राजकिशोर राजन की कविताएं
जँतसार
पसीने से थकबक देह हो तो
उसकी आत्मा से फूटता है
आदिम संगीत
यह नहीं करता सिर्फ
आटे को मुलायम और जीवन रस से परिपूर्ण
बल्कि जोड़ता है जीवन को मिट्टी और धरती से भी
मैंने पूछा था माँ से कि
पत्थरों के बीच गेहूं के दाने को पीसते
कैसे जनमता है! गीत
और माँ ने हंस दिया था , कि चल यह भी कोई प्रश्न हुआ बे सिर -पैर का
सचमुच यह कोई प्रश्न है!
कि कोई फूल से पूछे की
तुम खिलते हो कैसे!
नदी से कि बहती हो कैसे!
और जीवन से कि
इस नामुराद दुनिया में वो भरा क्यों रहता है उछाह से
पता नहीं किस ग्रह का प्राणी हूँ
जँतसार को भी थोडा समझ पाया
कविता की तरह
तो जीवन के चालीस साल बाद।
कई कई आशंकाओं के बीच
भटकता गांव
हारे हुए योद्धा की तरह किसान
दोपहर बाद लौटते सरेह से
कभी बाढ़,कभी सुखाड़, कभी बीज
कभी खाद
इन्हीं के बीच उपजती
आशंकाओं की फसल भी
बूढ़े शोकाकुल,यह सोच कर कि
अब नहीं बचेगा गांव
किसी के पैर टिकते नहीं यहाँ
दूध के दांत टूटे नहीं कि
हाजिर हो जाता सूरत,लुधियाना
दिल्ली सपने में
गांव का दक्खिन अभी भी अदेख
रोपनी-सोहनी जैसे काम छोड़
शेष दिन उसे कहाँ माना जाता गांव!
विश्वास में विष का वास है!
कहता है,ललधरवा का छौंड़ा
और दनदनाता हुआ निकलता है
पूरब से पश्चिम चकाचक फटफटिया से
तरह-तरह की आशंकाओं के बीच
एक और दिन,
आत्महत्या कर लेता बँसवारी में
कौन जाने रात्रि में भटकता हुआ गांव
आपको नहीं मिले उस स्थान पर
जहां छोड़ आप निकले थे बाहर
दिन में।
सरसों फूलने के मौसम में
इसी मौसम में बिंदेसर सधाएंगे रामजस बाबू का करजा
नगीना महतो कराएंगे बीमार बाप का इलाज
माकुर साव की दुकान में चन्द्रिका राय भी बेचेंगे सरसों और कटायेंगे टिकट लुधियाना का
इसी फ़सल को बेंच
खरीदेगी साबुन-सोटा रमरतिया की माई
बकिया रखेगी कहीं मड़ई में लुकाकर
सभी ओर खेतों में फूला है सरसों
बिखर रही धनिये की तेज़ गंध
और बीच में निस्पृह,सबकुछ को अदेख कर
अपने दुःख में डूबा है गाँव
यहाँ कुछ भी नहीं बदला
बस, दिन तनिक छोटे
रातें कुछ लंबी
बँसवारी से चिहा कर देखती है साँझ
वसंत को भी अब तक कोई नहीं मिली पगडंडी
कि किसी एक दिन वह पहुंचे इस गाँव
सरसों फूलने का मौसम है
और मेरे गाँव को
इधर-उधर ताकने की फ़ुरसत नहीं।
इस दुर्दिन में दोस्त
यह वक्त ही ऐसा
जो हर परिभाषा के बाहर
पानी -सा रिस जाता दूसरे दिन
कोई लाख घेरना चाहे
जाता निष्फल,निरर्थक
हलक में सूख जाता थूक भी
ऐसे में कुछ दोस्त ही हैं
जो सुई धागे की तरह
सफ़ेद रुमाल पर काढ़ देते
एक सुर्ख़ गुलाब का फूल
इस अंतहीन ख्वाहिशों की सदी में
भले ये दोस्त इतने हलकान
और अपनी दुनिया में आत्ममुग्ध कि
किसी से भेंट होती बरसों बाद
इतवार के दिन सब्जी बाजार में
या किसी स्टेशन के
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर
ये दोस्त शायद ही कभी काम आते
गाढ़े वक्त में
इन्होंने रट लिया है बहानों का ककहरा
जैसे कि किसी को हुलास से इत्तिला
करो कि
मैं पहुंच रहा हूँ दिल्ली परसों
तो वह एक ही साँस में उत्तर देगा
