर जा
अपनी माँ से पूछ!
कि मैं क्या हूँॽ
स्त्री ॽ
पत्नी ॽ
बहन ॽ
बेटी ॽ
या
गीला माल ॽ
जा यह तेरी मां बताएगी


1- राजस्थान-मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाकां में बसी एक दलित जाति जिसमें औरतें वैश्यावृति करने को अभिशप्त है  





ईश्वर की मौत!

ईश्‍वर के पाँव में
तीर लगा
अछूत बहेलिए के
धनुष से छूटकर सीधे
और
एक अनाम अछूत के तीर से
ईश्‍वर मर गया।

एक अछूत के हाथों
बनी रस्सी से
ईश्‍वर ने
अपने पाँव में
पत्थर बांधे
जिन्हें किसी अछूत ने
खोदकर खदान में से निकाला था
और लगा दी छलांग
नदी में
आत्महत्या कर
वह भी मर गया!
अछूत की रस्सी
अछूत के पत्थर के सहारे।

दोनों ही जगह
यदि वो सचमुच
ईश्‍वर था
तो
कैसे मर गया ॽ
वह तो
अजर-अमर था!
किन्तु तेरी कुटिलता के मारे
परिणित हो जड़-पत्थर में
तुम्हारे हाथों प्राणप्रतिष्ठा पा
पुजता हुआ
वह क्यों भकोसता है
छप्पनभोग!
जबकि करोड़ों को
नसीब नहीं
एकजून की रोटी भी
यह भी उस पेटू को
दिखाई नहीं देता

अरे! वह तो
कभी का मर गया है!





पाखंडी  

तुम।
खुदवाओ इन टीलों को
अपनी भूख मिटाने
मजदूर ही खोदेंगे
इन टीलों-ढूहों में छिपी
स्वर्णिम रेत के लिए
खुदवाते रहो नदी के सारे किनारे
वहाँ से निकलेगी तथागत की कई मूर्तियाँ
उसके बाद भी इन टीलों को खोदवाते रहना
किसी दिन इन टीलों के नीचे दफ्न
अनेक मानव कंकाल निकल आएंगे बाहर
फिर पता लगाना
उनकी जात का
उनके धर्म का
कि किस जात के थे वे ॽ
कि किस धर्म के थे ॽ
वे कंकाल!
शायद मिले देखने
उन पर किसी ऐरे-गैरे देवता के
अस्थि-चिन्ह
संभव है उस देवता के भी
जिसने कभी की होगी
इस नदी में डूबकर
आत्महत्या!
फिर बांट देना
इन सारे कंकालों की अस्थियाँ
अपने धर्म भीरुओं में

इस तरह पूजा-पाठ और कमाई का
एक और स्थायी रास्ता खुल जाएगा।


परिचय 
असंगघोष
जन्म: 29 अक्टूबर  1962 को पश्चिम मध्‍य प्रदेश के कस्‍बा जावद के एक दलित परिवार में
शिक्षा:
एक वर्ष नीमच शासकीय महाविद्यालय में पढ़ाई उसके अलावा स्नातक तक की शिक्षा अपने कस्बे में ही पूरी की फिर आगे की पढ़ाई लंबे अंतराल के बाद रानी दुर्गावती विश्‍वविद्यालय जबलपुर से स्वाध्यायी छात्र के रूप में तथा  कुछ इग्नू के जबलपुर सेंटर से भी पढा, इस तरह बी.कॉम., एम.ए.(इतिहास) एम.ए.(ग्रामीण विकास), एम.बी.ए. (मानव संसाधन), पीएच.डी. की पढाई पूरी की।

