29 नवंबर, 2018


कल्पना मनोरमा की कविताएँ




कल्पना मनोरमा 




आदेश

साफ बोलने की कोशिश में
बोलती हूँ हमेशा
रुककर और समझकर
फ़िर भी
उलझ जाते हैं शब्द
शब्दों में
अकड़ने लगती है जीभ
भरने लगती है गालों में
अतिरिक्त हवा
अटकने लगतीं हैं ध्वनियाँ
दाँतों के मध्य

हैरान होकर अचानक
ढूँढने लगती हूँ कारण
अवरोध का
एक दिन
तो पाती हूँ चुप रहने के
अनेक आदेशों को
चिपका हुआ
बचपन के होंठों पर ।





खण्डित मूर्ति


सदियों से बुना जाता रहा है
गीतों में नसीहतों के
व्यापार को
इस तरह कि-एक औरत दूसरी औरत को
घुमा-फिराकर बता भी जाये
घुट-घुटकर मरने के
टिकाऊ तरीके
और बनी भी रहे सगी

टेसू-झिंझिया के खेल हों या हो
सरिया ,सोहर और ब्याहगीत
बनाकर दिया को साक्षी
हमेशा गाया कम सिखाया ज्यादा
जाता रहा है
कोरे मन वाली स्त्री को
अपने दमन को हँसकर
स्वीकारने की कला

बड़ी-बूढ़ी औरतें
सीख को पिरोकर गीत में जब
कहती -मुस्कुरातीं -झूमती
तो आँसू खो देते अपना आपा
लेकिन तटस्थ स्वर कहते
ओ स्त्री ! ससुराल में जब दुख तुम्हें घेरले
तो तुम निराशा में भले ही डूब जाना
किन्तु अपने मायके
मत भेजना संदेश
अपनी उदासी या परेशानी का
नहीं तो हो जाएगा अनर्थ

तुम्हारे पिता गिर जाएँगे खाकर पछाड़
माँ डूब जाएगी आँसुओं के समुंदर में
भाई हाँक देगा घोड़ा अँधेरी रात में
तुम्हारे पास आने को
भाभी हँसेगी बंद कर किबाड़े
ऐसे कष्ट
नहीं देते अपनों को

झिंझिया की मटकी में रखा दिया भी
भर देता था गवाही उन्हीं की

धी मार बहू समझाने के सिद्धांत को
दमदारी से सहेजा
माँ के सँग की औरतों ने
अपने भावुक हृदय में और बनती गई
पत्थर की खण्डित मूर्ति
पुरुष सेंकता गया रोटियाँ
उसकी दबी-कुचली
दहकती साँसों की अँगीठी पर
और स्त्री
मरती गई स्त्री के हाथों  ।








मोह

भूला रहा पौधा
अपना आकाश तब तक
जब तक कि -उसने
छोड़ा नहीं मोह
उस धरती का
जहाँ पर वह गया था
उगाया

इसी उथल -उथल में
सुखाने लगे थे मौसम
उसके अस्तित्व को

दुखी मन से जब
उसने निहारा ऊपर की ओर
आकाश तब भी - अब भी
मुस्कुरा रहा था
ज्यों ही ओढ़ा आकाश
पौधे ने
वह हो गया हरा फिर से ।





रेत हो जाना

दरिया के हाथों में
नहीं दिखाई पड़ती है
छैनी-हथौड़ी या
तलवार

किन्तु वह फिर भी
काटता आ रहा है पत्थरों को
महीन-महीन लगातार
सदियों से

दर्द की आगोश में
रहकर भी
नहीं निकलती है चीख़
पत्थरों के होठों से
कभी भी

क्या रेत हो जाना
इतना सहज है  .






मरना एक शब्द नहीं

मरना एक शब्द नहीं
नाम था कभी गाड़ीभर
डर का,थरथराहट का

जब -जब कहा था माँ ने
मत मचाना शोर
नहीं रहे हैं फलाने बाबा
गाँव में
मन बन जाता था एकदम चट्टान
लगने लगते थे पेड़ उदास
धूप मुरझाई हुई
लगती थी शामें डरावनी
दिए की रोशनी में पड़ती अपनी परछाईं
लगती थी जरूरत से
ज्यादा बड़ी या सिकुड़ी

अंजाने ही हो जातीं थीं
प्रारम्भ प्रार्थनाएँ
कुछ भी हो ईश्वर मेरी माँ को
कभी मत बुलाना अपने पास
उस दिन माँ अचानक लगने लगती थी
प्यारी से भी बुहत प्यारी

फिर एक दिन
माँ भी सभी की तरह
चली गई बादलों को धकेलते हुए
स्वर्ग की ओर
किसी ने नहीं कहा
मुझसे कुछ भी छोड़ने को

फिर भी
छूट गया सब कुछ
जो था मौत और माँ से जुड़ा हुआ
साथ में छूट गया गाड़ीभर
डर भी
जानकर ये कि-मरने के
बाद नहीं ,मौत डराती है
जिन्दा व्यक्ति को ।






कविता

कविता नहीं जानती अंतर
स्त्री और पुरुष में
वह जानती है तो उद्भावनाओं
के चर्म को
कविता अपने समय का सौभाग्य रचती है
याकि बचती है जटिलताओं से
कविता विचारों का लबादा नहीं
सूक्ष्म पड़ताल है धड़कते हुए
सच्चे शब्दों की
कविता मनोरंजन नहीं
करती है व्यक्ति को
सिरे से आक्रोशित या सिरे से स्पंदित
कविता आंदोलन नहीं
बल्कि आंदोलन केे बाद की
कार्यबाही है

ठेठ कविता उछल -कूद कर
पा ही लेती है अपना उचित स्थान
जैसे बिल्ली लाँघते-छलाँघते
दिखा ही लाती है अपने बच्चों को
सात घरों के कोने
कविता पिता का शोरगुल नहीं
माँ की समझदारी है
कविता सम्मान पाने की
सीढ़ी नहीं
बेज़ुबानों की जुबान है

कविता कवि का कौतूहल है
कसमकश नहीं ,स्त्री या पुरुष की
बेसुरे वक्त के साज पर
कविता आवाज़ है अपनी-सी ।





शब्दों का अधपकाफल

कुछ खो गया है ।
क्या खोया है ?
ठीक से कह नहीं सकती 
हाँ उसे पाने की तड़प
इस कदर रह -रहकर तड़पा जाती है 
कि-औचक ही ढूँढने लग जाती हूँ
अपना खोया समान 

रंग,खुसबू और बनावट पहचानते हुए भी 
कह नहीं सकती 
फिर क्यों होता है खो जाने का एहसास 
कैसी होती जा रही है ,हमारी सोच 

फ़ैसला किया ही था कि-नहीं ढूँढूँगी
कोई भी खोया हुआ सामान 
कि-अचानक बढ़ने लगा पारा 
स्मृतियों का 


कुछ धुँधला-धुँधला उभरने लगा 
आँखों के सामने 
जैसे साँझ होते चमकने लगते हैं 
जुगनू रेत में 
जैसे काजल भरी आँखों में चमकती है 
नन्हें शिशु की मचलन भरी 
मुस्कान 

मुझे उल्झन में उल्झा देख 
समझ ने दिखाई समझ 
तो मन तोड़ लाया झट से सन्नाटे के वृक्ष से 
शब्दों का अधपका फल 
मैंने भी रख दिया जल्दी से उसे 

धैर्य के अनाज में 
कभी पकेगा तो बाँटूँगी सभी में 
थोड़ा -थोड़ा ।




घोंसले

एक घोंसले की बुनाई में
बुन देते हैं पंछी
तिनकों के साथ -साथ
अपने कई महीने ,दिन,घण्टे,मिनट और
अपने पंख भी

फिर भी नहीं देखते हैं
उनके जाए ,उन घोंसलों की ओर
उनकी नजर से
उन्हें तो दिखती है बस
चुग्गे से भरी हुई
उनकी चोंच

वो भी तब तक
जब तक कि-हो नहीं जातीं हैं
उनकी अपनी चोंचें-पंख
मजबूत

फिर एक दिन शाम को
लौटते हैं पंछी
चुग्गे से भरी चोंच ले
अपने घोंसले में

डाली पर पसरी नीरवता देख
वे होते हैं हैरान
तलाशते रहते हैं कई दिनों तक
अपनों को
लेकिन बच्चे नहीं लौटते

थक हारकर वे कर लेते हैं
स्वयं को पुनः व्यस्त
दूसरे घोंसले की बुनाई में
और ऐसा करना आता है
सिर्फ
पक्षियों को ।








जल्दी

वह रोई जब-जब
लोगों ने लगाया अनुमान
अपने अनुसार

बिना सोचे -समझे
रख दिया गया उसके रोने को
ईर्ष्या ,जलन और प्रतिस्पर्धा
के दूसरे पल्ले में
और लगा कर जोर
तौल दिया गया

वह बावरी देखती रही
डबडबाई आँखों से कि-शायद
अब कोई पूछेगा उससे
उसके रोने का कारण
तो बताएगी वह रोने का
सही कारण
लेकिन ये क्या ?
लोगों को पूछने की नहीं
होती है जल्दी
अपनी कहने की ।






हे स्त्री 

जैसे धरती में होता है
थोड़ा -सा आकाश
आकाश में थोड़ी-सी
धरती
वैसे ही
हर स्त्री के भीतर होता है
टुकड़ा भर पुरुष
हर पुरुष के भीतर होती है
टुकड़ा भर स्त्री

इस बात पर पक्का
यक़ीन कर

हे स्त्री !
तुम खिलना फूल भर
चलना रास्ता भर
बहना पूरी धारा भर
उगना सूर्य भर

क्योंकि जब भी
आये वक्त तुम्हारा होने को
अस्त
तो तुम्हारे अपने सो सकें
नींद भर
तुम्हारे बाद भी ।




परिचय 
नाम         : कल्पना मनोरमा
पिता        : श्री प्रकाश नारायण मिश्र
माता        : श्रीमती मनोरमा मिश्रा
जन्म तिथि    :  10 जुलाई 1972
जन्म स्थान     :  ईकरी ज.इटावा (ननिहाल )
पैत्रक निवास   : अटा  जनपद औरैया
शिक्षा            : एम.ए. - बी.एड.(हिन्दी)
सम्प्रति          : शिक्षण ( हिन्दी-संस्कृत  )
प्रकाशित संग्रह : कब तक सूरजमुखी
                         ( गीत -नवगीत संग्रह ) 

रुचि               :  विभिन्न साहित्यिक
                         संस्थाओं से सम्बद्धता और
                        अच्छा साहित्य पढ़ना

लेखन             :स्वतन्त्र
सम्पर्क            : smq c-5 WAC subroto        park new delhi pin-110010
         
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कभी-कभार तीन


एफ्रो-अमेरिकन इतिहास : गुलामी, विद्रोह और सशक्तिकरण का इतिहास  
  
विपिन चौधरी

गुलामी  दुनिया के लगभग सभी देशों के इतिहास का हिस्सा  रही  है. ग्रीक और रोमन सभ्यताओं में मौजूद मानव-तस्करी से लेकर गुलामी के समकालीन रूपों तक इसका  इतिहास आज भी अक्रांत करता है.  संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग चार-सौ वर्षो की गुलामी का असर इस कदर गहरा है कि आज भी नस्लीय असमानता और अन्याय के इतिहास से बोझ से अश्वेत खुद को अलग नहीं कर सके हैं.


विपिन चौधरी


अमेरिका में  1660 तक  गुलामी को  कानूनी रूप से  मान्यता मिल चुकी थी और उत्तरी अमेरिका में  गुलामी ने एक प्रथा के रूप में  अपनी जड़ें गहरे  तक  जमा ली  थी. संयुक्त राज्य अमेरिका में  1865 तक  गुलामी कानूनी रूप से स्वीकृत रही. दिलचस्प बात यह है  कि 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब
तंबाकू  की खेती पर आधारित  अर्थव्यवस्था  पूरी तरह से  खतरे में पड़ने लगी, तब वर्जीनिया  के कुछ नेताओं ने गुलामी को समाप्त करने के बारे में भी आपस में चर्चा भी  की थी. लेकिन कपास  की खेती से सम्बंधित कुछ तकनीकी अविष्कारों ने  गुलामी-प्रथा को फिर  से  नया जीवन दिया. विश्व पटल पर अमेरिका देश की स्थापना करने में वहां की कृषि जिसमें तंबाकू, चावल, चीनी, कपास का मुख्य योगदान रहा. वर्ष 1850 में 15 गुलाम राज्यों में काम कर रहे 3.2 मिलियन गुलामों में से 1.8 मिलियन, कपास के उत्पादन में लगे हुए थे.

