image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

19 जून, 2018

साक्षात्कार :


कवि नईम से कहानीकार प्रकाश कान्त की बातचीत


          ( स्व. कवि नईम जी ने साक्षात्कार बहुत कम बल्कि एक तरह से नहीं बराबर दिये हैं। दरअसल वे अपनी रचना और रचनाकर्म पर अलग से बात करना ज़रूरी नहीं समझते थे। इससे बचते और ज़्यादातर साफ़ और सीधा इंकार कर देते थे। बुनियादी तौर पर वे भी ‘ बात बोलेगी,हम नहीं ’ में यकीन करते थे। उनका मानना था कि जो कुछ कहना हो, रचना खुद कहे, रचनाकार अलग से क्यों कहे! इसीलिए अपने काम को लेकर उनके कोई्र लम्बे-चौड़े बयान नहीं मिलते। ऐसे में उनका कोई लम्बा और व्यवस्थित साक्षात्कार लेना मुश्किल ही था। जानता था कि वे इसके लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे। मना कर देंगे। बहरहाल, इसके लिए मुझे और गुड़िया ( डॉ0 समीरा नईम) को उन्हें लगभग घेरना पड़ा।बड़ी मुश्किल से तैयार हुए।लेकिन,एक बैठक में सीध आमने-सामने बैठकर यह साक्षात्कार सम्पन्न नहीं हुआ। बल्कि, 9 जनवरी,,2008 के गम्भीर रूप से बीमार पडने के पहले अलग- अलग मौकों पर हुई बातचीत में यह किया जा सका।कुछेक जवाब उन्होंने अपने ग़़ज़़ल संग्रह ‘ आदमक़द नहीं रहे लोग’  ( जो उनके गुजरने के बाद छपा ) की भूमिका के रूप में लिखकर दिये। वैसे, इसके पहले उन्होंने अपने किसी संग्रह की भूमिका वगैरह नहीं लिखी थी। ख़ैर, यह साक्षात्कार उनके कवि कर्म और रचनागत चिन्ताओं का खुलासा करता है। )




प्रकाश कांत


पहली किस्त



प्र. आप बुन्देलखण्ड के एक छोटे-से गाँव से हैं। आपकी रचनाओं में इसीलिए लोक-रंग और लोक-गंध बराबर मौजूद रहे हैं। हालाँकि गाँव आपसे भी दूसरे बहुत से रचनाकारों की तरह छूट गया। इतने सालों बाद बतौर एक रचनाकार आप गाँव और वहाँ गुज़रे बचपन को किस तरह याद करते हैं ?

उ - मैं दूसरे रचनाकारों के बारे में तो ठीक से नही कह सकता हालाँकि बहुत सारे कवि-कथाकार ऐसे रहे हैं जिनसे अपना गाँव-देहात भले ही छूट गया हो, रोजी-रोटी और बेहतर भविष्य की तलाश में उन्हें शहरों-महानगरों का रुख करना पड़ा हो लेकिन गाँव-देहात उनके और उनकी रचना के भीतर बराबर मौजूद रहा। चाहे ऐसा किसी नास्टेलजिया के तहत हुआ हो!असल में हमारे व्यक्तित्व की बुनियाद बहुत कुछ हमारे बचपन में डल चुकती है। बाल मन पर अंकित छवियाँ बाद में आगे भी बनी रहती हैं। जाहिर है रचनाओं में ये छवियाँ चाहे-अनचाहे बार-बार आती हैं। मेरे साथ भी बहुत कुछ यही हुआ है। पढ़ाई के सिलसिले में गाँव-घर छूटा। एम0ए0 करने सागर आ गया। और फिर कॉलेज की नौकरी करते हुए शहरों में रहना हुआ। लेकिन भीतर जो गाँव-देहात था वह बना रहा। ऐसा अपने-आप हुआ। इसके लिए अलग से कोशिशा नहीं करनी पड़ी। ये चीज़ें कोशिशें करने से होती भी नहीं ं!खुद-ब-खुद होती हैं। इतना ज़रूर हुआ कि बचपन में जो बुन्देलखण्ड जीया था उसे बाद के सालों में मालवा में बस जाने से एक अलग तरह का खाद-पानी मिला। बतौर एक रचनाकार अपने गाँव,वहाँ गुजारे बचपन को जहाँ तक याद करने का सवाल हे तो मुझे कहाँ कोई आत्मकथा या संस्मरण लिखने थे। जो सिलसिले वार और तथ्यात्मक रूप से सही-सही याद करना पड़ता। लिखते-पढ़ते जितना अपने-आप याद आ जाता सो आ जाता। यों भी कौन बन्दरिया की तरह मरे हुए बच्चे को सीने से चिपटाये घूमता है। यह सही हे कि बन्देलखण्ड के गाँव में बीता बचपन आगे चलकर रचनाओं में कच्चा-पक्का माल बनता रहा। खासकर वहाँ का लोक जीवन! मैं नहीं जानता कि मेरी रचनाओं में वह कितना और कैसा आया। बरहाल, जो कुछ आया उसे तुम अगर गाँव-बचपन को याद करना कहना चाहो तो कह लो!


