पंखुरी सिन्हा की कविताएं
पंखुरी सिन्हा: युवा लेखिका, दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, दो हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। कई संग्रहों में रचनाएं संकलित हैं, कई पुरस्कार जीत चुकी है--कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का २०१७ का पहला पुरस्कार,
राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, 'कोई भी दिन' , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला, 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान. इनकी कविताओं का मराठी, पंजाबी और नेपाली में अनुवाद हो चुका है.
कविताएं
दुश्मन की नई चाल
दुश्मन नया हो या पुराना
वह हमेशा ही होता है
कितना तो शातिर
कितनी और कैसी कैसी
होती हैं उसके पास
चालें, तरकीबें
किसिम किसिम के वह रचता है षड्यंत्र
वह कहाँ घेरेगा
हमें ? तुम्हें ?
जैसे ही दूरभाष आया
वह जा घुसा उसके तारों में
और आज वह जाने कितनी बड़ी
फ़ौज इकट्ठी किये है
हैकर्स की
वह पागल बना देता है
किस्म किस्म से हत्या कर
आपकी निजता की
लेकिन वह भिड़ता है अक्सर
उसी पुराने प्रिमिटिव तरीके से
राह चलते दबोचता है
कभी देह, कभी आज़ादी
कभी आवाज़
कभी नागरिकता
और कभी कभी पूरी जान
.................
फेमिनिज्म
देह का धंधा करने वाली औरतों
की सुरक्षा का जिम्मा भी सरकारी है
इसकी बदौलत अपनी ज़िंदगियाँ
चलाने वाली औरतों की स्थितियों को
बेहतर बनाने का आंदोलन
बौद्धिक जगत का बड़ा सरोकार
लेकिन समय का इतना दूषित हो जाना
बल्कि इतना विषाक्त
कि आम लड़कियों का जीना
अपने घर में बोलना
एकालाप, प्रलाप
विवाद, संवाद
वाद, प्रतिवाद
ही नहीं
केवल मिलना किसी से
मुमकिन है
किसी अजनबी से भी
यानी डेट पर जाने को ला दे
रंडी पने और वेश्यावृति के दायरे में
कहने का मतलब ये नहीं
कि जोड़ों को मिलाने वाली
भारतीय विवाह की वेबसाइट पर
निरंतर सेक्स चैट की मांग करते
भूख से बिलबिलाते हुए
इस देश के नौजवान ही
अकेले दिग्भर्मित हैं, लेकिन आखिर
वे किस मूल्य की ध्वजा लहरा रहे हैं?
जिनसे बार बार कहा जाता है
हम चुंबन तक की ध्वनि नहीं निकालना चाहते
वो बस बातें करना चाहते हैं इतनी
कभी ताल मिलाकर
आपके अभी अभी छपे नाटक से
जिसके छपने का आपने २ साल
किया हो इंतज़ार
कभी ताल मिलाकर
आपके पास पड़ोस से
जिमखाने और फुटपाथ से
कि बस आक्रोश बचा हो
उस मिठास की जगह
जहाँ अंकुर फूटा करता था आकर्षण का
१० वीं १२ वीं में एक लावा देख लिया था हमने
बिना देखे किसी ज्वालामुखी का विस्फोट
फेमिनिज्म तब तक स्वीकृत हो चुका था
पढ़े लिखे समाज में
और प्रेमी के आलिंगन में बंधती लड़कियां जानती थीं
ऐसा करना ही एक सूत्र में बंधना था
जिसे निभना था
बिना उच्चरित हुए खाम खाह
कसमों और वादों के
....................
