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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 अक्टूबर, 2017


बहादुर पटेल की कविताएँ
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बहादुर पटेल: 17 दिसम्बर, 1968 को लोहार पीपल्या गाँव (देवास, म.प्र.) में बहादुर पटेल ने एम.ए. हिंदी तक शिक्षा हासिल की है। आपकी कविताएं हिंदी की अधिकांश प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है। कविताओं का उर्दू, मलयालम, नेपाली  भाषा में अनुवाद भी हुआ है।
बहादुर पटेल

आपके दे कविता संग्रह 'बूंदों के बीच प्यास' और 'सारा नमक वहीं से आता है' प्रकाशित है ।
आपको सूत्र सम्मान 2015, राजस्थान पत्रिका कविता सर्जनात्मक पुरस्कार 2015, वागीश्वरी पुरस्कार 2015 प्राप्त है। आपका वामपंथ से गहरा लगाव है। साहित्यिक मंच ओटला, देवास से सम्बद्ध। आप शासकीय नौकरी में है।





कविताएं

मेरा हाथ छोड़ देना
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इस भीड़ भरी दुनिया में
तुम अकेली न पड़ जाओ मेरी बच्ची
आओ मेरा हाथ पकड़ो
मेरे साथ चलो
थोड़ा चलना सीख जाओ
कुछ लड़ना भी

फिर इस भीड़ में ऐसे चलना
जैसे अकेली नहीं हो तुम
तुम अपने सारे हुनर को साथ लेकर चलना
पर इतनी चौकन्नी रहना

कि जैसे चल रही हो किसी तनी हुई रस्सी पर
कोई नहीं होता किसी का
भ्रम का जाल है यह दुनिया
छद्म है यहाँ सारे सम्बन्ध
इतिहास से भी पीछे की धर्मग्रंथों की

अंधी गलियों में तय हुआ था तुम्हारा भविष्य
नकारने की ताक़त पैदा करनी होगी तुम्हे
मेरे भरोसे मत रहना मेरी बच्ची
मैं भी रोड़ा बनूँगा तुम्हारी राह का
तुम्हारी काट के लिए मुझे भी

उसी अंधी गली से कुछ मन्त्र दिए थे
तुम अपने आप को समझो
मैं जब गलत होंऊ तो टोक देना
और मेरा हाथ भी छोड़ देना ।


शोकगीत
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मैं देर तक गाता रहता था
वह सुनती रहती
मैं अक्सर कहता कि तुम भी सुनाओ
वह कहती कान मेरे वाद्य है
यह संगत भी कम है क्या

मेरे गीतों में उसके कान
नए राग पैदा करने के कारक हुए
किसी राग पर उसके होठ फड़फड़ाए
और विलीन हो गयी उनकी आवाज़
मेरे कहे के भीतर
अब मैं नहीं वह गाती है

यह एक नियम सा बन गया
प्रार्थना की तरह
मेरे सो जाने पर उसके कान बजते
या उसकी नींद में धमकते रहते मेरे गीत

दरअसल मैं गाता नहीं था
पर फूल होगा तो भौंरा गायेगा
या यूँ कहें कि बांसुरी होगी
हवा बजाएगी
कोई राग होगा तो मुझे छेड़ना ही होगा

रात दिन गाता रहा
यूँ ही गाते-गाते मेरा गला वाद्य में बदल गया
अब हम दोनों ने मिलकर
अपने को परिभाषित करना शुरू किया

समय का फेर चीजों को ही नहीं
मनुष्य तक को बदलता है
सिंथेसाइज़र की तरह कोई वाद्य है
जो मेरे गाने और उसके बजने
में पैदा कर रहा है अवरोध
अब वह गाती है
और सिंथेसाइज़र बजता रहता है
अब मैं एक शोकगीत हूँ ।