इस बीच गुलामों की भीतर विद्रोह पनपने लगा और सामाजिक स्तर पर भी गुलामी की समाप्ति को लेकर मुहीम तेज़ हो गयी जिसके परिणामस्वरूप गुलामी को राहत  देने के लिए  सरकार को कई  क़ानून बनाने  पड़े.

वर्ष  1793  में फेडरल फुगिटीव कानून  उन गुलामों के लिए लागू किया,  जो राज्य  की सीमाओं को पार करने के बाद  लौट आए  थे. 1808 कांग्रेस  ने  अफ्रीका से गुलामों  के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया था. 1820 मिसौरी समझौता पास किया गया जिसके अनुसार  मिसौरी को एक  गुलाम राज्य और  माइनको दास-मुक्त राज्य घोषित किया गया और इस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका सीनेट ने दक्षिण और
उत्तर के बीच सत्ता के संतुलन रखने का प्रयास किया .

गुलामी  का भयावह जीवन

 1850 के मैरीलैंड में गुलामों  का शरीर, उनका  समय, उनकी सांसें  सब कुछ गिरवी था. सप्ताह भर  दिन-रात  परिश्रम  करके  वे अपने मालिकों को अमीर बनाने में लगे रहते. उन्हें आज़ादी का अनुभव कभी नहीं लिया न ही उसकी कभी उम्मीद ही की. जमैका में जन्में,  इतिहासकार  और सांस्कृतिक समाजशास्त्री ऑरलैंडो पैटरसन, जिनका विशेष अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के नस्लीय  मुद्दों और विकास के समाजशास्त्र पर है, अपनी पुस्तक 'स्लेवरी एंड सोशल डेथ  'ए कम्पेरेटिव स्टडी विथ ए न्यू प्रीफेस’ में गुलामी को  ‘सामाजिक मृत्यु’की  संज्ञा  देते हुए कहते हैं कि सभी सभ्यताओं में  गुलामी की यही परिभाषा  होनी चाहिए. इस सामाजिक मृत्यु की शुरुआत  गुलाम को पकड़ने के साथ शुरू हो जाती है जिसमें किसी  मनुष्य के व्यक्तित्व और  उसकी  योग्यता  पर कब्ज़ा कर लिया जाता है.

सदियों तक अस्तित्व में रही गुलामी की भयावह विभीषिका ने ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया जिसके चलते अश्वेत गुलाम, विद्रोह की ओर अग्रसर हुए. शुरूआती तौर पर यह विद्रोह धीमा रहा मगर बाद में इसका व्यापक रूप से खुल कर सामने आने लगा. अश्वेत लोगों द्वारा गुलामी-विरोधी समूह बने और कुछ प्रबुद्ध लोगों ने भी हिम्मत दिखाते हुए विभिन्न सभाओं में गुलामी के प्रति अपनी आवाज़ बुलंद की.  1775  में फिलाडेल्फिया में क्वेकर्स*  द्वारा दुनिया की पहली एंटीस्लावेरी सोसाइटी  यानी  गुलामी विरोधी संस्था की स्थापना की गई.

युवा अमेरिकी इतिहासकार, स्टेफनी एम.एच. कैंप  गुलामों के प्रतिरोध के लिए कई आयामों पर गहराई से चर्चा करते हुए कहती हैं, ‘उन गुलाम स्त्रियों के जीवन की पड़ताल  जिनके शरीर और और घर राजनीति के क्षेत्र थे,  उनके जीवन की परिस्थितियां गुलामी को लेकर हमारी समझ में नई गहराई लाती है. अपनी पुस्तक ‘क्लोज़र टू फ्रीडम : ईंस्लावेड वीमेन एंड एव्रीडे रेजिस्टेंस’ में स्टेफनी एम.एच. कैंप गुलाम स्त्रियों द्वारा अपनाई गई उन सूक्षम मगर गहरी अभिव्यक्तियों का जिक्र करती हैं जिसे वे गुलाम स्त्रियाँ, स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए बतौर औज़ार इस्तेमाल करती हैं. उदाहरणस्वरुप ये निरक्षर गुलाम स्त्रियाँ, गुलामों के लिए बने केबिनों की दीवारों पर आजादी को लेकर कुछ प्रतीक-चिन्ह कित करती हैं . इन गुलाम स्त्रियाँ द्वारा अपनाई गई ये सब गतिविधियाँ दरअसल सूक्ष्म रूप से आज़ादी के लिए आंदोलन का जरिया बन  गई थी.

इन गुलाम स्त्रियों  द्वारा रोज़मर्रा के जीवन में अपनाये गए प्रतिरोधों के जरिए ही विपक्ष की एक ऐसी संस्कृति का निर्माण हुआ जिसने आगे चलकर अश्वेत समाज की मुक्ति में काफी  मदद की. अपने अंग्रेज़ मालिकों की चुंगल से  निकल भागने के अपने व्यक्तिगत प्रयासों के चलते ही विद्रोह की सामूहिक कार्रवाई में पुरुषों के प्रतिरोध से अधिक गुलाम स्त्रियों ने प्रतिरोध की चिंगारी जलाये रखी.

विद्रोह की इस सुगबुगाहट के कारण  सामाजिक और राजनीतिक हलकों में भी अफ़्रीकी-अमेरिकी गुलामी की समाप्ति को लेकर चर्चा होने लगी. अमेरिकी इतिहासकार,  इरा बर्लिन अपनी किताब ‘मेनी थाउसेंड गोन’ में लिखती हैं, “ अमेरिका के राजनैतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की ओर अग्रसर होने के साथ ही गुलामी और नस्ल के अर्थ को लेकर फिर से बहस तेज़ होने लगी और उसे पुन: परिभाषित किया गया”.
एक समय में इस तरह की  चर्चा का माहौल इसलिए भी बन सका क्योंकि उस समय

*शांति-प्रचारक मंडली का सभासद का समाज

प्रबुद्ध आदर्शों के नज़दीक आने लगा था और इन आदर्शों में समानता और नसलवाद की खात्मे की बातें सबसे ऊपर थी. इस तरह अमेरिका में गुलामी ऐसा मुद्दा बन गया जिसमें  समाज में  विभाजन की स्थिति आ गयी और अप्रैल 12, 1861 से लेकर मई 1865 यानी चार साल, तीन हफ्ते और छः दिन चला  अमेरिकी गृहयुद्ध  इसका मुख्य कारण भी बन गया.

*स्प्रिट्युअल्स यानी मुक्ति के उपकरण

अमेरिका की धरती पर गुलाम मजदूर  हालाँकि अलग-अलग जगहों से लाए गए थे, इन सबके
रीति-रिवाज़, धार्मिक-मान्यताएं  और बोली अलग-अलग थीं लेकिन इन सबके पास जीवन जीने के एक ही अलहदा तरीका था जो यूरोपियन लोगों से कहीं अलग था. यह विविधता ही कहीं इन गुलामों को एकसाथ जोड़ती भी थी. गुलाम लोग अपनी विषम परिस्थितियों  के बीच  भी  अपनी
संस्कृति को अपने गले लगाकर  श्रमरत थे और  उनकी यह संस्कृति ही उन्हें प्राणवायु भी देती थी.” इन अश्वेत गुलामों ने अपनी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन संगीतमयी संस्कारों  और कहानियों को बखूबी सौंपा और ये गीत-संगीत, संचार के  सहज सुलभ  माध्यम होने की वजह से अश्वेत गुलामों को एक- दूसरे से जोड़ भी रहे थे. गीत-संगीत के जरिये ही अश्वेत गुलाम अपने  दोस्तों, रिश्तेदारों और
प्रेमियों की तलाश करते. अवसाद और पीड़ा से भरे दिनों में गीत-संगीत ही इनके जख्मों पर मलहम
लगाता. ये गीत आमतौर पर  आध्यात्मिक प्रवृति के होते थे जो  मूल रूप से मौखिक परंपरा  का
निर्वाहन करते थे, जो  गुलामी की कठिनाइयों का वर्णन करने के साथ-साथ उन्हें अपने धार्मिक
संस्कारों से भी जोड़े रखते थे”.1
जब अश्वेत गुलाम, आजादी के लिए  भूमिगत रेल मार्ग से गुजरते थे तब उनके होठों पर आध्यात्मिक गीतों के साथ वे गीत भी होते थे जो वे परिश्रम करते समय गाते थे. संयुक्त राज्यों में 19 वीं शताब्दी के मध्य में गुलामों के बच कर निकल भागने के लिए इनमें सांकेतिक शब्दावली भी थी, इन शब्दों में उनका उत्साह व्यक्त होता था, इस तरह कई मायनों में ये गीत अश्वेत गुलामों  के प्रतिरोध का संगीतमयी रूप भी बन गए थे क्योंकि  ये गुलाम  अपनी अफ्रीकी संस्कृति को  अपने साथ रखना चाहते थे और चाहते थे और जीवन की परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने के लिए इन गीतों का इस्तेमाल करते थे.  चूंकि ज्यादातर गुलाम राज्यों में  किसी भी गुलाम के पढ़ने-लिखने पर प्रतिबंध था, इसलिए ये गुलाम, गुप्त संदेशों का इस्तेमाल संवाद करने के लिए किया करते थे.

भूमिगत रेलमार्ग

1800  में अफ्रीकी अमेरिकी गुलाम लोहार, गेब्रियल प्रोसर, वर्जीनिया  की राजधानी रिचमंड  पर  अपने

दक्षिणी अमेरिका के अश्वेत ईसाई गुलामों द्वारा गाए जाने वाले धार्मिक गीत.

गुलाम साथियों के साथ  जुलूस  निकालने  का इरादा किया था, जब उनके इस प्रयास का राज खुला
तब  प्रोसर और  उनके साथियों को इस विद्रोह के लिए फांसी  दे  दी गयी और  वर्जीनिया में गुलामों के लिए क़ानून को सख्त कर दिया गया. भूमिगत रेलमार्ग  अमेरिका के इतिहास में अश्वेत गुलामों द्वारा पलायन  हेतु उत्तरी राज्यों  के  अश्वेत और श्वेत  के समूहों द्वारा  बनाया गया एक संगठित समूह था.  भूमिगत रेलमार्ग  के रूपक का भेद 1840  के आरंभ में  खुला जब उसके बारे में लिखा गया  और  फिर  रेलरोड शब्दावली को बाद में  भूमिगत के  साथ  सम्मिलित किया गया.

