महिमा श्री की कविताएं
महिमा श्री: ने एम.सी.ए , एम.जे
शिक्षा प्राप्त की है ।अतुकांत कविताएँ, ग़ज़ल, दोहें, कहानी, यात्रा- वृतांत, सामाजिक विषयों पर आलेख और समीक्षाएं लिखती रही है।
कविता संग्रह : अकुलाहटें मेरे मन की । साझा काव्य संकलन “त्रिसुन्गंधी” , “परों को खोलते हुए-१”, “ सारांश समय का” , “काव्य सुगंध -2” में रचनाएँ शामिल ।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। अंतर्जाल और गोष्ठीयों में साहित्य सक्रियता।
सम्प्रति :पब्लिक सेक्टर में सात साल काम करने के बाद (मार्च २००७-अगस्त २०१४)
वर्तमान में स्वतंत्र लेखन, नई दिल्ली
कविताएं
1
बैठे-ठाले
तन्हाई चीखती है कहीं
पगलाई-सी हवा धमक पड़ती है ।
अंधेरे में भी दरवाजे तक पहुँच कर बेतहाशा कुंडियाँ खटखटाती है।
अकेला सोया पड़ा इंसान अपने ही भीतर हो रहे शोर से
घबड़ा कर उठ बैठता है ।
चौंक कर देखता है समय, अपने पास पड़े मोबाइल में
“रात के ढ़ाई ही तो अभी बजे हैं “
बुदबुदाता है अपने-आप से।
सन्नाटा उसकी दशा पर मुस्कुराता है।
उधर दुनिया के कहीं कोने में भीड़ भुख-प्यास से बेकाबू हो कर सड़को पर नहीं निकलती,
सामुहिक आत्महत्याएं कर रही होती हैं ।
मर्सिया गाने का काम स्वत: सोशल साईटो के तथाकथित बुद्धिजिवियों के पास है।
वहीं दूसरी ओर जेहादी तकरीर के बाद एक भीड़ हथियारों से लैस होकर निकल पड़ती हैं दुनिया को ठिकाने लगाने।
एक गरीब देश में भुकम्प आता है और खाड़ी देशों में ताजा गुलाबी गोश्त की आमद तेज हो जाती है।
दिल्ली सत्ता के घंमड में चूर अपने विज्ञापनों में इठलाती है।
हाईकोर्ट अधिकारियों को याद दिलाता हैं उनके बच्चे को कहाँ पढ़ना चाहिए ।
नेता जी कहते हैं एक बार में एक ही व्यक्ति बलात्कार कर सकता है ।
देश के चौहदियों पर तैनात जवान रिटायमेंट के बाद
एक सेवा एक पेंशन की लड़ाई में कूद पड़ता है।
हम कई कप चाय पीने के बाद निष्कर्ष पर पहुँचते हैं
क्रांति होनी चाहिए !
और फिर टीवी खोल कर बैठ जाते हैं।
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
2.
गुणा-भाग
---------
प्रेम का पर्यायवाची है
प्रतीक्षा
प्रतीक्षा का पर्यायवाची
धैर्य
धैर्य का पर्यायवाची
स्त्री
स्त्री का पर्यायवाची
धरती
धरती के अंदर दबे पड़े थे
दावानल
दावानल अब सुलग रहे हैं।
3.जद्दोजहद
बीती है जनवरी जैसे गुजरी हो सदी अपनी छाती में संभाले कई जन्मों का बल्गम
और एकाएक थूक दिया हो इतने पास
कि मक्खियों का हुजूम भिनभिनाता हुआ टूट पड़ा
नदी भी काले सैलाब से भर के मरनासन्न हो गई
कुछ भी सड़ने -गलने से पहले बचा लेने की जद्दोजहद जारी है
००
चित्र सुनीता |
4.
फरवरी के नाम..
ओ वसंत! तुम्हारे स्वागत में सिर्फ प्रेम लिखना चाहती हूँ
तुम्हारी आहट से पहले और अंतिम पदचाप तक
सिर्फ प्रेम ...
अपने अन्तरराग को मधुर स्मृतियों में डूबों कर
अगले वसंतोत्सव के लिए भर लेना चाहती हूँ प्रेम का प्याला
ताकि लड़ संकू हर उस विष से जो अनजाने ही घर कर बैठा है रोम रोम में
अवांक्षित अवशिष्ट को परे कर
ओ वंसत ! तुम्हें जी भर जीना चाहती हूँ।
००
5.