प्रकाशन:
हिन्‍दी साहित्‍य की दलिता धारा में लेखन कार्य, कविता संग्रह ‘‘खामोश नही हूँ मैं’’, हम गवाही देंगे’’, ‘‘मैं दूंगा माकूल जवाब’’, ''समय को इतिहास लिखने दो'',  तथा ''हम ही हटाएंगे कोहरा''
कुछ कविताएं एवं कहानियां विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित,
 देश के कई शहरों एवं श्रीलंका, चीन व मिश्र में कविता पाठ।
'मध्‍य प्रांत में ब्रिटिश राज' एवं छठे कविता संग्रह पर संपादन कार्य जारी साथ ही 'दलित विमर्श के आलेखों' पर संपादित पुस्‍तक शीध्र प्रकाश्‍य।

संपादन: त्रैमासिक ‘‘तीसरा पक्ष’’
पुरस्कार: म.प्र.दलित साहित्य अकादमी, उज्जैन का पुरस्कार (2002)
‘‘सृजनगाथा सम्मान वर्ष 2013’’

संप्रति : बचपन से पिताजी के जूता बनाने के काम में सहयोग कर काम सीखा बाद में लगभग 10 वर्ष स्‍टेट बैंक की नौकरी की और अब शासकीय सेवा में कार्यरत।

उल्‍लैखनीय : मेरी कविताओं पर देश के कुछ शोघ छात्रों/स्‍कॉलरों द्वारा एम.फिल./पीएच.डी का कार्य
अन्‍य लेखकों के साथ शामिल कर किया गया। वर्तमान में कविताओं पर पीएच.डी का एक कार्य परभणी महाराष्‍ट्र में जारी ।

अन्‍य :-  विभिन्‍न लेखकीय एवं सामाजिक संगठनों से जुडाव,
संपर्क:- D-1, लक्ष्मी परिसर, निकट हवा बाग महिला महाविद्यालय, कटंगा, जबलपुर (म.प्र.)
पिनकोड 482 001,

21 जनवरी, 2018

अनिल गंगल की कविताएं



अनिल गंगल 



पतंगें

अपनी-अपनी छतें हैं
अपनी-अपनी पतंगें

पतंगों के साथ अपनी-अपनी डोर हैं
अपनी-अपनी चर्खियाँ
अपने-अपने रंग

पतंगों की दूरियाँ दरअसल छतों की दूरियाँ हैं
और छतों की दूरियाँ हैं हाथों की दूरियों के साथ-साथ
दिलों की दूरियाँ

भूरे रंग की पतंग का मुक़ाबला
पीले रंग की पतंग से है
और पीले रंग की पतंग का मुक़ाबला
नीले रंग की पतंग के साथ

दो-एक पतंगें आसमान में ऊँचाई नापते हुए
ऐसी भी हैं
जो किसी दूसरी पतंग के मुका़बले में नहीं हैं
हो सकता है
शायद उनका मुक़ाबला अपने आप
या फिर आकाश की ऊँचाई से हो

इस तरह पतंगों का मुक़ाबला
बदल जाता है रंगों के मुक़ाबले में
और इसी क्रम में यह मुक़ाबला
डोर और हाथों से गुज़रता
दिलों के मुक़ाबले पर आ टिकता है

ओट में छिपे कुछ हाथ ऐसे भी हैं
जिनके हाथों में पतंगों की डोर नहीं
सिर्फ़ पिसे काँच में पिरोए माँझे में बँधे लंगड़ हैं

यह समय
रंगबिरंगी पतंगों के आकाश में मुस्कराने से ज़्यादा
लंगड़धारी हाथों के अट्टहास का समय है।








रहस्य

(1)

पटरी से गाड़ी उतर चुकी है

इंजन के पहिये पटरी से उतर चुके हैं
इंजन के पीछे लगी बोगियाँ
एक के ऊपर एक चढ़ी
गाड़ी के पटरी से उतरने का शोक मना रही हैं

चारों ओर एक रहस्यमय गाढ़ी धुंध तारी है
जिसके बीच कोई नहीं जानता
अपने सिवा किसी और का पता

इतना सांद्र है रहस्य
कि बोगियों में फँसे लोग अभी भी इस सोच में मुब्तिला हैं
कि यह दुर्घटना है भी या नहीं