एक जरूरी काम से
मुझे आज ही निकलना है पटना
बड़े अफ़सोस की बात है
इस बार तुमसे भेंट नहीं होगी दोस्त
ये दोस्त तिल का ताड़ बनाते
शिकायतों की एक मोटी किताब रखते
दोस्ती कम,अपनी चालाकियों
मक्कारियों के कारण
अधिक याद आते
पर सब कुछ के बावजूद
इस दुर्दिन में
उम्मीद के मेघ की तरह दिखते
भीग जाते भीतर से हम
और फेर लेते
सूखे होठों पर जीभ।
हमने बचाया
हमने अपने समय में
बड़े से बड़ा काम भाषा में किया
भाषा में क्रांतिकारी बने
भाषा में देशभक्त
हुए भाषा में सभ्य
किया भाषा में अन्याय का प्रतिकार
प्रेम भी किया तो भाषा में
दरअसल,हमारे समय में अपने को
मांज रहे थे सभी भाषा में ही
और हम हो गए थे इतने निपुण
कि भरने लगे थे पेट से लेकर देश तक को भाषा से ही
हमारे समय में भाषा उस उरूज का कर रही थी स्पर्श
कि एड़ी उचकाएं तो ठेक जाए उंगली आकाश
हम बचा रहे थे भाषा में ही
अपनी मर रही दुनिया को।
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना
कितनी अजीब बात है
जब उचारा आपने
कि मनुष्य, ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है
तो मुखमंडल आपका दिपदिपाने लगा
पर जब कहा मैंने
कि ईश्वर, मनुष्य की सर्वोत्तम कल्पना है
तो मुखमंडल आपका स्याह हो गया
सैकड़ों-हजारों साल हुए
आपको अब तक भरोसा नहीं मनुष्य पर
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना होने के बाद भी।
दूब, गुलाब, तितली और मैं
दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द
सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कंटीली काया और सब्ज पत्तों को देखा
पता नहीं, सांझ तक रहे कि झरे
बाँट जाना चाहता था पृथ्वी को सुगंध निःशब्द
मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी बंजर जमीन पर
बेरंग हो रही पृथ्वी को करने में लगी थी रंगीन निःशब्द
मेरे पास उतने ही शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं बमुश्किल कुछ कविताएं
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।
पक रही है कविता
एक-एक कर पक रहे
शेष बचे दाढी-मूँछ के बाल
धीरे-धीरे घट रही आँखों की ज्योति
हथेली में भरे जल की तरह बूँद-बूँद रिसते
पता नहीं कब रिक्त हो जाए जीवन
कितना कुछ छुट गया
अदेखा, अजाना, अचीन्हा इस जगत में
उन्हें देखने, जानने, चीन्हने के लिए
हो रहा भरसक यत्न
और टूट रही देह
पहले पाहुन थीं बिमारियाँ
अब आती हैं तो नहीं लेतीं जाने का नाम
जो अपने थे उनमें बिछड़ गये कितने
कभी-कभार ही दिखते पुराने दिनों के यार-दोस्त
बाहर तेज है धूप बहुत
और खेतों में पक रहा है धान
पगडंडियों से गुजर रहा मैं
माथे पर गमछा बाँध
बहुत दिन हुए एक कविता को काट-कूट करते
सोचते-विचारते
कविता भी पक रही है
जैसे पक रहा है धान।
यक्षिणी
(1)
यह मुस्कान जो तिरती है होठों पर
है व्यथा-कथा, अश्रुपूरित
इतिहास में मेरी
जिसे नहीं चाहिए अलकापुरी का वैभव
कुबेर का स्वर्ग, पृथ्वी की संपदा
देवी होने का ऐश्वर्य
पर उसे सब कुछ समझा गया
सिर्फ नहीं समझा गया
