साक्षात्कार:
श्री ओमा शर्मा हिन्दी भाषा में लिखने वाले महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। आपने अनुवाद के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग की कहानियों और आत्मकथा से हिन्दी पाठकों का परिचय करवाया है। आपसे आपके रचना कर्म और अनुवाद कार्य पर सुश्री रचना त्यागी बात कर रही है। रचना त्यागी युवा कवयित्री और अनुवादक है। इधर वे कहानी में भी हाथ आजमा रही है। हम उनसे भविष्य में बेहतरीन रचनाओं की आशा करते हैं। यह साक्षात्कार त्रैमासिक पत्रिका- पल प्रतिपल 82 , से साभार है। आज हम इसकी पहली कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि बिजूका के पाठकों को यह पसंद आएगा।
उस्ताद लेखक एक बार में पकड़ में नहीं आते हैं।
भाग: दो
रचना - आप क्यों लिखते हैं?
रचना - 'दुश्मन मेमना' में आप पाठक को कहानी
के साथ-साथ लिए चलते हैं। पात्र की हर उलझन, हर क्रिया-कलाप में उसे
शामिल रखते हैं। लेकिन जब पाठक कहानी
में इतना लीन हो जाता है, साँस रोककर पिता के चरित्र की उद्विग्नता में
भागीदार हो समस्या की जड़ और समाधान के बिलकुल निकट पहुँच जाता है, आप एक झटके में उसे बेदख़ल कर, एक परदा गिरा देते हैं; पात्रों और पाठक के बीच। यह रहस्य बनाये रखना
पाठक पर अत्याचार नहीं है?
परिचय
श्री ओमा शर्मा हिन्दी भाषा में लिखने वाले महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। आपने अनुवाद के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग की कहानियों और आत्मकथा से हिन्दी पाठकों का परिचय करवाया है। आपसे आपके रचना कर्म और अनुवाद कार्य पर सुश्री रचना त्यागी बात कर रही है। रचना त्यागी युवा कवयित्री और अनुवादक है। इधर वे कहानी में भी हाथ आजमा रही है। हम उनसे भविष्य में बेहतरीन रचनाओं की आशा करते हैं। यह साक्षात्कार त्रैमासिक पत्रिका- पल प्रतिपल 82 , से साभार है। आज हम इसकी पहली कड़ी प्रस्तुत कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि बिजूका के पाठकों को यह पसंद आएगा।
रचना त्यागी |
भाग: दो
रचना - आप क्यों लिखते हैं?
ओमा शर्मा - यह बहुत मुश्किल सवाल है। इसका कोई मुक़म्मल या संतोषप्रद जवाब मैं
नहीं ढूँढ पाता। हाँ, यह है कि कुछ तरह का ऐसा, कोहरे में भीगा सृजनात्मक-सुख जिसका एक सामाजिक
और मनोवैज्ञानिक पक्ष हो, जहाँ लगातार एक ऐसी सक्रिय निगाह हो जो जाहिर
के भीतर को पकड़ और फिल्टर कर सके... अपने में डूबकर-घुसकर दूसरों की थाह लेना और
दूसरों की मार्फत खुद अपनी...जो दूसरे नहीं देख पा रहे हैं या उस तरह से नहीं देख
पा रहे हैं, उन चीज़ों को जज़्ब करने की कोशिश करना ...या जो
चीज़ें भीड़ और शोर-शराबे में दब कर रह गयीं, उनको उजागर करने की एक
मासूम हसरत…। अलबत्ता मुझे मुगालता नहीं है कि मेरे या
किसी के लिखे से कोई (बड़ा) सामाजिक परिवर्तन होता है। मैं निश्चित रूप से
समाज-सुधार के लिए भी नहीं लिखता। कई लोग जो ऐसी इच्छा रखते हों, मुझे उनसे कोई शिक़ायत नहीं है। मेरा लेखन का
बहुत सीमित दायरा है। मुझे लगता है कि कुछ पाठक उन चीज़ों तक जा पाएँ जो मेरी
कहानियों में या उन चीज़ों में, जो मैंने पेश कीं, तो मुझे पर्याप्त संतोष होगा... वे जो उसके साथ
इत्तफ़ाक़ रखें या असहमति भी रखें, लेकिन उद्वेलित हों।
उसी सिलसिले को बनाये रखने के लिए शायद मेरा लेखन— और उससे जुड़ा सृजन का
आत्म-संघर्ष-- चलता रहता है। सामाजिक बदलाव की आकांक्षा बहुत मासूम है। किसी हद तक
हर लेखक पाठक के बौद्धिक और भावनात्मक आनन्द के लिए भी लिखता है।
रचना - कुछ समय से लोकप्रिय साहित्य और गंभीर साहित्य को एक दूसरे के बरअक्स
रखकर देखा जा रहा है। इस बात को लेकर एक खींचातानी सी चल रही है कि कौन किसको
प्रभावित कर रहा है। आपका क्या मानना है इस पर ?
ओमा शर्मा - खींचातानी कोई नयी बात नहीं है, हमेशा से ही रही है।
कुछ लोग, जो थोड़ा कम कलात्मक या उस तरह का कलात्मक नहीं
लिख पाते हैं, वे हमेशा लोकप्रियता का गुणगान करने पाए जाते
हैं। किसी भी समय में, किसी भी दौर में आपको ऐसे लेखक मिलेंगे, जो बहुत सतही लिखते हैं, उनके ख़ूब पाठक होते हैं, जिसे लुगदी साहित्य ना भी कहें तो भी होता सब
वक्त काटू ही है। किताब ख़त्म, बात ख़त्म। यह भी दरकार
नहीं कि कौन लेखक है। हो भी तो कोई फर्क नहीं। कुछ इससे ऊपर के होते हैं, उनके कुछ कम पाठक होते हैं। और कुछ होंगे जो
बहुत उत्कृष्ट लिख रहे होते हैं। इनमें देवीप्रसाद मिश्र, शिवमूर्ति, उदयप्रकाश, संजीव, विजय कुमार, अरुण कमल, पंकज बिष्ट, अशोक वाजपेयी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल जैसे या फिर वे तमाम जो विश्व भर
में पढे-जाने जाते हैं। जिनकी रचनाओं को पाठक ठहरकर, दिल थामकर पढ़ता है...
फुर्सत भरने के लिए नहीं, फुर्सत निकालकर। उनकी रचनाएँ निश्चित रूप से उस
तरह के मनोरंजन के लिए नहीं हैं क्योंकि उनकी रचनाएँ आपको मनोरंजित कम, उद्वेलित अधिक करती हैं। ऐसा भी नहीं कि सिर्फ
गंभीर साहित्य की ही अहमियत है। हर कला की तरह साहित्य का जो आकाश है, उसमें सभी के लिए स्पेस बना होता है…. कोई भाषा को संस्कारित करता है तो कोई विचारों
को, तो कोई पूरे मनोजगत को। आपको लोकप्रिय लिखना है, आप लिखिए। कौन मना कर रहा है? जिसको जैसा लिखना है, वैसा लिखने की छूट है... मीर की अपनी जगह, नजीर की अपनी। इर्विंग वालेस लोकप्रियता के
दायरे में गंभीरता का स्पेस बना लेता है, तो स्टीफन स्वाइग ने
गंभीरता के भीतर लोकप्रियता की हदें हासिल कर लीं! मन्नू भंडारी गम्भीर होते हुए
खूब पढ़ी जाती हैं। वैसे मैं मानता हूँ कि हर गम्भीर लेखक को पाठकीय आधार की हसरत
सताती है। लेखक को पाठक बड़ा संबल देते हैं। वह उन्हीं के दम मीर है। मगर उसके लिए
वह अपनी चुनी कला/अर्थ-वत्ता से बिगाड़ नहीं कर सकता। फिर भी लोकप्रिय साहित्य से
रवानगी के तत्व जब-तब लेते रहने में कोई बुराई नहीं। सत्यजित रे कमर्शियल सिनेमा
भी देखते थे। दूसरा संकट ‘स्थापित’ होने का है। लेकिन वह मामला अलग है।
रचना - लेखन में 'स्थापित होने' जैसा कुछ होता है?
