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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अक्तूबर, 2017


मुंशी प्रेमचन्‍द की प्रसिद्ध कहानी:

                      
                        सवा सेर गेहूँ

किसी गाॅंव में शंकर नाम का एक किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम से काम, न किसी के लेने में न देने में। छक्का -पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिंता न थी, ठग-विद्या न जानता था। भोजन मिला खा लिया, न मिला चबेने पर काट दी, चबेना भी न मिला तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। विशेषकर जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे तो उसे अनिवार्यतः सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था पर साधु को कैसे भूखा सुलाता? भगवान के भक्त ठहरे।
एक दिन संध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीतांबर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाउॅं पैर में, ऐनक आॅंखों पर। संपूर्ण वेश उन महात्माओं का सा था, जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योगसिद्धि प्राप्त करने के लिए रूचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता! प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरूषों के लिए दुष्पाच्य होता है। बड़ी चिंता हुई, महात्मा जी को क्या खिलाउॅं। आखिर निश्चय किया कि कहीं से गेहूं का आटा उधार लाउं, पर गाॅंव-भर में गेहूं का आटा न मिला। गाॅंव में सब मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतः देवताओं का पदार्थ कैसे मिलता? सौभाग्य से गाॅंव के विप्र महाराज के यहाॅं से थोड़े से गेहूं मिल गए। उसने सवा सेर गेहूं उधार लिया और स्त्री से कहा कि पीस दे। महात्मा जी ने भोजन किया, लंबी तानकर सोये। प्रातःकाल आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।


विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी किया करते थे। शंकर ने दिल में कहा, सवा सेर गेहूं इन्हें, क्या लौटाउं, पसेरी के बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूॅंगा, यह भी समझ जाएंगें, मैं भी समझ जाउंगा। चैत में जब विप्र जी पहुंचे तो उन्हें डेढ़ पसेरी के लगभग गेहूं दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चर्चा न की। विप्र जी ने फिर कभी न मांगा। सरल शंकर को क्या मालूम कि यह सवा सेर गेहूॅं चुकाने के लिए उसे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
सात साल गुजर गए। विप्र जी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गए थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाए, किंतु परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन जाएॅंगे, एक रोएगा तो दूसरा हॅंसेगा, एक के घर मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे। प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुलमर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके हृदय के टुकड़े हो जाते थे। सात दिनों तक उसने दानें की सूरत नहीं देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुॅंह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्सह कष्ट ने रक्त को जला दिया, मांस और मज्जा को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों तक खाट से न उठा। अब गुजर -बसर कैसे हो? पाॅंच बीघे के आधे खेत रह गए, एक बैल रह गया। खेती क्या खाक होती? अंत को यहाॅं तक नौबत पहॅंची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधनमात्र रह गई। जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा।
सात वर्ष बीत गए, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा तो राह में विप्र जी ने टोककर कहा, शंकर, कल आके अपने बीज बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाॅं साढ़े पाॅंच मन गेहीं कब से बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या?
शंकर ने चकित होकर कहा-मैंने तुमसे कब गेहूं लिए थे, जो साढ़े पाॅंच मन हो गए? तुम भूलते हो, मेरे यहाॅं किसी का न छटांक-भर अनाज है, न एक पैसा उधार।
विप्र इसी नियत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।
चित्र: अवधेश वाजपेई