एक स्त्री कभी
(2)
क्या तुम्हें पता है
किसने बनायी मेरी मूर्ति
और इसके साथ
क्या नाता है मेरा
तुम मुझे देखते हो किस तरह उत्कंठित
निर्मित करते सैकड़ों धारणाएँ
पर आज तक नहीं समझ पाए
तुम लाख जतन कर लो
एक स्त्री का अनुवाद असंभव है
(3)
जैसे ही उलझ गए तुम
मेरी कदली स्तंभ-सी जंघाओं
क्षीण कटि, उन्नत नितंबों में
इस जनम में ढूंढते ही रह जाओगे मुझे
जीवित हूँ सैकड़ों साल से
प्रेम के स्वप्निल संसार में इनके पार
(4)
पृथ्वी की भांति प्रायः गोलाकार
आम्र तरू-अस लदी झुकी मैं
न जाने कितने जनमों से
फिर भी, देखोगे किसी भी कोण से मुझे
तो लगूँगी तुम्हें
आनंदकंद में आकंठ निमग्न
सौंदर्य तो इसी आरोहण का नाम है
जिसमें वह होता है एक साथ
विनम्र और गर्वित
एक लंबी चुप्पी के साथ
(5)
तुम्हें कैसे पता होगा
मैं चामरग्राही यक्षिणी
तुम्हारी आत्मा पर पड़े धूल को झाड़ती हूँ
इसीलिए तो शेष रह गई
क्योंकि ज्यों-ज्यों विजयी बनोगे तुम
जमा होती जाएगी तुम्हारी आत्मा पर त्यों-त्यों
धूल की परत
तुम्हारे लिए ही तो
अनावृत्त हूँ मैं, तुम्हारे सम्मुख
अगर तुम श्रद्धावनत नहीं हुए तो
आपादमस्तक निर्वस्त्र हो जाओगे तुम भी
तुम्हे कैसे समझाऊँ
तुम जब निहारते हो मुझे निर्निमेष
मैं तुम्हें एक शिशु-सा
अभिनव बनाना चाहती हूँ
(6)
तुम्हारी यक्षिणी हूँ मैं
सौंदर्य की देवी नहीं
नहीं तो हर वर्ष क्यों हहरती-तरसती
आषाढ़ के प्रथम मेघ में
नख-शिख तक अहरह भीगने के लिए
वायु के झकोरों में धुलती मेरी हँसी
दुनिया के तमाम रंगो से सराबोर
मैं बादलों के संग उड़ना चाहती
चिड़ियों के साथ चहकना चाहती
फूलों के सुगंध की तरह तैरना चाहती
तुम मुझे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण भी कह सकते हो
जिसने दुनिया को जोड़ रखा है।
विलाप
अब तुम कहोगे मर रही हैं नदियाँ
विलुप्त हो रहे तालाब, कुएँ, वन, पशु-पक्षी
कट रहे जंगल और संताप से भरे खड़े हैं पहाड़
शाम को शहर के न्यू मार्केट में उमड़ी
यह ठसा-ठस भीड़
लोगों की नहीं, धनपशुओं की है
और यह समाज पाउडर-क्रीम लगाया
बजबजाता हुआ सूअर का खोभाड़ है
अब तुम कहोगे, देखो नỊ
शहर के इने-गिने, नामी-गिरामी बुद्धिजीवी
अलग-अलग विषयों पर छाँट रहे व्याख्यान
उनमें एक से बढ़ कर एक मोटे-ताजे सत्ता के जोंक
अपनी सुविधा के लिहाज से
चुन लिए हैं पक्ष-प्रतिपक्ष
वो भी सिर्फ दिन भर के लिए
रात को आ जाते अपने-अपने बिल में
अब तुम कहोगे कितना निर्लज्ज और क्रूर समय है
स्टेशन के पीछे खड़ी रहने वाली चार-पाँच वेश्याएँ
एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाने पर भी
इन दिनों खौफ से बहनापा निभाते
रहने लगी हैं साथ-साथ
अब तुम कहोगे, मुक्त व्यापार के साथ इस देश में
सब कुछ होता जा रहा मुक्त
वहीं विचारों पर क्यों पसरती जा रही घास-पात
एक अघोषित समझदारी विकसित हो गयी है
हम बोलते रहेंगे, लिखते रहेंगे, परिवर्तन के पक्ष में
पर खूँटा हमारा जस का तस रहेगा
ऐसे ही तुम कहोगे और भी बहुत कुछ
और फिर कहोगे
हम लोग कर ही क्या सकते हैं!
