प्रवेश सोनी की कविताएँ
कविताएँ
एक
सहमति नहीं होती
चुप्पी
डर तो कदापि नहीं
हवा की चुप समझते हो ना
झंझावत होकर बरसती है
दीमक बन जाती है चुप्पी
तख़्ते-ताकत प्रिय भोज है इसका
दो ..
गढ़ी गई सौंदर्य का प्रतिमान
लावण्यवती
नर्तकियां
गणिकाएं
गायिकाएं
अप्सराएं कहलाई
सिर्फ देह का अवदान रही स्त्रियां।
तीन
बिन सोचे
जोड़ती रही
तुम्हारी साँसे
अपनी साँसों में
और घटाती रही
अपने दिनों की
काली परछाइयां
रात की स्याही ने
लिखी थी
चमकती कविताएं
और सपनों ने
चुन लिए थे
बारह झरोखों के महल
यह भी जोड़ा कि
तुमसे ही तय होंगे
आगे के रास्ते
पूरे विश्वास के साथ
कदमों ने अंगीकार किया उन्हें
इन सब में यह
भूल गई ...
कि
दुनियां में
पुरुष और स्त्री
दो इकाइयां है
जो कभी सम नही हो सकती
तुम्हारा नफ़ा जीत था
और मेरा .....!!!
चार
जहर घुली हवा के कतरे
मशीन होते आदमी को
आदमी बने रहने की रियायत देते
कि ,
बचे रहो थोड़े से कैसे भी
धरती की तहें कुतर रही प्लास्टिक पन्नियां
कंकरीट के जंगल
हराने को आतुर ,हरे अरण्य को
क्षत-विक्षत अंग उसके सारे
गोल चक्के
अट्टासते राक्षसी स्याह हँसी
अंतरजाल की अदृश्य किरणें
उलझा लेती हवा के पर
सलेटी खुरदरी उदासी लिए रहती हवा
पेड़ो के उतुंग पर
प्रदूषण ,प्रदूषण की ध्वनि है
चिंतामग्न प्रकृति विद्द
वातानुकूलित कक्ष में
गोल टेबल पर करते हुए गणना
तर करते गला
बॉटल भरे पानी से
एक हरा पत्ता
मौत के आखिरी पल में विहँसता है
अपनी पूंछ लम्बी करता धूमकेतु
पृथ्वी को छूकर गुजरने वाला है ......
पाँच
दौड़ता महानगर
गोल चक्को पर दौड़ते
समय को पकड़ने की नाकाम कोशिश
करते इंसानी बुत
चौराहों ,पार्को और इतिहास बुदबुदाती इमारतों पर
दरबान से खड़े महामानवी बुत
फ़लक छूती इमारतों में
इजाज़त लेकर आती रोशनी
रोशनदानों को पैबस्त किया होता मोटे शीशों से
सूरज समेट लेता अपनी सफ़ेद उजली किरणें
स्मॉगी भूत से डर कर
बुतों की भरमार चारों तरफ
पूंजीवाद के बंधुआ मजदूर
निकलते अलसुबह
सूखी ब्रेड चबाते ,शोल्डर बेग लटकाए
अपने अभिन्न अंग मोबाइल से बतियाते
ऑटो में लटकते ,बसों पर झपटते
मेट्रो की भीड़ में अपने बदन को ठुसते
जाना होता मीलों दूर उन्हें मजदूरी पर
मोहल्ला गुम हो चुका
सोसाइटी के डिब्बों से फ्लैटों में
छत रहित आधी दीवारें
सूनी बैठी रहती दिन भर
देर रात आते थके कदम और
पसर जाते बिन झाड़े बिस्तर पर
बेखबर अपने सामने,दाये -बाये ,ऊपर -नीचे के
फ्लैट नम्बर से
संवेदनाये चली जाती अवलम्बित अवकाश पर
उदासीन महानगर को देख
मिथ्या अपराध बोध से भरा ,उल्टे पाँव लौट जाता
छोटा शहर
थोड़ा सा इंसान खुद में बचा कर ।
छः
उदास ,अकेले दिन
उगाते है
असम्भव कामनाओं के स्वप्न
यह जानते हुए भी
कि अंधेरे कुँए सा होता है एकांत
कहाँ तक उतरना है
अनुपस्थित रिश्तों की नेज़ पकड़ के
पहुँचना कहाँ ?
