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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अक्टूबर, 2017


रिश्तों में प्रेम और अपनेपन के सेतु बनाती  कहानियाँ  :अपने हिस्से का आकाश (प्रकाशकान्त )

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राजेश सक्सेना


कभी कभी समय के दबाव और तनावों के बीच हमारी समूची बौधिकता इतनी डगमगा जाती है कि सबकुछ नष्ट हुआ लगता है ,कई बार यह आरोपित भी होता है कि  हम  अपनी सब चीजें खो चुके हैं और प्रायः लेखन में भी यही ध्वनित होने लगता है ,पर फिर कुछ अच्छा अनुभव आता है तो फिर एक बार पुरानी रौ लौटती है !


अभी हाल ही में वरिष्ठ कथाकार श्री प्रकाशकान्त
का एक छोटी छोटी कहानियों का प्यारा संग्रह पढ़ा तो लगा कि इतने कम में ,उम्मीद के साथ रिश्तों में प्रेम का सेतुबंध बाँधने वाली ये कहानियाँ वर्तमान समय के दबावो ,
राजनैतिक प्रपंचों और किसी
भी तरह के वाद से दूर अपनी कोमलता,अपनत्व और प्रेम के साथ रिश्तों का सेतु बांधती है जहाँ संवेदना की मासूम गिलहरियां इस पर से तनाव और दबाव के कंकर दूर हटाती हुई दिखती हैं ,
सचमुच प्रकाश जी ने इन्हे  समय के दुश्चक्रों से बचाकर रचा है ।

इन कहानियों की  मार्मिकता और अपनापन  ,नवीन
आधुनिकता की आवेशित अवधारणाओ की गूंज में लुप्त नहीं होता बल्कि अपनी मान्यताओं के साथ सामाजिक दृढ़ता मे  आबद्ध होता है इन कहानियों की परिणति सकारात्मक भावों में गुथी हुई है !

बड़े भाई के प्रति भय ,आदर और अनुराग के भावुकबोध से प्रेरित चार  कहानियाँ ,
रिश्तों में मानवीय करुणा की इतनी सुंदर ,सहज ,महीन और बेधक बुनावट करती हैं ,कि हर पाठक को अपने आसपास घटित हुई लगती हैं ! इन तीनों कहानियों में रिश्तों का हरापन और मासूमियत  जिस तरह बचे रह जाते हैं वह अत्यन्त मार्मिक है ,मुझे लगता है पदार्थ में बदल रहे समाज की समस्त क्रियाओं पर बरस  रहे अति सांद्र,गर्म और गाढे अम्ल के रंगीन धुएँ में उड़ती  भोलेपन की निधि के बाद यदि श्री  प्रकाशकान्त की कहानियाँ रिश्तों  मे हरापन बचा रही हैं तो उम्मीदो के साथ यहाँ ठहरकर थोड़ा  सांस लेना चाहिये !

बड़े भाइयों के चार  भिन्न रूपों और उनकी भूमिकाओं को लेकर कहानियाँ हैं !पहली कहानी में बड़े भाई बड़े पद पर सम्पन्न भूमिका में है जिनसे छोटे भाई की एक असहजता और भयग्रस्त दूरी है,इधर छोटा भाई मकान बनाने के लिये कुछ पैसे बड़े भाई से उधार लेता है और लौटाने की अवस्था मैं नहीँ रह पाता यह एक आत्मस्वाभिमानी छोटे भाई के लिये विकट स्थिति है इसी जद्दोजहद में एक दिन बड़े भाई सा.एक दिन अचानक शहर से छोटे भाई के घर आ जाते हैं ,छोटे भाई की पत्नी बैचेनी और आशंकाओ से भर जाती है और साथ ही छोटा भाई भी एक असहज भाव के साथ आत्मद्वंद में ग्रस्त हो जाता है ,कि अब भाई सा.को क्या उत्तर दें और जो पैसे उधार  लिये थे उन्हें लौटाना अभी सम्भव नहीँ हो पा रहा है अस्तु छोटे भाई की ग्लानि ,शर्म उच्च अवस्था में है ,किंतु बड़े भाई जब अंत तक भी पैसे माँगे नहीँ माँगते और बल्कि जाते समय यह बोलते हैं कि " तुम्हारी बहुत दिनो से कुछ ख़बर नहीँ थी सोचा तुम किसी परेशानी में तो नहीँ अभी कुछ और रुपये रेवा को दे दिये हैं  और  ज़रूरत लगे तो बता देना " यह कथन कहानी का उत्कर्ष है जहाँ सारी बैचैनी ,ताप ,और आशंकाए निर्मूल साबित होती हैं और रिश्ते  का हरापन अपने प्रेम के विराट आकार में प्रकट होता है और कहानी एक मार्मिक सुखांत होता है !

