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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 अक्टूबर, 2017


प्रियंका पाण्डेय की कविताएं


प्रियंका पांडे: भावुक मन की कोमल कल्पनायें जाने अनजाने अक्सर  बादल,धूप,हवाओं,चाँद ,सूरज से रंग उधार ले लेकर चित्र उकेरती गयीं और शब्दों ने उन्हें  मोती बन कविताओं की शक्ल में ढाल दिया।
जीवन के सफर में भावनाएं और शब्द साथी रहे।ठोस ज़मीन से जुड़ भावनाओं की सतत उड़ान अभी भी जारी है।

छंद,गीत,दोहे,मुक्तक,ग़ज़ल,  लघुकथा,छंदमुक्त काव्य आदि विधाओं में लेखन।
सात साझा संकलन
Colours of refuge
अंतर्राष्ट्रीय साझा संकलन में रचनाएं शामिल। पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
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प्रियंका पाण्डेय की दस कविताएं

एक

कुछ न कुछ तो रह ही जाता है
कितना भी समेटो जतन से...
भागती दौड़ती ज़िन्दगी में
दो पल के चैन सा
ज़माने की तल्खी में
मीठे इक बैन सा
अधमुंदी पलकों में
बचपन के रैन सा
सूनी निगाहों में
चंचल से नैन सा
कुछ ना कुछ तो रह ही जाता है
सूखे में तरसते
पानी के बादल सा
भीगी सी पलकों में
खोये से काजल सा
भूखे की थाली में
थोड़े से चावल सा
तपती सी ज़िन्दगी में
मैया के आँचल सा
कुछ ना कुछ तो रह ही जाता है
तन्हाई में बैठ कर
दूसरी कॉफी के प्याले सा
भरे पेट पर भी
माँ के उस निवाले सा
पापा की बातों से
अँधेरे में उजाले सा
कंक्रीट के जंगल में
छोटे से शिवाले सा
कुछ ना कुछ तो रह ही जाता है.........!!!!
०००

दो
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कौन भर जाता है इतना पानी इन बादलों में
कि धुल जाते है ज़िन्दगी के कुछ पन्ने
फिर भी
फ़ीकी सी स्याही खींच ही ले जाती है
बरबस अपनी ओर
खूब बरसते थे बादल छोटे से आँगन में
बारिश में भीगना
फिर माँ से बचने की तमाम तरकीबें खोजना
लुकाछिपी,लड़ाई झगडे,छीना झपटी...
अपनी कागज़ की नाव डूबने पर नाराज़गी दिखाना
कहीं कोई उम्र में एकाध साल बड़ा बुज़ुर्ग
कह देता था
कोई न...मेरी वाली तुम्हारी....
मुट्ठी भर टॉफियाँ...
बाहों भर आकाश......
बस इतनी सी खुशियों की जागीर लिए फिरते थे.....
हवाएँ भी...कुछ तेज़ ही चलती हैं
उड़ा के बिखेर देती है रियासतें तमाम..
बादल तो आज भी बरसते हैं...
मोटे चश्मों,कार के शीशों,
या बंद खिडक़ी के काँच के अंदर
चुपके से नम कर जाते हैं
यादों की ज़मीन
हवाओं...फिर तेज़ चलो
सुना है...
उजड़ी बस्तियों पर फिर से शहर बसा करते है...........!!!!!
०००

तीन
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नही महकती कोई अमराई
उस बेवा की सूनी बगिया में
नहीं कूकती कोई कोयल
सहम जाती है अक्सर
सरहद पर गोलियों गूँज से
हवा ले आती है
बारूद की महक जेहन में
मासूम बच्चा
खिलौने की रेलगाड़ी से खेलता
पूछ बैठता है चौंक कर
कब आएंगे पापा
अलमारी में टंगी वर्दी पर
चमकते सितारे
अक्सर बढ़ा जाते हैं
चाँद रातों की बेचैनी
वक़्त..
गुज़रता है
कि गुज़रना उसकी फितरत ठहरी
बूढ़ा बाप
पथराई आँखों से रास्ता तकता
हर राहगीर से
पनीली आँखों में पूछ बैठता है
क्या कब्र तक जाने के
रास्ते इतने भी आसान हुआ करते हैं??
०००

चार
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आसान नही होता
भागते दिन
गुज़रते मौसम
बदलते चेहरे
सूनी आँख
बिखरे सपने
बीतते रिश्ते
रीतते हाथ
खुद को खुद में समेट
उड़ते
बरसते
भागते
मनमौजी बादलों की
परछाइयाँ
मुट्ठी में क़ैद करना
मौन से शब्द शब्द
झूठ से अपना सच
जिस्मों से रूह सहेजना
जबकि थकन से चूर
धुंधली हो चलें
अपनी ही परछाइयाँ
और
ज़िन्दगी बैठी हो
मूक
स्तब्ध
चकित......!!!
०००

पांच
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डूबते सूरज की मानिंद
ज़िंदगियाँ अपनी पीठ पर ढोते
अंधेरों से लड़ते
ज़ेहन में गड्डमड्ड होती यादें
बच्चों की किलकारियाँ
पत्नियों की शिकायतें
अलमारी में सहेजी तमाम यादें
सन्दूक के ज़रूरी कागज़ात
धमनियों में कौंधती अनगिनत चीखें
अपनों की कातर आँखें
बारूद के ढेर
आँखों में पसरता रेगिस्तान
एक टुकड़ा ज़मीन और चंद रोटी
लगा जाती है
बहुत कुछ कहने को आतुर
होंठों पर चुप्पी
कि बोलने पर सियासत के
कानूनी पहरे जो ठहरे
दरकार है उम्मीद की ज़मीन पर एक टुकड़ा
जहाँ रोप सकें अधूरे सपने
अपनी ज़मीन से
उखाड़ कर लाये
अधमरे सूखते पौधे
शायद कभी पहले सा
इनपर भी परिंदों के बसेरे होंगे
उम्मीदें...भी कब मरा करती हैं
जिन्दा है तो बस जीने की ज़िद!!