पता नही ...
नींव में भरे जाते अनुज्ञा पत्र
पिंजरा आकर्षक रहे ,
मुक्ति सुंदर शब्द है
लेकिन
लिखना सरल नही
गान घुट जाता कंठ कूप में ,
तब...
रिश्तों को लिखे गए
त्यागपत्र को
दीमके बना लेती अपना भोजन |
बहुत बोलती है औरतें
बहुत बोलती है औरतें ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है ,
बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके
कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह में समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत को भेद नहीं पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहने में असमर्थ रहती है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां ,बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को
जो कब उम्र को बुढ़ा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते ,
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां ,बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
आत्मा
"आग में नही जल सकती
पानी मे नही भीग सकती
शस्त्र से नही होती छिन्न भिन्न
और
हवा उसे सूखा भी नही सकती
"आत्मा "
यह देह आत्मा के वस्त्र है"
यही कहा था न कृष्ण तुमनें
तुम्हारें शब्द गूंजे थे
इस धरा से ...
समस्त ब्रह्माण्ड में
अबोध से लेकर वयस्क स्त्री देहें
लीर लीर
कर दी जाती है ,
अस्मिता तार तार
भग्नावस्था में
भटकती है लाश बन
आत्मा ,
बची रहती है क्या तब उन देह रूपी वस्त्रों में ?
या भीगकर खारे आँसुओं के समन्दर में डूब जाती है?
या जल जाती है ह्रदय की उस आग में
जो सुलगती है प्रतिपल
स्त्री देह होने के पश्चाताप में ?
शब्द बाणों के कचोट से घायल भी होती तो है
एक मात्र साक्ष्य होती है हवा
उन विपन्न देहों की
उसके मुकर जाने पर
रसरिक्त होकर सूख
जाती है आत्मा ....…!!
हे देव ,
क्यों अर्थहीन
हो गए शब्द तुम्हारें ?
या यूं कहूँ
वसनरहित वाक्य ही बोले तुमने भी
एक देव होकर ...!!!
बताओ राम
सच सच बताओ राम
क्यों तैरे थे पत्थर
तुम्हारे नाम के
श्रद्धा थी या मर्यादा का सम्मान था ,
या प्रिया की विरहाग्नि ने
पिघला दिया
उनका पत्थरपन ,
हल्के हो तैर गए
समंदर की छाती पर,
हरण हो रही आज भी सीतायें
बिक रही है मंडियों में
निर्जीव बन
नुचे पंख छितरा देती
बेदम हवा यहाँ से वहा
कोई पुल नही उन तक ..
बोलो राम ,
क्यों जरुरी नही समझते अब तुम
सीताओं को बचाना ???
जबकि पुकारती है वो तुम्हें
विदीर्ण हृदय में पीड़ा के आर्तनाद से
तुम चुप हो
क्यों ?
शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!!
एक दिन
धैर्य चुक जाता है
एक दिन
नदियों का ,
उफन पड़ती है
तोड़ कर तट बंध
धरा उगलती है लावा
भीतर की उथल पुथल को
जब थामते हुयें थक जाती है ।
बदल जाती है
हां ,ना में
असह्य हो जाता है
एक दिन
सर झुका कर "जी हां "कहना
नीलकंठ कर उठते ताण्डव
एक दिन
जब जहर उगलने लगते है
सुर -असुर के भेद
एक दिन वो होता ही है
जिसे चीन्हता नहीं कोई
पर होने की वजह
बनता रहता है धीरे धीरे ।
लिखी जा रही कविताएं
शब्दकोष में
उखड़ रहे पन्नें
शब्दों के उग आये पर
उड़ रहे वो अनन्त में ..
क्योंकि लिखी जा रही है कविताएं
स्त्री लिख रही है कविताएं
कविता का ककहरा
सीखा उसने
पुरुष द्वारा बनाई चौहद्दी की कैद उम्र में
रेखाओं ,वृतों में आवृत रही
बनी रही सीता
अग्नि परीक्षाओं के बावजूद
मिला त्याग का त्रास
बस वही से लिखी स्त्री ने कविताएं ।
लिख रही है माँ कविताएं
अपनी सन्तानो की बोली में
पहचान रही खुद को
या खो रही माँ होने का पद
रात -रात की निद्रा का त्याग
सहर्ष स्वीकार लिया नमी वाला बिछौना अपने हिस्से में
उफनते दूध में उफ़न आती है स्मृतियां
दूध के कर्ज का नही देती हवाला
माँ अकेली आँसुओ की स्याही से लिख रही है कविताएँ ।
पत्नी लिख रही है कविताएं
क्षण-क्षण ह्रास होते जीवन में
जीवित क्षण तलाशती
सप्तपदी,सात वचन,सात जनम
जन्मों -जन्मों के पुण्य
बस एक पद साथ चलने की ललक में
समर्पित जीवन पर्यन्त....