भागने वाले गुलाम को यात्री  कहा जाता था,  जहाँ वे शरण पाते थे उसे स्टेशन का नाम दिया जाता और वे लोग जो उन्हें निर्देश देते थे, उन्हें चालक कहा जाता था.  एक मुद्दत तक गुलाम अपनी दारुण परिस्थितियों से लड़ने के लिए संघर्षरत रहे, उन्हें अपनी मुक्ति के लिए बरसों संघर्ष करना पड़ा. गुलामी की बेड़ियों से मुक्ति पाने के लिए उन्हें कई खौफनाक तरीके अपनाने पड़े जिनमें से एक भूमिगत रेल मार्ग से निकल भागना भी एक था.  भूमिगत रेल  मार्ग से अँधेरे में भागना  आसान और सुरक्षित नहीं था, इसके लिए गुलामों को दस-बीस-मील या उससे भी अधिक पैदल चलना पड़ता था. उन्हें
एक जगह रुक कर दूसरे जगह पर पहुँचने के  निर्देश का इंतज़ार करना पड़ता. उनके मालिक उनके
निकल भागने की भनक लगते ही उनकी खोज शुरू कर देते. दिन  के  समय किसी तरह छुपते-छुपाते ये अश्वेत गुलाम खनिज़निकालने के बाद खाली हुई खदानों, गुप्त सुरंगों, ढके हुए माल ढोने वाले वाहनों, फर्श के नीचे बने हुए कमरों, शौचालयों और अलमारी जैसी जगह आसानी से चिन्हित न
की जाने वाली जगहों में  छुपे रहते।
अश्वेत गुलामी के इस इतिहास में हम देखते हैं कि एक स्त्री सिर्फ जन्म देने महिला थी और
माँ कहलाने का सुख उन्हें नसीब नहीं था.2
दक्षिण अमेरिका में जहाँ अश्वेत गुलामों की संख्या अधिक थी, इन भूमिगत या अंडरग्राउंड
रेल रोडपर यात्रा करने में  मदद करना  कानून के खिलाफ था और पकडे जाने पर उन्हें मृत्युदंड देने
का प्रावधान था.  अश्वेत गुलामों द्वारा अंग्रेज मालिकों की चुंगल से भूमिगत रेल से निकल भागने
का  यह सिलसिला  1810  से 1860  तक चला. इस जोखिम भरे रास्ते को अपनाने वाले गुलामों
ने अपने आत्मकथात्मक लेखन के जरिए अपने संघर्षों से संसार भर को वाकिफ करवाया.ऐसे ही एक अश्वेत गुलाम थे  हेनरी "बॉक्स" ब्राउन,  उन्होंने  किसी भी तरह से गुलामी से निकलने  का
संकल्प  लिया और1848 में अपनी पत्नी और बच्चों को  किसी दूसरे राज्य में भेजने के बाद
वे भी निकल भागे.  इसी  तरह  से 1862 को एक अश्वेत दास, रॉबर्ट स्मॉल अपने साथी गुलामों
और अपने परिवार के लोगो के साथ योजनाबद्ध तरीके से  बंदरगाह के माध्यम से फरार हो गए.
उस समय कई अश्वेत हस्तियों ने इन गुलामों की मदद की. ऐसी ही एक अश्वेत लेखिका और गुलाम प्रथा विरोधी हैरियट टूबमान और फ्रांसिस वाटकिंस भी थी जिन्होंने कई अश्वेत  गुलामों
को भूमिगत रेल मार्ग से भागने में  मदद की और बाद में उनके परिवार की देखभाल भी की.
इस कार्य को अंजाम देने के कारण हैरियट टूबमान अमेरिका की सरकार की वांछित सूची में थीं.
उनकी खोज के लिए  40,000  डॉलर के इनाम की घोषणा की गयी थी. इसी तरह कई श्वेत लोगों ने इन अश्वेत गुलामों की मदद की और उनके रहने के लिए घर,  भोजन और कपड़े भी मुहैया करवाए.


गुलामों द्वारा लिखित इतिहास

अमेरिका में  अश्वेत  लोगों द्वारा  लिखे गए स्लेव  नैरेटिव  गुलामी की भयावह दास्तान  के रेशे-रेशे  को
खोलते हैं. कई  अश्वेत गुलामों  की  आत्मकथाओं ने विश्वव्यापी प्रसिद्ध  पायी और इन आत्मकथाओं के जरिए ही आत्मकथा  विधा ने  काफी प्रसिद्धी पायी. ऐसे ही एक अश्वेत गुलाम थे फ्रेडरिक डगलस, जिन्होंने अपनी आत्मकथा ‘नेरेटिव ऑफ़ ए  लाइफ ऑफ़  फ्रेडरिक डगलस में अपने जीवन से जुड़े
कई सनसनी खेज खुलासे किये. इस आत्मकथा में एक जगह वे लिखते हैं,
 “मेरीलैंड के जिस इलाके से मैं भागकर आया हूँ वहां बच्चे से उसकी माँ छीन लीं जाती थी और उसे
किराये पर किसी दूर खेत में काम करने के लिए भेज दिया जाता था. जहाँ तक मुझे याद है मेरी माँ एक
खेत मजदूर थीं. मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने अपनी माँ को दिन की रोशनी में  कभी देखा हो”.
एक और अश्वेत गुलाम, हेरिएट जैकोबस  अपनी आत्मकथा,  'इन्सिडेंट्स इन द लाइफ ऑफ़ ए
स्लेव गर्ल' में एक अश्वेत गुलाम स्त्री के जीवन के दस्तावेज को प्रस्तुत करती हैं जिसने अनगिनत
प्रयासों के बाद अपने और अपने बच्चों के लिए आज़ादी हांसिल की. उनकी आत्मकथा में स्त्री के
संघर्ष और उसके प्रति किये जाने वाले यौन दुर्व्यवहार  की घटनाओं  के अलावा यह भी बताया
 कि उन्हें खेती के साथ अपने बच्चों की देखभाल करनी पड़ती हैं और इस बात को लेकर वे हमेशा
चिंतित रहती हैं कि कभी भी उनके बच्चों को बेचा जा सकता है। 3
आज अमेरिका के इतिहास में जिस तरह गुलामी नत्थी है वहीँ अश्वेत लोगों द्वारा किए संघर्ष की व्यथा-गाथा भी प्रमाणिक तौर पर मौजूद है जो दुनिया भर को यही बताती है कि किसी भी संघर्षशील समुदाय को अधिक समय तक गुलाम नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वे अपनी ताकत और लगन के जरिये जहाँ अपने मालिकों के उन्नत अर्थव्यवस्था मुहैया करवा सकते हैं वहीँ अपने पांवों की बेड़ियों को भी पिंघला सकते हैं.

 संदर्भ:

1.   जॉनसन, जेम्स वेलडन, जॉनसन. जे.रोसमोंड  (2009). द बुक्स ऑफ़ अमेरिकन नीग्रो
  स्पिरीटूयल्स,  पृष्ठ . 13, 17
 2. नैरेटिव ऑफ़ द लाइफ ऑफ़ फ्रेडेरिक डगलस, एन अमेरिकन स्लेव ISBN-10: 1728741904
3. वेनेट्रिया के. पट्टों,  वीमेन इन चेन्स : द लिगेसी ऑफ़ स्लेवरी इन ब्लैक वीमेन’स फिक्शन,    अल्बेनी, न्यूयॉर्क : सूनी प्रेस, 2000, प्रष्ठ . 53-55
०००

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कभी-कभार दो

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/10/24-1825.html?m=1


25 नवंबर, 2018

हूबनाथ की कविताएँ 


हूबनाथ 


चश्मा

उस दिन
गांधीजी ने
अपना चश्मा उतारकर
पनीली आंखें पोछते
कहा था
हिंदू और मुसलमान
मेरी दो आंखें हैं
उसके बाद से
सिर्फ़ चश्मा बचा रहा
और उनकी दोनों आंखें
पता नहीं कहां चली गईं





 अस्पताल

अपना शरीर
पूरे भरोसे से
कुछ लोगों को
 सौंप कर
लेट गए
हाइजेनिक
 सफ़ेद चादर पर
बिना सोचे
कि इसी सफ़ेद चादर से
बचने के लिए ही
दाख़िल हुए थे
अस्पताल में




 बुढ़ापा

अपाहिज सीने पर
पत्थर की सिल
न सांस चल रही
न थम रही
कबीर कहता था
देह ही दंड है
पर किस जुर्म का
बताया नहीं
एक एक कर
देह के साथी
साथ छोड़ कर
खिसक रहे हैं
आंख कान
हाथों पैरों की
शक्ति पिघलकर
बिखर रही है
दर्द अकेले
साथ चल रहा
रोम रोम में
वास कर रहा
रिश्ते नाते
संगी साथी
अंधियारे की
परछाईं बन
कहां खो गए
ईश्वर जाने
देह रहा जब
नहीं काम का
कौन अगोरे
दर्द पराया
सांझ ढल रही
अब जीवन की
रात का आंचल
पत्थर की सिल
पिघल पिघल कर
कायनात में बिखर रही है




 हश्र

यह जो जंगल
पसरा पड़ा है हरसूं
फलों से लदे
गदराए दरख़्त
लहलहाते फूलों के बगीचे
माशूकाओं की तरह
बेतहाशा लिपटीं बेलें
हरियाली की बाढ़
जनी है
उस सूखे दरख़्त ने
जिसके जिस्म से
उसकी छाल भी
साथ छोड़ गई है
चींटियां तक नहीं रेंगती
कोढ़ से गली देंह पर
परिंदे डर के मारे
फटकते तक नहीं
बच के निकलते हैं
मुसाफ़िर मनहूस पेड़ से
ज़मीन तक धीरे धीरे
जड़ों की उंगली
छुड़ा रही हौले हौले
कहीं दूर थोड़ी सी आग
राह तक रही है
हरियाली का हश्र
आग होता है
कभी किसी ने
बताया ही नहीं।





तुम और हम

तुम जनमे
तब देश ग़ुलाम था
हम जनमे
आज़ाद देश में
तुम थे कमज़ोर
पर अपनी कमज़ोरी को
अपनी ताक़त बनाते रहे
हम अपनी ताक़त
बदलते रहे कमज़ोरी में
तुम होते गए निरंतर निर्भय
हम डर की खोल में
कछुए जैसे
तुमने सच को साथी माना
हमने संकुचित स्वार्थ को
तुम जोड़ रहे थे
हम तोड़ रहे हैं
अहिंसा तुम्हारा धर्म
हिंसा हमारी आदत
तुम क्षमा करते रहे
हम नफ़रत
तुम निश्छल थे
हम चंचल हैं
तुमने आंख मूंद कर
विश्वास किया हमारी
अच्छाइयों पर
और हमने सिर्फ़
इस्तेमाल किया
तुम्हारे सिद्धांतों को
तुम कण कण बढ़ते गए
हम तिल तिल घटते रहे
तुम हमें जिलाने के
सार्थक बनाने के
 रास्ते तलाशते रहे
और हम तुम्हें मारने के
जड़ से उखाड़ने की
तरकीबें ढूंढ़ते रहे
तुम ख़ुशबू की तरह
पसरते रहे
सारी क़ायनात में
हम अपनी दुर्गंध में
होते रहे क़ैद
जबकि एक बार
तुमने ही हमें कराया आज़ाद
हमारी कमज़ोरियों से
आज तुम हो गए
डेढ़ सौ वर्ष के
और ज़िंदा हो
हम मर रहे हैं रोज़
तलाश रहे
ज़िंदगी के बहाने
और शर्मिंदा हैं
कि नहीं पहचान पाए तुम्हें
वक़्त रहते
वरना शायद बचा पाते
जीवन अपना भी
और अपनों का भी
अब तो सिर्फ
अफ़सोस रहेगा
कि तुम्हें तस्वीरों में
जड़ने की जगह
मन में जड़ते
पुस्तकों में पढ़ने की बजाय
जन में पढ़ते
तो कितना अच्छा होता
पर अब तो देर हो चुकी है।











 वसीयत

गांधी के मरने के बाद
चश्मा मिला
अंधी जनता को
घड़ी ले गए अंग्रेज़
धोती और सिद्धांत
 जल गए चिता के साथ
गांधीजनों ने पाया
राजघाट
संस्थाओं ने आत्मकथा
और डंडा
नेताओं ने हथियाया
और हांक रहे हैं
देश को
गांधी से पूछे बिना
गांधी को बांट लिया हमने
अपनी अपनी तरह से





 मौत

तुम्हारे लिए
विषय हो सकता है
दर्शन का
अध्यात्म का
मनोवैज्ञानिक रहस्य
सामाजिक संबंधों
भावनात्मक आवेगों
वैद्यकीय असमर्थताओं
धार्मिक असफलताओं
कभी न ख़त्म होनेवाली
बहसों का
पर जिसकी बीमारी के आगे
घुटने टेक चुकी है
मानव प्रज्ञा की
तमाम उपलब्धियाँ
सारी पैथियों ने
डाल दिए हथियार
जो हर डूबते सूरज के साथ
डूबती जा रही
अथाह अंधेरे के
भयावह समंदर में
और टटोलती है
अपने सीने में बची हुई सांसें
मानव इतिहास का
समस्त ज्ञान भंडार
दुनिया भर की खुशियाँ
सुख के साधन
रेत खिसकी मुट्ठी में
चिपचिपाते पसीने की
गलाज़त से ज़्यादा
कुछ नहीं
जिसके साथ
डूब जाएगा सूरज
हमेशा के लिए
मर जाएंगे सारे रिश्ते
इस पृथ्वी का भी
 नहीं रहेगा अर्थ
फिर उसके लिए
तुम्हारे ईश्वर
स्वर्ग नर्क
 आख़िरी सांस के साथ
खो जाएंगे महाशून्य की
रहस्यमय गोद में
वह नहीं मरेगी अकेले
एक पूरी दुनिया मर जाएगी
उसके साथ
और बची रहेगी
एक दूसरी दुनिया
जिसमें हम करेंगे उसकी बात
अपनी सुविधा से
तब तक
जब तक उसे भूल न जाएंगे
पूरी तरह





