24 मई, 2019

कहानी




रोटी की महक

 सुभाष पंत


उसके पास बेचने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज़ और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है, इसमें से कोई भी चीज़ बिक नहीं सकती थी।


सुभाष पंत


   शहर अपने पूरे विस्तार और गहमागहमी के साथ पसरा हुआ था। अगर शहर कुछ दबा-सिकुड़ा-सा होता तो संभव है कि उसकी भूख भी कुछ सिकुड़ जाती, लेकिन एकदम दूर दूर तक फैले महानगर में उसकी भूख भी फैलकर चौड़ी हो गई थी, जैसे उसके अनेक मुहाने खुल गए हों। इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे नहीं आती थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है, जो किसी के भीतर संवेदनाएं जगाकर उसकी जेब तक पहुँचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या अन्य शारीरिक विकृति-सम्पन्न भी नहीं था औेर न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था चोरी, जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।



 बहुत तेज़ धूप थी, जिसमें पूरा शहर पिघलता हुआ लग रहा था। सहसा वह अजीब से खौफ से भर गया। अगर भट्टी पर पिघलते इस्पात की तरह यह पिघलता हुआ शहर ढहना शुरु कर देगा, तो क्या होगा? उसके शरीर का हर हिस्सा पानी उगल रहा था और उसका कंठ प्यास से जल रहा था। शहर में या तो नल नहीं थे और अगर कोई भूला-भटका नल दिखाई पड़ जाता तो उसमें पानी नहीं था। पानी ठेलियों में कैद था और पचास पैस प्रति गिलास की दर से बिक रहा था। बाहर गर्मी की ज्वाला जितनी तेज़ थी, उसके भीतर इससे भी तेज़ ज्वाला धधक रही थी। पिछले अड़तालिस घंटों से उसने कुछ नहीं खाया था। उसने पहली बार गहराई से अनुभव किया कि भूख सिर्फ पेट ही अनुभव नहीं करता....आँख, नाक, कान और त्वचा भी इसे शिद्दत के साथ अनुभव करते हैं.....यहाँ तक कि नाखून और बाल भी....

 अड़तालीस घंटे पहले जब वह अपनी बची-खुची पूँजी खर्च करके खाना खा रहा था, तब उसे पूरा विश्वास था कि आगे भूख लगने तक इस नितान्त अपरिचित शहर में भी वह खाने की कोई न कोई व्यवस्था कर ही लेगा। वह भयानक आशावादी किस्म का प्राणी था। लेकिन अड़तालीस घंटे बीत चुके थे और अब तक वह कोई जुगाड़ नहीं कर पाया था। उसका पेट एकदम खोखला हो गया था। चटख धूप में भी आँखों के सामने काली परछाइयाँ थरथरा रही थीं। फिर भी, एक बनैले किस्म का आशावाद उसमें अब भी जिन्दा था कि वह रोटी चुरा सकता है। उसके हाथ-पैरों में अभी ऐसा करने की ताकत मौजूद है, लेकिन वह पानी के लिए परेशान था। पानी तो चुराया नहीं जा सकता।



 

इस वक्त वह बुलंद हौंसले के साथ दुकानों की छाया में चल रहा था, जो सजी-सँवरी औेर अलसाई दुल्हनों की तरह लग रही थीं। कभी वह चलते हुए राहत महसूस करता, खासकर जब वह किसी वातानुकूलित दुकान के पास से गुजरता और एक ठंडी-सी लहर से आन्दोलित हो जाता। कभी वह एकदम नाराज़ हो जाता। आश्चर्य और आक्रोश से भर जाता। सौन्दर्य-प्रसाधन की दुकानों में सैकड़ों किस्म के पाउडर, लिपिस्टिक, सेंट वगैरह देखकर। जूतों की दुकानों पर इतने किस्म के और कीमती जूते थे....कि एक जोड़ी जूते की कीमत में वह महीने भर गुजारा कर सकता था। इस देश के भीतर एक और देश है.....लेकिन यह किन लोगों का देश है, उसकी समझ में नहीं आता। आखिर वे कौन लोग हैं, जो इतने कीमती जूते पहन सकते हैं....उनके पास इतना पैसा कहाँ से बरसता है? और उन्हें यह नैतिक हक़ कैसे प्राप्त हो गया कि वे आदमी के पेट से बना जूता  अपने पैर में पहन सकें?

   वह बुरी तरह से थक गया था। लगता था जैसे धूप, गर्मी और लू ने उसका सारा सत खींच लिया है। वह किसी भी समय लड़खड़ाकर गिर जाएगा, लेकिन वह इस तरह सड़क पर गिर पड़ने को तैयार नहीं था। हर विरुद्ध परिस्थिति के बावजूद वह खड़ा रहना चाहता था। क्षणभर सुस्ता लेने की वजह से वह एक दुकान के सायबान के नीचे रुक गया। छत के नीचे सुरक्षित कोने में एक चिड़िया सुस्ता रही थी, बाहर चटख धूप में एक लड़का गीत गाते हुए चने-मुरमुरे बेच रहा था। सूरज जंगली सुअर की तरह बौखलाया हुआ था, जो कहीं भी और किसी भी वक्त घात कर सकता है, लेकिन आमदरफ्त जारी थी....यात्री डंडे पकड़कर बसों के पाएदानों पर लटके हुए थे। जिन्दगी लस्त-पस्त जरूर थी, थकी हुई नहीं थी।

   क्षणभर सुस्ता लेने के बाद चिड़िया ने अपने पंख फैलाए और गहरे आत्मविश्वास के साथ आसमान का सीना चाक करते हुए अपनी यात्रा पर उड़ गई। वह भी खड़ा हो गया। थोड़ी दूरी पर एक बड़ा होटल था, जिसमें रंग-बिरंगी ध्वजाएं फरफरा रही थीं। सहसा उसके मन में विचार आया कि उसे जबरदस्ती होटल में घुसकर अपने लिए लंच ऑर्डर कर देना चाहिए। पैसे उसकी जेब में नहीं थे, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि बिल अदा न किए जाने की स्थिति में उसकी पिटाई की जाएगी अथवा उसे जूठे बर्तन साफ करने को विवश किया जाएगा। वह तैयार था, लेकिन वह अपने विचार को कार्यरूप में परिणित नहीं कर पाया। दरबान ने उसे गेट पर ही रोक लिया और डपटकर भगा दिया। इस तरह एक सिनेमाई संयोग नहीं हो सका, जिसके होने की कल्पना में वह क्षणभर पहले उत्साह से भर गया था। वह सतर्क निगाह से इधर-उधर देखते हुए और दरबान को मन ही मन गालियां बकते हुए आगे बढ़ गया। एक बेकरी के पास उसके पैर ठिठक गए। वहाँ काँच की अलमारियों में अन्य बेकरी के सामन के साथ डबलरोटियाँ रखी हुई थीं। एकदम गुदगुदी रोटियाँ, जिनके गुदगुदेपन को वह अपारदर्शी रैपर के बावजूद महसूस कर रहा था और जिसकी सुगंध शीशे को भेदकर उसकी नाक तक पहुँच रही थी। उसे लगा कि यहाँ से रोटी चुराया जाना काफी सुरक्षित है। बेकरी का मालिक एक मोटा, थुलथुला आदमी था। उसके सिर पर पंखा पूरी गति से घूम रहा था और वह तब भी पसीने से लथपथ था, जिसके कारण उसके चेहरे पर नाराज़गी का भाव था।

   वह काउंटर पर सबसे दूर की अलमारी के पास खड़ा हो गया। उसने अनुमान लगाया कि इस अलमारी का काँच तोड़कर रोटी चुराने में सफल होने तक, बेकरी का मालिक जितनी भी चुस्ती करे, उस तक नहीं पहुँच सकता। पूरी तरह आश्वस्त हो जाने पर उसने तेज़ी से मुक्का मारकर अलमारी का काँच तोड़ दिया, लेकिन उसका अनुमान गलत निकला। बेकरी का मालिक जरूरत से ज्यादा फुर्तीला था और उसकी आवाज़ इतनी बेचैन और हृदय-विदारक थी कि जैसे किसी सती नारी के सतीत्व पर डाका पड़ गया हो और वह रक्षा की गुहार लगा रही हो। हालांकि एक रोटी चुरा लिए जाने से बेकर की आर्थिक स्थिति मे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ने जा रहा था, लेकिन उसके काँच पर मुक्का पड़ते ही वह चोर चोर चिल्लाते हुए इतनी तेज़ी से अपने थड़े से कूदा कि कार्निस पर रखी लक्ष्मी की मूरती फर्श पर गिर पड़ी और वह बड़ी मुश्किल से अपने को उसकी गिरफ़्त से बचा सका। हड़बड़ाहट में उसके हाथ जो कुछ भी आया, वह उसे लेकर भाग गया। उसके पीछे चोर चोर चिल्लाते हुए बेकरी के नौकर भी दौड़ रहे थे। सम्भवतः बेकरी का मालिक अपने नौकरों को पर्याप्त पैसे नहीं देता होगा, जिस वजह से वे कोई ख़ास जोखि़म लेने को तैयार नही थे। वे रस्मी तौर पर कुछ दूर उसके पीछे दौड़े और फिर खाली हाथ वापिस हो गए। उस धूप में बहुत दूर तक दौड़ते चले जाने के बाद जब उसे लगा कि वह पूरी तरह सुरक्षित है तो वह रुक गया। सामने एक पार्कनुमा जगह थी। वह उसमें घुस गया और एक बेंच पर बैठकर ताबड़तोड़ उस माल को खाने लगा, जिसे वह चुराकर लाया था। लू चल रही थी, जिसमें पेड़ और पौधे झुलस रहे थे, लेकिन वह बेहद खुश था।
   सामने सड़क पर दौड़ती कारों में से सहसा एक कार झटके से रुकी और उसमें से एक सम्भ्रांत आदमी, जो सोने के फ्रेम की ऐनक पहने था, और उसके साथ एक सुंदर लड़की बाहर निकले और चौकन्नी उत्सुकता के साथ उसे निहारने लगे।
   लड़की ताली बजाते हुए प्रसन्नता से चीखी, ‘‘मैं कह रही थी न वह चार्ली है।’’
   आदमी की बांछे खिल गईं, ‘‘यू‘र राईट बेबी, ही‘ज इण्डीड चार्ली।’’







  वह चार्ली नहीं था, लेकिन बाप-बेटी को अपने में रुचि लेते देखकर आशंकित हो गया। वह तेज़ी से हाथ में पकड़े माल को निगलने लगा ताकि उसे ज़रूरत पड़ने पर भागने में सहूलियत हो। वे बड़े उत्साह और उछांह में उसकी ओर लपक रहे थे। उसने अपने हाथ की सामग्री तो निगल ली, लेकिन ऐन वक्त पर उसके पावों से भागने से इनकार कर दिया और वह उनकी गिरफ़्त में आ गया। सबसे पहले वह एक सुगंध की गिरफ़्त में आया, जो लड़की की देहगंध थी। फिर लड़की की गिरफ़्त में। फिर पुरुष की।
   लड़की उसकी बांहों में समा जाने को आकुल थी। वह प्यार से चिहुंकी, ‘‘चार्ली, माई डियर चार्ली।’’
   उसने गौर से देखा। लड़की वाकई खूबसूरत थी। कमलनाल-सी लचकती हुई। उसकी आँखें तो ऐसी थीं जैसे हवा में तैर रही हों.... ऐसे कोमल क्षणों कठोर नहीं हुआ जा सकता था, फिर भी उसने रूखेपन के साथ कहा, ‘‘मैं चार्ली नहीं हूँ।’’
   लड़की एकाएक सुबकने लगी, ‘‘देखो, झूठ मत बोलो। प्लीज....तुम समझते हो कि झूठ बोलकर अपने को छुपा सकते हो। नेवर....’’
   ‘‘मैं चार्ली नहीं हूँ,’’ उसने झल्लाहट के साथ कहा, ‘‘सही बात तो ये है कि मैं किसी चार्ली-वार्ली को जानता तक नहीं।’’
   ‘‘तो तुम चार्ली नहीं हो!’’ लड़की के चेहरे पर व्यंग्य उभरा।
   ‘‘हां, मैं चार्ली नहीं, छविनाथ हूं।’’
   ‘‘छविनाथ...’’ लड़की असमंजस में उलझ गई।
   ‘‘जी, छविनाथ। मैं इस शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आया था, लेकिन मेरा सामन और रुपए चोरी हो गए और मैं गहरी विपत्ति में फँस गया। इतने बड़े शहर में न मेरे पास सिर छुपाने की जगह है...और न....’’
   ‘‘तुम इस समय यहाँ बैठे क्या कर रहे थे?’’ सोने के फ्रेम की ऐनकवाले ने पूछा।
   ‘‘मैं यहाँ बैठकर डबलरोटी खा रहा था।’’
   ‘‘रोटी?’’
   ‘‘जी हाँ, रोटी जिसे मैंने अपोलो बेकर्स के यहाँ से चुराया था। उससे फिलहाल मेरी भूख तो कम हो गई है, लेकिन मेरा गला प्यास से जल रहा है। रोटी चुराई जा सकती है और मैंने उसे चुरा भी लिया, लेकिन पानी...’’
   ‘‘उसकी तुम फिक्र मत करो डियर चार्ली....पानी मैं अभी लाई।’’ लड़की ने कहा और उत्साह के साथ कार की ओेर दौड़ी। वह वापस लौटी तो उसके हाथ में मिल्टन की वाटर बॉटल थी, जिस पर बेहद खूबसूरत सीनरी बनी हुई थी।
   वह गटागट सारा पानी पी गया। पानी बहुत ठंडा था, जैसे अमृत हो। पानी पीकर वह तरोताज़ा हो गया।
   ‘‘छविनाथ तुम रोटी नहीं खा रहे थे।’’ पुरुष ने मजबूती से कहा।

   ‘‘मैं रोटी ही खा रहा था,’’ उसने पूरे यकीन के साथ कहा, ‘‘वह मैंने अपोलो बेकर्स की अलमारी का काँच तोड़कर चुराई थी। बेकरी का मालिक बेहद मोटा आदमी है, लेकिन वह अपने मोटापे के बावजूद गजब का चुस्त है। मैं उसकी पकड़ में आते आते बच गया। संयोग से उसके नौकर कामचोर हैं, जो थोड़ी मेहनत करके मुझे पकड़ सकते थे। अगर ऐसा हो जाता तो कहानी ही दूसरी होती और मैं इस तरह पार्क में बैठकर आनन्द से रोटी नहीं खा रहा होता।’’