रिश्तों की नक्काशियों से स्वयं को तराशती
पत्नी लिख रही है कविताएं।
प्रेयसी लिख रही है कविताएं
जाते हुए प्रेयस की राह में
उड़ी मिटटी से चुंधियाई आँखों में नमी भर
कर रही है अन्तःकरण में प्रेम की व्याख्या
प्रेयसी पढ़ रही है गीता
शरीर और शरीरी के भेद को समझ
प्रेमग्रंथो का मानक मान रही है
"प्रेम शरीर से था तो शरीरी क्यों व्याकुल हुआ"
नहीं -नहीं प्रेयसी के लिए नहीं है गीता
राधा और मीरा ने नहीं पढ़ी गीता
बंशी और इकतारे को लेकर
प्रेयसिया लिख रही कविताएँ,
प्रेयसिया गा रही है कविताएं।
माँ
बड़े घर से आई थी माँ
नौकर झलते थे पंखा
ऐसा ही सुना था ...
वही किसी पाठशाला में
पढ़े होंगे क ख ग
कितने साल रही होगी वहाँ माँ..!
दादी से कहते सुना कि
11 बरस की थी तेरी माँ ,
और 18 के थे पिता ।
जब होश सम्भाला था मैने
सुघड़ अल्हड़ सी थी ,
पर स्वभाव में ठहरी शांत झील थी माँ
माँ को नहीं देखा मैने कभी सोते हुए
मुँह अँधेरे से रात अँधेरे तक
करती ही रहती थी निर्विध्न कोई न कोई काम
पिसती थी चक्की
लाती थी कुए से भर भर पानी
फूंकती थी धुएं वाला चूल्हा
और लालटेन की ढ़िबरी में
काड़ती ओढ़नी में फूलों का कशीदा ।
कहाँ,कैसे सीखा होगा यह सब
11 साल की माँ ने ।
हरगिज अपनी माँ के यहाँ तो नहीं सीख पाई होगी
हथेली के रिसते छालों पर
घी हल्दी भरके सिसकते हुए पिसी होगी चक्की
खींची होगी कुएँ से रस्सी वाली भरी बाल्टी
दादी -ताई की प्रहरी राग में दब गई होगी सिसकिया
क्या माँ की माँ ने सहलाये होंगे माँ के हाथ के छाले ?
नहीं शायद ....!
नानी माँ भी तो ऐसे ही कर्मठ स्त्री बनी होगी
तभी माँ को भी छोड़ दिया था स्त्री की कर्मठता सीखने
कर्मभूमि मैं ....
आज भी माँ उठती है मुह अँधेरे
उम्र के आठ दशक कर्म से विमुखता नहीं सिखा पाये ।
दोहरी कमर और बुझती आँखों की रोशनी से
देती है उगते सूरज को अर्ध्य
बाँचती है गीता के श्लोक।
उम्र की तमाम निधियों से
मैं चुराती हूँ माँ के वो दिन ...
जब पढ़े थे उसने क ख ग
जिनसे पढ़ती है वो आज
मोटा चश्मा लगा कर सुबह का अखबार
और जब बेटे बहुओं के साथ करती है
आज के राजनितिक माहौल पर वैचारिक टिप्पणी ...
विवश हो जाती हूँ सोचने पर
कितने सशक्त रहें होंगे माँ के पढ़े
वर्णमाला के चन्द अक्षर
अनुभव और समझ की कर्मभूमि पर
PHDया उससे भी बड़े मानद बन गए थे ।
मेरी नन्ही आँखे वर लेती है माँ के अनुभव
और बड़ी हो जाती है अपने संघर्षो के साथ
हर आँख के सपनोँ की अलग होती है जमीन
और संघर्षो की यात्रा भी अलग ।
माँ रख देती है बेटी का हाथ होले से थाम कर
अपने अपने संघर्षो से जीतने का हौसला
आखिर माँ ही तो जानती है
जीवन संघर्षो के व्याकरण का सम्पूर्ण शास्त्रार्थ ।
तुम कहतें हो
तुम कहते हो .....
