दिनेश कुशवाह की कविताएँ
एक
ईश्वर के पीछे
(स्टीफन हाकिंग के लिए)
ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है।
इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है और,
सब कुछ देख रहा है।
बुद्ध के इतने दिनों बाद
अब यह बहस बेमानी है कि
ईश्वर है या नहीं है
अगर है भी तो उसके होने से
दुनिया की बदहाली पर
तब से आज तक
कोई फर्क़ नहीं पड़ा।
यों उसके हाथ बहुत लम्बे हैं
वह बिना पैर हमारे बीच चला आता है
उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती
अंधे की लकड़ी के नाम पर
वह बंदों के हाथ में लाठी थमा जाता है
और ईश्वर के नाम पर
धर्म युद्ध की दुहाई देते हैं
बुश से लेकर लादेन तक।
ईश्वर की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता
समान रूप से सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान
प्रभु प्रेम से प्रकट होता है पर
घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी झूठी कसमें खाने वालों को वह
लूला-लंगड़ा-अंधा नहीं बनाता
आदिकाल से अपने नाम पर
ऊँच-नीच बनाकर रखने वालों को
सन्मति नहीं देता
उसके आस-पास
नेताओं की तरह धूर्त
छली और पाखण्डी लोगों की भीड़ जमा है।
यह अपार समुद्र
जिसकी कृपा का बिन्दु मात्र है
उस दयासागर की असीम कृपा से
मजे में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों की तरह
जी रहे हैं गरीब।
ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
जैसे कोई उस पर जूता नहीं फेंकता
भृगु की तरह लात मारने का सवाल ही नहीं
उस पर कोई झुंझलाता तक नहीं
बल्कि लोग मुग्ध होते हैं कि
क्षीरसागर में लेटे-लेटे कैसी अपरम्पार
लीलाएं करता है जगत का तारनहार
दंगा-बाढ़ या सूखा के राहत शिविरों में गये बिना
मंद-मंद मुस्कराता हुआ
हजरतबल और अयोध्या में
देखता रहता है अपनी लीला।
उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता
सारे शुभ -अशुभ भले-बुरे कार्य
भगवान की मर्जी से होते हैं
पर कोई प्रश्न नहीं उठाता कि
यह कौन-सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी
तुम्हारे न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपा सिन्धु।
ईश्वर के पीछे मजा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार।
महाविलास और भूखमरी के कगार पर
एक ही साथ खड़ी दुनिया में
आज भले न हो कोई नीत्से
यह कहने का समय आ गया है कि
आदमी अपना ख़याल ख़ुद रखे।
दो
अनुत्तरित
अनुबन्धों की शर्त लगाकर
लौट गयीं तुम घर तक आकर
तब तो बहुत अकेली थीं तुम
अब कैसे रह पाती होंगी?
कभी आँख भर आती होगी
मन की व्यथा सताती होगी
पहले तुम दौड़ी आती थीं
अब किससे कह पाती होंगी?
जब कोई मिलता है तुम सा
मन हो जाता है ये गुम सा
मेरे जैसा कभी किसी को
तुम भी तो पा जाती होंगी?
तीन
पहाड़ लोग
अपना सबकुछ देते हुए
पूरी सदाशयता के साथ
शताब्दियों के उच्छेदन के बाद भी
बचे हैं कुछ छायादार और फलदार वृक्ष
नीच कहे जाने वाले परिश्रमी लोगों की तरह।
जिन लोगों ने झूले डाले इनकी शाखों पर
इनके टिकोरों से लेकर मोजरों तक का
इस्तेमाल करते रहे रूप-रस-गंध के लिए
जिनके साथ ये गर्मी-जाड़ा-बरसात खपे
यहाँ तक कि जिनकी चिताओं के साथ
जलते रहे ये
उन लोगों ने इन पर
कुल्हाड़ी चलाने में कभी कोताही नहीं की।
देश भर में फैले पहाड़
ये ही लोग हैं
जिन्हें हर तरह से
नोंचकर नंगा कर दिया गया है।
चार
महारास
प्रेम करना मैंने
अपने पुरखों से सीखा
यह कबीर से लेकर निराला
ग़ालिब से लेकर फै़ज
और उनके बाद के पुरखों की
एक लम्बी यात्रा थी।
शुरुआत मैंने
केदारनाथ अग्रवाल की कविता से की
प्रिया से कहा- ‘वंशी मत बजाओ
मेरा मन डोल रहा है।'
वह मोहिनी लेकर
डोलने लगी मेरे आस-पास
कहा- चलो !
सब कुछ छोड़कर नाचो मेरे साथ
मैं नाचने लगा
और नाच के सिवा सब कुछ भूल गया।
एक दिन मुझे उदास देखकर
उसने कहा- प्रिय मेरे लिए
एकान्त मत खोजो
सबके सामने प्रेमनृत्य ही महारास है।
मैंने उसे धन्यवाद दिया
त्रिलोचन की कविता से
कहा- ‘यूँ ही कुछ मुसकाकर तुमने
परिचय की यह गाँठ लगा दी।'
इतना ही क्या कम है
तुम्हारा ऋणी होने के लिए
भय-घृणा-हिंसा और बलात्कार भरे इस समय में
तुम्हारा होना ही अहोभाग्य है।
मैंने परिहास किया-
वैसे भी आज की हिन्दी कविता
एकान्त के अनुभव के मामले में बहुत दरिद्र है
लगता नहीं कि हम कालिदास के वंशज हैं।
उसने कहा-मैंने कुछ समझा नहीं
मैंने कहा-इसमें समझ में न आने वाली
कौन सी बात है?
उसने कहा-तुम नहीं समझोगे!
मैं जा रही हूँ
मैंने प्रेम को विदा किया
केदारनाथ सिंह की कविता से
कहा- जाओ
यह जानते हुए कि ‘जाना'
‘हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है।'
पांच
प्राणो में बाँसुरी
कितने दिन हुए
धूल में खेलते किसी बालक को
उठाकर गोद में लिए हुए।
मुद्दत हुई अपने हाथ से पकाकर
किसी को जी भर खिलाकर
अपनी आत्मा को तृप्त किये हुए।
कितने दिन हुए
हाथ से बंदूक छुए
जबकि वह मुझे अच्छी लगती है।
किसी जूड़े में फूल गूथे हुए
कितने दिन हुए
कितने दिन हुए
नदी में नहाये हुए।
कितने दिन हुए
न रोमांच हुआ
न जी टीसा
न प्राणो में बाँसुरी बजी।
कितने दिन हुए
न खुलकर रोया
न खुलकर हँसा
न घोड़े बेचकर सोया।
छ:
इतिहास में अभागे
इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिये गये
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिघाड़ना।
वे अभागे अब कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पीरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे अब
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।
सारे पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि
जिनकी पीठ पर बने वकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गये
और इस जुर्म में
टाँग दिये गये भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियां
जिनसे राजकुमारों ने प्रेम किया
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेवार की भाँति तैरते मिले।
इतिहास नायकों का भरण-पोषण
करने वाले इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश का नाम भारतवर्ष।
हमारी बहुएं और बेटियां
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को
उनके लिए नहीं कहते भारत माता।
सात
अंतिम इच्छा जैसा कुछ भी नहीं है जीवन में
जब हमें कुछ खोया-खोया सा लगता है
और पता नहीं चलता कि
क्या खो गया है
तो वे दिन जो बीत गये
दिल की देहरी पर
दस्तक दे रहे होते हैं।
वे दिन जो बीत गये
लगता है बीते नहीं
कहीं और चले गये
बहुत सारे अनन्यों की तरह
और अभी रह रहे हैं
इसी देश काल में।
जो बीत गया इस जीवन में
उसे एक बार और
छूने के लिये तरसते रहते हैं हम
बीते हुए कल की न जाने
कितनी चीजें हैं जिन्हें
हम पाना चाहते हैं उसी रूप में
बार-बार
नहीं तो सिर्फ एक बार और।
ललकते रहते हैं
उन्हें पाने के लिए हम
मरने से पहले
अंतिम इच्छा की तरह
और अंतिम इच्छा जैसा
कुछ भी नहीं है जीवन में।
आठ
शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है ?
