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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 अक्टूबर, 2017

छवि निगम की कविताएँ

छवि निगम

कविताएं


यह कविता है।
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यह क्या एक कागज़ रंगा?
नहीं बेटा!
यह कविता है।
यह कविता है?
पर इसपर तो नदी  नहीं, न ही झरना
तितली, फूल,महल न सुंदर झुनझुना
मेरी लुभावनी नाव सी, कविता बने।

उफ़!फिर से समय की बर्बादी?
नहीं मित्र!
यह कविता है।
यह कविता है?
पर न इसमें है दर्द, न  मरती आबादी
न कोई विद्रोह, न सुलगती आज़ादी
मेरे लहू का रंग भरे, कविता बने।

इस उम्र में ,निराशा यों घनघोर?
नही बाबा!
यह कविता है।
यह कविता है?
न टूटते सपने इसमें, न झुर्रियों के छोर
न झुकते लाचार कंधे, आँखों के नम कोर
सुखद सिहरन के स्पर्श सी, कविता बने।

प्रिय प्रतिबिम्ब मेरे, खत्म तेरी अभिलाषा?
नहीं दर्पण!
यह कविता है।
यह कविता है?
सबकी इच्छाएं सम्मिलित, पर न तेरी भाषा
न सबके अनुरूप ये,न ही सबकी आशा
बस तुम कहो और मैं सुनूँ, कविता बने।
००

देखना
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इस अंधेरों के शहर में
अबकि एक चाँद बो दूँगी,
चांदनी के पत्तों पर
पाँव रखते रखते
तुम तक पहुंचूँगी...
और खींच उतारूंगी ।
रख दूँगी तुमको
चीकट सुबकते गालों पे
भिगो दूँगी तुम्हें
उन गालों पर खिंची
मटमैली अधगीली लकीर में,
अटका दूँगी
किसी खाली उधड़ी जेब की
नाउम्मीद सीवन में
टाँग दूँगी किसी
बेतहाशा भीड़ के बीचोंबीच।
फिर
चीखके देखना ज़रा तुम
किसी बेआवाज़ तमाचे से
तड़पना
बेबस इंतज़ार की आखों में
घिसटना
टूटे तले की चप्पल में उलझ
भटकते रहना
एक बेबस माँ के लिखे बैरंग ख़त में।
ए ईश्वर या ख़ुदा
ऐसा करना
अबकि तुम
पीड़ा का सही अर्थ समझना
अबकि तुम
औरत की देह ले जन्मना ।
फिर बताना
कि तब
ख़ुदा कौन
कैसा दिखता है तुम्हें ?

