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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 अक्टूबर, 2017


सीमा व्यास की कहानी: महंगा सौदा


सीमा व्यास:   लम्बे समय से लेखन में सक्रिय हैं। विभिन्न विषय पर  अनेक लेख प्रकाशित।    ' ' क्षितिज की ओर ' कहानी संग्रह प्रकाशित। अनेक कहानी आकाशवाणी से प्रसारित।सोद्देष्य साहित्य की 42 पुस्तिकाओं का प्रकाशन। तीन पटकथाओं पर लघु फिल्मों का निर्माण। फिल्म्स डिविजन मुंबई हेतु राई लोकनृत्य पर पटकथा लेखन।
किशोर-किशोरियों हेतु विशेष लेखन। सिंहस्थ पर जानकारी हेतु फिल्म का पटकथा लेखन। दूरदर्शन हेतु नुक्कड़ नाटक की पटकथा लेखन। राष्ट्रीय किसान चेनल पर प्रसारित धारावाहिक की 52 कड़ियों में सहलेखक के रूप में कार्य। एकाधिक पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित।



                                     महंगा सौदा
                                                             
 सीमा व्यास

टुंडा हलवाई अपना कोहनी तक कटा दांया हाथ बांई हथेली पर घीसते हुए सुबह-सुबह बद्री सब्जीवाले के दरवाजे पर खड़ा होकर गिड़गिड़ा रहा था। मैले कुचैले कपड़े, छितरे बाल,बढ़ी दाढ़ी और पैरों में बदरंग सी स्लीपर। चेहरे पर विवशता के ऐसे भाव मानो ईश्वर से आखिरी मन्नत पूरी करने की आस लगाए हो।  प्रायः सीना तानकर चलनेवाला आदमी भी गरज पड़ने पर कमर और स्वर को झुकाकर ही पेश आता है। टुंडा भी बद्री के सामने गुहार लगाते हुए बोला,’ बस्स! एक आखिरी बार माफ कर दे बदरी भाई मेरे छोरों को। अब कभी जो भूल से भी तेरी छोरियों को छेड़ा तो मां कसम पहले मैं सौ जूते लगाऊंगा, फिर तेरे पास भेजूंगा। बस्स ! इस बार रहम खा ले मेरे भाई। तू जानता है पुलिस ले गई तो जाने क्या गत करेगी इन बिन मां के लौंडों की। जमानत तक के पैसे नहीं हैं मेरे पास। अब तो कभी मुंह से तेरी छोरियों का नाम नहीं निकालेंगे दोनों, सच्ची। बोल, समझा लेगा ना छोरियों को ?’
पूरी ताकत लगा के गिड़गिड़ा रहा था टुंडा हलवाई। नाम तो अब तक रतन हलवाई था टुंडा का। पर दो साल पहले एक दिन सेव छानते समय झारा बीच में से टूट गया और खौलते तेल में रतन का हाथ भी तला गया। डॉक्टर हाथ न काटते तो जान पर बन आती। हाथ कटते ही रतन की पहचान टुंडे के रूप में हो गई। उसका नाम भी नाम टुंडा हलवाई हो गया।
शायद हाथ के साथ किस्मत भी आधी हो गई थी रतन की। नाज-नखरों से रहने की आदी उसकी पत्नी को जब आमदनी का जरिया नजर नहीं आया तो वह जवान होते दो लड़कों को छोड़ किसी और के साथ चली गई। तबसे दोनों छोरे आवारा सांड की तरह बस्ती में इधर-उधर मुंह मारते फिरते हैं। कभी चोरी-चमारी करते तो कभी लड़कियां छेड़ते। दो दिन पहले स्कूल से आ रही बद्री की लड़कियों को कट मारकर निकले। उनकी ओर देखकर हवा में चुम्मी दी। और तो और फिकरे कसते हुए छोटीवाली कजरी की चुन्नी खींचकर ले गए। जब बड़ी मंजरी ने ललकारते हुए पुलिस में शिकायत करने की धमकी दी तो चुन्नी फेंककर भाग गए। बात यहीं खत्म नहीं हुई। शाम को मंजरी दूध लेकर लौट रही थी तो दोनों उसकी ओर देख कर हंसे,सीटी बजाई। तब मंजरी ने फिर उसे पुलिस में शिकायत करने की धमकी दी। लड़की की हिम्मत देख आसपास की दुकानवालेे भी मंजरी के साथ बोलने लगे। मुंह से मुंह होते हुए पुलिस में शिकायत करने की खबर टुंडा तक भी पहंची। उसी धमकी से घबराकर टुंडा आज सुबह से बद्री के पास गिड़गिड़ा रहा था। बस्स ! एक आखरी बार माफ कर दे मेरे छोरों को।


