रुचि भल्ला की कविताएं
रुचि भल्ला: कविता-कहानी का परिचित नाम है। आपकी रचनाएं जनसत्ता, दैनिक भास्कर ,दैनिक जागरण ,प्रभात खबर,अपना भारत, अमृत प्रभात , दैनिक ट्रिब्यून आदि समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुईं है।
रुचि भल्ल |
आज ' बिजूका ' कुछ कविताएं साझा कर रहे हैं। उम्मीद है बिजूका के पाठक मित्रो को पसंद आएगी।
००
कविताएं
पथ निरूत्तर
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तुम इसे प्यार का नाम न देना
प्यार छोटा सा शब्द है
तुम इसे कोई और नाम देना
तुम्हारे पास शब्दों की कमी नहीं है
पर तुम इसे अर्थ देना
जैसे होता है तुम्हारे नाम का अर्थ
जैसे सूरज का नाम लेते हो
तो चमक जाती है सृष्टि
चाँद कहते हो और खाने लगते हो
तोड़ कर बताशा
बताशा नाम लेते हो
घुल जाती है मुँह में मिठास
चिड़िया बोलते हो और
चहक जाती है सुबह
साँझ बोलते हो और उग आता है
आँखों में छठ का सूरज
छठ का नाम लेते हो
देखने लगते हो बिहार की तरफ
खुल जाती है शहर की खिड़की
देखते हो खिड़की से पार
तो देखते नहीं हो
सीधी राह पहुँच जाते हो घर में
घर जिसका नाम ज़ुबान पर जब आता है
यादों की ईंटे जुड़ने लगती हैं
जहाँ माँ होती थी
होता था आँगन में पपीते का पेड़
पपीते के पेड़ के नीचे खड़ी करते थे तुम साईकिल
और साईकिल का नाम लेते ही
चलने लगता है तेज रफ्तार से पहिया
इलाहाबाद की सड़कों पर
वे सड़कें बहुत लंबी थीं
जो आकर जुड़ती थीं राजपथ से
राजपथ वही जहाँ मैं तुमसे मिली थी
मैं वही ....
मेरे नाम का अर्थ तो तुम जानते ही होगे
००
चित्र: सुनीता |
अशेष मुलाकात
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तुम आए और चले गए
जबकि तुम्हारे आने-जाने के बीच
कहीं शेष रह गयी है मुलाकात
ठीक उस तरह से
जैसे पानी से भरा आधा गिलास
तुम छोड़ गए हो आधा पीकर खाली
मैं बचे हुए उस पानी में
तुम्हारा होना देख रही हूँ
याद कर रही हूँ बची हुई अधूरी बात
तुम्हारे आने-जाने को गिलास के पानी में
झाँक कर देखती हूँ
वहाँ मुझे पानी नहीं
शेष बची रह गई प्यास दिखती है
सुनाई देते हैं गिलास के इर्द-गिर्द
बिखरे हुए सुने-अनसुने किस्से
जबकि जानती हूँ तुम जा चुके हो
मैं अब भी गिलास के किनारों पर
तुम्हारा छूट कर जाना देख रही हूँ
००
अप्सरा का श्राप
चित्र: विनीता कामले |
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मैं कभी नहीं कहूँगी तुमसे
मैं प्यार करती हूँ
प्यार कहा कहाँ जाता है
प्यार किया जाता है
मैं प्यार करूँगी
जैसे करती है एक कोयल आम के पेड़ से
पेड़ करता है कोयल से
इंतज़ार में खिलते बौरों की महक
जब मिलती है कोयल को
कोयल रोक नहीं पाती खुद को
उड़ कर चली आती है नदी के पार
पेड़ से चल कर आने की शिकायत भी नहीं करती
समझती है मजबूरी मिट्टी में धँसे उसके पाँवों की
और फैला देती है आकर पत्तियों पर
अपने पंखों की थकान
पत्तियाँ बिछौने सी बिछ आती हैं
बन जाता है पेड़ हिंडोला
उग आते हैं पेड़ की बाँहों पर मीठे आम
आप कहने के लिए उसे आम का मौसम कह सकते हैं
जब एक कोयल आम की दवात में पंख भिगो कर
पत्तियों पर लिख रही होती है प्रेम
ठीक वैसे
ठीक उस तरह से
मैं भी लिखूँगी कोरे कागज़ पर
पर कहूँगी कभी नहीं तुमसे
००
चित्र: सुनीता |
पठार का विलाप
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जबकि आँगन में लगे हैंगिंग बास्केट में
पचास पिट्यूनिया खिले हुए हैं
सुर्ख बालसम इतरा रहा है
हज़ारों आम झूम रहे हैं
काली चमकीली चिड़िया कुतर रही है चीकू
नारियल के पेड़ पर जमा लिया है
सूरज ने सिंहासन
हवा डोल रही है
तितली चूम रही है गुलाब का मस्तक
मेरा मन फिर भी उदास है
उदास है नील गगन को देख कर
जबकि रंग तो आसमान का नीला है
होना भी नीला चाहिए
फिर भी मैंने चाहा ....