प्र. उन दिनों ऐसा क्या कुछ रहा जिसने आपके कवि होने में मदद की ?

उ- इसके लिए बहुत सारी चीज़ें ज़िम्मेदार रहीं। शुरूआती कक्षाओं में रहीम,कबीर, तुलसी के नीतिपरक दोहों से परिचित हुआ। पिता जो  कि  गाँव की प्रायमरी स्कूल में मुदर्रिस थे, वे भी कुछ कवित्त, सवैये वगैरह कह लेते थे। इसके अलावा दीपावली पर गाये जाने वाले ग्वालों के लोकगीत सुनता था। एक और चीज़ थी, बेड़नियों के राई नाच! ये नाच मातबर परिवारों के चौबारों पर हुआ करते थे। जिन्हें सभ्य परिवारों के बच्चों को नहीं देखने दिया जाता था। बेड़नियों को अछूतों से भी गया-गुजरा समझा जाता था। मैंने एकाध बार किसी तरह यह नाच देख लिया था। जिसकी दो-चार बन्दिशें बाद में याद रह गयीं। जब अगली पढ़ाई के लिए अपने गाँव से हटा (दमोह) आया तब एक तरह की काव्य शिक्षा की छोटी-मोटी शुरुआत हुई और कविता लिखने की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रेरणा मिली। वहाँ द्विवेदीयुगीन कवि लक्ष्मी प्रसाद ‘ रमा ’ और उनके अनुज ‘ रमासहाय ’ थे। वे अलग-अलग रंगों पर फागे लिखवाते थे। छन्द का मेरा अभ्यास यहीं से शुरू हुआ। जो आगे लगातार जारी रहा। मँजता गया। बाद में जब एम0ए0 करने के लिए सागर आया तब साहित्य-परिचय का दायरा और विस्तृत हुआ। छायावादी कवियों को पढ़ा।छन्दमुक्त और छन्दबद्ध कविताएँ पढीं। निराला की गहरे सामाजिक सरोकारों वाली रचनाओं को जाना-समझा। यहीं पर उस दौर की कुछ ख़ास पत्र-पत्रिकाएँ देखने-पढ़ने का मिलीं। और इसी सब में कविता लिखने की शुरुआत हुई। वहीं रहते एक मुक्त छन्द रचना कलकत्ता से निकलने वाले ’ सुप्रभात ’ में प्रकाषित हुई। जिसका पारिश्रमिक सात रुपये मिला। कविता से मिलने वाला वह मेरा पहला पारिश्रमिक था।  सागर में कई लिखने-पढ़ने वालों से मेल-मुलाकात हुई। उस दौर की साहित्यिक बहसों को समझा। तार सप्तकों को पढ़ा। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों को पढकर प्रगतिशील कविता का रुझान पैदा हुआ। नागार्जुंन की ‘ सिन्दूर-तिलकितभाल ’ और केदारनाथ अग्रवाल की ‘ हवा हूँ,हवा हूँ...’ जैसी कविताओं ने गहरा असर किया। उन  दिनों साधुबेला आश्रम से ‘वासन्ती ’ निकलती थी। उसमें छन्द को लेकर एक पूरी बहस थी। उस बहस ने छन्द के प्रति आग्रह को और मजबूत किया। इस बीच लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ था वह रोजी-रोटी की जद्दोजहद में बीच में दो साल बन्द रहा। बाद में दोबारा शुरू होने पर ठीक-ठाक चलता रहा।

