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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अक्तूबर, 2017

रचना त्यागी की कविताएं

रचना त्यागी: कहानी कहती है। समीक्षा करती है। हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद करती है। शिक्षिका है। दिल्ली में रहती है। बिजूका पर हम उनकी कविताएं साझा कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि पाठक मित्रों को कविताएं पसंद आएगी।
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रचना त्यागी



कविताएं

मौत का महीना


बक़ौल हुक़ूमत

अगस्त

सावन की हरी कोंपलों ,

तीज, सिंधारों, झूलों,

भाई की कलाई पर रक्षा सूत्रों और

देश की आज़ादी के जश्न का नहीं,

मौत का महीना है

बच्चों की मौत का !

कच्ची बात नहीं ये

पक्के दावे हैं, प्रमाण हैं उनके पास

बीती सदियों के लाल अगस्त के

देखी हैं उन्होंने अगस्त की दीवारें

जो लालक़िले से भी लाल हैं...

पर कोई लेखा-जोखा,

कोई आँकड़ा नहीं उनके पास

मौत के सौदागरों की मौत के औसत महीने का !

पिछली कई सदियों में

वे मरे ही नहीं ...

प्रकृति का विधान है

जाना अनिवार्य है, आने वाले का...

इससे पहले कि बिगड़े

प्रकृति का संतुलन

हमें खोजना होगा

उनकी मुक्ति का महीना

परंपरागत बारह महीनों में ...

अन्यथा जोड़ना होगा

एक तेरहवाँ महीना

उनकी तेरहवियों के लिये ...
००


प्राणवायु


यह वक़्त का वह दौर है

जहाँ सहज हैं हादसे

आसपास बहती हवा-से ,

सहज हैं हत्याएँ

बसंत में खिलते फूलों-सी ,

सहज है सत्ता

रक्त रंजित ठंडी तलवार-सी ,

सहज हैं ख़बरी तंत्र

मुस्कुराकर नन्हें जनाज़े दिखाता....

सहजता की ऐसी अभूतपूर्व सुंदर बेला में

जो सहज नहीं, वो द्रोही हैं

द्रोही हैं उनमें धड़कते अहसास

द्रोही है उनसे उठती इंसानियत की बू

द्रोही हैं उनके मनसूबे

जाति, मज़हब के मसले भुलाकर

देश और इंसां को बचाने के...

उन्हें मार डालो  !

छीन लो उनकी भी प्राणवायु

फ़ौरन से पेशतर !!
००


चित्र: अवधेश वाजपेई


ठूँठ



भीड़ के पास नहीं होते


आँख, कान, दिल, दिमाग़


भीड़ दरअसल एक ठूँठ है


हत्यारा नुकीला ठूँठ


छीन ली गई जिसकी दृष्टि


धर्मान्धता के ओक के पत्तों के रस से,


गढ़ा गया है


नफ़रतों के धारदार मनसूबों से,


पोसा गया है


ज़हरीले फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद की फ़सलों पर


कि गिर सके एक दिन


किसी कृत्रिम आँधी में


किसी कमज़ोर की छाती पर


और गड़ जाए उसके सीने में


किसी हिंसक नारे के


बुलंद बेशर्म जयकारे के साथ ।


इस ठूँठ पर टँगा रक्त कलश


कभी रिक्त नहीं रहता


सुनते हैं वह शाही कलश है


निज़ाम की अनन्त प्यास बुझाने को....
००


प्रतिबंध

कोई प्रतिबंध नहीं होता
सदा के लिए
प्रदूषण युक्त ज़हरीली हवा छोड़ते वाहन ,
बिना हैलमैट के दुपहिया सवार ,
रात दस बजे बाद लाऊड स्पीकर का शोर ,
सामाजिक स्थलों पर धूम्रपान ,
पाॅर्न , मैगी , कोक कोला ,
1975  का आपातकाल ,
हिन्दी गीतों में 'सैक्सी' शब्द का प्रयोग,
'ग़रम हवा', 'आँधी', 'बैंडिट क्वीन',
'कामसूत्र', 'फ़ायर', 'टैंगो चार्ली' सरीखी फ़िल्में ,
'सैटेनिक वर्सेज़' , 'दा विंसी कोड' , 'द्विखंडितो' जैसी पुस्तकें ...
कुछ भी तो नहीं रहा
सदा के लिए प्रतिबंधित !
प्रतिबंध के आदेश की
पहली अधिकृत सूचना के साथ ही
उत्पन्न होता है एक प्रतिक्रियात्मक आकर्षण
वर्जितों के प्रति !