ओमा शर्मा - यह शुरू में होता है। लिखना शुरू करने के पहले के दिनों मैं जब 'हंस' या दूसरी पत्रिकाओं में
किसी लेखक का फ़ोटो देखता था, तो उसे सचमुच देवता
सरीखा मानता था। जब उनमें कभी किसी से मुलाक़ात होती, प्रेमपाल जी के कारण, तो उस फ़ोटो और कहानी के लेखक का मिलान करता कि
क्या फर्क है। लेकिन धीरे-धीरे आप इससे निकल जाते हैं क्योंकि तब आप भी उसमें
शामिल हो चुके होते हैं और पता लगता है कि ऐसा-वैसा कुछ नहीं होता। उस्तादों के
अवदान से सम्मोहित आप अपनी लम्बी उधेड़-बुनों में उलझे होते हैं, कि पता लगता है कि कोई नादान कभी आपको 'स्टार लेखक' की तोहमत थमा जाता है।
सिर्फ इसलिए कि आप प्रमुख पत्रिकाओं में नियमित छप रहे हैं ! गाँव-देहात तक जो बड़ी
पत्रिकाएँ जाती हैं, उनमें लेखक वर्ग के लिए अभी भी (गो पहले से कम)
आदर-सत्कार जैसा कोना बचा है। जो मुख्य पत्रिकाओं में आ जाते हैं, हम उनको ‘स्थापित’ सा मान लेते हैं। या जिनकी किताबें ‘प्रमुख’ प्रकाशकों से छप गयी हैं, उनको। हाँ, किताबों की संख्या से ज़्यादा बड़ा फ़र्क़ पाठक
वर्ग से ही पड़ता है कि कितने लोगों ने आपको पढ़ा है, या पढ़ रहे हैं या कैसे
आपको याद किया जा रहा है। हमारे कितने सारे लेखक हैं जो लगातार लिख रहे हैं। लेकिन
उनको शिक़ायत है, और वाजिब शिक़ायत, कि उनको कोई पूछता नहीं
है। वे ख़ुद अपने से सवाल क्यों नहीं करते कि आप जो लगातार लिख रहे हैं, आपने उस पर पुनर्विचार क्यों नहीं किया? एक बड़ी तादाद है उनकी। कैसे-कैसे नाम वाली
पत्रिकाओं का अपना संसार है उनका। पाँच-सात कहानी/कविता संग्रह हैं उनके, लेकिन अफसोस, कहानी-कविता की किसी
चर्चा में उनका नाम नहीं लिया जाता। मित्रों से कहकर उनकी समीक्षाएँ भी हो जाती
हैं। यूं कई बार महत्वपूर्ण लेखकों के साथ भी ऐसा हो जाता है। लेकिन मुझे लगता है
कि साहित्य का जो अपना कारोबार या बाज़ार है, वह अपनी छँटनी अपने
स्तर पर करता रहता है। आप ईमानदारी से लिखते रहें तो इस रूप से देर-सबेर आप ‘स्थापित’ भी हो जाते हैं, चाहे अपनी बुनावट में यह कामना एक ‘पवित्र पाप’ ही है।
रचना - आपका राजनैतिक रुझान किस ओर है?
ओमा शर्मा - मैं खुद को बिलकुल निष्पक्ष और स्वतंत्र व्यक्ति मानता हूँ। इसके
लिए गुजरात-महाराष्ट्र में एक पद चलता है: अपक्ष, जो ‘निर्दलीय’ के मुक़ाबले मुझे ज्यादा
सार्थक लगता है। किसी भी रूप में किसी भी सत्ता के प्रति मेरा झुकाव न रहा है, न हो सकेगा। मैं सचमुच यकीन करता हूँ कि
लेखक-कलाकार का जगत सत्ताओं से परे और कहीं ज्यादा पवित्र होता है। राजनीति
तात्कालिकता में रमती है जबकि लेखन नैरंतर्य को संबोधित होता है। सत्ता लेखक को
केवल संदिग्ध और संकुचित करती है। किसी भी राजनैतिक सत्ता के प्रति झुकाव होने का
मतलब है कि मैं अपनी आज़ादी को उनके पास गिरवी रख रहा हूँ। मुझे यह मंज़ूर नहीं रहा
है। हमारे यहाँ न जाने कितने लोगों ने ‘प्रतिबद्धता’ का झोला उठाने में जिन्दगी लगा दी। हालांकि जरा
कुरेदकर देखें तो अधिसंख्यों के कारोबारी या इतर हित गोचर हो जाएंगे। मैं लेखक
कैसा भी हूँ लेकिन किसी भी तरह यह नहीं चाहता कि मैं ऐसी किसी, लाख अच्छी विचारधारा के आतंक में रहूँ जहां
अपनी बात कहने की पाबंदी हो, कोई दूसरा जिसकी हदबंदी
करे, वैसी कुछ परोक्ष हवा सी भी हो। या अपनी बात
कहने–रखने के लिए दूसरे का मुंह ताकना पड़े। ठीक है, स्वतंत्रता की अपनी कीमत चुकानी पड़ती है। यूं
मेरा सबके साथ उठना-बैठना रहा है। मानवीय स्तर पर मिलना-जुलना एक बात है, लेकिन वैचारिक स्तर पर और रचनात्मकता के स्तर
पर मुझे अपनी स्वतंत्रता सर्वाधिक प्रिय है। आप मानिए कि स्वतंत्रता पूरे मानवीय
विकास का सबसे बुनियादी हासिल है। इसके सरोकार और सन्दर्भ केवल राजनैतिक नहीं है।
तो, छह अक्षरों के आपके प्रश्न का उत्तर होगा: मैं
जीवंत रूप से स्वतन्त्र हूँ !
रचना - अब कुछ बात आपकी कहानियों पर बात करना चाहूँगी । आपकी कहानी 'घोड़े' महानगरीय संस्कृति के
कई आयाम और परतें खोलती है। ऐसी कहानी लम्बी तैयारी के बाद ही सम्भव है। इसकी रचना
प्रक्रिया के विषय में कुछ बताइये।
ओमा शर्मा - बड़े दिनों से मैं महानगरीय जटिलताओं, उलझनों, विद्रूपों और उसकी
डायनामिक्स का चाहे-अनचाहे गवाह रहा हूँ। लेकिन आप उन्हें सही शिल्प, रूपक या आकार नहीं दे पाते। बेचैन ज़रूर रहते
हैं। लेकिन कभी कुछ ऐसी चीज़ टकरा जाती है। शायद इसी को संयोग कहते हैं। मैं वास्तव में एक ऐसे चरित्र से टकराया जो
आदतन बरसों से रोज तीन बीयर की बोतलें पीता था। अच्छा ख़ासा तोंदियल था। लेकिन आप
उससे दुनिया, ज़माने और अपने समय की बात कीजिये तो एक-एक चीज़
पर नफ़ासत से बात करता। पढ़ा-लिखा था। खाने-पीने का बेहद शौक़ीन। 'घोड़े' में जो सन्दर्भ हैं...