 प्र. आप सागर विश्वविद्यालय के छात्र रहे। इस विश्वविद्यालय से कई बड़े नामों का रिश्ता रहा है। आपके सागर के दिनों के बारे में कुछ बताएँ।

उ-  सागर विश्व विद्यालय आना और पढ़ना आचार्य न्द दुलारे वाजपेयी जी की मेहरबानी से हो पाया था। मैंने अपना ग्रेज्यूएशन खत्म करने के बाद उन्हें यों ही ख़त लिख दिया था कि मैं हिन्दी में एम0ए0 करना चाहता हूँ लेकिन मेरी माली हालत ठीक नहीं है। अगर वहाँ रहने की सहूलियत मिल जाये तो भरोसा है कि कुछ न कुछ बेहतर कर सकता हूँ।जवाब में वाजपेयी जी ने मुझे सागर बुलवा लिया। होस्टल में रहने की व्यवस्था करवा दी। इस तरह सागर आना और वहाँ से एम0ए0 कर पाना सम्भव हो सका। सागर के हरिसिंह गोर विश्व विद्यालय की उन दिनों काफी प्रतिष्ठा थी। डॉ0 कान्तिकुमार ने पिछले सालों लिखे अपने चर्चित संस्मरणों में उसे कई तरह से याद किया है।सागर वि0वि0 से रिश्ता रजनीश से लेकर बाद में  कई तरह की हस्तियों से रहा है। रजनीश जो पहले आचार्य फिर भगवान और अन्ततः ओशो बने,वे वहीं के दर्शन शास्त्र के एम0ए0 थे। वे वहीं के होस्टल में रहते थे। हालाँकि यह काफी पहले की बात है। डॉ0 कान्तिकुमार का रजनीश के सागर के दिनों का संस्मरण काफी रोचक है। सागर के अशोक वाजपेयी भी अपने स्तम्भ में अक्सर याद करते रहते हैं। अशोक, डॉ0 विजय बहादुर सिंह,डॉ0धनंजय वर्मा वहाँ मेरे आगे-पीछे थे। विश्व विद्यालय में आचार्य वाजपेयी तो थे ही, डॉ0 प्रेमशंकर भी थे। डॅा0  राममूर्त्ति त्रिपाठी भी आये। बीच में कुछ दिनों के लिए डॉ0 नामवरसिंह भी रहे थे। वे अक्सर नये लिखने-पढ़नेवालों की गोष्ठियाँ रखवाया करते थे। मैं भी उन गोष्ठियों में जाया करता था। हालाँकि नामवर जी वहाँ ज़्यादा रहे नहीं। उनके और नन्द दुलारे जी के बीच कुछ उलझनें रहीं। बहरहाल, वे चले गये।



सागर वि.वि. के दूसरे विभागें में भी कई महत्त्वपूर्ण लोग काम कर रहे थे। उनके बारे में डॉ. कान्तिकुमार और अशोक अक्सर लिखते रहे हैं। इस वि0वि0 की मेरी ज़िन्दगी में काफी अहम भूमिका रही। एक बहुत छोटी-सी जगह से आये हुए शख्स का इस वि0वि0 ने एक बड़ी दुनिया से परिचय करवाया। वहाँ रहते जिन बड़ी हस्तियों से पढ़ना और मिलना-जुलना हुआ उस सबका मेरे व्यक्तित्व पर गहरा असर हुआ। नौकरी-धन्धे का रास्ता वही ं से निकला। लिखने-पढ़ने की सही समझ वहीं रहते मिली और बनी। साहित्य जगत् के कइ्र्र अहम नामों को जाना-समझा।

प्र. आपने जिन दिनों लिखना शुरू किया कविता के क्षेत्र में कई तरह की आवाजे़ सुनाई दे रही थीं। नई कविता अपनी ऐतिहासिक भूमिका का एक तरह से निर्वाह कर चुकी थी। अकविता और दूसरी कुछ और तरह की कविताओं के स्वर हवाओं में मौजूद थे। इन विविध स्वरों और उनकी प्रतिघ्वनियों के बीच आपने लिखना शुरू किया। उस समय के काव्य परिदृश्य को लेकर अब आप क्या सोचते हैं ?