 इंतज़ार

वह योद्धा नहीं
एक बीमार माज़ूर मुसम्मात है
इसलिए
मौत से लड़ नहीं रही
समर्पण कर दिया है
अब किसी को भी देख
उसकी आंखों में
नहीं आती चमक
ख़्वाहिशों
तमन्नाओं ने
तोड़ दिए हैं दम
नर्स निकाले जाती है ख़ून
डॉक्टर पढ़ते हैं रिपोर्ट
विशेषज्ञ करते हैं बहस
रिश्तेदार देते हैं
खोखली सांत्वना
झूठी दिलासा
अशांत मन वह
न तो सोच पा रही
न समझ पा रही
न कुछ कह पा रही
बस कर रही इंतज़ार
मौत का
जिसका जल्द ही आना
तै तो है
पर कब
न हम जानते हैं
न वह जानती है





 हत्यारे


ऐसे कठिन समय
जब कोई बचा रहा
धन संपत्ति
कोई परिवार
कोई अपनी जान
कोई बचा रहा सरकार
कोई भगवान
कोई मकान
कोई दुकान
कोई बेटा बचा रहा
तो कोई बेटी
कोई पत्नी तो कोई मां
तो कोई बाप
कोई देश बचा रहा
तो कोई किसान
तो कोई झूठी शान
और सबको यकीन है
कि वे बचा लेंगे वह सब
जो बचाने की कर रहे
पुरज़ोर कोशिश
पर वह
जो नदी बचाने
उतरा है नदी की गोद में
वह.जानता है
कि उसके बचाने भर से
नहीं बचेगी नदी
सिर्फ़ उसके चाहने से
नहीं बचेगी नदी
सिर्फ़ उसके डूबने से
नहीं बचेगी नदी
जब सब जुटे हों
नदी को कत्ल करने
तो उस जैसे
मुट्ठी भर दीवाने
कैसे बचा सकते हैं नदी
नदी बचे या ना बचे
वे नदी की धार में उतरकर
उतारना चाहते हैं
एक सच
सभी क़ातिलों के दिल में
कि नहीं बची नदी
तो नहीं बचेगा कोई भी
नहीं बचेगा धरती पर
बचाए रखने जैसा कुछ भी
वे बताना चाहते हैं
बचाना है ख़ुद को
और आने वाली पीढ़ियों को
 तो बचा लो नदी
नदी बची रही
तो बचा रहेगा सब कुछ
वरना
नदी तो बचा ही लेगी ख़ुद को
पर बची हुई नदी देखने
कोई नहीं बचेगा






 मन ना रंगायो

मुग़ल सराय
दीनदयाल उपाध्याय
इलाहाबाद
प्रयागराज
उर्दू बाज़ार
हिंदी बाज़ार
एलफिंस्टन रोड
प्रभादेवी
विक्टोरिया टर्मिनस
छत्रपति शिवाजी महाराज
बंबई
मुंबई
मद्रास
चेन्नै
इंडिया
जंबूद्वीप
दिल्ली
हस्तिनापुर
गणपति
प्रजापति
शंकर
रुद्र
विष्णु
वरुण
सत्यनारायण कथा
अश्वमेध यज्ञ
प्रधानमंत्री
महाराजाधिराज
गृहमंत्री
सेनापति
राष्ट्रव्यापी दौरे
आखेट
राजनीति
 संन्यास
कोट और सूट
कौपीन वस्त्रम्
मेवे मिठाई
ढूंढ़ी
छप्पन भोग
जौ का सत्तू
मिसाइल बम
धनुष बाण
व्यापार
कंदमूल संग्रह
जवानी में
बचपन की लंगोटी
बड़ी तकलीफ होगी
पृथ्वीआगे बढ़ रही
ब्रह्मांड फैल रहा
सृष्टि का कण कण
हो रहा विकसित
पर कुछ सड़े दिमाग
सृजन के विपरीत
बेतहाशा भागे जा रहे
अतीत के अंधेरे खोह में
जिसका कोई छोर नहीं
वे जाएँ
उन्हें हक़ है
अतीत के कीच में लोटने का
पर उसकी दुर्गंध
और गलीज़ छींटें
हमारे दामन तक न पहुंचे
बस
इतनी सी इल्तिज़ा है
आख़िर हम भी
इस महाजनपद की
तुच्छ प्रजा हैं





उधार

उन्होंने
नगर बसाया
रेलें चलाईं
बिजली और ट्रामें दीं
राजस्व व्यवस्था दी
बिरियानी पुलाव
खिचड़ी खिचड़ा
जलेबी बरफ़ी
बालूशाही
पराठे कबाब
क़ीमा दिया
शिक्षा व्यवस्था
जल व्यवस्था
शासन व्यवस्था
और दिया संविधान भी
अप्रत्यक्ष
उन्होंने बनाई संसद
दी चुनाव व्यवस्था
मुग़लों ने बनाईं
शानदार इमारतें
जानदार तहज़ीबें
अंग्रेजों ने
ढंग के कपड़े पहनाए
जो अब
उतरते ही नहीं
तन से मन से
उन्होंने दी
ज़बाने उर्दू
अरबी फ़ारसी अंग्रेजी
पुर्तगाली फ्रेंच डच
अलमारी अचार
संदूक बंदूक
चाक़ू चमचा
अनार अंजीर
गिनने जाओ
तो गिनती भूल जाओ
मानव सभ्यता
लेन देन की एक
प्यारभरी व्यवस्था है
अगर पसंद नहीं
तो चलो
लौटाते हैं सब कुछ
उन परायों का और
चलते हैं
नैमिषारण्य में
लंगोट लगाए
करते हैं गोमेध यज्ञ
रचते हैं
ऋग्वेद
फिर एक बार
बिना एक शब्द समझे




रिटर्न गिफ़्ट

हिंद
फ़ारसी
इंडिया
यूनानी
भारत मेरा देश है
बनारसी साड़ी
मुस्लिम बुनकर
लखनवी चिकन
युसूफ़ मियाँ
बनारसी शहनाई
बिस्मिल्लाह ख़ान
मुरादाबादी लोटे
मंसूर मियाँ
चूड़ियाँ, चूड़िहारिने
हदीसवा की अम्मा
जुलाहा
कबीर
सूफ़ी
जायसी
आशिक़
रसखान
गायक
रफ़ी
मौसिक़ी
नौशाद
शायर
मजरूह
लेखक
नवाब राय
राही मासूम रज़ा
अब्दुल बिस्मिल्लाह
सबको
अलविदा
अब रहेगा एक ही नाम
जय श्रीराम
क्षमा
नाम शब्द फ़ारसी है







डरना चाहिए

बाद में मुझे लगा
कि मुझे डरना चाहिए
एक पत्नी है
जो पढ़ाती है
सरकारी स्कूल में
मैं ख़ुद भी हूं
अदना सा सरकारी मुलाज़िम
एक नन्हा सा बेटा भी है
प्रायमरी स्कूल में पढ़ता है
घर के पास ही मंदिर है
शिवसेना की शाखा है
सुबह जिस बगीचे में
टहलता हूँ
वहाँ शाखा लगती है
आर एस एस की
मोड़ पर मस्जिद भी है
नुक्कड़ पर गिरिजाघर
यूनिवर्सिटी के पहले
गुरुद्वारा भी है
नगरसेवक
मेरी ही बिल्डिंग में
रहता है
ऐसे में
ऊपरवाले
या नीचे के ऊपरवालों से
सीधे सीधे
तू तड़ाक अच्छी नहीं
वे कोई मुझे तो
नुकसान पहुंचाते नहीं
और मेरी कोई निजी
अदावत भी तो नहीं
अब मोदी झूठ बोलते हों
अडानी देश लूटते हों
अंबानी की बीवी
लाख रुपये के कप में
चाय पीती हो
ट्रंप का कमोड
सोने का हो
मेरा पेट क्यों दुखना चाहिए
 निहायत मामूली आदमी को
मामूली मामलों में भी
बिना पूछे
दखल नहीं देना चाहिए
देश का लोकतंत्र
 अकेले मेरे दम पर तो है नहीं
देश में
अमिताभ बच्चन जी हैं
अमर सिंह जी हैं
मायावती जी हैं
ममता जी हैं
सोनिया जी हैं
अरविंद जी हैं
कितने सारे जी हैं
वे देखेंगे लोकतंत्र
जी में आएगा तब
मुझे फ़िक्र होनी चाहिए
इन्क्रीमेंट की
प्रमोशन की
बेटे के होमवर्क की
दीवाली की छुट्टियों में
घूमने जाने की
मां की बीमारी की
रिटायरमेंट के बाद के
इन्वेस्टमेंट प्लान की
एक्सटेंशन की
पुस्तकें छपवाने
लोकार्पण करवाने
पुरस्कारों के लिए
सेटिंग करने की
या किसी अकादमी
या पीठ पर सवार होने की
तिकड़म लगाने की
इतने सारे
महत्वपूर्ण कामों को
ताक पर रख कर
आग मूत रहे हूँ उन पर
जो बर्फ़ की सिल्लियों में
महफ़ूज़ हैं
जैसे ही अहसास हुआ
हक़ीक़त का
सच कहता हूँ
सबसे पहले मुझे लगा
कि अब मुझे डरना चाहिए
०००

हूबनाथ और कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2018/08/1_23.html?m=1

परख सताइस

पहाड़ घड़ों में छुपी मनुष्य की प्यास है!

गणेश गनी


कुमार कृष्ण

उस वक्त भी गीत गुनगुनाए गए होंगे, उस पल भी कविता बनी होगी, उस क्षण भी संगीत के सात सुर एक साथ गूंज उठे होंगे जब गीत और कविता दोनों थककर बैठ गए होंगे, उस समय खमोशी मुखर हुई होगी जब संगीत भी साधना करने के वास्ते कुछ अधिक ऊंचाई पर झरने के पास लौट गया होगा, ठीक जिस वक़्त पहली बार इस पृथ्वी पर एक नदी दूसरी नदी से आ मिली होगी। दोनों नदियां एक दूसरे का हाथ थामे अपने- अपने सफर के किस्से साझा करती हुई आगे का सफ़र तय करते हुए आगे बढ़ी। उस घड़ी की अनुभूति कैसी रही होगी जब यह नदियां अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचकर पहली बार सागर में समा गई होंगी। पहली बार घटने वाली हर घटना अद्भुत और अनोखी होती है। कवि कुमार कृष्ण अपनी कविताओं में ऐसे किस्सों का अक्सर ज़िक्र करते हैं-

पृथ्वी पर मनुष्य को
जब पहली बार मिले होंगे
रोटी के बीज, कपड़े के फूल
तब उसे कैसा लगा होगा
जब पहली बार मिली होगी उसे आग
तब कैसा लगा होगा!
जब पहली बार बनाया होगा उसने छोटा-सा घर
जब चाहा होगा उसने किसी को पहली बार
स्त्री की कोख से जन्म लिया होगा
किसी बच्चे ने जब पहली बार
तब उसे कैसा लगा होगा!

कवि के जज़्बात पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफ़ल हुए हैं। यह सच है कि पहली बार घटने वाली हर घटना गजब की होती है। चाहे किसी को चाहना हो या चूमना, पहली बार कुछ भी होना चेहरे पर मुस्कान ला देता है लम्बे समय तक। इंसान फिर अकेले में भी हंस सकता है। पहली बार का कुछ भी होना गज़ब की अनुभूति देता है। कुमार कृष्ण की एक और कविता पढ़ते हैं और सोचते हैं कि जब पहली बार गांव खो गया होगा तो क्या हुआ होगा, जब पहली बार किसी की भाषा गुम हुई होगी तो क्या हुआ होगा-

पहली बार बच्चे ने शहर आकर पूछा- ‘गाँव किधर है बापू!’
मैंने सामने उड़ते पक्षी की ओर इशारा किया-
‘वह देखो, पक्षी की चोंच के दाने में
उड़ रहा है गाँव’
बच्चा बड़ा होता गया
बड़े होते गए उसके सवाल
वह भूलता चला गया
गाय और माँ के दूध का अंतर
वह भूल गया-
जूता खोलने और पहनने का फर्क
अट्ठारह साल बीत जाने पर
मैंने एक दिन बच्चे से पूछा-
‘क्या तुम आज भी बोल सकते हो दादी की भाषा?’
बच्चे ने एक दुकान की ओर इशारा किया-
‘पापा उधर देखो
शायद उस सब्जी बेचने वाली औरत के पास बची हो
थोड़ी-बहुत
क्या करेंगे आप उस भाषा का?’
बेटा, वह मेरे हँसने की, रोने की भाषा है
जागने की, सोने की भाषा
मैंने तुम्हारी जेबों में बिजूका के पैरों वाली
जो भाषा भर दी है
वह डराने-धमकाने की चीज है
तुम्हारे सपनों की भाषा नहीं
उधर देखो उधर उस खिड़की की ओर
तुम्हारी माँ ने-
जिसे सौंप दी हैं अपनी दोनों आँखें
उस खिड़की के सरियों पर
झूल रहा है उसका छोटा-सा गाँव
वह हम सब के इन्तजार में पका चुकी है-
अनगिनत सूरज
फिर भी नहीं भूली सरसों का साग खिलाना
ऐसे समय में जब तमाम स्कूल पढ़ा रहे हैं तराजू की वर्णमाला
फिर कौन याद करेगा नीम का पेड़
कौन पूछेगा-‘गाँव किधर है बापू!’