मुझे गुस्सा आता है
अपने पिता, दादा, परदादा पर
कि वे इतने सीधे क्यों थे?
बाजुओं में बला की ताकत लेकर भी
वे बेचारे क्यों थे?
सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे जेहन में
आतंक की तरह छा जाता है
और मेरा गाँव, मेरा शहर
उसी आतंक में समा जाता है।
अप्रैल-मई महीने की
आंधी और बारिश से
सूख जाते हैं मेरे प्राण
हवा-बूँदाबादी के साथ
काँपने लगता है मेरा दिल
जबकि पूरा शहर निश्चिन्त होता है
घरों, पार्कों, रेस्तराओं और सिनेमाघरों में।
तब मेरे भीतर
मेरे गाँव का खलिहान
आम का बागीचा
त्राहिमाम कर रहा होता है।
मुझे बेतरह उदास कर जाती है
गर्मी की शाम
जाड़े और वर्षा की शाम से
एकदम अलग
प्रेयसी की तरह आती है गाँव की याद।
शहर मुझे नहीं रिझा पाता
उचटा मन गाँव में
भाग-भाग जाता है
जहाँ मैं बीनता था
बचपन में आम के टीकोरे
ढोता था गेहूँ
तोपता था भूसा।
मनाया करता था कि
क्यों नहीं होती हैं सिर्फ उजली रातें
जिनमें होता है
रास्ता चलने का सुभीता
आँगन में साग-भात खाने का मजा।
गर्मी की शाम
किसान के घर राशि आने का मौसम
मेरी प्रेमिका, मेरा गाँव
मुझे घेर लेते हैं
इस समय मैं
पूरा का पूरा गाँव में होता हूँ
अपने आपको दादा-परदादा की तरह
बलवान पाता हूँ।
तभी सर्कस की माया में
अपने आप को नाचते हुए पाता हूँ
देखता हूँ खतम हो गये बैल
समाप्त हो गई गायें
लापता हो रही हैं भैसें।
गर्मी भर खेत धूॅ-धूॅ जलते हैं
गन्ना-गेहूँ-आलू-प्याज सब हो गये
किसान से बेगाने।
फँसाने लिए के पंडित-मुल्ला-महाजन-नेता-अफसर सभी हैं
उजाड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर
सरकार तक है
बचाने के लिए कोई नहीं
किसान का बेटा लड़े अगर
तो नक्सली करार दिया जाता है।
क्यों हो गया है मेरा पौरुष अभिशापित
शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है?
सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे भीतर आतंक की तरह छा जाता है।
नौ
दिल को पहलू में सँभाले
दिल को पहलू में सँभाले एक ज़माना हो गया,
आप कहते हैं कि वो सपना पुराना हो गया।
जिसकी चौहद्दी में हर एक आदमी था आदमी,
जिसके चलते आँखवाला, हर सयाना हो गया।
बस गए दिल में हमारे सेठ मल्टीनेशनल,
बिलबिलाता भूख से, भाई बेगाना हो गया।
झूलते हैं लोग अब ख़ुद फाँसिओं पर खेत में,
देश की सरकार का, ये ताना-बाना हो गया।
शर्म तो जाती रही ऊपर से ऐसी नंगई,
माफियों डानों के घर में आजा जाना हो गया।
दस
सिवाय इश्क़ या कि
हुआ था जो भी, हुआ था, हुआ वो फिर न हुआ
इस शहर में तो मेरा कोई मुन्तज़िर न हुआ।
परीखाने से चले चांद के मुसाफ़िर का
क्या कोई दिल न हुआ, क्या कोई जिगर न हुआ।
हज़ार ख़्वाहिशों का दम निकल गया लेकिन
वो एक मकान जो अपना था, कभी घर न हुआ।
इश्क़ आदत नहीं फितरत है मेरी क्या कहिए
मेरे मिज़ाज़ का क़ायल वो सितमग़र न हुआ।
सिवाय इश्क़ या कि इंक़लाब करने के
दिले नादां पे किसी बात का असर न हुआ।
कमी नहीं है मेरे चाहने वालों की यहाँ
हँसी आती है कि उनमें कोई दिलबर न हुआ।
ग्यारह
हरिजन देखि
(हरिजन देखि प्रीति अति बाढ़ी - तुलसीदास )
खल गयी विपदा तो कहा राम राम
टल गयी विपदा तो कहा राम राम
कुछ हुआ गड़बड़ तो कहा राम राम
सपने में बड़-बड़ तो कहा राम राम।
बिसर गया काम तो बोले अरे राम
निकल गया काम तो बोल जै राम
मिले तो राम राम, चले तो राम राम
डकारे तो राम राम, सिधारे तो राम राम
बोली लगी तो राम राम, गोली लगी तो राम राम
जीवन-रेखा राम राम, सबमें देखा राम राम।
बूढ़े बच्चे, झूठे सच्चे, प्रेम से बोलो राम राम
जय श्री राम! हो गया काम।
पर जब सुना किसी का नाम
आगे पीछे लगा है राम
जैसे राम सजीवन राम
या बाबू जग जीवन राम
राम नाम की माला फेंकी
मुँह से निकला छी! छी! राम।
हरिजन देखा आँखें फूँटीं
करुना, दया, भलाई छूटी।
बारह
हर औरत का एक मर्द है
छलना कह लो, माया कह लो
नागिन, ठगिनि, दुधारी।
ढोल, गँवार, शूद्र पशु कह लो
कामिनि, कुटिल, कुनारी।।
डायन या चुड़ैल कह पीटो
अबला दीन बिचारी।
जहर पिलाओ, गला-दबावो
अथवा करो उधारी।।
सावित्री घर की मर्यादा
सतभतरी रसहल्या।
पति परमेश्वर की आज्ञा है
पत्थर बनो अहिल्या।।
यज्ञों में दुगर्ति करवाओ
जुआ खेलकर हारो।
प्रेम करे तो फाँसी दे दो
पत्थर-पत्थर मारो।।
बलि दे दो, ज़िन्दा दफ़नाओ
जले बहू की होली।
पतिबरता तो मौन रहेगी
कुल्टा है जो बोली।।
सती बने या जौहर कर ले
डूब मरे सतनाशी।
विधवा हो तो ख़ैर मनाओ
भेजो मथुरा-काशी।।
जाहिल-जालिम आक्रांता को
बेटी दे बहलाओ।
बेटे खातिर राज बचा लो
ख़ुद भी मौज उड़ाओ।।
कुँआ, बावली, पोखर, नदियाँ
मर सीतायें पाटीं।
किस करुणाकर, करुणानिधि की
वत्सल छाती फाटी।।
अपनी दासी उनकी बेटी
अपनी बेटी उनकी।
महाठगिनि ने पूछा मुझसे
ये माया है किनकी।।
उन मर्दों में मैं भी शामिल
फिर भी कहूँ तिखार।
हर औरत का एक मर्द है
लुच्चा, जबर, लबार।।
तेरह
छूना मन
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
छूता है ठंढ़ी हवा का झोंका
और हुलास से भर उठती हो तुम।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
नहाते समय छूता है पानी
और नहाकर तुम और सुन्दर हो जाती हो।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे भोर को छूती है सुनहली किरण
या जैसे तुम छूती हो अपने आपको
स्वयं पर मुग्ध होते हुए।
मैं नहीं चाहता छूना तुम्हें
जैसे तुम्हें
छूता है बगलगीर
या रास्ते की धूल
जो तुमसे चिपक जाती है
उस अनजान की तरह भी नहीं
जो कुण्डली मिलने पर
छूता है तुम्हें
और बना लेता है अपनी खेती।
चौदह
खजुराहो में मुर्तियों के पयोधर
पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं
इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में
रंग छा जाते हैं
मानो ये चंचल नैन
इन्हें जनमों से जानते थे।
मानो हृदय ही फूला फला है
अपनी सारी उदारता के साथ
काया के ऊपर
डाल पर पके बेल की आभा और गंध लेकर।
एक मद्धम सुनहरी आँच
फूटती है इनके चतुर्दिक
जैसे भोर के सुरमई संसार में
दिन निकलने से ठीक पहले
दिखता है लालटेन का प्रकाश वृत्त।
सम्मोहन से सुचिक्कन ये कांति के कोहिनूर
दिप रहे हैं हज़ार वर्षों से
ताम्बई दीपाधारों पर फूट पड़ने को तत्पर
प्रथम सद्यःप्रसूता के स्तनों जैसे
उन्नत-उज्ज्वल और वर्तुल।
मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है
जैसे बल खाती नदी का जल
हौले-होले गढ़ता है शालिग्राम
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिए हैं
नवनीत के बड़े-बड़े लोने
कि वे सदा वैसे ही बने रहें
न ढलें, न गलें
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत
इतने उदग्र ऐसे उद्धत
जैसे संसार भर में बननेवाली रंग-बिरंगी चोलियाँ
पाँव पोंछने के लिए हों।
इन्हें देखकर मन करता है
कहीं से कटोरा-भर केसर घोल लाऊँ
और धीरे-धीरे करूँ इन पर लेप
जैसे ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया जाता है
मनुहार कर किसी को चलूँ अपने संग
खूब आदर-सत्कार करूँ और पूछूँ
इन मंगलघटों में बसे
मनुष्य के प्राणों का रहस्य।
जिन दिनों आधी-आधी रात तक
चलती है पुरवाई
अमराइयों में अलसाई कोयल
बोलती है कुहु-कुहु
नारंगी का यह मदन-रस-माता बाग
अपनी आती-जाती हर साँस के साथ डोलता है।
मौसम की पहली बारिश के बाद
तत्क्षण जब निकलती है धूप
घटा और घाम में एकसाथ नहाये
वक्षों से उठते हैं वाष्प के फाहे
माघ की सुबह मुँह से निकली भाप की तरह
जैसे किसी सद्यःस्नाता की देह से
उठती हो निःशब्द कामनाओं की लौ।
एक सखी दूसरी से कहती है
सखी! अपने ये फूल देख रही हो
नंदन वन का पारिजात भी
इनके आगे कुछ नहीं है
जब तुम कुएँ में पानी भरने जाओगी
तो धरती के ये फूलगेंदे
पाताल तक महकेंगे।
इस पर्वत उपत्यका में कभी
मृगछौने के पीछे दौड़कर देखो
ललछौंही आँखों वाले ये खरगोश
अपनी जगह उछल-कूद की
कैसी प्रीतिकर युगल-बन्दी करते हैं।
सजते-सँवरते समय ये किसी व्याकुल छैला की तरह
उचक-उचकर आईने में झाँकते हैं
तब मन करता है प्रिय की पठायी मुंदरी की तरह
इन्हें हाथ में लेकर हियरा भर देखूँ।
गोमुख से निकली गंगा की तरह
कंचनजंघा के इन सुनहरे शिखरों से भी
फूटती है एक गंगोत्री
जिससे यह सारी धरती
दूधो नहा और पूतों फल रही है।
पंद्रह
बहेलियों को नायक बना दिया
जिन्होंने डगर-डगर, खेत-खलिहान
हर लिए कितनों के प्राण
जो घूम-घूम करते हैं
क्रौंचमादाओं का शिकार
वे एक हाथ में शस्त्र
और दूसरे हाथ में शाप लिए हैं
बपुरे निषाद और शबर तो
उनके चरणदास हैं।
ईश्वर सबसे बड़ा बहेलिया है
और दीन-हीनों को सताकर
मारने वाले उसके कृपापात्र।
क्षमा करें आदिकवि!
आजतक एक भी बहेलिया
नहीं हुआ अप्रतिष्ठित।
शिकारी राजा को अक्सर ऋषि
शाप नहीं देते
राजा हैं, जंगल हैं
राजा और जंगल दोनो हैं
इसलिए अजगर हैं।
कभी भूख के विरूद्ध
लूटेरे की भूमिका निभा चुके
आपसे अधिक कौन जानता है
उन कवियों के बारे में जिन्होंने
बहेलियों को नायक बना दिया।
जाल में चिड़िया फँसाने वाले
या जल में मछली मारने वालों को
व्याघ कहना
भुखमरों पर ज्यादती होगी
महाराज!
क्षमा करें आदिकवि!
आपसे अच्छा कौन जानेगा
उन लोगों के बारे में
जो शिकार को खेलना कहते हैं।
सौलह
विश्वग्राम की अगम अँधियारी रात
आजकल ईमानदार आदमी
कुर्सी में चुभती कील जैसा है
कोई भी ठोक देता है उसे
अपनी सुविधा के अनुसार
बहुत हुआ तो
निकालकर फेक देता है।
ईमानदार आदमी का हश्र देखकर
डर लगता है कि
बेईमानों की ओर देखने पर वे
आँखें निकाल लेते हैं ।
जिन लोगों का कब्जा है स्वर्ग पर
उनके लिए ईमानदार आदमी
धरती का बोझ है।
ईमानदार आदमी की खोज वे
संसार की सैकड़ा भर लड़कियों में
विश्व सुन्दरी की तरह करते हैं
और बना लेते हैं
अपने विज्ञापनों का दास।
इधर लोग
देह, धरम, ईमान बेचकर
चीजें खरीदना चाहते हैं
सच्चाई-नैतिकता पर लिखी किताब
लोकार्पित होती है
माफिया मंत्री के हाथों।
इतिहास के किस दौर में आ गये हम
कि सामाजिक न्याय के लिए आया
मुख्यमंत्री मसखरी के लिए
महान परिवर्तन के लिये आई नेत्री
हीरों के गहनों के लिए
इक्कीसवीं सदी के लिए आया प्रधानमंत्री
तोप के लिए
रामराज्य के लिए आया प्रधानमंत्री
प्याज के लिए
ईमानदारी का पुतला प्रधानमंत्री
घोटालों की सरकार के लिए।
और अच्छे दिनों का प्रधानमंत्री
सबसे बुरे दिनों के लिए जाना जायेगा।
सत्रह
कमाल है कहा कंवल भारती ने
उनसे स्वीकृति की भीख क्यों माँगें
उन्होंने पाँच सौ सालों तक
कबीर को कवि नहीं माना
आपको कवि होना था
तो जन्मना था उनके कुल में।
हम सबसे आदरपूर्वक
पढ़ते हैं उनकी पोथियाँ
पर सबसे अधिक घृणा
वे हमारे खिलाफ़ ही बांचते हैं।
हम सबसे अधिक झुककर
करते हैं उन्हें सलाम
पर उनके मन में सबसे अधिक
विद्वेष है हमारे प्रति।
युगों से हम उन्हें
देवता की तरह पूजते हैं
पर वे आज तक हमें
आदमी नहीं समझते।
हमारे खिलाफ़ जब उन्हें
कुछ भी नहीं मिलता तो वे
हमारी जाति पर अंगुली उठाते हैं
और फ़ौरन
अपनी जाति पर उतर आते हैं।
भाईचारे से शत्रुता है उनकी
उन्हें सिर्फ अनुचर चाहिए
उन्हें न बड़ा भाई पसंद है
न छोटा भाई।
अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखने वालों को
वे राक्षस घोषित कर देते हैं
इस मामले में वे
मौसेरे भाइयों को भी नहीं बख्शते।
उनके लिए दुश्मन पक्ष का
गद्दार भी कुलभूषण है
शरणागत चराचर द्रोही को
घोषित करते हैं परम साधु।
जिसका सपरिवार वध करते हैं
उस पर एहसान लादते हैं
कि हमने तुम्हें अपना रूप
और धाम प्रदान किया
तार दिया तुम्हें सपरिवार।
उन्होंने दान की महिमा से भर दिये पुराण।
गाय के नाम पर दे दे बाबा
गंगा के नाम पर दे दे बाबा
आग के नाम पर दे दे बाबा
नाग के नाम पर दे दे बाबा।
भिखारियों मुझे क्षमा करना
वे तुमसे बड़े भिक्षुक हैं
तुम्हें जूता साफ करने के लिए भी
नहीं बिठाएँगे अपने साथ।
अठारह
चुल्लू भर पानी का सनातन प्रश्न
अगर आपसे कोई पूछे कि
एक ऐसी फूहड़, बेढ़ंगी और कर्कशा
पत्नी के साथ
बाप रे बाप
कैसे निभाते हैं आप?
या कोई कहे कि
एक ऐसे उज्जड़, भोड़े और मूर्ख
पति के साथ
कैसे रहती हैं आप?
तो इसका उत्तर ‘आथातो ब्रह्म जिज्ञासा‘ से
अधिक कठिन है।
यहाँ ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ या ‘तत्वमसि‘
कहने से काम नहीं चलेगा।
कई बार छूद्र प्रश्नों में
सम्यताएँ छिपी होती हैं।
इधर कभी आपने गौर किया
कि दस-बीस रूपये का सामान
बेचने वाले
पाँच सौ या हज़ार का नोट देने पर
किस तरह झुँझला उठते हैं
या रुआँसे हो जाते हैं!
पानी तो आजकल हर जगह बिकता है
पर क्यों नहीं मिलता चुल्लू भर पानी
कई बार सरल प्रश्नों से
दर्शनों का जन्म होता है।
बड़ी-बड़ी बातें करने के आदी हम लोग
छोटे लोगों और छोटी बातों पर
ध्यान नहीं देते।
दुनिया को समझने के लिए
उलझे रहते हैं सनातन प्रश्नों में।
जैसे मैं कौन हूँ ? या क्या
प्रेम ईश्वर की तरह
अगम, अगोचर और अनिर्वचनीय है?
हम ग़ौर नहीं करते कि
कई बार सनातन प्रश्नों में
सनातन मूर्खताएं छिपी होती हैं।
उन्नीस
अच्छे दिनों का डर
(वीरेन डंगवाल के लिए)
एक दिन ऐसे ही
नहीं रहेंगे बाल
नहीं रहेंगे दाँत भी
आँखो की ज्योति धुँधली हो जायेगी
एक दिन मिट्टी में मिल जायेगी यह देह।
पर देश नहीं रहेगा
शून्य हो जायेगा संविधान
लोकतंत्र को लकवा मार जायेगा
सबके लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी
सोचकर डर लगता है।
जब जीवन के अंतिम सत्य से
डर नहीं लगता
तब छप्पन इंच सीने की हुंकार से
डर क्यों लगता है
जब अच्छे दिन आने वाले हैं
तब डर क्यों लगता है।
मेरे भाई!
मैं सीता और शम्बूक दोनों हूँ
मुझे रामराज्य से डर लगता है।
000
परिचय-
बहुचर्चित कवि दिनेश कुशवाह का जन्म सन् 1961 की 08 जुलाई को अयोध्या में हुआ। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के छोटे से ग्राम गहिला में बचपन बीता। स्नातक से लेकर पी-एच.डी. तक की शिक्षा-दीक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हुई।
आज की कविता के यशस्वी कवि। समकालीन हिन्दी कविता में सबसे अलग स्वर। रचनाकारों और पाठकों के बीच समान रूप से चर्चित। हिन्दी कविता के अध्येताओं और संघर्षों में लगे साथियों के आत्मीय कवि। कविताएँ हिन्दी की सभी शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं का अन्य भारतीय एवं विश्व भाषाओं में अनुवाद।
एक दशक तक साम्यवादी छात्र राजनीति के पूर्णकालिक कार्यकर्ता। महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन पर लम्बे समय तक शोधकार्य। खूब घुम्मकड़ी की। पत्रकारिता और अध्यापन के बीच बार-बार आवाजाही। पाँच वर्षों तक प्रसिद्ध पत्रिका ‘वसुधा‘ के सहायक सम्पादक रहे। सन् 1994 से रीवा में रूककर नौकरी। फिलहाल कविता को लोगों के बीच ले जाने के आंदोलन ‘‘अलावों के बीच मशाल की लौ पर कविता‘‘ को लेकर सक्रिय।
पेशे से प्राध्यापक और प्रखर वक्ता दिनेश कुशवाह के लिखे लेख, समीक्षाएँ तथा संस्मरण भी चर्चित रहे हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘आज भी खुला है अपना घर फूँकने का विकल्प‘ पर विद्वानों, पाठकों तथा आलोचकों द्वारा वागर्थ में सन् 2009 से 2010 तक हर अंक में लगातार बहस होती रही। आपकी राहुल सांस्कृत्यान तथा हरिशंकर परसाई एवं फ़ज़ल ताविश पर समीक्षात्मक पुस्तक प्रकाशित है।
संप्रति : हिन्दी विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (म.प्र.) के वरिष्ठ आचार्य एवं विभागाध्यक्ष तथा महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान केन्द्र ओरछा के निदेशक।
समीक्षात्मक सभी पुस्तक प्रकाशित हैं ।
फोन नं. - 09425847022, 09340730564
दिनेश कुशवाह |
ईश्वर के पीछे
(स्टीफन हाकिंग के लिए)
ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में है।
इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वास करते हैं कि
भगवान हर जगह है और,
सब कुछ देख रहा है।
बुद्ध के इतने दिनों बाद
अब यह बहस बेमानी है कि
ईश्वर है या नहीं है
अगर है भी तो उसके होने से
दुनिया की बदहाली पर
तब से आज तक
कोई फर्क़ नहीं पड़ा।
यों उसके हाथ बहुत लम्बे हैं
वह बिना पैर हमारे बीच चला आता है
उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती
अंधे की लकड़ी के नाम पर
वह बंदों के हाथ में लाठी थमा जाता है
और ईश्वर के नाम पर
धर्म युद्ध की दुहाई देते हैं
बुश से लेकर लादेन तक।
ईश्वर की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता
समान रूप से सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान
प्रभु प्रेम से प्रकट होता है पर
घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी झूठी कसमें खाने वालों को वह
लूला-लंगड़ा-अंधा नहीं बनाता
आदिकाल से अपने नाम पर
ऊँच-नीच बनाकर रखने वालों को
सन्मति नहीं देता
उसके आस-पास
नेताओं की तरह धूर्त
छली और पाखण्डी लोगों की भीड़ जमा है।
यह अपार समुद्र
जिसकी कृपा का बिन्दु मात्र है
उस दयासागर की असीम कृपा से
मजे में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों की तरह
जी रहे हैं गरीब।
ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
जैसे कोई उस पर जूता नहीं फेंकता
भृगु की तरह लात मारने का सवाल ही नहीं
उस पर कोई झुंझलाता तक नहीं
बल्कि लोग मुग्ध होते हैं कि
क्षीरसागर में लेटे-लेटे कैसी अपरम्पार
लीलाएं करता है जगत का तारनहार
दंगा-बाढ़ या सूखा के राहत शिविरों में गये बिना
मंद-मंद मुस्कराता हुआ
हजरतबल और अयोध्या में
देखता रहता है अपनी लीला।
उसकी मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता
सारे शुभ -अशुभ भले-बुरे कार्य
भगवान की मर्जी से होते हैं
पर कोई प्रश्न नहीं उठाता कि
यह कौन-सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त भी मेरी और पट्ट भी मेरी
तुम्हारे न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपा सिन्धु।
ईश्वर के पीछे मजा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार।
महाविलास और भूखमरी के कगार पर
एक ही साथ खड़ी दुनिया में
आज भले न हो कोई नीत्से
यह कहने का समय आ गया है कि
आदमी अपना ख़याल ख़ुद रखे।
दो
अनुत्तरित
अनुबन्धों की शर्त लगाकर
लौट गयीं तुम घर तक आकर
तब तो बहुत अकेली थीं तुम
अब कैसे रह पाती होंगी?
कभी आँख भर आती होगी
मन की व्यथा सताती होगी
पहले तुम दौड़ी आती थीं
अब किससे कह पाती होंगी?
जब कोई मिलता है तुम सा
मन हो जाता है ये गुम सा
मेरे जैसा कभी किसी को
तुम भी तो पा जाती होंगी?
तीन
पहाड़ लोग
अपना सबकुछ देते हुए
पूरी सदाशयता के साथ
शताब्दियों के उच्छेदन के बाद भी
बचे हैं कुछ छायादार और फलदार वृक्ष
नीच कहे जाने वाले परिश्रमी लोगों की तरह।
जिन लोगों ने झूले डाले इनकी शाखों पर
इनके टिकोरों से लेकर मोजरों तक का
इस्तेमाल करते रहे रूप-रस-गंध के लिए
जिनके साथ ये गर्मी-जाड़ा-बरसात खपे
यहाँ तक कि जिनकी चिताओं के साथ
जलते रहे ये
उन लोगों ने इन पर
कुल्हाड़ी चलाने में कभी कोताही नहीं की।
देश भर में फैले पहाड़
ये ही लोग हैं
जिन्हें हर तरह से
नोंचकर नंगा कर दिया गया है।
चार
महारास
प्रेम करना मैंने
अपने पुरखों से सीखा
यह कबीर से लेकर निराला
ग़ालिब से लेकर फै़ज
और उनके बाद के पुरखों की
एक लम्बी यात्रा थी।
शुरुआत मैंने
केदारनाथ अग्रवाल की कविता से की
प्रिया से कहा- ‘वंशी मत बजाओ
मेरा मन डोल रहा है।'
वह मोहिनी लेकर
डोलने लगी मेरे आस-पास
कहा- चलो !
सब कुछ छोड़कर नाचो मेरे साथ
मैं नाचने लगा
और नाच के सिवा सब कुछ भूल गया।
एक दिन मुझे उदास देखकर
उसने कहा- प्रिय मेरे लिए
एकान्त मत खोजो
सबके सामने प्रेमनृत्य ही महारास है।
मैंने उसे धन्यवाद दिया
त्रिलोचन की कविता से
कहा- ‘यूँ ही कुछ मुसकाकर तुमने
परिचय की यह गाँठ लगा दी।'
इतना ही क्या कम है
तुम्हारा ऋणी होने के लिए
भय-घृणा-हिंसा और बलात्कार भरे इस समय में
तुम्हारा होना ही अहोभाग्य है।
मैंने परिहास किया-
वैसे भी आज की हिन्दी कविता
एकान्त के अनुभव के मामले में बहुत दरिद्र है
लगता नहीं कि हम कालिदास के वंशज हैं।
उसने कहा-मैंने कुछ समझा नहीं
मैंने कहा-इसमें समझ में न आने वाली
कौन सी बात है?
उसने कहा-तुम नहीं समझोगे!
मैं जा रही हूँ
मैंने प्रेम को विदा किया
केदारनाथ सिंह की कविता से
कहा- जाओ
यह जानते हुए कि ‘जाना'
‘हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है।'
पांच
प्राणो में बाँसुरी
कितने दिन हुए
धूल में खेलते किसी बालक को
उठाकर गोद में लिए हुए।
मुद्दत हुई अपने हाथ से पकाकर
किसी को जी भर खिलाकर
अपनी आत्मा को तृप्त किये हुए।
कितने दिन हुए
हाथ से बंदूक छुए
जबकि वह मुझे अच्छी लगती है।
किसी जूड़े में फूल गूथे हुए
कितने दिन हुए
कितने दिन हुए
नदी में नहाये हुए।
कितने दिन हुए
न रोमांच हुआ
न जी टीसा
न प्राणो में बाँसुरी बजी।
कितने दिन हुए
न खुलकर रोया
न खुलकर हँसा
न घोड़े बेचकर सोया।
छ:
इतिहास में अभागे
इतिहास के नाम पर मुझे
सबसे पहले याद आते हैं वे अभागे
जो बोलना जानते थे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतों के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिये गये
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिघाड़ना।
वे अभागे अब कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके पसीने से जोड़ी गयी
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट
पर अभी भी हैं मिस्र के पीरामिड
चीन की दीवार और ताजमहल।
सारे महायुद्धों के आयुध
जिनकी हड्डियों से बने
वे अभागे अब
कहीं भी नहीं हैं इतिहास में।
सारे पुरातत्ववेत्ता जानते हैं कि
जिनकी पीठ पर बने वकिंघम पैलेस जैसे महल
वे अभागे भूत-प्रेत-जिन्न
कुछ भी नहीं हुए इतिहास के।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आते हैं वे अभागे बच्चे
जो पाठशालाओं में पढ़ने गये
और इस जुर्म में
टाँग दिये गये भालों की नोक पर।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी बच्चियां
जो राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गयीं
और जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास के नाम पर मुझे
याद आती हैं वे अभागी
घसिआरिन तरुणियां
जिनसे राजकुमारों ने प्रेम किया
और बाद में उनके सिर के बाल
किसी तालाब में सेवार की भाँति तैरते मिले।
इतिहास नायकों का भरण-पोषण
करने वाले इनके अभागे पिताओं के नाम पर
नहीं रखा गया
हमारे देश का नाम भारतवर्ष।
हमारी बहुएं और बेटियां
जिन्हें अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी राजा-सामंत या मंदिर के पुजारी के
साथ बितानी पड़ी
इस धरती को
उनके लिए नहीं कहते भारत माता।
सात
अंतिम इच्छा जैसा कुछ भी नहीं है जीवन में
जब हमें कुछ खोया-खोया सा लगता है
और पता नहीं चलता कि
क्या खो गया है
तो वे दिन जो बीत गये
दिल की देहरी पर
दस्तक दे रहे होते हैं।
वे दिन जो बीत गये
लगता है बीते नहीं
कहीं और चले गये
बहुत सारे अनन्यों की तरह
और अभी रह रहे हैं
इसी देश काल में।
जो बीत गया इस जीवन में
उसे एक बार और
छूने के लिये तरसते रहते हैं हम
बीते हुए कल की न जाने
कितनी चीजें हैं जिन्हें
हम पाना चाहते हैं उसी रूप में
बार-बार
नहीं तो सिर्फ एक बार और।
ललकते रहते हैं
उन्हें पाने के लिए हम
मरने से पहले
अंतिम इच्छा की तरह
और अंतिम इच्छा जैसा
कुछ भी नहीं है जीवन में।
आठ
शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है ?
मुझे गुस्सा आता है
अपने पिता, दादा, परदादा पर
कि वे इतने सीधे क्यों थे?
बाजुओं में बला की ताकत लेकर भी
वे बेचारे क्यों थे?
सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे जेहन में
आतंक की तरह छा जाता है
और मेरा गाँव, मेरा शहर
उसी आतंक में समा जाता है।
अप्रैल-मई महीने की
आंधी और बारिश से
सूख जाते हैं मेरे प्राण
हवा-बूँदाबादी के साथ
काँपने लगता है मेरा दिल
जबकि पूरा शहर निश्चिन्त होता है
घरों, पार्कों, रेस्तराओं और सिनेमाघरों में।
तब मेरे भीतर
मेरे गाँव का खलिहान
आम का बागीचा
त्राहिमाम कर रहा होता है।
मुझे बेतरह उदास कर जाती है
गर्मी की शाम
जाड़े और वर्षा की शाम से
एकदम अलग
प्रेयसी की तरह आती है गाँव की याद।
शहर मुझे नहीं रिझा पाता
उचटा मन गाँव में
भाग-भाग जाता है
जहाँ मैं बीनता था
बचपन में आम के टीकोरे
ढोता था गेहूँ
तोपता था भूसा।
मनाया करता था कि
क्यों नहीं होती हैं सिर्फ उजली रातें
जिनमें होता है
रास्ता चलने का सुभीता
आँगन में साग-भात खाने का मजा।
गर्मी की शाम
किसान के घर राशि आने का मौसम
मेरी प्रेमिका, मेरा गाँव
मुझे घेर लेते हैं
इस समय मैं
पूरा का पूरा गाँव में होता हूँ
अपने आपको दादा-परदादा की तरह
बलवान पाता हूँ।
तभी सर्कस की माया में
अपने आप को नाचते हुए पाता हूँ
देखता हूँ खतम हो गये बैल
समाप्त हो गई गायें
लापता हो रही हैं भैसें।
गर्मी भर खेत धूॅ-धूॅ जलते हैं
गन्ना-गेहूँ-आलू-प्याज सब हो गये
किसान से बेगाने।
फँसाने लिए के पंडित-मुल्ला-महाजन-नेता-अफसर सभी हैं
उजाड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर
सरकार तक है
बचाने के लिए कोई नहीं
किसान का बेटा लड़े अगर
तो नक्सली करार दिया जाता है।
क्यों हो गया है मेरा पौरुष अभिशापित
शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है?
सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे भीतर आतंक की तरह छा जाता है।
नौ
दिल को पहलू में सँभाले
दिल को पहलू में सँभाले एक ज़माना हो गया,
आप कहते हैं कि वो सपना पुराना हो गया।
जिसकी चौहद्दी में हर एक आदमी था आदमी,
जिसके चलते आँखवाला, हर सयाना हो गया।
बस गए दिल में हमारे सेठ मल्टीनेशनल,
बिलबिलाता भूख से, भाई बेगाना हो गया।
झूलते हैं लोग अब ख़ुद फाँसिओं पर खेत में,
देश की सरकार का, ये ताना-बाना हो गया।
शर्म तो जाती रही ऊपर से ऐसी नंगई,
माफियों डानों के घर में आजा जाना हो गया।
दस
सिवाय इश्क़ या कि
हुआ था जो भी, हुआ था, हुआ वो फिर न हुआ
इस शहर में तो मेरा कोई मुन्तज़िर न हुआ।
परीखाने से चले चांद के मुसाफ़िर का
क्या कोई दिल न हुआ, क्या कोई जिगर न हुआ।
हज़ार ख़्वाहिशों का दम निकल गया लेकिन
वो एक मकान जो अपना था, कभी घर न हुआ।
इश्क़ आदत नहीं फितरत है मेरी क्या कहिए
मेरे मिज़ाज़ का क़ायल वो सितमग़र न हुआ।
सिवाय इश्क़ या कि इंक़लाब करने के
दिले नादां पे किसी बात का असर न हुआ।
कमी नहीं है मेरे चाहने वालों की यहाँ
हँसी आती है कि उनमें कोई दिलबर न हुआ।
ग्यारह
हरिजन देखि
(हरिजन देखि प्रीति अति बाढ़ी - तुलसीदास )
खल गयी विपदा तो कहा राम राम
टल गयी विपदा तो कहा राम राम
कुछ हुआ गड़बड़ तो कहा राम राम
सपने में बड़-बड़ तो कहा राम राम।
बिसर गया काम तो बोले अरे राम
निकल गया काम तो बोल जै राम
मिले तो राम राम, चले तो राम राम
डकारे तो राम राम, सिधारे तो राम राम
बोली लगी तो राम राम, गोली लगी तो राम राम
जीवन-रेखा राम राम, सबमें देखा राम राम।
बूढ़े बच्चे, झूठे सच्चे, प्रेम से बोलो राम राम
जय श्री राम! हो गया काम।
पर जब सुना किसी का नाम
आगे पीछे लगा है राम
जैसे राम सजीवन राम
या बाबू जग जीवन राम
राम नाम की माला फेंकी
मुँह से निकला छी! छी! राम।
हरिजन देखा आँखें फूँटीं
करुना, दया, भलाई छूटी।
बारह
हर औरत का एक मर्द है
छलना कह लो, माया कह लो
नागिन, ठगिनि, दुधारी।
ढोल, गँवार, शूद्र पशु कह लो
कामिनि, कुटिल, कुनारी।।
डायन या चुड़ैल कह पीटो
अबला दीन बिचारी।
जहर पिलाओ, गला-दबावो
अथवा करो उधारी।।
सावित्री घर की मर्यादा
सतभतरी रसहल्या।
पति परमेश्वर की आज्ञा है
पत्थर बनो अहिल्या।।
यज्ञों में दुगर्ति करवाओ
जुआ खेलकर हारो।
प्रेम करे तो फाँसी दे दो
पत्थर-पत्थर मारो।।
बलि दे दो, ज़िन्दा दफ़नाओ
जले बहू की होली।
पतिबरता तो मौन रहेगी
कुल्टा है जो बोली।।
सती बने या जौहर कर ले
डूब मरे सतनाशी।
विधवा हो तो ख़ैर मनाओ
भेजो मथुरा-काशी।।
जाहिल-जालिम आक्रांता को
बेटी दे बहलाओ।
बेटे खातिर राज बचा लो
ख़ुद भी मौज उड़ाओ।।
कुँआ, बावली, पोखर, नदियाँ
मर सीतायें पाटीं।
किस करुणाकर, करुणानिधि की
वत्सल छाती फाटी।।
अपनी दासी उनकी बेटी
अपनी बेटी उनकी।
महाठगिनि ने पूछा मुझसे
ये माया है किनकी।।
उन मर्दों में मैं भी शामिल
फिर भी कहूँ तिखार।
हर औरत का एक मर्द है
लुच्चा, जबर, लबार।।
तेरह
छूना मन
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
छूता है ठंढ़ी हवा का झोंका
और हुलास से भर उठती हो तुम।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
नहाते समय छूता है पानी
और नहाकर तुम और सुन्दर हो जाती हो।
मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे भोर को छूती है सुनहली किरण
या जैसे तुम छूती हो अपने आपको
स्वयं पर मुग्ध होते हुए।
मैं नहीं चाहता छूना तुम्हें
जैसे तुम्हें
छूता है बगलगीर
या रास्ते की धूल
जो तुमसे चिपक जाती है
उस अनजान की तरह भी नहीं
जो कुण्डली मिलने पर
छूता है तुम्हें
और बना लेता है अपनी खेती।
चौदह
खजुराहो में मुर्तियों के पयोधर
पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं
इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में
रंग छा जाते हैं
मानो ये चंचल नैन
इन्हें जनमों से जानते थे।
मानो हृदय ही फूला फला है
अपनी सारी उदारता के साथ
काया के ऊपर
डाल पर पके बेल की आभा और गंध लेकर।
एक मद्धम सुनहरी आँच
फूटती है इनके चतुर्दिक
जैसे भोर के सुरमई संसार में
दिन निकलने से ठीक पहले
दिखता है लालटेन का प्रकाश वृत्त।
सम्मोहन से सुचिक्कन ये कांति के कोहिनूर
दिप रहे हैं हज़ार वर्षों से
ताम्बई दीपाधारों पर फूट पड़ने को तत्पर
प्रथम सद्यःप्रसूता के स्तनों जैसे
उन्नत-उज्ज्वल और वर्तुल।
मनुष्य का सबसे मुलायम अनुभव
छेनी और हथौड़ियों से तराशा गया है
जैसे बल खाती नदी का जल
हौले-होले गढ़ता है शालिग्राम
कलेजे से लगाकर शिलाखंड।
कलाकार हाथों ने पत्थरों में जड़ दिए हैं
नवनीत के बड़े-बड़े लोने
कि वे सदा वैसे ही बने रहें
न ढलें, न गलें
प्रगाढ़ आलिंगनों से अक्षत
इतने उदग्र ऐसे उद्धत
जैसे संसार भर में बननेवाली रंग-बिरंगी चोलियाँ
पाँव पोंछने के लिए हों।
इन्हें देखकर मन करता है
कहीं से कटोरा-भर केसर घोल लाऊँ
और धीरे-धीरे करूँ इन पर लेप
जैसे ज्योतिर्लिंग का अभिषेक किया जाता है
मनुहार कर किसी को चलूँ अपने संग
खूब आदर-सत्कार करूँ और पूछूँ
इन मंगलघटों में बसे
मनुष्य के प्राणों का रहस्य।
जिन दिनों आधी-आधी रात तक
चलती है पुरवाई
अमराइयों में अलसाई कोयल
बोलती है कुहु-कुहु
नारंगी का यह मदन-रस-माता बाग
अपनी आती-जाती हर साँस के साथ डोलता है।
मौसम की पहली बारिश के बाद
तत्क्षण जब निकलती है धूप
घटा और घाम में एकसाथ नहाये
वक्षों से उठते हैं वाष्प के फाहे
माघ की सुबह मुँह से निकली भाप की तरह
जैसे किसी सद्यःस्नाता की देह से
उठती हो निःशब्द कामनाओं की लौ।
एक सखी दूसरी से कहती है
सखी! अपने ये फूल देख रही हो
नंदन वन का पारिजात भी
इनके आगे कुछ नहीं है
जब तुम कुएँ में पानी भरने जाओगी
तो धरती के ये फूलगेंदे
पाताल तक महकेंगे।
इस पर्वत उपत्यका में कभी
मृगछौने के पीछे दौड़कर देखो
ललछौंही आँखों वाले ये खरगोश
अपनी जगह उछल-कूद की
कैसी प्रीतिकर युगल-बन्दी करते हैं।
सजते-सँवरते समय ये किसी व्याकुल छैला की तरह
उचक-उचकर आईने में झाँकते हैं
तब मन करता है प्रिय की पठायी मुंदरी की तरह
इन्हें हाथ में लेकर हियरा भर देखूँ।
गोमुख से निकली गंगा की तरह
कंचनजंघा के इन सुनहरे शिखरों से भी
फूटती है एक गंगोत्री
जिससे यह सारी धरती
दूधो नहा और पूतों फल रही है।
पंद्रह
बहेलियों को नायक बना दिया
जिन्होंने डगर-डगर, खेत-खलिहान
हर लिए कितनों के प्राण
जो घूम-घूम करते हैं
क्रौंचमादाओं का शिकार
वे एक हाथ में शस्त्र
और दूसरे हाथ में शाप लिए हैं
बपुरे निषाद और शबर तो
उनके चरणदास हैं।
ईश्वर सबसे बड़ा बहेलिया है
और दीन-हीनों को सताकर
मारने वाले उसके कृपापात्र।
क्षमा करें आदिकवि!
आजतक एक भी बहेलिया
नहीं हुआ अप्रतिष्ठित।
शिकारी राजा को अक्सर ऋषि
शाप नहीं देते
राजा हैं, जंगल हैं
राजा और जंगल दोनो हैं
इसलिए अजगर हैं।
कभी भूख के विरूद्ध
लूटेरे की भूमिका निभा चुके
आपसे अधिक कौन जानता है
उन कवियों के बारे में जिन्होंने
बहेलियों को नायक बना दिया।
जाल में चिड़िया फँसाने वाले
या जल में मछली मारने वालों को
व्याघ कहना
भुखमरों पर ज्यादती होगी
महाराज!
क्षमा करें आदिकवि!
