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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

05 अक्तूबर, 2017

विश्वविजय की जेल डायरी के अंश



विश्वविजय: राजनैतिक कार्यकर्ता, राजनैतिक बन्दियों की रिहाई से जुड़े। माओवादियों से सम्बन्ध रखने के आरोप में ढाई साल का जेल प्रवास । हम यहां उनकी
प्रकाशित डायरी- ‘ज़िंदांनामा- उम्मीद एक ज़िंदा शब्द है’ के अंश साझा कर रहे हैं।

कुछ खट्टी-मीठी यादें

1
सर्किल में लैट्रिन की स्थिति बहुत बुरी होती थी। ज्यादातर बेहद गंदी और बदबूदार। सफाई तो होती थी लेकिन उसमें जाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी। किसी लैट्रिन में पानी का नल नहीं था। सबको डिब्बा-बोतल में पानी लेकर जाना होता था। नये बन्दियों के पास यह इन्तजाम नहीं होता था वह छोटे-छोटे बोतल लेकर जाते थे। इससे सीट बेहद गंदी रहती थी। माफिया बन्दी इससे बचने के लिये सिर्फ अपना इन्तजाम कर लेते थें वे किसी एक लैट्रिन को कब्जा कर उसमें ताला लगा देते थे और सिर्फ अपने प्रयोग में लाते थे दूसरे की उसमें जाने की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन नये बन्दियों को यह बात पता नहीं होती थी।

एक सुबह की बात है। जाड़े की ठिठुरन से हड्डियाँ भी ठिठुरती लग रही थीं। एक नया बन्दी बोतल में थोड़ा पानी लेकर साफ-सुथरी लैट्रिन में घुस गया। दरअसल उस लैट्रिन का ताला अभी-अभी खुला ही था और माफिया उमें जाने की तैयारी में था इसी बीच नया बन्दी उसमें घुस गया। जब माफिया का चेला बाल्टी में पानी लेकर आया तो देखा की एक बन्दी लैट्रिन में बैठा है। वह आग बबूला हो गया। भरी बाल्टी का ठण्डा पानी लैट्रिन का दरवाजा खोलकर उसके ऊपर उड़ेल दिया। फिर जिस स्थिति में वह बैठा था उसी स्थिति में उसे बाहर खींच लाया। नया बन्दी अभी अपनी ‘गलती’ समझ पाता उसके पहले प्लास्टिक की बाल्टी से ही तीन-चार बाल्टी उसको मार दिया गया।
दरअसल नये बन्दी को समझ में ही नहीं आया कि उसे मार क्यों पड़ी? बाद में वह लोगों से पूछ रहा था और लोग उसे बता रहे थे, वैसे इस तरह की घटनाये आये दिन होती रहती थीं।



2


6 सितम्बर 2010 को सर्किल नं0 5 के 9 बन्दी एक साथ भूख हड़ताल पर चले गये। इन बन्दियों की मांग यह थी कि जेल प्रशासन पेट भर जाने लायक भोजन दे और बन्दियों से ‘बी क्लास’ के नाम पर नियमित वसूली बन्द करें। बन्दियों की शारीरिक मानसिक यातना पर रोक लगे। जेल प्रशासन ने इन भूख हड़ताली बन्दियों की मांगों पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने के बजाय हड़ताल समाप्त करने का दबाव बनाने लगा। इससे भी बात नहीं बनी तो प्रताड़ना देना शुरू कर दिया गया। 10 सितम्बर को बलपूर्वक सभी हड़ताली बन्दियों की नाक में नली डालकर दूध पिलाया गया। इस प्रक्रिया के बार-बार दुहराये जाने की दहशत ने 7 बन्दियों का संकल्प तोड़ दिया और उन्होने भूख हड़ताल समाप्त कर दी, लेकिन सुरेश शुक्ला पुत्र हीरालाल और फिरोज पुत्र कुतुब चिकवा ने मांग पूरी होने तक अनशन जारी रखने के फैसले पर कायम रहे। यह खबर अखबारों में भी छपने लगी थी। जेल प्रशासन उन्हें प्रताड़ित करने लगा था, अनशन की हालत में इनको बैरक व सर्किल दौड़ा की सजा दी जाने लगी। इनकी मुलाकातें रोक दी गयीं। यह खबर जेल से बाहर जाने लगी थी जेल प्रशासन अब इसे जेल की चहार दीवारियों में दफ्न नहीं कर सकता था। न्यायिक अधिकारी आकर जाँच करने लगे और महीनों बाद मांगे पूरी करने का आश्वासन देकर सुरेश और फिरोज का अनशन तुड़वा दिया गया। वह आश्वासन भी पूरा नहीं किया गया।