इसी सिद्धांत के मद्देनज़र
बनाती हूँ ग्राफ
अपने जीवन पर लगे

सभी प्रतिबंधों की समयसीमा के
कि उभरे उनमें अक़्स
एक औसत समयावधि का
और प्रारंभ करूँ
अपनी निश्चेष्ट निर्विकार नसें
दुरुस्त करने का अभ्यास
कि धकेलने वाली हूँ
तुम्हारे लगाए प्रतिबंध
मेरी आज़ादियों , ज़रूरतों , सपनों और वजूद पर से...
००

चित्र: विनीता कामले



मौन


भूखा अन्नदाता
जश्न मनाता मौन की इकलौती लहलहाती फ़सल का

अपने कंठ पर लपेट

मौन के सन, जूट,  कपास का निर्मम फंदा !


देखो..
मृत खेतों की
ऊबी दरारों में भी
रोपी जा सकती है फ़सल
मौन की !
कहा था न मैंने...!
अच्छे दिन आ गए... !

 कट्टरता की बन्दूकों से

दाग़ा जा रहा मौन
अभिव्यक्ति के माथे पर
ठीक बीचोंबीच
चीरता ग्यान चक्षु ,
ठहाके मारकर धज्जियाँ उड़ाता
संविधान की समाधि पर खुदे
मकड़ी के जालों से ढके
बरसों पुराने आउटडेटेड अधिकारों की।

कर्तव्यरत हैं मौन की
भीषण मूसलाधार बौछारें
विश्वविद्यालयों में फैलीं
गुस्ताख़ राष्ट्रद्रोही लपटें बुझाने को।

जाहिल नागरिकों को

'स्वच्छ भारत' की स्वच्छ दीवार गीली करने से रोकने पर

सदी के महानायक  की अपील याद दिलाने पर

तमाचे, घूसे जड़ता

देश को उसकी औकात दिखाता मौन !


मौन इतना उपद्रवी कभी न था
इस देश में...

तुम अचंभित हो ?
चुप रहो !
सुनो...
वह शोर...
'मेक इन इंडिया' के
बुलंद होते नारों का...!
कुछ समझे.. ?
"मेक इन इंडिया" का
सबसे पहला प्रोडक्ट है -
'मौन !'
एक अनिवार्यता
विकास के लिए....!!
००

चित्र: सुनीता


सरलता के फूल

कैक्टस के सघन अन्तहीन जंगल में
सरलता के फूल खिलाने
और खिलाए रखने की कोशिश पर
हँस सकते हैं आप ..
इसे 'बचकाना मज़ाक'
या 'दुस्साहस' कह सकते हैं
पर मेरे लिए सपना है यह !
बहरहाल ....
'मज़ाक' या 'दुस्साहस' या 'सपना' ...
नाम में क्या रखा है !
नीयत देखिए
और बताइये .....
आप मेरे साथ हैं
कि नहीं ?
ग़ोया आज सख़्त ज़रूरत है
इन फूलों की
अपने भीतर
और बाहर की धरती पर।
इन्हें सींचने को

नहीं चाहिए लाल नदी

किसी बंदूक के छर्रे से
शरीरों को भेदकर निकली
या किसी बम धमाके के
उद्गम से फूटी !
ये सरलता के निश्छल फूल
सींचे जा सकते हैं
सिर्फ़ और सिर्फ़
निर्मलता के स्निग्ध उज्जवल झरने से ,
जिसे लाना होगा धरा पर
फिर किसी भगीरथ को
प्रेम की असंख्य आकाशगंगाओं को निचोड़कर,
या शरद पूर्णिमा के चाँद से
बरसने वाले अमृत को इकट्ठा कर,
या भरने होंगे कलश
चनाब के उस अभिमंत्रित जल से
जिसमें घुली हुई हैं
सोहनी और महिवाल के
इश्क की मीठी डलियाँ ...
००

सुसाईड नोट्स

सुसाईड नोट्स
केवल कागज़ पर ही लिखे जाते हैं
यह पूरा सच नहीं है।

वे लिखे जाते रहे हैं सदियों से
सूखी निराश आँखों की पुतलियों के पृष्ठ में,
तो कभी बहते आँसुओं की गीली स्याही से ...!
कभी नव ब्याहताओं के जिस्मों पर पड़े नील और फफोलों में... !
कभी अकेलेपन का धीमा ज़हर पीते
वृद्ध माँ - बाप के चेहरे में छिपी असहाय मूक झुर्रियों में... !
किसी अनब्याही प्रेमिका के गर्भ में गूँजती अवांछित किलकारियों में ...!


सुसाईड नोट्स छिपे रहते हैं...
परिवार की आशाओं की धुरी बने
तीस पार के बेरोज़गार के तपते माथे पर
हर दिन गाढ़े होते पसीने की गंध में ... !

