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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अक्तूबर, 2017


कुंअर रवीन्द्र की कविताएं


कुंअर रवीन्द्र: एक सजग कवि और चित्रकार के रूप में समान रूप से सक्रिय हैं।  हिंदी के अलावा अंग्रेजी, फिलिपिनो , तुर्की  , मराठी, उर्दू, बंगाली ,नेपाली , पंजाबी, राजस्थानी ,मैथिली , भोजपुरी, उडिया पुस्तकों /पत्रिकाओं के आवरण के साथ देश की व्यावसायिक-अव्यवसायिक पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों के मुखपृष्ठों पर अब तक १८,००० (अठारह  हजार) से अधिक  रेखांकन व चित्रप्रकाशित हो चुके हैं।

कुंअर रवीन्द्र
समकालीन कविताओं, लघु कथाओं पर आपके पोस्टरों की कई प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी है ।

महत्वपूर्ण पत्र – पत्रिकाओं, ई पत्रिकाओं/ ब्लॉग्स में कविताएं प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित,  कुछ कविताएं, अंगरेजी ,तुर्की ,नेपाली पंजाबी , बँगला, राजस्थानी    व मराठी  में अनुदित हो प्रकाशित हुईं है।  " रंग जो छूट गया था " कविता संग्रह २०१५ में  प्रकाशित है।



कविताएं


1..

 मेरे सामने है

एक दृश्य

या उसका चेहरा



बेहद कोमल रंगों से भरा

मगर

एक लम्बी अंतहीन दूरी

और सन्नाटे की काली लकीर भी

झुर्रियों की तरह खिची हुई है



मेरे सामने है

उसका चेहरा

या एक दृश्य



छुअन से लजाई

एक किनारे सिमटी ,बहती नदी

मिलन की प्रफुल्लता से भरा

क्षितिज

और ..

नई सृष्टि की कल्पना में

अपलक आकाशगंगा को निहारता

क्रौंच का एक जोड़ा भी



मेरे सामने है

एक चेहरा एक दृश्य

और ..

पृथ्वी से  आकाशगंगा की दूरी
००


2..


परिदृश्य में

तुम्हारा होना या न होना

मायने नहीं रखता



सारी संवेदनाओं को

दरकिनार करते हुए

मैं अब भी महसूस करता हूँ

तुम्हारी ऊष्मा

तुम्हारी छुअन

अब भी मेरे सामने है

मुझमें कुछ तलाशती

तुम्हारी पनीली आँखें

तुम्हारी वह अंतिम मुस्कराहट

और

उसके पीछे छिपी पीड़ा

जिससे तुम मुक्त  हो चुके हो

नहीं भूल सकता कभी



नही भूल सकता

फिर आना ,आओगे न !

कह  कर तुम्हारा चला जाना
००


चित्र: अवधेश वाजपेई


3..



बचे हुए रंगों में से
किसी एक रंग पर
उंगली रखने से डरता हूँ

में लाल, नीला केसरिया या हरा
नहीं होना चाहता

में इंद्रधनुष होना चाहता हूँ
धरती के इस छोर से
उस छोर तक फैला हुआ
००

4..

मैंने जब भी
फ़क्क सफ़ेद कागज़ पर लिखा
प्रेम !
कागज़ धूसर हो गया
लिखा , दुःख
कागज़ हरिया गया
००


आदमी तो ठीक

कागज़ का रंग बदलना

मेरी समझ से परे हैं
००


5..

मली हुई तंबाखू
होठ के नीचे दबाते हुए
उसने पूछा
अरे भाई ! लोकतंत्र का मतलब समझते हो ?
और सवाल ख़त्म होते ही
संसद की दीवार पर
पीक थूक दी

थोड़ी दूर पर
उसी दीवार को
टांग उठाये एक कुता भी गीला कर रहा था

लोकतंत्र का अर्थ
सदृश्य मेरे सामने था
००

6..

