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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 अक्टूबर, 2017



सभ्यता के हमारे साथ सभ्य होने के इन्तजार में ...

अन्नू सिंह

कुछ ‘अनचाहे अनुभव’ जब तक हम किसी से बांटते नही है, तब तक हमें ऐसा लगता है की वो केवल हमारे ही है | फिर जब उसे हम अपने किसी आत्मीय के साथ बांटते है, उस पर सहजता से बात करना शुरू करते है, तब हमें यह पता चलता है की ऐसे ही अनुभव और लोगों के भी है |


 फिर उनके भी उन ‘अनचाहे अनुभवों’ के प्रति कुछ नकारात्मक प्रतिक्रियाएं होती है | फिर हम उनके कारणों  और उसके निवारन पर विचार करते है | फिर उसके लिए कोशिश भी करते है |
दस साल गर्ल्स हॉस्टल में गुजारने के दौरान मै और मेरी सहेलियां अक्सर इसी प्रक्रिया से गुजरे | पहले हम में से कोई अकेला कही जाता था और उसे ऐसा कोई ‘अनुभव’ मिलता था तो वह डर जाती थी, और किसी से बताती नही थी | उसके बाद कई बार कमरे पर आकर अकेले में रोती थी | फिर अकेले कही जाने से बचती थी | बहुत जरुरी भी काम तब तक टालती थी जब तक टाला जा सके या जब तक साथ में जाने वाला कोई मिल न जाए |
लेकिन फिर कई बार ऐसा भी हुआ की वे किसी के साथ गयी तो भी उन्हें या जिस सहेली के साथ वो थी उन्हें भी ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ा | फिर वे दोनों डर गयीं | कमरे पर आकर साथ में रोष जताया | क्रोधित हुई , रोई , चिल्लाई , गलियां दी | फिर ये निर्णय लिया की हम ये बात किसी से नही बताएँगे |
 फिर ऐसा हुआ की वे बाहर जाते समय  समूह में जाने की कोशिश करने लगी |  उन्हें ऐसा लगा की वे भीड़ में रहेंगी तो कोई उनके साथ ऐसा नही करेगा | पर एक दिन ऐसा भी हुआ की वे भीड़ में थी और  उनमे से किसी को उस ‘अनचाहे अनुभव’ का सामना करना पड़ा | वे अवाक् थी | इस बार उन्होंने साथ में रोष जाताया , गालियाँ दीं  , कोसा भी, कभी खुद को, कभी समाज को,  कभी उन अनुभव देने वालो को जिनका चेहरा वो कभी देख पाती थी तो कभी नही भी देख पाती थी | कभी वो खुद के लड़की होने पर क्रोध जताती थी तो कभी भगवान् को कोसती थी की उन्हें इतना कमजोर क्यों बनाया, असमर्थ क्यों बनाया ...| अगर उनका बस चला होता तो वो उन्हे  यहाँ मारती , वहाँ मारती , पुलिस में दे देती , भीड़ से पिटवाती ...आदि | फिर वे साझा करना शुरू करती की उनके साथ इस से पहले कब-कब क्या-क्या हुआ था | किसी को मंदिर की भीड़ में किसी ने छूने की कोशिश की थी, तो किसी को  बाजार की भीड़ में किसी ने दबोचने की कोशिश की थी , किसी को ट्रेन में किसी ने दबाने की कोशिश की थी तो किसी को बस में किसी ने जबदस्ती छूने की कोशिश की थी |फिर उन्हें महसूस किया की उनमे से हर किसी के साथ यह हुआ था, कही न कही, कभी न कभी | उन लड़कियों की संख्या कम या ज्यादा होना महत्वपूर्ण नही था बल्कि बाहर ऐसे लोगों का होना महत्वपूर्ण था जो अलग शक्लो और उम्र के होते थे और अक्सर भीड़ या सुनसान जगह होने का फायदा उठाकर छूने की कोशिश करते थे, दबोचने की कोशिश करते थे , कुछ नही तो दूर से ही ऐसे  इशारे करते थे जो आपके मन में घिन पैदा कर दे  | और आपको  समझ में न आये की आपको घिन किस से हो रही है , खुद से, समाज से , उस व्यक्ति से ....पता नही | फिर कई बार वे इस सब पर आर्टिकल्स भी पढ़ती , अलग अलग रिसरचेज पढ़ती , समाधान के लिए अपनाए गये कई सरकारी  और गैर  सरकारी तरीकों को पढ़ती , खुद अपनी राय भी व्यक्त करती | कईयों को लगता की इसके लिए पुरुष जिम्मेदार है , पुरुष होते ही ऐसे है , कईयों को लगा, नही कुछ लड़कियों के चलने और पहन ने का ढंग लडको को उकसाता है और वे सभी महिलाओ के साथ ऐसा करने लगते है, कईयों को लगता की समाज इसके लिए जिम्मेदार है , लड़के और लड़कियों की अलग-अलग ढंग से परवरिश जिम्मेदार है | फिर चर्चाये बहुत लम्बी और सहज होती जाती | इसी सहजता ने उनके प्रतिक्रिया करने के तरीके को भी धीरे धीरे बदलने लगा  | अब वे रोती नही थी ...