न कहीं कोई कोहराम
न कोई चीख़-चिल्लाहट
न कोई आर्त्त पुकार
न बहते कहीं लहू के परनाले
न मदद माँगने झाँकता कहीं कोई हाथ।

(2)

ज़िदगी का एक बेहतरीन तमाशा देखने में जुटे हैं तमाशाई
बहस का विषय यह नहीं
कि कैसे पटरी से उतरी गाड़ी को वापस लाया जाए
बल्कि यह है
कि पहले तय किया जाए किसका है क़सूर दुर्घटना में
इंजन के ड्राइवर का
जो नहीं भाँप सका दूर से ही दुर्घटना की वजह
या फिर यात्रियों के भाग्य का
जो ऐसी गाड़ी पर सफ़र ही क्यों करते थे
जिसके ड्राइवर की आँखों में उतर आया हो मोतियाबिंद

टीवी के सारे चैनल व्यस्त हैं आरोप-प्रत्यारोप में
हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह
एक बहस छिड़ी है अंतहीन
जिससे नदारद है उन पीड़ितों का मौन हाहाकार
जो जानते तक नहीं किसी दुर्घटना का होना
न होना

इस बीच
धुंध गाढ़ी से और गाढ़ी होते
और और भयानक होती जा रही है।



संपुट

वे
जो आँखें बंद किए बैठे हैं
कथित आध्यात्मिक सुख में जिनके समृद्धि से भरे सिर
मुसलसल दोलन की स्थिति में हैं
उनके दिलों में फ़िलहाल एक सन्नाटा पसरा है
जहाँ दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती ईश्वर की उपस्थिति
उनके युद्धरत विचार पूजास्थल में गूँजते मंत्रों को धता बताते
सांसारिक विश्व में चलते रक्तपात में लथपथ हो रहे हैं

उनकी जु़बान पर सिर्फ़ बँधे-बँधाए संपुट हैं
जिन्हें वे हर शुरूआत के अंत में
स्वरयंत्रों के उच्चतम शिखर पर खड़े सप्तम सुर में लगाते हैं

गणतंत्र की एक गोल इमारत
जय-जयकार, अहो-अहो और दुर-दुर के संपुट से गूँज रही है
और इमारत के पिछवाड़े
वर्तमान में बेकार और अनुपयोगी हो चुके
संपुटों का कचरा जमा है

हरेक छंद ख़त्म होता है
इसी तरह ऐसे ही किसी नया दिखाई देते संपुट पर
एक संपुट की छाया
खग्रास की मानिन्द ढाँप् चुकी है
अब तक की तमाम इतिहास-कथा का महात्म्य

यह संपुट ही है
जो निद्रालु श्रोताओं की नींद में हर बार सेंध लगाता है
जिससे बाहर आते ही वे फिर से टिका लेते हैं अपने सिर
नींद की गोद में।











गांधीजी का चश्मा

न तो गांधीजी रहे अब
न गांधीजी का चश्मा

शायद गांधीजी की ज़रूरत 2013 में न रही
यह बात और है
कि कुछ लोगों को 1947 से पहले भी
गांधीजी की ज़रूरत न थी

जब गांधीजी ही न रहे
तो उनके चश्मे की ज़रूरत भी अब किसे थी ?

जैसे नहीं रही ज़रूरत उनकी लंगोटी की
जैसे नहीं रही ज़रूरत उनकी लाठी की
जैसे नहीं रही ज़रूरत उनके चरखे की
वैसे ही नहीं रही हो ज़रूरत शायद उनके चश्मे की भी

दुनिया जैसी दिखाई देती थी गांधीजी के चश्मे से
वैसी दुनिया चलन से बाहर हो चुकी थी
और दुनिया जो देखना चाहती थी गांधीजी के चश्मे से
वह उनके फ्रे़म में अँटता नहीं था

तो फिर कहाँ गया गांधीजी का चश्मा ?