राजधानी में रात के दस बजे
उस ढाबे पर कुछ अजब शक्लो सूरत के लोगों
का भले कभी दिखता है जमावड़ा
पुलिस वाले भी कुछ ज़रूरत से ज़्यादा दिखते हैं
लेकिन हो जाती है कुछ रौनक
कुछ चहल पहल देर रात तक
यानि सन्नाटा नहीं होता इस
घर को जाती सड़क पर
कभी कभी मजमा लगा होता है
चाउमीन और गार्लिक चिकन की बघार तले
मोटाये, अघाये कुत्तों का डेरा
धुत्त पड़े होते हैं वो फुटपाथ पर
जहाँ कहीं भी उसके पत्थर साबुत हैं
वहां ऊँची टेबल पर
केचप रखा है
नैपकिन के साथ मेन्यू कार्ड
बस चलने वाले को करना होता है
गड्ढों और गड्ढों की मिटटी का सामना
लोग सड़क पर अपनी गाड़ियां पार्क किये
भीतर बैठे भी खाते हैं
कुल मिलाकर
सड़क गुलज़ार हो जाती है
लेकिन, समय इतना ख़राब
और खतरनाक है
कि इस सड़क के एक मोड़ पहले
के सन्नाटे में
पीछे से आती हुई बाइक
जो कि दरअसल ग़लत साइड से आ रही होती है
खड़े कर सकती है
किसी भी लड़की के रोंगटे
सबसे ज़्यादा कर रहे हैं
बाइक सवार लड़कियों को छूकर
लगभग क्षण भर मुट्ठी में थाम कर
गुज़र जाने का कुकृत्य
किसी असह्य भूख
जानलेवा आक्रोश से अधिक
यह एक पुरातन जेंडर वार का
नया चेहरा है
और नित अधिक
हिंसक होती राजनैतिक लड़ाई की
सड़क पर उतरती घिनौनी शक्ल
लेकिन कुछ बात तो है
हिन्दुस्तान की सड़क पर गोधूलि वेला
और अचानक कहीं से प्रकट
गाओं की टोली देख
विद्युत् गति से कुत्तों का उछलना
सड़क के बीचो बीच खड़े हो
उस आवाज़ में भूकना
जो अब वह केवल जानवरों के लिए निकालता है
दुकान का यह पालतू कुत्ता
साथ दे रहा है
उस सिपाही का जो
दरअसल, ताली बजा बजा कर भगा रहा है
गायों को
यह देश का कोई भी मेट्रो हो सकता है
लेकिन, फिलहाल
राजधानी की सडकों पर गोमाता की राजनीति का
अधिक बोलबाला है
.......................
अन्दर
पीली सी एक उजास
आभा सी
चमक सी कुछ कुछ
आंधी से पहले की
ऐन पहले की
दो दिन पहले की
कुछ कुछ चुभती सी
मिच मिच चुभती सी
रौशनी केवल
और सनसनाहट ये
कि आने वाली है
आंधी
कुछ कुछ डरावनी
बवंडर
पता रौशनी
आगाह करती
सूरज जैसी
आँखें बंद
आँखें खुली
आँखें पानी, पानी
जेठ का सूरज
कि पूस का
हिम्मत हो कि नहीं
बादलों की चादर पार
गुनगुनी सी रौशनी कोई
कि बरस कर छटने वाले हैं बादल
या उड़ाकर ले जाएगी हवा
बयार, आंधी
भीतर हम
भीतर सब
मीठी सी थरथराहट
कि दरवाज़े किवाड़ पीटती हो आंधी
झमाझम
बरबस
बरक्स
बेताल हो हवा
उत्ताल हो हवा
पाताल हो हवा।
2012
बाहर
आंधी आने वाली है
मौसम विभाग नहीं
बस माँ की चेतावनी
कि ठीक से बंद नहीं हुई
खिड़की जो, खुल गयी है
छीटें बौछार, या कि शीशा टूट गया है
बीच आंधी में
सराबोर
और खाला जान का अचम्भा
कि तीन दिन से
आते, आते
आ ही गयी है
आंधी आखिर
गनीमत ये कि छत पर से
घडी, घडी कपडे उतारने की मानसूनी रस्म का मौसम
अभी आने वाला है
कोसों कोसों दूर मौसम विभाग की ख़बरों से
कोसी नदी की अमापी मुस्कराहट सी
……………………..