उ -  हर नये लिखने-पढ़ने वाले की अपने दौर में चल रहे काम पर नज़र तो होती ही है, होनी भी चाहिए। यह चीज़ रचनात्मक दबाव बनाती है। अपने दौर के लेखन का हर नये लिखनेवाले पर प्रभाव रहता है। जो बाद में धीरे-धीरे कम या ख़त्म जाता है। रचनाकार अपना रास्ता चुन या बना लेता है। मैंने जब लिखना शुरू किया तब सप्तक आ चुके थे। मैं सागर वि0वि0 पचास के दशक के आखिर में आया था। तब तक छोटा-मोटा लिखना-छपना शुरू हो चुका था। सन इकसठ में एम0ए0 करते ही कॉलेज की नौकरी में आ गया।व्याख्याता के रूपमें पहली पोस्टिंग बैतूल में मिली। कुछ ही दिन बाद वहाँ से देवास कॉलेज में आ गया। उन दिनों सप्तक के कवियों के अलावा दूसरे भी कई कवियों की चर्चा थी। जिनका मुझ पर असर था। मुक्तिबोध को मैंने अपनी कविताएँ भेजी थीं। उन दिनों कविता के कई स्वर हवाओं में तैर रहे थे। अकविता अपनी आत्यन्तिक मुद्रा में खड़गहस्त थी। इसी सब के बीच मैं अपना काम कर रहा था।

प्र. आपने शुरू में बड़ी तादाद में प्रचलित फार्म की कविताएँ लिखी थीं। जिसमें से कुछ आपके पहले संकलन ’ पथराई आँखें ’ में संकलित हैं। फिर आपने अपन-आपको छंद तक सीमित कर लिया और गीत,ग़ज़ल,सॉनेट लिखे। ऐसा अनायास हुआ या किसी विचार या आग्रह के तहत ?




उ- यह सही है कि शुरू में मैंने प्रचलित फार्म में भी कविता लिखी।इस तरह की कविताएँ मेरे पहले संग्रह ‘ पथराई आँखें ’ में संकलित भी हैं। असल में मैं उन दिनों एक तरह से अपना फार्म तलाश रहा था। वैसे बुनियादी तौर पर मेरा मानना है कि फार्म के भेद ऊपरी हैं। असल चीज़ है कविता! खैर बाद में मैं स्थाई रूप से छन्द में रह गया। छन्द का अभ्यास शुरू से था। सो, वही अपनी बात कहने के लिए सबसे अनुकूल लगा। उसी में एक खास तरह की सहजता महसूस हुई।गीत तो लिखे ही त्रिलोचन से प्रभावित होकर सॉनेट भी लिखे। ग़ज़ल भी कहने की कोशिश की। और यह सब किसी विषेष आग्रह या योजना के तहत नहीं किया। बल्कि अपने-आप हुआ।

प्र. आप नवगीत आंदोलन के महत्त्वपूर्ण गीतकार रहे हैं।  नवगीत बाद में सिर्फ गीत रह गया। पहले तो यह बताएँ कि क्या सच में नवगीत जैसी कोई चीज़ थी! या फिर यह उस वक़्त की कुछ रंगीन और लोकप्रिय पत्रिकाओं का एक शिगूफा-भर था ?नई कहानी, नई कविता के वज़न पर छोड़ा गया!

