सुषमा सिन्हा की कविताएं
सुषमा सिन्हा: को छात्र जीवन से ही चित्रकला एवं लेखन में रूचि रही है।
उनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रही है।
हिन्दी, पंजाबी, और उर्दू आदि भाषाओं के साझा कविता संकलनों में कविताएँ शामिल होती रही है।
’’मिट्टी का घर’’ आपका पहला कविता संग्रह है, जो वर्ष 2004 में प्रकाशित हुआ।
सुषमा सिन्हा |
1.
विद्रोह
उन्होंने हमारे लिए रास्ते बनाए
हमारी मंजिलें निश्चित कीं
चहारदीवारी बनाकर
हमारे रहने और सोने की व्यवस्था कीं
उन्होंने
हमें जिंदा रहने देने की
सभी जरूरतें पूरी कीं
फिर
हमारी सोच और सपनों पर पाबंदी लगाई
उन्होंने चाहा
उनकी इच्छा हमारी भी इच्छा हो
उनकी सोच हमारी भी सोच हो
उनके सपने हमारी भी नींदों में आए
उनकी आँखें जो देखें हम उन्हें ही देखें
पर ऐसा हो न सका
हमने अपनी आँखों से दुनिया को देखा
नींदों में सपने भी हमारे अपने आए
हमारी सोच उनकी सोच से अलग होने लगी विद्रोही होती हुईं हमारी इच्छाएँ
इंसाफ की मांग करने लगीं !!
००
(पहली किताब "मिट्टी का घर" से )
2.
ख़बरे
बेमानी हो जाती हैं
अखबार में छपी सारी खबरें
बदसूरत हो जाते हैं
टी. वी. पर खबरें पढ़ते हुए खूबसूरत चेहरे
जब भी हम पढ़ते या सुनते हैं
किसी निर्दोष की हत्या
सामूहिक हत्या, बलात्कार
मासूमों के साथ दुर्व्यवहार
अपहरण, लूट-पाट, हिंसा
कोई दहेज के लिए जलाई गई जिन्दा
लगने लगता है तब
क्या मायने है इसके कि जाना जाए
दुनिया में कहाँ, क्या हो रहा है
देश की राजनीति किधर जा रही है
कौन राष्ट्रपति, कौन प्रधानमंत्री हो रहा है
कौन पूरी दुनिया जीत कर आया
किसने देश को स्वर्ण पदक दिलाया
किसने दुनिया में कौन-सा
चमत्कार कर दिखाया
किसने पूरी दुनिया में
खूबसूरती का परचम लहराया
कौन, किस शिखर पर पहुँच गया
कौन-सी बुलंदी पा ली
जबकि इंसानियत ही नहीं बच रही
तो बाकी क्या बच रहा
कि पढ़ा जाए अखबार
या फिर सुनी जाएँ खबरें ।।
०००
(दूसरी किताब "बहुत दिनों के बाद" से )
3.
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों से मालूम नहीं है मुझे मेरा पता
बहुत दिनों से ढूँढ़ा भी नहीं किसी ने मुझे
पूछा भी नहीं मुझसे मेरे बारे में
खोई हुई-सी, अनजान राहों पर चलते हुए
जिंदा होने के पूरे एहसास के साथ
बातें करना चाहती हूँ आज
खुद से खुद के बारे में
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों से घूमी नहीं रास्तों पर बिना मतलब
बातें नहीं कीं किसी से अपने मन की
बहुत दिनों से देखा नहीं चाँद को चलते हुए
सुना नहीं आवाज समुंदर की
समुंदर-सी आवाज के साथ बातें करते हुए
चलना चाहती हूँ आज
फिर चाँद के साथ,
बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों से भींगी नहीं बारिश के पानी में
बहुत दिनों से बैठी भी नहीं कहीं चैन से
बहुत दिनों से सुना नहीं बंद आँखों से
आ रही अजान की आवाज और सबद गान
मंदिर की सीढि़यों पर बैठ सुकून से
भीगना चाहती हूँ आज
घंटियों की आवाज के साथ
बहुत दिनों के बाद ।।
०००
(दूसरी किताब "बहुत दिनों के बाद" से )
4.