छः
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उम्र के बेहद संजीदा
और एकरस समतल मन की जमीन पर
रोटियां
गोल बेलने की जद्दोजहद में
पीछे छूट गए कहीं
अल्हड़ मन के अनगढ़ सपने

पकती रोटियों सी पकती उम्र
कोमल मन के
मासूम सपने सहेजती
देखती रही तोलती रही
काली चित्तियों में दबे मन के छाले

हर रोज सब्जियों में
मसालों से तीखापन बढ़ाते
जिंदगी के बेस्वाद जायके को
नजरअंदाज करते
डिब्बो में कस कर बन्द कर देती है
आँखों का नमक

अपनी ख्वाहिशों के मोल पर
औरों को खुशियां खरीदते
मुस्कुराहटें बिखेरना
अच्छे से जानती है
अक्सर मन तो मार लेती है
पर
मन की कहाँ मानती है।
 ०००

सात
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समेट ली थी खालीपन की चादर
बिखरे बाल आहिस्ता से समेट
आईने में देखा आत्मविश्वास से
एक अलग सी खुद को
अलग कर तमाम ज़रूरी
और गैरज़रूरी कामों की जंज़ीरों से
मन कर चला क्यों न जी ले
अपने लिए भी चार पल
घर के बिखरे सामानों की तरह
अपना अस्तित्व समेट सजा दे
किसी शेल्फ पर
महंगी कलाकृति सा
कर्तव्यों का लिबास ओढ़े
खुद को नकारता मन
कहीं पूँछ न बैठे
तमाम दबाई हुई अधूरी इच्छाओं के बारे में
खुद ही अपनी पीठ थपथपा
बेपरवाही से गर्दन झटक
मुस्कुराकर चल पड़ी थी
छूने इंद्रधनुष का दूसरा छोर
एक गहरी सांस
सुकून से पिया कॉफ़ी का पूरा कप
जिसमे नहीं छूटे दो चार घूंट
किसी ज़रूरी काम के लिए
याद रहा तो बस
"डू सम क्रियेटिव"
उसे जीने थे कुछ पल अबसे
सिर्फ अपने लिए...!!
०००

आठ

टीसता है दर्द....

कहीं बहुत गहरे तक !

जब हर कदम पर
हिम्मत देने वाली माँ
हिम्मत हार बैठती है
ढलती उम्र और बीमारियों से

जीवन भर
घर का तिनका सहेजती
सहेज नहीं पाती
एकदम से उखड़ती सांसें

जीवन की रंगीनियाँ भरती
अंतिम दिनों सिमट जाती है
रंगीन गोलियों की रंगत में

ऊँगली पकड़ कर चलना
कब सीखा कुछ याद नही
पर उसे चार कदम
चलने को सहारा देते
भारी हो उठता है
कन्धों से ज़्यादा दिल का बोझ

पेट भरा होने पर भी
'कुछ खा लो' बोलने वाली
दो कौर पर ही 'बस' बोलती है
तब भरा मन और भरी आँखें
बगावत कर बैठते हैं...!!

इशारों में बातें समझने वाली
कातर आँखों से
जाने क्या क्या कहना चाहती है
पर समझा ही नही पाती

कहते हैं
वक़्त बदलता है..
गया वक़्त फिर एक बार
लौट कर आता है

पर
वक़्त का यूँ पलट कर आना...
माँ का फिर से
नवजात सा हो जाना
बहुत टीसता है...

कहीं बहुत बहुत गहरे तक........!!!!
०००
 
नौ
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दहलीज़ पर खड़ी थी
एक उम्र
बन्द मुट्ठियों में
रेत सा सहेजते
ख्याल ही न रहा
कब वक़्त की सुराखों से
झर रहे मासूम से सपने

पसीजती हथेलियाँ
गवाह रहीं उन गरमाहटों की
जो मन की कोरे पन्नों पर
लिख गयी थीं
अमिट इबारतें

मन
बुनता है गुनता है
कड़ियाँ
सहेजता है रेत पर छूटते तमाम निशान

पर उम्र
कब ठहरती
गुज़रते हुए पूछ ही बैठती है
अक्सर
बन्द मुट्ठी में
पसीजते रिश्तों का वज़ूद...!!
०००

दस
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 प्रेम
तब भी यही था
जब बेपरवाह नदी सा
अंजुरी में अपनी सारी मिठास लिए
आतुर रहता था हर पल
तुमसे मिलने को

और तुम
सागर से अपनी उत्तंग लहरों की
दर्प के साथ
फेंक जाया करते थे
सारी मिठास और समर्पण
वापस किनारों पर

कितनी बार
प्रेम की किरचें चुनते
लहूलुहान हुए थे हाथ

कितनी बार
तुम्हारी सारी कड़वाहट पीकर
फिर से संजोई थी मिठास
और
खारी रेत से चुने थे
उसके अवशेष

प्रेम
अब भी वही है
न थका है न मरा है
पर चुप है
खुद को खुद में समेट
खामोशी की चादर में
रोक बैठा है अपना प्रवाह

और
रोज़ ही देखता है
किनारे तक आकर
खुद को टटोलते
खोया प्रेम खोजते
चट्टानों से टकराकर
बिखरता तुम्हारा दर्प.........!!!
 ०००




संपर्क:-priyanka.narendra030201@gmail.com

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