भलस्वा में खालिदा बीबी की हत्या
सुनील कुमार
बाहरी दिल्ली के भलस्वा इलाके को हम कई तरह से जान सकते हैं। दिल्ली के बाहर पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर से आने वाले लोंगों को दिल्ली में प्रवेश करने के कुछ समय बाद ही पहाड़ सी आकृति दिखती है। इसमें से निकलते धुएं को देखकर लोगों के मन में कई सवाल खड़े होते हैं, जैसे कि इतना ऊंचा क्या है, यहां पर आग कैसे लगी-आदि, आदि। रात के समय में आग की लपटें भी दिखती रहती हैं। दिल्ली में रहने वालों के लिए भलस्वा का नाम आते ही मन में कूड़े के पहाड़ और उसके पास बसी ‘गंदी बस्ती’ की तस्वीर सामने आती है। जो दिल्ली के विषय में ज्यादा जानकार हैं उनके लिए कबाड़ चुनने वाले, मेहनतकश आवाम की पुनर्वास कॉलोनी जेहन में आती है, जहां दिल्ली के अलग-अलग इलाके से लोगों को लाकर बसाया गया है। दिल्ली के संभ्रांत कहे जाने वाले इलाकों को स्वच्छ रखने वाली जगह का नाम है भलस्वा। भलस्वा में 40 एकड़ में फैला लैंडफिल साइट है, जहां 1993 से ही दिल्ली कूड़ा फेंका जाता है। इसको लोकल भाषा में खाता भी कहते हैं। इस लैंडफिल साईट पर45 मीटर ऊंचा 140 लाख टन कूड़े का पहाड़ है, जहां पर प्रति दिन4000 टन और कुड़ा आता रहता है।
यह लैंडफिल साईट आस-पास रहने वालों के लिए प्रदूषण पैदा करती है। इससे वे कई बार इतना परेशान हो जाते हैं कि अग्निशमन की गाड़ी को बुलाना पड़ता है जो लगी हुई आग और धुंआ को कम करती है। इतने कूड़े इक्ट्ठा होने के कारण इसके अन्दर कार्बन डाई आक्साईड और मिथेन जैसी खतरनाक गैसें बनाती हैं, इसलिए इसके आग को पूरी तरह से नहीं बुझाया जा सकता है। इसके अलावा यह जल स्रोतों को भी नुकसान पहुंचाता है। इस लैंडफिल साईट के आस-पास गंदा पानी का रिसाव होता रहता है, जो जमीन के अन्दर जाकर जल भण्डार को भी विषैला बनाता है। इस लैंडफिल साईट से पर्यावरण को नुकसान तो है लेकिन यह बंगाल, बिहार, यूपी के हजारों परिवारों के पेट भरने का जरिया भी है। इस लैंडफिल साईट पर रात-दिन कूड़ा चुन कर परिवार जिलाने वाले लोग धूप, छांव, बारिस में डटे रहते हैं। यहां तक कि औरतें अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर वहां पर जाती हैं। वे एक छोटी सी लकड़ी गाड़ कर उस पर कपड़े डाल देती हैं और उसके नीचे बच्चे को लिटा कर कूड़ा बीनने का काम करती रहती हैं। यहां कूड़ा बीनने वाले घर से ही पीने का पानी लेकर जाते हैं क्योंकि ऊपर कोई व्यवस्था नहीं है। यहांतक कि एमसीडी स्टाफ के चौकीदार भी परेशान रहते हैं क्योंकि उनको धूप व बारिश में छिपने के लिए सरकार ने कोई जगह उपलब्ध नहीं कराया है। उनको खड़े-खड़े बिना किसी जरूरी व्यवस्था के ड्युटी करनी पड़ती है। इन कर्मचारियों के दोस्त भी इन्हीं कूड़ा बीनने वाले परिवार के लोग होते हैं।
इन्हीं परिवारों में से एक परिवार खालिदा बीबी का था। खालिदा बीबी की उम्र 33 साल की थी। वह बंगाल के मेदनीपुर जिले की रहने वाली थी। वह अपनी बेटी रोजिना (13 साल), सलमान (10साल) और शाहिल (8 साल) के साथ भलस्वा मुर्गा फार्म के पास किराये की झुग्गी में रहती थी। खालिदा की शादी उनके ही गांव के राजू के साथ माता-पिता ने कम उम्र में ही कर दी थी। शादी के बाद पति के साथ वह हरियाणा के रेवाड़ी आ गई, जहां पर कूड़ा चुनकर उनके परिवार का पालन-पोषण होता था। वहीं पर खालिदा ने दो बच्चों-रोजिना और सलमान को जन्म दिया। पितृसत्ता मानसिकता का राजू, खालिदा पर तरह-तरह का जुल्म करता था। खालिदा जुल्म से तंग आकर बच्चों के साथ अपनी बहन के पास दिल्ली की जहांगीरपुरी आ गई। कुछ समय बाद राजू भी माफी मांगते हुए दिल्ली आकर रहने लगे। राजू चूंकि पहले से ही कबाड़ चुनने का काम करता था तो वह दिल्ली में आकर भी यही काम करने लगा। उसने अपने परिवार के साथ भलस्वा लैंडफिल साईट के नीचे अपना आशियाना बनाया, जो किराये का था। इसी दौरान खालिदा के पेट में तीसरे बच्चे का आगमन हुआ। जब वह नौ माह की गर्भवती थी तभी राजू उसे छोड़ कर कहीं भाग गया। उसके बाद वह कभी वापस नहीं लौटा।
