तिथि दानी ढोबले की कविताएं
तिथि: तिथि (दानी) ढोबले। ने एम.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), बेचलर ऑफ जर्नलिज़्म, पी जी डिप्लोमा इन मास कम्युनिकेशन्स की शिक्षा प्राप्त की है और जन्म- जबलपुर (मध्य प्रदेश) में हुआ है।
तिथि |
अब तक परिकथा, पाखी, शुक्रवार, अक्षरपर्व, वागर्थ, लमही, पूर्वग्रह, लोकस्वामी, सनद, संवदिया, नेशनल दुनिया, प्रबुद्ध भारती, दैनिक भास्कर, पीपुल्स समाचार, जनसंदेश टाइम्स, लोकस्वामी, जनसत्ता साहित्य विशेषांक , दुनिया इन दिनों - साहित्य वार्षिकी 2, समावर्तन का रेखांकित स्तंभ, देश की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’, समय के साखी आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, कहानी, लेख प्रकाशित। सिताबदियारा ,पहलीबार ब्लॉग पर भी कविताएं। दूरदर्शन और आकाशवाणी में रचनाओं का पाठ। राजस्थान पत्रिका में साक्षात्कार प्रकाशित।
भारतीय उच्चायोग(लंदन) द्वारा प्रथम काव्य संग्रह की पांडुलिपि पुरस्कृत तथा प्रकाशन हेतु अनुदान प्राप्त।
लंबे समय तक जबलपुर के अनेक महाविद्यालयों में अध्यापन, आकाशवाणी में कंपियरिंग, `मनी मंत्र’, `बिंदिया’ पत्रिकाओं के बाद पी7 न्यूज़ चैनल और फिर नई दुनिया में पत्रकारिता।
फिलहाल ऐकॉर होटल्स श्रृंखला की मर्क्यूरी जॉर्ज होटल में इंडियन शेफ के तौर पर कार्यरत है और स्वतंत्र लेखन जारी है।
रेडिंग (य़ूके) में रहती है
तिथि दानी ढोबले की कविताएं
विनीता कामले |
सफ़ेद पर्दे और गुलदान
परियों की कई पोशाकें दिखाई देती हैं दूर से
जिस पर रेत से लौटी लहरों ने की है कशीदाकारी
तेजी से पलटते हैं बचपन में सुनी परीकथाओं के पन्ने
नज़रों के सामने तैरते हैं सतरंगी बुलबुले
सूरज की किरणों पर सवार
निगाहें चली जाती हैं कांच की खिड़की के पार
जो ठहरती है वहां,
जहां सच में बदलती है फंतासी
झालरनुमा गोटेदार, सफ़ेद पर्दों के साथ
और भी नज़दीक जाने पर
दिखता है शान से बैठा हुआ गुलदान
जिसमें भरा है एक मिश्रण
प्रेम से उठायी गई मिट्टी और करुणा से लिया गया जल।
गुलदान में मुस्कुराते हैं गुल,
खुद पर पड़ती नज़रों से
बढ़ती है इनकी शोख़ी और गाढ़ा होता है रंग
यह दृश्य बेहतर कर देता है आंखों की रोशनी
नाक सूंघ लेती है अतीन्द्रिय गंध,
अचेतन से चेतन में प्रवेश करती है मुस्कान
फेफड़ों में भरती है ताज़ा प्रणवायु
दिमाग़ हो जाता है विचारशून्य,
नहीं रह जाता उसे याद
कोई जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय और वर्ण
नहीं सोचता, कौन है इस संपत्ति का मालिक
उसी क्षण होती है प्रेम और आनंद की अलौकिक जुगलबंदी
इसी क्षण में शामिल होती है मुक्ति
होता है आंतरिक और बाह्य युद्ध स्थानापन्न
यही वो समय है, जिसके इंतज़ार में कटती है जिंदगी,
चलो, निकल पड़ें एक लंबी यात्रा पर
समूची धरती पर लगा दें
सफ़ेद झालरनुमा गोटेदार पर्दे
और हर कोण पर सजा दें गुलदान।
००
चित्र: सुनीता |
प्रार्थनारत बत्तखें
