अमित आनन्द पाण्डेय की कविताएं
२७ नवम्बर १९७९ को जन्मे अमित आनंद पाण्डेय
ने एम० ए० साहित्य में शिक्षा हासिल की है और सूचना प्रौद्योगिकी (स्व व्यवसाय ) करते हैं। बिजूका पर उनकी कविताएं साझा कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि युवा कवि की कविताएं पाठ मित्रों को पसंद आएगी।
कविताएं
माँ - "अब नहीं रोती "
उस रात
माँ
बहुत रोई थी,
बारिशों की
रात मे
मेरे तपते माथे पर
पट्टियां बदलती
बार बार
दवाइयों की पन्नियाँ पलटती
माँ
खाली खोखों को भींच कर
बहुत रोई थी,
मेरी माँ
अब नहीं रोती
टूट चुके चश्मे के
फ्रेम को
बैरंग वापस लेते वक़्त भी
अब भी
उसकी दवाईओं की पन्नी मे
सिर्फ खाली
खोखे हैं,
फिर भी
मेरी माँ
जो -उस रात बहुत रोई थी
"अब नहीं रोती "
००
अबके सावन न डालेगा झूला कोई
उसकी आँखों का काजल भी खारा बहा
न वो कान्हा बना न वो राधा रही
डोर उड़ती रही बिन दिशाओं के ही
टूट जाने के डर से न बाँधा कभी !!
मौन हँसता रहा वरजनाओं के सुर
सिसकियाँ ऊब कर ही स्वतः मर गयीं
अबके सावन न डालेगा झूला कोई
बूढ़े बरगद से सब डालियाँ गिर गयीं,
उसके होने न होने से क्या फायदा
उसके गीतों को हमने न साधा कभी
डोर उड़ती रही बिन दिशाओं के ही
टूट जाने के डर से न बाँधा कभी !!
००
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात
पंछी सुन
चीख मत / फुदक मत
नीड़ न बुन
मान जा बात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
हार मान
सपने देख / सो जा
खुले आसमान
होगी नव प्रात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
ढूंढ जंगल
शहर छोड़ / मोटर भूल
खोज मंगल
याद रख जात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
००
मासूम
शहर के
पिछवाड़े...
बीराने से आया,
वो
मोटरों पर
ईंट फेंकता
अपने घावों की मक्खियाँ उडाता,
ख़ुशी के गीत रोता
अधनंगा पागल,
बन जाता है
मासूम बच्चा,
रोटियां देखकर!
००
इस बार शायद.......
नुक्कड़ की
उजाड़ सी टंकी के नीचे
भूरी कुतिया ने
आज जने हैं -
नन्हे नन्हे से गोल मटोल
छै पिल्लै,
कोई चितकबरा ,कोई झक्क सफ़ेद
एक भूरा
कुछ काले से,
"भूरी"
बेहतर जानती है
बेरहम सडको का दर्द ,
कई सालो से
वो खोती आई है
यूँ ही
मासूम नन्ही जाने
सड़क के किनारे,
कभी ट्रक /कभी बस
साइकिल /रिक्सा
कभी कभी तो किसी नसेड़ी की लात,
हर बार
"भूरी" की ममता सड़क पर मसल उठती है,
पर
"भूरी" हर बार की तरह
पालती है-
एक भरम
और
टूटी हुयी टंकी के नीचे
पसर जाती है -
अपनी ममता
और
छै मासूम पिल्लों के साथ!
इस बार शायद दो से ज्यादा बच जाएँ!
००
आदी
तुम जब भी
मेरे साथ खेलते हो...
अपने
स्वजनित
तमाम खेल
मैं निहाल हो जाता हूँ,
मैं बेहतर जानता हूँ
कि
सारे प्यादे
सारी विसात
तुम्हारे
हाथ से चलेंगे
सब के सब,
फिर भी
जानते हो
मैं
तुम्हारे हाथ की
छुवन का
आदी हो चुका हूँ
और अब
अब मुझे मजा आता है तुम्हारे खेल मे!
००
आसाढ़ की शेष रात
बादलों की हुंकार के साथ
गुर्राती कलमुही बरसाती रात,
सुगना का नन्हका तप रहा है बुखार से!!
टपकती छानी के नीचे
खटिया सरकाती सुगना
कोसती है बुढापे की गरीबी को!
मुई बारिश....
आज बंद भी नहीं होगी शायद,
का पडी थी रे रमुआ??
काहे गया था तपती धूप मे
बडके वसारे की बेगारी करने,
का मिला??
अम्मा!
पानी.....
तड़कती बिजली की कौंध मे
कराह उठा रमुआ!!
और सुगना का काँपता हाथ
सरक गया
एक मात्र बची हंसली तक!
सुबह लल्लन साहू पर हंसली रेहन धर
सुगना शहर जायेगी
रमुआ की दवाई के लिए!
