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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 मार्च, 2018

पल्लवी प्रसाद की कहानी

बदला




पल्लवी प्रसाद 


वे फूल की तरह दो लड़कियाँ थीं । फूल की तरह ही क्यों ? वे नाशपाती और गब्बु-गोशा की तरह भी तो हो सकती हैं । हाँ, यह सही है । नाशपाती और गब्बु-गोशा की तरह ही उनके नाम और मिज़ाज एक दूसरे से भिन्न थे । परन्तु थीं वे बहनें - बिल्कुल सगी । वे एक बड़े शहर में रहती थीं । दोनों एक ही स्कूल में पढ़ा करतीं । उनका स्कूल मध्यम वर्ग परिवारों के बच्चों का स्कूल था । इसलिये उसका स्थान उस शहर के स्कूलों में चौथे नम्बर पर था । लड़कियों को इस बात की कोई परवाह नहीं थी । उनका स्कूल उनके लिये 'बेस्ट' था । बड़ी का नाम था गुरप्रीत और छोटी का नाम था हरप्रीत । ठीक अपने नामानुसार ज़हीन और संजीदा गुरप्रीत अपने शिक्षकों की प्यारी थी तथा गोल गालों वाली मासूम हरप्रीत हर दिल अज़ीज़ थी । दोनों बहनों की उम्र में छ: साल का फ़र्क़ था। स्कूल का सालाना परीक्षा-फल निकल चुका था । गुरप्रीत दसवीं पास कर ग्यारहवीं में आ गयी है वहीं हरप्रीत अब पाँचवी कक्षा में पढ़ेगी । लेकिन अभी गरमी की छुट्टियाँ शेष नहीं हुईं व उनके स्कूल खुलने में अभी और पंद्रह दिन का वक़्त है ।

गरमी है कि परवान चढ़ते ही जाती है । यदि ऐसा हो सकता है तो ज़रूर होगा कि बच्चियाँ छुट्टियों से उकता गई हैं । दिन भर चलती लू में बाहर न निकलने की उन्हें सख़्त ताक़ीद है । आखिर सारा-सारा दिन कोई कितनी ड्रॉइंग बना सकता है ? फिर फैले हुये रंग-पानी, काग़ज़ के टुकड़ों की सफ़ाई किसके ज़िम्मे हो यह ले कर उनमें अक्सर झगड़ा छिड़ जाता जिसका फ़ैसला एक दूसरे की ड्रॉइंग को फाड़ कर किया जाता और फिर कई घंटों तक दोनों का मूड ख़राब रहता । उन्हें अब टी. वी. बेमज़ा लगता । रोज़ नई कॉमिक्स भी नहीं ख़रीदी जा सकतीं, वे इतनी महँगी जो होती हैं ! पुरानी कॉमिक्स मानो उन्हें कंठस्थ हो गई हैं । हर शाम धूप के उतरते ही उनके घर के पीछे के मैदान में आस-पास के मुहल्लों से हर उम्र के लड़के खेलने के लिये जमा होते हैं ...क्रिकेट...फ़ुटबॉल ...। फ़ुटबॉल सर्वप्रिय खेल है । उसमें झगड़ा जो नहीं होता और न ही किसी प्रकार का भेदभाव । खिड़की की जाली के पार अपनी छोटी सी गुलाबी नाक घुसेड़े हरप्रीत रोज़ाना, घंटों उन लड़कों के खेल देखती है । उसके मन में उनके संग खेलने की जो उत्कट लालसा है वह उनका दर्शक बनने से शमित नहीं होती बल्कि लड़कों को चीख़ते, छोटे-बड़े गेंदों का पीछा करते या चोट खा कर गिरते देख वह और प्रज्वलित हो उठती है । परन्तु उनके संग मैदान में जा कर खेलने की उसे अनुमति नहीं । न जाने क्यों बढ़ती हुई लड़कियाँ इस तरह खेला नहीं करतीं ? गुरप्रीत बड़ी है । वह किशोरी है । वह कभी अपने ही घर के दरवाज़े के बाहर खड़ी हो कर पड़ोस की सहेली से बात कर लेती है । सहेली थोड़ी फ़ैशनेबल है । बात फ़ैशन से हट कर जल्द ही लड़कों पर टिक जाती । वह कुछ तो गुरप्रीत के समझ आती और बहुत कुछ समझ से फिसल जाती - पापा को छोड़ कर उनके यहाँ कोई लड़का भी तो नहीं । कभी वहाँ से गुज़रती हुई मम्मी को उनकी बातों की भनक लग जाती और वे उन्हें झिड़क देतीं, " क्या जनानियों की तरह कानाफूसी  किया करती हो ? खेलतीं क्यों नहीं ?" - तब गुरप्रीत भौंचक्क देखती ही रह जाती । वह समझ न पाती वह क्या करे, क्या न करे ? पापा का कपड़ों का कारोबार और मम्मी के घर- बाहर की व्यस्तताओं में बच्चियों को कौन पूछता । दुकान बंद करने की असमर्थता के चलते पापा उन्हें शहर से बाहर कहीं घुमाने भी नहीं ले जाते । ऐसे में छुट्टियाँ उन्हें राक्षस की मूँछ समान लंबी प्रतीत होने लगीं । इस से तो भला है कि उनका स्कूल ही खुल जाये !