एक बार मेरी दो सहेलियां  पास के लल्लाचुंगी के  मेडिकल स्टोर पर दवा लेने गयी | उन्होने अपना चेहरा मेडिकल स्टोर की तरफ किया हुआ था | तभी किसी ने आवाज दी, बहुत धीरे से ,इतना धीरे की कोई और न सुन सके, जैसे उसके कान में कहा गया हो , “ दूध दे दो” | उसने जब पीछे मुड़ कर देखा तो एक बूढ़े  आदमी ने  उसके ब्रेस्ट की तरफ देख के इशारा किया | तभी वहाँ खड़े लोगों को एक झन्नाटेदार थप्पड़ की आवाज सुनाई थी और सभी एक साथ चौक कर पीछे मुड़े | क्या हुआ? क्या हुआ? ...सभी पूछने ?वो बूढा आदमी थप्पड़ खाकर  इतना तेज दौड़ा की पांच मिनट में गायब हो गया | सबकी सवालियां निगाहों को मेरी सहेली ने मुस्कुराते हुए “कुछ नही हुआ” कह कर शांत करा दिया |
 इसी तरह एक बार मै और मेरी सहेलियां कुम्भ के दौरान संगम घुमने गयी | अधिक भीड़ के चलते हम मेले के किनारे के हिस्से में चलने लगे | जहाँ अपेक्षाकृत सन्नाटा था और अँधेरा भी | सामने से एक व्यक्ति आता दिखा जो खुद को डंडी स्वामी कहकर सबको आशीर्वाद देता हुआ  दूर से चला आ रहा था | जब हम थोडा और आगे बढे तो वहाँ कोई और नही था | बस मै, मेरी दोस्त और सामने आ रहा वो ‘स्वामी’ | मैंने ध्यान दिया की उसकी नजरे नीचे मेरे शरीर क विशेषकर उपरी हिस्से को घूर रही थी | उसके घूरने के तरीके से मै थोड़ी चौकन्नी हो गयी थी और पता नही मुझे कैसे ये लगा की ये कुछ घिनौनी हरकत करेगा | हम दोनों सड़क के और किनारे से कट कर जाने  की कोशिश किये की तभी उसने हाथ उठा कर मेरे बूब्स को छूने की कोशिश की | उस से बचने की कोशिश  में हम दोनो गिरते-गिरते बचे | और संभल के जब तक पीछे मुड़ते तब तक वह न जाने कहा गायब हो गया था ...| इस बार हम डर के भागे नही |हमने उसें ढूँढा पर वह कही नजर नही आया |
 ऐसे ही एक बार हम मनकामेश्वर मंदिर गये, उस वक्त सावन था शायद | भीड़ बहुत ज्यादा थी | उसी भीड़ में हम लोग प्रसाद खरीदकर जल्दी से लाइन में लगने की कोशिश में थे कि तभी मुझे महसूस हुआ की कोई मेरे हिप्स को छू रहा है | पहले मुझे लगा किसी के कपडे से छू रहा होगा इसलिए मैंने इग्नोर किया | लेकिन दोबारा फिर मैंने ऐसा महसूस किया | मै जल्दी से पीछे मुड़ी | मुझे अपने पीछे सभी ऐसे ही अपने बाल-बच्चो के साथ प्रसाद खरीदने या इधर- उधर जाने में व्यस्त दिखे | मुझे समझ नही आया मै किसको बोलू, कौन कर रहा है ऐसे ? कुछ समझ नही आया तो मै फिर आगे देखने लगी | मैंने फिर उस जगह को ही बदल दिया  | हम लोगों को फिर ये महसूस की ऐसी हरकत करने वाले लोग अकसर भीड़ की शक्ल में होते है | ऐसी हरकते करते है और  अपने यौन कुंठा को तुष्ट करके भीड़ में शामिल हो जाते है | शादी-शुदा हो सकते है, बाल-बच्चेदार , बुड्ढे, अधेढ़, जवान , अकेले या पत्नी और बच्चो के साथ ...कोई भी |