   ‘‘तुमने रोटी चुराने के लिए अलमारी का काँच जरूर तोड़ा होगा, लेकिन बेकरी के मालिक के अचानक कूद पड़ने, चिल्लाने और नौकरों की चिल्ल-पों से घबराकर तुम रोटी नहीं चुरा सके। उसकी जगह तुम्हारे हाथ में काँच का टुकड़ा आया, जिसे तुम रोटी समझकर ले भागे। घबराया हुआ आदमी कुछ भी कर सकता है। तुम पार्क में बैठकर वहीं काँच का टुकड़ा खा रहे थे।’’
   ‘‘नहीं साहब, आपको भ्रम हुआ होगा। मैंने रोटी ही चुराई थी और मैं वहीं खा रहा था। उसका स्वाद अब भी मेरे मुँह में बाकी है और उसका गुदगुदापन अब तक मेरी उंगलियाँ महसूस कर रही हैं।’’
   ‘‘चलो मान लिया तुम रोटी खा रहे थे,’’ पुरुष ने चालाक कांइयांपन से कहा, ‘तो उसका रैपर आसपास कहीं न कहीं होना चाहिए?’
   ‘‘बिल्कुल होना चाहिए।’’ उसने उत्साह से कहा और इधर उधर नज़रें दौड़ाकर रैपर ढूँढ़ने लगा। पार्क की गंजी घास में उसे कई चीजें दिखाई दीं। मसलन कोल्ड ड्रिंक्स के डिब्बे और साइफन, चनाजोर गरम के कागज के कोन और पुड़के, टूटा पैन....कंघा, हेयर पिन, और यहाँ तक कि झाड़ के पास रबड़ की गुब्बारेनुमा चीज भी....लेकिन डबलरोटी का कोई रैपर वहाँ नहीं था। वह निराश हो गया और घबरा भी गया। ‘‘तो क्या मैं....’’ वह बड़बड़ाया।
   ‘‘हां, तुम काँच ही खा रहे थे।’’ पुरुष ने जोर देकर कहा।
   ‘‘आदमी काँच कैसे खा सकता है?’’ वह अब भी अविश्वास में झूल रहा था।
   ‘‘भूख में आदमी कुछ भी खा सकता है।’’ इस बार लड़की चहकी, ‘‘चार्ली ने ‘गोल्ड रश’ में भूख में जूते और उसमें जड़ी कीले उबालकर खाई थी, जैसे गोश्त खा रहा हो और हड्डियाँ चबा रहा हो। तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’’
   वह आश्चर्य और आतंक से भर गया। क्या उसने सचमुच रोटी की जगह काँच खाया था। उसने कई जगह यह बात पढ़ी और सुनी जरूर थी कि अमुक अमुक आदमी ने काँच खाया है या लोहे की छडं़े चबाई हैं, लेकिन उसने उस पर कभी विश्वास नहीं किया था। कैसे आश्चर्य की बात है कि ऐसा वाकया आज उसी के साथ हो गया। क्या वाकई जीवन में कोई क्षण ऐसा भी आता है, जब मनुष्य की सारी शक्तियां एकाएक अपने उद्रेक पर पहुँच जाती हैं और वह कुछ भी कर सकता है। शक्तियों उद्रेक के ऐसे क्षणों में ही शिव ने विषपान किया होगा।’


   ‘‘तो क्या सोच रहे हो छविनाथ!’’ पुरुष ने शुद्ध व्यवसायिक लहजे में कहा, ‘‘देखों मेरे पास ताक़त है और तुम्हारे पास अनोखी कला है। मैं तुम्हारी इस कला को प्रकाश में ला सकता हूँ। अगर हम मिलकर काम करें तो दोनो को फायदा होगा। बोलो मंजूर है।’’ 

   ‘‘पहली बात तो यह है कि मुझे यकीन ही नहीं हो रहा कि मैंने काँच खाया है और अगर खाया भी है, जैसा कि आप कह रहे हैं, क्योकि आप ने इसे सोने के फ्रेम की ऐनक से देखा है, तो वह मजबूरी में खाया है....जरूरी नहीं कि मैं आगे भी काँच खा सकूँ। फिर मजबूरी में किया काम कला की श्रेणी में नहीं आ सकता।’’ उसने असमंजस में सिर हिलाते हुए कहा।

पुरुष ने अपनी आँखों से सोने के फ्रेम की ऐनक उतार ली। उसकी नंगी आँखें ऐसे दिखाई पड़ीं जैसे उनमें विषधर बैठे जीभ लपलपा रहे हों। प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसने कहा, ‘‘कला का जन्म ही मजबूरी से होता है। इसके अलावा दूसरी और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तुम अपनी स्थिति और औकात को अच्छी तरह समझ लो। जनाब तुम खाली जेब हो और खाली जेब आदमी को यह शहर उठाकर कूड़े के ढेर में फेंक देता है। याद रखो अवसर सिर्फ एक बार ही आदमी का दरवाज़ा खटखटाता है। जो उसकी आवाज़ सुन लेता है, वह सफल है। जो उसकी आवाज़ नहीं सुनता, वह जिंदगीभर रोता रहता है। सोच लो, फ़ैसला तुम्हारे हाथ में है।’’
   वह असमंजस में फँस गया।
   उसे उलझन में फँसा देखकर लड़की बोली, ‘‘मान जाओ न डियर चार्ली....’’
   लड़की के व्यवहार में इतना अपनत्व-भरा आग्रह, मनुहार और कशिश थी और उसकी चम्मपई आँखों में ऐसा आमंत्रण था कि वह एकाएक परास्त हो गया।

   इनकी बात मान ली जानी चाहिए, उसने सोचा। उसमें इतनी उद्दाम जीवनेच्छा है कि वह काँच को रोटी की तरह खा सकता है तो निश्चय ही उसका जन्म एक बड़ा और सफल आदमी बनने के लिए हुआ है। संयोग से सोने के फ्रेम की ऐनकवाला और उसकी सुभग लड़की उसकी मदद करने को तैयार हैं तो उसे इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। अगर उसने काँच नहीं खाया है और उन्हें गलतफ़हमी हुई है, जिसकी सम्भावना कम है क्योंकि उन्होंने सोने के फ्रेम की ऐनक से ऐसा करते देखा है, तो भी इस सुभगा की प्रेरणा के सहारे वह काँच खाकर दुनिया को हैरान कर सकता है।
   उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।







 प्रिय श्रोताओं, आपको लग रहा होगा कि कहानी कुछ कह ही नहीं रही है। आप किसी ट्विस्ट की कल्पना कर रह होंगे, जो कि वाजिब भी है। निश्चय ही इस कहानी में भी एक ट्विस्ट है और अगर मैं बारीकियों में न उलझते हुए उस ट्विस्ट तक पहुँचने का उतावलापन दिखाऊँ तो आप नाराज़़ नहीं होंगे। मुझे लगता है कि आप ऐसा चाहते भी हैं।
   तो आगे का किस्सा-कोताह यूँ है--

   सोने की फ्रेम की ऐनकवाले और उसकी सुभग बेटी ने हमारे नायक का नाम छीन लिया। अब वह छविनाथ नहीं, चार्ली था। शहर में बड़े बड़े पोस्टर लगाए गए--‘काँच खानेवाला अनोखा आदमी प्रोफेसर चार्ली’ और टिकट लगाकर जगह जगह उसके प्रदर्शन किए गए। जब वह पार्क में कुछ खा रहा था, मुझे नहीं मालूम कि वह क्या खा रहा था, रोटी या काँच? लेकिन अब वह काँच खाने लगा था। उसे काँच खाते देखकर प्रदर्शन-कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज जाता। लोग आश्चर्यचकित रह जाते। आयोजनों में इतनी भीड़ टूटती कि वह संभाली न जाती। चार्ली पूरे देश का क्रेज़ बन गया। रेलों और जहाजों में उसकी चर्चा होती। अख़बारों और पत्रिकाओं में उस पर लेख प्रकाशित होते। विज्ञापन-एजेंसियाँ उसे मॉडल बनाने के लिए कोई भी कीमत अदा करने को तैयार रहतीं और यहाँ तक कि दूरदर्शन भी उसका कार्यक्रम दिखाने को बेताब था।

   इतनी प्रसिद्धि पाकर कोई भी आदमी पागल हो सकता है, लेकिन चार्ली बहुत दुःखी था। और वह इस तंत्र को तोड़कर भाग जाना चाहता था। सोने की फ्रेम की ऐनक वाले ने उसे बंदी बना रखा था। उसके चारों तरफ पहरा था और खिड़कियों पर सलाखें जड़ी हुई थीं। पंछी भी वहां पंख नहीं मार सकता था। यूँ, उसकी देख-भाल की पूरी व्यवस्था थी। उसे पूरे आराम से रखा जाता। उसे छींक आ जाती तो देश के बड़े-बड़े डॉक्टर उसके उपचार के लिए मुहैय्या कर दिए जाते। सोने के फ्रेम की ऐनक वाले की लड़की उसकी खातिरदारी में रात-दिन एक किए रहती। उसे अति विशिष्ट व्यक्ति का आदर और सुविधाएं दी जातीं। वह जो कुछ भी चाहता, उसे मिल जाता। बस उसे रोटी नहीं दी जाती थी। रोटी की जगह प्रतिदिन लड़की मुस्कुराते हुए एक तश्तरी काँच उसके लिए लाती।

   वह चीखता, ‘‘मेरी बदौलत आप लोगों ने जो कुछ भी कमाया है, मैं उस पर अपना अधिकार छोड़ता हूँ। मैं कुछ नहीं मांगता। मुझे सिर्फ रोटी चाहिए।’’

   लड़की मोहिनी मुस्कुराहट के साथ उसके कंधे पर झूल जाती, ‘‘नाराज मत होओ डियर चार्ली, तुम्हें सब कुछ मिल सकता है, जो तुम चाहो। लेकिन रोटी नहीं मिल सकती। जिस दिन तुम्हें रोटी मिल जाएगी, उसी दिन तुम काँच खाना भूल जाओगे और एक सामान्य आदमी बनकर भीड़ में खो जाओगे। तुम्हारा सारा यश और प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगा। हम तुम्हें अब सामान्य आदमी नहीं बनने दे सकते। अभी तो तुम्हें अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के शिखर पर आसीन होना है। कल तुम्हारा डिमांस्ट्रेशन है, जिसे देखने के लिए मुख्यमंत्री जी आ रहे हैं।’’
   लड़की ने चमचमाती मेज पर, जिसमें वह अपनी शक्ल भी देख सकता था, एक तश्तरी में काँच रखा और विदाई में आना नाज़ुक हाथ हिलाया और कमरे से बाहर निकल गई।


   वह बेचैन और उद्विग्न-सा कमरे में घूमने लगा, जिसमें इतना मोटा कालीन बिछा हुआ था कि उसमें उसके पैर धंस रहे थे। दीवारे थीं जो अव्वल ईंटों की बनी हुई थीं और जिन पर मंहगी पेंटिग्स लटक रही थीं। खिड़कियाँ थीं, जिन पर इस्पात की सलाखें थीं। दरवाज़ा था, जिस पर बाहर से ताला लटक रहा था और पहरा था। सहसा उसके भीतर एक विश्वास जागा, अगर आदमी में हौसला है और मुक्ति की कामना है तो कोई भी कारा उसे बंदी नहीं रख सकती। वह काँच खा सकता है तो इस्पात भी खा सकता है। इस्पात की उन सलाखों को भी खा सकता है, जिन्होंने उसे कैद कर रखा है।

   और सचमुच पिछली रात वह इस्पात की सलाखों को खाकर और उनके तंत्र में सूराख करके अंधेरे में कही गायब हो गया। सोने के फ्रेम की ऐनक वाला आदमी, उसकी सुभग लड़की, उनका सारा तंत्र और पुलिस-व्यवस्था शिकारी कुत्ते की तरह उसे ढूँढ रहा है। वे उसे किसी भी कीमत पर वापस पाना चाहते हैं।
   मैं भी यह कहानी यहीं खत्म करके इसी वक्त उसकी खोज में निकल रहा हूँ। आप में भी अगर थोड़ी-सी व्यावसायिक बुद्धि है....तो आप भी मेरे साथ हो लीजिए। हम उसे पकड़ सकते हैं...मुझे मालूम है, वह कहाँ मिल सकता है। चलिए, आप को बता ही दूँ। रोटी की महक उसे अपोलो बेकर्स तक जरूर खींच लाएगी, जिसका मालिक मोटा और थुलथुला होने के बावजूद जरूरत से ज्यादा फुर्तीला है और जो एक रोटी चुराए जाने की आशंका से ऐसा आर्त्तनाद करता है, जैसे सती नारी के सतीत्व पर डाका पड़ गया हो।
   और एक बार फिर वह यहाँ की अलमारी का काँच तोड़कर रोटी चुराने की कोशिश करेगा।

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सुभाष पंत की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

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निर्बंध: उन्नीस

 जलवायु युद्ध के युवा सेनापति 
                                                                                 यादवेन्द्र


"मैं सुरक्षित महसूस करना चाहती हूँ 
जब देर रात घर लौट कर आऊँ
जब सड़क के नीचे सब वे के अंदर बैठूँ 
जब रात में बिस्तर पर सोऊँ.....
पर कहाँ हूँ मैं सुरक्षित 
मैं सुरक्षित महसूस करना चाहती हूँ।







पर मैं कैसे सुरक्षित महसूस कर सकती हूँ जबकि मालूम है मानव इतिहास के सबसे गंभीर संकटपूर्ण  दौर से गुजर रही हूँ।जब मुझे मालूम हुआ कि हमने यदि अभी निर्णायक कदम नहीं उठाये तो फिर हमारे बचने का दूर-दूर तक कोई रास्ता नहीं। जब मैंने पहली बार ग्लोबल वार्मिंग के बारे में सुना तो मुझे लगा यह सब बकवास है,ऐसा कुछ भी नहीं है जो हमारे अस्तित्व को इतने खतरे में डाल दे।और मुझे ऐसा इसलिए लगा कि सचमुच यदि ऐसा खतरा हमारे सिर पर मँडरा रहा होता तो फिर हम किसी अन्य विषय के बारे में बात क्यों करते होते... आप टीवी खोलें तो केवल और केवल उसी विषय पर बात होनी चाहिए। हेडलाइन, रेडियो, अखबार सब पर केवल और केवल उसी खतरे के बारे में बातचीत होनी चाहिए.. कोई और विषय नहीं होना चाहिए जिसके बारे में सुना जाए या बात की जाए...जैसे हम विश्व युद्ध के बीच घिर गए हों।पर जमीनी सच्चाई थी कि कोई उस विषय में बात नहीं करता था। जब मुझे मालूम हुआ कि हमने यदि अभी निर्णायक कदम नहीं उठाये तो फिर हमारे बचने का दूर-दूर तक कोई रास्ता नहीं।