...आसमान को छूते सफ़ेदा के आज्ञाकारी पेड़। वे सड़क के दोनों तरफ़ हाथ बाँधे राहगीरों की हुक्म-तामील को खड़े हैं । जरा सी हवा में भी मानो झूल कर पूछते हैं, "जी, हुज़ूर ?" -  गुरप्रीत और हरप्रीत गाड़ियों से बचती हुयीं सड़क के किनारे-किनारे चल रही हैं । दुनिया की तमाम सड़कों की तरह ही इस सड़क के भी आदि-अंत के बारे में ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता । यह बच्चियों को उनके स्कूल ले जाती है और स्कूल से घर लौटाती है । यह कभी भी, चारों मौसम में बदलती नहीं । इस तरह सड़क कोई 'कन्फ्यूज़न' नहीं पैदा करती । आजकल यह बात कम ही चीज़ों के लिये कही जा सकती है । तो चलते हुये बच्चियाँ वहाँ पहुँचीं जहाँ से सड़क पर फ़्लाई ओवर शुरू होता है । तेज़-गति वाहन "स्सांय...!" से उनके सिर के ऊपर चढ़े जा रहे हैं किन्तु  फ़्लाई ओवर के नीचे सामने की सड़क ख़ाली है । बच्चियों की बँधी मुट्ठियाँ ढीली पड़ गयीं । राहत ने उनके फेफड़ों में ज़्यादा ऑक्सीजन भरी...हरप्रीत उछलती-कूदती चलने लगी । बड़ी बहन गुरप्रीत उसे देख मुस्कुराने लगी । उसके हाथ बार-बार पहनी हुयी काली जीन्स की जेब को टटोल रहे हैं । हर तसल्ली पर वह नये से मुस्कुरा पड़ती है । आज उसकी जेब में रूपये हैं...सौ-पचास नहीं । पूरे साढ़े तीन हज़ार ! उसने ख़ुद एक-एक नोट छू कर तीन बार गिने हैं । वह बार बार अपनी जेब छूती है कि कहीं वे ऊपर से न उड़ जायें या उसकी जेब फटे और वे नीचे न गिर जायें । रूपये महफ़ूज़ हैं । वे उसे मम्मी ने दिये हैं, स्कूल के नये साल की नयी किताबों के सेट ख़रीदने के लिये - एक सेट ग्यारहवीं कक्षा का और एक पाँचवी कक्षा का । किताबें स्कूल के बुक सेलर के पास उपलब्ध हैं और इसी कारण दोनों बहनें स्कूल जा रही हैं । उनकी कक्षाएँ तीन दिन बाद शुरू होंगी । स्कूल फ़्लाई ओवर के दूसरी तरफ़ पड़ता है और वे जल्द ही फ़्लाई ओवर के नीचे से होती हुयीं वाहनों से ख़ाली सड़क पार कर लेंगी, बिल्कुल नि:शंक । अभी वे इस तरफ़ चल रही हैं जहाँ शहर का सबसे पुराना और बड़ा नामचीन कॉलेज है । कॉलेज के गेट के ठीक सामने फ़्लाई ओवर की दीवार की ऊँचाई पर, छुट्टियाँ शुरू होने से पहले ही कोई काले पेंट से मोटे-मोटे बड़े अक्षरों में लिख गया था, ' आई लव यू रूबी'। अब इस लिखित घोषणा पर कालिख पुतवा दी गयी है लेकिन वह बात अब भी साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती है । फ़्लाई ओवर के नीचे से स्कूल की तरफ़ सड़क पार करते हुये छोटी हरप्रीत की आँखें पलट-पलट कर कुछ दूर खड़े गोल-गप्पे के ठेले को नाप रही हैं किन्तु गुरप्रीत के मुख पर से स्मित ग़ायब है । वह ख़ामोश, निगाहें  झुकाये चल रही है । उसके मन में भुकभुकाती हुयी लौ की तरह ख़्याल काँप रहे हैं - रूबी के साथ ऐसा किसने किया होगा ? वह उसका दुश्मन ही रहा होगा या प्रेमी ? ... आते-जाते पूरा शहर यह पढ़ता है, कॉलेज प्रिंसिपल, प्राध्यापक, लड़के-लड़कियाँ, रूबी के परिवारवाले, उसके पड़ोसी ... रूबी कितनों का सामना करती होगी ? या उसने पढ़ाई छोड़ दी है ? पूरे कॉलेज में क्या एक ही रूबी होगी...अनेक भी तो हो सकती हैं । हाँ, और नहीं तो क्या ! यह सोच कर गुरप्रीत की घबराहट कुछ कम हुयी । उनका स्कूल आ गया । उसने एक बार फिर अपनी जेब टटोली ।