3
मई 2011 के शुरुआती सप्ताह की कोई तारीख थी। सुबह का समय था। बैरकें खुल गयी थीं। सभी बन्दियों को रोज की तरह सामूहिक गिनती के लिये बैरक 4 और 5 के बीच वाली फील्ड में बुलाया जा रहा था। गिनती हो रही थी उसी बीच एक घटना हो गयी, वह यह कि लक्ष्मी नामक एक नम्बरदार का पेट एक बन्दी ने ब्लेड से चीर दिया। वह गिरकर तड़प रहा था। जल्दी-जल्दी उसे अस्पताल ले जाया गया वहाँ प्राथमिक उपचार के बाद उसे बाहर के अस्पताल में रेफर कर दिया गया। इस तत्परता से इसकी जान बच गयी।
आप जानना चाहेंगे कि झगड़े का कारण क्या था तो कारण पैसे के लेन-देन का था। जिस बन्दी ने लक्ष्मी के पेट पर ब्लेड चलायी थी, उसने कुछ पैसा उधार लक्ष्मी को दिया था लक्ष्मी वह पैसा जुआ में हार गया था और वापस नहीं कर रहा था। दरअसल जेल में जुआरियों की बड़ी-बड़ी टीमें बैठती हैं जेल सिपाही थोड़ी-थोड़ी देर पर 100-50 आकर ले जाते हैं यदि जेलर ने पकड़ लिया तो जुआड़ियों को लम्बी चपत लग जाती है। इस चपत की सारी रकम जेलर की जेब में चली जाती है। लक्ष्मी का घाव गहरा था उसे ठीक होने में काफी दिन लगे। जिस बन्दी ने यह अपराध किया उसको थोड़ी सजा देकर मामला रफा-दफा कर दिया गया। होना तो चाहिये था, कि हमलावर बन्दी के खिलाफ मुकदमा पंजीकृत हो। लेकिन इस बन्दी की सर्किल बदल कर ही सजा की औपचारिकता पूरी कर दी गयी। यह सब जेल के गणित का कमाल था।

4
शेरू की उम्र लगभग 25 वर्ष होगी। वह इलाहाबाद के करेली मुहल्ले का रहने वाला था। काफी दिनों से जेल में बन्द था। किस अपराध में वह सजा काट रहा है उसे पता नहीं। बैरक खुलने के बाद से लगातार वह सर्किल की फील्ड में चलता रहता था। उसका झोला हरदम उसके साथ रहता था। कड़ाके की सर्दी में वह कभी सिर्फ अण्डरवियर पहने घूमता तो कभी भीषण गर्मी में कम्बल ओढ़े घूमता। उसके घर से भूले-भटके कभी कोई मिलने आ जाता। एक बार ईद में उसकी मां मिलने आयी थी। पैण्ट, शर्ट, लंुगी, अण्डरवियर दे गयी थी। प्याज, टमाटर, मिर्च, सरसों तेल भी दे गयी थी। शेरू स्टील के मग में सब कुछ एक साथ डालकर उसे आग पर पकाने की कोशिश कर रहा था, और लोगों से बता रहा था कि उसकी मुलाकात आयी थी। मुझे यह नहीं पता कि शेरू जेल आने के बाद पागल हुआ या पहले से ही पागल था और पुलिस इसे किसी केस से फंसाकर जेल भेज दी। एक दिन मैंने शेरू के बारे में जानने की कोशिश की। वैसे वह सिर्फ अपने से मतलब रखता था जब तक उसे कोई परेशान न करे वह शान्त ही रहता था। मैंने उससे पूछा ‘‘शेरू तुम्हें जेल आये कितने दिन हो गये?’’ वह बोला ‘‘यही 7-8 साल हुये’’ केस क्या है? इसका जवाब वह नहीं दे पाया। उसने बात पलटते हुये मुझसे पूछा ‘‘हीरा खरीदेंगे?’’ सस्ते में आपको दे दूंगा मैंने उत्सुकता बस पूछा ‘‘कहाँ है?’’ वह दौड़कर गया और थोड़ी देर में कहीं से शीशे का एक टुकड़ा ले आया, कहा ‘‘ये है।’’ मैंने कीमत पूछी तो उसने लाखों में बतायी और कहा कुछ पैसे दे दीजिये और कुछ चेक काटकर दीजियेगा। बहरहाल हमारी बात चल ही रही थी कि कई लोग और आ गये और वह चला गया।


जेल में एक बार लोक अदालत लगी। वहाँ के पुराने बन्दियों ने सोचा कि माफी नामा के आधार पर शेरू छूट सकता है सो फार्म भर दिया। मजिस्ट्रेट के सामने जब वह पेश हुआ तो मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा ‘‘क्या तुम माफी मांग रहे हो?’’ शेरू वहीं भड़क गया कहा-‘‘मैं क्यों मांफी मांगू तुम मांफी मांगो जो बिना गलती के जेल में रखे हो’’ माफीनामा खारिज हो गया। शेरू अब भी जेल में है वह नियमित अदालत जाता है वहां से सिर्फ अगली तारीख लेकर आता है यह प्रक्रिया ताउम्र चल सकती है क्योंकि न्याय को देवी की आँखों पर पट्टी लगी है फिर भी वह तराजू पर न्याय तौल रही है।