परे रहो ,
निषिद्ध है तुम्हारा यहाँ आना
अछूत हो तुम,
अवशिष्ट स्राव ,मान्य नही
क्यों ,आखिर क्यों ????
सुनो नियंताओं ,..
सुन सको तो सुनो
जिन्हें स्थापित किया तुमने
परम शौर्य,पुरुषार्थ और ब्रह्मचर्य का देव
वो भी.... और तुम भी ..
स्त्री से ही हुये हो निर्मित ,
तुम्हारे शरीर की मास -मज्जा और शिराओं का रक्त कैसे पवित्र हो सकता है
जो इसी तिरस्कृत किये गए रक्त का रूपांतरण है
जिसमें शामिल है
नौ माह के दुःख का सच
तुम जानते हो जिसे ,
पर मानते नही आडम्बर के आवरण में ।
उजले वस्त्र नही छिपा सकते
मन के गन्दे ftविचार
रजस्वाला द्रोपती को छूना
क्यों अवर्जित रहा तुम्हारे लिए ?
सुनो,
हमारी आस्था ने ही बाँधे है
तुम्हारे लिए बरगद पर रक्षा सूत्र ,
और निर्जल श्रद्धा ने ही
सींची है तुम्हारी जीवन रेखा ।
सोचो...
जिस दिन भर लेगी
अपनी सोच में ईश्वरों को नकारने का साहस ,
महिमामंडित आस्था की मूरतें
हो जायेंगी खंडित ,
और श्रद्धा खोल लेगी अपने नेत्र ,
ढह जाएंगे तुम्हारें दर्प के मठ ।
फिर किससे कहोगे
क्या -क्या कहोगे
अवशेष तलाशते तुम
उसी अवशिष्ट से ,
लोगे फिर एक बार नया जन्म ।।
प्रवेश सोनी
कवि,कथाकार ,चित्रकार
कोटा राजस्थान
email: praveshsoni.soni@gmail.com
प्रवेश सोनी |
कविताएँ
एक
सहमति नहीं होती
चुप्पी
डर तो कदापि नहीं
हवा की चुप समझते हो ना
झंझावत होकर बरसती है
दीमक बन जाती है चुप्पी
तख़्ते-ताकत प्रिय भोज है इसका
दो ..
गढ़ी गई सौंदर्य का प्रतिमान
लावण्यवती
नर्तकियां
गणिकाएं
गायिकाएं
अप्सराएं कहलाई
सिर्फ देह का अवदान रही स्त्रियां।
तीन
बिन सोचे
जोड़ती रही
तुम्हारी साँसे
अपनी साँसों में
और घटाती रही
अपने दिनों की
काली परछाइयां
रात की स्याही ने
लिखी थी
चमकती कविताएं
और सपनों ने
चुन लिए थे
बारह झरोखों के महल
यह भी जोड़ा कि
तुमसे ही तय होंगे
आगे के रास्ते
पूरे विश्वास के साथ
कदमों ने अंगीकार किया उन्हें
इन सब में यह
भूल गई ...
कि
दुनियां में
पुरुष और स्त्री
दो इकाइयां है
जो कभी सम नही हो सकती
तुम्हारा नफ़ा जीत था
और मेरा .....!!!
प्रवेश सोनी |
चार
जहर घुली हवा के कतरे
मशीन होते आदमी को
आदमी बने रहने की रियायत देते
कि ,
बचे रहो थोड़े से कैसे भी
धरती की तहें कुतर रही प्लास्टिक पन्नियां
कंकरीट के जंगल
हराने को आतुर ,हरे अरण्य को
क्षत-विक्षत अंग उसके सारे
गोल चक्के
अट्टासते राक्षसी स्याह हँसी
अंतरजाल की अदृश्य किरणें
उलझा लेती हवा के पर
सलेटी खुरदरी उदासी लिए रहती हवा
पेड़ो के उतुंग पर
प्रदूषण ,प्रदूषण की ध्वनि है
चिंतामग्न प्रकृति विद्द
वातानुकूलित कक्ष में
गोल टेबल पर करते हुए गणना
तर करते गला
बॉटल भरे पानी से
एक हरा पत्ता
मौत के आखिरी पल में विहँसता है
अपनी पूंछ लम्बी करता धूमकेतु
पृथ्वी को छूकर गुजरने वाला है ......