पंजाबी खाना है तो इस रेस्टोरेन्ट जाइये, खीर खानी है तो उसमें… बहुत कुछ उसी से प्रेरित रहे। मैं क्योंकि
खाने-पीने के प्रति तठस्थ सा रहता हूँ, तो मैंने पहले गौर नहीं
किया। मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। इस हिसाब से मुझे वह व्यक्ति बहुत दिलचस्प लगा।
मैंने सोचा कि इसकी कुछ भीतर की परतें अवश्य होनी चाहिए। तो मैंने उसे थोड़ा कुरेदा
और क़िरदार बनाने के लिए थोड़ा अविष्कृत भी किया। फिर मेरे सामने ये
प्रश्न था कि शिल्प क्या हो? इत्तफ़ाक़न मुंबई के मेरे
आवास के नज़दीक़ ही रेसकोर्स था। मैं वहाँ अक्सर टहलने और कभी-कभार दौड़ने जाया करता
था। ऐसे ही उसकी स्थितियों को झूलते मुझे ख़याल आया कि ये घुड़दौड़ महानगरों में ही
क्यों होती है। घुड़दौड़ कब से चल रही है महानगरों में? क्या इसके पीछे कोई पागलपन है या कोई सुचिंतित
विचार है? पैसा, मनोरंजन, महत्त्वाकांक्षा, अकेलापन, टूटन और उन सबसे दो-चार होने के रास्ते...
धीरे-धीरे मैं मिलान करने लगा तो मुझे मेरा काम बनता सा लगा। अलबत्ता अमूमन हर
कहानी की तरह, उसके पीछे की जो व्याकरण है, जो उसकी अंदरूनी दुनिया है, उससे रू-ब-रू होने के लिए खूब मशक्कत करनी पड़ी।
उसके बिना कहानी नहीं लिखी जा सकती थी।
ओमा शर्मा - लाहौल...अत्याचार! 'दुश्मन मेमना' जैसे अन्त वाली बहुत कम कहानियाँ होंगी मेरे
पास। इसे पढ़कर राजेन्द्र जी ने भी फोन पर, उनके खास अंदाज में यही
कहा कि...यार तुमने आखिर में क्या कर डाला? मेरे लिए इसमें अन्त
महत्वपूर्ण नहीं है। अन्यथा मेरी कहानियों को, कहने की हिमाकत के लिए
माफ़ी, आप अन्त को जाने बिना नहीं पढ़ सकते। लेकिन 'दुश्मन मेमना' ऐसी कहानी है जो अपनी
भीतरी सरंचना या जो अंदरूनी कथ्य में ही व्याप्त है। यूं, वह अन्त में एक मर्म की तरफ इशारा भी करती है।
जो मुद्दा उसमें उठाया है और जो उसमें बराबरी से आया है, उसके लिए अन्त इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितनी
उसकी अन्तर्वस्तु है। अन्त को अगर मैं बहुत स्पष्ट कर देता तो उससे कहानी थोड़ी
सपाट, और शायद मुद्दे से फिसल-सी जाती। इसलिए उसे यूं
जरा धुंधला-सा किया। अलबत्ता मैंने उसमें कई सूत्र छोड़े हैं कि
उसका क्या संभावित अन्त रहा है। उस पर हम बात कर सकते हैं। लेकिन यह कहानी, यही दिखाने की कोशिश थी कि तकनीकी ने चाहे बहुत
गहरे तक हमारी युवा पीढ़ी को अगुआ कर लिया हो लेकिन फिर भी, जो मानवीय कारक हैं, वह उनसे ज़्यादा हावी नहीं हो सकती है। तो वे
कौन से मानवीय कारक होंगे? मुझे लगा वे कारक पिता के जीवन से सम्बद्ध रहकर
ही विश्वसनीय हो सकते थे। अंतिम दो पन्नों में मैंने कई सुराग छोड़े हैं। कहानी नई
पीढ़ी का गैजेट्स या तकनीकी से अंधाधुंध लगाव का चिंतास्पद रेखांकन मात्र नहीं है।
मेरे जेहन में मानवीय सूत्रों की जड़ें भी थीं। वह पता नहीं कितना हो पाया। इसलिए
इसका अन्त थोड़ा संदिग्ध-सा करना पड़ा।
रचना - 'एक समय की बात' कहानी में रावल नामक
चरित्र बार-बार मानवीय संवेदनाओं के स्याह पक्ष का शिकार होते हुए भी उसके उजले
पक्ष पर विश्वास करना नहीं छोड़ता। अवसर मिलने पर वह पुनः छले जाने की आशंका को मन
के किसी कोने में दबाकर अपनी मानवीय करुणा को ही तरजीह देता है। यह बहुत अविश्सनीय
स्तर का आदर्शवाद नहीं है ?
ओमा शर्मा - कह सकते हैं। लेकिन मैं सोचता हूँ कि इधर जो चीज़ें घट रही हैं, आपसी यकीन को लेकर जो हाहाकार मचा पड़ा है...
उसमें सिनिसिज़्म या नाउम्मीदी बहुत ज़्यादा है, उम्मीद जताती चीज़ें
बहुत कम हैं। मुझे यह लग रहा था कि कहानी वहाँ पर बनती है जहाँ यह अंधड़, यह धोखा-फ़रेब, जो बहुत ‘माले-मुफ्त’ हो गया है, उसके बीच में कोई ऐसी अप्रत्याशित चीज हो जो एक
विश्वास की डोर से बँधकर निकले। चाहे वह बहुत आदर्शवादी न भी हो। वह कबूतर जैसे ‘निरीहों’ को चुग्गा डालकर ‘मुक्त’ महसूस होने नहीं आया है
जो महानगरों में आपने देखा होगा।; वह एक मुसीबतजदा से
मुक़ाबिल है। तो क्या यह वाकई मुसीबतजदा है? या फरेबी? कैसे पता लगे? वह मदद करता है, लेकिन पहले पूरी तहक़ीक़ात करता है। ऐसा नहीं है
कि वह बुद्धू है। रावल जब उसको पैसे देकर मदद करता है तो सारी रकम अपनी जेब से ही
दे देता है। अपने साथी का सहयोग भी स्वीकार नहीं करता है। लेकिन उस ज़रूरतमंद
व्यक्ति से दरियाफ़्त वह पूरी कर रहा है… कहाँ रहता है, कहाँ से आए हो, थाने का नाम-पता, यह कैसे हुआ… वह अपनी तरह से आज़माइश
कर रहा है ताकि उसके हाथ कुछ ग़लत न हो जाए। जरूरतमन्द छूटे नहीं और धोखा भी न खाना
पड़े। वह उम्मीद के साथ रहने का जोखिम उठाता है, बजाय हवाओं में घुमड़ते अविश्वास के। मान लीजिये
दस लोग आपसे कुछ चिरौरी करते या माँगते हुए टकराते हैं; हो सकता है सभी अपनी मार्मिक कहानी कह रहे हों, आपको मूर्ख बना रहे हों। और वास्तव में ऐसे
कलाकार होने भी खूब लगे हैं। लेकिन, क्या वे ‘सारे’ कलाकार ही होते होंगे? क्या उनमें कोई वास्तविक ज़रूरतमंद संभावित नहीं
हो सकता? बस उसी सच्चे या खोटे को पकड़ने की एक कोशिश थी।
न्याय का पहला सिद्धान्त यही है कि एक भी बेकसूर को सजा नहीं होनी चाहिए, चाहे निन्यानवे कसूरवार बेसजा हो जाएँ!