नहीं है यहां विश्व के किन्हीं दंगाईयों, आतंकवादियों, उग्रवादियों
और ऐसे ही कई दुर्जनों का कोई गुट,
हवा में बहती है लैवेंडर की ख़ुशबू
बनाया गया है यहां जंगल के बीचों-बीच अस्पताल
जिसके आसपास रहती हैं दो बत्तखें ,
भागी भागी फिरती हैं ये
शायद इन पर लगा है मोरपंखी रंग चुरा कर
अपनी गर्दन पर स्कार्फ की तरह लपेट लेने का इल्ज़ाम,
क्वैक-क्वैक की अलहदा आवाज़ से
कुछ पलों के लिए रोक देती हैं
गुज़रते राहगीरों की ज़िंदगी में मची हलचल ।
तमाम मनोरंजन नहीं बहलाते
खिड़की से सटे बिस्तरों पर लेटे मरीज़ों को
वे दर्द से कराहना बंद कर देते हैं
जब ये बत्तखें नृत्य करती हैं,
मैं भी गुज़रती हूं रोज़ वहां से
सुबह और रात होने के ठीक पहले,
उनकी गतिविधियों को करती हूं कैमरे में कैद
ये देख मुस्कुराती हैं बत्तखें
और फोटो लेते वक़्त मेरे और क़रीब आ जाती हैं।
दिनभर वे जुटाती हैं अपना दाना-पानी
और करती रहती हैं एक दूसरे के साथ मनमानी,
पर जब शाम दरख़्तों के बीच से उनकी पीठ सहलाती है
वे घास के टीलों पर गर्दन पेट में छिपाए, पोटली बन जाती हैं।
यही उनका तरीका है विश्व के लिए प्रार्थनारत होने का,
इसलिए सो जाती हैं वे बाकी सबसे पहले
ताकि आने वाले सभी दिन हों रुपहले।
००
दो सहेलियां झूले पर
स्कूल से अभी-अभी लौट कर आयीं
लाल रंग के दहकते स्वेटर पहने
वे दो सहेलियां थीं
पुराने टायर का झूला दरख़्त पर बांधे
कुछ बेख़ुदी, कुछ होश में
वे झूल रही थीं आंखें मीचे
फिऱ आंखें खोल खिलखिलाते
बचपन से जवानी के झूले पर चढ़ने की तैयारी में,
वे बातें कर रही थीं
पृथ्वी से बाहर किसी ग्रह पर घर बनाने की ।
उनकी हंसी में समा गए थे पृथ्वी के प्राण,
आकाश झुक गया था उनके अभिवादन में,
चोटियों में बांध ली थी उन दो सहेलियों ने बारिश,
सांसों में खींच ली थी गुलाबों की ख़ुशबू,
टायर में भर ली थी उन्होंने अल सुबह की पाक साफ़ हवा,
अपने शरीर के चुंबकत्व से
खींच ली थी उन्होंने कण-कण की ऊर्जा।
वे उड़ने की जल्दी में थीं ये सब कुछ साथ ले कर,
इससे पहले कि पड़ जाएं किसी खतरे में उनके प्राण
छीन ली जाए उनसे,
उनके हिस्से की पाक़ साफ़ हवा,
फिर फेंफड़ों में भर दिया जाए भय का कार्बन।
कुरूक्षेत्र न बन जाएं उनके खेलने के मैदान ,
इस पृथ्वी पर रहते हुए न पड़ें
जवानी की दहलीज़ पर उनके कदम,
मोर की तरह नाचने से पहले
न कर ले कोई उनका शिकार।
पृथ्वी ने भांप ली है उन सहेलियों की योजना,
और,
डेफोडिल्स के कालीन बिछाकर
उन्हें कर दिया है इशारा
कि,
पृथ्वी अब भी उर्वर है, संभावनाओं से भरी है,
और नहीं चाहती है अपने प्राण गंवाना।
००
बर्फ की बारिश
बंद कर दो टीवी और म्यूज़िक सिस्टम
खिड़ियों से मत झांको
निकलो बाहर
अपने उग्र और गर्म दिमाग़ों,
निस्तेज और सुस्त शरीरों से
अपनी लाचारियों और पशेमानियों से
अपने कृत्रिम और मायावी संसार से
सिर्फ़ घर के अंदर खड़े हुए मत मुस्कुराओ
बंद कर दो ये वीडियो रिकॉर्डिंग,