फ़िलहाल
गांधीजी की ज़रूरत हमें हा,े न हो
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत बाज़ार को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत उठाईगीरों को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत चोर-बाज़ार को थी
गांधीजी के चश्मे की ज़रूरत फ़ासिस्टों को थी

बहरहाल हुआ यह
कि देश के एक नामचीन पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित
गांधीजी का चश्मा ग़ायब पाया गया
जो चोर-बाज़ार से होता हुआ एक दिन
किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ की आँखों पर देखा गया।





मंत्र

अब किसी नीति-अनीति, सुनीति या दुनीति से
काम चलने वाला नहीं
धुरी से स्खलित होती पृथ्वी को
बचा सकते हैं तो सिर्फ़ यज्ञ
और उच्चारित किए जाने वाले मंत्र

यज्ञों में आहूत समिधाएँ ही दे सकेंगी
हमें अमोघ शक्तियाँ
बारिश बरसा कर वही बचाएंगी हमारे खेतों को
उजाड़ होने से

भूल चुके हैं कलियुग में लोग
ऋषियों के दिए मंत्रों की शक्तियाँ
जो बना सकते थे मनुष्य को अजर और अमर
हर सकते थे उसके तमाम रोग-शोक
एक सूक्त का जाप करा सकता उसे समुद्र पार
एक मंत्र के उच्चाटन भर से कर सकता था वह अपनी देह का
तीन अंगुल से लेकर कई योजन तक का विस्तार
एक मंत्र का जाप भर सकता था उसे
असीम बल और शौर्य से

यज्ञों के पवित्र धूम्र का उन तक पहुँचने का
इंतज़ार करते थे निठल्ले बैठे देवगण
ताकि कर सकें वे ऋषियों पर पुष्पवर्षा
यज्ञ और मंत्रों की दैवीय शक्ति के बगै़र
असुरों से युद्ध के दौरान
इंद्र का वज्र तक हो जाता था निर्वीर्य

पिछले सैकड़ों बरसों में किए गये यज्ञों की अग्नि की
शपथ लेकर कहता हूँ मैं-
नहीं हैं ये सिर्फ़ कपोल कल्पनाएँ पुराणों की
कलियुग में खो चुके हैं हम यज्ञों और मंत्रों की शक्तियाँ
भूल गये हैं
कि पुराण और कुछ नहीं
इतिहास का ही है छद्म नाम

आओ-
वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान की उपलब्धियों को धरती में दफ़न कर
समय-चक्र को उल्टी दिशा में घुमाते हुए
लौट चलें आदिम युग में वापस
पुराणों की ओर।


प्रवेश सोनी 




लाचार बूढ़े आदमी को रोते देख कर

एक समूची पृथ्वी रो रही है
अपनी नदियों, पहाड़ों, रेगिस्तानों, सागरों और महासागरों सहित
उस बूढ़े लाचार आदमी के विलाप में

बालिग हो चुके बेटों द्वारा किए गये अपने अपमान से भी
नहीं हुआ था वह इतना आहत
जितनी लाचारगी बरस रही है उसकी आँखों से धारासार
अभी इस वक़्त

राह चलते अजनबियों को रोक कर
वह सुनाना चाहता है सबको अपनी करुणगाथा
मगर किसके पास है इतना वक़्त पानी की तरह बहती भीड़ में
जो ठहर कर सुन सके आँसुओं में भीगी आपबीती

बिना ब्रेक की गाड़ी के पहियों की मानिंद
तेज़ी से भागती-दौड़ती दुनिया के बीच
रोते हुए बूढ़े आदमी का चेहरा
गहरे समुद्र के बीच ठहरे एक निर्जन द्वीप की तरह है

सबको दिखाता है वह मैले कुर्ते की जेब से निकाल कर
चलन से बाहर किए जा चुके पाँच सौ और हज़ार के नोट
जो भले ही वित्तमंत्री और रिज़र्व बैंक के लिए
क़ाग़ज़ के बेकार टुकड़ों में बदल चुके हों
मगर बूढ़े आदमी के लिए अभी भी हैं वे कारूँ का ख़ज़ाना