सफेद झूठ
तस्वीर के इस तरफ खड़ी मैं
बताती रही उसे
कि यह बिल्कुल साफ और सफेद है
तस्वीर के उस तरफ खड़ा वह
मानने से करता रहा इंकार
कहता रहा
कि यह तो है खूबसूरत रंगों से सराबोर
मूक तस्वीर अपने हालात से जड़
खामोशी से तकती रही हमें
उसे मेरी नजरों से कभी न देख पाया वह
ना मैं उसकी आँखों पर
कर पाई भरोसा कभी
खड़े रहे हम
अपनी अपनी जगह
अपने अपने सच के साथ मजबूती से
यह जानते हुए भी
कि झक-साफ़-सफेद झूठ जैसा
नहीं होता है कहीं, कोई भी सच !!
०००
(जनसत्ता रविवारीय 'दिल्ली' 30.7.17 में प्रकाशित)
5.
सुकून
उसने कहा-
'अच्छा, एक बात बताओ
कितना प्यार करते हो मुझसे'
और उसकी ओर
एकटक देखने लगी
बड़े गौर से देखा उसने भी
थोड़ा मुस्कुराया
फिर अपनी उँगलियों के पोरों से
चुटकी भर का इशारा करते हुए कहा-
'इत्तु-सा'
और ठठाकर हँस दिया
बड़े सुकून से मुस्कुराई वह
और प्यार से बोली- 'बहुत है!'।।
०००
(जनसत्ता रविवारीय 'दिल्ली' 30.7.17 में प्रकाशित)
6.
दाँव
आज फिर
एक आदमी ने जुए में
अपनी पत्नी को दाँव पर लगाया
और हार गया
उसकी पत्नी को
महाभारत की कहानी से
कुछ लेना-देना नहीं था
न ही वह द्रौपदी जैसी थी
और न ही उसे किसी कृष्ण का पता था
खुद के दाँव पर लगने की खबर सुन
थोड़ी देर कुछ सोचा उसने
और फिर अपने घर के बाहर
खड़ी हो गई गड़ासा ले कर ।।
०००
(जनसत्ता रविवारीय 'दिल्ली' 30.7.17 में प्रकाशित )
7.
दुनिया का सच
सौ कारण बताकर
हमारी बेटियाँ
इस दुनिया को बुरी बताती हैं
और दुखी हो जाती हैं
अगले ही पल
सिर झटक कर कहती हैं
जैसे कमर कस रही हों
'आखिर रहना तो इसी दुनिया में है'
और अपने-आप में व्यस्त हो जाती हैं
हजार कारण बताकर
हमारी माँएँ
इस दुनिया को खूबसूरत बताती हैं
जीवन के प्रति विश्वास दिलाती हैं
तसल्ली देती हैं हमें
और फिर देर तक
डरती, सहमती, सशंकित होतीं
स्वयं अंदर तक थरथराती हैं।।
०००
('वागर्थ' जून 2017 में प्रकाशित)
8.
मंत्रमुग्ध
कुछ तो था
जिसका डर था
कि जब भी तुम सामने से आते दिखे
बदल लिया मैंने रास्ता !
कुछ तो था
जिस से थी घबराहट
कि जब जब हुआ तुमसे सामना
फेर ली मैंने अपनी नजरें !
वह कुछ तो था
जिसके सुने जाने की थी आशंका
और बंद कर लिए मैंने अपने कान !
वह कुछ तो था
तुम्हारी निगाहों में
जिसे महसूस करती रही
अपनी बंद आँखों से भी !
वह कुछ तो था
तुम्हारी ख़ामोशी में
जिसे सुनती रही सदियों से
सन्नाटे और शोर में भी !
वह कुछ तो था
जो आज भी चौंक-चौंक जाती हूँ मैं
जैसे ले कर मेरा नाम
'मुझे' पुकारा हो तुमने !