और यदि कोई उस विषय पर बात करता भी था तो उसका वैज्ञानिक निष्कर्षों से कुछ लेना देना नहीं होता था ।एक दिन मैं विभिन्न पार्टियों के नेताओं की बहस टीवी पर देख रही थी तो मैंने देखा कि वे किस कदर झूठ बोल रहे हैं। वे कह रहे थे कि स्वीडन को कार्बन उत्सर्जन पर किसी तरह की रोक लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि हम तो दुनिया के एक रोल मॉडल हैं ... और हम दूसरे देशों को इस बारे में सिखा सकते हैं, उनकी मदद कर सकते हैं। वैज्ञानिक तथ्य यह बताते हैं कि स्वीडन कोई रोल मॉडल नहीं है - हर वर्ष स्वीडन में प्रति व्यक्ति 11 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है और वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के प्रकाशित आँकड़ों के अनुसार हम पहले नहीं बल्कि आठवें स्थान पर हैं। हम दूसरों को क्या बताएंगे - हमें स्वयं जानने और सीखने की जरूरत है । मैं यह नहीं समझ पाती कि टीवी जैसे माध्यम पर नेताओं को इतना झूठ बोलने की छूट कैसे मिल जाती है। हो सकता है बड़ों को यह लगता हो कि जलवायु परिवर्तन का विषय समझना मुश्किल है  और यही कारण है के जलवायु के बारे में जब भी टीवी पर कोई कार्यक्रम होता है ,वह बच्चों के कार्यक्रम में दिखाया जाता है ।जलवायु परिवर्तन के बारे में जब मैं 12 वर्ष की थी तब जान गई थी और तभी से मैंने यह तय किया था कि मैं कभी हवाई जहाज पर नहीं चढूंगी और न ही मांस खाऊँगी। हमारे समय को जो मुद्दे परिभाषित करते हैं उनमें से जलवायु का संकट एक प्रमुख मुद्दा है फिर भी हर कोई यह समझता है कि यह तो बहुत मामूली सा मुद्दा है जिसको पल भर में चुटकी बजाते हुए बगैर किसी त्याग के सुलझाया जा सकता है ।हर कोई यह कहता है कि आशावादी बने रहना चाहिए, सकारात्मक रहना चाहिए और यही समस्या के समाधान के लिए जरूरी है। यह तो वैसी ही बात हुई जैसे टाइटेनिक जहाज आइसबर्ग से टकरा जाए और उसके बाद भी उस पर जो बचे हुए जीवित यात्री हों वे इत्मीनान से बैठ कर बात करते रहें कि बीच समुद्र जहाज टूटने की यह कहानी कितनी मशहूर होगी और जो बचे हुए लोग हैं बाद में इतिहास में वे कितनी शोहरत पाएंगे ...या फिर टूटे हुए जहाज से यात्रियों को बचाने के लिए कितने मजदूरों की जरूरत होगी,उस मौके से  कितनी नौकरियाँ पैदा होंगी - हादसे के समय भी इन पर बातचीत चलती रहे। बहरहाल जहाज को तो डूबना ही था वह डूब ही जाता,उसके आगे पीछे जो चीजें होती रहती होती रहतीं। वैसे ही हम आज इतिहास के इस मोड़ पर खड़े हैं जहाँ चीजों को बदल सकते हैं,बेहतरी की तरफ मोड़ सकते हैं और इसीलिए हम अपनी पीठ खुद ठोकते हैं कि शायद हमने आइसबर्ग से टकराकर टूट जाने वाले जहाज का भोझ कुछ हल्का कर दिया और उसकी गति बढ़ा कर खतरे की जल्दी पार कर जाने दिया.... पर क्या मनुष्यता के इतिहास का जो काल वेग है उसको हम धीमा कर पाएंगे?यदि मैं 100 साल तक जीती रही तो 2103 में मैं जिंदा रहूँगी।
आप तो 2050 के आगे की बात सोचते ही नहीं तो फिर भविष्य के बारे में कब सोचेंगे - 2050 तक तो यदि सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो मैं अपना आधा जीवन भी नहीं बिता पाई होंगी,उसके बाद क्या होगा? 2078 में मैं अपने जीवन की 75 वीं वर्षगाँठ मनाऊँगी और यदि मेरे बच्चे हुए और आगे उनके भी बच्चे हुए तो वे भी मेरे साथ मेरी वर्षगाँठ के उत्सव में शामिल होंगे।तब मैं उनसे आपके बारे में क्या कहूँगी...आप ही बताइए कि आप इतिहास में और हमारे जीवन में कैसे याद किया जाना चाहेंगे?आप कुछ करें या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें, बिल्कुल कुछ न करें - दोनों हालातों में आप हमारे पूरे जीवन को प्रभावित तो करेंगे ही।केवल मेरे ही जीवन पर ही नहीं बल्कि हमारे बच्चों और आगे उनके बच्चों के जीवन तक पर भी आपके काम या अकर्मण्यता का असर पड़ेगा। हम एक बार को उस समय यदि खामोशी भी ओढ़ लें तो भी वे जरूर आपसे सवाल करेंगे कि आपने सब कुछ जानते बूझते हुए कुछ क्यों नहीं किया? आप तो सारी चीजें गहराई से जानते थे और गलत को गलत और सही को सही कह सकते थे, तब भी आपने कुछ क्यों नहीं कहा और किया?"
पिछले साल अगस्त के महीने में इन्हीं सवालों के साथ स्वीडन की पंद्रह वर्षीय युवा विद्यार्थी ग्रेटा थुनबर्ग ने अपनी स्मृति में सबसे ज्यादा प्राकृतिक हादसों को झेलने वाले स्वीडन (व्यापक रूप में पूरे यूरोप) के बेहतर पर्यावरणीय भविष्य की  माँग करते हुए स्कूल से निकल कर स्वीडिश संसद की सीढ़ियों पर बैठने का फैसला कर लिया - उसने हाथ में "सुरक्षित जलवायु के लिए स्कूल से हड़ताल" की तख्ती ले रखी थी।अपने देश की सरकार से उसकी माँग थी की पेरिस जलवायु सम्मलेन में यह तय किया गया कि इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान को दो डिग्री से कम बढ़ने देने के लिए कार्बन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर अंकुश लगाया जाएगा। 2018 में जारी आईपीसीसी (जलवायु परिवर्तन का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाली बहुराष्ट्रीय संगठन) की एक रिपोर्ट का दावा है कि 2050 तक यदि तापमान वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस पर रोकना है तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन  पर पूरी तरह रोक लगानी पड़ेगी।





ऑटिज्म(आत्मकेंद्रित बना देने वाला एक मानसिक लक्षण) से ग्रसित ग्रेटा की दिलचस्पी छः साल पहले जलवायु  का विज्ञान समझने में हुई और यथासम्भव हर तरह की जानकारी उसने इकठ्ठा करनी शुरू की - मांसाहार त्यागना , जब जरूरत हो तभी बत्ती जलाना , अनिवार्य जरूरत के अतिरिक्त कोई सामान न खरीदना ,पानी के उपयोग में किफायत बरतना ,सोलर बिजली का प्रयोग ,ऑर्गेनिक खेती ,हवाई यात्रा से परहेज जैसे अनेक उपाय उसने बचपन में ही अपना लिया। शुरू शुरू में उसके माँ पिता और मित्रों परिचितों के साथ साथ स्कूल प्रबंधन ने उसे ऐसा करने से  कोशिश की पर  वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित उसके दृढ संकल्प  के सामने किसी की एक न चली।स्कूल से अनुपस्थित रहने के कारण उसपर अनुशासनहीनता का आरोप लगाया गया पर ग्रेटा अपने निश्चय से डिगी नहीं।स्कूल में पढ़ाई के समय को प्रदर्शन में लगाने को गलत मानने वालों को जवाब देते हुए ग्रेटा कहती है :"मैं अपनी किताबें साथ लेकर संसद की सीढियों पर धरने पर बैठती हूँ .... पर सोचती हूँ :क्या मिस कर रही हूँ ?स्कूल में रह कर आखिर क्या पढ़ लूँगी?आज तथ्यों का कोई महत्त्व नहीं है .... राजनेता वैज्ञानिकों की बात जब नहीं मानते तो मैं ही पढ़ कर क्या तीर मार लूँगी?....यदि आपको अब भी लगता है कि हम पढ़ाई का बहुमूल्य समय गँवा रहे हैं तो आपको याद दिला दूँ कि आपने (राजनेताओं ने) इनकार और निष्क्रियता में दशकों गँवा दिए।"

"उस भविष्य के लिए क्या पढ़ाई करना जो हमसे छीना जा रहा है ... उन तथ्यों के लिए  पढ़ना जिनकी हमारे समाज में न कोई इज्जत है न अहमियत ?जब आप सच्चाई जान जाते हो तो आपकी शक्ति और हिम्मत बढ़ जाती है ,आपको समझ आता है आप कुछ कर रहे हो .... मैं बेहतरी के लिए एक स्टैंड ले रही हूँ , जो चल रहा है उसको अवरुद्ध कर रही हूँ।" , आपने आन्दोलन के सही होने से आश्वस्त ग्रेटा आत्मविश्वास भरे स्वर में कहती हैं।

ग्रेटा ने निम्नलिखित संदेश पर्चे में छपवा कर लोगों को बाँटा जिससे अपने आंदोलन को वैचारिक आधार प्रदान कर सके :
मैं यह विरोध प्रदर्शन इसलिए कर  रही हूँ क्योंकि
आप सयानों ने हमारे भविष्य को गटर में फेंक दिया है।
इस बारे में कोई कुछ नहीं कर रहा है .. मुझे यह अपना नैतिक दायित्व लगता है कि  वह  जरूर करूँ जो एक इंसान के तौर पर मैं कर सकती हूँ।

मेरा विश्वास है कि राजनेताओं को जलवायु से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता सूची में शामिल करना चाहिए - इसे एक आसन्न संकट के रूप स्वीकार कर सुलझाने की तत्काल शुरुआत करनी चाहिये।


"हमें व्यवस्था बदलनी होगी .... यह समझते हुए कि हमारे चारों और दुर्धर्ष युद्ध छिड़ा हुआ है और हमारा अस्तित्व गहरे संकट में है।", पोलैंड में आयोजित संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में ग्रेटा थुनबर्ग ने बड़े कठोर शब्दों में दुनिया भर से आये प्रतिनिधियों के सामने कहा : "आप कहते हैं कि किसी और बात से ज्यादा आपको अपने बच्चों के भविष्य से सरोकार है..... फिर भी आप उनकी आँखों के सामने ही उनका भविष्य चुरा रहे हैं।"

"आप कामचलाऊ तौर पर या थोड़े बहुत व्यवहार्य और टिकाऊ ( सस्टेनेबल) बिलकुल नहीं हो सकते - या तो आप इधर हो सकते हो या फिर उधर , बीच में झूलने का नाटक अब और नहीं चल सकता।"
"मैं चाहती हूँ कि आपके मन में पसरा  चैन उड़ जाए और उसकी जगह आकस्मिक भय और खलबली ( पैनिक ) काबिज  हो जाए ..... वैसा ही भय जैसा मैं अपने मन में हर रोज महसूस करती हूँ।" ग्रेटा स्वयं भी और उसकी माँ स्वीकार करती है कि जलवायु के मुद्दे पर  काम करने से वह बेहतर महसूस करती है।

मोटे तौर पर बढ़ते तापमान को काबू में रखने के लिए निम्नलिखित मुद्दों पर ध्यान देने का आह्वान ग्रेटा करती है :
परिवहन - पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों पर रोक लगा कर वैकल्पिक ईंधन का प्रयोग करना होगा।
अक्षय ऊर्जा - कोयला , तेल और गैस के स्थान पर बिजली के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोत अपनाने होंगे।

आवास - भवन निर्माण और रहन सहन के लिए स्वावलंबी ऊर्जा उत्पादन को अपनाना होगा।

कृषि - कार्बन उत्सृजन को सोखने के लिए सघन वृक्षारोपण ,भोजन की बर्बादी और मांसाहार पर रोक लगाना होगा।
उद्योग - सौर ऊर्जा और अक्षय ऊर्जा की अनिवार्यता।
राजनीति - कम से कम संसाधनों का उपयोग ,युद्ध पर रोक ,टिकाऊ सामाजिक जीवन शैली के लिए जन शिक्षण, पारदर्शी शासन व्यवस्था ,स्वतंत्र न्यायपालिका इत्यादि। 

देखते देखते एक इकलौती लड़की द्वारा शुरू किया गया विरोध प्रदर्शन पूरी दुनिया में फ़ैल गया - अनुमान है कि 15 मार्च 2019 को दुनिया भर के सवा सौ देशों के लगभग पंद्रह लाख किशोर ग्रेटा द्वारा शुरू किये पर्यावरण आंदोलन के समर्थन में सड़कों पर निकले।


ब्रिटेन के प्रतिष्ठित जलवायु वैज्ञानिक केविन एंडरसन का यह वक्तव्य इस पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण है : "हड़ताल और प्रदर्शन करने वाले अधिकांश बच्चे जब जन्मे भी नहीं थे वैज्ञानिकों को जलवायु परिवर्तन के बारे में भरपूर जानकारी थी। ... इतना ही नहीं उन्हें इसके नियंत्रण के उपायों के बारे में भी मालूम था। पर एक चौथाई सदी बीत जाने पर भी जिम्मेदार लोग कुछ करने में नाकाम रहे - अब यदि निर्धारित समय सीमा में यदि तापमान को दो डिग्री से आगे नहीं बढ़ने देना है तो मनुष्यता के पास बचाव के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा है।"


ब्रिटेन की प्रधानमन्त्री टेरेसा मे सरीखे राजनेताओं ने ग्रेटा द्वारा शुरू किये गए इस आंदोलन को बचकाना और तथ्यों से अनभिज्ञ भले बताया हो पर दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों ने लिखित वक्तव्य जारी कर उन मुद्दों का समर्थन किया है जो आंदोलन ने अपने विरोध प्रदर्शनों में उठाये हैं।  12अप्रैल2019 को छपी  "साइंस" पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के विभिन्न देशों के तीन हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों ने युवाओं द्वारा उठाये गए मुद्दों के समर्थन में "कन्सर्न्स ऑफ़ यंग प्रोटेस्टर्स आर जस्टिफाइड" शीर्षक से लिखित वक्तव्य पर हस्ताक्षर किये।




"यदि मानवता तत्काल कदम बढ़ा कर निर्णायक ढंग से ग्लोबल वार्मिंग को काबू में नहीं करती , जीवों  और वनस्पतियों का आसन्न महाविनाश नहीं रोकती ,भोजन की आपूर्ति का कुदरती आधार नहीं बचाती और वर्तमान तथा भविष्य की पीढ़ियों की सलामती सुनिश्चित नहीं कर पाती तो साफ़ साफ़ यह मान लेना होगा कि हमने अपने सामाजिक ,नैतिक और ज्ञानाधारित दायित्वों का निर्वहन नहीं किया.... अनेक सामाजिक ,तकनीकी और कुदरती समाधान हमारे सामने उपलब्ध हैं। युवा प्रदर्शनकारियों की  समाज को व्यवहार्य बनाने के वास्ते इन उपायों को लागू करने की माँग  बिलकुल उचित और न्यायसंगत है। सख्त ,बेवाक और अविलंब कदमों के उठाये बगैर उनका भविष्य गहरे संकट में पड़ जाएगा। उनके बड़े होकर निर्णायक भूमिका में आने तक  इंतज़ार करना मानव समाज के लिए बहुत महँगा पड़ेगा। "(वक्तव्य के उद्धरण)

इसी महीने "टाइम" पत्रिका ने ग्रेटा थुनबर्ग को दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया। इससे पहले उसे नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित किया जा चुका है। वह संयुक्त राष्ट्र संघ महासचिव ,यूरोपीय संसद प्रमुख ,विश्व बैंक प्रमुख,दावोस में वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम प्रमुख और पोप के साथ विचारों का आदान प्रदान कर चुकी है। पोप ने उसे अपना काम आगे बढ़ाते रहने की सलाह दी। बर्लिन के बिशप ने ग्रेटा की तुलना यीशु मसीह के साथ की तो प्रमुख जर्मन टीवी एंकर ने चे ग्वेवारा का अभिनव अवतार बताया।
ग्रेटा अलग अलग देशों में जाकर अलख जगाती है, भाषण देती है, राजनेताओं और वैज्ञानिकों से मिलती और विमर्श करती है पर ग्रीनहाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन करने वाली हवाई यात्रा बिलकुल नहीं करती। "मैं चाहती हूँ कि आपके मन में पसरा  चैन उड़ जाए और उसकी जगह आकस्मिक भय और खलबली ( पैनिक ) काबिज  हो जाए

 ..... वैसा ही भय जैसा मैं अपने मन में हर रोज महसूस करती हूँ।" ग्रेटा स्वयं भी और उसकी माँ स्वीकार करती है कि जलवायु के मुद्दे पर  काम करने से वह बेहतर और रोगमुक्त महसूस करती है।

उसकी गायक माँ ने बरसों पहले अपने करियर को दाँव पर लगाते हुए हवाई यात्रा से तौबा कर ली थी। ग्रेटा का दुःख यह भी है कि दुनिया बचाने के लिए जलवायु संबंधी जितनी भी नीतियाँ बनायीं जा रही हैं वे 2050 के आगे नहीं देखतीं-"तब तक तो मैं अपना आधा जीवन भी नहीं जी पाऊँगी....उसके बाद क्या होगा- मेरा, मेरे बच्चों का?"     