क्या करे वह
कहाँ किस कुबेर के पास जाए वह
जो दिला सके उसे इस बिन बुलाई आफ़त से निजात
जो बदल सके रद्दी हो चुकी ज़िंदगी भर की बचत को
नये करारे चमकदार नोटों में

विलाप करता कह रहा है वह अस्फुट शब्दों में :
आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था मैंने भी
बदले में कुछ पाने की आशा के बगै़र
फ़िरंगियों की लाठी के प्रहार से बहा था
मेरे भी सिर से ख़ून का पनाला
मैंने भी जी है एक क़ैदी की तरह
जेल की जानवरनुमा ज़िंदगी

मैं नहीं हूँ कोई मुनाफ़ाखोर या कालाबाज़ारिया
ये देखो मेरी डिग्रियाँ
यह देखो मेरे शिक्षक होने का सबूत
यह रहा मेरी सेवानिवृत्ति का प्रमाणपत्र
खर्च किए हैं मैंने भी ज़िंदगी के बेहतरीन चालीस बरस
अगली पीढ़ी का भविष्य बनाने में

जिन्हें बतला रहे हैं माननीय वित्तमंत्री जी कालाधन
वह बूँद-बूँद जोड़ कर जमा मेरी ज़िंदगी भर की बचत है
जिसे सरकार रद्दी के टुकड़े बता कूड़ेदान में डाल चुकी है

अब मैं क्या करूँ ?
कहाँ जाऊँ ?
किसी भी दिशा में देखने पर नहीं दिखाई देती
रोशनी की कोई किरन

हिलग-हिलग कर रो रहा है बूढ़ा आदमी
जिसके चेहरे की झुर्रियों में धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं
बेबसी और लाचारगी के आँसू।





दस्तक

वह आ रहा है
जब सुनाई देने लगी थी दूर से उसकी पदचाप
तुम निश्चिंत थे कि यह महज़ एक अफ़वाह है
और अफ़वाहों के न सिर होता है, न पाँव
इसलिए नहीं किया जाना चाहिए उसके आने पर यक़ीन

जब पहली-पहली बार दिखाई दिया था
उपजाऊ ज़मीन पर पड़ा उसका बीज
तुमने देखते हुए भी किया उसे अनदेखा

इतने से तो हो तुम,
एक बिंदी से भी छोटे
चाहो
तो भी क्या बिगाड़ लोगे मेरा‘-
उपेक्षा से तुमने कहा था

एक दिन संकेत कर किया गया था तुम्हें सावधान
कि देखो
जिसे तुम समझते आए अभी तक नाचीज़-
फूट आया है अब वह अँखुआ बन धरती से बाहर

सावधान करने वाली उंगली को तुमने बताया था
किसी सिरफिरे की उंगली

तुमने कहा था-
यहाँ की मिट्टी नहीं है इटली, जर्मनी, जापान या स्पेन की
मिट्टी की तरह मुफ़ीद
इस तरह के किसी भी ज़हरीले अँखुए के फूटने के लिए

मगर दूसरी तरफ़ तुम सींचते रहे अँखुए को
क़िस्म-क़िस्म के खाद-पानी से
तुम्हें लगता था
कि एक दिन जब अँखुआ बदल जाएगा पूर्णवृक्ष में
तो इंद्रधनुषी फूलों और मीठे फलों की शक्ल में
दमकेंगे उस पर वसन्त के वस्त्र

अब अँखुआ नहीं रहा अँखुआ
रंगबिरंगी झंडियों, टोपियों और अंगवस्त्रों के बीच
वह बदलता जा रहा है कंटीले वृक्ष में
जिससे झड़ने लगे हैं यहाँ-वहाँ ज़हरबुझे फल