वही कुछ तो
आज भी है हमारे बीच
कि खुद पर लगायी
तमाम पाबंदियों के बावजूद
किसी चुम्बकीय आकर्षण में बँधी
खिंची जाती हूँ तुम्हारी ही ओर
मंत्रमुग्ध !!
(अप्रकाशित)
9.
मेहनत की हँसी
अनाथ 'चिंता' के चेहरे पर
चिंता की कभी
कोई लकीर नहीं दिखती
'पूनम' का दाग भरा चेहरा
चमकता रहता है पूनम के चाँद सा
'लक्ष्मी' को घेरे रहती है दरिद्रता
फिर भी मुस्कुराती हुई
आ ही जाती है समय पर
इनके आने पर जाने कैसे
मुझमें आ जाती है हिम्मत
तैयार होती हूँ भाग-भाग कर
निकल जाती हूँ झट काम पर
सुनते ही गाड़ी की आवाज
कैंपस में झाड़ू लगाते उनके हाथ
ठिठक जाते है यकायक
कौतूहल से निहारतीं उनकी आँखें
मुझे देख मुस्कुराती हैं
हाल जो इनका पूछ लो तो
'अच्छा है' कह कर खिलखिलाती हैं
इन मेहनतकश औरतों की
निश्छल हँसी
ले आती है मेरे चेहरे पर भी मुस्कान
और.... थोड़ी और
बढ़ जाती है मेरी रफ़्तार !!
०००
( 'मणिका' सितंबर 2017 में प्रकाशित )
10.
सच का सामना
जब-जब भी चुभती हैं आँखों में
उजालों की नागवार सच्चाईयाँ
अच्छे लगने लगते हैं अँधेरे !
होश में जीना
जब लगातार होता जाता है मुश्किल
सुकून देने लगती हैं बेहोशियाँ !
बड़े अच्छे लगते हैं वे सारे झूठ
चख चुके होते हैं
जिनकी तल्ख़ सच्चाइयाँ !
उन टूटे रिश्तों की यादें भी
लगती हैं खूबसूरत
गुमां हुआ होता है जिनसे कभी दोस्ती का !
बेवफाई के बावजूद
बचा ही रहता है
प्रेम का मुलांकुर, कहीं हमारे भीतर !
लोग कहते रहें लाख बुरा उन्हें
बुरे नहीं लगते हमें
देख चुके होते हैं जिनकी अच्छाइयाँ !
सारी स्थितियों के तय मानक
जरुरी नहीं
कि हों जीने के लिए बेहतर
कुछ भी नहीं होता, कभी भी मुक्कमल !!
०००
(अप्रकाशित)
11.
बेहतरीन सपने
बेटी अपनी आँखों से
देखती है इंद्रधनुष के रंग
और तौलती है अपने हौसलों के पंख
फिर एक विश्वास से भरकर
अपनी माँ से कहती है-
'मैं आपकी तरह नहीं जीऊँगी'
मुस्कुराती हैं माँ
और करती हैं याद
कि वह भी कहा करती थीं अपनी माँ से
कि 'नहीं जी सकती मैं आपकी तरह'
माँ यह भी करती हैं याद
कि उनकी माँ ने भी बताया था उन्हें
कि वह भी कहती थीं अपनी माँ से
कि 'वह उनकी तरह नहीं जी सकतीं'
शायद इसी तरह
माँ की माँ ने भी कहा होगा अपनी माँ से
और उनकी माँ ने भी अपनी माँ से......
कि 'वह उनकी तरह नहीं जीना चाहतीं'
तभी तो
युगों-युगों से हमारी माँएँ
हमारे इंकार के हौसले पर मुस्कुराती हैं
और अपने जीवन के बेहतरीन सपने
अपनी बेटियों की आँखों से देखती हैं !!
०००
('वागर्थ' जून 2017 में प्रकाशित)
12.
घबराहट
बढ़ती जा रही है भीड़ रास्तों पर
घबराए हुए लोग भाग रहे हैं इधर-उधर
भाग रही हूँ मैं भी उनके साथ
रास्ता कभी घर की ओर का लगता है
कभी लगता कि जा रही हूँ काम पर
भागते-भागते पड़ी नज़र
एक बूढ़े व्यक्ति पर
जो झोला टाँगे, डंडा पकड़े
चला जा रहा था धीरे-धीरे
धक से हुआ मन
जा रहे हैं पिता कहाँ इस तरह ?
अब तो उनसे चला भी नहीं जाता
मुड़-मुड़ कर टिक रही है उनपर नज़र
भागती हुई झट पहुँची उन तक
ओह !! नहीं... ये मेरे पिता नहीं....
पर किसी के तो पिता हैं !
घबराई हुई वहाँ से भागी उस तरफ
जहाँ रास्ते के किनारे बैठी एक बूढ़ी औरत
हर आने-जाने वाले के आगे
फैला रही थी अपना कटोरा
देख रही हूँ गौर से, जा कर उनके पास
कहीं यह मेरी माँ तो नहीं
नहीं- नहीं....यह मेरी माँ नहीं....
पर किसी की तो माँ हैं !
हड़बड़ाई हुई
भाग रही वहाँ से भी
रोक रहे हैं रास्ता छोटे-छोटे बच्चे
फैलाये हुए अपनी नन्ही नन्ही हथेलियाँ
देखने लगी हूँ उन्हें भी बड़े ध्यान से
कहीं इनमें मेरे बच्चे तो नहीं
नहीं.. इनमें मेरे बच्चे नहीं.....
पर किन्हीं के तो बच्चे हैं !
बेचैन हो कर रो पड़ी हूँ बेसाख्ता
और भागने लगी हूँ बेतहाशा...
'क्या हुआ मम्मा ? ....आप डर गईं क्या ?'
झिंझोड़ कर उठा रही है मुझे मेरी बिटिया !!
०००
( परिकथा सितंबर 2017 में प्रकाशित )
13.
पँखों वाली लड़की
मैं ढूँढ़ रही हूँ
उस पगली सी लड़की को
जिसके पँख हुआ करते थे
बेवजह हँसती वह लड़की
पंजों के बल चलती थी
हौले से धरती पर पैर दबा
आसमान में उड़ती थी
परवाजों की तरह वह
इंद्रधनुष तक जाती थी
रंग-बिरंगे सपने अपने
बस्ते में भरकर लाती थी
उन्हीं सपनों के रंगों में
जीती और जगमगाती थी
अँधेरी रातों में भी
चमकती आँखों से मुस्कुराती थी
सुना है
उनमें से कई सपने
जीवन के जरुरी सपने थे जो खो गए
कई सपने कमजोर थे जो टूट गए
कई सपने तो यूँ ही भूखों मर गए
कई सपने जो जिंदा बचे थे
आँसुओं से लथपथ पड़े थे
जिन्हें वह छोड़ नहीं पाई
उन्हीं से भीगे पँखों के कारण
फिर कभी वह उड़ नहीं पाई
सुना है यह भी
कि उसके पँख
हवा से भी ज्यादा हल्के थे
और सपने समय से भी ज्यादा भारी
टूटते हुए पँखों के दुःख
और दर्द के बावजूद
वह हौसलों से भरी थी
अपने मरणासन्न सपनों को
जी-जान से बचाने में लगी थी
दोस्तो !! आपको भी कभी
मिल जाए अगर कहीं
पँखों वाली ऐसी कोई लड़की
बताना उसे -
'कि सपनों के लिए पँखों को सहेजे
कि पँखों के बिना सपने नहीं बचते
कि सपनों के लिए जरुरी है
हमारे पँखों का बचा रहना ।।'
०००
( परिकथा सितंबर 2017 में प्रकाशित )
संपर्क:
सुषमा सिन्हा
मकान न0- 30,
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राँची- 834002, झारखंड
मोबाईल न. 9430154549, 9431417339
Email: sushmasinha19@gmail.com
शुक्रिया, आपका बहुत-बहुत आभार सत्यनारायण पटेल जी !!😊
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