नीले आसमान को
बाँधनी का दुपट्टा बना दूँ
रंग दूँ इसे होली के रंग में
मैं पठार की पीठ से टेक लगा कर
फलटन की धरती पर बैठी
देख रही हूँ नील गगन को
नील गगन के पार दिखती है मुझे
लाल काॅलोनी की छत
लूकर गंज की सड़क
काश! वहाँ से उड़ती चली आए गौरेया
आकर थमा जाए हाथों में गुलाल
मैं रंगना चाहती हूँ फलटन के गाल
आसमान में उड़ा देना चाहती हूँ
भर -भर हाथ अबीर गुलाल
आओ! कृष्णा पंत
आकर बैठो मेरे पास
देखो ! ऊँचे नील गगन को
आओ कि हम याद करें
अपने शहर के फागुनी आसमान को
सुना है! आज रंग है इलाहाबाद में
००
हाथ से छूटी तिथियाँ
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फलटन की रात का परदा हटा कर
देखा मैंने तारों को घर लौटते हुए
चाँद छोड़ चुका था महफ़िल
मुर्गे की एक कड़क बाँग पर
गली के मोड़ पर झर चुका था हरसिंगार
महक रहा था आखिरी पहर
गली में सात चिड़िया का कोरस भी था
भूरी बकरी की जम्हाई भी
सुबह की चाय तलाशने मेढक
निकल पड़ा था
पहन रही थी तितली पँख
बकरियों को देखा मैंने
बाड़े से बाहर निकलते हुए
साईकिल पर सवार होकर
बैठ गया था ताजा अखबार
पर मेरे कानों में आ रही थी
फरीदाबाद में मिट्टी सानती
हेमलता के कंगन की खन -खन
सूरज के खाट छोड़ने से पहले ही
तोताराम ने बना दिया था एक ठो दिया
फलटन के जागने से पहले
फरीदाबाद शहर ने ले ली थी अंगड़ाई
हरबती के हाथ से बनी
तुलसी चाय का प्याला सुड़कते हुए
००
स्मृति विसर्जन
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अम्मा सुंदर हैं लोग कभी उन्हें सुचित्रा सेन कहते थे
अम्मा कड़क टीचर थीं स्कूल के बच्चे उनसे डरते थे
अम्मा अब रिटायर हैं और मुलायम हैं
अम्मा गर्मियों में आर्गेन्ज़ा बारिश में सिंथेटिक
सर्दियों में खादी सिल्क की साड़ियाँ पहनती थी
साड़ी पहन कर स्कूल पढ़ाने जाती थीं
वे सारे मौसम बीत गए हैं
साड़ियाँ अब लोहे के काले ट्रंक में बंद रहती हैं
ट्रंक डैड लाए थे उसे काले पेंट से रंग दिया था
लिख दिया था उस पर डैड ने अम्मा का नाम
सफेद पेंट से
ट्रंक तबसे अम्मा के आस-पास रहता है
स्पौंडलाइटिस आर्थराइटिस के दर्द से
अम्मा की कमर अब झुक गई हैं
कंधे ढलक गए हैं
पाँव की उंगलियां टेढ़ी हो गई हैं
अम्मा अब ढीला-ढाला सलवार -कुर्ता पहनती हैं
स्टूल पर बैठ कर अपनी साड़ियों को धूप दिखाती हैं
सहेज कर रखती है साड़ियाँ लोहे के काले ट्रंक में
जबकि जानती हैं वह नहीं पहनेंगी साड़ियाँ
पर प्यार करती हैं उन साड़ियों से
उन पर हाथ फिराते-फिराते पहुंच जाती हैं इलाहाबाद
घूमती हैं सिविललाइन्स चौक कोठापारचा की गलियाँ
जहाँ से डैड लाते थे अम्मा के लिए रंग-बिरंगी साड़ियाँ
अम्मा डैड के उन कदमों के निशान पर
पाँव धरते हुए चलती हैं
चढ़ जाती हैं फिर इलाहाबाद वाले घर की सीढ़ियाँ
घर जहाँ अम्मा रहती थीं डैड के साथ
लाहौर करतारपुर और शिमला को भुला कर
घर के आँगन से चढ़ती हैं छत की ओर पच्चीस सीढ़ियाँ
अम्मा छत पर जाती हैं
डैड का चेहरा खोजती हैं आसमान में
शायद बादलों के पार दिख जाए
उन्हें रंग-बिरंगे मौसम
जबकि जानती हैं बीते हुए मौसम ट्रंक में कैद हैं
अम्मा काले ट्रंक की हर हाल में हिफ़ाज़त करती हैं
सन् पचपन की यह काला मुँहझौंसा पेटी
अम्मा के पहले प्यार की आखिरी निशानी है
००
भाषाद्रोह
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प्रज्ञा को संस्कृत आती है