चित्र: के रवीन्द्र

सवाल
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इन जुवार के दानों को देखो
किसान के पसीने की बूँदों से बने हैं ये
पसीना शरीर की भट्टी में तपकर धरता है यह रूप
दरअसल उसके पसीने की हर बूँद
स्वाति नक्षत्र की होती है
जो गिरती है बीज की सीपी में

देखो इनको वह अकेला नहीं खाता
जीव- जंतु और पंछियों को देता है उनका हिस्सा
कुछ अपने परिवार के लिए
कुछ रखता है बीज के लिए
बचा हुआ सब हमें लौटा देता है

अब वो क्या क्या जाने
जमाखोरी
उसे नहीं पता सरकार के गोदाम में
कितना सड़ जाता है हर साल
और कितने लोग मर जाते हैं भूख से

वो तो इतना जानता है
कि कर्ज से दब जायेगा
तो क्या बोयेगा इस धरती की कोख में
हम सबकी भूख वह देख नहीं सकता

और उसकी आखिरी नियति
हम सब जानते ही हैं
यह सब सनद रहे
आने वाली पीढ़ी पूछेगी हमसे सवाल ।


विदा का हाथ
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रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म बहुत लुभाते रहे
कभी दिन में कभी रात में
सुहाने लगते रहे
एक छोटा सा स्टेशन भी
रात दो बजे के सूनेपन में भी
कभी डरावना नहीं लगा

घर छोड़ने और घर लौटने
या किसी को विदा देने
किसी लिवा लाने
यहाँ आता रहा बार-बार

पहली बार जब घर से दूर जाना हुआ
तो उदासी मेरे साथ सफर करती रही
उदासी घर में भी पसरी रही
जब भी माँ पिता से बात की
आवाज़ उदासी के पर्दे छनकर आई

जब-जब भी लौटा घर
ख़ुशी स्टेशन से साथ हो ली
कितना कुछ था इसके भीतर बाहर
जो मुझे पहचानता था
यह बाहें फैलाये खड़ा होता था

आज जब बेटे को इसी स्टेशन पर
विदा करने आया
कैसा मनहूस सा लगा यह स्टेशन
हलचल के बीच सन्नाटा पसरा है
हिदायतों में उलझाये रखा अपने आपको
इन औलादों पर बड़ा नाज़ होता है
इन्हें विदा करना कितना कठिन

ट्रेन में बैठते वक्त गले लगाना
विदा की शुरुआत का क्षण होता है
अपने सारे सामान के साथ
कैसे तो निकल पड़ते हैं ये पंछी की तरह

सिग्नल होते ही
ट्रेन की धड़धड़ाहट के साथ
हृदय की धड़कन मिलाती है लय
सारा वक्त चला जाता है उसी के साथ
और रह जाते हैं हम अकेले

डिब्बे के दरवाजे पर
एक हाथ हिलता रहता है विदा में
जब तक वह लौटेगा नहीं
वह हाथ स्टेशन की उदास हवा में
ऐसे ही हिलता दिखाई देता रहेगा मुझे ।



चित्र:के रवीन्द्र

कमीज़
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एक ही कमीज़ को वह बार-बार पहनता
ऐसा नहीं कि उसके पास और नहीं थी
दरअसल उसे वह बहुत लुभावनी लगती
उसे लगता कि इसमें वह आकर्षक लगता है
वह उसका आदी हो गया

दूसरी खूँटी पर टँगी रहतीं
हवा के झोंकों से आती हरकत में
पर वह उनको नजरअंदाज कर देता

दोस्त कहते जरा बदल लिया कर
हो सकता है दूसरी कुछ ज्यादा अच्छी लगे
हो सकता है वे अपनी खूबियाँ इसकी तरह
चिल्लाकर नहीं कहती हों
फिर इसे बार-बार पहनने से तुम्हारी पहचान
और औकात इसके नीचे दबकर रह गयी है
अब तो यह भी कहा जाने लगा है
लो आ गयी वह कमीज़

पर उसने किसी की एक न मानी
कमीज़ को गुमान हुआ
वह संकुचित हुई
रंग उड़ा और भीतर कुछ ऐसे नुकीले रेशे निकले
वह उसे अंदर ही अंदर खाने लगी
अब उसके आराम और रात दिन के चैन
पर कमीज़ कफ़न की तरह थी
वह एक कफ़नपसंद आदमी में तब्दील हो गया

खूँटी पर टँगी कमीज़ें सदमे में हैं
दो मिनट के मौन के बजाय
अनंत मौन में चली गयी
और समय हाहाकार से बाहर निकल गया है।


तुम्हारा अनुवाद
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तुम एक भाषा हो
जिसे मुझे सीखने समझने में बहुत वक्त लगा
यों कहें कि अरसा लगा

बहुत विचित्र है व्याकरण
एक वाक्य का अर्थ एक समय से दूसरे समय में बदल जाता है

कुछ शब्द बिलकुल चांद की तरह है तुम्हारी भाषा में
मेरे उच्चारण करते-करते
वाक्य में स्थान और ध्वनि बदल जाती है

एक अल्पविराम लंबी प्रतीक्षा के बाद
पूर्णविराम में बदल जाता है
और कर्म क्रिया में कब बदल जाता है
यह समझते-समझते विषय समाप्त हो जाता
और सारी व्याख्याएँ निरर्थक हो जाती है

तुम्हारी आकृति के भीतर एक उजास होता है
मैं उसे छूता हूँ और अंधेरा फैल जाता है
और निरक्षर की तरह देखता रहता हूँ तुम्हारी और

दरअसल अनुवाद करना चाहता हूँ मैं
तुम्हारा अपनी भाषा में
लेकिन पूरा अनुवाद करने के बाद
पढ़ नहीं पाता
क्योंकि तब तक मेरी अपनी भाषा भी अपना अर्थ खो देती है।


उपवास
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जब मनुष्य डार्विन के कहे अनुसार
पृथ्वी पर आया
तो फाकाकशी में उपवास किया
फल और पत्तियों के भरोसे रहा
तब भी उपवास में रहा

पहली बार उसने हथियार बनाया
और उसका उपवास टूटा
किसी के पास हथियार होना
और उपवास में रहना एक साथ कैसे हो सकता है भला
यह कला भी उसने बहुत बाद में ईजाद की

जब उसने खेत बनाये
पसीना बहाया और अन्न उपजा
तब खेती माता को शीश नवाया
अन्न को पूजा तब उपवास किया

हमारे पूर्वज किसान और वनवासी ही थे
वे जब धरती पर दुःख आया तो रोये
उन्होंने अपने बच्चों को
दुःख से लड़ना सिखाया
इसी अभ्यास में एक बार फिर उपवास किया

पहली बार बच्चा माँ से रूठा
और उसने प्रतिरोध में उपवास किया

पानी, आग और हवा ने
उनका रास्ता रोका तो वे नतमस्तक हुए
उनको देवता मानकर पूजा
और उनके लिए फिर उपवास किया
राजा पैदा हुए
तो उनके लिए भी उपवास किया

जब दुनिया बड़ी हुई तो
सबका पेट भरा
फसलें खराब हुई
खाने भर को नहीं मिला
तो पूरे परिवार के साथ उपवास किया

उपवास करने की कला को
उन्होंने ही विकसित किया
कला धीरे-धीरे आदत में तब्दील हुई
फिर भी शिकायत नहीं की
उपवास उपवास और उपवास किया

लाल बहादुर जानते थे उपवास के मर्म को
गांधी ने उपवास किये आज़ादी के लिए
शर्मिला इरोम ने लंबा उपवास किया
इन सबने अपने लिए नहीं
बहुजन हिताय उपवास किया

जब राजा की गोलियों से मारे गए
तब पहली बार उन्होंने उपवास करने से मना किया
हिंसा का जवाब उसी भाषा में दिया
राजनीति को राजनीति की तरह समझा और इस्तेमाल किया

पहली बार उन्होंने जाना कि
राजा की नींद हराम होती है
तो वह उपवास करता है
यह भी जाना कि असंवेदनशील वह
संवेदना के हथियार का इस्तेमाल
बहुत चालाकी से उनके ही खिलाफ करता है।


प्राचीन रास्ता
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एक रास्ता हूँ प्राचीन
मैं खुलता हूँ एक पुराने दरवाजे से
मुझसे गुजरता है इतिहास
बहुत सारे पत्थर बिछे हैं देह पर
यह बोझ सदियों की पराधीनता जितना

ठुकें हैं कीले आज तक दरवाजों की आत्मा पर
वर्षों पुराना दर्द आज भी रिसता है
लोहे पर जंग का थक्का खूबसूरत आकर ले चूका
इनके ख्वाबों में आज भी घोड़े की हिनहिनाहट ठुकीं है नाल की तरह

सन्नाटा बुनता है कभी भय और कभी उत्सुकता
जाने का मन होता है उस समय में
कि तभी राजा के चेहरे से डर जाता हूँ

राजा निकलता रहा यहाँ
बिना अपने पैरों के
सैनिकों और चाकरों के कदम से
थरथराता रहा मैं और सुगम हुआ राजा के लिए
अब सैलानियों के आलावा आता नहीं यहाँ कोई
बस उनके कोलाहल और ख़ुशी के पल
बूटों से छिले बदन पर लगा जाते हैं मरहम

लोकतन्त्र का राजा भी सुना है आजकल
ज़मीन पर नहीं चलता
और हवा में चलने वाले लोग होते है ख़तरनाक
यह भोगा है मैंने
इसके बहुत अनुयायी है शायद
जो धड़धड़ाते हुए आते हैं और रौंद देते हैं सारी मानवता

राजा कोई भी हो साहेब ऐसे ही होते हैं
सुना है यह इतिहास बदलने
और दुरुस्त करने में बताता है अपने को माहिर
यह सुनकर ही मेरी रूह काँप जाती है ।


चित्र: के रवीन्द्र


धातु
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यह पुरातन घड़ा
किस धातु से बना होगा

जो भी हो मिट्टी से निकला होगा
मिट्टी के बिना कुछ भी संभव नहीं
इसकी मिट्टी भी
अपनी ही मिट्टी से बने
किसी मज़दूर ने निकाली होगी

कारीगर की भी कोई मिट्टी रही होगी
यहाँ तक आते-आते कई परतें
जमी होगी मिट्टी की

दरअसल जिसके लिए बनाया होगा
वह भी होगा तो मिट्टी का ही मानुष
पर वह सत्ता के घोल से
धातु का नया नमूना होगा
जिसने सबकी मिट्टी खराब की।


हार
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आधा चाँद एक नाव है
जो रात की नदी में तैरता रहता है

रात की नदी गहरी काली है
चाँद उसमें दूध का ठेला लगाता है
ठेला एक घुमावदार सड़क पर लुढ़कता है

एक बच्चा उसके पीछे भागता है
ठेले पर एक बुढ़िया
सूत कातने से ऊबकर
दूध फेंट रही है

बच्चा पिता से चाँद के ठेले से दूध माँगता है
पिता हार जाता है
चाँद से
ठेले से
बुढ़िया से
फेंटे जा रहे दूध से

जहाँ घुमावदार सड़क खत्म होती है
चाँद पानी पर फिर से नाव की तरह तैरता है
पिता
पानी से
नाव से भी हार जाता है

पिता पीछे रह गए अपने बच्चे को
स्कूल में ढूँढ़ता है
उसे अपना बच्चा वहाँ बेजान मिलता है
पिता अपना सब कुछ हार जाता है।
०००


सम्पर्क: 12-13, मार्तंड बाग़,
तारानी कॉलोनी, देवास ।
(म.प्र.) 455001
ई-मेल: bahadur.patel@gmail.com








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