उ- नहीं शिगूफा तो नहीं था। और उसका मंच केवल रंगीन लोकप्रिय पत्रिकाएँ भी नहीं था। यह ठीक है कि उसकी पृष्ठ भूमि में कहीं नई कविता, नई कहानी जैसे आन्दोलनों की गूँज थी। जहाँ तक नव गीत का सम्बन्ध है वह पारम्परिक गीत से थोड़ा अलग हटकर था इसलिए वह नवगीत था। उसके इस ‘नव’ को ले कर भी उसी किस्म के सवाल थे जो नई कविता और नई कहानी के ‘ नई ’ को लेकर रहे थे। जाहिर है इनका ‘नई ’ या ‘ नव ’ विशेषण समय सापेक्ष न होकर बुनियादी तौर पर प्रवृत्तिमूलक था। इस प्रवृत्ति का सम्बन्ध गीत के बाहरी कलेवर और कथ्य से भी था। जिसके चलते वह पारम्परिक या प्रचलित गीत से अपने को अलग करता था। बतौर एक आन्दोलन अगर वह कोई आन्दोलन था तो बेशक़ उसका फलक नई कविता या नई कहानी के फलक जितना विस्तृत नहीं था। इसके अलावा, जो नई कविता का ‘ नया ’ था ठीक-ठीक वहीं नव गीत का नया नहीं था। किसी तरह के एक्सटेंशन के चलते। जब कि कई बार ऐसा मान लिया जाता है। हो सकता है कि नई कविता का जो ‘नया ’ था उसकी कुछ छाया नवगीत के ‘नव ’ पर पड़ी हो! वैसे याद रखा जाना चाहिए कि नई कविता और नवगीत के बीच समय का भी फासला था। अब रही बात नव गीत जैसी किसी चीज़ के रहे होने या न होने की तो इतना ही कहना चाहूँगा कि चूँकि प्रचलित गीत के इतर यह गीत था इसलिए ‘नवगीत ’ ते था। जो कि बाद में जैसा कि तुमने कहा सिफ्ऱर् गीत रह गया। जिस तरह कि नई कहानी और नई कविता रह गयीं। वैसे, प्रवृत्तिमूलकता के आधार पर शम्भुनाथ सिंह तो 1935से1950 तक के समय को नवगीत का पहला चरण मानते थे। हालाँकि, नवगीत के रूप में उसकी ठीक-ठाक पहचान साठ के दशक में बनी।जिसमें प्रयोगवादी और प्रगतिवादी कविता के स्वर सुनायी देते थे।

प्र. इस सिलसिले में अक्सर कहा जाता है कि गीत की रूमानियत, लिजलिजी भावुकता, प्रेम-प्रधानता और आत्मरति से नवगीत अलग था। हालाँकि इन्ही विशेषताओं के चलते गीत मंचीय कविता और कवि सम्मेलनों की केंद्रीय विधा बन पाया था। नीरज जैसे लोकप्रिय कविता के शिखर पुरुष ने जिसका अधिकतम निचोड़ लिया था। आप इसे किस तरह देखते हैं ?

उ - यह सही है कि पारम्परिक या प्रचलित गीत अपनी रूमानियत, प्रेम प्रधानता, आत्मरति और जिसे तुम लिजलिजी भावुकता कह रहे हो उससे ग्रस्त था। लेकिन, यह भी सही है कि मंच और कवि सम्मेलनों के जरिये श्रोताओं के बीच कविता के लिए ज़रूरी जगह बनाने का काम उसीने किया था। वह अपनी एक खास तरह की अपील के कारण सम्मेलनों की केन्द्रीय विधा बना रहा। और जैसा तुमने कहा नीरज जैसे लोकप्रिय कवियों ने इसकी सम्भावना का अधिकतम निचोड़ा। हालाँकि,गीत तब भी अपने तई गम्भीर था। और उसका तब तक फिल्मीकरण नहीं हुआ था जैसा कि बाद में चलकर हुआ। एक और बात, चूँकि वह गीत पूरी तरह गेय था इसलिए एक तरह की गलेबाजी की गुंजाइश भी देता था। बाद में चलकर तो सिर्फ़ गलेबाजी ही होने लगी। गीत कहीं पीछे छूटता गया।

प्र.  अक्सर कहा गया है कि अपने गम्भीर सामाजिक सरोकारों के चलते नवगीत प्रचलित कविता के ज़्यादा नज़्दीक था। बल्कि बाजवक्त वह कई जगह वैचारिक आग्रहों का वाहक भी था। और यही चीज़ उसे पारम्परिक गीत से अलग भी करती थी। आप इसे किस तरह लेते हैं ?