गर्भवती खालिदा की उसकी बहन माजू और शादिया ने देख-रेख की। खालिदा ने अपनी बहनों की आर्थिक हालत को देख एक दिन खुद उसने इस पितृसमाज से लड़ने का निर्णय लिया। खालिदा पढ़ी-लिखी नहीं थी, इसलिए वह कहीं नौकरी तलाश नहीं सकती थी। उसने एक दिन कूड़ा बीनने का थैला उठाया और वह चढ़ गई भलस्वा के उसी पहाड़ी पर, जहां से और परिवारों की जिन्दगी चलती है। खालिदा अपने तीनों बच्चों के साथ किराये की झुग्गी में रहने लगी और कूड़ा चुन कर अपना और अपने बच्चों का पेट भरने लगी। खालिदा अपने बच्चों को तो पढ़ा नहीं पाई लेकिन उनको भरपेट भोजन दे सकी। खालिदा बीबी पित की थैली में पथरी होने के कारण दर्द से परेशान थी। पथरी के ऑपरेशन के लिए वह सरकारी अस्पतालों का चक्कर काट रही थी। सरकारी अस्पतालों में ज्यादा समय लगते देख वह प्राइवेट अस्पताल से ऑपरेशन कराकर जल्द से जल्द ठीक होना चाहती थी। वह अपनी बहन और आस-पास के लोगों से ऑपरेशन के लिए पैसा जुटाने की गुहार भी लगाई थी।
खालिदा का ऑपरेशन कराकर ठीक होने का सपना अधूरा ही रह गया और वह 16 सितम्बर, 2017 की शाम इस अमानवीय दुनिया का शिकार हो गई। खालिदा 16 सितम्बर की सुबह अपने बच्चों के साथ जहांगीरपुरी से भलस्वा आ गई। रोजिना बताती है कि घर आने के बाद उसने खाना बनाई, हम सब को खिलाया और वह खुद खाई। फिर तीन बजे वह थैला लेकर रोज की तरह लैंडफिल साईट के ऊपर चली गई। रोजिना बताती है कि वह रोज कूड़ा इक्ट्ठा करने जाती थी और शाम को सात बजे तक घर आ जाती थी। उस दिन 9 बजे तक वह घर वापस नहीं आई तो उसने मुहल्ले वालों को बताया। तभी सोफी आया और उसने खालिदा की हत्या होने की सूचना दी। खालिदा की बहन के बेटे हुसैन ने बताया कि जब वह ऊपर गये तो देखा कि खालिदा की लाश नग्न हालत में है, जो तिरपाल से ढंका हुआ है और चेहरे को पत्थर मारकर कुचल दिया गया है। रात्रि 9.45बजे 100 नं. पर फोन किया गया। इसके बाद पुलिस और अधिकारी घटनास्थल पर पहुंचे और शव को ले जाकर पोस्टमार्टम किये। पुलिस ने इस कांड में दो लोगां को गिरफ्तार किया था, जिसमें से एक को पूछ-ताछ के बाद छोड़ दिया। इस घटना में सोफी को गिरफ्तार किया गया है, जिसने ही कत्ल होने की बात बताई थी। पुलिस के अनुसार उसने बलात्कार और हत्या करने का गुनाह कबूल कर लिया है। परिवार वालों का कहना है कि सोफी अकेले इस घटना को अंजाम नहीं दे पायेगा, इसमें और व्यक्ति भी शामिल है जिसको पुलिस गिरफ्तार नहीं कर रही है। परिवार वालों का आरोप है कि पुलिस ने अभी तक उनको एफआईआर की कॉपी भी नही दी है, मांगने पर कह रही है कि तुम कोर्ट से कॉपी ले लेना।
दिल्ली के अन्दर इस तरह की घटना घट जाती है-वह भी एक सफाईकर्मी की, जिसको देश के प्रधान मंत्री कहते हैं कि सबसे पहले हक है वन्देमातरम बोलने का। यह घटना मीडिया में एक बहुत छोटी खबर बन कर रह जाती है और दिल्ली के बहुत कम लोगों को ही पता चल पाता है। देश के बाकी हिस्सों के वंचित लोगों पर होने वाले अत्याचार के विषय में पता कैसे चलेगा, सोचने की बात है।
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