5
16 अगस्त 2011 की दोपहर थी। जो बन्दी काम पर लगाये गये थे, वे काम कर रहे थे। तभी सर्किल नं0 4 में एक धमाका सुनायी दिया। आवाज जिधर से आयी उधर अन्य बन्दियों के साथ भागकर मैं भी देखने गया। वहाँ देखा साबुन-फिनायल बनाने वाली बैरक के बगल में एक बन्दी झुलस कर तड़प रहा है इसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया लेकिन उसकी जान नहीं बची। वह मर गया।
जेल में कम्बल, दरी, लकड़ी के सामान के अलावा साबुन और फिनायल भी बनाया जाता है। साबुन, फिनायल बनाने वाली बैरक के बगल में आग जलाकर वह बन्दी ड्रम में रखे किसी केमिकल को गरम कर रहा था। गरम होने से ड्रम में गैस बनी और वह फट गया बन्दी बुरी तरह झुलस गया। फिलहाल मरने के बाद जेल प्रशासन ने कागजी कार्यवाही पूरी की और लाश उसके गरीब परिवारों वालों को सौंपकर छुट्टी पा गया।
नैनी कारागार में बनने वाला यह साबुन और फिनायल दूसरी जेलों में भी भेजा जाता है। यहां के बन्दियों को भी महीनों-दो महीने में एक बार एक नहाने के लिये और एक कपड़ा धोने के लिये साबुन दिया जाता था। इस साबुन की क्वालिटी इतनी खराब होती थी कि बन्दी इसका इस्तेमाल हाथ व बर्तन धोने के लिये करते थे। गरीब बन्दी इससे ही नहाने व कपड़ा धोने का काम करते थे। फिनायल ज्यादातर जेल के कर्मचारियों, अधिकारियों और सिपाहियों के घर को जीवाणु मुक्त करता था। जेल में कभी-कभी अधिकारियों के दौरे के समय लैट्रिन वगैरह में डाली जाती।



6
2012 की होली 8 मार्च को थी। होली से एक दिन पहले में एक घटना हो गयी, वह यह कि सर्किल नं0 1 के एक बन्दी की मौत हो गयी। उसकी लाश बैरक की लैट्रिन में मिली थी और उसके गले में एक पतली सी रस्सी लटक रही थी। जेल अधिकारियों में अफरातरफरी मच गयी थी। यह हत्या थी या आत्महत्या इसे लेकर बन्दियों में चर्चा चल रही थी। मौत के कारणों का अनुमान लगाया जा रहा था। जो नम्बरदार लाश की स्थिति देखकर आये थे वे बता रहे थे कि बन्दी के साथ पहले दुराचार किया गया है फिर उसे ठण्डे दिमाग से मौत के घाट उतारा गया और आत्महत्या की झूठी कहानी बनाने के लिये उसके गले में रस्सी लटका दी गयी है। लेकिन सवाल यह था कि जेल में यह सब सम्भव कैसे हो सकता है? क्योंकि एक बैरक में लगभग 150 से 200 बन्दी क साथ रहते हों और बारी-बारी से रात भर दो बन्दियों का पहरा लगता हो? इस बात का अनुमान लगाया जाने लगा। दरअसल सर्किल नं0 1 की कुछ बैरकंे ऐसी हैं जिसमें कुछ कोठरियां है उन कोठरियों में रहने के लिये जेल प्रशासन को 3 से 4 हजार देने पड़ते हैं। 3-4 बन्दी मिलकर उसे लेते हैं। जिस बन्दी की मौत हुई वह उस रात कोठरी में ही था उसके साथ कुछ और बन्दी थे। इन सभी ने उस दिन नशा किया और उस बन्दी के साथ सामूहिक दुराचार किया। भेद खुल जायेगा, यह सोचकर उसका मुंह कम्बल और तकिये ये दबाकर मार दिया।
लाश जब जेल डॉक्टरों के पास गयी तो तो उन्होंने दुराचार और हत्या की पुष्टि की। लेकिन जेल के प्रशासनिक अधिकारी इसे मानने के लिये तैयार नहीं हुये। मामला अखबारों की सुर्खियां बना तब जेल प्रशासन ने एक जाँच दल गठित कर मामल की लीपा-पोती करने का प्रयास किया। 2014 में उस जांच दल की रिपोर्ट सम्बन्धित सूचना अखबार में पढ़ी। पता चला उस बन्दी के साथ दुराचार किया गया फिर हत्या कर दी गयी।
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