और सर्द धरती गर्म हो गई
वो ठिठुरता हुआ उकडू हो कर
बैठने के प्रयास में सिकोड़े जा रहा था अपने हाथ पैरों को
बीच बीच में झाल -मुढी खरीदने आते ग्राहकों को
कंपकपाते हाथो से नमक तेल मिर्च डाल
उसे मिलाता फिर उन्हें देते हुए
ठंड से सूखे पड़े पपरीयुक्त होंठो से
सायास मुस्कुराने का करता प्रयास
मैं देखती अक्सर उसे उधर से गुजरते हुये
अखबार बिछाये सर्द धरती की गोद में बैठा होता
मोटी फटी गंजी के साथ सियन उघड़ी कमीज पहने
जो उसे कितनी गर्मी देती थी
भगवान ही जाने
और फिर एक दिन
रूमानियत से भरी गुलाबी ठण्ड को सहेजना चाहती अपनी यादों में
चल पड़ी बाजार को
जब मैं खरीद रही थी
मूंगफली , गजक और रेवड़ियाँ
औ कर रही थी मनचाहा मोल – भाव
तभी मैंने कहते सुना उसे
अपने एक फेरीवाले संगी से
कल रात अलाव की चिन्गारी छिटकी
औ सारी बस्ती होम हो गयी
सब राख हो गया
सर्द धरती तो गर्म हो गयी पर
अपना जीवन तो ठंडा हो गया
गर्म कपड़ो में सर से पाँव तक ढकी मैं
अचानक कांपने लगी पर
वो और गर्म जोशी से
जोर जोर से चिल्ला कर झालमुढ़ी बेचने लगा
गुलाबी सर्दी जो अभी बड़ी ही रूमानी लग रही थी
कठोर और बेदर्द लगने लगी ।
००
चित्र: विनीता कामले |
6.
तुम स्त्री हो ....
सावधान रहो!
सतर्क रहो!
किस-किस से?
कब-कब?
कहाँ-कहाँ?
हमेशा रहो!
हरदम रहो!
जागते हुए भी
सोते हुए भी
क्या कहा ?
ख्वाब देखती हो ?
उड़ना चाहती हो ?
क़तर डालो पंखो को अभी के अभी
ओफ्फ! तुम मुस्कुराती हो
अरे! तुम तो खिलखिलाती भी हो ?
बंद करो आँखों में काजल भरना और
हिरणी सी कुलाचे भरना
यही तो दोष तुम्हारा है।
शोक गीत गाओ!
भूल गयी?
तुम स्त्री हो !
किसी भी उम्र की हो क्या फर्क पड़ता है|
आदम की भूख उम्र नहीं देखती
ना ही देखती है देश, धर्म औ जात
बस सूंघती है
मादा गंध
(निर्भया जैसी दुनिया की सभी लड़कियों व बच्चियों की याद में )
००
7.
तुम्हारा मौन ..
तुम्हारा मौन
विचलित कर देता है
मेरे मन को
सुनना चाहती हूँ तुम्हे
और मुखर हो जाती हैं
दीवारें , कुर्सियां
टेबल , चम्मचे,
दरवाजे ।
सभी तो कहने लगते हैं
सिवाए तुम्हारे...
००
8.
भीड़....
हां! भीड़ में शामिल
मैं भी तो हूँ।
रोज
अलस्सुबह उठ के
जाती हूँ।
शाम को आती हूँ।
दूर.... से देखती हूँ।
कहती हूँ।
ओह! देखो तो जरा
कितनी भीड़ है।
और फिर
मैं भी भीड़ हो जाती हूँ।
००
चित्र: सुनीता |
9.
इस बार नहीं
एक दिन तुमने कहा था
मैं सुंदर हूँ।
मेरे गेसू काली घटाओं की तरह हैं।
मेरे दो नैन जैसे मद के प्याले।
चौंक कर शर्मायी
कुछ पल को घबरायी
फिर मुग्ध हो गयी अपने आप पर।
जल्द ही उबर गयी
तुम्हारे वागविलास से
फंसना नहीं है मुझे तुम्हारे जाल में
सदियों से सजती ,संवरती रही
तुम्हारे मीठे बोल पर
डूबती उतराती रही
पायल की छन छन में
झुमके , कंगन , नथुनी
बिंदी के चमचम में।
भुल गयी
प्रकृति के विराट सौन्दर्य को
वंचित हो गयी मानव जीवन के
उच्चतम सोपानो से
और
तुमने छक के पीया
जम के जीया
जीवन के आयामों को
पर इस बार नहीं
भरमाओ मत!
