नवनीत पाण्डॆ की कविताएं
नवनीत पाण्डे: 26 दिसंबर सादुलपुर (चुरु).शिक्षाः एम. ए.(हिन्दी), एम.कॉम.(व्यवसायिक प्रशासन), पत्रकारिता -जनसंचार में स्नातक। हिन्दी व राजस्थानी दोनो में पिछले पच्चीस बरसों से सृजन। प्रदेष- देष की सभी प्रतिनिधि पत्र- पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन।
प्रकाशनः हिन्दी- सच के आस-पास, छूटे हुए संदर्भ, जैसे जिनके धनुष व सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएं (कविता संग्रह) यह मैं ही हूं, हमें तो मालूम न था (लघु नाटक) प्रकाशित व राजस्थानी में- लुकमीचणी, लाडेसर (बाल कविताएं), माटीजूण, दूजो छैड़ो (उपन्यास), हेत रा रंग (कहानी संग्रह), 1084वें री मा - महाश्वेता देवी के चर्चित बांग्ला उपन्यास का राजस्थानी अनुवाद।
पुरस्कार-सम्मानः लाडेसर (बाल कविताएं) को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का ‘जवाहर लाल नेहरु पुरस्कार’ हिन्दी कविता संग्रह ‘सच के आस-पास’ को राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘सुमनेश जोशी पुरस्कार’ लघु नाटक ‘यह मैं ही हूं’ जवाहर कला केंद्र से पुरस्कृत होने के अलावा ‘राव बीकाजी संस्थान-बीकानेर’ द्वारा प्रदत्त सालाना साहित्य सम्मान। संप्रतिः भारत संचार निगम लिमिटेड- बीकानेर कार्यालय में कार्यरत
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कविताएं
मुक्तिबोध को करो याद!
कितने ही
कर लो प्रयास
जोड़ लो हाथ
हो जाओ
नत मस्तक!
दंडवत!
अगर उन्हें
होता मंजूर
वे नहीं ही लगवाते
खिड़की-दरवाज़े
और ताले
बन बैठते
जागीरदार!
रखते छुपा कर
चाभियां
अपनी अंटी में
हमारे लक्ष्य
पहुंचानेवाली
सीढियों की
अगर वाकई है हूंस
हासिल करने हैं
चित्र: अवधेश वाजपेई |
मत रखो उम्मीद
देंगे वे स्वयं
अपने हाथों
हमे चाभियां
निपटना ही होगा
इन चाभीदार
जागीरदारों से
छीननी ही होंगी
चाभियां
अगर न मिले सफलता
कोई वांदा नहीं
मत मरो यूं अकाल
अकेले चुपचाप!
अपनी अर्थी
निकलवाने से पहले
निकालो
उनकी भी अर्थियां
मुक्तिबोध को करो याद
तोड़ डालो
सारे गढ़- मठ
उठाओ खतरे
करो साहस!
हाथ में लो लट्ठ
आगे बढ़ो!
बढ़ो आगे!
लो लोहा!
उठाओ हथोड़े!
अगर नहीं खुलते, खोलते
तोड़ डालो ताले
खोलो! तोड़ो!
सभी बंद दरवाज़े
और खिड़कियां
यह आह्वान है!!
नाद है, अनहद नाद
नहीं इस में कहीं कोई
संशय, विवाद
हक है हमारा
काहे की
और क्यूं फरियाद....
***
किसकी आड़ ले आओगे तुम!
इस बार
किसकी आड़ ले
आओगे तुम!
इस बार
किसे हथियार
बनाओगे तुम!
जानता हूं
मेरा हर प्रश्न बेमानी है
तुम्हारे पास है
धर्म- जात का गौरव बचाने के ठेके
मनुष्यता, इंसानियत
तुम्हारे लिए
कोई मायने नहीं रखते
तुम्हारे पास
मेरे नाम की सुपारी है
तुम्हें तो किसी भी तरह
कहीं भी, किसी हाल
मेरी हत्या करनी है
करवानी है
तुम्हें आंवटित हुयी हैं
माचिसें
तुम्हें तो आग लगानी हैं
हमेशा की तरह
मैं लाचार,तैयार हूं
बताओ!
इस बार कहां
कैसे मारोगे तुम!
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केवल इलाहाबाद की सड़कों पर ही नहीं
मैंने उसे
केवल इलाहाबाद की सड़कों पर ही नहीं
हर शहर
कस्बे,
गांव की गलियों
चौराहों पर देखा
वह
पत्थर तोड़ नहीं रही थी
पत्थरों से अपना सर फोड़ रही थी
बच्चा बिलख रहा था दूर पड़ा
उसके आंचल के दो बून्द दूध के लिए
वह वही
लीर- लीर आंचल
सूख चुकी छातियां
पत्थरों के ढेर के बीच
एक कामान्ध को सौंप रही थी
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चित्र: सुनीता |
सच कहते हो!
तुम्हारे दिखाए दृश्य
बोले- लिखे शब्द नहीं
हमारे आंख, कान
समझ खराब है
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एक दुग्गी भी
कभी कभी
एक दुग्गी भी
सारे
इक्कों, बादशाहों
बेगम, गुलामो पर
भारी पड़ जाती है
सनद रहे!
तुमने लोहे को कहां सजते देखा है?
सिध्द करो
लोहा मिलावटी है
सजावटी है
क्योंकि सच यह है
लोहा अगर वाकई लोहा है
उसमें मिलावट नहीं हो सकती
उसकी सजावट नहीं हो सकती
मैंने तो हमेशा
लोहे को
गर्म होते
लाल होते
गलते- पिघलते
ढलते
लोहा लेते ही देखा है
हवा में बातें मत करो
झूठे इलज़ाम मत लगाओ...