टुंडा की याचना को नजर अंदाज कर बद्री ताजी सब्जियों को करीने से ठेले पर सजा रहा था जो उसकी पत्नी गीता मुह अंधेरे जाकर मंडी से लेकर आई थी। पहले ठेले पर पानी छींटकर उसे गीला किया। फिर टाट को गीला कर गिलकी रखी, उसके पास करेले। बड़े नीचे, छोटे ऊपर। उससेे सटाकर गीले टाट के टुकडे पर पानी छिड़ककर छरहरी भिंडी जमाई। फिर लाल टमाटर की ढेरी लगा दी। हरे कच्च पालक और धनिए को गीले टाट में लपेट दिया। चौलाई के पास पानी छिड़ककर केरी जमाते हुए अब तक चुपचाप सुन रहा बद्री बोला, ’देख टुंडा, इसकूल जाती हैं मेरी छोरियां। गलत के खिलाफ कदम उठाना वहीं से सीखीं हैं। और उस सीख को उनकी मां गीता ने पक्का कर दिया है। उन्हें रोकना मेरे बस का नहीं। पहले ही अपने छोरों को संभाल लेता तो यों दया की भीख नहीं मांगनी पड़ती। आए दिन का नाटक है उनका। कब तक सहेंगी छोरियां ? मैं तो इस मामले में बीच में न बोलूं तो ही ठीक है।’
बद्री ने टका सा जवाब दिया तो टुंडा का कलेजा कांप उठा। क्षण भर में थाने में बंद छोरों की तस्वीर नजर में घूम गई। छोरे बंद हो गए तो उसकी फजीहत हो जाएगी। कौन हाथ-पैर दबाएगा और कौन पाखाने का डिब्बा भरेगा ? अभी तो जोड़-जुगाड़ से पेट भर देते हैं उसका। फिर तो एक जून रोटी के लाले पड़ जाएंगे। धरती में नजरें गड़ाए टुंडा सोच रहा था कि तभी देहरी का पर्दा हटाकर सिर ढांकती हुई गीता निकली। भीतर से सारी बातचीत सुनती रही थी वो। उसने टुंडा की ओर देखना भी मुनासिब न समझा। खाने का डिब्बा और पानी की बोतल ठेले के नीचे लटकी पल्ली में डाल, मुंह पर साड़ी का पल्लू लगाते हुए बोली, ’घाम तेज होने लगा हेगा, पानी बराबर पीते रहना और टेम से रोटी खा लेना।’
बद्री के उत्तर देने से पहले ही टुंडा ने मौका लपक लिया और गीता की तारीफ करते हुए बोला, ’जे हरा रंग तो बहुत जंच रिया है भौजी। खिल रही हो बदरी भिया की हरी सब्जियों की तरह। वइसे सच कहूं भौजी, सौदा तो एक नंबर का लाती हो मंडी से। बोलती सी दिखे हैं सब सब्जियां। सच्ची !’
प्रशंसा से कौन नहीं पिघलता ? गीता भी दरवाजे पर जरा रुककर टुंडा को जवाब देने लगी ’उसूल का सौदा होता हेगा मेरा, इसीलिए महंगा पड़ता है। ' दूसरे ही पल तेवर बदलते हुए बोली 'मेरे से मत उलझना। बहुत महंगा सौदा पड़ेगा। ‘ कम पढ़ी-लिखी गीता को जीवन का ज्ञान किताबों से ज्यादा था।
’बदरी बड़ा किस्मतवाला हे भौजी। पीलिया बिगड़ने के बाद तो उसे भोत सहारा रहा तुम्हारा। साच्छात लछमी साबित हुई तुम तो। बदरी की सेहत बना दी और साथ ही मंडी का काम भी अपने हाथ में ले लिया। एक मेरी किस्मत देखो। मुसीबत में लुगाई छोड़ गई और दो जुवान भूखे पेट मेरे भरोसे छोड़ दिए। ऊपर से हाथ एक। इससे अपना पेट भरूं कि उनका ?’ टुंडा गीता को बातों से रिझाने की उम्मीद से  दाढ़ी खुजाते हुए नीचे बैठ गया। नीम के पेड़ से पीठ टिकाते हुए उसने लोटा भर पानी की याचना भी कर दी। गीता पानी लाई तब तक बद्री अगरबत्ती की एक काड़ी नीम की जड़ में खोंसकर ईश अराधना कर ठेला आगे बढ़ाने लगा था। टुंडा को बैठते देख बद्री को उसकी नीयत समझ आ गई। वह ठेला आगे धकाते हुए बदरी को घूरते-घूरते गीता को भी हिदायत दे गया, ’चल अब तू भी निकल। काम निपटाकर छोरियों के स्कूल से आने केे पहले घर आ जाना।‘