नहीं बची उसके आने की अब सिर्फ़ आहट भर
वह आ चुका है आपके चौमहलों की दहलीज़ पर
दरवाज़े पर सुनाई देने लगी है साफ़-साफ़ उसकी दस्तक
जिसे सुनने के लिए तुम्हारे कान अभी भी तैयार नहीं।









क़ागज़ी शेर
भले ही आप मानते रहें इसे क़ागज़ी शेर
मगर क्रोधित होने पर यह भृकुटि भी चढ़ाता है
दहाड़ता है
और ज़रूरत पड़ने पर मुँह से आग भी उगलता है

यह अलग बात है
कि इसके आँखें दिखाने से एक बच्चा भी नहीं डरता
हाँ, दहाड़ने पर कुछ चूजे भाग कर
इधर-उधर दड़बों में ज़रूर दुबक जाते हैं
और मुँह से नकली आग उगलने पर
आसपास के मौसम का तापमान
एक-आध डिग्री सैल्शियस बढ़ जाता है

बहरहाल,
यह जंज़ीर से बँधा हुआ शाकाहारी शेर है
जिससे फ़िलहाल किसी को कोई ख़तरा नहीं
यह ज़रूर है
कि इसके होने से मुहल्ले के कुत्ते
घर की दहलीज़ पर मुँह मारने से थोड़ा डरते हैं
और रात भर हम लिहाफ़ से मुँह ढँक बेफ़िक्र सोते हैं।


संपर्क :
130, रामकिशन कॉलोनी
काला कुआँ
अलवर-301001
(राजस्थान)

19 जनवरी, 2018

 महेश कटारे सुगम की ग़ज़लें 


महेश कटारे सुगन

एक
रात रखी काँधे पर दिन से लड़ने को तैयार किया
लम्हों को पैरों में बांधा वक्त का दरया पार किया
अश्कों को आँखों में रक्खा ज़ख्मों को भी प्यार किया
दर्दों में हंसना सीखा तब खुशियों का दीदार किया
छाँव उठा कौने में रक्खी वस्त्र धूप के पहन लिए
मेहनत की चादर को ओढ़ा रुकने से इंकार किया
बाँध लिए अनमोल तज़रबे अपने मन की गांठों में
दोनों हाथ मुहब्बत बांटी जीवन को गुलज़ार किया
गुरबत कहती रही झुको पर ana बहुत ज़िद्दी ठहरी
मिट जाने की शर्तों पर भी झुकने से इंकार किया



दो 
पाला गया हूँ ख़्वाबों ख्यालों के दरम्यां
पर जी रहा हूँ आज सवालों के दरम्यां
अपनी अजीब फ़िक्र का अंदाज़ देखिये
दारुल अमां बनाये बबालों के दरम्यां
मंज़िल करीब आते ही पूरा हुआ अहद
सिमटा हुआ है दर्द भी छालों के दरम्यां
हैरत हुई ज़नाब की करतूत देखकर
इनको रखा गया था मिसालों के दरम्यां
आके मिलोगे तुम कभी तन्हाई में सुगम
बैठा हूँ इसलिए मैं रिसालों के दरम्यां








 तीन
फूल में सोये हुए अंगार को मत छेड़िये
है बहुत नाज़ुक दिले खुद्दार को मत छेड़िये
खूबसूरत लग रही दीवार पर लटकी हुई
खून की प्यासी मुई तलवार को मत छेड़िये
अश्क गर बहने लगे तो डूब जायेगा ज़हां
आपको मेरी कसम लाचार को मत छेड़िये
आइना-ए-दिल हमारा टूट सकता है हुज़ूर
मुस्कुराते प्यार की मनुहार को मत छेड़िये
गम के दरिया में अभी तूफ़ान सा आ जायेगा
दर्द में डूबे हुए अशआर को मत छेड़िये
मत दिखाओ देश भक्ति का हमें तुम आइना
प्यार है जो मुल्क से उस प्यार को मत छेड़िये
जी रहा जैसे भी जीने दीजिये उसको सुगम
ज़ख्मे दिल पाले हुए फनकार को मत छेड़िये