यह कहकर विप्र ने उस सवा सेर का जिक्र किया, जो आज से सात वर्ष पहले शंकर को दिया था। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्वर! मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन सा काम किया? जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ -न-कुछ दक्षिणा ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाॅंति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जाएगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूं तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप बैठे रहे। बोला-महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानी में सेर -सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप साढ़े पाॅंच मन माॅंगते हैं, मैं कहाॅं से दूॅंगा।
विप्र -लेखा जौ-जौ, बख्सी सौ-सौ! तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं। चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्हारे नाम वही में साढ़े पाॅंच मन लिखा हुआ है, जिससे चाहो हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेंक दूं, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।
शंकर- पांडे, क्यों गरीब को सताते हो? मेरे खाने को ठिकाना नहीं, इतना गेहूं किसके घर से लाउॅंगा?
विप्र- जिसके घर से चाहो लाओ, मैं छटांक-भर न छोडूॅंगा, यहाॅं न दोगे, भगवान के घर दोगे।
शंकर काॅंप उठा ।
पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देंगे। वहाॅं की तौल यहाॅं से कुछ बड़ी तो न होगी। कम से कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिंता। शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण भी ब्राह्मण का, बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाउॅंगा, इस ख्याल से उसे रोमांच हो आया। बोला, ‘महाराज, तुम्हारा जितना होगा यहीं दूॅंगा, ईश्वर के यहाॅं क्यों दें, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हॅूं, उस जनम के लिए क्यों काटे बोउॅं। मगर यह कोई नियाब नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता? मैं तो दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाॅं जवाब देना पड़ेगा।’
विप्र-वहाॅं का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाॅं तो सब अपने ही भाई -बंधु हैं। ऋषि-मुनि तो ब्राह्मण ही हैं। जो कुछ बने-बिगड़ेगी, संभाल लेंगे। तो कब देते हो?
शंकर-मेरे पास रखा तो है नहीं। किसी से माॅंग-जाॅंचकर लाउॅंगा तभी न दूंगा।
विप्र- मैं यह न मानूंगा। सात साल हो गए, अब एक दिन का भी मुलहिजा न करूॅंगा। गेहूं नहीं दे सकते, दस्तावेज लिख दो।
शंकर-मुझे तो देना है, चाहे गेहूं लो, चाहे दस्तावेज लिखाओ। किस हिसाब से दाम रखोगे?
विप्र- बाजार भाव पाॅंच सेर का है, तुम्हें सवा पाॅंच सेर का काट दूॅंगा।
शंकर- जब दे ही रहा हूॅं तो बाजार भाव काटूॅंगा, पाव भर छुड़ाकर क्यों दोषी बनूॅं?
हिसाब लगाया तो गेहूॅं का दाम साठ रूपए हुए। साठ रूपए का दस्तावेज लिखा गया, तीन रूपया सैकड़े सूद। साल भर में न देने पर सूद का दर साढ़े तीन रूपए सैकड़ें, बारह आने का स्टाम्प, एक रूपया दस्तावेज की तहरीर शंकर को उपर से देनी पड़ी।
गाॅंवभर ने विप्र जी की निंदा की, लेकिन मुॅंह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुॅंह कौन आए।
शंकर ने साल-भर कठिन तपस्या की। मियाद के पहले रूपया अदा करने का उसने व्रत -सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था, चबेने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाॅं रख दी जातीं। पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था। यही एक व्यसन व्रत के भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोड़ दिया और तंबाखू की हाॅंडी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले ही त्याग की चरम सीमा तक पहुॅंच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनत्तम रेखाओं में आबद्ध हो गए। उसने समझा, पंडित जी को इतने रूपए दूंगा और कहूंगा, महाराज, बाकी रूपए भी जल्दी ही आपके सामने हाजिर करूंगा। पंद्रह रूपए की तो और बात है, क्या पंडित जी इतना भी न मानेंगे? उसने रूपए लिए और ले जाकर पंडित जी के चरण-कमलों पर अर्पण कर दिए। पंडित जी ने विस्मित होकर पूछा-किसी से उधार लिए क्या?
शंकर -नहीं महाराज, आपके असीस से अब की मजूरी अच्छी मिली।
विप्र- लेकिन यह तो साठ रूपए ही हैं।
शंकर-हाॅं महाराज, इतने अभी लीजिए, बाकी दो-तीन महीने में दूंगा, मुझे उरिन कर दीजिए।
विप्र-उरिन तो तभी होंगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे पंद्रह रूपए और लाओ।
शंकर-महाराज, इतनी दया करो, अब साॅंझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाॅंव में हूॅं तो कभी-न-कभी दे ही दूॅंगा।
विप्र- मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूॅं। अगर पूरे रूपए न मिलेंगे तो आज से साढ़े तीन रूपए सैकड़ें का ब्याज लगेगा। अपने रूपए चाहे अपने घर में ही रखो, चाहे मेरे यहाॅं छोड़ जाओ।