दिन आवारा
दिन आवारा,
दिन फक्कड़,
बिंदास,
दिन बंजारे,
दिन इकहरे,
दोहरे,
दिन अकेले,
दुकेले,
दिन साथ, साथ,
दिन पास, पास,
दिन करीब कहीं,
नज़दीक ही,
दिन पकड़ से दूर,
दिन दूर दूर,
दिन दूरी,
दिन डाल डाल,
दिन पात पात,
दिन बात बात,
दिन सुरीले,
दिन कँटीले,
दिन खामोश,
दिन ख़ामोशी,
दिन धुनों से भटकाव,
दिन बेज़ार,
दिन बेकार,
दिन बेरोजगार,
दिन बेगाने,
दिन भूखे,
दिन अखबारों के इश्तहार,
दिन खूबसूरत बत्तियों वाले कैफेज़ के आगे,
सजे मुलायम बिस्किट्स के कांच के शेल्फ,
दिन कुछ भी न खरीद पाने की नियति,
दिन अंतहीन सड़कें,
दिन सड़क बंद,
दिन रास्ता जाम,
दिन अदृश्य बाधाएं,
दिन कहीं और का युद्ध,
दिन किसी और की बातें,
दिन बहलाव,
दिन व्यतीत,
दिन उम्र,
दिन अगवा,
दिन क्षणिक,
दिन शाश्वत।
अगर हम साथ हंसें
अगर हम साथ हंसें
तो हमीं तय करेंगे
हमारी हंसी का रंग
हमीं तय करेंगे उसकी लय
ताल और गूँज
मुमकिन है
मेरी हंसी में मेरे आंसू भी शामिल हों
मैं प्रेम में हमेशा पहले रोती हूँ
बहन के साथ का प्रेम हो
अथवा बचपन की सहेली के साथ
वर्षों बाद मिलकर
देखो न
कितनी लड़ाई लड़ी गयी है
हरे जंगलों के वक्ष स्थल पर
स्पेन अथवा पुर्तगाल के दावानल हों
अथवा अपने बचे हुए जंगलों में
आग की लपट
जो हर सुगबुगाहट के बाद
हो जाती है बेसंभाल
कहते हैं
हर दावानल लगाया हुआ होता है
केवल तेल के कुँए में
लगाई नहीं जाती आग
और हालाकि दुनिया के सभी बड़े
खदानों के इर्द गिर्द फैली है
पहचानी जा सकने वाली एक लड़ाई
वह हरियाली को उजाड़ने से ही
शुरू हुई है
सडकों के भी युद्ध स्थल में
तब्दील होने की स्थिति
बहरहाल, इस कविता को एक प्रेम कविता होना था
जिसे फिर से लपेट लिया है
युद्ध ने
सड़क पर चलते
आज़ाद, बेख़ौफ़ कदमों को
लपेट लेने की तरह
लेकिन हम जो लगभग साथ हँस पड़े थे
और कल्पना भी कर ली थी
हँसी के बदलते रंगों की
उलझकर क्यों रह गए
सूर्योदय और सूर्यास्त के
अंतहीन रंगीन जाल में?
रंगों की तासीर निकल गयी
हमारी हथेलियों, हमारे फूलों से
प्रेम की आग के ठंढे हो जाने तक
हम बुझाते रहे औरों के जंगलों की आग
............................
अगर हम साथ हँसे
अगर हम साथ हँसे
तो ज़रूर गूँजेगी
हमारी हँसी पहाड़ों में
जहाँ कहीं भी उनकी कंदराएं शेष होंगी
उनमें भी सुनाई देगी
हँसी हमारी
और तैरती रहेगी
हर उस नदी के पानी पर
जिसके घाट पर खड़े होकर
हमनें प्रार्थनाएं कीं
चाँद और सूरज से
शुक्र और शनि से
जाने किन किन तारों से
आसमान के सारे रंगों की तासीर को गढ़ा हमने शब्दों में
हम प्रकृति की संतान थे
घास हमारा बिस्तर
हमारी मेज़ और कुर्सी थी
इससे पहले कि वह पूरी तरह
विस्थापित हो गयी
कोलतार और कंक्रीट से
फिर भी
हम नहीं हंस रहे थे
किसी के भी ऊपर
न बड़े व्यापारी
न सूदखोर बैंक
न रिश्वत खोर सड़क विभाग पर
हम हँस रहे थे
क्योंकि मनों धूल से नहाया हुआ
एक एक अमलतास
और गुलमोहर का पेड़
शेष बचा है
हमारे इस कभी के हरे भरे पैतृक शहर में
.............................