इतने खुलासे के लिए माफी। कहानी अपना मंतव्य समझाने में सक्षम होनी चाहिए(थी)।
प्रकाशन के बाद किसी कहानी को लेखकीय खुलासे की दरकार क्यों हो?
रचना - टॉलस्टॉय अपनी रचनाओं में किसी न किसी रूप में मौजूद रहते हैं। यही
समानता मुझे आपकी कहानियों में भी दिखी। आपकी सभी कहानियों का कोई न कोई चरित्र
कमोबेश आप ही के इर्द-गिर्द बुना हुआ प्रतीत होता है। क्या कहना चाहेंगे ?
ओमा शर्मा – देखिए, कहानी एक कला विधा है, सत्य-कथा नहीं। उसमें पेबस्त यथार्थ अनगढ़ न
होकर एक प्रक्रिया या प्रिज़्म(लेखकीय निगाह) से गुजरकर ही आया होता है। इसलिए रचना
में निजता के सूत्रों की खोज जोखिम है। लेखक के जीवन से सम्बद्ध जो सन्दर्भ निजता
की प्रतीति देते हैं वे रचना में आने के साथ ही अपने ‘मूल’ से रूपांतरित हो चुके
होते हैं। जीवन का यथार्थ बीहड़ और अनगढ़ होता है जबकि रचना में उसकी प्रतीति एक
निश्चित शक्ल लिए होती है। जीवन का यथार्थ अनायास हो सकता है, कहानी भी किसी अनायास संयोग से जन्म ले सकती है
लेकिन उसमें आया यथार्थ लेखकीय मंतव्य की खातिर और सोचे–समझे ढंग से आया होता है। यथार्थ का यह अर्थपरक कायांतरण ही
शायद लेखकी का हासिल है। ओरहान पामुक ने कहा है कि साहित्य का मतलब ही यही है कि मैं कैसे अपनी चीजों को ऐसा बना दूँ कि
वह दूसरों को अपनी लगे और दूसरों की चीज़ें को ऐसा कि मेरी अपनी लगे। इसलिए रचना
में लेखक के संभावित यथार्थ का सिर्फ कयास लगाया जा सकता है। आपको मेरी ज़्यादातर
कहानियों के प्रथम पुरुष में लिखे जाने के कारण शायद ऐसा लगा हो। लेकिन यह ध्यान
रखिए कि साहित्य में प्रयुक्त ‘मैं’ शैली दरअसल प्रामाणिकता का समादृत शिल्प है। यह
एक तरफ लेखकीय सहूलियत हो सकती है मगर कलागत साहस भी इसमें शामिल है। कलागत ढांचे
में निजी चीजों कि भूमिका इमारत खड़ी करने में इस्तेमाल हुए बांस-शहतीरों जैसी मान
सकते हैं: वे इमारत (रचना) को सपोर्ट (प्रामाणिक) भर करते हैं। फिर लेखकीय सन्दर्भ
छकाते भी हैं क्योंकि वे लेखकीय मनमानी से गुजरकर आए होते हैं; वे रचना को निवेदित होते हैं न कि रचनाकर को।
मसलन, हो सकता है कि तारीखों-जगहों में पिरोए सन्दर्भ
विशुद्ध गल्प हों जबकि अंतरालों में अलसायी पड़ी कोई चीज खरी-सच्ची! मैं सोचता हूँ
कि एक अच्छी रचना की यह भी एक कसौटी हो सकती है कि लेखक ने अपनी निजता को कितना
ट्रान्सग्रेस किया है या, आन पड़ने पर कितना रक्त बह जाने दिया है। अमुक
कहानियों के बरक्स मैं बता भी सकता हूँ लेकिन बात लम्बी हो जाएगी। हाँ, यह दावे से कह सकता हूँ कि मेरी कहानियाँ मेरी
आत्मकथा कतई नहीं हैं।
रचना - आपकी लगभग सभी कहानियाँ गहन मानवीय संवेदनाओं और संबंधों के धरातल पर
खड़ी हैं। इसके अलावा वे ज़रूरी तौर पर रहस्य-रोमांच का पुट लिए हुए आगे बढ़ती हैं।
उनमें राजनैतिक और सामाजिक विमर्शों की प्रतिध्वनि न के बराबर है। इसका कोई ख़ास
कारण?
ओमा शर्मा - मैं मानवीय संवेदनाओं को किसी भी विचारधारा से ज़्यादा मूल्यवान
मानता हूँ। वे मुझे ज़्यादा मूलभूत लगती हैं। विचारधाराएँ मनुष्य के हित के लिए
बनाई गयी हैं इसलिए हमेशा एक ‘स्टेटिक’ रूप में नहीं रह सकतीं। मनुष्य के बरक्स ही आप
उनकी जाँच-परख कर सकने लायक होने चाहिए। कोई भी विचारधारा मनुष्य से बड़ी कभी नहीं
हुई है। जैसा कि पहले कह चुका हूँ, मैं अपने को कभी किसी
राजनैतिक विचारधारा के रूप में नहीं देखता, इसलिए तथाकथित राजनैतिक
मूल्यों के प्रति भी मेरे भीतर बहुत जगह नहीं होती। मैं व्यक्ति को सिर्फ़ व्यक्ति
के तौर पर ही देखने और परखने का कायल हूँ। जहाँ तक बात राजनैतिक विचारधारा को ओढ़े
फिरते लोगों की है, तो राजनीति का कारोबार करने वाले लोग भी मनुष्य
ही होते हैं। अलबत्ता, कहीं ज्यादा घाघ और बेईमान ! गरीबी, विकास, समाजवाद, बराबरी और सेवा की तरह इन कारोबारी शस्त्रों के
बिना उसमें सर्वाइव करना मुमकिन नहीं। क्षेत्र कोई हो, सत्ता की आकांक्षा ही कलुषित करती है, राजनीति में इसका उग्रतम रूप मिलेगा। लेकिन जो
रोज-मर्रा का जीवन... घर-परिवार, आर्थिक, सामाजिक संघर्षों में जुटे-बिंधे हैं,ज्यादा बड़ा सत्य सहते हैं। राजनीतिज्ञ को देखेँ कि कितनी
जल्दी उनके रंग बदल जाते हैं। एक व्यक्ति जब उनके ऊपर आता है तो नीचे तक की सारी
चीज़ें बदल जाती हैं। आप बोलना बंद कर देते हैं, आपका प्रतिरोध मुरझा
जाता है या कम से कम उसकी शक़्ल बदल जाती है। जिन चीज़ों के लिए आप अभी तक जान देने
को आमादा थे, आज उनका पक्ष लेने लगते हैं। तो राजनैतिक
पक्षधरता या राजनीति में होना अपने आप में मुझे एक टुच्ची हरक़त लगती है। उस तरह से
यह बहुत बड़ा सत्य नहीं है। बड़ा सत्य है: जीवन... उसकी संभावनाएं, उसकी कंदराएँ, चोटियाँ, घाटियां, उसका सौष्ठव और ह्रास।
रचना - पक्षधरता की बात नहीं कर रही मैं। उसकी तरफ़ उँगली उठाने की ही बात कर
रही हूँ। और साथ में सामाजिक विमर्शों की भी, जो कि एक लेखक से बहुत
अपेक्षित होता है।
ओमा शर्मा - सामाजिक संघर्ष और वह सब तो शायद चरित्रों के माध्यम से कहानियों
में देखे जा सकते हैं।
रचना - विषमताओं वाले मुद्दे आपकी कहानियों में मुझे काफ़ी कम लगे हैं, जैसे आर्थिक या लैंगिक विषमता।
ओमा शर्मा - यह एक संयोग की बात हो सकती है। आप मुद्दों पर कहानी नहीं लिखते
हैं। मुझे कभी ऐसा नहीं होता कि इस-उस मुद्दे पर कहानी लिखनी है। कहानी कहीं पहले
से आपके निरीक्षणों में शामिल होती है, जो शायद रोज अपना
खाद-पानी बटोरती रहती है। कभी कहीं ‘चिंगारी’ फूटती है, कोई कोण नज़र आता है जिस
पर लगता है लिखा जाना चाहिए, हो सके तो कहानी की
शक़्ल देनी चाहिये। आप यह नहीं सोचते कि चलो, साम्प्रदायिकता पर तो
लिख ली, अब बेरोज़गारी पर लिखा जाये।
रचना - फ़िलवक़्त क्या लिख-पढ़ रहे हैं?