पहली बार नदियों के सूखने
बजबजाते सूअर के खोभाड़
और उन वेश्याओं के नकली बहनापे से
बुरा लग रहा, तुम्हारा विलाप।
[
राजकिशोर राजन |
जँतसार
पसीने से थकबक देह हो तो
उसकी आत्मा से फूटता है
आदिम संगीत
यह नहीं करता सिर्फ
आटे को मुलायम और जीवन रस से परिपूर्ण
बल्कि जोड़ता है जीवन को मिट्टी और धरती से भी
मैंने पूछा था माँ से कि
पत्थरों के बीच गेहूं के दाने को पीसते
कैसे जनमता है! गीत
और माँ ने हंस दिया था , कि चल यह भी कोई प्रश्न हुआ बे सिर -पैर का
सचमुच यह कोई प्रश्न है!
कि कोई फूल से पूछे की
तुम खिलते हो कैसे!
नदी से कि बहती हो कैसे!
और जीवन से कि
इस नामुराद दुनिया में वो भरा क्यों रहता है उछाह से
पता नहीं किस ग्रह का प्राणी हूँ
जँतसार को भी थोडा समझ पाया
कविता की तरह
तो जीवन के चालीस साल बाद।
कई कई आशंकाओं के बीच
भटकता गांव
हारे हुए योद्धा की तरह किसान
दोपहर बाद लौटते सरेह से
कभी बाढ़,कभी सुखाड़, कभी बीज
कभी खाद
इन्हीं के बीच उपजती
आशंकाओं की फसल भी
बूढ़े शोकाकुल,यह सोच कर कि
अब नहीं बचेगा गांव
किसी के पैर टिकते नहीं यहाँ
दूध के दांत टूटे नहीं कि
हाजिर हो जाता सूरत,लुधियाना
दिल्ली सपने में
गांव का दक्खिन अभी भी अदेख
रोपनी-सोहनी जैसे काम छोड़
शेष दिन उसे कहाँ माना जाता गांव!
विश्वास में विष का वास है!