चार
निभा रहे जो रिश्ते रोज़ पलायन के
उदहारण वो देते हैं रामायन के
गीत भला अब कैसे गाये जायेंगे
भूल चुके हैं सूत्र समर्पित गायन के
तैराकी करना तो बस की बात नहीं
सम्बल लिए फिर रहे हैं नौकायन के
सिद्धांतों पर चलना कहाँ ज़रूरी है
उनसे हैं सम्बन्ध सिर्फ पारायण के
भाग्यवाद का पाठ पढ़ेंगी अब नस्लें
काम करेंगे चमत्कार नारायन के




 पांच
रंग बिरंगी चादर हैं हम
बिछ जाने में माहिर हैं हम
खेल रहे हैं खेल ज़िंदगी
और खेल से बाहर हैं हम
बनते तो हैं बहुत बहादुर
लेकिन दिल से कायर हैं हम
हक की खातिर मुंह पर ताले
सहने में जग जाहिर हैं हम
पढ़ें कसीदे दरबारों में
कहते फिरते शाइर हैं हम










छः
बुरा लगे तो लगे हमारे ठेंगे से
कोई कुछ भी कहे हमारे ठेंगे से

नहीं मौत के आगे कोई मन्ज़िल है
बचता है जो बचे हमारे ठेंगे से

हम तो सीना तान खड़े हैं मरने को
डरता है जो डरे हमारे ठेंगे से

ज़ख्मों का हो गया जिस्म से याराना
सूखे हों या हरे हमारे ठेंगे से

उतरी हैं न उतरेंगी अच्छी बातें
कभी तुम्हारे गले  हमारे ठेंगे से

पागल हैं पागल ही रहना चाहेंगे
जँचे तुम्हें न जँचे हमारे ठेंगे से

खुशियों से खुद तोड़ लिया तुमने नाता
खूब रहो अनमने हमारे ठेंगे से

हम फक्कड़ अपनी मस्ती में रहते हैं
कोई हम पर हँसे हमारे ठेंगे से



सात
मिली प्रेम की पहली पाती अय,हय,हय
ख़ुशी बनी झरना बरसाती अय,हय,हय
खिली चांदनी चंदा दूल्हा लगता है
तारे लगते बने बराती अय,हय,हय
ठुमुक ठुमुक कर चलें बयारें बासंती
फूल खिले बगिया मुस्काती अय,हय,हय
सागर की छाती पर नाच रहीं लहरें
रेत बनी दुल्हन शर्माती अय,हय,हय
फूलों से श्रंगार किया है क्यारी ने
खुशबू वाले छंद सुनाती अय,हय,हय
फूट कोंपलें हंसती हैं बच्चों जैसी
लाल लाल पलकें झपकाती अय,हय,हय