ओमा शर्मा - मेरी बहुत दिली ख़्वाहिश थी कि स्टीफ़न स्वाइग की महत्वपूर्ण
कहानियाँ एक जिल्द में शामिल होकर हिन्दी पाठकों को पढ़ने को मिल सकें। उसी को
अंजाम देने में लगा हूँ। स्टीफ़न स्वाइग की रचनाएँ चूँकि हिन्दी में लगभग अनुपस्थित
हैं और जो अनुवाद उसकी कहानियों के हुए हैं, वे चर्चित कहानियों के
हुए हैं। जो अनुवाद हुए भी हैं, कुछ को छोड़ बहुत स्तरीय
नहीं लगे। जिस तरह की सघनता उनके अँग्रेज़ी अनुवादों में आई है, वह हिन्दी अनुवादों में मुझे अखरती सी लगी।
हरेक अनुवादक वैसे अपनी तरह से स्वतंत्र होता है अनुवाद करने को, लेकिन मुझे लगा जो गहनता और ऊँचाई उन कहानियों
में है, वह हिन्दी अनुवादों में नदारद थी। विदेशी
साहित्य के अनुवाद के बाजार ने लेखकों से बहुत सारी नाइंसाफियाँ करवा दीं। इसके
बावजूद उन कहानियों ने एक ज़रूरत पूरी की क्योंकि कथ्य के स्तर पर वे ऐसी ज़बरदस्त
कहानियाँ थीं कि पाठक उद्वेलित हो जाते है। कुछ कहानियों को बड़े फ़लक़ पर, मैं एक अच्छे संग्रह के रूप में लाना चाहता हूँ
जिसमें उसकी प्रतिनिधि कहानियों के अलावा कहानी-कला का यथा-सम्भव विस्तार आ सके ।
थोड़ा समय लेने वाला काम है लेकिन मेरे दिल का है; ‘वो गुजरा जमाना’ की तरह। अलावा इसके अपनी कहानियों की जुगाड़ में
तो हर कहानीकार लगा ही रहता है। दूसरों को पढ़ने में मेरा ज्यादा मन और समय जाता
है।
रचना - आपकी लेखकीय यात्रा का अनुभव लगभग दो दशक पुराना है। इस दौरान
साहित्यिक परिदृश्य में आप क्या परिवर्तन पाते हैं ?
ओमा शर्मा - बहुत परिवर्तन हुआ है। केवल तकनीकी परिदृश्य ही नहीं बदला, लेखकी का सामाजिक परिदृश्य या कहें हुलिया ही
बदल गया है। वर्ष 1995 में जब ‘हंस’ में मेरी पहली कहानी 'शुभारंभ' छपी थी, उन दिनों चिट्ठियों का अच्छा-ख़ासा अम्बार लग
जाया करता था। मैं शाम को घर लौटता था तो बाज दफा एक गट्ठर-सा हाथ लग जाता था।
पाँच-सात चिट्ठियाँ एक ही दिन में आ जाती थीं। अलग-अलग, दूर-दराज़ इलाकों से, अनजान पाठकों की। एक-एक को खुर्दबीन से पढ़ा
जाता। शालीनता से जवाब लिखे जाते ! ऐसे सुनहरी दिन ! प्रभु जोशी हालांकि बतलाते
हैं कि गई सदी का उनका देखा सातवां-आठवां दशक कहीं ज्यादा सुनहरी था। अब इस तरह की
चीज़ काफ़ूर हो गयी है। आप यह देखिये कि पहले के मुक़ाबले सम्प्रेषण के दायरे कितने
ज़्यादा बढ़ गए हैं। आप चाहें तो किसी को एसएमएस तुरंत कर सकते हैं, किसी को फ़ोन कर सकते हैं जिसके लिए एक-दो मिनट
बात करने के लिए आपको पचास पैसे से ज़्यादा न लगें। वॉट्स-ऐप उपलब्ध है और लगभग हर
आदमी उसमें मुब्तिला भी है।
लेकिन इधर कई कहानियों पर कई बार पूरा सन्नाटा-सा बना रहता है। केवल दो-चार और वो
भी परिचित मित्र ही प्रतिक्रिया देते हैं। प्रियंवद कहते हैं: आप लिखकर मर जाओ, ना लिखकर मर जाओ ! सब बराबर। मतलब यही कि एकदम
अनजान पाठक दुर्लभ हो गए हैं। पाठकों का एक बड़ा समुदाय जो पहले बड़े निश्छल भाव से
आपकी रचनाओं को पढ़ता था, इन दस-पन्द्रह बरसों में उसमें ख़ासकर बहुत कमी
आयी है। कुछ दिनों पहले अलग-अलग पीढ़ियों के बीच स्वस्थ सम्प्रेषण और संवाद की
स्थितियाँ थीं और मिलने-जुलने का उल्लास था। रचनात्मकता के बीच, और गालिबन इसी कारण, सम्मान-भाव बना रहता था। अब चौतरफा बदगुमानी
टपकती है। सब लोग पहले से ही ज्ञानी (जजमेंटल) बने बैठे है। क्या कहें इसे...अब न
रहे वो पीने वाले, रही न अब वो मधुशाला...
रचना - क्या इसका एक कारण सोशल मीडिया हो सकता है? सोशल मीडिया ने हर किसी को लेखक बना दिया है।
पत्रिकाओं की संख्या बढ़ गयी है, जिससे रचनाओं की खपत बढ़
गयी है। फ़िल्टर कौन करे? सभी पाठकों में चयन की इतनी समझ नहीं होती।
ओमा शर्मा - हो सकता है। पाठकों का जो समय पहले पत्रिकाएँ और पुस्तकें पढ़ने के
लिए आबंटित रहता था, अब वह सोशल मीडिया के हवाले हो गया है। आप
पत्रिकाएँ पढ़ने की बजाय अपने फ़ेसबुक स्टेटस और वाट्सएप मैसेज़ अपडेट करने में मशगूल
हो जाते हैं। दिन में एक-दो घण्टे पढ़ने की जो फुर्सत पहले रहती थी, वह स्पेस अब इन चीज़ों ने हड़प लिया है। यह एक
चीज़ हो गयी। एक और बात जो मैं महसूस करता हूँ, वह है राजेन्द्र यादव
का परिदृश्य से जाना। राजेन्द्रजी का जाना हिन्दी साहित्य की एक बड़ी दुर्घटना है।
राजेन्द्र यादव एक ऐसा आंदोलन थे जो साहित्य ही नहीं, पठन-पाठन का माहौल बनाए रखते थे, बड़े उत्प्रेरक की तरह। उन्होंने हिन्दी साहित्य
को इतना खुला मंच प्रदान किया हुआ था...सब सम्मानित लेखक... कोई छोटा–बड़ा नहीं, कोई ‘सर-वर’ नहीं, सबके अपने-अपने नाम। बहस-मुबाहिसे, चर्चाएँ, (कुचर्चाएँ भी तो क्या!)