हिदायत के बाद भी टुंडा वहां से नहीं खिसका। बड़ी देर तक समस्याओं की दुहाई देते, लाचारी जताते हुए टुंडा हलवाई गीता से यह मनवाने में कामयाब रहा कि वह दोनों लड़कियों को पुलिस में जाने से रोक लेगी। गीता तैयार हुई इस शर्त पर कि सिर्फ इस बार। अगली बार कोई हरकत की तो सजा दिलवाकर ही दम लेगी। बातों-बातों में भौजी यह बताने से भी न चूकी कि लाज पर आंच न आने देने की सीख उसी की दी हुई है।
टुंडा उठने को हुआ तो भूखे पर तरस खाकर गीता ने टोकनी में पड़ी दो बासी ककड़ियां उसके हाथ में थमा दी। टुंडा ने सोचा, बहुत चिंता है इसे मेरे पेट की। ककड़ियां हाथ में थामे वह फिर नीम से टिक गया। एक ककड़ी के सिरे को मुंह से काटकर जमीन पर थूकते हुए बोला, ’भौजी, मेरी मानो तो मंजरी के हाथ पीले कर दो इस साल। वैसे भी पढ़-लिख तो ली है। अच्छा घर वर मिल जाएगा। कहो तो बताऊं लड़का ?’
गीता ने इतनी देर में टुंडा के गिलास में लोटे से फिर पानी डाल दिया। विवाह योग्य लड़की की मां के चेहरे पर अच्छे वर की बात सुनते ही यकायक चमक सी आ जाती है। हुलसकर पूछा, ’कोई अच्छा लड़का हेगा निगाह में ?’ गीता बहुत उम्मीद से टुंडा के चेहरे को पढ़ने लगी। उसने मंुह आसमान की ओर करके ऊपर से धार बनाते हुए पूरा लोटा गटागट भीतर उतारा। फिर आस्तीन से मुंह पोंछते हुए कहा, ’ यूं तो मेरी ससुराल तरफ से रिस्ता है लड़के से। पर लुगाई के जाने के बाद मेरी बातचीत नी के बरोबर है। लड़का पढ़ा है, घर बार भी अच्छा ही है। दुकान है, समोसे, ठंडा बेचता है।’
’अरे, तब तो अच्छा हेगा। भोत कमाई हो जाती हेगी ठंडे की दुकान में। तो बात करके देखो न ?’ गीता ने उतावलेपन से कहा।
एक पैर की स्लीपर को वह लगातार बाएं से दाएं, दाएं से बाएं घिसकर अर्धचंद्राकार सा बनाता जा रहा था। जैसे मन में कुछ चल रहा हो। कुछ देर सोचने के बाद वह बोला ’असल बात ये हे भौजी कि बात मैं नी करूंगा। हां, उसके भाई का नंबर दे दूंगा। घर पे रक्खा है। तुम बात कर लेना। कह देना खबर लगी थी कहीं से।’ सलाह देते हुए टुंडा की निगाहें धरती पर गड़ी थीं मानो कुछ ढूंढ रही हों। गीता तो मन ही मन लड़के और उसके परिवार के बारे में सोचने लगी थी। एक ठंडी सांस लेकर उठते हुए टुंडा बोला, ’तो घर आकर नंबर ले जाना लड़के के भाई का।’ फिर दाएं-बाएं देखकर बोला, ’तो कब ले जाओगी ?’
’बस, अभी साड़ी की आखिरी किस्त देनी हेगी कोनेवाली को। वो दे के आती हूं घर तरफ। तबी दे देना नंबर। हाथ के हाथ बात बी कर लूंगी।’ गीता घर की सांकल लगाते हुए बोली। गीता के हाथ इतनी तेजी से चलने लगे मानो ब्याह की बात पक्की हो रही हो। तपते सूरज की धूप से नहीं ब्याह की बात के उत्साह से उसका चेहरा लाल हो रहा था और टुंडा इसे बखूबी पढ़ रहा था।
साड़ी की किश्त देकर लौटती गीता टुंडा के दरवाजे पर ही रूक गई। शुभ काम में देरी की आदत जो नहीं उसकी। साड़ी के पल्लू से मुंह का पसीना पोंछा। हाथ से ही बाल संवारते हुए सिर ढक लिया। मानो अब पूरी तरह तैयार हो बेटी के ब्याह की बात के लिए। फिर बाहर से ही लड़के का नाम लेकर आवाज दी। मुन्ना..... ओ मुन्ना । एक बार ... दो बार। पहले तो कोई आवाज नहीं आई। फिर भीतर से खटिया पर लेटे टुंडा ने लड़के का नाम लेकर कहा, ’मुन्ना, देख तो जरा ... भौजाई होगी.... भीतर ही भेज दे।’