यादवेन्द्र


ग्रेटा थुनबर्ग स्वीडन के बेहद प्रतिष्ठित खानदान से ताल्लुक रखती हैं - वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन के चलते तापमान में वृद्धि ( ग्लोबल वार्मिंग ) का सिद्धांत प्रतिपादन करने के लिए 1903 में रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्वांते आर्हिनियस के परिवार से उसके पिता आते हैं सो उनकी बिरासत को ग्रेटा इतने पैशन के साथ बढ़ा रही हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 

इसी विषय पर पिछले वर्ष "सीन्स फ्रॉम द हार्ट" पूरे परिवार द्वारा मिल कर लिखी किताब है - ग्रेटा ,उसकी बहन बीटा ,पिता स्वांते थुनबर्ग (अभिनेता ,फिल्म निर्देशक)   और माँ मालेना एर्नमैन (प्रतिष्ठित ऑपेरा गायिका) का सामूहिक वक्तव्य - जो स्त्रियों ,अल्पसंख्यकों और विकलांगों के दमन को भी हमारी  विनाशकारी और अव्यवहार्य जीवन शैली तथा जलवायु  परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखती है।
०००

निर्बंध की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/2008.html?m=1



12 मई, 2019

साक्षात्कार

यात्राएँ हमें इस अर्थ में बड़ा करती हैं कि वे हमें
हमारे छोटे और मामूली होने का भान देती हैं।

शेखर पाठक से शशिभूषण बडोनी की बातचीत

शशिभूषण बडोनी - सर जी, आप कुछ अपने बचपन की शिक्षा-दीक्षा तथा साथ ही उच्च शिक्षा कहां से हुई के बारे में भी कुछ तथा उमा भट्ट जी से दाम्पत्य बँधन के प्रसंगों के बारे में कुछ अवगत कराने की कृपा करें।


शशिभूषण बडोनी


शेखर पाठक - मैं ग्राम पठक्यूड़ा (गंगोलीहाट), जिला पिथौरागढ़ (तब जिला अलमोड़ा) में पैदा हुआ था। कक्षा 3 या 4 में भर्ती किया गया था गंगोलीहाट के प्राईमरी स्कूल में। कक्षा 5 तथा कक्षा 6 कैलेन्सी हाई स्कूल मथुरा से किया। कक्षा 7 तथा कक्षा 8 मिडिल स्कूल दशाईथल, 9-10 श्री महाकाली हाईस्कूल गंगोलीहाट से तथा इंटर प्राइवेट जी.आई.सी., पिथौरागढ़ से किया। एक शिक्षक की हैशियत से मुझे कुछ समय मिडिल स्कूल में अध्यापन करने का मौका मिला था तो बी.ए. प्रथम साल प्राइवेट किया। तब शिक्षकों को ही प्राइवेट परीक्षा देने की सुविधा थी। बी.ए. द्वितीय साल के लिए मैं लखनऊ की एक नौकरी छोड़कर अलमोड़ा आया। फिर एम.ए. के लिए भी 1972 में इलाहाबाद और लखनऊ के चक्कर लगाकर अलमोड़ा ही आया क्योंकि अन्यत्र विश्वविद्यालय सत्र 2-3 साल तक पीछे चल रहे थे। इस तरह एम.ए. अलमोड़ा कालेज से किया। मैं कुमाऊं विश्वविद्यालय की पहली बैच का एम.ए. (इतिहास) का विद्यार्थी था।
एम.ए. करने के बाद मुझे सितम्बर 1974 में पहली नियुक्ति मिली, तब मैं शोध कार्य हेतु दिल्ली जा चुका था। शुभचिन्तकों की फटकार के बाद कि ‘शोध तो हो जायेगा पर नौकरी कहां मिलेगी ?’, वापस नैनीताल से पी.एचडी. की शुरुआत और नौकरी की प्रतीक्षा की। कैरियर अच्छा होने के कारण बताया गया कि लेक्चरर की नौकरी मिल जायेगी। दिसम्बर 1974 में मिल भी गई। 1977 में मैं विवि सेवा में आ गया। इस तरह दिसम्बर 1974 से जनवरी 2006 में वालन्टरी रिटायरमेंट लेने तक डी.एस.बी. कालेज, कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल का इतिहास विभाग मेरी कर्मस्थली रहा। 32 साल मैं वहां रहा। 1978-80 बीच में दो साल के लिए भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की फैलोशिप और 1995 से 98 तक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला की फैलोशिप में रहा। नेहरू स्मारक, तीनमूर्ति की फैलोशिप (2005-2009) का एक साल मैंने कुमांऊ वि.वि. से अवकाश लेकर किया था। शेष तीन साल वहां से अग्रिम रिटायर होकर। मैंने जो भी किया और नहीं कर पाया उसमें कुमाऊं वि.वि. का असाधारण योगदान रहा। विवि ने मुझे मुक्त भी किया और बांधे भी रखा। शायद मैं उतना नहीं कर सका, जितना करना चाहिए था विश्वविद्यालय में।

विवि सेवा के प्रारम्भिक सालों में ‘उत्तरा’ की संस्थापक-सम्पादकों में एक बनने वाली उमा भट्ट ने मुझे खोजा और मैंने उन्हें पाया। यह सौभाग्य भी अनेक अनुशासनों तथा दिशाओं में भटकने में मदद करता रहा। हमारा अलग से पारिवारिक जीवन कम रहा। वह ज्यादातर वृहत सामाजिक जीवन का हिस्सा सा था। परिवार का अलग से ख्याल करने का विचार कभी नहीं आया। उमा भट्ट का मेरे जीवन और कामों में योगदान तो कभी अपनी कथा में बताना होगा। अभी बस।

शशिभूषण बडोनी - आपने अपने जीवन में बहुत अधिक यात्राएं की हैं। 1974 से शुरु अस्कोट-आराकोट यात्रा जो हर दस साल में आयोजित होती है, तो जैसे आपके नाम का पर्याय ही बन चुकी है। इसके अलावा भी आपने बहुत सारी यात्राएँ की है। उनके बारे में कुछ प्रकाश डालें?

शेखर पाठक - दरअसल नौकरी छोड़कर लखनऊ से अलमोड़ा अध्ययन हेतु आना मेरे सौभाग्य का कारण बना। अलमोड़े में ही लिखना, बोलना, गाना, भाषण देना, सम्पादन करना और घूमना सब कुछ सीखा, पर आधा अधूरा। निखार का कभी मौका ही नहीं मिला। 1973 में पिंडारी यात्रा से लौटकर हमारी टोली कुछ गर्वीली हो गई थी। जो लेख माला लिखी ‘शक्ति’ में, उसे पढ़कर सुन्दर लाल बहुगुणा हमें ढूंढने निकले। वे 120 दिन की उत्तराखण्ड यात्रा में तो थे ही। दिसम्बर 1973 या जनवरी 1974 की बात होगी, मैं अपने गांव में न था, पर अलमोड़ा में उनकी पकड़ में आ गया। उन्होंने ही शमशेर बिष्ट और मेरी मुलाकात कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर से कराई और अस्कोट-आराकोट अभियान का विचार दिया। इस यात्रा ने हम सब यात्रियां को बदल दिया। मनुष्य और पहाड़ी मनुष्य बना दिया। इस यात्रा से लौटते समय हम गर्व से नहीं विनम्रता (और रचनातमक आक्रामकता) से भरे थे। हम चारों तथा अन्य यात्रियों का पहाड़ के मुद्दों से आजन्म का रिश्ता हो गया। हम बने कि बिगड़े वह सब इस यात्रा के कारण।
फिर यात्राआें का सिलसिला चल पड़ा। हर साल किसी न किसी इलाके, प्रान्त या देश में यात्रा करते। 50 से अधिक बड़ी पैदल यात्राएँ हम लोगों ने भारतीय हिमालय, नेपाल, भूटान, पाकिस्तान, तिब्बत आदि में की। हिमालय की अनेक यात्रायें चंडी प्रसाद भट्ट, अनूप साह, कमल जोशी, गौतम भट्टाचार्य, दिनेश बिष्ट, ललित पन्त, रधुबीर चन्द, उमा भट्ट, कर्नल जे.सी. जोशी, प्रदीप पाण्डे, डैन जैन्सन, प्रकाश उपाध्याय, नीरज पन्त, गिरिजा पाण्डे, मनमोहन चिलवाल, ओमी भट्ट, थ्रीश कपूर, चन्दन डांगी, रूपिन तथा अशोक गुरुंग  आदि के साथ कीं। 1984, 1994, 2004 तथा 2014 में अस्कोट आराकोट अभियान को बहुत सुव्यवस्थित अध्ययन यात्राओं का रूप दिया गया। जिसमें सैकड़ों ग्रामीणों, विद्यार्थियों, शिक्षकों, पत्रकारों, लेखकों, वैज्ञानिकों, समाजवैज्ञानिकों, सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने हिस्सेदारी की। प्रदेश, देश और विदेश से। 1974 में कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, शमशेर बिष्ट और मैं यात्रा में सर्वाधिक रहे। शमशेर और मैंने कुछ छूटे हिस्से 1975-76 में कवर किये। 1984 में कमल जोशी, गोविन्द पन्त राजू तथा मैं 50 दिन साथ रहे। 1994 में कमल जोशी और मैं। 2004 में कमल जोशी नहीं आ सका पर डैन जैन्सन, रूप सिंह धामी तथा नीरज पन्त पूरी यात्रा में साथ रहे।
2014 के अभियान में शुरू से अंत तक अखिल जयराम, प्रकाश उपाध्याय, भूपेन सिंह, देवेंद्र केंथोला, कमल जोशी और मैं रहे। कम से कम 20 सदस्यों ने 25 से 35 दिन तक यात्रा में हिस्सेदारी की। इस अभियान में भारत के आठ राज्यों के साथ अमेरिका और कनाडा के 260 से अधिक यात्रियोंं (ग्रामीणों, आठ विश्वविद्यालयों तथा चार संस्थानों के प्राध्यापकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों, समाज विज्ञानियों, पर्यावरणविदों, वैज्ञानिकों, लेखक-पत्रकारों, फिल्मकारों, पर्वतारोहियों तथा पूर्व यात्रियों) ने हिस्सा लिया, जिनमें 5 दर्जन से अधिक महिलायें थीं। सबसे कम उम्र का सदस्य 6 साल का बालक था तो सबसे अधिक उम्र की 83 साल की महिला। यात्रा की शुरूआत में पांगू में चंडी प्रसाद भट्ट साथ थे, तो आराकोट में पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के संयुक्त सचिव बृजमोहन सिंह राठौर और पंत पर्यावरण संस्थान के आर. के. मैखुरी उपस्थित थे। 2004 की यात्रा के अन्त में आराकोट में उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव आर.एस.टोलिया आये थे। वहां मौजूद कुंवर प्रसून, शमशेर बिष्ट और आर.एस. टोलिया आज हमारे बीच नहीं हैं।
45 दिनों में 1150 कि.मी. लम्बी, 7 जिलों के 350 से अधिक गांवों से गुजरने वाली इस यात्रा ने हमें उत्तराखण्ड की तथा अन्य यात्राआें ने हिमालय की समकालीन असलियत ही नहीं, भूगोल, इतिहास, समाज-संस्कृति, पर्यावरण और आर्थिकी आदि सबको गहराई से समझने में मदद की। एक दशक में हुये परिवर्तन को समझने की कोशिश भी हमने की। सबको अध्ययन भी खूब करना होता था ताकि किताबों में लिखे को आंखां से देख सकें और आंखिन देखी को शब्द दे सकें। हिमालयी इतिहास की मेरी दृष्टि इन यात्राओं से निर्मित हुई। दरअसल हिमालय के भूगोल की गहरी समझ इन यात्राओं से विकसित हुई, जिससे मेरे इतिहासकार को बहुत मदद मिली। हमें भूगोल और इतिहास प्रति़द्वन्द्वी बिषयों की तरह पढ़ाये जाते थे। दोनों में से एक ही को ले सकते थे। इस प्रेरणा में भूगोल से इतिहास की ओर आये आचार्य शिवप्रसाद डबराल भी मददगार बने।
इन यात्राओं से हमारे ही नहीं हिमालय के दोस्तों तथा जिम्मेदार बेटियों-बेटों की संख्या बढ़ी। हम बहुत तार्किक और विज्ञान सम्मत नजर से हिमालय को देखते हैं। इसमें कुतर्क, शार्टकट और बड़बोलेपन की सम्भावना नहीं होती है। हम लोग स्पष्टवादी होते गये और मुंहफट भी कभी-कभी जरुर हो जाते हैं। पर इतनी तरह के ठग जिस देश, समाज या दुनिया में हां, वहां आक्रामकता आपकी और आपके समाज की बरकत है। उत्तराखण्ड के सामाजिक आन्दोलनों में भी हमने इसी बरकत को देखा। फिर हमने चार दर्जन से अधिक जो बड़ी हिमालयी यात्राएँ की, उनमें पंचकेदार; हर की दून, यमुना, भागीरथी घाटी की; जौलजीबी-मिलम-मलारी-जोशीमठ की; सिन्धु-नुब्रा-श्योक, पेंगगोंग की; पूर्वात्तर भारत के सातां प्रान्तों की अनेक यात्राएँ; सिक्किम की कुछ यात्रायें; नेपाल और भूटान की अनेक यात्राएँ; तिब्बत की 5 यात्राएँ, जिनमें से तीन कैलास-मानसरोवर की थीं, अभी याद की जा सकती हैं। हां गंगोत्री-कालिन्दीखाल-बद्रीनाथ की यात्रा, जिसमें हमारे दो साथी दिवंगत हुए थे; सुदूर पश्चिमी नेपाल के हुमला अंचल में करनाली नदी के साथ हिल्सा होकर तिब्बत की यात्रा; एवरेस्ट के चारों तरफ की यात्राएँ (नामचे बाजार से गोकियो और एवरेस्ट के नेपाली आधार शिविर तक जहां से एवरेस्ट का दक्षिणी चेहरा दिखता है। मेलोरी वाले मार्ग में तिब्बत के उत्तरी आधार शिविर तक, जहां से उत्तरी चेहरा दिखता है। पश्चिमी सिक्किम में पेलिंग के उत्तर में डाफेबीर, जहां से एवरेस्ट का पूर्वी हिस्सा और शर्मीला चेहरा दिखता है तथा तिब्बत के टिंगरी और शेगर से एवरेस्ट का पश्चिमी चेहरा नजर आता है), इस्लामाबाद से मरी हिल स्टेशन और अयूबियाना या तक्षशिला या पंजा साहिब की यात्रा को याद करना भी जरुरी होगा।
लेकिन आपने तो कितनी ही और यात्राएँ याद दिला दी। मेघालय से बांग्लादेश और नागालैण्ड तथा मिजोरम से बर्मा में घुसने की। ल्हासा से टैंग्रीनूर झील तक की यात्रा, जहां पंडित किशन सिंह और नैन सिंह रावत दोनों गये थे। तिब्बत का साम्ये मठ, जहां राहुल सांकृत्यायन गये और रहे थे। या कैलाश मानस से पश्चिम में तीर्थापुरी तथा गुरुग्याम गोम्पा, जो बोन धर्मावलम्बियों का तीर्थ है और जहां गोविन्दा अनागरिक लामा लगभग 70 साल पहले आये थे, की दुर्लभ यात्रा भी भूली नहीं जाती। सिनला, उंटाधुरा, खिंगर पास, रालम पास, लीपूलेख पास, बकरिया पास, रूपिन पास, लमखागा पास, कालिंदीखाल, खरदुंगला, कुन्जम ला, डोल्मा ला, नाथू ला, टिंकर ला, पता नहीं कितने हिमालयी दर्रों को (जो 19 हजार फीट तक ऊंचे थे) पार करना हम कभी नहीं भूल पाते हैं। अब तो और भी यात्राएँ याद आ रही हैं जैसे पेरिनीज; स्विटजरलैंड, जर्मनी या इटली के आल्प्स, नार्वे के उत्तरी पहाड़, कैलिफोर्निया के रौकी पहाड़ या कीटो के आस-पास के ऐन्डीज। कभी जरुर लिखूंगा इन यात्राआें पर। अभी बस। अनेक यात्रायें संगोष्ठियों के बुलावे के बहाने कीं गईं थीं। क्योंकि विदेश यात्रा करने की हमारी आर्थिक औकात नहीं थी।

शशिभूषण बडोनी - इस तरह की यात्राएँ करने के पीछे आपका मुख्य उद्देश्य क्या रहा है? आप अपने उद्देश्य को पाने में कितना सफल रहे?