पाँच
दौड़ता महानगर
गोल चक्को पर दौड़ते
समय को पकड़ने की नाकाम कोशिश
करते इंसानी बुत
चौराहों ,पार्को और इतिहास बुदबुदाती इमारतों पर
दरबान से खड़े महामानवी बुत
फ़लक छूती इमारतों में
इजाज़त लेकर आती रोशनी
रोशनदानों को पैबस्त किया होता मोटे शीशों से
सूरज समेट लेता अपनी सफ़ेद उजली किरणें
स्मॉगी भूत से डर कर
बुतों की भरमार चारों तरफ
पूंजीवाद के बंधुआ मजदूर
निकलते अलसुबह
सूखी ब्रेड चबाते ,शोल्डर बेग लटकाए
अपने अभिन्न अंग मोबाइल से बतियाते
ऑटो में लटकते ,बसों पर झपटते
मेट्रो की भीड़ में अपने बदन को ठुसते
जाना होता मीलों दूर उन्हें मजदूरी पर
मोहल्ला गुम हो चुका
सोसाइटी के डिब्बों से फ्लैटों में
छत रहित आधी दीवारें
सूनी बैठी रहती दिन भर
देर रात आते थके कदम और
पसर जाते बिन झाड़े बिस्तर पर
बेखबर अपने सामने,दाये -बाये ,ऊपर -नीचे के
फ्लैट नम्बर से
संवेदनाये चली जाती अवलम्बित अवकाश पर
उदासीन महानगर को देख
मिथ्या अपराध बोध से भरा ,उल्टे पाँव लौट जाता
छोटा शहर
थोड़ा सा इंसान खुद में बचा कर ।
प्रवेश सोनी |
छः
उदास ,अकेले दिन
उगाते है
असम्भव कामनाओं के स्वप्न
यह जानते हुए भी
कि अंधेरे कुँए सा होता है एकांत
कहाँ तक उतरना है
अनुपस्थित रिश्तों की नेज़ पकड़ के
पहुँचना कहाँ ?
पता नही ...
नींव में भरे जाते अनुज्ञा पत्र
पिंजरा आकर्षक रहे ,
मुक्ति सुंदर शब्द है
लेकिन
लिखना सरल नही
गान घुट जाता कंठ कूप में ,
तब...
रिश्तों को लिखे गए
त्यागपत्र को
दीमके बना लेती अपना भोजन |
बहुत बोलती है औरतें
बहुत बोलती है औरतें ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है ,
बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके
कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह में समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत को भेद नहीं पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहने में असमर्थ रहती है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां ,बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को
जो कब उम्र को बुढ़ा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते ,
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां ,बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
प्रवेश सोनी |
आत्मा
"आग में नही जल सकती
पानी मे नही भीग सकती
शस्त्र से नही होती छिन्न भिन्न
और
हवा उसे सूखा भी नही सकती
"आत्मा "
यह देह आत्मा के वस्त्र है"
यही कहा था न कृष्ण तुमनें
तुम्हारें शब्द गूंजे थे
इस धरा से ...
समस्त ब्रह्माण्ड में
अबोध से लेकर वयस्क स्त्री देहें
लीर लीर
कर दी जाती है ,
अस्मिता तार तार
भग्नावस्था में
भटकती है लाश बन
आत्मा ,
बची रहती है क्या तब उन देह रूपी वस्त्रों में ?
या भीगकर खारे आँसुओं के समन्दर में डूब जाती है?
या जल जाती है ह्रदय की उस आग में
जो सुलगती है प्रतिपल
स्त्री देह होने के पश्चाताप में ?
शब्द बाणों के कचोट से घायल भी होती तो है
एक मात्र साक्ष्य होती है हवा
उन विपन्न देहों की
उसके मुकर जाने पर
रसरिक्त होकर सूख
जाती है आत्मा ....…!!
हे देव ,
क्यों अर्थहीन
हो गए शब्द तुम्हारें ?
या यूं कहूँ
वसनरहित वाक्य ही बोले तुमने भी
एक देव होकर ...!!!