कहाँ गए रे रमुआ के बापू
टपकते छानी से
रमुआ की खटिया बचाते
सुगना सिसकती रही पूरी रात!!
और आसाढ़ की वो रात
अब तक
शेष है
सुगना की टपकती झोपड़ी पर!
००
जाने दो मुझे
मैं दंगाई नहीं
मैं आज तक
नहीं गया
किसी मस्जिद तक
किसी मंदिर के अन्दर क्या है
मैंने नहीं देखा,
सुनो
रुको
मुझे गोली न मारो
भाई
तुम्हे तुम्हारे मजहब का वास्ता
मत तराशो अपने चाक़ू
मेरे सीने पर,
जाने दो मुझे
मुझे
तरकारियाँ ले जानी हैं
माँ
रोटिया बेल रही होंगी ,
००
अधपकी ईंटें
गाये जाते हैं
ठेठ गंवई सोहर
कच्ची छलकाई जाती है
थालियाँ पीटती हैं औरतें
एक नया जनम हुआ है,
एक नया
मेहमान
आया है
आज,
कल..
पीठ पर बंधा
मासूम
कच्ची मिटटी मे
पाथेगा
अपना बचपन
और
पैर पर खड़ा होते होते
सुलगने लगेगा
भट्ठे की चिमनी सा,
अव्वल
अद्धे-दोयम - सेयम
और
कुछ अधपकी
ईंटें रहा करती हैं
रांची से आये ईंट भट्ठा मजूरों मे!
पूरा कुनबा
कच्ची मिटटी मे
रंगता है
अपने लहू का रंग...
ईंटें सुर्ख लाल निकलती हैं,
००
उतरते पानी के साथ
बूढ़ी नीम की फुनगियाँ
पाठशाले की छत
उनचका टीला
सब
धीरे-धीरे लौट रहे हैं,
उतरते पानी के साथ...
रमिया परेशान हाल
सुबकती है
बंधे पर,
क्या लौट पायेगा
वो कमजोर क्षण
वो नियति चक्र
जब
इसी बंधे पर
छोटे भाई के लिए
दो रोटियों की तलाश मे
वो गवां आई थी
"सब कुछ"
क्या वो भी लौटेगा
उतरते पानी के साथ?
----------------
संपर्क -
अमित आनंद पाण्डेय
F -4 , प्लाट 70
न्याय खंड 1
विधायक कॉलोनी , इन्द्रापुरम
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश 201014
eworld.basti@gmail.com
२७ नवम्बर १९७९ को जन्मे अमित आनंद पाण्डेय
ने एम० ए० साहित्य में शिक्षा हासिल की है और सूचना प्रौद्योगिकी (स्व व्यवसाय ) करते हैं। बिजूका पर उनकी कविताएं साझा कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि युवा कवि की कविताएं पाठ मित्रों को पसंद आएगी।
अमित आनन्द पाण्डेय |
माँ - "अब नहीं रोती "
उस रात
माँ
बहुत रोई थी,
बारिशों की
रात मे
मेरे तपते माथे पर
पट्टियां बदलती
बार बार
दवाइयों की पन्नियाँ पलटती
माँ
खाली खोखों को भींच कर
बहुत रोई थी,
मेरी माँ
अब नहीं रोती
टूट चुके चश्मे के
फ्रेम को
बैरंग वापस लेते वक़्त भी
अब भी
उसकी दवाईओं की पन्नी मे
सिर्फ खाली
खोखे हैं,
फिर भी
मेरी माँ
जो -उस रात बहुत रोई थी
"अब नहीं रोती "
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
अबके सावन न डालेगा झूला कोई
उसकी आँखों का काजल भी खारा बहा
न वो कान्हा बना न वो राधा रही
डोर उड़ती रही बिन दिशाओं के ही
टूट जाने के डर से न बाँधा कभी !!
मौन हँसता रहा वरजनाओं के सुर
सिसकियाँ ऊब कर ही स्वतः मर गयीं
अबके सावन न डालेगा झूला कोई
बूढ़े बरगद से सब डालियाँ गिर गयीं,
उसके होने न होने से क्या फायदा
उसके गीतों को हमने न साधा कभी
डोर उड़ती रही बिन दिशाओं के ही
टूट जाने के डर से न बाँधा कभी !!
००
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात
पंछी सुन
चीख मत / फुदक मत
नीड़ न बुन
मान जा बात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
हार मान
सपने देख / सो जा
खुले आसमान
होगी नव प्रात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
ढूंढ जंगल
शहर छोड़ / मोटर भूल
खोज मंगल
याद रख जात
आधी से ज्यादा गुजर गयी रात,
००
मासूम
शहर के
पिछवाड़े...
बीराने से आया,
वो
मोटरों पर
ईंट फेंकता
अपने घावों की मक्खियाँ उडाता,
ख़ुशी के गीत रोता
अधनंगा पागल,
बन जाता है
मासूम बच्चा,
रोटियां देखकर!