००
चित्र: अवधेश वाजपेई

कविता नहीं लिखते
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न,कविता नहीं लिखते।
जी, बस ऐसे ही टाइम पास  करते हैं
हम कुछ खास नहीं करते।
मुआफ़ी चाहते हैं...
वो तो बेसाख़्ता ही
बेमतलब बेमक़सद
बिख़र आते हैं कभी स्याह से  बाग़ी ख़यालात किसी सफ़ेद सफ़े पे बरबस..
जब हमसे सम्भाले नहीं सम्भलते।
जी ,क्या कहा?
नहीं नहीं।हम कविता नहीं लिखते।
वो तो यूं ही
कैलेंडर में तारीखों के गिर्द गोले खींचते
बेबस इक उम्र की नाप तौल करते
बेख़याली में,नामालूम सा दर्ज़ हो जाता है, उसी पन्ने के पीछे कुछ ..
दिन रातों के हिसाब शरीक़ करते
समीकरण बैठाते,जोड़ते घटाते कभी कभार
कभी धोबी को दिए कपड़े गिनते गिनते
जाने किस और मुड़ जाती है मुई पेन्सिल बेलगाम
जगह न हो तो,हाशिये पे ही भाग पड़ती है..
कहीं ऐसे भी कविता होती है?
पुरानी कॉपियों के आख़िरी पेज पर
भूले भटके किसी प्रिस्क्रिप्शन, पर्ची कभी किसी बिल को उलट
भागते आ, कुछ लिखना
फिर वापस दौड़ जाना
बताइये, ये हिमाकत भला कविता हो सकती है?
ये कविता नहीं,कोई मर्ज़ है ज़रूर
न कोई सैलाब इसमें, न तनिक बारूद
वो तो बेइख़्तियार ,चाय की पतीली से मसालदान में कूद आते हैं
रंगों के भूखे चन्द अलफ़ाज़ बेशऊर
पिस के भुन जाते हैं बेचारे
कभी गूंध लिए जाते है, कभी दूध संग उफ़न बह जाते हैं..
जी सही कहा,कविता ये थोड़े ही न बनाते हैं।
पुलक दबा लेते हैं,हम थिरकन बाँध कर रखते हैं
तल्खी से जज़्बातों की हिफ़ाजत किया करते हैं
वो तो चुभ जाती है बेसाख़्ता कभी कोई किर्च अपने ही वज़ूद की
बुहारते यादों का सीला सा आँगन
बस एक आह सिसक पड़ती है कभी, ग़र छिपा नहीं  पाते
जी, जख़्मों का पर्दा रखते हैं।
वो जब आसमाँ का एक टुकड़ा टूट ,आ लपकता खिड़की के भीतर जब
बस तारे बीन, चाँद के सदके जुगनू बना उड़ा देते हैं
धड़कन की पायल छनकाते सांसों की परवाजें भरते हैं
कहाँ हम कविता कोई लिखते हैं?
वो तो नामुराद ,बेग़ैरत कुछ बेमुरव्वत से सपने
छिप जाते कमबख्त,  वैसे तो तनिक सी आहट पर
पर देखो कब्ज़ा जमाये रखते हैं जबरन दिल पर,जेहन पर
नींद में ख़लल डाल,खुद गद्दे के नीचे,किसी कागज़ पर सो जाते हैं
हम सपनों की लत से उबरने की ,पर जारी ज़िद रखते हैं
बताने लायक सा,हम तो कुछ नहीं करते
जी, आप सही हैं
फ़क़त जाया वक़्त करते हैं
हम कविता नहीं लिखते।

००


आत्महत्या
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कुछ तो होगा उस पार
जो खींचता होगा..
सोचा होगा तुमने
शायद वहां
दिल के फफोले न टीसते होंगे
न सांसों का शोर डराता होगा
न आँसुओं से खारा समन्दर
न ख्वाबों सा चटखता आसमान होता होगा
न रेतीले जिस्म
क्रॉसवर्ड पहेली सी ज़िन्दगी भी नहीं होगी
न भुरभुरा गिरते दिन
न लिबलिबी काई पर फिसलती रातें होंगी
न कैद में ख्वाहिशों की
हथेली की लकीरों के दरख़्त  मुरझाते होंगे
न प्यार का अर्थ बोझ
न रिश्तों का मायने फ़ासला होता होगा..
पर रुको ज़रा
ये गर्दन पर आस का फंदा बाँध
उस पार की छलाँग
की जो तैयारी की है न..
सुनो दोस्त
वो चमकती सतह जो लुभा रही है
वैतरिणी की नहीं
न मणिकर्णिका की
न मृत्यु न जीवन न मुक्ति
वो तो आभासी प्रतिबिम्ब दिखाते
इसी दर्पण की है ..
सोच लो!

००
चित्र: अवधेश वाजपेई

      वसीयत
       -------
नाम तेरे एक चाँद लिखेंगे
परवाजें न बाँटी जाएँ, ऐसा आसमान लिखेंगे
मेरी सारी नदियां तेरी
अपनी सब झीलों की मौजें,आज तुम्हारे नाम लिखेंगे
आँखें हों,सपने भी हों पूरे
सोचते हैं, ऐसा बचपन, बेलौस तुम्हारे नाम लिखेंगे
हर आहट पे दिल न कांपे
अमन चैन भाईचारा अहिंसा सुकून आराम लिखेंगे
बाहें पसारें, सब दरवाज़े
विरासत में , मकाँ ऐसा,बसेरा तुम्हारे नाम लिखेंगे
दुःख दर्द जैसे शब्द ख़ारिज
शब्दकोश बस प्रेम प्यार का बना, तुम्हारे नाम लिखेंगे
धरती छोटी दिल के आगे
जो भी चाहे आकर पढ़ ले,चाहत का पैगाम लिखेंगे
हथियार सारे आ दफन हों
सरहदें हों सांझी सबकी,ऐसा सुंदर एक जहां लिखेंगे
उसे फाड़, उड़ा देना तुम पन्ने
हवाएँ बांचेगी केवल प्रेम, वसीयत तुम्हारे नाम लिखेंगे।
००