ख़ुशफ़हमी में मत आज़माओ फोटोग्राफी के नए-नए ऐप,
जऱा नीचे उतरो
आकर देखो
अपनी दृष्टि की प्यास दूर करो
महसूस करो इसे अपनी गहराइयों से
सर्वत्र पसरा ये उजाला मिटा देगा
तुम्हारे अंदर पसरा अंधेरा,
सांसों में भर लो ये ठंडक
ताकि तुम्हारा उबाल शांत हो,
अपने मन- मस्तिष्क पर ये सुंदर चित्रकारी होने दो,
देखो,
दैवीय बारिश नहीं होती रोज़
ये अलहदा और अपूर्व है
हर शय को गले लगाते
ये सिर्फ़ झक्क सफ़ेद बादल के
बिखरे हुए टुकड़े नहीं
स्वर्ग से गिरे हर्फ़ हैं
आओ, इन्हें इकट्ठा करें
और बना लें
अपने-अपने लिए भाषा के घर।
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
मृत्यु से आत्मीय संवाद
मैं तुम्हारे लिए एक गर्भस्थ शिशु की तरह रही,
तुम मेरे लिए एक रहस्यों से भरा अचीन्हा विश्व
मेरे कानों पर गिरता रहा दुत्कार और चीत्कार का शोर
किसी ने तुम्हें अनबूझ पहेली बताया
किसी ने कोसा और जी भर कर दीं गालियां
अरे सुनो.... अभी मुंह फेर कर जाओ मत
इन बातों का रथ तुम्हारे पहियों पर ही चलता है
इसलिए, अपनी स्मृतियों की स्वेटर उधेड़ रही हूं
और अपनी स्मृतियां, तुम्हे सौग़ात में दे रही हूं
उस वक़्त कोई थपकियां दे कर सुला रहा था मुझे,
गर्म, मखमली, अदृश्य भारी कम्बल ओढ़ा रहा था मुझे
फिर अचानक...
मेरे धावक दिल ने पकड़ ली रफ़्तार,
कान सुनने लगे मधुमक्खियों का गुंजन
खोपड़ी हो गयी संतरे की दो फांक
अनुभूतियां बदलने लगीं करवट दर करवट
मेरा अंत मुझे क़रीब लगने ही लगा था
कि, तभी आया थिरकता हुआ रंगों का प्लाज़्मा
जो अभिज्ञ आकृतियों के जलीय बादलों में बदल गया
जिसके आर-पार दिखने लगीं सभी आकाशगंगाओं की चादरें
जिनमें समाते रहे रंगों की प्यालियों से छलकते- पिघलते रंग
मुझे लगा मैं एक रंग हूं उन्हीं के बीच का
इन बेहद ख़ूबसूरत लम्हों की मैं साक्षी थी
मैं फेंफड़ों का एक बड़ा गुब्बारा बनी बहुत ऊंची उड़ान पर थी
जिसने खींच ली थी अपने हिस्से की सारी प्राणवायु
और ग़ायब हो रहा था अभिज्ञता की दुनिया से
असंख्य तितलियां की अगुआई में गुरुत्वाकर्षण की सीमा को लांघना,
घास के हरे मैदानों के बीच बहती नदी के ऊपर से उड़ना,
फिर इस कायनात से अलग दुनिया के तारामयी आकाश में पहुंचना,
एक स्वर्गिक आनंद था।
जहां अकेलेपन का स्थानापन्न थी उमंगों की उत्साह भरी नीरवता
जो मेरे प्रफुल्लित अस्तित्व पर बेसाख़्ता दे रहीं थीं दस्तक
तभी मेरे मरहूम दोस्त ने मुझे लौट जाने को कहा और धक्का दे दिया
अब मैं अस्पताल के उसी बिस्तर पर हूं
जहां से शुरू हुई थी तुम तक पहुंचने की अविस्मरणीय यात्रा
अब फ़िजाओं में गूंज रही हैं मेरे लौटने की ख़ुशियां और मैं... सिर्फ़ एक शाश्वत दर्द हूं।
००
बचपन में लौटना
हां मैं मुकम्मल होना चाहती हूं
इसलिए क़ुदरत के फानूसों की नरमी को
छूने देती दूं अपनी त्वचा
दरख़्तों की सीढ़ियां चढ़ते हुए
मैं उनसे प्रेम करती हूं
वे सभी आवाज़ें सुनना चाहती हूं
जो बजती हैं फ़िज़ा के गिटार की तरह
