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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अप्रैल, 2020

विदेशी भाषा की कविताएँ : भाग - 2

अनुवाद : पंखुरी सिन्हा




मैरिएला कोरडेरो (वेनेज़ुएलन कवयित्री)


अस्मिता की सामूहिक देह 

मैं केवल एक देश में नहीं रहती
एक देह में रहती हूँ
देश से पहले
देह है मेरा निवास स्थान
एक टूटी हुई देह
बेचारगी के साथ जीती
विराट भग्नावशेषों पर
जले हुए दिनों के धुएँ में लेती हुई साँस!

देश में नहीं मेरा वास देह में है
जिसमें अब प्रस्फ़ुटन नहीं
खिलने का सा कोई भाव नहीं
जो कष्ट झेल रही तपिश
और बेचैनी में सुख शांति के
छीन लिए जाने के बाद 
झेल रही है कंपन
और खामोश चीखें
उन स्त्रियों की
जिनका हाल ही में किया गया है
बलात्कार!

देश मेरा घर नहीं
मेरा घर एक देह है 
निर्मित हड्डियों के एक ढ़ांचे का
प्रशिक्षित है जो
चाकुयों की तरह
करने को निर्मम वार
खिलाफ उसके
जो रचता है प्रपंच
प्यार का
सहलाता छूता
उसकी चोटिल, जख्मी त्वचा को
यह देह नहीं पहचानती
वह सब
वह मात्र छली या छिली हुई नहीं
एक बन्द किया जा सकने वाला
घाव है अथवा
एक अचानक घेर लेने वाला
अवसादपूर्ण विध्वंस कारी क्षण 

मैं एक स्त्री देह हूँ
होने से पहले किसी भी देश की नागरिक
एक लहूलुहान देह जो नाचती रही है
सदियों से नर संहारो के साथ
जिसे जबरन गर्भवती बनाया गया
सबसे निकृष्ट मनुष्य के
वीर्य द्वारा और जो
जन्म और मृत्यु के सिवा
कुछ भी नहीं जानती!


मैं वह रूह हूँ
जो अब भी शरीर में है
और अगर यह
जिन्दा होने का अभिशाप है
तो हो, लेकिन मैं एक शरीर हूँ
देश की नागरिकता से पहले
और, स्त्रियोचित सम्मान का
इन्तज़ार करती मेरी देह
केवल मेरी अपनी देह नहीं
एक समूची अस्मिता है
स्त्रियों की इतनी दबा कर
कम कर रखी हुई
कि उसकी दबी घुटी, डरी सहमी
सांसे चौकन्नी हो जाती हैं
मेरी ही मद्धम पदचाप से
और पीड़ित होती हैं
मेरी बुदबुदाहट में छिपी
किसी प्रगति बेहतरी की उम्मीद से
अपने में ही लौट आती हूँ मैं
अपनी ही गोद में जैसे
या सिमट कर बैठ जाती हूँ
किसी छोटी सी दब्बू जगह में
ऊर्जा हीन
थकान और आलस्य के वशीभूत

रुक रुक कर चलती हैं जैसे सांसें जिसकी
थम थम कर बहता है धमनियों में रक्त जिसके
उसी शरीर में जहाँ कभी अपार सौंदर्य का वास था
और जिसे याद करते हुए
मैं धीरे धीरे सोख रही हूँ
उसकी सारी बची हुई गर्माहट
एक बार फिर सिकुड़ जाती है
मेरी काया मुझमें
आशा करती हुई कि चकित करेगी
सुबह हमें इस सबूत के साथ
कि मेरी देह और मैं दोनों कायम हैं
अपनी जगह
जीवित बचे हुए दरिन्दों से भरी
काली रात के बाद भी 
  
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ज्यूरी तालवेत (ऐस्तोनियन् कवि)


सर्कस का घूमता पहिया और गिओकोंडा

सर्कस में घूमने वाले पहिए में
लगे थे घोड़े और हम खुद ही
धक्का देते थे उन्हें
गोल गोल घुमाते हुए
पैविलियन के नीचे से …………….

क्या आप के बचपन के घर की
सड़क का नाम भी
इसी घूमने वाले पहिए से
मिलता जुलता कोई नाम था? ………

या आप के पूरे बचपन का ही
रखा जा सकता है ये नाम?

यह पहिया, जैसा कि आप
आज इसे जानते और पढ़ते हैं
केवल सवारी किए जाने वाले
घोड़ों का नहीं बना था
किस्सों के सजे संवरे राजे राजकुमार
अपनी लड़ाईयों को
पुनर्जीवित करते थे यहां
एक दूसरे पर करते हुए प्रहार
खून सने भाले बरछी से
गियोकोंडा की कुटिल
मुस्कान भरी निगाहों के नीचे
और नीचे उस सूरज की
रौशनी के
जो उसी थकान के साथ
देखता रहा
उनकी लड़ाई
हमें देखने से पहले!

बचपन को छेद कर
आर पार हो जाते थे भाले!

अब आप स्वयं एक भाला धारी हैं
किसी चलायमान पहिए के घोड़े पर आसीन!
एक मोटर अपनी मशीनी ताकत से
घुमाती है इन घोड़ों को और
आदेश देती है आप के हाथों को!
अपने अवतार रूप में आई
गियोकोंडा हँसती है अपनी पागल हंसी!

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