आठ 
मुद्दआ जीत,हार,का है अब
मुआमला आर पर का है अब

ज़ख्म देकर लगा रहे मिर्ची
ये सिला किस प्रकार का है अब

वक्त ने हौसलों को तोडा है
हादसा ये शुमार का है अब

वो जो चाहेंगे तुम खरीदोगे
ये समय इश्तहार का है अब

मैं तुम्हें भूल कैसे सकता हूँ
आसरा मुझको प्यार का है अब









 नौ
लोकतंत्र में तानाशाही की जय हो
नेता,अफसर,चोर,सिपाही की जय हो

सत्ता के सुख लूट रहे हैं वर्षों से
खूब चल रही भर्राशाही की जय हो

मुंह से निकले शब्द बने क़ानून सभी
ज़बरन की जा रही उगाही की जय हो

परदे के पीछे से छुपकर आती जो
दंगों से हर बार तबाही की जय हो

सच बोलोगे तो अंजाम बुरा होगा
सुगम अघोषित हुई मनाही की जय हो





 दस
पेट भर रोटी नहीं है काम की दरकार है
चैन की वंशी बजाती मुल्क की सरकार है

रीढ़ तोड़ी है सियासत ने अपाहिज कर दिया
लग रहा है मुल्क अपना आजकल बीमार है

खाने पीने बोलने पर लग रहीं पाबंदियां
खौफ में सहमा हुआ जीता हर इक फनकार है

है बहुत आसान सब कुछ बेईमानों के लिए
बस उसे ही कुछ नहीं है जो सही हकदार है

बन गयी सारी व्यवस्था इक तपेदिक की तरह
खांसता फिरता हुआ हर आदमी लाचार है

ये सुखन का कारवाँ रुकता नहीं झुकता नहीं
मुख्तलिफ होकर खड़ी भरती कलम हुंकार है





ग्यारह
नयन में अश्रु की चौपाइयां हैं
रुदन में पीर की अंगड़ाइयां हैं
चलोगे तो वहीं आ जाओगे फिर
हमारे शहर में गोलाइयाँ हैं
विरासत में बहुत गड्ढे मिले हैं
मेरे हिस्से में अब भरपाइयां हैं
हमारी भूख पर भारी पड़ीं हैं
तुम्हारी दी हुई मेंहगाइयां हैं
तुम्हारी नाक कटवाकर रहेंगी
जो सीखी स्वार्थ की चतुराइयों हैं




 परिचय 

महेश कटारे "सुगम"
जन्म -२४ जनवरी १९५४
जन्म स्थान -पिपरई ,जिला -ललितपुर [उ ,प्र]

प्रकाशन -प्रमुख हिंदी पत्र ,पत्रिकाओं में कहानियों ,कविताओं का प्रकाशन

प्रसारण -आकाशवाणी ग्वालियर एवं दूरदर्शन भोपाल से रचनाओं का प्रसारण

प्रकाशित कृतियाँ -प्यास [ कहानी संग्रह ],गांव के गेंवड़े [बुंदेली ग़ज़ल संग्रह ,]हरदम हँसता जाता नीम [बाल गीत संग्रह ]तुम कुछ ऐसा कहो [नवगीत संग्रह ], वैदेही विषाद [लम्बी कविता ],आवाज़ का चेहरा [ग़ज़ल संग्रह ],अब जीवे कौ एकई चारौ (बुन्देली ग़ज़ल संग्रह ),महेश कटारे सुगम का रचना संसार [डॉ .संध्या टिकेकर ] द्वारा संपादित


पुरस्कार -स्वदेश कथा पुरस्कार ,स्व .बिजू शिंदे कथा पुरस्कार ,कमलेश्वर कथा पुरस्कार [मुंबई ] पत्र पखवाड़ा पुरस्कार [दूर दर्शन ]जय शंकर कथा पुरस्कार झाँसी , [उ,प्र ] डॉ .राकेश गुप्त कविता पुरस्कार .

सम्मान- हिंदी अकादमी दिल्ली द्वारा सहभाषा सम्मान (बुन्देली) २०१६-१७ के लिए सम्मानित,जन कवि नागार्जुन आलोक सम्मान गया [बिहार ]२०१६--२०१७ , जन कवि मुकुट बिहारी सरोज स्मृति सम्मान २०१६--२०१७  ,आर्य स्मृति साहित्य सम्मान [किताब घर ]स्पेनिन साहित्य सम्मान [रांची ]

विशेष -रत्न सागर दिल्ली द्वारा प्रकाशित माध्यमिक पाठ्यक्रम के छठे भाग में बंजारे नामक कविता संग्रहित
हिंदी साहित्य की नवीन विधा बुंदेली ग़ज़ल के प्रथम रचनाकार

स्वास्थ्य विभाग में प्रयोगशाला  तकनीशियन के पद से स्वेच्छिक सेवा निवृति

सम्पर्क -काव्या,चन्द्र शेखर वार्ड बीना,जिला -सागर [म प्र ]-४७०११३ 
  मोब .-09713024380


चित्र: गूगल से साभार