चैहणी दर्रे की तलहटी में भांति भांति रंगों के फूल खिले थे। इनमें सबसे आकर्षक थे पीले और जामुनी रंग के छोटे छोटे मगर एकदम स्वस्थ फूल और हल्की हवा के साथ मदमस्त लहलहाते हुए और भी आकर्षक लग रहे थे। पहाड़ से जो बर्फ़ पिघलकर नीचे आ रही थी, उसने एक जलधारा का रूप ले लिया था और आसपास से छोटी छोटी पतली धाराएं इसमें आकर मिल रही थीं-

दोस्तो!
जैसे एक नदी में होती हैं सैंकड़ों नदियां
वैसे एक पहाड़ में होते हैं असंख्य आग के घर।

तलहटी में हरी घास के बीच से बहते हुए यह जलधारा चनाब तक पहुंचते पहुंचते बड़े आकार में बदल जाती हैं।
वो आज सोचता है काश! तब उसे इस पहाड़ ने उस पार जाने से रोका क्यों नहीं-

मुझे अच्छे लगते हैं पहाड़
इसलिए नहीं कि पहाड़ पर होते हैं सेब
पहाड़ पर होती है बर्फ
या फिर मैं पैदा हुआ पहाड़ पर

पहाड़ पर होते हैं बेशुमार नदियों के घर
पहाड़ पर होती हैं आग की गुफाएँ

सागर का सपना है पहाड़
पहाड़ घड़ों में छुपी मनुष्य की प्यास है।

जो फूल, तितलियां, जलधाराएं और हवा पहाड़ के इधर थीं, वो सब कुछ पहाड़ के उधर नहीं था। वो समझ गया कि पहाड़ ने उसका रास्ता क्यों नहीं रोका। पहाड़ नहीं जानता था कि उसकी पीठ के पीछे कितना कुछ बदल चुका है-

वक्त बहुत कम है-
कविता की जेबों में जल्दी से भर लो
फटे- पुराने रिश्ते
नरगिस के फूलों की खुशबू
चूड़ियों की खनखनाहट
बैलों की घंटियां
चांद तारों की कहानियां
हो सके तो छुपा लो कहीं भी
दादी का, नानी का बटुआ
थोड़ा- सा पानी
थोड़ी- सी आग
थोड़ा- सा छल
थोड़ा- सा राग।

कुमार कृष्ण एक ऐसे कवि हैं, जिनकी कविताएं पहाड़ के इर्दगिर्द नहीं घूमती बल्कि अपने अंदर कई कई पहाड़ लिए पाठक के सामने खड़ी रहती हैं। पाठक पढ़ता है तो फिर कविता की कन्दराओं में से होकर गुज़रता भी है। इस सफ़र में पाठक कई चुनौतियां देखता है और उनका सामना भी करता है। पाठक प्रश्नों से दो चार भी होता है और उनके उत्तर भी तलाश करना सीखता है-

पहाड़ पर रहने वाले कवि में
रहते हैं हर वक्त सैंकड़ों पहाड़
जब जब लहराते हैं दरख़्त हवा में
उसे लगता है आग ने करवट बदली
जब जब उतरती है बर्फ पहाड़ पर
उसे लगता है-
जिंदा है मौसम की गर्माहट
जब कभी फूटता है कोई लोकगीत किसी कंठ से
उसे लगता है-
नहीं गली पूरी तरह रिश्तों की फांक।

कुमार कृष्ण अपनी कविता से उतना ही प्यार करते हैं, जितना एक माँ अपने बच्चे से करती है, जितना एक तितली फूलों से करती है, जितना एक किसान अपने खेत से करता है, जितना बर्फ़ का आदमी आग से करता है-

बर्फ में चलते आदमी को मिल जाए
परात- भर आग
भूख में मिल जाए
कटोरा- भर छाछ
लंबे इंतजार में मिल जाए
आंख- पर चेहरा
सपनों को मिल जाए
झपकी-भर नींद।

कवि का अपनी कविता से प्रेम यदि हद से भी बढ़कर हो तो ऐसी कविताएं बनना सम्भव है क्योंकि कुमार कृष्ण जैसा कवि जानता है, शब्द जीवन की आग हैं और धरती का राग हैं। कवि जानता है, शब्दों में ताकत है, शब्द ज़िन्दा हैं, शब्दों को चिड़ियों की तरह उड़ना आता है-

शब्द जब लिखते हैं रिश्तों की परिभाषाएं
वे लगते हैं डरने अपनी ही परछाई से
शब्द जब गाते हैं जिंदगी की ग़ज़ल
वे भीग जाते हैं सिर से पांव तक
शब्द जब करते हैं प्रार्थना
टूट जाती हैं जाति-धर्म की दीवारें
शब्द जब चले जाते हैं हथेलियों के बीच
मौन हो जाते हैं शब्द
शब्द जीवन की आग हैं राग हैं धरती का
तुम चाहे जितना भी छुपा लो उनको शब्दकोषों के भीतर उनको आता है चिड़ियों की तरह उड़ना
शब्द हंसते हैं, रोते हैं, नाचते हैं, गाते हैं
थकना नहीं जानते शब्द।

लाल बादलों का घर कविता एक अद्भुत प्रेम कविता है जो कवि ने अपनी पत्नी के लिए लिखी है। कुमार कृष्ण जी की यह कविता बेहतरीन कविताओं में से एक है, बल्कि सबसे बेहतरीन प्रेम कविता तो है ही। इस कविता का शिल्प और भाषा गज़ब की है। ऐसी कविता लिखने के लिए मात्र हृदय का होना ही काफ़ी नहीं है बल्कि ह्रदय के उस तल तक पहुँचना महत्वपूर्ण है, जहां ऐसी अनूभूति जगती है। इस कविता में वह सब कुछ है जो एक पाठक चाहता और समझता है। कवि ने यह कविता रचकर सब बड़े कवियों को बता दिया कि पत्नी के लिए भी कोई इतनी खूबसूरत कविता लिख सकता है-

वह जानती है तकिए के नीचे
चाँद छुपाने की कला
जानती है रिश्तों की रस्सी से
जीवन को बांधना
उसे आता है उम्मीद के छोटे छोटे
खिलौनों से खेलना
लाल बादलों  का घर है उसकी मांग
वह कभी-कभार खोलती है अलमारियों में
बंद किए सपनें
सर्दी की धूप सेकते सपनें
बच्चों की तरह कूदते हैं उसके बुजुर्ग कंधों पर
एक उदास घर के दरवाजे
खुलने लगते हैं उसके अंदर
वह छुपा लेती है अपनी आंखों में
आस्था की, विश्वास की रंग बिरंगी तितलियां
बांध लेती है साल भर के लिए-
रेशमी दुपट्टे में करवा- चौथ का चाँद
वह दौड़ती है सुबह से शाम तक आग के जंगल में
सींचती है रोटी के पेड़
वह आंखों के किसी कोने में
बचा कर रखती है थोड़ा सा पानी दुखी दिनों के लिए
वह सींचती है लगातार तुलसी की जड़ें
बची रहे हरियाली इस धरती पर।
 ०००

गणेश गनी


परख छब्बीस नीचे लिंक पर पढ़िए

चाहा था समुद्र होना !
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/11/blog-post_18.html?m=1

22 नवंबर, 2018

चंद्रेश्वर की कविताएँ 


चंद्रेश्वर


चिरईं का दाना

(भोजपुरी अंचल की एक बहुश्रुत
और प्रसिद्ध लोककथा से प्रेरित
मेरी कविता )

चिरईं ने बहुत ही मशक्कत और मेहनत के बाद पाया था
दाल का एक दाना

वह दाना भी जा गिरा था
दुर्भाग्य से
एक खूँटे की दरार में

उसने दाना को दुबारा पाने के लिए
की पहले ख़ूब आरजू -मिन्नत
खूँटे से ही
पर जैसा कि ऐसे में
अक्सर होता है
वह खूँटा भी
बेईमान निकला

चिरईं  पाने के लिए इंसाफ़
बढ़ी आगे और एक बढ़ई से कहा कि
खूँटे को दंडित करो
ताकि मिले मेरी मेहनत का दाना
जो अपने धारदार वसूले से
काट रहा था
गुट्ठल -गिरहदार लकड़ी

बढ़ई भी गया मुकर

फिर क्या था चिरईं ने
बिना देर किए
राजा के दरबार में लगाई गुहार
राजा ने भी बढ़ई को
बक़्श दिया
उसे दंडित करने की बात तो
बहुत दूर की बात थी

चिरईं राजा की फ़रियाद लेकर
रानी के पास गई
रानी भी चुप रहीं
राजा के नाम पर

चिरईं बहुत आक्रोश में थी
वह पहुँच गई फन काढ़े
गेहुँअन साँप के पास
कहा कि रानी ने इंसाफ़ नहीं किया
पूरा सुनाया पिछला क़िस्सा
कहा उससे कि रानी को डँसो
ताक़ि खुले राजा की
आँखों की पट्टी
मिले मेरा इंसाफ़
साँप भी सच में दोमुँहा ही
हुआ साबित
अनसुनी कर दी
चिरईं की बात

चिरईं अब पहुँची डंडे के पास
कहा उससे पिछला हाल
डंडे को कहा कि
मेरे साथ आओ
इंसाफ़ पाने की मुहिम में
हो जाओ शामिल
चलकर पीटो
फन काढ़े गेहुँअन साँप को

डंडा भी डरा हुआ था
बेबस था
था लाचार
किसी ताक़तवर या दबंग के  इशारे पर ही
चलता था
करता था किसी पर
वार पर वार

इतने के बाद भी चिरईं
न रुकी
न  विचलित हुई
न तनिक निराश
इंसाफ़ पाने की उसकी इच्छा
होती गयी बलवती

वह आगे
आग के पास गयी
और पूरा वृतांत सुनाकर
डंडे को भस्मीभूत कराना चाहा
पर आग में शेष नहीं बची थी
आग

आग के ख़िलाफ
चिरईं गयी समुद्र के पास
समुद्र चुप रहा
दिखा तटस्थ
चिरईं के पास राजा राम की तरह
तीर-धनुष नहीं था
कि वह डरता

चिरईं ने बिना विश्राम के
जारी रखा
अपना सफ़र इंसाफ़ का

वह  विशालकाय श्यामवर्ण हाथी के पास
जाकर बोली
कि  चलो सोख लो
बेईमान और जड़बुद्धि समुद्र को
जैसा कि चलन था
उस दौर में
किसी बेबस...
ग़रीब के लिए पाना इंसाफ़
था बेहद मुश्किल

हाथी भी भाग खड़ा हुआ ... तो
चिरईं गयी महाजाल के पास
महाजाल भी पड़ा रहा
निश्चेष्ट ...

अंत में थक -हारकर चिरईं गयी
एक निबल चूहे के पास
चूहा सहर्ष तैयार हो गया
बिना वक़्त गँवाये
कहा चलकर काटेंगे
महाजाल को
गुदरी -गुदरी बना डालेंगे
कमबख़्त को...
उसकी बता देंगे
औकात

फिर तो चूहे से डरकर
महाजाल ने कहा कि
छानेंगे विशालकाय श्यामवर्ण हाथी को
हाथी तैयार हुआ जब डरकर जाल से
सोखने को समुद्र
तो समुद्र ने कहा भयभीत होकर  कि
चलो चिरईं चलकर बुझाते हैं
दुष्ट आग को
आग तैयार हुआ डरकर
जब डंडे को जलाने के लिए
तो डंडा  तत्पर होकर निकल पड़ा
पीटने के लिए
गेहुँअन साँप को
गेहुँअन साँप ने डरकर पहले तो
प्रणाम किया
डंडे को
और निकल पड़ा राजमहल में
रनिवास की तरफ़
रानी को डँसने

रानी ने पहले तो चीखकर
साँप को
ठहरने के लिए कहा
और चिरईं को दिलाने इंसाफ़
पहुँची राजदरबार में

राजा  ने कहा कि जब बात
इतनी संगीन है और
रानी को अचानक आना पड़ा
दरबार में तो वे ज़रूर बढ़ई को कहेंगे कि
जाकर अपने धारदार वसूले से
फाड़ दो खूँटा बाँस का
जिसमें फँसा है
चिरईं की मेहनत का दाना
दाल का

बढ़ई को देखते ही
भय से खूँटा तैयार हो गया
ख़ुद से फटने के लिए ...