बुक सेलर की दुकान के कांउटर पर से जब दोनों बच्चियाँ पलटीं तब गुरप्रीत की जेब अधिकाँश रूपयों से ख़ाली हो चली थी । उसके मन पर रूपये संभालने का जो तनाव था वह भी हल्का हो गया था । लेकिन अब उस से कई गुना ज़्यादा भार बहनों के कोमल हाथों में समा गया था । तमाम विषयों की पाठ्य पुस्तकें, हर विषय के लिये दो नोट बुक - एक कक्षा कार्य और दूसरी गृह कार्य के लिये । प्रत्येक विषय की जुदा वर्क बुक, भाषाओं की व्याकरण किताब, मैप बुक, ग्राफ़ बुक, ड्रॉइंग बुक, स्क्रैप बुक ...जिन में से कई पर टीचर ही काम न करवा पाती लेकिन विद्यार्थियों को अनिवार्य  था कि वे उन्हें ख़रीदें । गुरप्रीत ने छोटी हरप्रीत को उसकी किताबों के सेट से भरा सफ़ेद पॉलीथीन का विशाल झोला पकड़ाया तो वह बेचारी लड़खड़ा गई । बड़ी बहन ने छोटी को निर्देश दिया, "दूसरे हाथ से झोले को नीचे से सहारा दो वरना यह फट जा सकता है ।" छोटी ने अपनी मुंडी हिलाई और आज्ञा का पालन किया । बड़ी ने अब अपनी किताबों का भारी सेट एक हाथ से संभाला । दूसरे हाथ को कोहनी से मोड़ कर अपनी कलाई से उसने पहले हाथ में थामे झोले को नीचे से सहारा दिया । ऐसा उसे इसलिये करना पड़ा क्योंकि उसने दूसरे हाथ कि उँगलियों में एक हल्का झोला लटकाया हुआ था जिसमें ख़रीदी हुयी तमाम किताबों पर जिल्द सजाने के लिये कवर के कई गोले, लेबल के कई-कई पत्ते, पेन-पेंसिल, कम्पास बॉक्स, रँग, गोंद, टेप, कैंची जैसी नाना प्रकार की वस्तुएँ भरी थीं । यानी दोनों लड़कियाँ साल भर का स्कूली बोझ ढो कर, अपने घर को चलीं । गुरप्रीत की जेब में अब भी कुछ सौ की नोट और खुले रूपये पड़े थे । परन्तु उसे उनकी लेश मात्र परवाह न रही थी कि वे हवा में उड़ जाएँगे या जेब से गिर जाएँगे। उसका पूरा ध्यान अब किताबों की सेट पर था, किताबें हवा में न उड़ पातीं लेकिन यह मानो तय जान पड़ता था कि वे किसी भी क्षण झोलों की तल को फाड़ते हुये भरभरा कर जमीन पर ढेर हो जाएँगी । गुरप्रीत को ख़ासतौर से हरप्रीत पर बिल्कुल भरोसा नहीं था । छोटी ने किताबें गिर-गिरा दीं तब भी सरे राह तमाशा बड़ी का ही बनना था । इस भय से बड़ी, छोटी को डाँटते-फटकारते चलने लगी।