उसने कालिदास को पढ़ा है
वह संस्कृत बोलती है
संस्कृत पढ़ती है
संस्कृत में कविता लिखना चाहती है
कविता लिख कर मुझे सुनाना चाहती है
जबकि मुझे संस्कृत नहीं आती है
मैंने अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ा है
पढ़ कर मैंने शेक्सपीयर को उसके नाम से जाना है
मुझे ठीक से अंग्रेज़ी बोलनी नहीं आती
अंग्रेज़ी में शेक्सपियर सा S लिखना नहीं आता
मैं प्रज्ञा को अंग्रेज़ी में कविता लिख कर नहीं पढ़ाऊंगी
मैं सुनना चाहूँगी उसकी संस्कृत की कविता
सुनते हुए अपनी आँखें बंद कर लूंगी
मेरे होठों पर उस वक्त प्रज्ञा की गुनगुनाती कविता होगी
मैं सुनूंगी उसकी कविता ठीक वैसे
जैसे सुनती हूँ कोई नेपाली गीत पैरों को थाप देते हुए
मैं अपनी उदासी उस गीत में भूल जाऊँगी
प्रज्ञा को कतई नहीं बताऊंगी
मैंने 95 में बेच दी थीं अंग्रेज़ी की किताबें
००
चित्र: अवधेश वाजपेई |
ईश्वर को चाहिए आदमी
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उसे चाह है आदमी की
जो रोज़ सुबह आकर
उसे हाथ लगा कर जगाए
नहलाए - धुलाए
हाथों से अपने खाना खिलाए
घंटो बैठ कर अपनी कहानी सुनाए
शाम को भी आए
फूलों के गुच्छे भी लाए
गीत गाए, नाचे -गाए
जाते -जाते नींद का झूला
झुला कर जाए
उसे आदत पड़ गई है प्यार की
अब उसे रोज़ चाहिए आदमी
दो -एक नहीं भीड़ की भीड़ चाहिए
आदमी जानता है ईश्वर की हकीकत
कि आदमी प्यार का उतना भूखा नहीं
भूख तो ईश्वर को है प्यार की
वो जानता है ईश्वर की सारी ख्वाहिशें
समझता है ईश्वर की मजबूरी
ये सच है ....
आदमी को ईश्वर नहीं
ईश्वर को चाहिए आदमी......
००
धरती माँ
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तुम बहुत बोझ लेकर चल रही हो इजा
तुम्हारी इस यात्रा का मुझे अंदाज़ा तो नहीं
पर तुम्हारी पीठ पर रखा बोझ
तुम्हारी सहनशीलता देख कर
परेशान जरूर हूँ
तुम्हारे खुरदरे हाथ फटी एड़ियाँ
चरमराती रीढ़ की हड्डी थका चेहरा
देखने को विवश हूँ
फटी बिवाईयों से रिसता खून
पपड़ाए होठों पर उगा मरूस्थल
देखने को अभिशप्त हूँ
जानती हूँ......
तुम्हारे पाँव की गतिशीलता से ही
दुनिया में सूरज उगता है चाँद निकलता है
दुनिया चलती है तुम्हारे पाँव के चलने से
पर इस तरह पाँव घसीट कर
इतना बोझा ढोकर
हमें कब तक जीवन देती रहोगी इजा
मैं उदास -हताश अगरबत्ती जला कर
ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ
कि चौरासी लाख योनियों में
आगे तुम्हें कुछ भी बनाना
पर इजा न बनाना कभी
००
भूमध्य रेखा पर बसी दुनिया
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स्वर्णा बाई फल्टन में रहती है
फल्टन ही उसकी दुनिया है
दुनिया से बाहर की दुनिया भी स्वर्णा जानती है
पूछने पर बताती है वह दिल्ली जानती है
दिल्ली वही है जहाँ शिंदे साब टूर पर जाता है
शिंदे साब वही है जो फल्टन में रहता है
जहाँ वह काम करती है
स्वर्णा की दुनिया फल्टन है
फल्टन से बाहर की दुनिया
उसने देखी है लोगों की ज़ुबानी
सुनी-सुनाई बातों पर वह यकीन से कहती है
वह दिल्ली जानती है
स्वर्णा के लिए दिल्ली राजनीति का गढ़ नहीं
लाल किले पर फहराता तिरंगा नहीं
इंडिया गेट से अंदर जाने का रास्ता नहीं
दिल्ली दिल्ली है
जहाँ शिंदे साब टूर पर जाता है
००
संपर्क: रुचि भल्ला: ruchibhalla72@gmail.com
संपर्क:
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