इस तरह चिरईं ने पाया
अपना दाना मेहनत का
पाया इंसाफ़ ...
और फुर्र होकर निकल पड़ी
अपने घोंसले की तरफ़
जहाँ उसके चूजे
दाने के इंतज़ार में थे
भूख से होकर व्याकुल  !
 





लोकगीत से रिश्ता

इस लोकगीत की
बहुत पुरानी धुन में
अब भी
ऐसा क्या है कि
जिसे गुनगुनाते
या गाते वक़्त
गला  मेरा
भर आता है

टपक पड़ता है
लोर
लोचनों से

इस लोकगीत के
आखिरी चरण
वाक्य
या  शब्द
तक जाते -जाते
भर उठता हूँ मैं
अद्भुत ताज़गी से
दर्द और उदासी में
डूबने के बावज़ूद

इस लोकगीत से
दर्द का
रिश्ता है
गहरा
लोक का

इस रिश्ते ने ही
होने नहीं  दिया
जीने की बेहतर
लालसा को
निःशेष
कराल काल में
बियाबान में भी

इस लोकगीत की धुन को
समझना
उतरना है
गहरे लोक में

दुनिया के महान कवियों ने
लोकगीतों की धुनों को ही
आत्मसात कर  रची
जो कविता
नए रंग और शिल्प में
नई अंतर्वस्तु के साथ
शामिल है उनके
नये राग में भी
अमरता की वहीं
बहुत ...
पुरानी धुन!






रोज़ बनती दुनिया
(कवि आलोकधन्वा पटना के लिए)

प्रतिरोध के तरीके होते हैं
हज़ार -हज़ार

एक नौनिहाल रो-रोकर
पटक-पटककर
अपना हाथ -पाँव
पालने या बिस्तर पर
करता है दर्ज़
विरोध

एक असहाय औरत
विलाप के साथ-साथ
पीट -पीटकर
अपनी ही कोमल छाती
अपने गुस्से का करती है इज़हार...
बद्दुआएँ देती है ...
सरापती है...

एक अपाहिज
बुदबुदाहट में गालियाँ
करता है शामिल
गोया प्रार्थना कर रहा हो

कोई कविता-कहानी लिखकर
नाटक खेलकर
कोई लाठी चलाकर
तो कोई बंदूक उठाकर
करता है प्रतिकार

ऐसे भी होते हैं कुछ लोग
जो बैठ जाते हैं
अनशन पर
जैसे ईरोम शर्मिला
जैसे महात्मा गाँधी
जैसे वो दुबली-पतली
पगली -सी दिखने वाली
लड़की
जिसे पुलिस ले गयी उठाकर ज़बरन
हॉस्पीटल
यूनिवर्सिटी कैंपस से

कुछ और हैं जो
निकालते ही रहते  हैं
जुलूस
नारे लगाते हैं
हाथों में तख़्तियाँ लिए
कभी-कभी मशाल लिए
तो कभी-कभी
चुप रहकर भी

कभी-कभी होते हैं
धरने-प्रदर्शन
महापुरुषों की मूर्तियों के निकट
चौक-चौराहों पर

कभी-कभी तो
विरोध दर्ज़ करने की
इस  लंबी प्रक्रिया में
ऊब और अवसाद  के चलते
किसान कर लेते हैं
आत्महत्याएँ

बेरोज़गारी के दंश से पीड़ित
नौजवान कर लेते हैं
आत्मदाह

मेरे गाँव के एक दबंग के सामने
'आक् थू' कहकर
किया था प्रकट
अपना विरोध एकबार
एक कमज़ोर हैसियत वाले
इन्सान
कलकतिया दुसाध ने

किसी दबंग क्या
एक से बढ़कर एक
आततायी शासक का
उड़ाती है पब्लिक
मखौल
नकल या मिमिक्री कर

कई बार तो कुछ रंग
बन जाते हैं
प्रतिरोध की
सशक्त अभिव्यक्ति

अब इस
काला रंग को ही लीजिए
इनदिनों इससे
डरने लगी है
पुलिस -मिलिट्री के दम पर
चलने वाली
सरकारें  भी

दुनिया के किसी कोने में
कोई ऐसा हिंसक
या क्रूर शासक नहीं
जिस पर न हँसा जा सके
लतीफे और चुटकुले गढ़कर
या सुनाकर

इस 'रोज़ बनती दुनिया' की
रीति ही निराली है |




शायद ही दूसरा

अभी -अभी तो सीखा
ककहरा

अभी-अभी तो रटा
पहाड़ा

अभी-अभी तो जाना
शब्दों को लिखना
सही वर्तनी के साथ

उच्चारना उन्हें
सही -सही

अभी-अभी तो
पढ़कर कविता
बेचैन हुआ कुछ

अभी-अभी तो
देखा खिलना
सुर्ख़ गुड़हल का

अभी-अभी तो
निकला
तलाश में
गूलर के फूल के

अभी-अभी तो
दिखी
मुस्कान मुझे
एक मासूम बच्चे के
चेहरे पर

अभी-अभी तो पहचाना
बैनीआहपीनाला
के सात रंगों को

अभी-अभी तो
समझ पाया मैं
आपकी दुरभिसंधि

अभी-अभी तो
जान पाया मैं
उड़ते पहाड़ी तोते की
ज़ुबान

अभी-अभी तो
सुनायी पड़ा मुझे
अपने पड़ोस में
हाहाकार

अभी-अभी तो
दिमाग़ की नस
खुली
और पढ़ने लगा
बेबस चेहरों की लकीरें
...और इतने में ही
गुज़र गयी उम्र
आधी से भी ज़्यादा

शायद ही कोई इतना
ढीला -ढाला
सुस्त आदमी हो
दुनिया के किसी कोने में

शायद ही कोई दूसरा मिले
इतना अनाड़ी
कि ग़ाफ़िल
हर तरह से!




सुख छुपा रहता है ग़ाफ़िल की ज़िन्दगी में

जैसे पके सखुवा के
ज़मीन में पड़े
या गड़े
बोटे पर
नहीं होता असर
बरसात के पानी का

जैसे संगमरमर पर से
छलक -छलक जाता है
पानी
एकदम वैसा ही
होता जाता है
अधेड़ आदमी

ख़ुशियाँ नहीं टिकतीं
देर तलक
उसके पास

घंटे-आध घंटे भी

क़ामयाबी-दर क़ामयाबी के
बाद भी
दिखता है
उदास वह

दिखावटी गठरी
लादे
दुःख की
पीठ या कंधे पर

उम्रदराज़ होने के
साथ-साथ ही
वह चुराने लगता है
समय को
कुछ ज़यादा ही
अपने लिए

बेहद ख़ुदगर्ज़ बनकर

जबकि बचपन से जवानी तक
कितना ग़ाफ़िल रहा होता है
समय के साथ
वह

बचपन और जवानी का
गहरा नाता है
ग़ाफ़िल होने से

सच पूछिए तो
हक़ीकत है यही कि
सुख छुपा होता है
किसी ग़ाफ़िल की
ज़िन्दगी के
कोने -अंतरे में ही

ज़िम्मेदारी की गाड़ी
या हल में जुते
बैलों के लिए
नहीं होती वहाँ
कोई जगह !





फोटोग्राफ़र चंदू सिंह

सबकुछ था पहले की तरह
इसबार भी

धूप थी खिली-खिली
गुनगुनी

कॉफ़ी की गरमागरम
चुस्कियाँ थीं
नमकीन काजू के साथ

नाच -गाना था
हँसी -ठहाके थे
मौज़- मस्ती थी

फूल-माले थे
बुके थे
ऊनी कोट थे
स्वेटर थे
शर्ट थे
मफलर थे रंग-बिरंगे

अंदर इनर थे
बाहर गनर थे
साथ में

डिनर था
सबसे अंत में
कुछ पहले
मध्य रात्रि के

चाँद था चौदहवीं का
आसमान में बेताब
बनने को पूरा
गोल एकदम
मैदे की
काग़जी रोटी की तरह

दारू की थीं कई क़िस्में
मचलती बोतलों में

सबकुछ था
पहले की तरह

विगत वर्षों की तरह ही
नगर महोत्सव में
बस, नहीं था तो वो अपना
प्यारा फोटोग्राफ़र चंदू सिंह
जो हाल ही में गुज़र गया था
अचानक हृदयाघात से

जिसकी तस्वीरें टँगी रहती हैं
राजमहल की ऊँची दीवारों वाले
शयनकक्षों से लेकर
बनिए की दुकानों और
कई स्कूलों-कॉलेजों तक के
प्रधानाचार्यों
प्राचार्यों के कक्षों में भी

फिर भी मेरी निगाहें
तलाश रही थीं
अपने उस प्यारे फोटोग्राफ़र को
जिसके गुज़रने की कमी
खल रही थी
सिर्फ़ उसके परिवार को
जिसके जाने के बाद
नगर में नहीं हुई थी
कोई शोकसभा उसकी स्मृति में

काश! वह दिख जाता कहीं
एकबार फिर  !







डुमराँव नज़र आयेगा मुग़ल सराय से

किशोरावस्था में सुना था
पहली बार
मुग़ल सराय  का नाम
एक मुशायरे में
जब भोजपुरी-हिंदी के हास्य रस के
कवि बिसनाथ प्रसाद 'शैदा' ने सुनायी थी
अपनी एक कविता कि
"शैदा नज़र की रौशनी
बढ़ती है चाय से
डुमराँव नज़र आयेगा
मुगलसराय से"

अब जब सरकार
बदलने जा रही है
इस नाम को
तो एक इतिहास -संस्कृति  का
बहुरंगी अध्याय
दफ़न होने जा रहा है

यह एक कवि के द्वारा बरता गया
चाय और मुग़ल सराय के
तुक का मामला ही नहीं
यह महज़ एक शब्द की
सुनियोजित हत्या भर नहीं
एक संस्कृति की हत्या भी है
यह स्मृतियों पर गिराना है
कोलतार पिघला हुआ

अब हत्यारे सिर्फ़
किसी निर्दोष इंसान  की
हत्या ही नहीं करायेंगे
भीड़ से
उन्माद पैदाकर
वे शब्दों को भी मारकर
दफ़नाने के पहले
उन पर कानूनी चादर का
ओढ़ा देंगे
सफ़ेद कफन

यह एक ऐसी शताब्दी है
भीषण रक्तपात  की
जहाँ इंसान से भी ज़्यादा
लहूलुहान  हो रहे
शब्द
मारी जा रहीं भाषाएँ
जिसे हासिल करने में
गुजर जाती हैं
शताब्दियाँ !



बात में बात

किसी एक बात में
छुपी होती हैं
कई-कई बातें

बातों से निकलती जाती हैं
बातें ...
और ... और बातें

कुछ लोगों के स्वभाव में
होता है गढ़ना
बातें

वैसे कहा तो ये जाता है कि
बात गढ़ने से
बढ़ता जाता  है
रूखड़ापन
जबकि लकड़ी
होती जाती है
चिक्कन

बात का बतंगड़ होते
सुना है

सुना है
बतरस के बारे में भी
जिसके लालच में
राधा धरती रहती थीं
कान्हा की मुरली
लुकाकर

सच ये भी है कि
बात जब बँटी जाती है
तो वह हो जाती है
भूतजेवर का बँटना
अगर इसे जानना है है
तो सुनिए
दो सगे शादीशुदा
भाइयों की बात
आपस की

दो पड़ोसियों या
दो पड़ोसी मुल्कों की
बात द्विपक्षीय

अगर हो उपस्थित
तीसरा पक्ष भी तो
तय माना जाता है
लंबा होना
इस भूतजेवर का

बातूनी होना तो
रहा है सदैव
होना एक क़ामयाब कलाकार
गर बातूनी का सितारा
हो बुलंद
तो कहीं भी होता है
पहुँच बनाना
आसान
उसके लिए

वैसे बात या बोली को
माना जाता है
गोली भी
बोली की गोली
करती है जख़्म गहरा

प्यार या लाग -डाँट की भी
होती हैं बातें

कुछ पिछली बातें होती हैं
पुराने चावल या आँवले के
अचार की तरह
जो पथ्य का करती हैं
काम
तो कुछ इतनी कसैली की
बिगाड़ देती हैं
जीवन का ज़ायका

कुछ बातों में होती है
इतनी ताक़त कि
उनके होते रहने से
कट जाती है
कठिन राह भी

बात का बन जाना
सभ्यता के आरम्भ में ही
बन गया होगा
एक मुहावरा

जो भी हो
कभी-कभी
बात कोई
एेसी भी होती है जो
दूर तलक जाती है
ज़ुबान से
निकलने के बाद !