बेबात डाँटने-फटकारने का जो असर डाँटने-फटकारने वाले पर तथा डाँटे-फटकारे जाने वाले पर होता है, वही दोनों पर हुआ...यानी दोनों का मूड भारी रूप से ख़राब ! जिस इमारत के बाहर वे निकलीं उस से स्कूल के बाहरी गेट का फ़ासला बहुत ज़्यादा लम्बा है। पहले पार्किंग लॉट पार करना होता है, फिर बोगनबेलिया से लदे स्टाफ़ क्वार्टर्स, फिर आती है पॉलिटेक्निक की भीतरी सड़क, फिर आयेगा गुलाबों से घिरा लॉन वाला विशाल बग़ीचा, पुन: पॉलिटेक्निक का पार्किंग लॉट ...और तब जा कर कहीं आयेगा स्कूल का फाटक ! दिन का एक बजे का वक़्त है । सूरज आसमान से धरती की ओर आग के रेले छोड़ रहा है । लॉन की घास जगह-जगह से झुलस कर पीली पड़ रही है, देसी ख़ुशबूदार गुलाब के पौधे सूखी झाड़ियाँ बन कर रह गये हैं। नि:संदेह यह माली के परीक्षा के दिन हैं । तपती हुयी सड़क पर बहनें अपना-अपना बोझ उठाये भारी क़दमों से बढ़ी जा रही हैं । माथे और गर्दन पर से अनवरत चुहचुहाता पसीना उनकी पीठ की घमौरियों को जला रहा है। उनकी साँसें फूल रही हैं, चेहरा लाल भभूका हो गया है। झोला उठाने से उनकी पसीने भरी हथेलियाँ दर्द से तड़-तड़ा रही हैं । ओफ्फ...वे किस पचड़े में पड़ गयीं? अभी तो स्कूल का फाटक ही दूर है तिस पर घर तक का रास्ता और ! स्कूल-कॉलेज के छुट्टी के दिनों में सवारी मिलने की कोई गुंजाईश नहीं, ऐसे में भला फ़्लाई ओवर के नीचे सवारी वालों को कौन ग्राहक मिलेगा जो वे इधर खड़े रहें ? हरप्रीत की हर रोनी ठुनक पर गुरप्रीत के जबड़े भींच जाते । हर बूँद ताक़त महत्व रखती थी वरना वह  छोटी को ज़रूर पीट देती ।