असहमतियाँ... सब मुसलसल चलते। नई-नई किताबों की बात होती। वे कभी संवाद का रास्ता
बंद नहीं होने देते थे। उनसे आपकी घोर असहमतियाँ हों, गाली-गलौच हो जाये, मार-पीट की नौबत आ जाये, ख़राब से ख़राब कुछ हो जाये… उनके लिए यह सब वैचारिकता का एक हिस्सा था।
इसके चलते उन्होंने थोड़ी बदनामी भी झेली, लांछन भी उठाये। लेकिन
यह बात तो है-- हम तब भी जानते थे, लेकिन अब तो और भी
ज़्यादा-- कि इस तरह का ‘बड़ा’ वह अकेला था जो केवल 'हंस' को ही नहीं, दूसरे तमामों को जोड़े हुए था। अब आप उस सबसे
महरूम हो गए हैं। मैं एक और बात सोचता हूँ: लेखकों की अपनी ज़िम्मेदारी और भूमिका
को लेकर। ‘छंटनी’ वाली बात जो आपने पहले
छेड़ी थी, उससे सम्बद्ध। वह बहुत कम हो रही है। कोई
गैर-हिन्दी भाषी ईमानदारी से आपसे जानना चाहे कि इस समय नए लोगों में हिन्दी में
कौन अच्छी कहानियाँ लिख रहे हैं... दस नाम बताइये। चार-पाँच के बाद आप सोच मेँ पड़
जाएंगे ! मतलब ऐसे नाम जिनका लिखा कोई ऑनलाइन खरीदी से पढ़कर आपको कोसे नहीं। मेरा
मतलब उस पाठकीय भरोसे से है जिसे हमारे लेखक भंग कर चुके हैं। कारण सोशल मीडिया हो
या कुछ और। हम बेहद चुनौतीपूर्ण और दिलचस्प वक्त में जी रहे हैं। लेकिन उसे दर्ज
करने की सलाहियत और फुर्सत कहाँ और कितने कर (पा) रहे हैं? लेखकीय मानसिकता से सरासर बेमेल एक विज्ञापनी
उतावलापन चौतरफा फैशन हो चला है। हमें खबर नहीं होनी चाहिए कि किस डाली पर आरी चला
रहे हैं? हलवाई को देखना होगा की मामला ग्राहक की ‘शुगर’ का है या दूध के कम ‘औटाने’ का, जो ‘कलाकंद’ इतना कम खप रहा है!
रचना - आपकी रचनाओं पर कभी कोई रोचक पाठकीय प्रतिक्रिया आई ?
ओमा शर्मा - रोचक तो बहुत आई हैं। कितने बड़े-बुजुर्गों ने दिल से मुझे मशवरे
और आशीष दिए होंगे ! 'भविष्यदृष्टा' कहानी को कथाकार अखिलेश
ने छपने के डेढ़ साल बाद पढ़ा तो उन्होंने मुझे डेढ़ पृष्ठ का पत्र लिखा... हिन्दी
कहानी के भविष्य पर उदारता से आश्वस्त होते हुए। तब तक संग्रह नहीं आया था। ऐसे ही
कथाकार संजीव ने भी उस कहानी को पढ़कर लिखा था...कोई तीन बरस बाद। ‘दुश्मन मेमना’ ने तो सरहदें ही खोल
दीं... कई महिलाओं ने उसकी स्थितियों से तादात्म्य करते हुए मुझसे अपने हालात
सांझे किए। दूर-दराज़ के न जाने कितने पाठकों (आमीन!) ने वक्त-बेवक्त मुझसे अपनी
भड़ास बांटी। कई युवा पाठकों ने बाद में मुझे बताया कि पत्रिका का अंक नहीं मिला तो
फ़ोटोकॉपी करके कहानी पढ़ी। एक लेखिका ने मुझे बताया कि जिन्दगी में उन्होंने केवल
एक ही लेखक की कहानी (महत्तम-समापवर्त्य) पर पत्र लिखा है: मुझे। ये सब उम्र भर के
कर्जे हैं !
रचना - अन्य लेखकों की कुछ
कहानियाँ, जिन्होंने आपको बहुत प्रभावित किया?
ओमा शर्मा - मैं उसे ‘प्रभावित’ होना शायद न कहूँ। हाँ
जिन्हें पढ़कर अच्छी कहानी का सुख लगा। जैसे मनोज रूपड़ा की कहानियां है-- 'साज़-नासाज़' और 'दफ़्न’
; योगेन्द्र आहूजा की अधिकांश कहानियाँ मुझे पसंद हैं, ‘अंधेरे में हंसी’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘कुश्ती’, ‘पांच मिनट’…। इन दोनों की कहानियों का मुझे इंतज़ार रहता
है। प्रभु जोशी की कहानियाँ बहुत पसंद हैं हालांकि उनका लिखना अरसे से है। लेकिन
उनके पास अच्छी कहानियों की तादाद
दर्जनों में है, ‘पित्र-ऋण’, ‘एक युद्ध धारावाहिक’, ‘कमींगाह’ इस तरह की कहानियाँ
नहीं हैं कि मन हुआ और एक शाम बैठकर लिख दी गईं। वे आपको देर तक जकड़े रखती है।
निम्न-मध्य वर्ग की त्रासदी और कुंठाओं को दो लेखकों ने सबसे ज़्यादा मार्मिकता से
पकड़ा है -- रघुनंदन त्रिवेदी (‘सिफेलोटस’, ‘स्मृतियों में पिता’, ‘ईश्वर तो नहीं’) और प्रभु जोशी ने।
दूसरी ओर योगेन्द्र आहूजा और मनोज रूपड़ा आधुनिक बोध के सक्षम लेखक हैं। उसी तरह से, जैसे शिवमूर्ति ग्रामीण चेतना के हैं...‘भारत-नाट्यम’, ‘तिरिया-चरित्तर’ या अभी की ‘कुच्ची का कानून’। वह उनका पूरा गढ़ है। प्रियंवद का दायरा युवा नैसर्गिकता
लेकर है -- ‘टेरेस पर सेना-नायक’, ‘बूढ़े का उत्सव’
; नीलाक्षी सिंह, संजीव, दूधनाथ सिंह, चंद्रकिशोर जायसवाल और चित्रा मुद्गल की
आधा-आधा दर्जन तो हो ही जाएंगी... ईमानदारी और कुशलता से रची हुईं। मैत्रेयी
पुष्पा की ‘गोमा हँसती है’ और ‘उज़्रदारी’। और भी बहुत हैं। नाम
गिनाई ज्यादा लगेगी।
रचना - कुछ लेखक यह मानते हैं कि केवल देखा या भोगा हुआ ही लिखना चाहिये। यदि
रचनात्मकता में भी कल्पना के लिए जगह नहीं है, तो फिर कहाँ है ? इसमें पुनरावृत्ति के भी ख़तरे हैं !