००
इस बार शायद.......
नुक्कड़ की
उजाड़ सी टंकी के नीचे
भूरी कुतिया ने
आज जने हैं -
नन्हे नन्हे से गोल मटोल
छै पिल्लै,
कोई चितकबरा ,कोई झक्क सफ़ेद
एक भूरा
कुछ काले से,
"भूरी"
बेहतर जानती है
बेरहम सडको का दर्द ,
कई सालो से
वो खोती आई है
यूँ ही
मासूम नन्ही जाने
सड़क के किनारे,
कभी ट्रक /कभी बस
साइकिल /रिक्सा
कभी कभी तो किसी नसेड़ी की लात,
हर बार
"भूरी" की ममता सड़क पर मसल उठती है,
पर
"भूरी" हर बार की तरह
पालती है-
एक भरम
और
टूटी हुयी टंकी के नीचे
पसर जाती है -
अपनी ममता
और
छै मासूम पिल्लों के साथ!
इस बार शायद दो से ज्यादा बच जाएँ!
००
आदी
तुम जब भी
मेरे साथ खेलते हो...
अपने
स्वजनित
तमाम खेल
मैं निहाल हो जाता हूँ,
मैं बेहतर जानता हूँ
कि
सारे प्यादे
सारी विसात
तुम्हारे
हाथ से चलेंगे
सब के सब,
फिर भी
जानते हो
मैं
तुम्हारे हाथ की
छुवन का
आदी हो चुका हूँ
और अब
अब मुझे मजा आता है तुम्हारे खेल मे!
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
आसाढ़ की शेष रात
बादलों की हुंकार के साथ
गुर्राती कलमुही बरसाती रात,
सुगना का नन्हका तप रहा है बुखार से!!
टपकती छानी के नीचे
खटिया सरकाती सुगना
कोसती है बुढापे की गरीबी को!
मुई बारिश....
आज बंद भी नहीं होगी शायद,
का पडी थी रे रमुआ??
काहे गया था तपती धूप मे
बडके वसारे की बेगारी करने,
का मिला??
अम्मा!
पानी.....
तड़कती बिजली की कौंध मे
कराह उठा रमुआ!!
और सुगना का काँपता हाथ
सरक गया
एक मात्र बची हंसली तक!
सुबह लल्लन साहू पर हंसली रेहन धर
सुगना शहर जायेगी
रमुआ की दवाई के लिए!
कहाँ गए रे रमुआ के बापू
टपकते छानी से
रमुआ की खटिया बचाते
सुगना सिसकती रही पूरी रात!!
और आसाढ़ की वो रात
अब तक
शेष है
सुगना की टपकती झोपड़ी पर!
००
जाने दो मुझे
मैं दंगाई नहीं
मैं आज तक
नहीं गया
किसी मस्जिद तक
किसी मंदिर के अन्दर क्या है
मैंने नहीं देखा,
सुनो
रुको
मुझे गोली न मारो
भाई
तुम्हे तुम्हारे मजहब का वास्ता
मत तराशो अपने चाक़ू
मेरे सीने पर,
जाने दो मुझे
मुझे
तरकारियाँ ले जानी हैं
माँ
रोटिया बेल रही होंगी ,
००
अधपकी ईंटें
गाये जाते हैं
ठेठ गंवई सोहर
कच्ची छलकाई जाती है
थालियाँ पीटती हैं औरतें
एक नया जनम हुआ है,
एक नया
मेहमान
आया है
आज,
कल..
पीठ पर बंधा
मासूम
कच्ची मिटटी मे
पाथेगा
अपना बचपन
और
पैर पर खड़ा होते होते
सुलगने लगेगा
भट्ठे की चिमनी सा,
अव्वल
अद्धे-दोयम - सेयम
और
कुछ अधपकी
ईंटें रहा करती हैं
रांची से आये ईंट भट्ठा मजूरों मे!
पूरा कुनबा
कच्ची मिटटी मे
रंगता है
अपने लहू का रंग...
ईंटें सुर्ख लाल निकलती हैं,
००
उतरते पानी के साथ
बूढ़ी नीम की फुनगियाँ
पाठशाले की छत
उनचका टीला
सब
धीरे-धीरे लौट रहे हैं,
उतरते पानी के साथ...
रमिया परेशान हाल
सुबकती है
बंधे पर,
क्या लौट पायेगा
वो कमजोर क्षण
वो नियति चक्र
जब
इसी बंधे पर
छोटे भाई के लिए
दो रोटियों की तलाश मे
वो गवां आई थी
"सब कुछ"
क्या वो भी लौटेगा
उतरते पानी के साथ?
----------------
संपर्क -
अमित आनंद पाण्डेय
F -4 , प्लाट 70
न्याय खंड 1
विधायक कॉलोनी , इन्द्रापुरम
गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश 201014
eworld.basti@gmail.com
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