पर हर बार भीड़ की शक्ल  लेकर बचना आसान नही होता | मै पी. सी. एस. प्री. का एग्जाम देने ट्रेन से जा रही थी | मै और मेरी जूनियर महिला बोगी में ऊपर की सीट पर बैठे | तभी स्टेशन पर कुछ अधेढ़ उम्र के पुरुष उसी डिब्बे में बैठे | उनमे से एक ठीक मेरे सीट के नीचे   बैठा | थोड़ी देर बाद मुझे फील हुआ की मेरे थाईज  में कुछ चुभ रहा है | मैंने तुरंत अपना पैर उठाया, ये देखने के लिए कि कोई कीड़ा तो नही है या फिर सीट में कुछ ऐसा लगा है क्या जो चुभ रहा हो | पर जब मैंने पैर हटाया तो देखा की उस आदमी ने अपनी दो उंगलिया उस टूटे सीट की  लकड़ियों के बीच में से सीधे खड़ा किया था  | मैंने अपनी जूनियर को दिखाया, फिर बिना कोई आवाज किये थोडा सा बाएं खिसक गयी, ये कन्फर्म  करने के लिए की वह जान बुझ के तो ऐसा नही कर रहा है? | फिर थोड़ी देर बाद मैंने देखा की उसकी ऊँगली भी बाँए आकर मेरे थाईज में वैसे ही चुभ रही थी |  फिर मै और बाएँ खिसक गयी और अपना भारी बैग उसके खड़ी उँगलियों पर दे मारा | उसने उंगलिया तुरंत नीचे कर ली और तुरंत सीट से उठकर चला गया |
ऐसे कई वाकये है जब मै या मेरे जैसी  और लडकियां सार्वजनिक स्थलों पर लगभग रोज ही यहाँ-वहाँ  यौन हिंसा का शिकार होती है | हम पहले डर जाते थे, चुप रह जाते थे, अब प्रतिक्रिया व्यक्त करते है | ऐसा नही है की हमारे रियेक्ट करने से ये घटनाये कम हो गयी या बंद हो गयी | इतने दिनों में ,मैंने और मेरे साथ रहती लड़कियों ने बदलाव अपने अन्दर ही महसूस किया, एक डरपोक लड़की से हिम्मती, समझदार और चौकन्ना लड़की बनने का | समाज में ,सड़कों पर, मंदिरों में, बाजारों में होने वाली ऐसी घटनाये नही बदली | वो आज भी वैसे ही होती है ,बस अब ज्यादातर ऐसा होता है की ऐसी हरकत होने से पहले ही हम चौकन्ने हो जाते है , खुद के साथ ऐसी घटना होने से रोक लेते है, अपनी जूनियर्स के साथ शेयर करके उन्हें भी इन बातो से बचने के लिए हिम्मत देते है |
रोज होती इन घटनाओ , ब्रुटल रेप की घटनाओ, को सुनती हूँ, पढ़ती हूँ , निश्चय ही इसे  वो लोग भी पढ़ते होंगे जो बाद में ये सब करते है |  अगर ये घटनाये मेरे अन्दर संवेदनशीलता जगाते है, क्रोध जगाते है, रोष जगाते है, तो मुझे लगता है की उनके अन्दर भी तो जगाते होंगे जो ऐसा करते है | पर शायद ऐसा नही है | इन चीजों को रोकने के लिए कड़े क़ानून भी है , लोग पकड़े भी जाते है, अवेयरनेस भी जगाई जाती है ,सेल्फ डिफेंस कोर्सेस भी चलाई जाती है , परवरिश के तरीके को बदलने की कवायद की जाती है | ऐसा बोलते है की परवरिश का तरीका बदलेगा तो पुरुषो में महिलाओ के प्रति सम्मान आएगा , महिलाओ और पुरुषो में समानता का बोध बढ़ेगा,  स्त्री पुरुष के बीच स्वस्थ मेलजोल को बनाये रखने की शिक्षा पद्धति बनेगी तो यौन कुंठा जन्म नही लेगी ...आदि आदि | ये  सब कुछ होने में सालो लगेंगे | अगर मै बहुत आशावादी होकर भी सोचती हूँ की, सच में कभी ऐसा वक्त होगा ,इस सारी कोशिशों के बाद, तो भी हमें बहुत इन्तजार करना पडेगा , एक पीड़ी का इन्तजार या दो पीढ़ी का या तीन पीढ़ी का या पता नही कितनी पीढ़ियों का ...| और तब तक कितनी ही लडकियों के साथ कितने ही तरीको से हिंसा हो चुकी होगी ...वे मर चुकी होंगी ...इस  सभ्यता का उनके प्रति सभ्य होने के इन्तजार में |
पर इतिहास पलट के देखती हूँ तो लगता है की समाज  उन लोगों के साथ सभ्य कभी नही  रहा जो कमजोर थे; शारीरिक रूप से, आर्थिक रूप से , शैक्षिक रूप से , राजनीतिक रूप से ...| बस इस स्थिति को कुछ लोगों द्वारा सही और  कुछ के द्वारा  ख़राब करने की कोशिश की जाती रही.. अनवरत |
अहिंसक समाज की कल्पना अमूर्त और सुखद लगती है ...पर ऐसी कोई होती नही है, शायद |
०००

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