शंकर-अच्छा, जितना लाया हूॅं उतना रख लीजिए। जाता हूॅं, कहीं से पंद्रह रूपए और लाने की फिक्र करता हूॅं।
शंकर ने सारा गाॅंव छान मारा, मगर किसी ने रूपए न दिए, इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था, या किसी के पास रूपया न था, बल्कि इसलिए कि पंडित जी के शिकार को छोड़ने की किसी में हिम्मत न थी।
क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल -भर तक तपस्या करने पर जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल-भर में साठ रूपए से अधिक जमा न कर सका तो अब और कौन-सा उपाय है, जिसके द्वारा उससे दूने रूपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ लादना है तो क्या मन और क्या सवा मन का। उसका उत्साह क्षीण हो गया, मेहनत से घृणा हो गई। आशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें, जिनको उसने साल भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होने वाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होने वाली पिशाचिनियाॅं थीं, जो अपनी भेंट लिए बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चक्रतियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रूपए जमा न करता। कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु । जहाॅं पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाॅं अब गाॅंजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रूपए अदा करने की कोई चिंता न थी। मानों उसके उपर किसी का एक पैसा नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था। अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता। इस भाॅंति तीन वर्ष निकल गए। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाॅंति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार चैंकाना उनकी नीति के विरूद्ध था।
एक दिन पंडित जी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। साठ रूपए जो जमा थे वह मिनहा करने पर शंकर के जिम्मे एक सौ बीस रूपए निकलें।
शंकर-इतने रूपए तो उसी जन्म में दूॅंगा, इस जन्म में नहीं हो सकते।
विप्र- मैं इसी जन्म में लूॅंगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।
शंकर-एक बैल है, वह ले लीजिए, एक झोंपड़ी है, वह ले लीजिए और मेरे पास क्या रखा है?
विप्र-मुझे बैल-बछिया लेकर क्या करना है। मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।
शंकर-और क्या महाराज?
विप्र- कुछ नहीं है, तुम तो हो। आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में हमारे यहाॅं काम किया करो, जब सुभीता हो मूल देन देना। सच तो ये है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते, जब तक मेरे रूपए नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतवार पर छोड़ दूं। कौन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे? और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कौन कहे?
शंकर- महाराज, सूद में तो काम करूॅंगा और खाउॅंगा क्या?
विप्र- तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाॅंव कटा बैठेंगे? रहा मैं, तुम्हें आधा सेर जो रोज कलेवा के लिए दे दिया करूॅंगा। ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूॅंगा और क्या चाहिए? यह सच है कि और लोग तुम्हें छः आने रोज देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें अपने रूपए भरने के लिए रखता हूूं।
शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिंता में पड़े रहने के बाद कहा- महाराज, यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई।
विप्र- गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो। मैं अपने रूपए भराए बिना तुमको कभी न छोडूॅंगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाॅं, जब कोई न रहेगा, तब की दूसरी बात है।
इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता? कहीं शरण न थी, भागकर कहाॅं जाता? दूसरे दिन उसने विप्र जी के यहाॅं काम करना शुरू कर लिया। सवा सेर गेहूं की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि यह मेरे पूर्व जन्म का संस्कार है। स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किए थे, बच्चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। गेहूं के दाने किसी देवता के शाप की भाॅंति आजीवन उसके सिर से न उतरे।
शंकर ने विप्र जी के यहाॅं बीस वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया। एक सौ बीस रूपए अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडित जी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी नहीं, इतने निर्दयी वे न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्र जी के यहाॅं करम करता है। उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जानें।
पाठक, इस वृतांत को कपोलकल्पित न समझिए यह सत्य घटना है। ऐसे शंकर और ऐसे विप्रो से दुनिया खाली नहीं है।
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