कहता है,ललधरवा का छौंड़ा
और दनदनाता हुआ निकलता है
पूरब से पश्चिम चकाचक फटफटिया से
तरह-तरह की आशंकाओं के बीच
एक और दिन,
आत्महत्या कर लेता बँसवारी में
कौन जाने रात्रि में भटकता हुआ गांव
आपको नहीं मिले उस स्थान पर
जहां छोड़ आप निकले थे बाहर
दिन में।
सरसों फूलने के मौसम में
इसी मौसम में बिंदेसर सधाएंगे रामजस बाबू का करजा
नगीना महतो कराएंगे बीमार बाप का इलाज
माकुर साव की दुकान में चन्द्रिका राय भी बेचेंगे सरसों और कटायेंगे टिकट लुधियाना का
इसी फ़सल को बेंच
खरीदेगी साबुन-सोटा रमरतिया की माई
बकिया रखेगी कहीं मड़ई में लुकाकर
सभी ओर खेतों में फूला है सरसों
बिखर रही धनिये की तेज़ गंध
और बीच में निस्पृह,सबकुछ को अदेख कर
अपने दुःख में डूबा है गाँव
यहाँ कुछ भी नहीं बदला
बस, दिन तनिक छोटे
रातें कुछ लंबी
बँसवारी से चिहा कर देखती है साँझ
वसंत को भी अब तक कोई नहीं मिली पगडंडी
कि किसी एक दिन वह पहुंचे इस गाँव
सरसों फूलने का मौसम है
और मेरे गाँव को
इधर-उधर ताकने की फ़ुरसत नहीं।
इस दुर्दिन में दोस्त
यह वक्त ही ऐसा
जो हर परिभाषा के बाहर
पानी -सा रिस जाता दूसरे दिन
कोई लाख घेरना चाहे
जाता निष्फल,निरर्थक
हलक में सूख जाता थूक भी
ऐसे में कुछ दोस्त ही हैं
जो सुई धागे की तरह
सफ़ेद रुमाल पर काढ़ देते
एक सुर्ख़ गुलाब का फूल
इस अंतहीन ख्वाहिशों की सदी में
भले ये दोस्त इतने हलकान
और अपनी दुनिया में आत्ममुग्ध कि
किसी से भेंट होती बरसों बाद
इतवार के दिन सब्जी बाजार में
या किसी स्टेशन के
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर
ये दोस्त शायद ही कभी काम आते
गाढ़े वक्त में
इन्होंने रट लिया है बहानों का ककहरा
जैसे कि किसी को हुलास से इत्तिला
करो कि
मैं पहुंच रहा हूँ दिल्ली परसों
तो वह एक ही साँस में उत्तर देगा
एक जरूरी काम से
मुझे आज ही निकलना है पटना
बड़े अफ़सोस की बात है
इस बार तुमसे भेंट नहीं होगी दोस्त
ये दोस्त तिल का ताड़ बनाते
शिकायतों की एक मोटी किताब रखते
दोस्ती कम,अपनी चालाकियों
मक्कारियों के कारण
अधिक याद आते
पर सब कुछ के बावजूद
इस दुर्दिन में
उम्मीद के मेघ की तरह दिखते
भीग जाते भीतर से हम
और फेर लेते
सूखे होठों पर जीभ।
हमने बचाया
हमने अपने समय में
बड़े से बड़ा काम भाषा में किया
भाषा में क्रांतिकारी बने
भाषा में देशभक्त
हुए भाषा में सभ्य
किया भाषा में अन्याय का प्रतिकार
प्रेम भी किया तो भाषा में
दरअसल,हमारे समय में अपने को
मांज रहे थे सभी भाषा में ही
और हम हो गए थे इतने निपुण
कि भरने लगे थे पेट से लेकर देश तक को भाषा से ही
हमारे समय में भाषा उस उरूज का कर रही थी स्पर्श
कि एड़ी उचकाएं तो ठेक जाए उंगली आकाश
हम बचा रहे थे भाषा में ही
अपनी मर रही दुनिया को।
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना
कितनी अजीब बात है
जब उचारा आपने
कि मनुष्य, ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है
तो मुखमंडल आपका दिपदिपाने लगा
पर जब कहा मैंने
कि ईश्वर, मनुष्य की सर्वोत्तम कल्पना है
तो मुखमंडल आपका स्याह हो गया
सैकड़ों-हजारों साल हुए
आपको अब तक भरोसा नहीं मनुष्य पर
ईश्वर की सर्वोत्तम रचना होने के बाद भी।
दूब, गुलाब, तितली और मैं
दूब को देखा मैंने गौर से
और हथेलियों से सहलाता रहा
दूब तो दूब ठहरी
लगी थी पृथ्वी को हरा करने में निःशब्द
सुबह का खिला गुलाब था
उसकी रंगत, कंटीली काया और सब्ज पत्तों को देखा
पता नहीं, सांझ तक रहे कि झरे
बाँट जाना चाहता था पृथ्वी को सुगंध निःशब्द
मैंने एक तितली का पीछा किया
वह फूलों से अलग बैठी थी बंजर जमीन पर
बेरंग हो रही पृथ्वी को करने में लगी थी रंगीन निःशब्द
मेरे पास उतने ही शब्द थे और भाव
जिनसे लिखी जा सकती थीं बमुश्किल कुछ कविताएं
उस दिन मुझे भरोसा हुआ
दूब, गुलाब, तितली की तरह
मेरे पास भी कुछ है, देने के लिए पृथ्वी को
और उनकी तरह
मेरी भी जगह है पृथ्वी पर।
पक रही है कविता
एक-एक कर पक रहे
शेष बचे दाढी-मूँछ के बाल
धीरे-धीरे घट रही आँखों की ज्योति
हथेली में भरे जल की तरह बूँद-बूँद रिसते
पता नहीं कब रिक्त हो जाए जीवन
कितना कुछ छुट गया
अदेखा, अजाना, अचीन्हा इस जगत में
उन्हें देखने, जानने, चीन्हने के लिए
हो रहा भरसक यत्न
और टूट रही देह
पहले पाहुन थीं बिमारियाँ
अब आती हैं तो नहीं लेतीं जाने का नाम
जो अपने थे उनमें बिछड़ गये कितने
कभी-कभार ही दिखते पुराने दिनों के यार-दोस्त
बाहर तेज है धूप बहुत
और खेतों में पक रहा है धान
पगडंडियों से गुजर रहा मैं
माथे पर गमछा बाँध
बहुत दिन हुए एक कविता को काट-कूट करते
सोचते-विचारते
कविता भी पक रही है
जैसे पक रहा है धान।
यक्षिणी
(1)
यह मुस्कान जो तिरती है होठों पर
है व्यथा-कथा, अश्रुपूरित
इतिहास में मेरी
जिसे नहीं चाहिए अलकापुरी का वैभव
कुबेर का स्वर्ग, पृथ्वी की संपदा
देवी होने का ऐश्वर्य
पर उसे सब कुछ समझा गया
सिर्फ नहीं समझा गया
एक स्त्री कभी
(2)
क्या तुम्हें पता है
किसने बनायी मेरी मूर्ति
और इसके साथ
क्या नाता है मेरा
तुम मुझे देखते हो किस तरह उत्कंठित
निर्मित करते सैकड़ों धारणाएँ
पर आज तक नहीं समझ पाए
तुम लाख जतन कर लो
एक स्त्री का अनुवाद असंभव है
(3)
जैसे ही उलझ गए तुम
मेरी कदली स्तंभ-सी जंघाओं
क्षीण कटि, उन्नत नितंबों में
इस जनम में ढूंढते ही रह जाओगे मुझे
जीवित हूँ सैकड़ों साल से
प्रेम के स्वप्निल संसार में इनके पार
(4)
पृथ्वी की भांति प्रायः गोलाकार
आम्र तरू-अस लदी झुकी मैं
न जाने कितने जनमों से
फिर भी, देखोगे किसी भी कोण से मुझे
तो लगूँगी तुम्हें
आनंदकंद में आकंठ निमग्न
सौंदर्य तो इसी आरोहण का नाम है
जिसमें वह होता है एक साथ
विनम्र और गर्वित
एक लंबी चुप्पी के साथ
(5)
तुम्हें कैसे पता होगा
मैं चामरग्राही यक्षिणी
तुम्हारी आत्मा पर पड़े धूल को झाड़ती हूँ
इसीलिए तो शेष रह गई
क्योंकि ज्यों-ज्यों विजयी बनोगे तुम
जमा होती जाएगी तुम्हारी आत्मा पर त्यों-त्यों
धूल की परत
तुम्हारे लिए ही तो
अनावृत्त हूँ मैं, तुम्हारे सम्मुख
अगर तुम श्रद्धावनत नहीं हुए तो
आपादमस्तक निर्वस्त्र हो जाओगे तुम भी
तुम्हे कैसे समझाऊँ
तुम जब निहारते हो मुझे निर्निमेष
मैं तुम्हें एक शिशु-सा
अभिनव बनाना चाहती हूँ
(6)
तुम्हारी यक्षिणी हूँ मैं
सौंदर्य की देवी नहीं
नहीं तो हर वर्ष क्यों हहरती-तरसती
आषाढ़ के प्रथम मेघ में
नख-शिख तक अहरह भीगने के लिए
वायु के झकोरों में धुलती मेरी हँसी
दुनिया के तमाम रंगो से सराबोर
मैं बादलों के संग उड़ना चाहती
चिड़ियों के साथ चहकना चाहती
फूलों के सुगंध की तरह तैरना चाहती
तुम मुझे पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण भी कह सकते हो
जिसने दुनिया को जोड़ रखा है।
विलाप
अब तुम कहोगे मर रही हैं नदियाँ
विलुप्त हो रहे तालाब, कुएँ, वन, पशु-पक्षी
कट रहे जंगल और संताप से भरे खड़े हैं पहाड़
शाम को शहर के न्यू मार्केट में उमड़ी
यह ठसा-ठस भीड़
लोगों की नहीं, धनपशुओं की है
और यह समाज पाउडर-क्रीम लगाया
बजबजाता हुआ सूअर का खोभाड़ है
अब तुम कहोगे, देखो नỊ
शहर के इने-गिने, नामी-गिरामी बुद्धिजीवी
अलग-अलग विषयों पर छाँट रहे व्याख्यान
उनमें एक से बढ़ कर एक मोटे-ताजे सत्ता के जोंक
अपनी सुविधा के लिहाज से
चुन लिए हैं पक्ष-प्रतिपक्ष
वो भी सिर्फ दिन भर के लिए
रात को आ जाते अपने-अपने बिल में
अब तुम कहोगे कितना निर्लज्ज और क्रूर समय है
स्टेशन के पीछे खड़ी रहने वाली चार-पाँच वेश्याएँ
एक-दूसरे को फूटी आँख न सुहाने पर भी
इन दिनों खौफ से बहनापा निभाते
रहने लगी हैं साथ-साथ
अब तुम कहोगे, मुक्त व्यापार के साथ इस देश में
सब कुछ होता जा रहा मुक्त
वहीं विचारों पर क्यों पसरती जा रही घास-पात
एक अघोषित समझदारी विकसित हो गयी है
हम बोलते रहेंगे, लिखते रहेंगे, परिवर्तन के पक्ष में
पर खूँटा हमारा जस का तस रहेगा
ऐसे ही तुम कहोगे और भी बहुत कुछ
और फिर कहोगे
हम लोग कर ही क्या सकते हैं!
पहली बार नदियों के सूखने
बजबजाते सूअर के खोभाड़
और उन वेश्याओं के नकली बहनापे से
बुरा लग रहा, तुम्हारा विलाप।
[
सारी कवितायेँ बहुत सुंदर हैं
जवाब देंहटाएंसभी कविताएं बढ़िया हैं।
जवाब देंहटाएंराजकिशोर राजन समकालीन युवा कविता के महत्वपूर्ण कवि हैं।कविताओं की विषय वस्तु में विविधता है जो जीवन अनुभव के प्रिज्म से होकर गुजरती है।
जवाब देंहटाएंराजकिशोर राजन जी मौजूदा वक्त के महत्वपुर्ण कवि हैं। सभी कवितायें अच्छी लगी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसामाजिक संवेदनाओं को कविता में जीते राजकिशोर राजन जी साहित्यिक परिदृश्य पर आज एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। यहाँ छपी उनकी सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हैं। साधुवाद उनको।
जवाब देंहटाएं