शेखर पाठक - यात्राआें के पीछे एक ही उद्देश्य होता है- प्रकृति, संस्कृति, पर्यावरण और अन्ततः मनुष्य और उसके समाज को समझना। यह सब मेरे इतिहासकार को गहराई में जाने में मदद करता था। पशुचारण, मौसमी प्रवास, खेती, कुटीर उद्योग, छोटा स्थानीय व्यापार, भाषा, गीत, खान-पान यह सब समझना। पता नहीं हम कितना सफल रहे पर इन यात्राओं ने हमें तमीज दी, हमारी सम्वेदनशीलता में इजाफा किया। यात्राओं ने हमें एक दर्शन दिया। एक बार कहते-कहते मैं कह गया था कि यात्राएँ हमें इस अर्थ में बड़ा करती हैं कि वे हमें हमारे छोटे और मामूली होने का भान देती हैं। यात्राएँ सीधा समाधान नहीं देतीं, पर समस्याओं की समझ के साथ समाधान का दिशा संकेत देती हैं। हमारे अध्ययन क्षेत्रों पर कोई विद्वान गप नहीं मार सकता, हमारे साथी उनके झूठ पकड़ सकते हैं। यात्राआें से समस्याएँ और स्थितियाँ उजागर होती हैं। समाधान तो जन आन्दोलन और जन राजनीति निकालती है। यात्राएँ राजनीति के लोगों को भी शिक्षित कर सकती है बशर्ते उनमें अपनी जनता के प्रति समर्पण हो, सिर्फ अपनी पार्टियों और सरकारों के प्रति ही नहीं।
एक पहाड़ हमारे भीतर होता है जिसे बाहर प्रत्यक्ष दिख रहा पहाड़ हरा करता है और जो पहाड़ बाहर है वह धीरे धीरे हमारी स्मृति में अटाता जाता है। आपके भीतर मौजूद पहाड़ यात्राओं की अनुपस्थिति में ठिगना होता जाता है। हां, कोई यात्रा असफल नहीं होती। वह एक नया पाठ, नई किताब, प्रभावी प्रेरणा और गहरा परामर्श होती है। यात्राएँ आपके भीतर के बच्चे और कवि को भी मिट्टी और खाद पानी देती हैं। यात्राएँ आपको झूठ को पकड़ने में मदद देती हैं पर आपको झूठ नहीं बोलने देती हैं। दरअसल होमो सेपियन्स ने अफ्रिका से जो यात्रा शुरू की थी वह अपने मामूली रूपों में आज भी चल रही है। पर यात्राओं का मूल्यांकन सिर्फ आगामी पीढ़ियां ही कर सकती हैं। यात्री क्या जो कहे?

शशिभूषण बडोनी - ‘पहाड़’ पत्रिका किसी पहचान की मोहताज नहीं। इसका हर अंक विशेषांक तो होता ही है..... बहुत भव्य, दस्तावेजी, संग्रहणीय व शोधकर्ताओं के लिए तो बहुत उत्कृष्ट होता ही है...। इसके प्रारम्भिक सफर व बाधाआें के बारे में भी ‘पहाड़’ के पाठक जानना चाहेंगे?

शेखर पाठक - हिमालय पर हिन्दी में कोई दमदार प्रकाशन न था। हमारे विश्वविद्यालयों में शुरु हुए जर्नल जैसे कुमाऊं वि.वि. के ‘उत्तराखण्ड भारती’ और गढ़वाल वि.वि. के जोहसार्ड (श्रव्भ्ै।त्क्) जल्द ही बंद हो गये। पहाड़ की योजना 1977 में मन में आई। 1983 में पहला अंक निकला। तब से 20 बड़े अंक (सबसे बड़ा 730 पेज का पिथौरागढ़-चम्पावत अंक) और 100 के करीब अन्य किताबें, अनेकों छोटी पुस्तिकाएँ, पोस्टर और नक्शे पहाड़ पोथी से सामने ला सके हैं। न चंदा, न दान और न सरकारी सहायता। सब कुछ सदस्यां के सहयोग, साहित्य की बिक्री और कुछ विज्ञापनों से। हर बार कमण्डल उठाना होता है। सभी साथी निःशुल्क अपना समय, श्रम, प्रतिभाग देते हैं। सम्पादन, लेखन, प्रूफ रीडिंग, और तो और डिस्पेच तक स्वयंसेवी तरीके से होती है। अनेक साथी अपने शहर में पहाड़ का वितरण करते हैं। कुछ साथियों पर जरूर कुछ ज्यादा भार पड़ता है। ऐसा हर रचनात्मक काम में होता है।
1983 में पहाड़ के पहले अंक के विमोचन से लेकर कुछ माह पहले आयोजित गुमानी उत्सव (मार्च 2018) तक पहाड़ के सैकड़ों आयोजन, व्याख्यान, विमोचन, फिल्म तथा स्लाइड शो, संगोष्ठियां, सम्मान समारोह, दर्जन भर रजत समारोह और उनसे जुड़े सैकड़ों व्याख्यान आदि स्थानीय जन सहयोग से होते रहे हैं। हमारे साथी अपने खर्चे से आते हैं। कभी-कभी अपने रहने की व्यवस्था भी करते हैं। स्थानीय मित्र रहने-खाने की व्यवस्था करते हैं। हम चाह कर भी हर साल पहाड़ नहीं निकाल सकते। बहुत मेहनत की दरकार रहती है। हम सभी या कहें कि ज्यादातर नौकरीपेशा रहे हैं। यहां भी अपनी जिम्मेदारी बेदाग निभानी होती है। फिर भी मोहन उप्रेती, एन.एस. थापा और के.एस. वल्दिया की आत्मकथा; मूरक्राफ्ट, चन्द्रसिंह गढ़वाली, ब्रजेन्द्र लाल शाह, नैन सिंह रावत, भानुराम सुकोटी की जीवनी जैसे महत्वपूर्ण प्रकाशन प्रस्तुत किए हैं। गुमानी, गौर्दा, चन्द्रकुंवर या गिर्दा को समग्रता से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। कितने ही सारे काम नहीं कर पाये हैं, चाहकर भी। आर्थिक तंगी बहुत रहती है। हम अपने दो मामूली धनराशि पाने वाले वालन्टीयरों का हर माह पारिश्रमिक नहीं दे पा रहे हैं। अब पहाड़ फाउन्डेशन बना रहे हैं। शायद उससे जरा स्थिरता और नियमितता आये। यह हमारे साथियों का चुपचाप अपना योगदान देकर खड़ा पहाड़ है। हमारी सामूहिक ऊर्जा ही इसका आधार है। इसलिए इसमें बरकत है, विविधता है। सृजनशीलता है और अपने पहाड़ों और उसके बाशिन्दों के प्रति सम्मान और प्यार है।
पहाड़ व्याख्यान और अध्ययन अभियान भी आयोजित करता है। हम स्पष्ट रूप से पक्ष या विपक्ष में होते हैं। हम दोनों तरफ नहीं हो सकते हैं। हम समाज निरपेक्ष काम में दिलचस्पी नहीं रखते। हमारा यह काम शोहरत पाने, चर्चित होने या कुछ कमाने (धन या नाम) के लिए नहीं है। इसलिए हम टिके हैं और बड़ा स्वर बनाने की कोशिश करते रहे हैं। पर धर्म, राजनीति, आर्थिकी और नौकरशाही के इतने ठगों को बिना सामाजिक आन्दोलनों के दबाव के पराजित करना सम्भव नहीं है। पर तैयारी तो करनी पड़ेगी। शायद हमारी तैयारी का फायदा हमसे कर्मठ अगली पीढ़ी उठा सके। कोई मेहनत कभी बेकार नहीं जाती है, ऐसा हम मानते हैं।

शशिभूषण बडोनी - पहाड़ का पाठक होने के नाते मैं यह जानता हूँ कि आप इस पत्रिका में पहाड़ के समाज, संस्कृति, पर्यावरण, साहित्य में योगदान देने वाले रचनाकारां के बारे में पर्याप्त जानकारियां तो देते ही है, ऐसे समस्त कार्यकर्ताआें व रचनाकारों, जो चाहे समकालीन हां अथवा दिवंगत, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व को पर्याप्त स्थान व सम्मान से प्रकाशित करते हैं। इधर पहाड़ के भावी अंक के बारे में भी जानना चाहूंगा।

शेखर पाठक - पहाड़ के बाबत ज्यादा बातें तो बता दी हैं। हम हिमालय और पहाड़ों के हर पक्ष का विज्ञान सम्मत रूप सामने रखना चाहते हैं।
पहाड़ 20 स्मृति अंक है। शायद यह दो खंडां में आए। यानी पहाड़ 20 तथा 21। इनमें हिमालय तथा देश की 140 से अधिक हस्तियों पर लेख हैं। इनमें बहुत से पहाड़ से सीधे जुड़े भी थे।  जो परामर्श मण्डल या सम्पादन मण्डल में थे। इन अंकों में कृष्णनाथ, रवि धवन, आर.एस. टोलिया, विद्यासागर नौटियाल, बी.डी. पाण्डेय, बी.डी. सनवाल, महाश्वेता देवी, वेरियर एल्विन, नारायण देसाई, जयन्ती पंत, चन्द्र सिंह राही, टिलमैन, चन्द्रशेखर पंत, रतन सिंह जौनसारी, छत्रपति जोशी, निकोलाई रोरिख, हरका गुरंग, मिनायेव, टाम एल्टर, उमा शंकर सतीश, छत्रपति जोशी, अगस्ट गैनसर, केशर अनुरागी, रोनाल्ड लिन्च, यश पाल, यूआर राव, बोशी सेन, पीएम भार्गव, भूपेन हजारिका, कमल जोशी, अश्विनी कोटनाला, चन्द्रशेखर लोहुमी, वीरेन डंगवाल, यशपाल, हेमचन्द्र जोशी, चारु चन्द्र पाण्डेय, कबूतरी देवी, नईमा खान, जगतपति जोशी, पुश्किन फर्त्याल, कुशक बकूला, शमशेर बिष्ट सहित लगभग 12 दर्जन प्रतिभाओं पर सामग्री दी जा रही है।
मैं तो इन अंकों के बाद रिटायर हो जाऊंगा, पर फिर नेपाल और भूटान पर अंक प्रस्तावित हैं। एक तिब्बत पर भी सोचा जा रहा है। अन्य अनेक प्रकाशन भी राह में हैं। नक्शे, पोस्टर भी।
पहाड़ की बेवसाइट (चींंतण्पद) में 8 लाख पन्ने भी दुर्लभ सामग्री हैं। जो एक मुक्त और मुफ्त ज्ञान भंडार है। उसे हमारे साथियों ने अपने श्रम, धन और समर्पण से विश्व भर के पुस्तकालयों से जमा किया है। ये काम किसी सम्पन्न प्रोजेक्ट के तहत नहीं किये गये हैं। पहाड़ की टीम के सदस्य बहुत मेहनती हैं और तरह तरह के सृजनात्मक काम करते रहते हैं। पर प्रोजैक्ट आदि में कम ही शामिल हुये हैं। इस वेबसाइट को बनाने में डैन जैन्सन, कमल कर्नाटक जैसे साथियों का गजब का योगदान है।

शशिभूषण बडोनी - पाठक जी आप मेरी नजर में एक एक्टिविस्ट लेखक रहे हैं। आपका लेखन बंद कमरो में बैठकर किया गया लेखन नहीं है। आपके लेखन में हमें इतिहास, संस्कृति, पर्यावरण और रचनात्मक साहित्य की गहरी पकड़ दिखाई देती है। आप लेखन के साथ-साथ पहाड़ जैसी गम्भीर पत्रिका का सम्पादन भी करते हैं। इन तमाम अनुशासनों के अलावा समय-समय पर दूर-दूर तक के अनेक कार्यक्रमों में भी शिरकत करने में कोताही नहीं करते। आप इस तरह अनेक मोर्चो पर कैसे संतुलन बनाने में सफल रहते हैं?

शेखर पाठक - दरअसल यात्राएँ, लेखन, सम्पादन ये सब मिलकर हमें एक्टिविस्ट बनाती है। पर फिर भी मुझे अपने को एक्टिविस्ट कहना नहीं सुहाता। हालांकि मुझे इसमें बहुत समय देना पड़ता था और इतिहास सम्बंधी काम इससे बहुत पिछड़ा। सच्चे एक्टिविस्ट तो अलग ही होते हैं। जैसे चंडी प्रसाद भट्ट, गोविन्द सिंह रावत, बी.डी.शर्मा, मेधा पाटकर, सुन्दरलाल और विमला बहुगुणा, राधा दीदी, शमशेर बिष्ट, कुंवर प्रसून, सुशीला भंडारी, बनवारीलाल शर्मा, कमला पन्त आदि आदि कितने ही नाम हैं। हमें इनसे प्रेरणा मिलती रहती थी। हमें जितना जरुरी देश-विदेश के विश्वविद्यालयो, संस्थानों या बड़े आयोजनों में जाना लगता है, उससे ज्यादा गांवां में और मामूली स्कूलों में। आपको आश्चर्य होगा कि मैं 1991 के गढ़वाल भूकम्प से लौटकर पेरिस के एक सम्मेलन में गया तो नार्वे-स्वीडन की एक यात्रा से लौटते ही नन्दा देवी राजजात में हिस्सेदारी की। इसी तरह येलो स्टोन नेशनल पार्क की यात्रा से लौटते ही हम गर्ब्याग, छांगरु और टिंकर की यात्रा में गये। इस सुन्दर और विविधता भरी दुनियां में हमारी प्राथमिकता हिमालय है। सच कहो तो यहां हमारे प्राण बसते हैं। हमारे पागलपन के पीछे इन्हीं प्राणों की हिफाजत करने का जतन छिपा है।
हर मोर्चे पर संतुलन हमारे साथियों के कारण है। उनके द्वारा रचा गया मनोविज्ञान हमें बैठने नहीं देता। सही कार्यों को सहयोग देना भी एक प्रकार से एक्टिविजम ही है और उसमें हमारे अनेक साथी अपना योगदान देते हैं।

शशिभूषण बडोनी - उत्तराखण्ड में जल-जंगल-जमीन के सरोकारों से जुड़े साहित्य और संस्कृतिकर्मियों की एक बड़ी संख्या रही है। जिन्होंने न केवल राज्य में बल्कि राष्ट्रीय परिदृश्य में भी एक पहचान बनायी है। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण आन्दोलन को दिशा देने में भी इन लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इनके पास उत्तराखण्ड राज्य के विकास के लिए एक वैकल्पिक सोच का विजन भी रहा है। पृथक राज्य बनने के बाद राज्य की दशा तय करने में इनका उचित सहयोग लिया गया? आप क्या सोचते हैं? कृपया अपने विचार देंगे?

शेखर पाठक - जन आन्दोलनां को राजनैतिक पार्टियां और नेता हथिया लेेेते हैं। हम बहुत कम कर्मठ और ईमानदार नेता अपने समाज को दे पाये हैं। इतनी प्रतिभाओं को देने वाला उत्तराखण्ड राजनैतिक नेतृत्व देने में फिसड्डी निकला है। गोविन्द बल्लभ पन्त, हेमवतीनन्दन बहुगुणा, चन्द्रसिंह गढ़वाली, जयानन्द भारती और पीसी जोशी जैसे नेताओं को देने वाला यह क्षेत्र आज राजनैतिक दयनीयता की स्थिति में है। दूसरी ओर हमारे क्षेत्रीय दल अपने को जुझारु बनाये रखने का कौशल विकसित नहीं कर पाये। दोनों राष्ट्रीय दल, जो बारी बारी से शासन कर रहे हैं, उत्तराखण्ड के बारे में गहरी दृष्टि नहीं रखते हैं। वे अपने पार्टी मुख्यालयों और अन्य प्रभाव केन्द्रां के बद-परामर्श से पीड़ित हैं। इन स्थानों से कभी भी पहाड़ों के पक्ष में परामर्श और दृष्टि नहीं मिल सकती है। हम संख्या में ज्यादा नहीं हैं, दुर्गम क्षेत्रों में रहते हैं, अतः राष्ट्रीय स्तर पर हमारा तिरष्कार ही होता रहा है। हमारी प्रतिभाओं ने नाम स्थान अपने दम पर ही कमाया है। हमारे मुकाबले हिमाचल या सिक्किम को ज्यादा अच्छा नेतृत्व मिला। सच कहो तो उत्तराखण्ड को अपने यशवन्त परमार का इंतजार है। पर हमें अब उनसे भी अधिक दृष्टिवान नेता की जरूरत है क्योंकि अब पूंजी के आगे प्रजातंत्र के घुटने टिकवाये जाने लगे हैं। संविधान का लगातार अपमान होने लगा है।
उत्तराखण्ड की बेहतरी का कोई गहरा और सर्व स्वीकार्य विजन हमारे नेताओं के पास नहीं है। सामाजिक कार्यक्रम सिमट रहे हैं। वोट की राजनीति सदा मंद और गंद दृष्टि वाली होती है। उससे जन राजनीति विकसित हो भी सकेगी, शंका हाती है। धैर्यवान उत्तराखण्डवासी 18 साल में इस राजनीति की सीमायें कुछ तो समझ ही गये होंगे। पर जन राजनीति को सम्भव बनाना ही किसी पृथ्वी, देश और हिमालय प्रेमी की दरकार है। उत्तराखण्ड के बहुत से बुजुर्गो और युवाओं और अधिकांश महिलाओं में एक उम्मीद की कौंध दिखती है। उन्होंने हथियार नहीं डाले हैं। वे ही उत्तराखण्ड को उसका असली स्वरूप प्रदान करेंगे।

शशिभूषण बडोनी - आखिर में एक निजी प्रश्न! आपकी सक्रियता का अक्सर जिक्र होता है। आपके स्वास्थ्य का राज?

