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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 अक्टूबर, 2017


मणि मोहन की कविताएं

मणि मोहन का 02 मई 1967,   को सिरोंज (विदिशा) म. प्र. में हुआ। शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तरऔर शोध उपाधि।


प्रकाशन : देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं ( पहल , वसुधा , अक्षर पर्व ,  समावर्तन , नया पथ , वागर्थ ,जनपथ, बया , आदि ) में कवितायेँ तथा अनुवाद प्रकाशित ।
वर्ष 2003 में म. प्र. साहित्य अकादमी के सहयोग से कविता संग्रह ' कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायेँ ' प्रकाशित ।वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक  ' एक सीढ़ी आकाश के लिए ' प्रकाशित ।वर्ष 2013 में  कविता संग्रह  " शायद " प्रकाशित ।इसी संग्रह पर म.प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार ।कुछ कवितायेँ उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित ।  वर्ष 2016 में  बोधि प्रकाशन जयपुर से " दुर्दिनों की बारिश में रंग " कविता संकलन तथा तुर्की कवयित्री मुइसेर येनिया की कविताओं की अनुवाद पुस्तक प्रकाशित ।
                  इसके अतिरिक्त  " भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास " , " आधुनिकता बनाम उत्तर आधुनिकता " तथा " सुर्ख़ सवेरा " आलोचना पुस्तकों सह- संपादन ।

सम्प्रति : शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय , गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन ।



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कविताएँ
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सृजन
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इस अँधियारे में
डुबोकर अपनी कलम
कोई लिखता है
सुबह

कोई डुबोता है अपना ब्रश
और कैनवास पर
उभर आता है
सूरज

यह और बात
कि थोड़ी सी कालिमा
चिपकी  रहती है
उनकी उँगलियों की पोरों से
तमाम उम्र ।
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पतझर
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ज़र्द पत्तों से
ढ़क चुकी है धरती
जैसे
सो रहा है
कोई
भरोसा ओढ़कर !
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बीमार
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एक बूढ़ी स्त्री ने
जब अपनी दवा की पर्ची के साथ
अपने बेटे को
एक मुड़ा - तुड़ा नोट भी थमाया
तो अहसास हुआ
कि ये दुनियाँ
वाकई बीमार है !
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चींटियां
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चींटियां
चित्र: अवधेश वाजपेई
अपने - अपने अंडे उठाये
भाग रही हैं
किसी अंजान गंतव्य की तरफ
कि बस होने ही वाली है
खूब तेज़ बारिश

चींटियां
अपने - अपने हिस्से की
पृथ्वी उठाये
भाग रही हैं
आकाश गंगा में ।
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रोज़ ब रोज़
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एक पेड़ है
जिसकी शाख़ से लटककर
लगभग रोज़ ही आत्महत्या करते हैं
कर्ज में डूबे मजदूर और किसान

एक नदी है
अपने बच्चों को छाती से चिपटाये
कूद जाती हैं औरतें
और कभी - कभी
बेरोजगार नौजवान

एक कवि है
जो रोज़ ब रोज़ लिखता है
पेड़ और नदी पर कविताएं
और रोज़ मरता है ।
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प्रायोजित
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यह यात्राओं का समय है
परन्तु यायावर और फक्कड़ यात्राएं नहीं
रोजी - रोटी की तलाश में निकले
गरीब , मजदूर
या विस्थापितों की यात्राएं भी नहीं

यह प्रायोजित यात्राओं का समय है
धरती बचाने निकले हैं भू माफिया
नदियों का जयकारा लगाते हुए निकले हैं
खनन माफिया और ठेकेदार

इन यात्राओं के इंतजाम में लगे हैं
सरकारी अधिकारी
हरी झंडी दिखा रहे हैं राजनेता
तस्वीरें खिंच रही हैं
बयान आ रहे हैं
खबरें छप रही हैं

दिन ढल चुका है
रात के अंधेरे में
घेरा बनाकर बैठ गए हैं
तमाम लुटेरे
यह हिस्सा - बांटे का वक्त है

खा पीकर  सो चुके हैं लुटेरे
खर्राटे गूंज रहे हैं जंगल में
सुबह
फिर निकलना है उन्हें
एक नई यात्रा पर
जयकारों के साथ ।
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चित्र: अवधेश वाजपेई

यात्रा के दौरान
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अचानक टकराती है दुर्गंध
हमारे नथुनों से
अचानक आ जाता है रुमाल
हमारी नाकों पर

इस दृश्य से बाहर निकलते ही
हम चैन की लंबी साँस लेते हैं
और जरा भी नहीं सोचते
किसका शिकार हुआ !
किसने शिकार किया !
कि उस दुर्गंध का क्या हुआ ?

कमाल की चीज़ है
यह रुमाल भी
जो हर बार
उड़ता हुआ
आ जाता है
दृश्य और अंतरात्मा के बीच
पर्दा बनकर !
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एक पागल स्त्री
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जब वह थक गई
खुद से बतियाते - बतियाते
तो एक गीत गाने लगी
और फिर गाते - गाते
सुबकने लगी .....
देश की राजधानी के
प्लेटफार्म नम्बर एक पर
एक पागल स्त्री !

सामान के नाम पर
उसके पास सिर्फ एक पोटली
और एक गन्दी सी बॉटल थी
पानी की ....

और हाँ ! उसके पास
इस सँसार की
लुप्त हो चुकी
एक भाषा भी थी ...
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कथा
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किसी पार्क की बेंच पर बैठे
दो बुजुर्ग
एक दूसरे को
अपनी कथा सुना रहे हैं

पेड़ ... पौधे ...परिंदे ...
चित्र: अवधेश वाजपेई
सब साक्षी
कि पार्क की बेंच पर बैठे
दो बुजुर्ग
अपने समय की
कथा सुना रहे हैं !
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भी
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सब शामिल हैं
इस अंतिम यात्रा में
मैं भी
तुम भी
भाषा भी
विचार भी
कविता भी
और भी
जैसे हत्यारे
और यह कविता भी !
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डूबना
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इस तरह
डूबने का
अपना आनंद है
जैसे दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद
कोई चुपचाप चला जाए
गहरी नींद में ......

या फिर कोई स्त्री
अपने बच्चे को
स्तनपान कराने
और उसे लोरी सुनाने के बाद
दबे पाँव निकल जाए
रात की पाली में
अपने काम पर !
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आसमान
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कभी - कभी
यह आसमान भी
कितना सादगी भरा लगता है
जैसे तुम
हल्के आसमानी रंग की साड़ी लपेटे हुए !
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संपर्क : विजयनगर , सेक्टर - बी , गंज बासौदा म.प्र. 464221
मो. 9425150346

ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com

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