दूसरी कहानी पुराने पुल  में बड़े भाई के साथ गाँव के पुराने पुल पर टहलते हुए बेहद मार्मिक कथा हैं ,छोटा भाई  पुराने पुल के पास बाँध बनने के कारण उसके डूब में आने की पूर्व सूचना बड़े भाई को देने की भावुक वार्ता है "छोटू क्या एक जीता जागता पुराना पुल हमेशा के लिये पानी में गुम हो जाएगा "? यह आवाज पानी के बहुत अन्दर से आने की तरह थी " पानी पुल पर से बह रहा था अँधेरे के साथ !"  "छोटू पुराने पुल बचाए जाना चाहिये पता नहीँ इनकी कब ज़रूरत पड़ जाए ,यहाँ लेखक बाह्य विस्थापन के बचाने के साथ सिर्फ़ पुल ही नहीँ रिश्तों के उन सेतुबंधों को भी बचाने की तरफ़ इशारा कर रहा है जो आधुनिक विकास के बीच बुरी तरह दरक रहा है !

भाई के रिश्ते की एक और कहानी बेदखल इस संग्रह मे है इस कहानी में बड़े भाई को निकम्मा ,असहाय ,पढ़ने में कमजोर और धीरे धीरे घर के नौकर की भूमिका मे आ जाने वाला निरुपित किया गया है ! इस कहानी में छोटे भाई को अच्छे पद प्रतिष्ठा पर बताया है किंतु उसका आदर ,बड़े भाई के लिये बहुत अटूट ,और करुणामयी है ,अस्तु एक द्रश्य में जब बड़े भाई वजनी हाथ
  ठेला घाटी पर चढ़ा पाने में असमर्थ हो जाते हैं और यह द्रश्य जब छोटा भाई देखता है तो अपनी पोजिशन के कारण पहले नज़र फेरता है ,किंतु बाद मे मानवीय रिश्ते का करुण झरना उसके अंतःकरण में बहने लगता है और दौड़कर वह हाथ ठेला गाड़ी को रोक लेता है और यहाँ रिश्तों के अपने पन की कहानी का फिर ऐक सुखांत होता है !

एक और कहानी "मरी हुई तितलियां "में भी एक ऐसे पिता की कथा है जो बेपरवाह है ,अपने सभी कर्तव्यों से मुँह चुराए हुए हैं ! ना बुआ की शादी कर पाए न भाई के कामकाज पर कुछ किया या सोचा ऐसे में पिता से जब भी  कुछ कहो एक बेपरवाह हँसी में उड़ा देती जब कुछ  घर परिवार में अप्रिय घटता तो पिता के चेहरे पर कुछेक चिमगादडे फडफडाकर उल्टे लटकने के बाद उन फड़फड़ाहटो के बीच एक खास किस्म की बेफिक्री उग आती !  इस तरह पिता हर बात से निस्पृह रहते , लेकिन एक दिन जब माँ को सड़क पर एक बाइक सवार टक्कर मार देता हई और इसकी ख़बर पिता को लगती है कि माँ का  एक्सीडेंट हो गया है,और वह आई सी यू में है तब कथा नायक जो सूत्रधार है वह पिता के चेहरे पर इस बार चीमगादडो की फडफडाहट की जगह ढेरों मरी तितलियां देखता है यहाँ  कहानी में एक कोमल सम्वेदनात्मक परिवर्तन दिखाई देता है और रिश्ते की  मानविकी जाग्रत हो जाती है इस प्रकार कहानी का मार्मिक अंत होता है !

 दरअसल लेखक ने यहाँ चिमगादड के फडफडाने की उपमा एक खास कारण से चुनी है इसमें चिमगादड की बेपरवाह ,बेफिक्री भरी उल्टी टाँग करके सोने का बिम्ब उन लोगों पर व्यंग्य है जो गैरजिम्मेदाराना तरीके से पेश आ रहें हैं ,वहीँ मरी हुई तितलियों का बिम्ब कोमलता के साथ संवेदन करता है !दोनों ही बिम्ब और उपमाएं प्रकाश जी की  गहन और व्यापक अध्ययनशीलता और द्रष्टि की परिचायक हैं !
"प्रेतबाधा "शीर्षक की एक कहानी जिसमें अपने पिता पर हुए पुलिस जुल्मों की स्मॄति कहानी के नायक पर बुरी तरह हावी है ,और जब एक नाटक के पात्र के रूप में वह डाकू बनता है तो उस नाटक में कुछ डाकू एक पुलिस वाले को पकड़ लाते हैं यह पुलिस का पात्र नाटक में बना नायक का दोस्त है ,अब जब डाकू सरदार पुलिस के रूप में आए पात्र को मारने का हुक्म देता है तो नायक अपने प्रतिशोध में उसे सचमुच बुरी तरह पीट देता है ,यह एक स्मॄति में बैठे  प्रेत का प्रकटीकरण होता है !