बताओ राम
सच सच बताओ राम
क्यों तैरे थे पत्थर
तुम्हारे नाम के
श्रद्धा थी या मर्यादा का सम्मान था ,
या प्रिया की विरहाग्नि ने
पिघला दिया
उनका पत्थरपन ,
हल्के हो तैर गए
समंदर की छाती पर,
हरण हो रही आज भी सीतायें
बिक रही है मंडियों में
निर्जीव बन
नुचे पंख छितरा देती
बेदम हवा यहाँ से वहा
कोई पुल नही उन तक ..
बोलो राम ,
क्यों जरुरी नही समझते अब तुम
सीताओं को बचाना ???
जबकि पुकारती है वो तुम्हें
विदीर्ण हृदय में पीड़ा के आर्तनाद से
तुम चुप हो
क्यों ?
शायद ..!
तुम्हारी निःस्पृहता से ही
भारी होकर
तिरते नही अब आस्था के पत्थर ...!!
प्रवेश सोनी |
एक दिन
धैर्य चुक जाता है
एक दिन
नदियों का ,
उफन पड़ती है
तोड़ कर तट बंध
धरा उगलती है लावा
भीतर की उथल पुथल को
जब थामते हुयें थक जाती है ।
बदल जाती है
हां ,ना में
असह्य हो जाता है
एक दिन
सर झुका कर "जी हां "कहना
नीलकंठ कर उठते ताण्डव
एक दिन
जब जहर उगलने लगते है
सुर -असुर के भेद
एक दिन वो होता ही है
जिसे चीन्हता नहीं कोई
पर होने की वजह
बनता रहता है धीरे धीरे ।
लिखी जा रही कविताएं
शब्दकोष में
उखड़ रहे पन्नें
शब्दों के उग आये पर
उड़ रहे वो अनन्त में ..
क्योंकि लिखी जा रही है कविताएं
स्त्री लिख रही है कविताएं
कविता का ककहरा
सीखा उसने
पुरुष द्वारा बनाई चौहद्दी की कैद उम्र में
रेखाओं ,वृतों में आवृत रही
बनी रही सीता
अग्नि परीक्षाओं के बावजूद
मिला त्याग का त्रास
बस वही से लिखी स्त्री ने कविताएं ।
लिख रही है माँ कविताएं
अपनी सन्तानो की बोली में
पहचान रही खुद को
या खो रही माँ होने का पद
रात -रात की निद्रा का त्याग
सहर्ष स्वीकार लिया नमी वाला बिछौना अपने हिस्से में
उफनते दूध में उफ़न आती है स्मृतियां
दूध के कर्ज का नही देती हवाला
माँ अकेली आँसुओ की स्याही से लिख रही है कविताएँ ।
पत्नी लिख रही है कविताएं
क्षण-क्षण ह्रास होते जीवन में
जीवित क्षण तलाशती
सप्तपदी,सात वचन,सात जनम
जन्मों -जन्मों के पुण्य
बस एक पद साथ चलने की ललक में
समर्पित जीवन पर्यन्त....
रिश्तों की नक्काशियों से स्वयं को तराशती
पत्नी लिख रही है कविताएं।
प्रेयसी लिख रही है कविताएं
जाते हुए प्रेयस की राह में
उड़ी मिटटी से चुंधियाई आँखों में नमी भर
कर रही है अन्तःकरण में प्रेम की व्याख्या
प्रेयसी पढ़ रही है गीता
शरीर और शरीरी के भेद को समझ
प्रेमग्रंथो का मानक मान रही है
"प्रेम शरीर से था तो शरीरी क्यों व्याकुल हुआ"
नहीं -नहीं प्रेयसी के लिए नहीं है गीता
राधा और मीरा ने नहीं पढ़ी गीता
बंशी और इकतारे को लेकर
प्रेयसिया लिख रही कविताएँ,
प्रेयसिया गा रही है कविताएं।
माँ
बड़े घर से आई थी माँ
नौकर झलते थे पंखा
ऐसा ही सुना था ...
वही किसी पाठशाला में
पढ़े होंगे क ख ग
कितने साल रही होगी वहाँ माँ..!