लचीलापन

मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जी, हाँ
मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जितने से ढीला होकर
नाड़ा सरकने लगे
पजामे का

मैं बेहद मुश्किल वक़्त में भी
बनाए रखता हूँ
अपना धीरज
पर उतना भी नहीं
जितना एक गदहा
बनाए रखता है इसे
ताउम्र

मैं हँसता हूँ
पर हँसी मेरी
नहीं होती
सुनियोजित

मैं रो लेता हूँ पर
सायास नहीं

जो सहज ही मिला
वह रहा मुझे
स्वीकार

कुछ भी नहीं
हासिल किया मैंने
असहज होकर

नरम रहा पर
उतना भी नहीं
कि कोई चबा जाता
खीरे-कँकड़ी की तरह

गरम रहा पर
उतना भी नहीं कि
कोई संपर्क में आते ही
जल-भुन कर
बन जाता राख !






सुपारी लाल का बोलना ख़ुद की तारीफ़ में

ये सड़ा आलू... वो सड़ा टमाटर
ये काना बैंगन...वो ढीला चुकंदर
ये थसका कद्दू...वो घाव भकंदर
ये गबदू  बैल... वो कटहा बंदर
जित देखो उत
लफंदर ही लफंदर

किसी की नाक टेढ़ी
किसी की गर्दन मोटी
किसी का पेट बड़ा तो
किसी का मुँह दहीबड़ा

कोई लंगड़ा... लूल्हा कोई
कोई गूँगा... बहरा कोई

मैं ही इसमें एक सुंदर
दिखता मैं ही
मस्त कलंदर

लहराता मानो समंदर

ये चूहा... वो छछूंदर
वक्ता मैं ही
और नेता निडर

बाबा भी कहलाता
मैं ही
ठहरा जो रियल
गॉड मैसेन्जर !
(जैसा कि अपनी तारीफ़ में बोले आज सुपारी लाल)

 







शहर मेरा

कुछ तो नहीं बदला
अंदर से मेरे
इस शहर में

पहले की तरह ही
खुले हैं दफ़्तर
जगह-जगह
जातीय संगठनों और सेनाओं के

अल्ट्रासाउंड के निजी
क्लीनिक भी बेशुमार
करने को कन्या भ्रूण हत्याएँ

सबके नायक हैं
अपने --अपने

बवाल कोई न कोई
रोज़
कभी किसी मकान
या भूमि पर
कब्ज़े  को लेकर

कभी हत्या तो
कभी अपहरण को लेकर

फिर विरोध में सड़क जाम
बाज़ार बंद

फिर --फिर
बम विस्फोट ...
और गोली चलने की ख़बर

इसे
मामूली बात मानकर
सहज रहते हैं
स्थानीय लोग

अख़बारों की सुर्ख़ियों में
रहता आया है
बराबर
ये शहर

इस शहर में
ऐसे बहुत लोग हैं जो
सबकुछ के बाद भी
नहीं छोड़ना चाहते
वह लाठी
जो मिली है पुरखों से
उनको
वे जब तब कर लेते हैं
गर्व
भाँजकर लाठी ही
बिलावज़ह

पहले मिल भी जाते थे
एकाध कबीर
लिए लुकाठी हाथ
बीच बाज़ार में

अब तो गली-गली
राणा और सिकंदर
घाव हुआ भकंदर

जाने कब होगा सुंदर
ज़ज़्बाती शहर ये

सिर्फ़ बाहर से बेडौल होकर
कुछ और ज़्यादा फैल गया  है
ये शहर

हो चला  है गंदा
कुछ और ज़्यादा
ये शहर

आबादी हो गयी है
इसकी
कुछ और  घनी

ज़्यादातर लोग
चीखते हैं अब
सिर्फ़
मनी-मनी-मनी !





गायें

गायें पगुरा रही हैं
बैठी -बैठी

गायें पूँछ हिला रही हैं
खड़ी-खड़ी

गायें गोबर कर रही हैं
गोशाला में से लेकर
सड़क तक पर

गायें चूम-चाट रही हैं
बछड़ों को

गायें रंभा रही हैं
ज़ोर -ज़ोर से

गायें बाल्टी भर दूध देकर
जा रही हैं चरने
कूड़ा के पहाड़ पर

गायें बीमार होती हैं
या होती हैं जब
शिकार
खोरहा रोग का
छोड़ देते  हैं मुआर उनके
मरने  के लिए
बीच सड़क पर

गायें होना बन जाता है
प्रतीक तब
निरीहता का

सरकारी गोशालाएँ भी बन जाती हैं
कब्रगाह अक्सर
गायों के लिए

पर सियासत तो देखिए

वह कितनी
असरदार है
हमारे देश में
इन गायों पर !





मृत्यु का ख़्याल

जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं अपने कई
अधूरे कामों के
बारे में
सोचने लगता हूँ

उस अधूरे संवाद के
बारे में भी
जो ट्रेन पकड़ने की
ज़ल्दबाजी  में
न हो सका था पूरा
प्लेटफॉर्म  पर

कि घर के दरवाजे़ पर
निकलते समय
बाहर

कुछ हड़बड़ी
कुछ दबाव में
तो आ ही जाता हूँ
मृत्यु के ख़्याल से
हो उठता  हूँ
कुछ असहज
समय से पहले

मैं शुरू से ही रहा हूँ
आज़ाद और
आलसी मिज़ाज का

एक कविता लिखने में
तो करता हूँ
जाने  कितनी
माथापच्ची

वक़्त लगाता हूँ
कितना
कि करता हूँ
बर्बाद

एक गड्डी नोट
गिनने में
सौ-सौ की
भूल जाता हूँ
गिनती
कई बार बीच में ही

जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं जगा होने पर भी
मलने लगता हूँ
आँखें अपनी
कोमल-कोमल

सहलाने लगता हूँ
कान अपने

बाँधने कि भींचने लगता हूँ
मुट्ठियाँ अपनी

बिस्तर  छोड़
उठ खड़ा होता  हूँ
खिड़की  के पास

टहलने लगता हूँ
कमरे के बाहर
बरामदे में

अाधी रात में
उतारता हूँ
हलक के नीचे
ठंडे
पानी के दो घूँट

सोने के पहले
दुबारा
मृत्यु का डर
भगाता हूँ
देखकर अनगिनत
तारे आसमान में

कुछ हो लेता हूँ
नम-नम
बटोरता हूँ दम

इस दुनिया  को छोड़कर
जाने का ख़्याल
लगता है कितना
अटपटा
और बेकार

जबकि किसे नहीं पता कि
जाना है ज़रूर
एक न एक  दिन
इस दुनिया को छोड़कर !


   

चंद्रेश्वर

30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म।
कविता-संग्रह  : 'अब भी' (2010), ‘सामने सेमेरे' (2018) प्रकाशित।
'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' (1994), 'इप्टाआन्दोलन: कुछ साक्षात्कार' (1998)) तथा 'बात पर बात और मेरा बलरामपुर' (संस्मरण) प्रकाश्य।
हिंदी की अधिकांश साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का प्रकाशन।        


संपर्क
631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी,कमता,
चिनहट, लखनऊ,उत्तर प्रदेश
पिन कोड - 226028
मोबाइल नम्बर- 07355644658


निर्बंध: बारह




अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पाबंदी बर्दाश्त नहीं !

यादवेन्द्र



अभी प्रसिद्ध कर्नाटक संगीतकार टी एम कृष्णा के मुखर राजनैतिक विचारों से घबरा कर दिल्ली में एयरपोर्ट्स ऑथोरिटी ऑफ इंडिया ने उनका प्रस्तावित कार्यक्रम रद्द कर दिया पर कृष्णा निर्भीकता पूर्वक अपने विचारों को दुहराते रहे।हमने भारत में पहली बार संगीत के माध्यम से एक पॉलिटिकल स्टेटमेंट सुना - कृष्णा को सलाम करते हुए यह प्रासंगिक सामग्री साथियों के लिए प्रस्तुत है। इस्राइल के इस युवा का ऐतिहासिक साहस हमारे लिए प्रेरणा बन सकता है:



यादवेन्द्र




सेवा में,
इस्राइल के प्रधान मंत्री,
इस्राइल के रक्षा मंत्री,

विषय: अनिवार्य सैनिक भर्ती के लिए उपस्थित होने से इनकार

मैं, ओमर ज़हर एल्डिन मोहम्मद साद,गाँव मुघर - गैलीली, जिसे 31.10.2012 को सैनिक भर्ती ऑफ़िस बुलाया गया है जहाँ अनिवार्य सैनिक ड्यूटी के लिए टेस्ट लिया जाना है - ड्रूज समुदाय पर यह कानून लागू कर दिया गया है।इस सिलसिले में मुझे यह कहना है:

मैं  टेस्ट के लिए उपस्थित होने से इनकार करता हूँ क्योंकि ड्रूज समुदाय पर इसको थोपना एकदम अनुचित है।मैं इसलिए भी इनकार करता हूँ क्योंकि मैं अमन का पक्षधर हूँ और किसी भी तरह की हिंसा का विरोधी हूँ - फौजी महकमा मेरे हिसाब से भौतिक और मानसिक हिंसा का प्रतीकात्मक पुलिंदा है। टेस्ट में शामिल होने का नोटिस जब से मिला है मेरा जीवन उथल पुथल हो गया है...मेरी धड़कनें अचानक तेज हो गयी हैं,  न ही किसी काम में मन लगा पा रहा हूँ...दिन रात मुझे डरावने और हिंसक सपने आ रहे हैं।मेरे लिए यह कल्पना भी भयावह है कि मैं फौजी वर्दी पहनूँगा  और अपने फिलिस्तीनी परिजनों का दमन करूँगा ...या अपने अरबी भाइयों के साथ लड़ाई लड़ूँगा। मुझे इस्राइली फ़ौज या किसी अन्य फ़ौज में भर्ती से सख्त एतराज़ है - और इसका कारण मेरा अंतःकरण और अंध राष्ट्रवाद है। असहिष्णुता मुझे एकदम नापसंद है और आज़ादी पर पाबंदी बर्दाश्त नहीं। बच्चों , बुज़ुर्गों और औरतों को कैद करने वालों  से मुझे सख़्त नफ़रत है। मैं एक संगीतकार हूँ ,वॉयलिन बजाता हूँ - दुनिया भर में अनेक शहरों में मैंने प्रोग्राम किये हैं। मेरे संगीतकार दोस्त रामल्ला ,जेरिको ,जेरुसलम ,हेब्रॉन ,नेबल्स ,जेनिन , श्फामर,ऐलब्यून ,रोम ,एथेंस ,अम्मान ,बेरुत , दमिश्क ,ओस्लो जैसे शहरों में फैले हुए हैं और हम आज़ादी ,इंसानियत और अमन के लिए गाते बजाते हैं 


 ओमर ज़हर एल्डिन मोहम्मद साद


...हमारा यदि कोई हथियार है तो सिर्फ़ संगीत है और हमारे हाथ दूसरे किसी हथियार को थामने से मना कर देते हैं।मैं जिस समुदाय का सदस्य हूँ उसके साथ अन्याय किया गया है ,हमपर अन्यायपूर्ण क़ानून थोपा गया है - हम भला फिलिस्तीन ,सीरिया ,जॉर्डन और लेबनान में रहने वाले अपने भाई बंदों से कैसे लड़ सकते हैं ?फिलिस्तीन में रह रहे अपने भाइयों के खिलाफ़ मैं हथियार कैसे उठा सकता हूँ ?मैं चेकपोस्ट पर बन्दूक थाम कर उनकी तलाशी लेने कैसे खड़ा हो सकता हूँ ? रामल्ला से इस शहर जेरुसलम तक आने वाले अपने लोगों को मैं कैसे रोक सकता हूँ ? अन्याय पर आधारित रंगभेदी दीवार की हिफ़ाजत करूँ यह मेरे लिए संभव नहीं होगा - मेरे अपने लोगों को ही जो कैद कर दे उसका जेलर भला मैं क्यों बनूँ  जबकि मुझे मालूम है इसमें सड़ने वाले ज्यादातर कैदी आज़ादी के सिपाही हैं ,अपने हक़ के लिए संघर्ष करने वाले लोग हैं ?