स्कूल का ऊँचा और चौड़ा फाटक आ गया । यह क्या ! सामने ही फ़्लाई ओवर की छाँव में दुबका एक पुराना सायकल-रिक्शा सुस्ता रहा है । उसका मालिक पिछली सीट पर गुड़-मुड़ाया लेटा ऊँघ रहा है । इस अप्रत्याशित दृश्य को देख, दोनों बहनें किलक उठीं । वे बची-खुची शक्ति जोड़ कर जल्दी-जल्दी चलने लगीं। वे डर रही थीं कि कहीं कोई अन्य उनसे पहले रिक्शा वाले के पास न पहुँच जाये हालाँकि इसकी संभावना न के बराबर थी । रिक्शा के पास बढ़ते हुये वे असमंजस में पड़ गयीं । इतनी गंदी रिक्शा ? उन्हें याद न आया पिछली बार वे कब किसी रिक्शा पर बैठीं थीं । हरप्रीत तो अवश्य ही कभी न बैठी होगी । उनकी आहट पा कर ऊँघता हुआ रिक्शा वाला उठ बैठा । उसने उन्हें भावहीन नज़रों से देखा । वह एक मैला-कुचैला सा बूढ़ा था। उसके शरीर पर पूरे कपड़े भी न थे । जो थे उन्हें गुदड़ी कहना सही होगा । जीवन भर की मशक़्क़त ने बूढ़े की टाँगों को टेढ़ा कर दिया था । उसकी देह पर चिड़िया बराबर भी माँस न था, वह तो बस एक चमड़ा चढ़ा कँकाल था । बूढ़े की तरह ही उसकी रिक्शा की ग़ुरबत का भी पारावार न था । उसकी रंग उड़ी सीट टेढ़ी धँसी हुयी तथा जगह-जगह से फटी-नुची हुयी थी, छज्जे की कमानी टूट गयी थी, रिक्शा डगमगाता सा था । गुरप्रीत सोच में पड़ गयी । उसने छोटी को देखा, उसकी आँखों में याचना देखी । छोटी की क्या बात, किताबें उठा कर वह ख़ुद चार क़दम चलने की हालत में नहीं थी । गुरप्रीत ने अपना पता बता कर बूढ़े से पूछा,
"हमें ले जाने का क्या लोगे ?"
 बूढ़ा बोला, "बी: रूपये ।"
लेकिन गुरप्रीत को यह 'ती:' सुनाई दिया ।
उसने कहा, "नहीं-नहीं तीस तो बहुत होते हैं । बीस का रेट है, हम बीस देंगे।"
बूढ़े की भावशून्य आँखें झपकीं, वह दुहराया, "बी: रूपये ।" अब गुरप्रीत को शुबहा हुआ कि उस से कोई गफ़लत हुयी है । बात पक्की ठहराने के लिये उसने ज़ोर दे कर कहा, "बीस लेना।" बूढ़ा ख़ामोश रहा, उसने अपनी रिक्शा का रूख सीधा किया और लड़कियों के बैठने का इंतजार करने लगा। उसी पल लड़कियों का ध्यान कुछ दूरी पर फ़्लाई ओवर के अगले स्तंभ की ओट में खड़े गन्ने के रस के ठेले पर गया । वे अपना भारी सामान रिक्शा पर लाद चुकी थीं। गरमी, मेहनत और बहते पसीने के मारे उन्हें बड़ी ज़ोर की प्यास लग आई थी। "भट्-भट्-भट्-भट्..." ख़ाली चलती हुयी गन्ने के रस की मशीन के स्वर ने उसे कई गुना भड़का दिया । दोनों बहनें एक दूसरे को देख कर हँसीं फिर हुलस कर रस के ठेले के दिशा में बढ़ीं। रिक्शा वाला बिना कुछ बताये समझ गया । वह किताबों-लदा रिक्शा हाथ से खींचते हुये उनके साथ चल दिया । उनको अपनी ओर आता देख कर रस वाला मुस्तैद हो गया । वह पुराना था और गरमियों में वर्षों से उसी स्थान पर अपना ठेला खड़ा करते आ रहा था । उसने गन्ने की सोंटियाँ निकालीं और उन्हें चलती मशीन में ठूँसने लगा। छन्नी लगी देगची में सुनहरे रस का फेनदार प्रपात हुआ । जब गन्ने वाले ने वही गन्ना दुहरा कर मशीन में घुसाया तब गुरप्रीत ने कुछ सोच कर कहा, "भइया दो नहीं, तीन गिलास देना। एक इन्हें भी।" उसने रिक्शावाले की तरफ इशारा किया । कहना ग़लत न होगा कि वह मन में कुछ अफ़सोस के साथ 'बी: से ती:' का हिसाब लगा चुकी थी फिर भी उसे लगा कि बूढ़े को रस पिलाना चाहिये । उसने बूढ़े की तरफ़ देखा । वह यह बात सुन-समझ कर भी निर्विकार खड़ा था। उसके चेहरे पर कृतज्ञता का निशान न था। बच्ची को यह उम्मीद न थी । उसने अपनी कृपा का सिला न पा कर किंचित् हताशा ज़रूर महसूस की होगी ।


रसवाले ने बर्फ़ के टुकड़ों डले, रस से लबालब भरे काँच के दो गिलास बच्चियों की ओर बढ़ाये। वे उन्होंने ले लिये। फिर उसने वैसा ही एक गिलास बूढ़े रिक्शावाले को थमाया, वह उसने ले लिया। थोड़ी देर में बच्चियों ने अपने गिलास ख़ाली कर, ठेले की मेज़ पर रख दिये और गुरप्रीत ने रसवाले को तीन गिलास रस के हिसाब से तीस रूपये थमाये। रसवाले ने मुस्कुरा कर रूपये अपने पास रख लिये । तभी रिक्शा वाले ने अपने गिलास का रस ख़त्म कर, उसे उन दो ख़ाली गिलासों के पास रख दिया । वे लोग रिक्शा के तरफ़ मुड़े ही थे कि न जाने उस पल कैसी अनहोनी घटी ? -
रसवाला एकदम से दहाड़ा, "साला, साहब हो गया तू ! ये तेरे गिलास रखने की जगह है भैण...?"
 उसने दन्न से गाली दी। बच्चियाँ सकपका कर खड़ी रह गयीं । बूढ़ा रिक्शावाला आँखें झुकाये अपने टेढ़े पैरों पर चलता हुआ गया और उसने अपना गिलास उठा कर पानी गिरने से गीली हो आई जमीन पर उतार दिया ।
वह उठने को ही था कि रसवाले ने उसे फिर गालियों से नवाज़ा
, "...तेरा जूठा गिलास कौन धोयेगा बे ?"
 रिक्शा वाले ने फिर से अपना गिलास उठा लिया और रसवाले के दिखाये पीपे से पानी ले कर उसे धोने लगा । दोनों बहनें अवाक् देखते रहीं, उन्हें यह बात बहुत नागवार गुज़री । बूढ़े की कोई ग़लती न थी । उन्होंने बूढ़े रिक्शावाले के रस के पैसे दिये थे । इस तरह बूढ़ा उनका मेहमान हुआ । रसवाला सरासर बदतमीज़ी कर रहा है । उन्हें बूढ़े के सम्मान की रक्षा करनी चाहिये । परन्तु कैसे...? छोटी अपने से बड़ी का मुँह ताक रही थी कि बहन ज़रूर कुछ करेगी या कहेगी लेकिन बड़ी की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? समझ में न आने वाली गालियाँ सुन कर वह सहम गई है । यह अधेड़-उम्र, चौड़ी शक्ल और मूँछों वाला आदमी जो अक्सर आसमानी रँग का पुराना पठानी सूट और एक मोहक मुस्कान पहने रहता है, जिसे उन्होंने कभी विनम्रता से डिगते नहीं देखा, उसका यह ख़ौफ़नाक रूप ? गुरप्रीत ने कई बार रसवाले को टोकने के लिये मन में कहने की बात सोची लेकिन हर बार उसकी हिम्मत जवाब दे गयी । वह खड़ी देखती ही रह गयी । रसवाले ने डाँट कर बूढ़े से लड़कियों के गिलास भी धुलवाये । लड़कियों के सिर झुक गये । बूढ़ा वैसी ही भावशून्यता से हाथ चला रहा था मानो यह प्रकरण निबटे तो वह रिक्शा पर लौटे । जैसे भावशून्यता ही उसकी गुरबत का कवच हो । लड़कियाँ भारी क़दमों से चलती हुयीं रिक्शे पर चढ़ कर बैठ गयीं ।









स्कूल को खुले बहुत दिन हो चले हैं । जैसा कि स्कूलों में होता है, हर सुबह असंख्य तादाद में बच्चे वहाँ हाजिर होते हैं । हर उम्र, बड़ाई और छोटाई के लड़के-लड़कियाँ...हर सुबह वे नये-पुराने, धुले, कलफ़-प्रेस लगी वर्दियाँ पहन कर स्कूल आते हैं जो छुट्टी की घंटी बजने से काफ़ी पहले ही पसीने और धूल से तरबतर हो कर गंदी हो जाती हैं । प्रत्येक कमरे में लगभग पचास बच्चे बैठते हैं, उनकी देह उमस से छीजती रहती है । स्कूल में ऐसे कई-कई कमरे हैं, तब सब कमरों में कितने बच्चे होंगे ? वे पढ़ते हैं, खेलते हैं, लड़ते हैं, सज़ा भी पाते हैं । स्कूल की छुट्टी होने पर इन लड़के-लड़कियों का हुजूम रस वाले के ठेले पर मानो टूट पड़ता है । कई बच्चे अपना गला तर किये बगैर घर जाने वाली बस या अॉटो पर नहीं चढ़ना चाहते, वे अपनी सायकल या स्कूटर को आगे ही नहीं बढ़ाना चाहते । बहनें गुरप्रीत और हरप्रीत इन सब से अलग हैं । पास ही रहने वाले बच्चों की तरह वे दोनों भी धूप में पैदल अपने घर लौटती हैं।  ठंडे मीठे रस को पीने की कल्पना उन्हें लुभाती है । उनकी सहेलियाँ रूक जाती हैं परन्तु वे कभी नहीं ठिठकतीं । प्यास उन्हें भी लगती है, दोनों के कंठ सूख रहे होते हैं । लेकिन  वे रस के ठेले की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखतीं हैं । हू-हू कर दोपहर की लू धूल के बगुले उड़ाती है । ऐसे में दो प्यास की पुतलियाँ चलती रहती हैं, उनके पीछे उनकी अनमनी छाया सड़क पर घिसटती जाती है...। वह बूढ़ा रिक्शावाला जिसकी ग़ुरबत का पारावार नहीं, कभी नहीं जान पायेगा कि लड़कियाँ उसके अपमान का बदला लेती हैं, रोज़ ।
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1 टिप्पणी:

  1. बहुत सरल और मार्मिक कहानी. शब्दों का इतना सुन्दर निर्वाह करतेे हुए कहानी को बाँधे रखने के लिये पल्लवी जी को बधाई. अन्तिम दो पंक्तियाँ बहुत भावुक कर देती हैं.

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