शेखर पाठक - कुछ कम या ज्यादा हम सभी सक्रिय होते हैं। याद रहे कि साम्प्रदायिक, आतंकवादी, जातिवादी और कारपोरेट दुनियां के लोग भी सक्रिय होते हैं। पर बहुत मामूली, निजी और कभी कभी मानव विरोधी लक्ष्य के लिये। हम आम लोगों की समझ, तर्कशीलता, अध्ययन, बातचीत के बाद निकली सक्रियता न सिर्फ प्रकृति और मनुष्य के बल्कि जनतंत्र और मानवता के पक्ष में जाती है। हमारी सक्रियता देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर होती है। हमारी सक्रियता हमारी सामूहिकता और जीवन लक्ष्यों से भी जुड़ी है। इस तरह की सक्रियता आपको स्वस्थ भी रखती है, पर हम सतत यात्री भी बीमार होते हैं। कुंवर प्रसून, प्रताप शिखर, राजेन्द्र रावत, गिर्दा, भवानीशंकर, अश्विनी कोटनाला, कमल जोशी या अभी अभी शमशेर बिष्ट के असमय जाने के पीछे बीमारियों और अपने प्रति लापरवाह होने के दुर्गुण की भूमिका भी रही। जब हम अपने लोगों की चिन्ता में अपना कम ख्याल करते हैं तो उसकी कीमत किसी न किसी रूप में चुकानी पड़ती है। ये सभी लोग अपना जीवन अपने लोगों के लिये दे गये। इनमें से किसी के मन में यह भाव नहीं आया कि ‘हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे मैहफिल ?’
धन्यवाद, शशिभूषण बडोनी
- आपका हार्दिक धन्यवाद सर।
०००


शेखर पाठक
जन्म  ः 8 फरवरी 1950, गंगोलीहाट, पिथौरागढ़ (उत्तराखण्ड)
शिक्षा  ः एम.ए. पी.एचडी.
प्रकाशन ः हमारी कविता के आंखर (गिर्दा के साथ, 1978), उत्तराखण्ड में कुली बेगार प्रथा (1987), कुमाऊं हिमालयः टैम्प्टेसंस (1993, अनूप साह के साथ); सरफरोशी की तमन्ना : उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय संग्राम का दृश्य इतिहास (1998), एशिया की पीठ पर : पंण्डित नैन सिंह रावत-जीवन अन्वेषण तथा लेखन (उमा भट्ट के साथ,  2006), पडितों का पंडित : नैन सिंह रावत की जीवनी ( 2009), नीले बर्फीले स्वप्नलोक में : कैलास मानसरोवर यात्रा (2009), उत्तराखण्ड की भाषाएँ तथा लैंग्वेजेज आव उत्तराखण्ड (2014, 2015, दोनों पुस्तकें गणेश देवी तथा उमा भट्ट के साथ सम्पादित) तथा पहाड़ के 20 अंक (साथियों के साथ सम्पादित)। कुछ किताबें प्रकाशनाधीन।
संस्थाएं   : पहाड़ संस्था के संस्थापकों व पहाड़ प्रकाशन के सम्पादकों में एक। अनेक संस्थाओं से जुड़े हैं।
सम्मान  पद्मश्री, राहुल सांकृत्यायन सम्मान आदि।
सम्पर्क  ‘परिक्रमा’, तल्ला डांडा, तल्लीताल, नैनीताल
फोन ः 9412085755

लीलाधर जगूड़ी का साक्षात्कार नीचे लिंक पर पढ़िए

https://bizooka2009.blogspot.com/2019/01/blog-post_24.html?m=1


डॉ हूबनाथ पाण्डेय की कविताएँ 



डॉ हूबनाथ पाण्डेय

कहानी रह जाएगी

 अब सिर्फ़ बातें रह गईं
कब पता चला
इस जानलेवा बीमारी का
कौन से लक्षण थे
बोन मैरो टेस्ट
कितना पीड़ादायक होता है
केमोथेरेपी
और इस उम्र में
डॉक्टर ने ही मना कर दिया
कितनी कमज़ोर हो गई हैं
भूख ही नहीं लगती
कान तो पहले से ही खराब
सुनने की मशीन भी फेंक दी
दोनों हाथ बेज़ार
ख़ून चढ़ाने की सूइयों से
बदन पर जगह जगह
ख़ून जमने के धब्बे
काले काले
जब जब असह्य होती यातना
दोनों हाथ जोड़
 अरज करती हैं
उस भगवान से
जिसे कभी पूछा ही नहीं
शायद ईश्वर उसी का बदला ले रहा हो
अब जितना चल जाएं
गनीमत जानो
बहुत दुख सहा
जिनगी भर
अब जाती बेला भी दुर्गत
फलाने को देखो
थे महापापी
पर मौत कितनी अच्छी मिली
रात खा पीकर सोए
बिहान उठबै न किए
अब जिसका जितना लिखा भोगदंड
सहना तो पड़ेगा ही
बस बड़की बेटी आ जाए
अमरीका से
मिल ले मां से
यही भर साध रह गई है
सुबह दोपहर शाम
इन्हीं मंत्रों का पाठ
अपने अंतिम संस्कार के खर्चे की व्यवस्था
पहले ही कर चुकी मां
बड़ी बहादुरी से कर रही
इंतज़ार यमराज का
जो फंसें हैं कहीं
भयानक ट्रैफिक के बीच
उसके बाद
उतराई बाढ़ के बाद
बचे कीचकांदों की सफ़ाई
फिंकवाई ,दान
कर्मकांडों के उत्सव में
ख़त्म हो जाएगी
एक कहानी
जो पिछले अस्सी वर्षों से
एक जीती जागती
लड़ती झगड़ती
पग पग पर हारती
एक मज़बूत मन की
कमज़ोर देंह थी









दर्द भी शक्ति देता है

डर तभी तक
जब तक
दरवाज़े के उस तरफ़ है
या झांकता है
खिड़कियों की दरारों से
या छिपा रहता
मन के किसी मनहूस कोने
डर तभी तक दर्द से
डर और दर्द दोनों
होते जब आमने सामने
लड़ाते हैं पंजे
जकड़ते हैं गिरफ़्त में
खींचते,मरोड़ते,तानते
कुचलते,मसलते,दबाते
निचोड़ते थकने लगते
तब ढीली पड़ने लगती है
पकड़,जकड़,गिरफ़्त
दर्द की
विवशता की
असहायता की
कसी हुई मुट्ठियों के बीच
होती है जगह हवा के लिए
दवा हारने लगे
उठते हैं हाथ दुआ के लिए
तब अकेले नहीं होते हम
कोई तो होता है साथ
महसूसता है दर्द
जीता है साथ साथ
यातना हमारी
हम नहीं रहते असहाय
न अकेले
न विवश
न कमज़ोर
क्योंकि
दर्द भी शक्ति देता है
जिसे हम देते हैं नाम
आस्था
प्रेम
रिश्ता
भक्ति
चाहे जो
पर वह होती है शक्ति
जीवन की
जिजिविषा की
तब खुल जाते हैं
सभी द्वार
सभी खिड़कियाँ
सभी बंधन
देह मन आत्मा के
घने गाढ़े काले
धधकते तमस के बीच
होती है एक निष्कंप लौ
शक्ति की
भक्ति की
आस्था या प्रेम की
तन्नोशक्ति:प्रचोदयात्





 कबिरा पड़ा बजार में

एक जुलाहे की लाश
बीच बजार
जीते जी
जिनको गरियाया
कोसा सरापा
वे सब
रोते ज़ार ज़ार
बखानते गुन
जताते अधिकार
अपनापा प्यार
बेशुमार
कफ़न जुलाहे का
खींचते अपनी ओर
तार तार कफ़न
चार चार टुकड़ों में
अब ये नोंचेंगे मुर्दा जिस्म
गाड़ेंगे अपने मठों में
लहराएगा परचम
पूरब से पच्छम
उत्तर से दक्खिन
बचेंगे चंद फूल
चढ़ेंगे गांधी की मज़ार पर
गूंजेगी राम धुन
रावण के मुख से
जुलाहा मरता है रोज़
अर्थी पांच साल में उठती
गाजेबाजे के साथ
गिद्धों, कुत्तों, सियारों,भेड़ियों का
सजता महाभोज
महामहोच्छव
जुलाहे का
जिसकी टूट चुकी खड्डी
फुंक चुका करघा
छिन्नभिन्न तानाबाना
उलझ गए सूत
पागल रंगरेज़
उड़ेल गया रंग सारे
जुलाहे की मरी देह पर
मैंने जुलाहे कहा
आपने जम्हूरियत सुना
तो यह आपकी समस्या है




 ईश्वर

बहुत कमीना है तू
हद दर्जे का सैडिस्ट
मैं मान भी लूं
कि यह जो जीवन है
तेरा ही दिया
जिया भी तेरी रहमोकरम पे
सारी सुख सुविधाएं
रहमत हैं तेरी
सारी क़ायनात
तेरी दया पर
हम सबकी उपलब्धियां
महानताएं अच्छाइयां
सब ,सब तेरी कृपादृष्टि
पर दिया हुआ तेरा जीवन
छीनने का तरीक़ा तेरा
कितना क्रूर कितना घटिया
बीमार बूढ़े की
एड़िया रगड़ती
देह घिसती घिसटती
गिड़गिड़ाती
रिरियाती
मौत की भीख मांगती
बेज़ार बेकार हताश
सिर पटक पटक
सिसकती ज़िंदगी
कितना सुकून देती है तुझे
तेरी ख़ूबसूरत दुनिया को
रौंदनेवाले जंगली सूअर
गर्व से सिर ताने
संसार का सारा सुख
भोग रहे
बटोर रहे
छींट रहें
झींक रहे तो बस
मासूम बेबस
कमज़ोर माज़ूर
तेरी सारी ताक़त
तेरा सारा क्रोध
तेरा ताप शाप पाप
सिर्फ़ और सिर्फ़
उनके लिए
जिनकी ढीली होती जाती
मुट्ठियों के बीच से
 रेत से खिसकते जाते
ज़िंदगी के चिपचिपे कण
अब बचे ही कितने
पर तेरी दरिंदगी
तेरी वहशत
नहीं हो रही कम
ज़िंदगी दी है तो
दर्द भी दे
मंज़ूर
पर जानवर बनाकर नहीं
इज़्ज़त से
क्योंकि
इन सबने
तुझे सिर्फ़ इज़्ज़त और
मुहब्बत ही दी है
अपने चाहनेवालों पर
इस क़दर ज़ुल्म
तुझ जैसे
सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान को
शोभा नहीं देता
आगे तेरी मर्ज़ी!










।।दोहे।।


चंदन जैसा दुख सजा,
मेरे तपते भाल।
पावन हो गई आत्मा,
जीवन हुआ निहाल।।

दाता दुख बरसाव तू,
तन मन भीजे आज।
उफ़ न करेगी बावरी,
मुझपे तेरी लाज।।

प्रान तुझे जो चाहिए,
एक बार हर लेय।
मरना सुबहोशाम का,
ऐसो दंड न देय।।

तुझे पुकारे आतमा,
देह पुकारे पीर।
अपने ढोएं यातना,
आंसूं आंखें चीर।।

बीती रात कराह में,
दिन की पीर पहाड़,
जेठ तपाए सांझभर,
सपना भया असाढ़।।




 लड़कियाँ


दौड़ कर पकड़ती हैं
छूटती सी बस
कूदती हैं
चलती ट्रेन से
सौदा हाथ संभाले
मुस्कुराती हैं
काऊंटर के पीछे
गर्मजोशी से
करती हैं स्वागत
हर एक का
विशाल मॉल के
शोरूम्स में
लपक कर आती हैं
रुके सिग्नल पर
सुगंधित फूलों की
डलिया संभाले
भरभराकर निकलती हैं
लेडिज़ स्पेशल ट्रेन के
आखिरी स्टेशन पर
बचाती हैं
मछली की टोकरियाँ
उठाती हैं
फलों के बोरे
सब्जी की पोटली
हथेली भर शीशे में
निहारती चांद सा चेहरा
संवारती खुली लटें
बिखरे काजल
कॉलेज बैग
सीने पर साधे
भीड़भरी ट्रेन बस में
पूरी ताक़त ठुंसती हैं
प्लेटफॉर्म के वेंडिंग मशीन से
निस्संकोच निकालती
सैनिटरी नैपकीन
खोंसती जीन्स की
पिछली जेब में
बतियाती धारासार
इअरफोन ठूंसे कानों में
घर बाज़ार स्कूल कॉलेज
हर कहीं
देख रहीं सपने
खुली आंखों
और उन्हें सच करने
लड़ रहीं
झगड़ रहीं
मान रहीं मना रहीं
बन रहीं बना रहीं
अपने होने को
दे रही पहचान
अपनी पहचान
मुंबई की लड़कियाँ





शोकगीत

जो कलम तुम्हारे हाथ थी
साथी
वाल्मीकि के क्रोधश्लोक की
समिधा की लकड़ी थी
व्यास भास और कालिदास ने
अश्वघोष भवभूति
माघ ने
लहू पिलाकर सींचा इसको
हाल सरहपा नामदेव ने
बज्र बनाकर सौंप दिया अगली पीढ़ी को
मलिक मुहम्मद दास कबीरा
सूरा तुलसीदास फकीरा
की थाती है
भारतेंदु की प्रतिभा इसमें
महावीर का शौर्य मिला है
प्रेमचंद की मानवता है
पंत प्रसाद निराला देवी
मुक्तिबोध की व्याकुलता है
बड़ी साधना कड़ी तपस्या
जलते तपते मरुथल चलकर
यह आई है पास तुम्हारे
इसके अक्षर मधुर ऋचाओं से निकले हैं
क्षुद्र स्वार्थ के तुच्छ पाश में
मत बांधों तुम
तुम गायक हो मानवता के
राजनीति के भाट नहीं हो
सूअर जिसमें कीच पखारे
तुम दिल्ली के घाट नहीं हो
चापलूस भड़ुए दलाल
बिन रीढ़ के थलचर
रेंग रहे हों जिस महफ़िल में
वहाँ तुम्हारा ठाट नहीं है
दुर्योधन से भीख न मांगो
तुम हिटलर से सीख न मांगो
पछताओगे क्या पाओगे
अक्षरधर्मा कहलाते हो
नश्वर कुर्सी पा जाओगे
कलम बेचकर कंगालों को
अस्मत देकर चंडालों को
किस मुंह से गाओगे साथी
गीत सृजन के
याद बहुत आओगे साथी
हर पतझड़ में