ओमा शर्मा - देखिए, हर लेखक का अपन नजरिया और एक शिल्प होता है, प्रतिभा होती है। लेकिन हमारी कल्पना कहीं न
कहीं हमारे यथार्थ से ही जुड़ी होती है...उसके विस्तार में या प्रतिकार में। हम कोई
फैंटेसी लेखन की बात नहीं कर रहे हैं। कल्पना की उड़ान का दायरा उसी ज़मीन से उगता
है जहाँ पर आप खड़े होते हैं। आपके सपने भी कहीं न कहीं उसी बिस्तर से जुड़े होंगे
जिस पर आप टांग पसारते हैं... उसके विरोध में या उसके पक्ष में। जैसे कई बार किसी
से असहमति हम उसके मूल्य के प्रति अगाध श्रद्धा के कारण करते हैं। एक मनोवैज्ञानिक नतीजा है कि... गौर से देखो की
कोई व्यक्ति किस चीज से सबसे ज्यादा नफरत करता है...वह उसकी पोशीदा ख़्वाहिश हो सकती है...
जहाँ तक देखे और भोगे हुए को लिखने का सवाल है, अगर आप सब कुछ वही
लिखेंगे तो उसकी एक बहुत निश्चित सीमा हो जाएगी क्योंकि आप कितना देख और भोग सकते
हैं? मार्ख़ेज़ ने कहा है कि आपको यथार्थ का एक टुकड़ा
भर देखना और महसूस करना होता है...उससे पूरा दृश्य दिख जाता है। रोटी का स्वाद
जानने के लिए पूरी रोटी नहीं, एक टुकड़ा ही काफी होता
है। लेकिन टुकड़ा तो खाना होगा ! यह उसी तरह की बात है। कल्पनाशील होने का अर्थ
देखे-जाने यथार्थ का विस्तार ही है, न कि बेसिर-पैर कुछ भी
कर डालना। जो केवल यथार्थ या यथार्थवादी लेखन है, मैं उसे साहित्य के बाहरी दायरे में शुमार करूंगा। 'मनोहर कहानियाँ' और ‘सत्यकथाओं’ से ज्यादा यथार्थ कहाँ
हो सकता है? लेखन, यथार्थ और कल्पना के
संयोग से शायद बेहतर निखरता है। एक
स्वच्छ और निर्बाध कल्पना के सहारे ही यथार्थ को ‘कलाकृति’ की शक्ल मिल पाती है।
रचना - आपकी कहानियों में आर्थिक पक्ष बहुत प्रमुखता से रेखांकित होता है , चाहे वह रोज़ग़ार के नए आयामों के रूप में हो, या 'भविष्यदृष्टा' के पार्श्व के रूप में। अन्य कहानियों में भी
इसकी अनुगूँज सुनाई देती है। अपनी कहानियों के
सन्दर्भ में वर्तमान दौर की आर्थिक उथल-पुथल को आप किस रूप में देखते हैं?
ओमा शर्मा - वैसे तो अपने समय को प्रभावित और संचालित करने वाली शक्तियाँ कभी
इकहरी नहीं हुई हैं। वे न सिर्फ़ राजनैतिक होती हैं, न केवल आर्थिक होती हैं
और न सिर्फ़ सामाजिक। शायद इन सबकी गुत्थम-गुत्था से कुछ बनता है। इन दिनों आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक
तत्वों के अलावा तकनीकी भी हमारे समय को बहुत प्रभावित करने लगी है। लेकिन तकनीकी
का असर अन्ततः तो आर्थिक शक्तियों के स्तर पर ही आता है। एक तरह का ‘मंथन’ (चरनिंग) चल रहा है।
दिनों-दिन नये उद्योग बन रहे हैं, बंद हो रहे हैं। किसी
कारोबार-कारोबारी का कोई पट्टा नहीं रहा है। परचूरनियों तक की हालत पतली है। आप
नहीं संभले तो रातों-रात सड़क पर आ जाएंगे। जिन बड़े उद्योगों में कभी हज़ारों-लाखों
की संख्या में मज़दूर काम करते थे, वे यकायक बंद हो जाते हैं (लेहमान ब्रदर्स)। या वहाँ
कामगरों की जगह बहुत सारा काम मशीनें से करने की बाध्यता हो जाती है। मैं सोचता
हूँ कि हमारे समय को बहुत मूलरूप से जो शक्तियाँ प्रभावित करती हैं, आर्थिक होती हैं। राजनैतिक शक्तियों का आर्थिक
शक्तियों के साथ आपसी गठ-जोड़ रहता है। ऐतिहासिक चीज़ें लोग समझ लेते हैं मगर आर्थिक
चीजों को समझना थोड़ा जटिल है। मुझे इस लिहाज़ से जरा सहूलियत रही क्योंकि मैं
अर्थशास्त्र का विद्यार्थी था। लेकिन यक़ीन मानिये, अभी जो उथल-पुथल हो रही
है, जिस तरह से पूंजी की शक्ल और अनुपात बढ़े हैं, उसने जो गति और औज़ार पकड़े हैं... वह
अर्थशास्त्र के विद्यार्थी के लिए भी एक मुश्किल पेश करती है। मेरी यही कोशिश होती
है कि किसी तरह हाथी न सही, उसकी पूँछ ही पकड़ सकूँ या उसकी गन्ध भर लूँ। उस
घटाटोप को तोड़ूँ जो हमारी कहानियों में अब तक बना रहा है। हमारे अधिकांश
कहानीकारों के चरित्रों के जो व्यवसाय या पेशे हैं, लगभग तयशुदा हैं। हम
कहाँ रहते हैं, क्या काम करते हैं, इससे भी तो हमारी मानसिकता बनती-बिगड़ती है।
लेकिन आप अधिकतर हिन्दी कहानियों के चरित्रों को देखिये… या तो कोई सेल्समैन होगा, मज़दूर होगा, अध्यापक या बैंक में
काम करने वाला। चंद पेशों में पूरा समाज सीमित ! बीते पचास बरसों में जैसे कुछ
हुआ-हवा ही न हो ! जबकि वास्तविक दुनिया में तो ऐसा नहीं है! वहाँ कितनी तो जमीन
आसमान हो चुकी है ! उधर मालिक-पूंजीपति-सेठजी की जमात एक; वे कुछ भी करें, न करें... रहेंगे दुष्ट, शोषक और घृणास्पद कमीने ! सब धान बाइस पंसेरी !
किसी कोयला मज़दूर की मानसिकता, स्थितियाँ-आकांक्षाएँ, मोबाइल फ़ैक्ट्री वाले मज़दूर से अलग हो सकती हैं
या नहीं? तो हमें इसे देखकर चलना होगा। और जब दूसरे पेशे
उसमें घुस जाएँगे, धन्धों का विलय होगा... नये-नये स्टार्ट-अप
आएंगे-जाएंगे... उनकी वास्ताविकताएँ, असुरक्षाएँ, समस्याएँ, प्रबंधन... अलग तरह की
मानसिकता को जन्म देगा या सब पुरानी लकीर पकड़े चलता रहेगा?। तो हमारे चरित्र ऐसी स्थितियों के क्यों नहीं होने चाहिए? उन व्यवसायों को, उन बदलती हुई तकनीकी
स्थितियों को जो हमारे चरित्रों और समय की बुनावट में एक अहम क़िरदार निभाती हैं, उनको क्यों नहीं पकड़ा जाना चाहिये? मानवीय स्तर पर कथा चाहे कहीं इंगित हो। इसी
में मेरा रुझान रहा है। बल्कि मेरी कई कहानियाँ इसी वजह से स्थगित होती जाती हैं
कि उसके होमवर्क में खपना होता है। समयाभाव के चलते कभी वह बेमौत भी मरी है।
उदारहण के तौर पर 'भविष्यदृष्टा' में जिस चरित्र की कहानी है, वह मेरे जेहन में था। लेकिन जिस व्याकरण को
लेकर वह चलता है, मेरा नहीं था ! यानी अगर मेरा चरित्र ज्योतिषी
है, तो क्या मुझे ज्योतिष की बारीकियों से वाकफियत
नहीं होनी चाहिये? लेकिन इन दिनों अर्थव्यवस्था में जो कुछ हो रहा
है, वह मुझे बहुत डरावना लगता है। मुझे अपना अध्ययन
इसके लिए एकदम नाकाफ़ी लगता है। पता नहीं हम उसको कहाँ तक पकड़ पाएँगे, या कैसे पकड़ पाएँगे। मैं सहम जाता हूँ उससे।
ओमा शर्मा |
रचना - यह तो कहानियों और चरित्रों के आर्थिक पक्ष की बात हुई । लेकिन इन
दिनों देश में अर्थव्यवस्था, आर्थिक विकास, आर्थिक वृद्धि आदि को लेकर जो कुछ हो रहा है, उस पर आप क्या कहेंगे ?
ओमा शर्मा - हम एक सुनियोजित अर्थव्यवस्था का हिस्सा रहे हैं। आज़ादी के बाद
हमने विकास का जो नेहरूवियन मॉडल अपनाया-- पंचवर्षीय योजनाओं की मार्फ़त-- सोवियत
रूस में उसकी कामयाबी से प्रेरित था। हम बीसवीं सदी के पहले पचास वर्षों में
बमुश्किल एक प्रतिशत की दर से बढ़ रहे थे; उसके अगले पचास वर्षों
में हम क़रीब साढ़े तीन-चार प्रतिशत की दर से बढ़ने लगे। इस दौरान जो हमारी ज़रूरतें, अपेक्षाएँ और आज़ादी से संबंधित सपने थे, वे भी अपनी तरह से चीख़-पुकार मचा रहे थे। इसी
के चलते सन 1991 में उदारीकरण को थोड़ा
अधिक तीव्रता से अपनाया गया। अगर पिछले पच्चीस-तीस साल की बात करें, तो यह सब उसी उथल-पुथल, उसी उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का नतीजा है।
वह वैश्विक मजबूरी भी थी। ये चीज़ें जितनी अच्छी दिखती हैं, मुझे कहीं-कहीं उसमें बहुत संकोच और बहुत सारा
डर लगता है। यदि प्रति व्यक्ति आय या जीडीपी के हिसाब से देखें, तो बहुत कुछ बहुत अच्छा हुआ है। हम इस समय सबसे
ज़्यादा तेज़ी से बढ़ने वाली प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में हैं। राष्ट्रीय स्तर पर हमारा
ग़रीबी का प्रतिशत सराहनीय रूप से कम हुआ है। लेकिन एक छोटे उदाहरण के तौर पर कहूँ, तो जिस तरह से हमारे यहाँ पूँजी का संकुचन हो
रहा है, असमानताएँ बढ़ रही हैं; वह खौफ पैदा करता जाता है। आर्थिक आंकडों पर एक
नजर डालकर देखें: सन 2000 में ऊपर के एक प्रतिशत
लोगों के पास संपत्ति का करीब छत्तीस प्रतिशत हिस्सा था जो आज, सन 2017 में, बढ़कर तिरेपन प्रतिशत हो गया है। नीचे के पचास
प्रतिशत के पास इस दरम्यान यह सात प्रतिशत से घटकर चार प्रतिशत हो गया है। सकल
राष्ट्रीय आय में एक प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी नीचे के चौंतीस प्रतिशत लोगों से
इक्कीस पड़ती है। हमारे यहाँ खरबपतियों का प्रतिशत अलबत्ता सर्वाधिक है। और आर्थिक
मॉडल में इसका कोई निदान नज़र नहीं आ रहा है। व्यवस्थागत साठ-गांठ के बिना यह
मुमकिन नहीं था। सामाजिक रूप से यह कुटिल और आत्मघाती है। एक तरह से यह सब
क्रान्ति की पूर्व पीठिकाएँ हैं। लूटपाट मची है, कुछ तंत्र के भीतर और
कुछ उसके बाहर। लेकिन क्रान्ति हमारे यहाँ कभी नहीं आएगी। क्यों? क्योंकि चिरोंजियाँ बांटकर, अलां-फलां फसाद-विवाद में लोगों को उलझाकर
सत्ता अपना उल्लू सीधा करती रहती है। धर्म और जाति के दर्प में डूबा मेरा हिन्दी
प्रदेश, जहां हमारे अधिसंख्य लेखक-पाठक बसते हैं, उसके लिए कौन-सी किताब लिखनी होगी? वहाँ संकट साहित्य से कहीं अधिक, सभ्यतागत है।
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इस साक्षात्कार का पहला भाग नीचे लिंक पर पढ़िए
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ओमा शर्मा -
कहानी, अनुवाद, लेख, साक्षात्कार आदि विधा में सक्रिय
( जर्मन लेखक स्टीफन स्वाईग की आत्मकथा व कहानियों का अनुवाद)
संप्रति - वरिष्ठ अधिकारी, आयकर विभाग, भारत सरकार
वर्तमान निवास - वड़ोदरा
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रचना त्यागी -
कविता, लेख, व्यंग्य, अनुवाद में सक्रिय
संप्रति - अध्यापिका, दिल्ली सरकार
निवास - दिल्ली
रचना त्यागी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/blog-post_81.html
रचना त्यागी की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए
http://bizooka2009.blogspot.com/2017/10/blog-post_81.html
बेहद सार्थक साक्षात्कार, ओमा जी और रचना जी को बेहद शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रंजना जी ...
जवाब देंहटाएंOma sharma jee ka Sakshtar. Bahut pasand aya. Stephen swaig kee kahani unke madhyam se kathadesh mein padhi. Mera hardik dhanyavad un tak pahunchaeiy.
जवाब देंहटाएंबहुत समय के बाद ऐसा साक्षात्कार पढ़ा,जिसमें विस्तार और गहराई दोनों हैं। पढ़ कर रचनात्मक सुख मिलता है। ओमा शर्मा की भविष्यदृष्टा और दुश्मन मेमना जैसी कहानियां पढ़ने के बाद भी आपको हॉंट करती रहती हैं। आज भी उनकी गूंज मेरे भीतर बनी हुई है। स्टीफन स्वाइग के महत्व से परिचित कराने के लिए हिन्दी के पाठक उनके ऋणी हैं। ओमा अकेले लेखक हैं, जिसने अपने लेखन की कीमत पर अपने
जवाब देंहटाएंरचनात्मक समय का इतना बड़ा हिस्सा किसी अन्य लेखक को समर्पित किया है।
यह साक्षात्कार खुद ओमाजी द्वारा लिए गए,'अदब से मुठभेड़' में संकलित श्रेष्ठ साक्षात्कारों की याद दिलाता है। इसके लिए आेमा शर्मा और रचना त्यागी दोनों ही बधाई के पात्र हैं।