उ - नवगीत के प्रसंग में सामाजिक सरोकारों की बात अक्सर आयी हे।बल्कि इन्हें नवगीत को गीत से अलग देखने का एक आधार या कारण भी बनाया गया। और यह किसी हद तक ठीक भी था। यह तो नहीं कहूँगा कि पारम्परिक गीत के कभी कोई सामाजिक सरोकार ही नहीं रहे। लेकिन, नवगीत में इनका आग्रह या दबाव ज़्यादा रहा। शायद इसलिए कि पारम्परिक गीत की तुलना में उसका वैचारिक पक्ष थोड़ा ज़्यादा गहन था। तुम्हें पता होगा कि साठ के दशक तक आज़ादी से जुड़े कुछ ज़रूरी सपनों का क्षरण शुरू हो चुका था। मोहभंग होने लगा था। बाँसठ का चीन से युद्ध और उसमें मिली शर्मनाक़ हार के कारण ‘सत्यमेव जयते’ के औपनिषेदिक आप्त वाक्य या नारे के बावजूद देश ज़बर्दस्त राष्ट्रीय हताशा से जकड़ा हुआ था। नेहरू की छवि इस सब में खण्डित भी हुई थी। इस दशक में और भी बहुत कुछ हुआ था। पैंसठ में पाकिस्तान के साथ युद्ध, अनाज का राष्ट्रव्यापी संकट। लाल बहादुर शास्त्री की ताशकन्द में मृत्यु। संविद सरकारें। थोकबन्द दलबदल! इस सब से जो वैचारिक खलबली मची थी उसने कविता को भी प्रभावित किया था। गीत भी प्रभावित हुआ। विचार और सामाजिक सरोकारों का दबाव इस कारण भी उसमें बढ़ा।

प्र. यह गीत अपने को निराला के परवर्त्ती गीतों से जोड़ता था। यह किस हद तक सही है ?

उ- निराला की परवर्त्ती कविता में सामाजिक चेतना के स्वर ज़्यादा गहरे हुए हैं ं। उनके परवर्त्ती गीतों के साथ यही हुआ है। उनके ये गीत आम तौर छोटे मीटर के कम बन्दों वाले हैं। नवगीत अपनी परम्परा इनसे जोड़ता था। ख़ासकर अपने गठन और प्रकृति के लिहाज से! हालाँकि  निराला के गीतों को शास्त्रीय संगीत का आधार एक विषेष प्रकार का कसाव देता था। ख़ैर।
 
प्र. आप गीत, नवगीत, कविता जैसे विधागत किसी तरह स्थूल विभाजनों को अस्वीकार करते हुए इन सबको सिर्फ कविता माने जाने के पक्ष में रहे हैं। हालाँकि, आलोचना और काव्य विमर्श के क्षेत्र में फ़ोकस इस तरह के विभाजनों पर ही रहा। आप क्या कहना चाहेंगे ?

उ-  काव्य विमर्श और आलोचना कर्म की अपनी कुछ ज़रूरतें हुआ करती हैं। उन्हें चीज़ां को इसी हिसाब और लिहाज़ से देखना-परखना होता है। लेकिन, मैं गीत, नवगीत वगैरह जैसे विभाजनों को ऊपरी मानता हूँ। जैसे कि मैंने पहले कहा असली चीज़ है कविता! फार्म के ऊपरी भेदों के बावजूद अगर रचना कविता होने का अपना बुनियादी काम करती है तो काफ़ी है।




प्र. नवगीत में जिस तरह की एक गहरी सामाजिकता थी उसके पीछे कविता की प्रगतिशील प्रेरणाएँ भी काम करती बताई जाती हैं।  हालाँकि, यह गीत शंकर शैलेंद्र या शील के आह्वानकारी एवं क्रान्तिकारी मुद्रा वाले अपेक्षाकृत लाउड गीतों जैसा नहीं था। जबकि उसमें प्रगतिशील कविता के बहुत सारे तत्त्व मौजूद थे। आप क्या कहना चाहेंगे ?

उ-  तुम ठीक कह रहे,प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में कई आह्वानकारी और क्रान्तिकारी गीत रचे गये थे। शील या शंकर शैलेन्द्र जैसे कवियों ने यही किया था। जाहिर है वे अपने मंतव्य और ज़रूरतों के चलते थोड़े लाउड भी थे। नवगीत ने अपनी विशेष सामाजिक चेतना के लिए प्रगतिशील कविता से प्रेरणा ली थी इसके बावजूद वह लाउड नहीं था। वह अपनी भूमिका अलग देखता था।

प्र. नवगीत में प्रकृति के बहुत सारे बिम्ब और चित्र मौजूद रहे हैं। इनके अंकन में भाषा का खासा लोकरंग इस्तेमाल हुआ है। लेकिन उनमें अचानक कहीं-कहीं छायावाद की आभासी उपस्थिति दिखने लगती है। ऐसा क्यों है ?