दादी से कहते सुना कि
11 बरस की थी तेरी माँ ,
और 18 के थे पिता ।
जब होश सम्भाला था मैने
सुघड़ अल्हड़ सी थी ,
पर स्वभाव में ठहरी शांत झील थी माँ
माँ को नहीं देखा मैने कभी सोते हुए
मुँह अँधेरे से रात अँधेरे तक
करती ही रहती थी निर्विध्न कोई न कोई काम
पिसती थी चक्की
लाती थी कुए से भर भर पानी
फूंकती थी धुएं वाला चूल्हा
और लालटेन की ढ़िबरी में
काड़ती ओढ़नी में फूलों का कशीदा ।
कहाँ,कैसे सीखा होगा यह सब
11 साल की माँ ने ।
हरगिज अपनी माँ के यहाँ तो नहीं सीख पाई होगी
हथेली के रिसते छालों पर
घी हल्दी भरके सिसकते हुए पिसी होगी चक्की
खींची होगी कुएँ से रस्सी वाली भरी बाल्टी
दादी -ताई की प्रहरी राग में दब गई होगी सिसकिया
क्या माँ की माँ ने सहलाये होंगे माँ के हाथ के छाले ?
नहीं शायद ....!
नानी माँ भी तो ऐसे ही कर्मठ स्त्री बनी होगी
तभी माँ को भी छोड़ दिया था स्त्री की कर्मठता सीखने
कर्मभूमि मैं ....
आज भी माँ उठती है मुह अँधेरे
उम्र के आठ दशक कर्म से विमुखता नहीं सिखा पाये ।
दोहरी कमर और बुझती आँखों की रोशनी से
देती है उगते सूरज को अर्ध्य
बाँचती है गीता के श्लोक।
उम्र की तमाम निधियों से
मैं चुराती हूँ माँ के वो दिन ...
जब पढ़े थे उसने क ख ग
जिनसे पढ़ती है वो आज
मोटा चश्मा लगा कर सुबह का अखबार
और जब बेटे बहुओं के साथ करती है
आज के राजनितिक माहौल पर वैचारिक टिप्पणी ...
विवश हो जाती हूँ सोचने पर
कितने सशक्त रहें होंगे माँ के पढ़े
वर्णमाला के चन्द अक्षर
अनुभव और समझ की कर्मभूमि पर
PHDया उससे भी बड़े मानद बन गए थे ।
मेरी नन्ही आँखे वर लेती है माँ के अनुभव
और बड़ी हो जाती है अपने संघर्षो के साथ
हर आँख के सपनोँ की अलग होती है जमीन
और संघर्षो की यात्रा भी अलग ।
माँ रख देती है बेटी का हाथ होले से थाम कर
अपने अपने संघर्षो से जीतने का हौसला
आखिर माँ ही तो जानती है
जीवन संघर्षो के व्याकरण का सम्पूर्ण शास्त्रार्थ ।
प्रवेश सोनी |
तुम कहतें हो
तुम कहते हो .....
परे रहो ,
निषिद्ध है तुम्हारा यहाँ आना
अछूत हो तुम,
अवशिष्ट स्राव ,मान्य नही
क्यों ,आखिर क्यों ????
सुनो नियंताओं ,..
सुन सको तो सुनो
जिन्हें स्थापित किया तुमने
परम शौर्य,पुरुषार्थ और ब्रह्मचर्य का देव
वो भी.... और तुम भी ..
स्त्री से ही हुये हो निर्मित ,
तुम्हारे शरीर की मास -मज्जा और शिराओं का रक्त कैसे पवित्र हो सकता है
जो इसी तिरस्कृत किये गए रक्त का रूपांतरण है
जिसमें शामिल है
नौ माह के दुःख का सच
तुम जानते हो जिसे ,
पर मानते नही आडम्बर के आवरण में ।
उजले वस्त्र नही छिपा सकते
मन के गन्दे ftविचार
रजस्वाला द्रोपती को छूना
क्यों अवर्जित रहा तुम्हारे लिए ?
सुनो,
हमारी आस्था ने ही बाँधे है
तुम्हारे लिए बरगद पर रक्षा सूत्र ,
और निर्जल श्रद्धा ने ही
सींची है तुम्हारी जीवन रेखा ।
सोचो...