हम जब भी साथ हसेंगे
हम जब भी साथ हसेंगे
जब कभी साथ हसेंगे
उसमें उसके भी हसने की अनुगूंज होगी
चिड़िया अपने चोंच में भर लेगी
कहकहे हमारे
और गाएगी बिना शब्दों वाले गीत
हमारी हंसी के तार
चमकेंगे उड़ती तितलियों के पंखों में
और बहुत अँधेरी अमावस सी रातों में भी
चमकेंगे हमारी हंसी के नुकीले कोने
हमारी हंसी का कोई भैरवी राग
उठेगा किसी सोयी हुई झील की सतह से
और खो जाएगा पहाड़ी के उस पार
किसी अप्राप्य घाटी में
और लौटेगा बार बार
जब वे हँसेंगे
हमारे जैसे और प्रेमी
और नरसंहारों के कुछ थमने के बाद
किसी उजले अंतराल में हसेगा ईश्वर ..
.....
हम जहाँ भी साथ हंसें
हम जहाँ भी साथ हंसें
वसंत गुनगुनाएगा
दूर दूर तक
दूर जंगल पार की हवा में
उड़ेगा हमारे वसंत का पीला पराग
और हमारी खिलखिलाहट की धुन में
दौड़ेंगे हिरणों के बच्चे
खरगोश बेख़ौफ़ सोयेंगे
हमारी हंसी में
और पक्षियों के
प्रेमालाप में नहीं आएगा
कोई भी विघ्न
हमारे भीतर का सारा सोना
पिघलकर जमने लगेगा
उनके मसूढ़ों
उनकी शिराओं में
और मुमकिन है
तब वे अगवा करना छोड़ दें
हमारे बच्चे...................
००
पंखुरी सिन्हा: युवा लेखिका, दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, दो हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। कई संग्रहों में रचनाएं संकलित हैं, कई पुरस्कार जीत चुकी है--कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का २०१७ का पहला पुरस्कार,
पंखुरी सिन्हा |
कविताएं
दुश्मन की नई चाल
दुश्मन नया हो या पुराना
वह हमेशा ही होता है
कितना तो शातिर
कितनी और कैसी कैसी
होती हैं उसके पास
चालें, तरकीबें
किसिम किसिम के वह रचता है षड्यंत्र
वह कहाँ घेरेगा
हमें ? तुम्हें ?
जैसे ही दूरभाष आया
वह जा घुसा उसके तारों में
और आज वह जाने कितनी बड़ी
फ़ौज इकट्ठी किये है
हैकर्स की
वह पागल बना देता है
किस्म किस्म से हत्या कर
आपकी निजता की
लेकिन वह भिड़ता है अक्सर
उसी पुराने प्रिमिटिव तरीके से
राह चलते दबोचता है
कभी देह, कभी आज़ादी
कभी आवाज़
कभी नागरिकता
और कभी कभी पूरी जान
.................
फेमिनिज्म
देह का धंधा करने वाली औरतों
की सुरक्षा का जिम्मा भी सरकारी है
इसकी बदौलत अपनी ज़िंदगियाँ
चलाने वाली औरतों की स्थितियों को
बेहतर बनाने का आंदोलन
बौद्धिक जगत का बड़ा सरोकार
लेकिन समय का इतना दूषित हो जाना
बल्कि इतना विषाक्त
कि आम लड़कियों का जीना
अपने घर में बोलना
एकालाप, प्रलाप
विवाद, संवाद
वाद, प्रतिवाद
ही नहीं
केवल मिलना किसी से
मुमकिन है
किसी अजनबी से भी
यानी डेट पर जाने को ला दे
रंडी पने और वेश्यावृति के दायरे में
कहने का मतलब ये नहीं
कि जोड़ों को मिलाने वाली
भारतीय विवाह की वेबसाइट पर
निरंतर सेक्स चैट की मांग करते
भूख से बिलबिलाते हुए
इस देश के नौजवान ही
अकेले दिग्भर्मित हैं, लेकिन आखिर
वे किस मूल्य की ध्वजा लहरा रहे हैं?