मैं चुनौती देता हूं
आओ!
बताओ! और दिखाओ!
तुमने लोहे को कहां सजते देखा है?
हमारा लोहा
आप
जिन रत्न- स्वर्णाभूषणों से
सज संवर
इतराते, मदमाते
सिंहासनों महारथों बैठ
हमें गरियाते
जरा बताएं!
अगर नहीं होता
हमारा लोहा
कैसे ये शहंशाही रुतबा पाते
चिंगारियां कब धुंआ करती है
किसी घर से धुंआ नहीं निकल रहा
इसका मतलब यह नहीं कि
वहां कुछ जल नहीं रहा
चुपके-चुपके,धीमे-धीमे
सुलगा करती है
चिंगारियां कब धुंआ करती है
वाकई आदमी बनोगे...
तुमने लोहा सिर्फ देखा है
लोहा हुए नहीं कभी
जिस दिन भी
लोहे का एक भी कण
घुसेगा तुम्हारे भीतर
वह दिन ऎतिहासिक होगा
तुम्हें पता चलेगा
तुम्हारे होने का असल अर्थ
तुम लोहा होगे
लोहा लोगे
वाकई आदमी बनोगे...
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गांधी की सम्पत्ति शून्य
गांधी के साथवालों
गांधी टोपी वालों
गांधी संस्थान वालो
गांधी राग वालों
की सम्पत्तियों के आगे
बाप रे! इतने- इतने शून्य
वह डेढ़ पसली का मरियल बुढ्ढा
वाकई चतुर बनिया था
जो केवल एक शून्य से विराट रच गया
और विराट का भ्रम पालनेवाले मसीहाओं के गांठ
आज केवल शून्य बच गया
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चित्र: अवधेश वाजपेई |
तुम्हारी चुप्पी
मुझे तुम्हारी चुप्पी पर
बिल्कुल आश्चर्य नहीं
न ही मुझे
रोकने, टोकने पर
मैं जानता हूं तुम ऎसे ही हो
जानते तो तुम भी हो
मैं ऎसा ही हूं
सही कहते हो-
राज, राजा के खिलाफ
मेरा हर कहा, मेरा अहित है
हो सकता है किसी दिन
जान पे ही बन आए
तुम्हारी चुप्पी
बेहतर
हर लिहाज़ से सुरक्षित है
नवरत्नी दर्ज़ा पाएं
दरबार जाएं, दरबार लगाएं
राजा के हर हुकुम पर
जो हुकुम! सिर नवाएं
हर अति, दमन, शोषण के विरुध्द
प्रतिरोध की आवाज़ दबाएं
सयंमित- सधे वक्तव्य दें
तानाशाही को लोकशाही,
बदहाली को खुशहाली सिध्द करें
राजा बहुत ही दूरदर्शी, काबिल है
भरोसा दिलाएं!
हर वक्त ताली बजाएं, बजवाएं!
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बेटी! तुम बेटी नहीं...
पहली बार महसूस कराया तुमने
मैं अकेली नहीं
तुम्हें यूं बोलते देख अचंभित
और गौरान्वित हूं
और दुखी भी
यह साहस
मैं कभी क्यूं नहीं कर पायी
इतने बरस कहां थी तुम
ज़िंदगी में इतनी देर से क्यूं आयी
कैसे कह देती हो सब कुछ
साफ- साफ
कैसे चल देती हो बेधड़
कहीं भी
खड़ी हो जाती हो
किसी भी डर, ताकत के सामने
तनकर
तुम्हारी नज़रें
झुकती नहीं
सीधे देखती है
आंखों में आंखे डाल
हर कलमस के खिलाफ
तुम्हारे हाथ जुड़ते नहीं
टूट पड़ते हैं
वहशी दरिंदों
गिध्दों पर
कहर बनकर
बेटी!
तुम बेटी नहीं
उम्मीद हो
हर मां की
नाउम्मीद ज़िंदगी में
कोख गौरान्वित है
तुम्हें जनकर
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चित्र: अवधेश वाजपेई |
गाय पर लेख
बच्चे को पूरे दिन
क्लासरूम से बाहर
खड़े होने की सज़ा सुनायी गयी
उसके अभिभावकों को
स्कूल प्रशासन ने तलब किया
और चेतावनी दी
बच्चे पर नज़र रखें
बच्चे को खबरों
मीडीया से दूर रखें
उसे समझाएं
जिससे पाट्यक्रम में वर्णित
पाठों में लिखे सच से बाहर
कुछ भी, उसके दिमाग में न आए
देखिए तो उसने गाय पर लिखाए लेख में
क्या- क्या अनाप-शनाप लिख दिया है
स्कूल के बाहर बच्चों को
आए दिन सींग मारती रहती है
जहां जी चाहे रास्ते में शूशू-पोटी कर देती है
कभी भी स्वच्छ भारत वाला संदेश नहीं पढ़ती है
सबको अब शेर से नहीं, गाय से डर लगता है
गाय अब माता, पालतू जानवर नहीं
जंगली जानवर है
गाय अब दूध ही नहीं, मौत भी देती है
पहले अखलाख को मार दिया
अब पहलू की जान ले ली
गाय अब खतरा है, जिस किसी घर है
पढ़ा आपने...
सोचिए!
अगर किसी को भनक भी लग गयी
क्या हो सकता है
स्कूल के ताला लग सकता है
दंगा हो सकता है...
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सम्पर्कः
‘प्रतीक्षा’ 2- डी- 2, पटेल नगर, बीकानेर- 334003 मो.न. 9413265800 e-mail : navneetpandey.bik@gmail.com
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सत्यनारायण पटेल
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