एक लम्बे अरसे तक
हृष्ट -पुष्ट लहलहाती फसल की
उम्मीद में जीते
किसान के अथक अदम्य इंतज़ार में... !

एक छोटे ग़ुमनाम कस्बे से
चौंधियाते 'स्मार्ट सिटी' के तमगे वाले महानगर में विस्थापित
उच्च शिक्षा और मोटे पैकेज का सपना पाले ग़रीब छात्र की
उच्च शिक्षितों द्वारा असहनीय प्रताड़ना
घरवालों से न बयां कर सकने की विवशता में
फोन पर दर्ज़ लम्बी ख़ामोशी की ध्वनि में ...!

अपनी ज़िंदगी के तमाम लम्हे
देश के नाम गिरवी रखकर भी
अपने नवजात शिशु का मुँह देखने की,
अपनी बहन की डोली उठाने की,
अपने बूढ़े बीमार माँ- बाप की एक अन्तिम सेवा की हसरत में
कुछ लम्हे अपने लिए चुराने को दी गई, कभी न स्वीकृत होने वाली
सिपाही की अवकाश की अरजी में...!

छोड़िये !!
आप सब जानते हैं !
फिर भी कितनी हत्याओं को रोक पाए
आत्महत्या के लिहाफ़ में जाने से ?
अख़बार इंसान नहीं हैं !
उन्हें ज़ोर नहीं पड़ता
जब उनकी मोटी ख़ाल पर
टाईप होता है...
'हत्या' से पहले 'आत्म' !
पर...
आपको और हमें भी नहीं पड़ता क्या !!
००



बिन पग़ार की महरी

माँ !
मेरे ब्याह में

तुमने बनाई सूची
मेरे साथ जाने वाले सामान की ...
अलमारी , रेडियो , टीवी , फ़्रिज ,
पलंग , सोफ़ा, कुर्सियाँ ,मेज़
बिस्तरे ,गर्म जोड़े ,चादरें , रजाइयाँ , तकिये ,
बरतन-भांडे
एक छोटी से छोटी चम्मच की भी !
मेरे नये परिवार की स्त्रियों के
बिछुए , पायल, चप्पल तक की !
वहाँ आने वाली महरियों , नाईनों
तक के नाम की धोतियाँ
चिह्नित कीं
और सहेज दीं एक बड़े ट्रंक में .
उसे पढ़ा ... बार-बार पढ़ा ...
सूची की संपूर्णता पर
संतुष्टि की कितनी गहरी रेखा
उभरी तुम्हारे चेहरे पर !
जिसका प्रतिबिम्ब उभरा
मेरे भी चेहरे पर !
सूची की पर्याप्तता पर
कई रातों तक सोईं
तुम और मैं
मीठी, गाढ़ी नींद
जब तक कि मुझे
अहसास न हुआ
उसके अधूरेपन का !
माँ !
सूची की प्रति
उनके सुपुर्द करते
भूल गईं तुम बहुत कुछ जोड़ना
और मैं ....
चाहकर भी न जोड़ पाई

नए संसार को सजाने, बसाने के लिए
दो सपनीली आँखें , एक धड़कता दिल ,

समर्पण का गहरा अथाह समंदर,
एक बिन पग़ार की महरी
और हर महीने
पाँच अंकों से भरा एक चैक
जिसके अंकों का मान
बढ़ता रहा वक़्त के साथ

और घटती रही

महरी की क़ीमत

इस हद तक

कि नए संसार की

हर चल ,अचल शै को बनाने, सँवारने में

 मिटता गया उसका अपना वजूद

रह गयी वह

केवल एक शून्य

और फिर भी कभी दर्ज़ नहीं हुई

किसी सूची में !
००


चित्र: अवधेश वाजपेई

 शिक़वा

देखा जाए
तो तुम्हारा कतई दोष नहीं
तुम केवल वक़्त का एक टुकड़ा थे
तयशुदा
मेरी जीवन रेखा से गुज़रने को
वक़्त से मैंने
कभी कोई शिक़ायत न की
तुमसे भी जायज़ नहीं .
जीवन रेखाएँ
दरअसल नदियाँ होती हैं
नाविक अपनी नावों समेत
पार करते जाते हैं उन्हें
नदी कब शिक़वा करती है
नाविकों से ...
उसका कलेजा बार-बार
चीरने के लिये ?
००


 अप्रेम


अप्रेम की कड़ी धूप में

तुम वाष्पित होते हो

मुझ में से
और मैं सूखती जाती हूँ
भाप दर भाप ...
तुम दर तुम ...
००

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