जिनसे बार बार कहा जाता है
हम चुंबन तक की ध्वनि नहीं निकालना चाहते
वो बस बातें करना चाहते हैं इतनी
कभी ताल मिलाकर
आपके अभी अभी छपे नाटक से
जिसके छपने का आपने २ साल
किया हो इंतज़ार
कभी ताल मिलाकर
आपके पास पड़ोस से
जिमखाने और फुटपाथ से
कि बस आक्रोश बचा हो
उस मिठास की जगह
जहाँ अंकुर फूटा करता था आकर्षण का
१० वीं १२ वीं में एक लावा देख लिया था हमने
बिना देखे किसी ज्वालामुखी का विस्फोट
फेमिनिज्म तब तक स्वीकृत हो चुका था
पढ़े लिखे समाज में
और प्रेमी के आलिंगन में बंधती लड़कियां जानती थीं
ऐसा करना ही एक सूत्र में बंधना था
जिसे निभना था
बिना उच्चरित हुए खाम खाह
कसमों और वादों के
....................
चित्र: अवधेश वाजपेई |
राजधानी में रात के दस बजे
उस ढाबे पर कुछ अजब शक्लो सूरत के लोगों
का भले कभी दिखता है जमावड़ा
पुलिस वाले भी कुछ ज़रूरत से ज़्यादा दिखते हैं
लेकिन हो जाती है कुछ रौनक
कुछ चहल पहल देर रात तक
यानि सन्नाटा नहीं होता इस
घर को जाती सड़क पर
कभी कभी मजमा लगा होता है
चाउमीन और गार्लिक चिकन की बघार तले
मोटाये, अघाये कुत्तों का डेरा
धुत्त पड़े होते हैं वो फुटपाथ पर
जहाँ कहीं भी उसके पत्थर साबुत हैं
वहां ऊँची टेबल पर
केचप रखा है
नैपकिन के साथ मेन्यू कार्ड
बस चलने वाले को करना होता है
गड्ढों और गड्ढों की मिटटी का सामना
लोग सड़क पर अपनी गाड़ियां पार्क किये
भीतर बैठे भी खाते हैं
कुल मिलाकर
सड़क गुलज़ार हो जाती है
लेकिन, समय इतना ख़राब
और खतरनाक है
कि इस सड़क के एक मोड़ पहले
के सन्नाटे में
पीछे से आती हुई बाइक
जो कि दरअसल ग़लत साइड से आ रही होती है
खड़े कर सकती है
किसी भी लड़की के रोंगटे
सबसे ज़्यादा कर रहे हैं
बाइक सवार लड़कियों को छूकर
लगभग क्षण भर मुट्ठी में थाम कर
गुज़र जाने का कुकृत्य
किसी असह्य भूख
जानलेवा आक्रोश से अधिक
यह एक पुरातन जेंडर वार का
नया चेहरा है
और नित अधिक
हिंसक होती राजनैतिक लड़ाई की
सड़क पर उतरती घिनौनी शक्ल
लेकिन कुछ बात तो है
हिन्दुस्तान की सड़क पर गोधूलि वेला
और अचानक कहीं से प्रकट
गाओं की टोली देख
विद्युत् गति से कुत्तों का उछलना
सड़क के बीचो बीच खड़े हो
उस आवाज़ में भूकना
जो अब वह केवल जानवरों के लिए निकालता है
दुकान का यह पालतू कुत्ता
साथ दे रहा है
उस सिपाही का जो
दरअसल, ताली बजा बजा कर भगा रहा है
गायों को
यह देश का कोई भी मेट्रो हो सकता है
लेकिन, फिलहाल
राजधानी की सडकों पर गोमाता की राजनीति का
अधिक बोलबाला है
.......................