देवता बनने का स्वाँग
बंद करो।
साथ चलना है , चलो!
देहरी सिर्फ मेरे लिए
हरगिज नहीं.. ..
००
11.
कछुए सा खोल और चमकीली सीपियाँ
हम सब के पास एक खोल है।
बिल्कुल कछुए की तरह
जो खतरे को भांपते ही समेट लेता अपना अंग-प्रत्यंग ।
सच में पलायन का मतलब भागना होता है।
या नई संभावनाओं की तलाश में खुद को टटोलने के लिए
स्वंय का साथ।
विचारों का आना-जाना तो रोक पाते नहीं
पर बाहरी हलचल पर आँखे मुंद
विचारशील होने का ढ़ोग अवश्य करते हैं।
या खुद की पीठ थपथपा कर विचारों के सीपियों से
मोती ढ़ूढ़ लाने का गाहे-बगाहे दावा ठोकते फिरते हैं।
सच तो यह है कि समय सब देख रहा है।
हमारी कुंद होती बुद्धि के धार को
श्रेष्ठता के खोखले नाकाब को ।
नकली बाजार के हथकंडो के गुलाम ,
आरोप-प्रत्यारोप के कठपुतले हम ।
बात-बात पर हवा में मुठ्ठियाँ लहराने वाले।
नया ना कुछ खोजने, ना करने के काबिल
अपनी खोलो से निकलकर बस झूठे दावे करने का सलीका
जरुर हासिल कर लिया है हमने ।
००
12.
माथे की बिंदी
फुनगी पर ठिठका चाँद सा
या कह ले झील के पानी में ठहरा चाँद सा खूबसूरत लगता
माँ के माथे की बिंदी
उमस औ आलस्य से भरी गर्मियों की सुबह
रोटी बनाती हुई माँ उल्टे हाथ से जब अपना पसीना पोंछती
माथे से बिंदी गायब हो जाती
फिर अचानक ही उनकी बाँह में चिपकी दिखती
कभी गर्दन , पेट तो कभी पीठ पर
कई बार बाथरुम की दिवार पर
कभी ड्रेसिंग टेबल के शीशे पर
किसी मायावी से कम नहीं लगती थी बिंदी
जाने क्या था उन लाल-कथई बिंदियों में
रोक लेती रास्ता , ठहर जाती मेरी आँखे
लुका –छिपी का खेल चलता रहता
एक दिन बिंदी बदल गई बिंदू में
योग की पुस्तक में मिला एकाग्रता का नोट
किसी बिंदू पर लगातार देखने का अभ्यास
कई बार किया प्रयास
फिर भुल गई बिंदी और बिंदू का खेल
कि फिर दिखी है बिंदी
“पिकू” की दीपिका के भाल पर मध्यम काली बिंदी
तब से सलवार-कमीज में मेट्रो की आधुनिक बालाएं भी सजाये दिखने लगी हैं
माथे पर मध्यम काली बिंदी
जिन्हें टकटकी लगाके देखती रहती हैं कई आँखे
वे मुस्काती हैं साथ में दमक उठती है काली मध्यम बिंदी।
००
|
13.
निजत्व की खातिर
निजत्व की खातिर
कर्तव्यो की बलिवेदी से
कब तक भागेगा इन्सान?
ऋण कई हैं
कर्म कई हैं
इस मानव -जीवन के
धर्म कई हैं
अच्युत होकर इन सबसे
क्या कर सकेगा
कोई अनुसन्धान?
कई सपने हैं
कई इच्छाये हैं
पूरी होने की आशाये हैं
पर विषयों के उद्दाम वेग से
कब तक बच सकेगा इन्सान ?
भीड़-भाड़ है
भेड़-चाल है
दाव-पेंच के
झोल -झाल है
इनसे बच कर अकेला
कब तक चलेगा इन्सान?
कौन है ईश्वर?
जीवन क्या है?
मै कौन हूँ?
क्यूँ आया हूँ?
जिज्ञासायों के कई भंवर हैं।
डूब के इनमे
अपनों से कब तक?
मुख मोड़ सकेगा इन्सान...//
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सत्यनारायण पटेल
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