image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अक्टूबर, 2017

अस्मुरारी नंदन मिश्र की कविताएं



कविताएं

अपना-अपना लोक

दूब, अक्षत, गंध, पुष्प

उन्होंने सब को हवि किया

कि मिले मृत्यु बाद भी


दी बलि

बनाया देवालय

तोड़े नाते

लिया संन्यास

अपने जानते किये अच्छे-अच्छे काम

उन्हें जाना था परलोक

वे परलोक सुधार रहे थे।

मैंने उगायी दूब, बचाया अन्न

रखा पानी साफ

बीने काँटे, निकाला रास्ता,

किया प्रेम,बनाया घर

पशु-पक्षी सबसे मिलकर बसाया परिवार

मैं जानता हूँ

खत्म होने के बाद भी रह जाऊंगा

इन्हीं मिट्टी, हवा, आकाश में

मुझे भी अपना लोक संवारना है।
००




चित्र: अवधेश वाजपेई
पत्थर


यह बहुत बाद में जाना

कि एक खास किस्म का पत्थर

तैरते रहे पानी में

और साबित करते रहे तुम्हारा नाम

करवाते रहे मुनादी कि

डूबते को भी उबारना रहा तुम्हारा काम

लेकिन देखा किया ऐसा भी

पत्थर ऐसे भी थे

जो दूसरों को भी बनाते रहे पत्थर

तो गले में बंध गये डूबते वक्त

कुछ तो जोर लगा कर खुदवाते रहे छाती पर

तुम्हारा नाम

और गिरते रहे अविराम

डूबते रहे खुद भी

डुबाया औरों को भी

साथ ही तुम्हारा नाम

उबार लो

जो उबार सको

हे राम!  
००
चित्र: अवधेश वाजपेई


बिजूका महाराज


बड़े ही शान से खड़े किये गये हैं

बिजूका महाराज

हाँड़ी के माथे में कुछ नहीं है

बाहर कालिख और चूना है

आँखें खुली की खुली हैं

कान बंद के बंद

मुँह यूँ बाये हैं, जैसे लील ही लेंगे

फसल चुगने वाली चिड़ी-चुनमुन को

टेढ़े-मेढ़े शरीर पर फब रहा है

फटा-पुराना कपड़ा

और चुँकि वे बिजूका हैं

इसलिए उन्हें कोई शिकायत भी नहीं अपने कपड़ों से

अपने रंग-ढंग-स्थिति से कोई शिकायत नहीं उन्हें

उन्होंने कभी नहीं माँगा आईना

न कभी पूछा ही किसी से

कि मैं कैसा दिखता हूँ

अच्छा-बुरा...सच्चा-झूठा..

यूँ उन्हें चिड़ियों के खेत चुगने से भी कोई शिकायत नहीं

और न ही कोई शिकायत आवारा पशुओं से

यदि उन्हें लिखनी होती आत्मकथा

तो वे तटस्थता के मिसाल होते...

वैसे तटस्थता और उदासीनता में फर्क नहीं है

दोनों निष्क्रियता के पर्याय हैं

और इनके लिए सबसे अधिक यथार्थवादी और सटीक शब्द है कायरता

जो फर्क डाल देती रही है हमारे जीने में...

बिजूका महाराज शान से खड़े हैं

कि डर रही हैं चिड़ियाँ

कि आशंकित आवारे पशु

कि सुरक्षित है खेत

खेत की खड़ी फसल

मगर कब तक...


देखो! वह चिड़िया बैठ ही गयी है सिर पर

अपनी बीट से मुँह-नाक-आँख के अलावा भी कुछ बना दिया है

जिसका होना–न-होना बराबर है

ठीक आँख-कान-मुँह के होने-न-होने की तरह

वह कुत्ता अपनी आदत से बाज नहीं आया इन्हें देख कर

अब तो धोती खींच–खींच खेलना शुरु कर चुका


जरा देर में देखना बिजूका महाराज नंगे होंगे

कि होंगे ही नहीं

वे तो गिर गये लड़खड़ा कर

हाड़ी फूट गयी

बिल्कुल ही खाली थी

अब शायद सँभाल रख पाये

बरसात का कुछ पानी

चिड़ी-चुनमुन प्यास मिटाये इससे ही...
००



 युवा-परिदृश्य: एक बिंब


सामने कीचड़ है

कादो है

पानी है...

बीच में रखी एक ईंट पर एक पैर जमाए वह

देख रहा है दूसरे पैर के लिए उचित जगह

एक पैर पर लंगड़ी खड़ा यह युवा

पूरा एक समुचित बिम्ब है

वर्तमान युवा-परिदृश्य का...
००

संपर्क:

अस्मुरारी नंदन मिश्र

केंद्रीय विद्यालय दानापुर कैंट

पटना

9798718598

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें