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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

10 अक्टूबर, 2017



प्रेमचन्द के पत्र और कविताएँ

पहला पत्र

यह पत्र 3 जुलाई 1930 को बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखा था ।

“मेरी आकांक्षाएं कुछ नहीं है। इस समय तो सबसे बड़ी आकांक्षा यही है कि हम स्वराज्य संग्राम में विजयी हों। धन या यश की लालसा मुझे नहीं रही। खानेभर को मिल ही जाता है। मोटर और बंगले की मुझे अभिलाषा नहीं। हाँ, यह जरूर चाहता हूँ कि दो चार उच्चकोटि की पुस्तकें लिखूं, पर उनका उद्देश्य भी स्वराज्य-विजय ही है। मुझे अपने दोनों लड़कों के विषय में कोई बड़ी लालसा नहीं है। यही चाहता हूं कि वह ईमानदार, सच्चे और पक्के इरादे के हों। विलासी, धनी, खुशामदी सन्तान से मुझे घृणा है। मैं शान्ति से बैठना भी नहीं चाहता। साहित्य और स्वदेश के लिए कुछ-न-कुछ करते रहना चाहता हूँ। हाँ, रोटी-दाल और तोला भर घी और मामूली कपड़े सुलभ होते रहें।”
०००

दूसरा पत्र

यह पत्र भी 1 दिसम्बर 1935 को बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखा था।


“जो व्यक्ति धन-सम्पदा में विभोर और मगन हो, उसके महान् पुरुष होने की मै कल्पना भी नहीं कर सकता। जैसे ही मैं किसी आदमी को धनी पाता हूँ, वैसे ही मुझपर उसकी कला और बुद्धिमत्ता की बातों का प्रभाव काफूर हो जाता है। मुझे जान पड़ता है कि इस शख्स ने मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को – उस सामाजिक व्यवस्था को, जो अमीरों द्वारा गरीबों के दोहन पर अवलम्बित है – स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार किसी भी बड़े आदमी का नाम, जो लक्ष्मी का कृपापात्र भी हो, मुझे आकर्षित नहीं करता।
चित्र: अवधेश वाजपेई

बहुत मुमकिन है कि मेरे मन के इन भावों का कारण जीवन में मेरी निजी असफलता ही हो। बैंक में अपने नाम में मोटी रकम जमा देखकर शायद मैं भी वैसा ही होता, जैसे दूसरे हैं – मैं भी प्रलोभन का सामना न कर सकता, लेकिन मुझे प्रसन्नता है कि स्वभाव और किस्मत ने मेरी मदद की है और मेरा भाग्य दरिद्रों के साथ सम्बद्ध है। इससे मुझे आध्यात्मिक सान्त्वना मिलती है।”
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मुंशी प्रेम चंद की कविताएं

प्रेमचंद कविताएं नहीं लिखते थे, लेकिन उन्होंने अपनी कहानियों में कई बार कविताएँ शामिल की हैं।

यहाँ कुछ उन कविताओं या काव्यांशों को प्रकाशित कर रहे हैं, जिन्हे कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों में जगह मिली है। यह किसकी रचनाएं हैं यह जानने से कहीं महत्वपूर्ण है कि ये प्रेमचंद की पसंदीदा कविताएं हैं, पसंदीदा मैं इसीलिए कह पा रहा हूँ क्योंकि ये कविताएं आज यहाँ जीवन पा रही हैं, कविताएं ऐसे भी जिंदा रहती हैं । यह सिलसिला चलता रहेगा,


 पढ़िए प्रेमचंद की  दो कविताएं




पहली कविता

क्या तुम समझते हो ?

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग जाओगे ?
भाग सकोगे ?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी,
मैं तुम्हारी कमर में कर-पाश कस लूँगी,
मैं तुम्हारा पाँव पकड़ कर रोक लूँगी,
उस पर सिर रख दूँगी,

क्या तुम समझते हो,
मुझे छोड़ कर भाग जाओगे ?
छोड़ सकोगे ?

मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल
चिपका दूँगी,
उस प्याले में जो मादक सुधा है-
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
और मेरे पैरों पर सिर रख दोगे।

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़ कर भाग जाओगे ?

(यह कविता 'रसिक संपादक' कहानी से है और वहाँ इसकी रचनाकार कामाक्षी हैं )

दूसरी कविता

माया है संसार

माया है संसार सँवलिया, माया है संसार
धर्माधर्म सभी कुछ मिथ्या, यही ज्ञान व्यवहार,
सँवलिया माया है संसार।
गाँजे, भंग को वर्जित करते, है उन पर धिक्कार,
सँवलिया माया है संसार।

( यह पद 'गुरु-मंत्र' कहानी से)

साभार: अनिल जनविजय की वाल से।

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