शहर एक नज़्म

अजीब फ़ितरत है इस शहर की
अजीब रंगोमिजाज़ इसके
अजीब परवरदिगार इसके
दुकानोदर औ बज़ार इसके
हर इक खड़ा है सरे नुमाइश
बेख़्वाब आंखें न कोई ख़्वाहिश
सलीब अपनी उठाए कांधे
हरेक मसीहा के अपने वांदे
न रस्मोरिश्ते न कस्मेवादे
ख़ुदा ही जाने  छिपे इरादे
इधर भी इंसां उधर भी इंसां
दबी सी नफ़रत थमी सी हिंसा
सभी अकेले खड़े हुए हैं
न जाने किसपे अड़े हुए हैं
ये जिस्म सूखे बिमार जैसे
 जलाये डोली कहार जैसे
न कोई बोले न कोई चुप है
पता नहीं किस नशे में ग़ुम है
अज़ाब होनी थी ज़िंदगानी
तमाम होकर मेरी कहानी
तबाह होनी थी मेरी किस्मत
नीलाम होनी थी मेरी अस्मत
अजीब है इस शहर की फ़ितरत







     कविता

जब कुछ भी नहीं
सूझ रहा था
तब उठाई कलम
 लिखी एक कविता
झूठ के कौआरोर के बीच
पागल हाथियों के
भारीभरकम पैरों के
ठीक नीचे से
नहीं निकाल पाया
बगीचे में खेलते बच्चों को
खौलते मौसम से
बचा नहीं पाया वसंत
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
मिट्टी की नई गागर सी
दर्द से पसीजती मां की
असह्य यातना की
एक बूंद भी
न कर सका कम
तब उठाई कलम
लिखी एक कविता
कल जब नहीं रहूंगा मैं
मेरी कविता में होंगे
ताक़तवर हाथियों से
रौंदे गए बच्चों के
कत्थई पड़ चुके निशान
अधमरे सूखे फूल
और धरती की वह नमी
जहाँ पसीजती रही मां
और असहाय हताश
धुंधलाए शब्द
मेरी कविता के





कविता में मां

मां सुनाती है एक सोहर
दशरथ ने मारा एक हिरन
जिसका मांस पक रहा
कौशल्या की रसोईं
चौखट पर खड़ी हिरनी
अरज कर रही कौशल्या से
मांस खा लो आप सब
बस खाल दे दो
मेरे हिरन का
मैं टांगूंगी पेड़ पर
देख देख उसे
समझाउंगी मन को
हिरन मेरा ज़िंदा है
नकारती कौशल्या
फरमाती है
खाल से हिरन की
मढ़ाउंगी खंझड़ी
खेलेंगे मेरे लाल
जब जब बजती है खंझड़ी
दौड़ी आए हिरनी
मानो पुकारे हिरन उसका
हिरनी की तरह असहाय
बीमार मां के सपनों में
आज भी मारे जाते हैं
निरपराध हिरन
अनायास
मां की कराहों में
घायल हिरनी का दर्द
कौशल्या की ऊंची चौखट
सिर पटकता आधी रात
दशरथ के बाणों के भय से
बदहवास मां
चुपके से आती है
मेरी कविताओं में
और सो जाती
अपनी कराहें ओढ़ कर
धीमी होती जा रही
खंझड़ी की आवाज़ों के बीच
000

डॉ हूबनाथ पाण्डेय के दोहे नीचे लिंक पर पढ़िए


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यात्रा वृत्तांत



ख़ामोश तान से एक विलंबित मुलाक़ात ! 

(संदर्भ-तानसेन समारोह 24-29 दिसम्बर 2018)

श्रीकांत

ख़ामोशी आपको अतीत में ले जाती है। जहाँ केवल नीरवता बहती है। लेकिन जहाँ सुरों का रस बहता हो वहाँ जीवन रस हमेशा रहता है किसी दूसरे रूप में! रात के आठ बजे का समय और मैं ग्वालियर के क़िले पर खड़े होकर तानसेन को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। तभी अंतर्मन से एक आवाज़ आयी-"तुम यहाँ से कहाँ जाओगे?"


श्रीकांत


सवाल भौगोलिक से कहीं ज़्यादा आध्यात्मिक था।

मैं अंदर से खाली-सा महसूस कर रहा था। मैंने अपने आप को उत्तर देना चाहा लेकिन मेरी अपनी आवाज़ उस विशाल स्थल पर खोखली-सी लग रही थी। मैंने उस रात की हवा में गहरी साँस ली। मैं सोचता हुआ कुछ पल ख़ामोश रहा। अपने आसपास असहज-सा धुँधलका महसूस कर रहा था मैं!

जब पूर्वानुमान की कँपकँपी आपके शरीर में एक थिरकन पैदा करती है तब इस तरह की स्थिति में एक अजीब-सी बेचैनी होती है।

अनिश्चित-सा मैं वहाँ पल-भर खड़ा रहा और सुनने की कोशिश करने लगा। जो एकमात्र मायूस आवाज़ मुझको सुनाई दी, वह शहर के बाहर उस मक़बरे की तरफ से आती हुई ठंडी हवा की आवाज़ थी जो क़िले के बाहर बनी समय की खाई से बहकर आ रही थी। वैसे भी ऐतिहासिक चीज़ों से आती हुई आवाज़ें सरकार की उदासीनता के कारण आजकल कराह रही है।

ग्वालियर का वह क़िला जिसमें उन्होंने अपना कुछ समय व्यतीत किया था,आज वह किसी मक़बरे की भाँति ख़ामोश था। केवल शाम को हुई पूजा के समय की धूपबत्तियों की हल्की-सी सुगंध ही वहाँ जीवन का संकेत दे रही थी। तानसेन का वहाँ से जाना और फिर कभी लौटकर न आना ग्वालियर के उस क़िले के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था। एक ख़ामोश खड़ी कब्र जैसा है वह क़िला जैसे हमेशा-हमेशा के लिए, किसी चीज़ के घटित होने का इंतज़ार करता हुआ शायद अनन्तकाल तक खामोश खड़े अपने पुराने समय के लौट आने का इंतज़ार कर रहा है।

जब मैं तानसेन के मक़बरे पर पहुँचा तब मक़बरे की दहलीज़ के भीतर पैर रखते हुए लगा, बाहर की दुनिया अचानक ख़ामोश हो गयी है, तानसेन की प्रार्थना को सुनने के लिए! कोई ट्रैफिक की घरघराहट नहीं, कोई दूसरी बाहरी आवाज़ नहीं! सिर्फ़ एक निचाट ख़ामोशी जो मक़बरे के एक छोर से दूसरे छोर के बीच कुछ इस तरह गूँजती जान पड़ती थी मानों मक़बरा ख़ुद से ही फुसफुसाता हुआ बतिया रहा हो।लगा सुरों का बादशाह अब अपने गुरु मोहम्मद गौस की बगल में लेटा हुआ शायद अपनी सुरों की साधना को एक खामोश-सी प्रार्थना में तब्दील कर चुका है। उनके साथ संगत पर अब गिलहरी,नेवले, कबूतरों की फड़फड़ाहट, आसपास के पेड़, और वहाँ बहती हवा है। पीछे कहीं राग मियाँ की मल्हार की बंदिश (ताल-कहरवा) सुनाई दे रही थी-

बोले रे पपीहरा /पपीहरा नित मन तरसे, /नित मन प्यासा /नित मन प्यासा,/नित मन तरसे /बोले रे...

कुछ वृद्ध लोग भी मक़बरे के आसपास थे। और कुछ बच्चे जो शायद वहाँ लगे इमली के पेड़ की पत्तियाँ खा रहे थे। जिनके बारे में मशहूर है कि उन पत्तियों को चबाने से आवाज़ मधुर और सुरीली होती है।

सोलहवीं शताब्दी में बना यह मक़बरा कई सारे स्तंभों से मिलकर बना हैं। ये स्तंभ एक आयताकार ऊँचे चबूतरे पर बने हुए हैं।

अंदर की हवा में पुराने समय की, एक राजसी गंध थी। जिसमें कबूतरों की बीट की तीख़ी गंध, पत्थर के स्थापत्य की मिट्टी की गंध का पुट था। और मुग़लकालीन शैली में बना उनका मक़बरा आज भी उनके असाधारण होने के बावजूद उनकी इच्छा के मुताबिक़ साधारण रूप में अपने गुरु की बग़ल में खड़ा शायद उनकी सेवा में हाज़िर है।

तानसेन के मक़बरे पर कबूतरों की फड़फड़ाहट भी एक संगीतमय रस और जीवंत माहौल पैदा कर रही थी। शांति से सोये हुए तानसेन अपने होने और सोने के बीच के फ़र्क को शायद संगीत से जोड़ रहे थे। नीले रंग की चादर में लिपटी उनकी कब्र एक शांति का संदेश दे रही थी जो उन्होंने अपने रहते अकबर और बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचंद्र के बीच स्थापित करने की कोशिश की थी।

कानों में कहीं दूर से एक बहती हुई आवाज़ आ रही थी जो किसी अँधेरे कोने की गहराई से एक नूर के रूप में आती हुई महसूस हो रही थी। इमारत के उदर से आता एक गड़गड़ाता हुआ कंठ स्वर,जो अब ख़ामोश सी प्रार्थना करता हुआ ज़मीन में दफ़्न है। महसूस कर पा रहा था कि उनका गायन अब चुप्पी है, प्रेम की। लगता था जैसे उनका मर्म बोल रहा है। जो उनके कब्र से उठकर संगीत की ध्वनि के रूप में मेरी हड्डियों में आकांक्षा की अप्रत्याशित लहर भर रहा था।

ये अंतर्संबंध दिखाई भले न देते हों लेकिन वे मौजूद है, सतह के ठीक नीचे दफ़्न! चीटियाँ और पेड़-पौधे उनसे संगीत की तालीम ले रहे हैं। गिलहरियाँ और नेवले उनसे सुरों की बारीकियाँ सीखने क़ब्र के आसपास चहलकदमी कर रहे है। कबूतरों की गुटरगूँ से लेकर चमकादड़ों की फड़फड़ाहट एक संगीतमय माहौल पैदा कर रही थी।

उनकी क़ब्र के पास खड़ा मैं उनके अंतिम समय के बारे में सोच रहा था। शायद अपने अंतिम समय में वे देह और उसकी आत्मा में उस हद तक छीजते गए जब उनको लगने लगा कि वे पारदर्शी हो चुके हैं।

लग रहा था, जगत की रोशनी, वह बेशक़ीमती नूर जो आवाज़ के रूप में हमारे साथ थी, हमेशा-हमेशा के लिए बहुत दूर जा चुकी है।
रात जैसे एक धुँधलके में तब्दील हो रही थी और
मन में सच्चाई का वह क्षण लिए मैं, लौट रहा था,एक खामोश तान से एक विलंबित मुलाकात कर।
000

श्रीकांत की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़िए

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परिचय

नाम :- श्रीकांत तेलंग

जन्म :- १३ अप्रैल १९८४

शिक्षा :- बी.ई.,एम.टेक (कंप्यूटर साइंस )

सम्प्रति:- इंदौर के निज़ी इंजीनियरिंग कॉलेज में नौकरी

सम्पर्क :- २७९-ई मुखर्जी नगर देवास (म. प्र.)-४५५००१

मोबाइल :- ७०४९३९५३९६

मेलआईडी –shreekanttelang@gmail.com
साहित्य ,संगीत और फोटोग्राफी एवं यात्रा करने में रूचि।

05 मई, 2019

कभी-कभार: आठ


हार्लेम पुनर्जागरण के इतिहास का एक  महत्वपूर्ण नाम : ग्वेन्डोलिन बी. बेनेट

विपिन चौधरी

ग्वेन्डोलिन बी. बेनेट (1902-1981) एक बहुश्रुत कवि, लघु कथाकार, दृश्य कलाकार, और अमेरिकन पत्रकार थी.  उनके लेखन में  अफ्रीकी विरासत की प्रेरणा और अफ्रीकी नृत्य और संगीत के प्रभाव दिखाई देता है।  1920 के दशक के मध्य में, 'द क्राइसिस', ‘एनएएसीपी’ की पत्रिका, ‘ओपरचुनिटी’  पत्रिका और एलेन लॉक  द्वारा संपादित  'न्यू नीग्रो' में उनकी कविताएं प्रकाशित हुई.


ग्वेन्डोलिन बी बेनेट


बेनेट का एक भी कविता संग्रह  प्रकाशित नहीं हुआ मगर उनकी कविताओं में सम्माहित  नस्लीय गौरव और अफ्रीकी संस्कृति की जानकारी और अपनी रोमांटिक लेखन शैली से अपने  अश्वेत समुदाय को उत्साहित करने के कारण वह हार्लेम पुनर्जागरण आंदोलन की एक  मजबूत कड़ी मानी गयी ।

हार्लेम नवजारगण  के दौरान और उस दौर के बाद में भी विभिन्न समूहों के बीच सामुदायिक एकता को लेकर उनकी दृष्टि  और हार्लेम समुदाय को लेकर जागरुक्ता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के कारण ग्वेन्डोलिन बी. बेनेट  भावी पीढ़ी के लेखकों और कलाकारों के लिए एक प्रेरक हस्ती बनी।


रेल में एकरसता

वर्तमान के मेरे दिन और अतीत के दिवस
हैं इन बेरंग विस्तार वाले मैदानों से
कुछ घरेलू चीज़ें
घर या पेड़
या छोटी आड़ी-तिरछी से राहें
जहां कुचल दिए गए थे
सीसे के बने हुए पाँव


कस्बों या शहरों की
कीलों के बीच तना हुआ
कैनवास का नीरस फैलाव

ऐसे दिन मेरे
थोड़े आनंद या उदासी के
टीलों  के मध्य बंजर पटरियों से
00

रात का दृश्य

गर्मी के दिनों के बीच
अजीब सी है यह सर्द रात

दूर चंद्रमा की पीली रोशनी में
पकड़ा गया है पाला
और ध्वनियाँ हैं दूर की हँसी
स्फटिक आंसुओं को करती सर्द
00




श्याम रंग की एक लड़की  के लिए

मैं करती हूँ  प्रेम तुम्हें
तुम्हारे  भूरेपन के चलते
और तुम्हारे सीने के गोल अंधियारों को
तुम्हारी आवाज़ में टूटी उदासी
और उन प्रतिबिंबों को कहाँ तुम्हारी  मनमौजी पलकें करती हैं आराम

कुछ  भूली हुई  वृद्ध बेगमें
दुबकती हैं जो अपने चाल की फुर्तीली
लापरवाही की आज़ादी  में
और कभी गुलाम बना हुआ दास
सिसकता तुम्हारी चाल की लय पर

ओह, छोटी सांवली लड़की
अपने जिसने जन्म लिया दुख के बगल में
आप सभी को सम्राज्ञी सदृशता बनाये रखें,
और जाने दो तुम्हारे भरे-पूरे होंठों  को  हंसने को अपना  भाग्य
000


विपिन चौधरी


कभी-कभार की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2019/03/1875-1935.html?m=1



कहानी 
एक्वेरियम, मछलियां और आदमखोर भीड़  
 रमेश शर्मा  

रमेश शर्मा 


माल के भीतर बड़े हाल के एक कोने में रखे एक्वेरियम के भीतर रंगीन मछलियों को तैरते हुए वह बहुत देर से देख रहा था । नारंगी ,पीली, सफ़ेद और काली मछलियों के जोड़े उसकी आँखों की पुतलियों पर नाचने लगे थे । उसने सोचा कि आखिर वे हमेशा कैसे गतिशील रह सकती हैं ? इस प्रश्न ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया था । हालांकि बचपन में विज्ञान की किसी किताब में उसने पढ़ा था कि मछलियाँ कभी सोती नहीं हैं । इस बात पर कभी उसने ध्यान नहीं दिया था, न कभी उसे परखने की कोशिश  की थी । आज इतने वर्षों बाद विज्ञान की किताब में पढ़ी वह बात मछलियों ने उसे याद करा दी थी । तथ्यों को परखने का एक अवसर दिया था कि सचमुच मछलियाँ थकती नहीं हैं , इसलिए शायद वे सोती भी नहीं ।उसे यूं ही मन में एक शरारत सूझी कि अगर मछलियों के लिए बिस्तर होता तो शायद आम इंसानों की तरह वे भी बिना वजह आलस में थकने का बहाना कर सोती रहतीं । फिर एकाएक उसे लगा कि मछलियाँ आदमी से ज्यादा ईमानदार और गतिशील होती हैं , कम से कम वे आदमियों की तरह आलसी और खुदगर्ज नहीं हो सकतीं । ग्राहकों के लिए बने लाउंज में बिजली की जगमगाहट के बीच वह घंटों बैठा रहा । एक्वेरियम में मछलियों को तैरते हुए देखना उसे न जाने क्यों अच्छा लग रहा था ।