बदलाव
 ---------
ये दुनिया बाज़ार
इश्क़  दुकान
प्रेम व्यापार!
हैं बिकती रहीं
सजी देहें
आतिशें/ख्वाब/आसमान
सदा से...
पर आज
दौर ये बदला है
सुनो!
आज
कतारबद्ध सब घेरों में
बिकाऊ..
और मैं खरीददार!
चाहत केसिक्के मेरे पास
तो चुनाव
बस मेरा है..
हूँ खड़ी सतर
निशाना सटीक
तुम महज़ सामान
मेरे हाथों में छल्ला है।
००

प्यार
-------
हाँ भूल चुकी हूँ तुम्हें
पूरी तरह से
वैसे ही
जैसे भूल जाया करते हैं बारहखड़ी
तेरह का पहाड़ा
जैसे पहली गुल्लक फूटने पर रोना
फिर मुस्काना
घुटनों पर आई पहली रगड़
गालों पे पहली लाली का आना
तितली के पंखों की हथेली पर छुअन
टिफिन के पराठों का अचार रसा स्वाद
वो पहली पहल शर्माना..
पर जाने क्यों
बेख़याली में कभी
दुआओं में मेरी
एक नाम चोरी से चला आता है चुपचाप
घुसपैठिया कहीं का!

००

चित्र: के रवीन्द्र

सुबह नहीं होती अब
    --------------
देखा करती थी
नींद के खुलते ही
सुबह सुबह रोजाना ही...
और कैसे फौरन
खिलखिलाता
आंखमिचौली सा खेलता
गोलमटोल
मासूम सा सूरज
मेरी खिड़की की गोदी में लपक आता था।
अब...
तप जाता है
थक जाता है
हाँफते हाँफते बेचारा
चढ़ते चढ़ते
दस मंजिलें एक के बाद एक
सामने उग आई
उस नई इमारत की।
मेरी भी  निराश खिड़की
बन्द हो चुकती है
तब तक।

००


     शब्द
           -
तो बकौल आइन्स्टीन
पदार्थ न मरता है, न बनता
ऊर्जा तक बन सकता है इक निरा पत्थर..
अच्छा!
शब्दों को क्यों नही बूझा किसी ने?
वो भी तो नहीं बनते,मिटते भी नहीं
कहीं कुछ नया नहीं होता कभी कहने सुनने को।
सदियों पहले की कहा सुनी
कान के पर्दे से टकराते रहती है देखो आज भी ..
हीर सोहनी लैला जूलियट.. हाँ,सुनती हूँ तुम्हें सच
समा कर तुम में, मीरा -सी जी लेती हूँ
उफ्फ़!
देह को जिंदा कर जाते हैं, फिर मुर्दा भी
सुकरात के प्याले में घुले आह ये शब्द...
कहाँ बंधेंगे!
पारे की बूँद से ढुलक  जाते
कभी पहाड़ हो जाते,किसी मांझी के घन का इंतज़ार करते करते
प्यार के प्यास की भाप कभी उड़ जाती
कभी बारिश की नमी सी जम जाती इन्हीं शब्दों मे
सुनो!
बदल दो न प्यार को भी आइंस्टीन के 'मैटर 'में।
शब्दों से उसे जमा लूँ
पिघला भी लूँ कभी मैं
ठंडे लावे से तर कर लूं रूह अपनी।
बस ये बावरा दिल अब बुद्ध हो ले
बेलौस निकल पड़े ,बंजारे शब्दों की राह खोजे..

००


स्वागत
 ---------

पहले पायदान पर रगड़ आओ मज़हब
छिड़क लो इतनी आब
धुल जाये तंगदिली सारी
घिस के पोंछ दो तौलिये से अपना प्रान्त, वर्ग और नस्ल
ग़ुरूर बाहर छोड़ आओ
अलगनी पर सोच को ज़रा धूप दिखा दो
वहीं स्टैंड रखा होगा
पैरहन उतार दो मर्द या औरत होने का
और उसपर टाँग दो...
आओ मेरे दोस्त
अब मिलते हैं

००

-डॉ छवि निगम

परिचय-लेखक एवं शिक्षाविद्
 निवास-लखनऊ




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सत्यनारायण पटेल

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