 उ-  नवगीत में जो लोक रंग मौजूद रहा है उसके चलते उसमें प्रकृति के विविध बिम्ब और चित्र स्वभावतः होने ही थे। दूसरी कविता की तुलना में ये गीत ज़्यादा प्रकृति को अपना विषय बना रहे थे। लेकिन यह छायावादी रुझान नहीं था। छायावादी कवियों के यहाँ प्रकृति भिन्न मंतव्यों के लिए रही है। नवगीत प्रकृति के जरिये न तो कोई रहस्यवादी उपक्रम करते थे और ना हर जगह प्रकृति का मानवीकरण! प्रकृति के विविध चित्र उनमें कंटेंट की तरह आये हैं।



नईम



प्र. गीत, नवगीत, जनवादी गीत! इसे आप किस तरह देखते हैं ?
उ-  इसके जवाब में फिर यही दोहराना चाहूँगा कि ये ऊपरी भेद हैं। रचना के स्तर पर उन्होंने अपना-अपना काम किया है जो कि काफ़ी है।
००

क्रमशः

कवि नईम के साक्षात्कार की दूसरी किस्त नीचे लिंक पर पढ़िए


http://bizooka2009.blogspot.com/2018/06/blog-post_88.html?m=1



परिचय: 


नईम
जन्म: 1 अप्रैल, 1935 (म.प्र. के दमोह ज़िले के एक गाँव में)
निधन: 8 अप्रैल, 2009

शिक्षा: एम. ए. – हिंदी (सागर विश्वविद्यालय)

कार्यकारी जीवन: म.प्र. के अनेक शासकीय महाविद्यालयों में अध्यापन, 
                               1995 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त

प्रकाशन: ‘उजाड़ में परिंदे’, ‘पथराई आँखें’, ‘पहला दिन मेरे आषाढ़ का’, ‘बातों ही बातों में’, ‘गलत पते पर समय’, ‘आदमकद नहीं रहे लोग’, ‘लिख सकूँ तो’ शीर्षकों से संकलन प्रकाशित 

पुरस्कार एवं सम्मान: दुष्यंत पुरस्कार, डॉ. शम्भुनाथ सिंह शोध संस्थान का नवगीत सम्मान, दुष्यंत स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय का दीर्घसाधना सम्मान, उत्तरप्रदेश सरकार का साहित्य भूषण सम्मान, परिवार सम्मान (मुंबई), म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा भवभूति अलंकरण, काष्ठकला के लिए भोपाल के मधुबन संस्थान का श्रेष्ठ आचार्य सम्मान आदि.

प्रदर्शनी: मुंबई एवं दिल्ली में काष्ठ कला शिल्प की प्रदर्शनियों का आयोजन
००



प्रकाश कान्त


जन्म:      26 मई, 1948; सेन्धवा ( पश्चिम निमाड़, म. प्र.)

शिक्षा:     एम. ए. ( हिन्दी )
          रांगेय राघव के उपन्यासों पर पी. एच. डी.

प्रकाशन:   
शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं आलेख प्रकाशित /
चार उपन्यास: ‘अब और नहीं’, ‘मक़्तल’,  ‘अधूरे सूर्यों के सत्य’, ‘ये दाग़-दाग़ उजाला’
कार्ल मार्क्स के जीवन एवं विचारों पर एक पुस्तक 
तीन कहानी संग्रह: ‘शहर की आखिरी चिड़िया’, ‘टोकनी भर दुनिया’,  ‘अपने हिस्से का आकाश’

सम्प्रति:    स्वतंत्र लेखन 

सम्पर्क:    155 - एल. आई. जी., मुखर्जी नगर,
           देवास, म.प्र., 455001
           मोबाईलः 09407416269, 
           फोनः 07272-228097 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें