सुरेन्द्र कुमार की कविताएँ
कविताएँ
वे जो होते हैं शिकार
किसी हिंसा के
नहीं करते पसंद
किसी प्रकार की हिंसा को
वे जिन पर
टूटती हैं मुसीबतें
नहीं टूटते कभी
किसी पर
मुसीबत बनकर
प्रेम
रहता है कोसों दूर
प्रेमीजनों से |
माँ
माँ खूब काम करती है
जितना घर में, उतना ही बाहर भी
वह कभी बात नहीं करती हमसे
अपनी थकान के बारे में
हम नहीं महसूसते वह दर्द
जो माँ के घुटनों में होता होगा
कोठी की सीढियां चढते-उतरते हुए
.
रात के तीसरे पहर
जब मैं खोल रहा होता हूँ
किसी जटिल कविता को?
ठीक इसी समय
ज़मीन पर सो रही माँ के मुँह से
फूटती है,
एक बेसुध,बेचारी कविता
'हे भगवान'
दो शब्दों की ऐसी कविता
जिसके अर्थ की व्याख्या
खुद, भगवान भी नहीं कर सकता |
वर्षा से पहले..
चटक सी गई है
कहीं-कहीं से धरती
चिलचिलाती धूप के कारण
खाट पर लेटे बाबा, हथपंखा डुलाते-डुलाते
पेड़ को भी,बेवफ़ा का तमगा दे चुके हैं
भयंकर उमस के बीच
पलायन कर रही हैं चीटियाँ,अंडो को लेकर
एक कतार में
दिखने लगा है
कुएं की सतह का पथरीला हिस्सा
मटमैले पानी के बीच
अब तो बस इंतजार है
जब अचानक उमड़-घुमड़ कर
सर्प्राइज देंगे बादल
गिरेंगी बताशे माफ़िक बूँदें
माँ के मना करने पर भी
कपडो को उतार फेंक,भाग खडे होंगे चुन्नू, छोटू और छोटी मुनिया भी
धमाचौकडी मचाते फिरेंगे, पूरे मोहल्ले में
इधर-उधर भागेंगे
कुत्ते,बिल्ली,मुर्गे-मुर्गियाँ सब
उतर जायेगी मिट्टी पत्तों से
और फबने लगेगा आसमान में
इंद्रधनुष!
बस थोडा इंतजार और
पहुँच जायें चीटियाँ सही स्थान पर
समेट ले अपनी दुकान को
चीज वाली अम्मा
सम्भाल ले ज़रा चिडिया अपना घोंसला
और फिर
दे दनादन, दे झमाझम..!
लंच में...
घर्राती मशीनों को बंद कर
उसने कनपटी से बँधे कपडे को खोला
और बुरादे से ढंपे बाजुओं को झाडता हुआ
जर्जर ईमारत की सीढी उतर
पहुँच गया 'वर्मा टी-स्टाल'
क्योंकि वह जानता है कि
"चाय पीने से भूख मरती है"
बीच सड़क में..
टक्कर.....
वह उठा, जीन्स झड़काई
कुछ गालियाँ उड़ेलीं
ताव में आकर दो जड़ भी दिये
और
बुलेट से भट-भट पटाखे फोड़ते हुए
छूमंतर
.
इधर ये
पहले साईकिल का टेढा पहिया सम्भाले
या, सड़क पर छितर गये
टिफिन को समेटे
या
खून से भलभलाती नाक को
गमछे से दबाऐ
आप ही बताओ
इसे पहले क्या करना चाहिये?
दिल्ली के दुख...
कई साल पहले तुम्हारी तरह
हमें भी बड़ी सुखी नज़र आई थी दिल्ली
अपना सारा दुख बाँधकर
हम निकले थे अपने घर से दिल्ली की ओर
आज कई साल बाद जब सुनता हूँ लोगों के मुँह से
कि दिल्ली कहने को दिल्ली है
मगर रहने को दलदल
तो कसम से मुझे ख़ुद से ज्यादा
दिल्ली की ही चिंता होती है.
मुझे याद है मैं अंतिम बार घर कब गया था
उस दोपहर जब ऊँघती
बस की पिछली सीट पर
झपकी ली थी मैंने
और लौटा तो खुद को पसीने से तर पाया था.
सच ही तो है पिछले कई सालों से
अपनी जवानी का अधिकांश समय
मैं बसों के पीछे भाग-भागकर खपा रहा हूँ
इस पराये शहर में बार- बार लोगों से मिलने की इच्छाएं व्यक्त करता हुआ
मैं पाता हूँ कि इस बार भी
मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगा
12 घंटे का सफ़र तय किया था हमने दिल्ली पहुँचने के लिये
मगर किसी से पूछो कि और कितना सफ़र तय करना पड़ेगा दिल्ली से निकलने के लिये
तो वह ताकता रह जाता है मेरा मुँह.
बावजूद तमाम शिकायतों के
मैं यही कहना चाहूँगा
जब हम कहीं के नहीं रहे थे
तब दिल्ली ने बनाई थी थोड़ी सी जगह हमारे लिये.
लोग भागे चले आते हैं दिल्ली अपने दुखों को लेकर
दिल्ली अपने दुख लेकर किधर जाये.
तुम्हारे प्रेम में..
मैं चाहता तो टाँक सकता था,
तुम्हारा नाम,
अपने नाम के साथ
किसी ऐतिहासिक इमारत पर
या
गोद सकता था
किसी पेड़ की छाती पर
'अपनी' प्रेम-निशानी
.
लेकिन मेरी कोमल उंगलियाँ
समंदर किनारे फैली रेत को,
और खूबसूरत बनाना चाहती थीं
जहाँ
कुछ ही क्षणों के बाद
समाहित हो जाते 'हम'
एक अथाह
एक असीमता में!
सुरेन्द्र कुमार
ग्रेड्यूएशन तीसरे वर्ष की परीक्षा दी हैं।
कवि, अभिनेता, गायक।
साहित्यिक गतिविधियों में भागीदारी।
सुरेन्द्र कुमार |
कविताएँ
वे जो होते हैं शिकार
किसी हिंसा के
नहीं करते पसंद
किसी प्रकार की हिंसा को
वे जिन पर
टूटती हैं मुसीबतें
नहीं टूटते कभी
किसी पर
मुसीबत बनकर
प्रेम
रहता है कोसों दूर
प्रेमीजनों से |
माँ
माँ खूब काम करती है
जितना घर में, उतना ही बाहर भी
वह कभी बात नहीं करती हमसे
अपनी थकान के बारे में
हम नहीं महसूसते वह दर्द
जो माँ के घुटनों में होता होगा
कोठी की सीढियां चढते-उतरते हुए
.
रात के तीसरे पहर
जब मैं खोल रहा होता हूँ
किसी जटिल कविता को?
ठीक इसी समय
ज़मीन पर सो रही माँ के मुँह से
फूटती है,
एक बेसुध,बेचारी कविता
'हे भगवान'
दो शब्दों की ऐसी कविता
जिसके अर्थ की व्याख्या
खुद, भगवान भी नहीं कर सकता |
वर्षा से पहले..
चटक सी गई है
कहीं-कहीं से धरती
चिलचिलाती धूप के कारण
खाट पर लेटे बाबा, हथपंखा डुलाते-डुलाते
पेड़ को भी,बेवफ़ा का तमगा दे चुके हैं
भयंकर उमस के बीच
पलायन कर रही हैं चीटियाँ,अंडो को लेकर
एक कतार में
दिखने लगा है
कुएं की सतह का पथरीला हिस्सा
मटमैले पानी के बीच
अब तो बस इंतजार है
जब अचानक उमड़-घुमड़ कर
सर्प्राइज देंगे बादल
गिरेंगी बताशे माफ़िक बूँदें
माँ के मना करने पर भी
कपडो को उतार फेंक,भाग खडे होंगे चुन्नू, छोटू और छोटी मुनिया भी
धमाचौकडी मचाते फिरेंगे, पूरे मोहल्ले में
इधर-उधर भागेंगे
कुत्ते,बिल्ली,मुर्गे-मुर्गियाँ सब
उतर जायेगी मिट्टी पत्तों से
और फबने लगेगा आसमान में
इंद्रधनुष!
बस थोडा इंतजार और
पहुँच जायें चीटियाँ सही स्थान पर
समेट ले अपनी दुकान को
चीज वाली अम्मा
सम्भाल ले ज़रा चिडिया अपना घोंसला
और फिर
दे दनादन, दे झमाझम..!
लंच में...
घर्राती मशीनों को बंद कर
उसने कनपटी से बँधे कपडे को खोला
और बुरादे से ढंपे बाजुओं को झाडता हुआ
जर्जर ईमारत की सीढी उतर
पहुँच गया 'वर्मा टी-स्टाल'
क्योंकि वह जानता है कि
"चाय पीने से भूख मरती है"
बीच सड़क में..
टक्कर.....
वह उठा, जीन्स झड़काई
कुछ गालियाँ उड़ेलीं
ताव में आकर दो जड़ भी दिये
और
बुलेट से भट-भट पटाखे फोड़ते हुए
छूमंतर
.
इधर ये
पहले साईकिल का टेढा पहिया सम्भाले
या, सड़क पर छितर गये
टिफिन को समेटे
या
खून से भलभलाती नाक को
गमछे से दबाऐ
आप ही बताओ
इसे पहले क्या करना चाहिये?
दिल्ली के दुख...
कई साल पहले तुम्हारी तरह
हमें भी बड़ी सुखी नज़र आई थी दिल्ली
अपना सारा दुख बाँधकर
हम निकले थे अपने घर से दिल्ली की ओर
आज कई साल बाद जब सुनता हूँ लोगों के मुँह से
कि दिल्ली कहने को दिल्ली है
मगर रहने को दलदल
तो कसम से मुझे ख़ुद से ज्यादा
दिल्ली की ही चिंता होती है.
मुझे याद है मैं अंतिम बार घर कब गया था
उस दोपहर जब ऊँघती
बस की पिछली सीट पर
झपकी ली थी मैंने
और लौटा तो खुद को पसीने से तर पाया था.
सच ही तो है पिछले कई सालों से
अपनी जवानी का अधिकांश समय
मैं बसों के पीछे भाग-भागकर खपा रहा हूँ
इस पराये शहर में बार- बार लोगों से मिलने की इच्छाएं व्यक्त करता हुआ
मैं पाता हूँ कि इस बार भी
मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगा
12 घंटे का सफ़र तय किया था हमने दिल्ली पहुँचने के लिये
मगर किसी से पूछो कि और कितना सफ़र तय करना पड़ेगा दिल्ली से निकलने के लिये
तो वह ताकता रह जाता है मेरा मुँह.
बावजूद तमाम शिकायतों के
मैं यही कहना चाहूँगा
जब हम कहीं के नहीं रहे थे
तब दिल्ली ने बनाई थी थोड़ी सी जगह हमारे लिये.
लोग भागे चले आते हैं दिल्ली अपने दुखों को लेकर
दिल्ली अपने दुख लेकर किधर जाये.
तुम्हारे प्रेम में..
मैं चाहता तो टाँक सकता था,
तुम्हारा नाम,
अपने नाम के साथ
किसी ऐतिहासिक इमारत पर
या
गोद सकता था
किसी पेड़ की छाती पर
'अपनी' प्रेम-निशानी
.
लेकिन मेरी कोमल उंगलियाँ
समंदर किनारे फैली रेत को,
और खूबसूरत बनाना चाहती थीं
जहाँ
कुछ ही क्षणों के बाद
समाहित हो जाते 'हम'
एक अथाह
एक असीमता में!
सुरेन्द्र कुमार
ग्रेड्यूएशन तीसरे वर्ष की परीक्षा दी हैं।
कवि, अभिनेता, गायक।
साहित्यिक गतिविधियों में भागीदारी।
सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअच्छी बहुत सहज मगर गंभीर कविताएं।
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