अन्दर
पीली सी एक उजास
आभा सी
चमक सी कुछ कुछ
आंधी से पहले की
ऐन पहले की
दो दिन पहले की
कुछ कुछ चुभती सी
मिच मिच चुभती सी
रौशनी केवल
और सनसनाहट ये
कि आने वाली है
आंधी
कुछ कुछ डरावनी
बवंडर
पता रौशनी
आगाह करती
सूरज जैसी
आँखें बंद
आँखें खुली
आँखें पानी, पानी
जेठ का सूरज
कि पूस का
हिम्मत हो कि नहीं
बादलों की चादर पार
गुनगुनी सी रौशनी कोई
कि बरस कर छटने वाले हैं बादल
या उड़ाकर ले जाएगी हवा
बयार, आंधी
भीतर हम
भीतर सब
मीठी सी थरथराहट
कि दरवाज़े किवाड़ पीटती हो आंधी
झमाझम
बरबस
बरक्स
बेताल हो हवा
उत्ताल हो हवा
पाताल हो हवा।
2012
बाहर
आंधी आने वाली है
मौसम विभाग नहीं
बस माँ की चेतावनी
कि ठीक से बंद नहीं हुई
खिड़की जो, खुल गयी है
छीटें बौछार, या कि शीशा टूट गया है
बीच आंधी में
सराबोर
और खाला जान का अचम्भा
कि तीन दिन से
आते, आते
आ ही गयी है
आंधी आखिर
गनीमत ये कि छत पर से
घडी, घडी कपडे उतारने की मानसूनी रस्म का मौसम
अभी आने वाला है
कोसों कोसों दूर मौसम विभाग की ख़बरों से
कोसी नदी की अमापी मुस्कराहट सी
……………………..
दिन आवारा
दिन आवारा,
दिन फक्कड़,
बिंदास,
दिन बंजारे,
दिन इकहरे,
दोहरे,
दिन अकेले,
दुकेले,
दिन साथ, साथ,
दिन पास, पास,
दिन करीब कहीं,
नज़दीक ही,
दिन पकड़ से दूर,
दिन दूर दूर,
दिन दूरी,
दिन डाल डाल,
दिन पात पात,
दिन बात बात,
दिन सुरीले,
दिन कँटीले,
दिन खामोश,
दिन ख़ामोशी,
दिन धुनों से भटकाव,
दिन बेज़ार,
दिन बेकार,
दिन बेरोजगार,
दिन बेगाने,
दिन भूखे,
दिन अखबारों के इश्तहार,
दिन खूबसूरत बत्तियों वाले कैफेज़ के आगे,
सजे मुलायम बिस्किट्स के कांच के शेल्फ,
दिन कुछ भी न खरीद पाने की नियति,
दिन अंतहीन सड़कें,
दिन सड़क बंद,
दिन रास्ता जाम,
दिन अदृश्य बाधाएं,
दिन कहीं और का युद्ध,
दिन किसी और की बातें,
दिन बहलाव,
दिन व्यतीत,
दिन उम्र,
दिन अगवा,
दिन क्षणिक,
दिन शाश्वत।
चित्र: अवधेश वाजपेई |
अगर हम साथ हंसें
अगर हम साथ हंसें
तो हमीं तय करेंगे
हमारी हंसी का रंग
हमीं तय करेंगे उसकी लय
ताल और गूँज
मुमकिन है
मेरी हंसी में मेरे आंसू भी शामिल हों
मैं प्रेम में हमेशा पहले रोती हूँ
बहन के साथ का प्रेम हो
अथवा बचपन की सहेली के साथ
वर्षों बाद मिलकर
देखो न
कितनी लड़ाई लड़ी गयी है
हरे जंगलों के वक्ष स्थल पर
स्पेन अथवा पुर्तगाल के दावानल हों
अथवा अपने बचे हुए जंगलों में
आग की लपट
जो हर सुगबुगाहट के बाद
हो जाती है बेसंभाल
कहते हैं
हर दावानल लगाया हुआ होता है
केवल तेल के कुँए में
लगाई नहीं जाती आग
और हालाकि दुनिया के सभी बड़े
खदानों के इर्द गिर्द फैली है
पहचानी जा सकने वाली एक लड़ाई
वह हरियाली को उजाड़ने से ही
शुरू हुई है
सडकों के भी युद्ध स्थल में
तब्दील होने की स्थिति
बहरहाल, इस कविता को एक प्रेम कविता होना था
जिसे फिर से लपेट लिया है
युद्ध ने
सड़क पर चलते
आज़ाद, बेख़ौफ़ कदमों को
लपेट लेने की तरह
लेकिन हम जो लगभग साथ हँस पड़े थे
और कल्पना भी कर ली थी
हँसी के बदलते रंगों की
उलझकर क्यों रह गए
सूर्योदय और सूर्यास्त के
अंतहीन रंगीन जाल में?