मैं बातूनी होना चाहती हूं
मगर चिड़िया की तरह
हां, मैं एकता की आवाज़ बनना चाहती हूं
मगर झील में तैरती बत्तखों की आवाज़ की तरह
मैं हर भेदभाव ख़त्म करना चाहती हूं
मगर ज़र्रे-ज़र्रे तक पहुंचती मखमली हवा की तरह
मैं ख़ुशियों की प्याली में मुस्कुराहटें पीना चाहती हूं
मगर फूलों पर मंडराते भौंरे की तरह
हां मैं दुनिया की तमाम बुराइयां दूर करना चाहती हूं
इसलिए मैं अपने बचपन में लौटना चाहती हूं।
००
माँ के हाथ
ज़मीन पर बिछे गद्दे पर
लेट गई थी मैं शिथिल होकर
तभी मेरे सिर पर
फेरा था हाथ मेरी माँ ने
राहत में तब्दील हो गयी थी
उसी क्षण मेरी शिथिलता
नज़र आने लगे थे
मुझे कई इंद्रधनुष
अपनी माँ के उन हाथों में
जिसकी उँगलियाँ हो गयी थीं टेढ़ी-मेढ़ी
शायद पहले कभी
ग़ौर ना किया होगा
मैंने इस तरह।
पल भर में त्वरित गति से
मेरी स्मृति के पन्ने
पलटने लगे थे
पीछे की ओर
मुझे नज़र आने लगी थीं
माँ की वो ख़ूबसूरत उँगलियाँ
जो जलाई थीं उसने
कई दुनियादारों की फ़रमाइश में
और सबसे ज़्यादा
मुझे स्वाद की गर्माहट देने में
मैंने सीखा था
माँ की उँगलियों से
खुद जलकर
दूसरों के हृदय को
शीतल करने का नुस्ख़ा
झाँका था मैंने
माँ की जली-कटी
उँगलियों के घावों की गहराई में
जिसमें मुझे दिख रहे थे
कई लोगों के मुस्कुराते चेहरे
माँ कहती थी मुझसे
अपनी हथेलियाँ फैलाकर,
इन हाथों ने
ना जाने क्या-क्या किया
और आज देखो
क्या हो गयी इनकी हालत
माँ की बात
समझ नहीं आयी थी मुझे
मैं सोच रही थी कि
माँ ने पा लिया है
अपना वजूद
तितली, झरने, कोयल, जंगल, जानवर
आज सब हैं उसके साथ
माँ को कुछ
दे सकने की स्थिति में भी
चाहती थी मैं
कुछ माँगना उससे
क्या अपनी यंत्रवत सी ज़िंदगी में
मेरे हाथों में
कभी किसी को
दिखेगा मेरा वजूद
मैंने उससे कहा
वो दे मुझे हथियार
जो दे मुझे काम
उससे दूर रहने पर
दुनिया वालों से लड़ने में।
पर उसने मेरे हाथों में थमायी बाँसुरी
और कहा उसे बजाना सीखने के लिए।
००
चित्र: सुनीता |
कुछ साँवले कुछ काले आदमी
कुछ साँवले से कुछ काले आदमी
मैंने देखे बारिश में डूबे उस खेत में
जहाँ पैदा हो गयीं थी मछलियाँ
कूदने लगे ये आदमी एक-एक करके
सुरक्षित कर लीं इन्होंने
अपनी-अपनी जगह
एक ख़ास बात और
इनके बारे में,
अजीब तरह की मुद्रा में
हवा में गोल-गोल घूमकर
कूदने से पहले याद दिलाते हैं ये
किसी सर्कस में दिखाए क़रतब की।
फिर बहुत जद्दोजहद के बाद
इनके हाथ आती है
इनकी ज़िंदगी की वजह
जिसे मुट्ठी में नहीं बाँध सकते ये
क्योंकि बहुत बड़ी हो चुकी है
वह मछली
चिकनी मिट्टी घोले हुए वह पानी,
निकलने नहीं देता
उस काले आदमी को आसानी से
कुछ विचलित होती है तैरने वाली उसकी मुद्रा,
और चिकनी मिट्टी
फिसला देती है वह मछली,
उस काले आदमी के हाथ से,
बिल्कुल उसी तरह जैसे तपते रेगिस्तान में
भटके हुए मुसाफ़िर के
मुँह तक आई पानी की कुछ बूँदें
फिसलकर आ जाती हैं
उसके गाल पर।
बेहद परेशान है वह काला आदमी
क्योंकि नदी-तालाबों में