मैं आनंद के लिए ,आज़ादी के  लिए और फिलिस्तीन पर जबरन कब्ज़ा रोक कर अमन बहाली के लिए संगीत रचता हूँ - मेरा सपना है कि फिलिस्तीन एक आज़ाद मुल्क हो जिसकी राजधानी जेरुसलम बने , इस्राइल की जेलों में बंद सभी फिलिस्तीनी मुक्त किये जायें और  एक एक बेघर हुआ शरणार्थी  अपने अपने घर लौट जाए। 

हमारी बिरादरी के अनेक  युवकों ने फ़ौज में अनिवार्य ड्यूटी  की पर बदले में उन्हें मिला क्या ?हमारा भला तो हुआ नहीं ,उलटे हमारे साथ हर मौके पर भेदभाव बरता गया ,हमारे गाँवों में गरीबी फटेहाली का सबसे बड़ा साम्राज्य है ,हमारी जमीनें हड़प ली गयीं ,हमारे इलाकों के विकास के लिए कोई मास्टर प्लान नहीं बनाया गया ,कोई उद्योग नहीं स्थापित किये गए। पूरे इलाके को देखें तो हमारे गाँवों  में युनिवर्सिटी ग्रैजुएट्स की संख्या सबसे कम मिलेगी ,बेरोजगारी का आँकड़ा शिखर छू रहा है। अनिवार्य तौर पर हमारे ऊपर थोप दिया गया यह कानून हमें हमारे अरब संबंधों से दूर कर देता है। स्कूल की पढ़ाई पूरी कर मैं युनिवर्सिटी  दाख़िला लूँगा और डिग्री हासिल करूँगा। मुझे पूरा भरोसा है कि आप मुझे अपने इंसानी सपने को साकार करने मदद करेंगे ,फिर भी मैं अपनी आवाज़ ऊँची कर यह ऐलान करना चाहता हूँ :
मैं ,ओमर ज़हर एल्डिन मोहम्मद साद, आपके युद्धोन्माद के गोला बारूद की आग सुलगाने के लिए ईंधन बिलकुल नहीं बनूँगा और आपकी फ़ौज में शामिल होकर ड्यूटी नहीं बजाऊँगा। 

ओमर साद 

बड़े भाई ओमर से प्रेरणा लेकर उसके संगीतकार छोटे भाई मोस्तफा ने भी अनिवार्य फ़ौजी ड्यूटी करने से इनकार कर दिया - उन्हें ऐसा करने का रास्ता सालों पहले उनके पिता ने दिखाया था जब उन्होंने भी अपनी धार्मिक मान्यताओं और युद्ध विरोध को आधार बना कर फ़ौजी वर्दी पहनने से इनकार कर दिया था। 
०००


निर्बंध ग्यारह को नीचे लिंक पर पढ़िए













टी एम कृष्णा 

)









टी एम  कृष्णा के गीत नीचे लिंक पर सुनिए







18 नवंबर, 2018

ऋतु त्यागी की कविताएं

ऋतु  त्यागी 


और एक दिन हम देखेंगे

और एक दिन हम देखेंगे
कि धरती का रंग उड़ गया है ।
वृक्ष स्याह हो चलें हैं ।
सूरज नहीं भेज रहा हमारी खिड़की पर
धूप के कुछ गुनगुने संदेश
चांद मियादी बुखार में है ।
नदिया डूब गयीं हैं कचरे के समुद्र में
पहाड़ों के सिर काट चुका होगा कोई हत्यारा
लापता हो गयीं हैं दुनिया की सारी किताबें
स्वप्न वृद्ध हो गयें हैं
बच्चे अचानक वयस्क हो गयें हैं।
और एक दिन हम देखेंगे
कि हम अपनी संवेदनाओं को जलाकर
उसका धुआँ उड़ा रहें हैं।



एक पागल तारा

रात में अचानक
आसमान की छत से
कूद पड़ता है एक पागल तारा
झुंड में खड़े बे-बस तारें
अफ़सोस में बुदबुदातें हैं ।
रात में गश्त पर निकला थानेदार चांद
प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज़ करता है
एक पागल की आत्महत्या।




ईश्वर और वह

तमाम प्रार्थनाओं के बाद ईश्वर
अब उसके ठीक सामने थे।
उसके हाथ में
एक बदरंग पोटली थी
जिसमें बटन की तरह टूटा विश्वास
कैंची की तरह कटता समय
कागज के कुछ अनलिखे टुकड़े
जिन्हें लिखने से पहले ही मसल कर
फेंक दिया गया था।
कुछ फटे कपड़ों-सी इच्छाएँ
साथ में एक दबी हुई सिसकी।
वह पोटली को छाती से लगाये
भौचक -सी खड़ी रही
और ईश्वर जा चुके थे।






प्रेम और मैं

जब मैंने पाठ्यक्रम की रेत में धँसकर
अपनी हर कक्षा में
पिछली सीट पर बैठने वाली
तमाम बिगड़ी लड़कियों को कनखियों से
प्रेम की शरारतों में मग्न पाया
तब मैंने भी कनखियों से ही मान लिया उनके बिगड़ेपन को
फिर मैंने भी हर एक अच्छे टीचर की तरह उन्हें जोरदार डाँटा और थोड़ा समझाया
पर एक बार मैंने उनके मन के फफोलों पर रख दिये थे जब अपनी उँगलियों के शिखर
उस समय वो हँसी थी पर मेरी चीख कईं इंच ऊपर उछल गई थी
और मैंने तब मान लिया था
उनके लिए प्रेम बर्फ़ का गोला है
जो उनके मन के फफोलों को राहत की झप्पी दे जाता है
ऐसे ही जब मैंने
अपने घर के काम में हाथ बँटाने वाली से सुना
कि भाग गई अपने यार के साथ नौ बच्चों की माँँ
और सुना कि हर दिन वह पति के जूते चप्पलों के नीचे कुचल देती थी अपना स्वाभिमान
तब मुझे लगा कि उस औरत के लिए प्रेम एक चिंगारी है
जो शायद उसके बुझते स्वाभिमान की लौ को जलाये रख सकती है।
हाँ! ये सच है बिल्कुल सच है
कि प्रेम हर जगह नहीं पनपता पर जब पनपता है
तो निरा ठूँठ कभी नहीं होता
घनी छाया के साथ झुकता चला जाता है
इसलिए मैं अब जब भी कभी सुनती हूँ
शब्द "प्रेम"
तो मौन होकर सिर्फ़ उसको सुनती हूँ ।





ठगों की सभा और उसकी पीठ

ठगों की सभा में
वह कछुए की तरह खड़ी थी
उसकी पीठ पर ठगों ने लाद दिए थे
ठगी के कार-नामे
सभा अपनी इस कार्यवाही के बाद स्थगित हो गई
और वह धीरे-धीरे चलकर
मुख्य मार्ग पर आ गई
उसने थोड़ी देर में देखा
कि सड़क के किनारे खड़े लोग
उसकी कुबड़ी पीठ पर
अपनी फूहड़ हँसी के ढेले फेंकने में मशग़ूल हो गये थे ।






बस की झूमती खिड़की और लड़का

बस की झूमती खिड़की पर सिर टिकाये चुप बैठा है एक लड़का
मेरे ख़ुराफ़ाती अनुमानों की बत्ती उसे देख जल गई है।
उसी संदर्भ के धारावाहिक की पहली कड़ी में
वह रात की आधी नींद को ले आया है बस मेें
उसकी नींद अनुमान से कहीं अधिक भारी है
वह खिड़की के शीशे पर सिर की ठोकर मारकर अपने वजूद की मुनादी कर रही है।
दूसरी कड़ी में वह भविष्य को बाँध रहा है योजनाओं में
योजनाओं की मरम्मत करते हुए वह सिर को हल्का-सा झटका भी देता है
पर सभी योजनाएं एक जाल में फँसी हुईं हैं।
तीसरी कड़ी में उसकी आँखों में आ बैठी है रंगीन सपनों की तितली
लड़का आँखें मूंद लेता है
उसके होंठो पर अब मुस्कुराहट टहल रही है
मेरा अनुमान लपककर लड़के के गालों पर तितली के होंठों के निशान बना देता है।





आज उसने पहली बार जाना कि...

आज उसने पहली बार जाना
कि समय का अंदाज बदल गया है
उसकी थकी हुईं आँखों से टपकते पानी ने अचानक घोषणा कर दी
लंबे अवकाश पर जाने की ।
उसने अपने कंधों पर लटकते दर्द को
एक मीठी सी-झिड़की दी
पर वह जिद्दी बच्चे की तरह लटका रहा।
उसकी त्वचा पर झुर्रियां कविताएं लिखने लगी थी
वह समझ रही थी
कि अब उसके भविष्य निधि खाते में उम्र की पूंजी कम हो रही है।
आज मैंने उसे कांपते हुए हाथों से
समय का पृष्ठ बदलते हुए देखा था।




दृश्य: एक

जमाने की तिरछी नजर ने उसे देखा
उसकी गर्दन पर रखे काले तिल पर सौ सौ लानतें भेजी
उसके बालों की आज़ादी पर इशारों के ख़त लिखे
उसके अंदाज पर चरित्र खंगाला।

दृश्य: दो
उसने अपनी पीठ को सीधा किया
बालों को एक झटके से उस पर फैला दिया।
पीठ पर लिखे जमाने के शब्दों ने
वहीं दम तोड़ दिया।





फ़ुर्सत के लम्हों की रेसिपी

फ़ुर्सत को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर
एक टुकड़ा धूप में आहिस्ता से रख दिया जाए
पर ध्यान रहे
टुकड़े की उजली देह काली न पड़ जाए।
दूसरा टुकड़ा
क़िताबों के पन्नों पर चस्पाँ कर दिया जाए
जहाँ वह कल्पना और विचारों के नमकीन स्वाद की
गलियों में उन्मुक्त विचरता रहे ।
फ़ुर्सत के तीसरे टुकड़े के हिस्से में आवारगी दर्ज़ हो
जहाँ वह दुनियावी अनुभव को
अपने स्मृति ख़ाते में बटोरता जाए।
चौथा टुकड़ा गहरी नींद के सफ़र पर निकल जाए
क्योंकि एक रात ही तो है
जहाँ व्यक्ति वही होता है जो वह हो सकता है
और
पाँचवें व अंतिम टुकड़े में
ख़ुद से मुलाकात का समय मुक़र्रर किया जाए ।
ध्यान रहे
इस मुलाकात में एक आईने को साथ जरूर रखा जाए।
तो लीजिए तैयार है फ़ुर्सत के लम्हों की गर्मागर्म रेसिपी ।







आस्तीन का साँप

बहुत गज़ब हो गया जनाब !
मेरी आस्तीन से साँप निकल आया।
कपड़े जब पहने थे
तो झाड़ लिया था क़ायदे से
पर न जाने कैसे चढ़ा साँप ?
मैंने सीधे-सीधे अपनी आँखों को
क़ुसूरवार ठहराया
आँखें दुख में थी
उनमें से आँसू टूटकर गिरने लगे
उन्हें देखकर
मैं थोड़ा शर्म से घायल हुई।
मैंने आँखों से कहा
"छोड़ो दिल से ना लो"
जो भी हुआ हो
पर साँप काट नहीं पाया मुझे"
मैंने कह तो दिया
पर अब दिल कटघरे में था
मैंने उससे कहा
"क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहोगे" ?
दिल ने उदासी से साँप को देखा
तब से साँप
दिल से ऐसे लिपटा
कि दिल बेईमान
और हम दिल के मरीज़





नाम- डा.ऋतु त्यागी
जन्म-1 फरवरी 
जन्म स्थान-मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
शिक्षा-बी.एस.सी,एम.ए(हिन्दी,इतिहास),नेट(हिन्दी,इतिहास),पी.एच.डी
पुस्तक-कुछ लापता ख़्वाबों की वापसी(कविता संग्रह)
सम्प्रति-पी.जी.टी हिंदी केंद्रीय विद्यालय सिख लाईंस मेरठ
पता-45,ग्रेटर गंगा, गंगानगर, मेरठ
मो.9411904088