बचपने में लौटने की एक मासूम चाहत की एक नास्टेलिजिक कहानी "अपने में होते हुए " भी उदारता और भावुक मासूमियत के साथ इस संग्रह में जगह बनाती है !
एक और कहानी "कुछ इस तरह " में समाज के दो वर्गों की विभाजक रेखा है जिसमें आभिजात्य और लोक दोनों वर्ग का विभेद मात्र एक छोटे से बच्चे की शौच की स्थिति को लेकर है ,दरअसल हमारे  आभिजात्य ने लोक को किस तरह अपढ़ गँवार समझ रखा है और उस पर अपना रुतबा वह कायम करता है !

"अपने हिस्से का आकाश" "संग्रह कि  शीर्षक कहानी है
इस कहानी में बहुत मासूम और करुणार्द्र कथावस्तु है जहाँ एक बीमार अपाहिज की पतंग उडाने की एक मासूम चाहत के लिये गली के ऊपर का आकाश छोटा पड़ता है और इसी जद्दोजहद में यह कहानी समाप्त होती है !

एक अन्य कहानी "तिलिस्मों के बावजूद " में ऐसा  शख्स  है जो ज़िंदगी की मुश्किलो से निपटने के लिये जादू ,टोना
,तंत्र,मंत्र ताबीज आदि को साधन मानता है ! उसके हिसाब से साँप की हड्डी ,
केंचुल ,उल्लू का पंख नाखून ,
बाघ का नाखून ,हड्डियाँ ,
खोपडी आदि सब चीजें सभी समस्याओ को ठीक कर सकती है ! इस सबके बीच घर के सब सदस्य  इन फालतू चीज़ों के संग्रहण से परेशान भी हैं और गुस्सा भी ,कि कमाकर ग्रहस्थी के लिये ज़रूरी चीजों के बजाय दाँत ,नाखून ,हड्डी जैसी किस तरह उपयोगी हैं !
प्रायः इसका केन्द्रीय भाव
बाह्य रूप में यही प्रकट करता है कि यह ऊटपटांग चीज़ों संग्रहण है ,किंतु इसमें से एक और  भाव ,दर्शन का भी निकलता है कि प्रायः जीवन में भी जो चीजें जिन्हे उपयोगी मानकर एकत्र करते हैं वे भी अंत में निरर्थक हो जाती हैं ; पदार्थ में बदलती जा रही दुनिया में अनेक निरर्थक चीजों कॊ एकत्र करने में हम समूचा जीवन बिता देते हैं ,बाजार भी एक तंत्र है,व्यामोह है ,इन्द्रजाल है  वो हर तरह की सुविधा के ताबीज बेच रहा है ,उसके  नाखून और दाँत हमारी गरदन पर हैं ,बस हम इसे ठीक मान रहे है ! मुझे तो  लगता है हम खुद भी एक छद्म में हैं ,एक सम्मोहन है ,कोई हमें अपने हिसाब से चला रहा है अस्तु यह कहानी उस पात्र के करुण निधन के पश्चात हमारी तरफ़ घूमकर प्रश्नों के प्रेक्षाग्रह में ले जाती है !

मरी हुई रोशनी ,निर्वासन और सिलसिला जैसी कहानियाँ भी कमोबेश इन्हीं रिश्तों के बीच अपनी यात्रा करती हुई लगती हैं !

इस संग्रह की कहानियों में एक खास बात जो  दिखाई पड़ती है वह यह कि लगभग सभी कहानियों में पात्रों का नाम नहीँ है , ये कहानियाँ पात्रों को नाम के बजाय रिश्तों में लेकर यात्रा करती हैं ,सम्भवत: यह लेखक की रिश्तों के प्रति उदारता और सदाशयता है ,कि वह पात्रों को  नाम से अधिक रिश्तों में  जीवंत बना देना चाहते हैं !

इस तरह कुल 12 कहानियों के इस संग्रह को पढ़कर कहा
जा सकता है कि मध्यवर्गीय चेतना उसकी सम्वेदनशील द्रष्टि और मानवीय रिश्तों के बीच सेतु बनाती ये कहानीया अत्यंत महत्वपूर्ण और पठनीयता की द्रष्टि से बेहद सहज बोधगम्य हैं ,इनमें रिश्तों की पुनर्स्थापना और सम्बद्धता का प्रगाढ़ प्रकटीकरण भी है जो इस क्रूर समय में एक उम्मीद का भाव जाग्रत करते हुए अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज़ कराता है !

 राजेश सक्सेना
युवा कवि, आलोचक

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