बह रहा है ज़हरीला पानी
और डस रहा है मछलियों को।
उस काले आदमी को नहीं मालूम
जीवन जीने की कोई और विधा
इत्तिफ़ाकन
मैंने क़ैद कर लिया था ये नज़ारा
अपने अवचेतन में।
उस काले आदमी के अलावा
थे वहाँ कुछ साँवले आदमी भी
जिनके हाथ से नहीं फिसली थी कोई मछली
लंबे इंतज़ार के बाद आती सूरज की किरण
पड़ रही थी उनके चेहरों पर,
साफ़ दिख रही थी उनकी मुस्कुराहट।
लेकिन मैं,
कुछ और देख रही थी वहाँ
सुन रही थी रूदन की आवाज़
पलटकर देखा था मैंने
इस उम्मीद में,
कि, शायद यह आवाज़ है
उस काले आदमी की।
पर मैंने देखीं मछलियों की कई आत्माएँ
समूह में रोती हुई,
जिनकी आवाज़
मुझे लगी थी,
उस काले आदमी की आवाज़।
००
रात ट्राम और घड़ी
रात ट्राम और घड़ी
तीनों हैं सहेलियां
तीनों बिल्कुल एक जैसी
तीनों चलती हैं लगातार
बोझ उठाए हुए
अनगिन अनसुनी चीखों और आंसुओं के बुरादे का
टूटे हुए सपनों और नादान दिलों की किरचों का
अलज़ाइमर, डिमेंशिया, सीज़ोफ्रेनिया में लिपटी लाशों का
क्रूरताओं हत्याओं के लिए हथियार बने
मासूमियत, मुलामियत लिए सुर्ख़ लाल चेहरों का।
एक जैसा है
तीनों का इंतज़ार भी .....
अपने-अपने वक़्त के बदलने का।
००
रोटी जैसी गोलाई
मैं शिद्दत से ढूंढ रही हूं रोटी के जैसी गोलाई
मुझे क्यों नहीं दिखती गोलाई
किसी पिज़्ज़ा, बर्गर या केक में
परकाल से खींचा गया गोला भी मुझे दिखता है कुछ कम गोल
स्कूल का ग्लोब, फुटबॉल, गोलगप्पे भी मुझे लगते हैं चपटे
शाही दावतों में भी रोटियों से गोलाई नदारद हैं
देसी होने का दावा करते ढाबों में भी नहीं मिलती
एक अदद रोटी अपनी आदर्श गोलाई में
इस तलाश में मैं, कहां-कहां नहीं गयी
थक कर मैं सो गयी
फिर अनजानी राहों पर निकल पड़ी
अगले पल मुझे लगा
मेरी त्वचा, नसों और हड्डियों का साथ छोड़ रही है
करोड़ों सूरज एक साथ जलते हुए
मेरी आंखों की रोशनी छीन कर अपना प्रकाश बढ़ा रहे हैं
वह उनकी दुनिया थी ,जहां वे मुझे ज़बरन खींच लाए थे
कह रहे थे देखो हमारी ओर
हमसे ज़्यादा गोल नहीं और कोई
मैंने नहीं मानी थी उनकी बात
उनके चंगुल से भागी तो पहुंची सितारों के घर
सभी सितारे एक स्वर में बोले
हम गोल भी हैं और ठंडे भी
अब तुम्हारी तलाश पूरी हुई
वहां कोई खतरा नहीं था
पर हवा बहुत बेचैन थी वहां
इसलिए मैं सितारों की बात से असहमत थी
फिर अगले कदम पर
अंधेरे ने समेट लिया मुझे अपने जंगल में
ज़ोरदार आघात से मेरी नींद खुली
नाक में घुस गई रसोई से आती रोटी की सम्मोहक गंध
तवे और चिमटे की झनझनाती आवाज़ से हुआ दिन का आगाज़
तमाम संभव संसारों में भटकने के बाद
अंतत: मुझे मिली घर की रोटी में एक निरहंकार और आत्मीय गोलाई।
००
संपर्क:
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सत्यनारायण पटेल
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 10 अप्रैल 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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