“मछलियाँ एक छोटी सी जगह में भी आपस में बिना झगड़े प्रेम से रह सकती हैं !“ उन्हें देखकर यह खयाल उसके मन में आया कि काश यह दुनियां भी एक एक्वेरियम की तरह होती और हम सब उसमें मछलियों की तरह आपस में बिना झगड़े प्रेम से रह पाते । हिंसा के निर्वासन की कल्पना मात्र ने उसे कुछ देर के लिए शुकून से भर दिया था ।

इन दिनों शहर में बारिश ने जोर पकड़ा था । शाम की बारिश के साथ सावन के महीने में सड़कों पर भीड़ कुछ अधिक ही रहने लगी थी । भगवा वस्त्रों में कांवरिये जगह-जगह सडकों को घेर देते और ट्रेफिक जाम हो जाती । आज फिर माल के बाहर डीजे की धुन सुनकर एकाएक उसके भीतर दहशत सी फ़ैल गयी । सारा शुकून जाता रहा । कुछ दिनों से डीजे की धुन उसके मन में भय पैदा करने लगी थी । इसे सुनकर ही उसे लगने लगता कि शोहदों-लफंगों की एक उग्र भीड़ अब तब आने ही वाली है ।माल के बाहर डीजे की कर्कश धुन और जय श्रीराम , हर हर महादेव के नारों की गूँज तीव्रतम हो उठी थी । उसके भीतर ज्यो-ज्यों दहशत बढ़ने लगी पिछली घटनाएँ चलचित्र की भांति आँखों के सामने आकर फिर से उसकी आसपास की दुनियां को डराने लगीं ।
ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो....  ओलोलोलोलोलो....  ओलोलोलोलोलो........... हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!

ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो..  ओलोलोलोलोलो........... हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!  जय जय श्रीराम ... जय जय श्रीराम ... !

भीड़ की आवाज अब निकट से आने लगी थी
उसकी इच्छा हुई बाहर निकल कर देखे... पर उसकी हिम्मत जवाब दे गई । भगवे रंग की ऊंची-उंची ध्वजाएं और खुली हुई तलवारों को लहराती भीड़ उसकी आँखों के सामने तैर गई ।
कुछ देर के लिए मछलियों को देखना छोड़ उसने आँखें मूंद ली और कुर्सी पर वहीं उकडूँ बैठ गया । जब आँखें खोली तो कुछ भगवाधारी लफंगे माल के अंदर आकर खड़े दिखे उसे !
“क्यों महराज आज फिर किसी मुल्ले को निपटाना है क्या?“

“हाँ क्यों नहीं, क्यों नहीं! कोई मिल जाए ससुरा कटुआ तो दबोच लेंगे उसे भी  !“ बोलते हुए वे इतने सहज लग रहे थे जैसे कुछ भी कर लेने की उन्हें छूट मिली हो कहीं से ! वे सभी हो हो कर इस तरह हंसने लगे कि पूरा हाल उनकी डरावनी हँसी से गूँजने लगा ।

“और ओ .....! “ एक ने आँख मारते हुए इशारे से कहा तो बाकियों के चेहरों पर वासनामयी मुस्कान ऐसे तैर गयी जैसे भीड़ में कोई लड़की उनकी गिरफ्त में आ गई हो !
उनकी बातें सुन उसके भीतर का डर एकाएक बढ़ गया ।

“शुक्र है मैंने टोपी नहीं पहनी है ,  न मेरी दाढ़ी लम्बी है, नहीं तो आज ...... !“ यह सोचकर ही उसकी घिघ्घी बंध गई !  पड़ोस के पल्लू खां की खून से सनी हुई लाश उसकी आँखों के सामने झूल गई जिसे ऐसे ही गौ रक्षकों की आदमखोर भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला था । उस हत्यारी भीड़ का चेहरा जब भी उसे याद आता वह दहशत से भर उठता ! आज वह घर से निकला था तो अम्मी ने कहा था - “बेटा शाम होने के पहले घर लौट आना !“  उसके इस कथन में इस शहर में पसरा यही डर समाया हुआ था । उसे याद आया कि अगर वह घर जल्दी नहीं लौटा तो अम्मी डर से नाहक परेशान हो उठेगी । इसके बावजूद डर के मारे वह सड़क पर इसलिए नहीं निकलना चाहता था कि अभी वह भगवा भीड़ आसपास ही थी  और डीजे की धुन पर बेसुध होकर नाचने लगी थी ।

ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...........
 हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!
ढम्म ढम्म ढम्म....... ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...  ओलोलोलोलोलो...........
हर हर महादेव... हर हर महादेव .........!  जय जय श्रीराम ... जय जय श्रीराम ... !







अब यह शोर थोड़ी दूर से आ रही थी । कांवरियों का जत्था आगे बढ़ गया था । फिर भी उसके भीतर की  दहशत वहीं के वहीं बर्फ सी जमी हुई महसूस हुई उसे ! एक्वेरियम में मछलियाँ अब भी उसी गति से तैर रही थीं पर थोड़ी देर पहले जिस उत्साह से उन्हें वह देख रहा था वह उत्साह अब उसके भीतर नहीं बचा था । उस उत्साह पर दहशत की एक काली परत अचानक कहीं से आकर बिछ गई थी ।

अभी थोड़ी देर पहले जिस दुकान से वह लौट कर यहाँ आया था वहां के दृश्य भी उसे थका देने के लिए पर्याप्त थे । सारे दृश्य चलचित्र की भांति आँखों के सामने एक एक कर आने लगे । जड़ी-बूटी की दुकान से लौट कर उसके पाँव दुखने लगे थे । अक्सर ऐसा होता है ,जहां कोई जाना भी न चाहे वहां भी कभी-कभार उसे जाना ही पड़ जाता है । उसके साथ भी आज यही हुआ था । आज वह पत्नी की एक दवाई बनाने के सिलसिले में शहर के एक मात्र जड़ी-बूटी की दुकान पर जड़ी-बूटी लेने आया था । जब वह वहां पंहुचा तो शाम के यही कोई साढ़े चार पौने पांच बज रहे थे । एक मरियल सा नौकर कोने में जड़ी-बूटियों का ढेर लगाए उन्हें साफ़ करता हुआ दिख गया था । सेठ जिसके चेहरे पर कर्कशता बह रही थी और जो दिखने में गोरा और टकला था, अपने चेंबर के सामने रखी गद्देदार कुर्सी पर विराजमान था । उसके माथे पर गेरूवा सिंदूर का एक लंबा सा टीका डग से दिख रहा था । टीवी जिसका स्क्रीन सेठ की तरफ था और ग्राहक  चाहकर भी जिसे देख नहीं सकता था, उस वक्त उसका वॉल्यूम बहुत तेज था ।  किसी मीडिया चेनल पर मोब लिंचिंग को लेकर कोई राजनीतिक बहस चल रही थी  । चेनल का एंकर गला फाड़े जा रहा था जिसे सुनकर उसके कान अचानक दुखने लगे थे ।

“गौ हत्या महापाप है, गौ हत्या महापाप है ! भीड़ ने जो कुछ किया गायों को बचाने के लिए किया !“-एक पार्टी का प्रवक्ता गला फाड़कर गौ रक्षकों के समर्थन में जब तर्क दे रहा था तो सेठ ने टीवी का वॉल्यूम थोड़ा और तेज कर दिया । उसका कर्कश चेहरा अचानक खिल उठा था । कुछ देर के लिए उसकी नजरें टीवी के पर्दे पर ठहर सी गयीं थीं और वह भीतर से मुस्करा उठा था । सेठ की यह मुस्कराहट भी उसे उसी आदमखोर भीड़ का हिस्सा लगी ।

सेठ के सामने अखबार के पन्ने के एक चैंथाई टुकड़े पर दो समोसे रखे हुए दिख रहे थे जो शायद अभी-अभी अगल-बगल के किसी ठेले से मंगाए गए थे । वह जैसे ही पहुंचा, उसके हाथ से सेठ ने पर्ची लपक ली मानों उसे उसकी पर्ची का ही इन्तजार था ।  “चार सौ छप्पन रूपये !“-पर्ची देख हिसाब-किताब लगाकर सेठ ने पहले सामानों की कीमत उसे बता दी । सामान देने के पहले ही कीमत बताना थोड़ा उसे जंचा नहीं , फिर वह सोचने लगा शायद कुछ लोगों के पास पैसे कम पड़ गए हों कभी, इसलिए सेठ ग्राहकों को सामान निकालने से पहले ही सचेत कर रहा हो कि पैसे हैं अगर तो रूको अन्यथा चलते बनो । उसने जैसे ही हामी भरी सेठ ने मरियल नौकर को आवाज दी -“ अरे सुन बे ! ये ले पर्ची और फ़टाफ़ट सामान निकाल !“

नौकर सचमुच भूखा और थका हुआ लग रहा था । वह धीरे-धीरे सामान निकालने लगा । इस बीच सेठ समोसे खाने लगा । समोसे खत्म हुए तो फिर उसने सिगरेट सुलगा ली । समोसे खाने के बाद सेठ को सिगरेट पीता देख उसे थोड़ा अटपटा लगा ।

“ हरामखोर, नालायक तेरे को हर चीज को समझाना पड़ता है साले !“ -सिगरेट के कश खींचता हुआ सेठ ने सामान निकालते नौकर पर गालियों की झड़ी लगा दी ! नौकर बिलकुल चुप था , भावशून्य ! उसे लगा जैसे रोज गालियाँ सुन-सुनकर इन बातों का वह आदी हो चुका है । आदी न भी हुआ हो तो आखिर वह कर भी क्या सकता है । शायद इसलिए सेठ की बातों का उस पर कुछ असर होता हुआ नहीं दिख रहा था और एक तरह से यही उसका मूक प्रतिकार था । किसी तरह उसने धीरे-धीरे सारा सामान निकाल कर सेठ के सामने रख दिया जिसे सेठ एक पन्नी में भरकर स्टेपल करने लगा । सामान के पैसे उसने चुकाए । टीवी पर चल रही बेतुकी बहस अब भी जारी थी । बहस में सेठ को इतनी दिलचस्पी थी कि उसने उसके  वॉल्यूम को अब थोड़ा और तेज कर दिया था । उसने अनुमान लगाया कि यह सेठ बहरा तो है ही , साथ ही साथ एक हिंसक विचारधारा को संचालित करने वालों का पैरोकार भी ! यह जानकर उसे थोड़ी कोफ़्त हुई, पर यहाँ से निकल भागने के सिवा वह कर भी क्या सकता था आखिर !

रंगीन मछलियों की उछल कूद देखते हुए वह इस माल के भीतर काफी वक्त गुजार चुका था । अपने  जीवन के समय का बड़ा हिस्सा ऐसी ही शुकून भरी जगहों में अब तक उसने बिताने की कोशिश करी थी । जहाँ कहीं उसे शुकून मिलता उसका मन वहीं बैठने को करता । धीरे-धीरे वह महसूसने लगा था कि ऎसी जगहें दुनियां में लगातार सिकुड़ती चली जा रही हैं । यह सिकुड़न इतना तीव्रतम था कि इन जगहों के अस्तित्व को लेकर ही अब उसके मन में शंकाएं पैदा होने लगीं थीं ।



“कभी श्मशान में रात बिताकर देख मेरे संग, कितना शुकून मिलेगा!“ उस माल के भीतर से निकलते निकलते उसे उसके एक दोस्त की बात याद हो आई जो डोम था और एक श्मशान में लाशों को जलाने की नौकरी किया करता था ।

“तुझे डर नहीं लगता लाशों से ?“ उसने उससे पूछा था
“ मर चुके लोग भी भला क्या नुकसान पहुंचाते हैं ? अब तो ज़िंदा लोगों से अधिक डर लगता है मुझे !“ बहुत सीरियसली जवाब दिया था उसने  |

कब्रिस्तान ,श्मशान जैसी जगहों पर जाने में उसे हमेशा डर लगता । बचपन से वह सुनते आ रहा था कि वहां भूत-पिशाच, जिन्न रहते हैं जो जिन्दा आदमी को डराते हैं और फिर आदमी डर से मर जाता है । उसे अब भी उसके दोस्त की बातें बेतुकी लगती रहीं थीं । उसे लगता था कि दुनियां में शुकून भरी जगहें कभी खत्म नहीं होंगी । पर अब धीरे धीरे उसे महसूस होने लगा था कि मोब लिंचिंग और हिंसा की खबरों के साथ उसके दोस्त की बातें अपनी अर्थवत्ता ग्रहण करने लगी हैं । सत्ता की जमीन पर खड़े लोग अब इतने स्वार्थी और निष्ठुर हो चले हैं कि इस धरती की सारी जगहों को ही उन्होंने नरक बनाना शुरू कर दिया है । भूत-पिशाच और जिन्नों की ज़िंदा आदमखोर टोली जगह-जगह धरती पर घूम-घूम कर लोगों का खून पी रही है । घर लौटते हुए डर और दहशत के बीच मछलियाँ अब भी उसे याद आती रहीं ।

रात हो चुकी थी । घर लौटा तो वहां भी उसे शुकून नहीं मिला ।
“अरे अब तक तू कहाँ रह गया था“ -अम्मी बुरी तरह डरी सहमी हुई मिली उसे ।
डर के मारे घर के एक कोने में पड़े-पड़े वह किसी निर्जीव वस्तु में अचानक तब्दील होने लगा । जगहों के सिकुड़ने की इस यात्रा में श्मशान अब उसे सबसे शुकून भरी जगह लगने लगी ।

“श्मशान इसलिए सुरक्षित जगह है क्योंकि बिना वजह वहां कोई जाना ही नहीं चाहता । वहां कोई आदमखोर भीड़ जमा नहीं होती कभी, मुर्दों से क्या काम, उन्हें तो ज़िंदा लोगों का ताजा खून पीने में मजा आता है । “ दोस्त की यह बात फिर उसे याद हो आयी
उसके भीतर यह इच्छा जन्म लेने लगी कि दोस्त के आमंत्रण पर किसी दिन वह वहां जाए और फिर कभी न लौटे !

“पर क्या यह संभव है? लौटने की इच्छा तो उसकी नियति है ! उसके पीछे उसका घर है ,घर में अम्मी है , बेटी है , आखिर कौन संभालेगा उसके बाद उन्हें ? पर किसी दिन इस भीड़ के हत्थे सचमुच चढ़ गया वह तो ? तब भी तो यही हालात पैदा होंगे ! घर रेत की तरह फिसल जाएगा उसके हाथों से  !“ सारी रात इसी द्वन्द के समुद्र में वह डूबता-उतरता रहा ! आसमान में बिजली की कड़कड़ाहटों के बीच सावन की बारिश थोड़ी और तेज हो गई थी । बिजली चली जाने से अन्धेरा डरावना लग रहा था । उस रात उसकी आँखों से नींद दूर और दूर होती चली गई थी  !
उसे लगा एक भीड़ निरंतर उसका पीछा कर रही है जिसके हाथों एक दिन वह मारा जाएगा ।
 फिर बेटी का चेहरा अचानक उसकी आंखों के सामने आकर तैरने लगा।
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रमेश शर्मा की एक कहानी और नीचे लिंक पर पढ़िए

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