जिस दिन भर लेगी
अपनी सोच में ईश्वरों को नकारने का साहस ,
महिमामंडित आस्था की मूरतें
हो जायेंगी खंडित ,
और श्रद्धा खोल लेगी अपने नेत्र ,
ढह जाएंगे तुम्हारें दर्प के मठ ।
फिर किससे कहोगे
क्या -क्या कहोगे
अवशेष तलाशते तुम
उसी अवशिष्ट से ,
लोगे फिर एक बार नया जन्म ।।
प्रवेश सोनी
कवि,कथाकार ,चित्रकार
कोटा राजस्थान
email: praveshsoni.soni@gmail.com
वाह
जवाब देंहटाएंकमाल की रचनायें जीवन के मर्म की परतें खोलती हुई
बहुत सुंदर सृजन
शुभकामनाएँ
सादर
बहुत बहुत आभार आपका ज्योति खरे जी
हटाएंआप समाज में घटित हो रही चीजों को जैसे देखते है..जिस रूप और स्वरूप में आपके आंखों से गुजरते है वह घटनाक्रम, अगर उन्हें उसी रूप-दृश्य को शब्द रूप में पढ़ना है तो प्रवेश सोनी की कविताएं एक बार आपको पढ़नी चाहिए..
जवाब देंहटाएंदरअसल कविता और अभिव्यक्ति दोनों के अनुनाश्रिक संबंधों के बीच भी एक बारीक अन्तर है.. भाव प्रकटीकरण और प्रस्तुति का..अभिव्यक्ति प्रस्तुति का हिस्सा है और कविता भाव स्वरूप का..काव्योक्त होना पाठक का शर्त नहीं है बल्कि आलोचक का है पर पाठक को कविता में संवेदना चाहिए और वो सारी चीजें, संवेदना, उत्स, भाव, रस सब प्रवेश सोनी जी कि कविताओं में प्रचुरता से मौजूद है..
बिजूका पर इनकी कविताएँ पढ़ी ..प्रकृति और स्त्री पर लिखी इनकी कविता ग़जब की प्रच्छन्न उच्छ्वास से भरी है..उन बिम्बों को आप पढ़कर बेचैन भी होते है और चिंतित भी..जब पाठक इन चिंताओं से कविता पाठ के क्रम में खुद को जोड़ने लगे तो समझिए कविता अपनी उत्स पा रही है..यह कविता पढ़ते वक्त ऐसा उत्स पाठक को महसूस होता है और यही कवि और उसके रचनाकर्म की विशिष्टता का निरूपण करता है....
इनकी स्त्रियोक्त कविताएँ बेचैनी और भय से संयुक्त है एवम रोष और चिंता से भरी हुई कई सवाल भी खड़े कर रही है..दरअसल इन रचनाओं की प्रकृति और शैली पाठक से सीधे संवाद से जोड़ती है..पहली, दूसरी, तीसरी कोई भी कविता देखे अन्त में कवियत्री एक प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है..इतने कम शब्दों में जब पाठक के समक्ष कविता कोई सवाल छोड़े तो मानिये कविता अपना प्राप्य पा चुकी हैं..
बहुत बोलती औरतें कविता भी अपने कहन में अलहदा है...कहा जाता है कि दुनिया का आठवां आश्यर्च दो औरतें का एक साथ चुप बैठना है..यह दिखावटी तौर पर सच है पर इतना बोलने के बाद भी औरतें बहुत कुछ अनकहा रखे रखती है..जज्ब सीने के भीतर..औरत के सीने में कितनी औरतें छिपी है इसके लिये आपको स्त्री का सौंदर्य छोड़ आपको स्त्री को अलग रूप में समझना होगा.. यह औरतों की वाचालता नहीं सहनशीलता की पराकाष्ठा की प्रतीति बता रही है...
कवियत्री की कुछ रचना काव्य की स्थापित विधा से हटकर अलग लकीर खींचती है..मैं इन्हें कला मर्मज्ञ तो मानता ही हूँ और एक कवियत्री के तौर पर बेहद संभावनाशील मानता हूं...
हार्दिक आभार राकेश पाठक जी
हटाएंआपकी विवेचना ने मुझे उत्साहित किया |
वाह! ह्रदयस्पर्शी रचनाएँ। प्रवेश जी के रेखा चित्र से तो परिचय तो है ही संवेदनशील कवियत्री के रूप में आज पाकर बहुत खुशी हो रही हाईल आपकी कविताएँ स्त्री मन के कई वितान खोल रही हैं जिसे वे आसानी से छुपा लेने की अभ्यस्त हैं। बहुत बहुत बधाई मित्र। शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंथैंक्यू महिमाश्री जी ,आपकी आत्मिक प्रतिक्रिया ने उत्साहित किया
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