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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 अक्तूबर, 2017

सुरेन्द्र कुमार की ग़ज़लें


सुरेन्द्र कुमार:  10 अगस्त 1941
को नगला  जेत, जिला अलीगढ (उत्तर प्रदेश) जन्मे । शिक्षा के बाद सरकारी नौकरी की। फिर वकालत भी की। मगर  अब लिखने-पढ़ने का काम करते हैं। जयपुर में रहते हैं। अब तक चार ग़ज़ल संग्रह और एक गीत संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेजी में भी कविताएं कहते हैं।

बिजूका में उनकी कुछ ग़ज़ल साझा कर रहे हैं। उम्मीद है कि पसंद आएगी।        
                                               

      सुरेन्द्र कुमार की ग़ज़लें



         एक

  एक ठहरा ज़लज़ला है आदमी
   हो बुरा फिर भी भला है आदमी
  एक सूरत दिल नहीं बहला सकी
   जन्म से ही मनचला है आदमी
   ये गमों की भीड़ से डरता नहीं                                          कौनसी माटी ढला है आदमी
    पा नहीं पाया अभी तक मंजिलें
      गोकि सदियों का चला है आदमी
      मौत जिसको तोड़ ही पाई नहीं
      एक ऐसी श्रंखला है आदमी
०००




                                                                  दो




   रेत में लाख मोती पड़े हैं
   ये किसी के ग़लत आंकड़े हैं
    आस में एक छत की यहाँ पर
      लोग फुटपाथ पर आ पड़े हैं
       एक तूफ़ान की खास ज़द में
        घास के फूंस के झोंपड़े हैं
        रेल के या मुसाफिर नहीं क्या
         पायदानों पे ये क्यों खड़े हैं
         पृष्ठ से ज़िन्दगी के यहाँ  तो
          भूख के हाशिये कुछ बड़े हैं
           खाइयों के दरद को मिटाने
           लोग ऊंचाइयों पर खड़े हैं

०००



                                                                      तीन



  आपकी फ़िक्र में नाचतीं तितलियाँ
  झोंपड़ों पर इधर गिर रहीं बिजलियाँ

 धूप दिन भर तपी प्यास दिन भर रही
 आँधियों से रहीं झूझती ढानियां
  नैन सूखी नदी की तरह खुश्क  थे
   कोई आंसूं नहीं था न थीं बदलियाँ
    मेमने भी तरसते रहे दूध को
    भेड खामोश थीं चुप रहीं बकरियाँ
    पाँव पेटों से जबरन चिपक सो गये
      जैसे पेटों में पैवस्त हों बर्छियाँ
०००


                                                                                चार

  हमको हांके चले आये हैं
 हम भी भागे चले आये हैं

   बेखुदी में कहाँ होश था

    घर से आगे चले आयें हैं

    साथ क्या था अभी साथ क्या

   रोज़  फाके चले आये हैं

    सिर्फ पानी कुए से पिया

      मार  खाके चले आये हैं


     दर्द जितना मिला है हमें

     उसको गाते चले आये हैं

      हमने देखी  है जन्नत तेरी

      हम तो जाके चले आये हैं


   इल्म था तो वो दरबार में

   नाच गा के चले आये हैं





                                                                           पांच


  जब से कर्फ्यू लगा नगर में

  दहशत आ धमकी घर घर में

  कितने लोग जलाए होंगे

     कल गिनती होगी दफ्तर में

      दूर कहीं हल्ला होता है

    बच्चे मूत गये बिस्तर में

      जितना दर्द लिए दिल बैठा

        दर्द कहाँ है वो खंजर  में

        सर फोड़ो या जान लुटादो

       फूल नहीं लगते पत्थर में

       जब से अब्बू गये काम पर

        रोटी नहीं बनी है घर में

           उसके दिल में क्या बचता है

          जिसके कोई बचा न घर में  

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