रंगों की तासीर निकल गयी
हमारी हथेलियों, हमारे फूलों से
प्रेम की आग के ठंढे हो जाने तक
हम बुझाते रहे औरों के जंगलों की आग
............................
अगर हम साथ हँसे
अगर हम साथ हँसे
तो ज़रूर गूँजेगी
हमारी हँसी पहाड़ों में
जहाँ कहीं भी उनकी कंदराएं शेष होंगी
उनमें भी सुनाई देगी
हँसी हमारी
और तैरती रहेगी
हर उस नदी के पानी पर
जिसके घाट पर खड़े होकर
हमनें प्रार्थनाएं कीं
चाँद और सूरज से
शुक्र और शनि से
जाने किन किन तारों से
आसमान के सारे रंगों की तासीर को गढ़ा हमने शब्दों में
हम प्रकृति की संतान थे
घास हमारा बिस्तर
हमारी मेज़ और कुर्सी थी
इससे पहले कि वह पूरी तरह
विस्थापित हो गयी
कोलतार और कंक्रीट से
फिर भी
हम नहीं हंस रहे थे
किसी के भी ऊपर
न बड़े व्यापारी
न सूदखोर बैंक
न रिश्वत खोर सड़क विभाग पर
हम हँस रहे थे
क्योंकि मनों धूल से नहाया हुआ
एक एक अमलतास
और गुलमोहर का पेड़
शेष बचा है
हमारे इस कभी के हरे भरे पैतृक शहर में
.............................
चित्र: अवधेश वाजपेई |
हम जब भी साथ हसेंगे
हम जब भी साथ हसेंगे
जब कभी साथ हसेंगे
उसमें उसके भी हसने की अनुगूंज होगी
चिड़िया अपने चोंच में भर लेगी
कहकहे हमारे
और गाएगी बिना शब्दों वाले गीत
हमारी हंसी के तार
चमकेंगे उड़ती तितलियों के पंखों में
और बहुत अँधेरी अमावस सी रातों में भी
चमकेंगे हमारी हंसी के नुकीले कोने
हमारी हंसी का कोई भैरवी राग
उठेगा किसी सोयी हुई झील की सतह से
और खो जाएगा पहाड़ी के उस पार
किसी अप्राप्य घाटी में
और लौटेगा बार बार
जब वे हँसेंगे
हमारे जैसे और प्रेमी
और नरसंहारों के कुछ थमने के बाद
किसी उजले अंतराल में हसेगा ईश्वर ..
.....
हम जहाँ भी साथ हंसें
हम जहाँ भी साथ हंसें
वसंत गुनगुनाएगा
दूर दूर तक
दूर जंगल पार की हवा में
उड़ेगा हमारे वसंत का पीला पराग
और हमारी खिलखिलाहट की धुन में
दौड़ेंगे हिरणों के बच्चे
खरगोश बेख़ौफ़ सोयेंगे
हमारी हंसी में
और पक्षियों के
प्रेमालाप में नहीं आएगा
कोई भी विघ्न
हमारे भीतर का सारा सोना
पिघलकर जमने लगेगा
उनके मसूढ़ों
उनकी शिराओं में
और मुमकिन है
तब वे अगवा करना छोड़ दें
हमारे बच्चे...................
००
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