मैं जब भी सहज ढंग से
चुपचाप
बैठ जाता हूँ
वे मुझे हारा हुआ मानकर
खड़े हो जाते हैं

खड़े होने के बावजूद
वे थरथराते, कंपकपाते रहते है
इस भय से कि
कहीं यह चुपचाप बैठा आदमी
फिर से खड़ा तो नहीं हो जाएगा
क्योंकि वे जानते है
जिस दिन यह चुप रहने वाला आदमी
खड़ा हो जाएगा
सारी सत्ताएं,
सारी हवाई विचारधाराएँ
कुत्ते की उठी हुई टांग के नीचे होंगी

इसलिए वे जल्द से जल्द
झूठ के बीज बो देना चाहते हैं
००



चित्र: अवधेश वाजपेई

7..


जिस तरह
बनैले सूअर को
हांका लगा कर,
घेर कर मारा जाता है
वैसे ही
इस देश के जन
मारे जा रहे हैं,
और मारे जायेंगे.

हमें अपने दंतैल होने का भान
शायद नहीं है
जैसे शिकारियों से घिरा
एक बनैला , दंतैल सूअर
फाड़ देता है शेर का भी कलेजा
वैसे ही
इन शिकारियों के बीच
घिरे हुए तुम
बनैले सूअर क्यों नहीं बन सकते
००

8..
जब से हम सभ्य हुए
बस तब से ही
ढूंढ रहा हूँ
उस आदमी को
जो अपने बीच कही
किसी शहर किसी गाँव में
गुम हो गया है
बाज़ार में
००

चित्र: अवधेश वाजपेई



9

अंततः मेरे बच्चे का आज निधन हो गया

जाति,धर्म,सम्प्रदाय और विचारधारा से लहुलुहान

भूख और प्यास से वह हार गया

मेरे आंसू उसे नहीं बचा सके

नहीं भर सके मेरे आंसू उसके घाव को

मेरे आंसू नहीं बुझा पाए उसकी प्यास



वत्स !

इस देश में रोज़ ही इस तरह मरने वाले बच्चों को

उनके माँ-बाप के आंसू नहीं बचा पाते

मरने वाले वे सब बेनाम होते हैं

इतिहास तो दूर

वर्तमान में भी कही उनका नाम दर्ज नहीं होता

मगर वत्स !

तुम्हारा तो कुर्सी पर बैठना, चांदी की थाली में भोजन करना,

चलना-फिरना सब तिथि और समय के साथ

शिलालेखों में दर्ज होता है



गीता ,क़ुरान या बन्दूक से अच्छे दिन नहीं आते

फिर भी हम रोते हुए अपने बच्चे के लिए

धोका देते हैं खुद को कि

अच्छे दिन आयेंगे

वत्स !

क्या तुम्हारा अध्यात्मवाद

सूखे कुओं को , सूखी नदियों को जल से भर सकता है ?

नहीं न

धन के लिए तुम्हारी वासना

भूमिपुत्रों का सिर्फ कत्लेआम कर सकती है



मगर हम अभी भी जीवित हैं वत्स !

प्रेम और शान्ति का गीत फुसफुसाते हुए

आंसुओं के साथ

अपने मरे हुए बच्चे की आत्मा की शान्ति के लिए
००

10

मैं चीख कर बोला
हम आज़ाद हैं
अपनी कनपटी पर टिकी हुई
पिस्तौल को छुपाते हुए

उसने कहा
हम आज़ाद हैं
अभी -अभी लुटी
अस्मत के दाग शरीर से मिटाते हुए

फिर सबने कहा एक स्वर में
हम आज़ाद हैं
और डूब मरे चुल्लू भर पानी में
शर्म से
००




संपर्क:
एफ-6, पी.डब्लू.डी कालोनी, [सूर्या अपार्टमेंट केसामने ] कटोरा तालाब, रायपुर (छत्तीसगढ़) 492001

ई-मेल
k.ravindrasingh@yahoo.com
मोबा .        09425522569

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