आवाज तो आई पर मुन्ना बाहर नहीं आया। मुन्ना की उपस्थिति से आश्वस्त गीता दरवाजा ठेलती हुई आप ही भीतर चली गई। बाहर धूप से भीतर आई गीता की आंखें चुंधिया रही थीं। एकदम से भीतर आई तो अंधेरा ही नजर आ रहा था। भीतर चरर मरर चलते पंखे में खटिया पर लेटा टुंडा उसे देखते ही मुस्कुराते हुए खड़ा हो गया। आंख में रोशनी पड़ते ही गीता ने देखा, भीतर  टुंडा के अलावा कोई नहीं था। औरत की निगाह को गलत का अंदेशा भांपते देर नहीं लगती। वह मुन्ना के बारे में पूछती हुई वापस पलटकर दरवाजे की ओर जाने लगी । तभी पीछे से टुंडा ने बांए हाथ से उसके ब्लाउज को मुटठी में पकड़ना चाहा। गीता इस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार न थी। फिर भी उसने बिजली की सी तेजी से उसकेे हाथ को झटक दिया। पलटकर उसके एकमात्र बाएं हाथ को मोड़ते हुए बोली, ’अपने इस हाथ की तरह कमजोर समझ रक्खा हेगा क्या औरत जात को ? जैसा बाप वैसे लड़के। मेरी छोरियों ने तो नहीं की पर अब मैं तेरी सिकायत करने में पल भर देर नहीं करूंगी। अब देखती हूं कौन बचाता हेगा तुझे और तेरे लड़कों को। मेरे साथ चालबाजी कर रहा था ? बहुत महंगा पड़ेगा यह सौदा ... बहुत महंगा।’ गीता टुंडा को खींचते हुए दरवाजे तक ले आई। टुंडा हतप्रभ सा दुर्गा रूप में गीता को देखकर भरी गर्मी में थर-थर कांपने लगा। पलभर में पासा पलट गया था। लड़कों को बचाने चला टुंडा खुद फंस गया था।
टुंडा को ऐसी उम्मीद नहीं थी। वह घबरा गया। गीता ताकत से चिल्लाती हुई टुंडा की झोपड़ी से निकली। इतनी जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि बस्ती के तमाम लोग इकट्ठा हो गए। ‘पकड़ो-पकड़ो इस नीच को। मेरी लाज पर हाथ डाल रहा था बेशरम। कर दो इसको पुलिस के हवाले। सुबे लड़कों की दया की भीख मांगने वाला मेरी इज्जत पे हाथ डालने चला था। अब तो छोरों के साथ तेरी बी शिकायत करनी हेगी। आज... अब्बी। मैं जाउंगी पुलिस थाने .... कर दो सबको पुलिस के हवाले.....डंडे खाने लायक ही हैं ये....छोड़ना मत ...। जाओ.... बुलाओ कोई पुलिस को..... बंद करवाना हेगा.... इन दरिंदों को......
गीता बदहवास सी चिल्ला रही थी। बस्ती के लोगों का झुंड तेजी से झोपड़ी के भीतर घुसा और टुंडा को लात-घूंसों से पीटते हुए बाहर लाया। कुछ लड़के टुंडा को पकड़कर पुलिस थाने की ओर ले जा रहे थे। चिल्ला-चिल्लाकर लाल हो गई गीता ने जाते हुए टुंडा को देखकर कहा, ‘बोली थी न मैं, मेरा सौदा बहुत महंगा होता हेगा। बोली थी न मैं...
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सभी चित्र: अवधेश वाजपेई


सम्पर्क  562, ए एम, स्कीम नं. 140 । पिपलियाहाना चौराहा मास्क हास्पीटल के सामने इंदौर, म. प्र. 

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