आपसे अच्छा कौन जानेगा
उन लोगों के बारे में
जो शिकार को खेलना कहते हैं।
सौलह
विश्वग्राम की अगम अँधियारी रात
आजकल ईमानदार आदमी
कुर्सी में चुभती कील जैसा है
कोई भी ठोक देता है उसे
अपनी सुविधा के अनुसार
बहुत हुआ तो
निकालकर फेक देता है।
ईमानदार आदमी का हश्र देखकर
डर लगता है कि
बेईमानों की ओर देखने पर वे
आँखें निकाल लेते हैं ।
जिन लोगों का कब्जा है स्वर्ग पर
उनके लिए ईमानदार आदमी
धरती का बोझ है।
ईमानदार आदमी की खोज वे
संसार की सैकड़ा भर लड़कियों में
विश्व सुन्दरी की तरह करते हैं
और बना लेते हैं
अपने विज्ञापनों का दास।
इधर लोग
देह, धरम, ईमान बेचकर
चीजें खरीदना चाहते हैं
सच्चाई-नैतिकता पर लिखी किताब
लोकार्पित होती है
माफिया मंत्री के हाथों।
इतिहास के किस दौर में आ गये हम
कि सामाजिक न्याय के लिए आया
मुख्यमंत्री मसखरी के लिए
महान परिवर्तन के लिये आई नेत्री
हीरों के गहनों के लिए
इक्कीसवीं सदी के लिए आया प्रधानमंत्री
तोप के लिए
रामराज्य के लिए आया प्रधानमंत्री
प्याज के लिए
ईमानदारी का पुतला प्रधानमंत्री
घोटालों की सरकार के लिए।
और अच्छे दिनों का प्रधानमंत्री
सबसे बुरे दिनों के लिए जाना जायेगा।
सत्रह
कमाल है कहा कंवल भारती ने
उनसे स्वीकृति की भीख क्यों माँगें
उन्होंने पाँच सौ सालों तक
कबीर को कवि नहीं माना
आपको कवि होना था
तो जन्मना था उनके कुल में।
हम सबसे आदरपूर्वक
पढ़ते हैं उनकी पोथियाँ
पर सबसे अधिक घृणा
वे हमारे खिलाफ़ ही बांचते हैं।
हम सबसे अधिक झुककर
करते हैं उन्हें सलाम
पर उनके मन में सबसे अधिक
विद्वेष है हमारे प्रति।
युगों से हम उन्हें
देवता की तरह पूजते हैं
पर वे आज तक हमें
आदमी नहीं समझते।
हमारे खिलाफ़ जब उन्हें
कुछ भी नहीं मिलता तो वे
हमारी जाति पर अंगुली उठाते हैं
और फ़ौरन
अपनी जाति पर उतर आते हैं।
भाईचारे से शत्रुता है उनकी
उन्हें सिर्फ अनुचर चाहिए
उन्हें न बड़ा भाई पसंद है
न छोटा भाई।
अपनी बात दृढ़तापूर्वक रखने वालों को
वे राक्षस घोषित कर देते हैं
इस मामले में वे
मौसेरे भाइयों को भी नहीं बख्शते।
उनके लिए दुश्मन पक्ष का
गद्दार भी कुलभूषण है
शरणागत चराचर द्रोही को
घोषित करते हैं परम साधु।
जिसका सपरिवार वध करते हैं
उस पर एहसान लादते हैं
कि हमने तुम्हें अपना रूप
और धाम प्रदान किया
तार दिया तुम्हें सपरिवार।
उन्होंने दान की महिमा से भर दिये पुराण।
गाय के नाम पर दे दे बाबा
गंगा के नाम पर दे दे बाबा
आग के नाम पर दे दे बाबा
नाग के नाम पर दे दे बाबा।
भिखारियों मुझे क्षमा करना
वे तुमसे बड़े भिक्षुक हैं
तुम्हें जूता साफ करने के लिए भी
नहीं बिठाएँगे अपने साथ।
अठारह
चुल्लू भर पानी का सनातन प्रश्न
अगर आपसे कोई पूछे कि
एक ऐसी फूहड़, बेढ़ंगी और कर्कशा
पत्नी के साथ
बाप रे बाप
कैसे निभाते हैं आप?
या कोई कहे कि
एक ऐसे उज्जड़, भोड़े और मूर्ख
पति के साथ
कैसे रहती हैं आप?
तो इसका उत्तर ‘आथातो ब्रह्म जिज्ञासा‘ से
अधिक कठिन है।
यहाँ ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ या ‘तत्वमसि‘
कहने से काम नहीं चलेगा।
कई बार छूद्र प्रश्नों में
सम्यताएँ छिपी होती हैं।
इधर कभी आपने गौर किया
कि दस-बीस रूपये का सामान
बेचने वाले
पाँच सौ या हज़ार का नोट देने पर
किस तरह झुँझला उठते हैं
या रुआँसे हो जाते हैं!
पानी तो आजकल हर जगह बिकता है
पर क्यों नहीं मिलता चुल्लू भर पानी
कई बार सरल प्रश्नों से
दर्शनों का जन्म होता है।
बड़ी-बड़ी बातें करने के आदी हम लोग
छोटे लोगों और छोटी बातों पर
ध्यान नहीं देते।
दुनिया को समझने के लिए
उलझे रहते हैं सनातन प्रश्नों में।
जैसे मैं कौन हूँ ? या क्या
प्रेम ईश्वर की तरह
अगम, अगोचर और अनिर्वचनीय है?
हम ग़ौर नहीं करते कि
कई बार सनातन प्रश्नों में
सनातन मूर्खताएं छिपी होती हैं।
उन्नीस
अच्छे दिनों का डर
(वीरेन डंगवाल के लिए)
एक दिन ऐसे ही
नहीं रहेंगे बाल
नहीं रहेंगे दाँत भी
आँखो की ज्योति धुँधली हो जायेगी
एक दिन मिट्टी में मिल जायेगी यह देह।
पर देश नहीं रहेगा
शून्य हो जायेगा संविधान
लोकतंत्र को लकवा मार जायेगा
सबके लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी
सोचकर डर लगता है।
जब जीवन के अंतिम सत्य से
डर नहीं लगता
तब छप्पन इंच सीने की हुंकार से
डर क्यों लगता है
जब अच्छे दिन आने वाले हैं
तब डर क्यों लगता है।
मेरे भाई!
मैं सीता और शम्बूक दोनों हूँ
मुझे रामराज्य से डर लगता है।
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परिचय-
बहुचर्चित कवि दिनेश कुशवाह का जन्म सन् 1961 की 08 जुलाई को अयोध्या में हुआ। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के छोटे से ग्राम गहिला में बचपन बीता। स्नातक से लेकर पी-एच.डी. तक की शिक्षा-दीक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हुई।
आज की कविता के यशस्वी कवि। समकालीन हिन्दी कविता में सबसे अलग स्वर। रचनाकारों और पाठकों के बीच समान रूप से चर्चित। हिन्दी कविता के अध्येताओं और संघर्षों में लगे साथियों के आत्मीय कवि। कविताएँ हिन्दी की सभी शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं का अन्य भारतीय एवं विश्व भाषाओं में अनुवाद।
एक दशक तक साम्यवादी छात्र राजनीति के पूर्णकालिक कार्यकर्ता। महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन पर लम्बे समय तक शोधकार्य। खूब घुम्मकड़ी की। पत्रकारिता और अध्यापन के बीच बार-बार आवाजाही। पाँच वर्षों तक प्रसिद्ध पत्रिका ‘वसुधा‘ के सहायक सम्पादक रहे। सन् 1994 से रीवा में रूककर नौकरी। फिलहाल कविता को लोगों के बीच ले जाने के आंदोलन ‘‘अलावों के बीच मशाल की लौ पर कविता‘‘ को लेकर सक्रिय।
- श्रेष्ठ कवि कर्म के लिए वर्ष 1994 के ‘निराला-सम्मान‘ से सम्मानित। राजकमल से प्रकाशित कविता संग्रह ‘इसी काया में मोक्ष‘ को 2008 का ‘वागीश्वरी पुरस्कार‘ तथा 2010 का वर्तमान साहित्य ‘मलखान सिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार‘ प्रख्यात शायर शहरयार तथा विख्यात आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी के निर्णायक मण्डल ने प्रदान किया। सन् 2012 का ‘सावित्री सम्मान‘, सावित्री फाउडेशन वाराणसी तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग के संयुक्त तत्वाधान में प्रदान किया गया। अभी हाल फिलहाल सन् 2012 का ‘केदार सम्मान‘। वर्ष 2013 का ‘स्पंदनकृति सम्मान '। 2017 में दस वर्ष बाद दूसरा कविता संग्रह ' इतिहास में अभागे ' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित ।
पेशे से प्राध्यापक और प्रखर वक्ता दिनेश कुशवाह के लिखे लेख, समीक्षाएँ तथा संस्मरण भी चर्चित रहे हैं। उनकी प्रसिद्ध कविता ‘आज भी खुला है अपना घर फूँकने का विकल्प‘ पर विद्वानों, पाठकों तथा आलोचकों द्वारा वागर्थ में सन् 2009 से 2010 तक हर अंक में लगातार बहस होती रही। आपकी राहुल सांस्कृत्यान तथा हरिशंकर परसाई एवं फ़ज़ल ताविश पर समीक्षात्मक पुस्तक प्रकाशित है।
संप्रति : हिन्दी विभाग, अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा (म.प्र.) के वरिष्ठ आचार्य एवं विभागाध्यक्ष तथा महाकवि केशव अध्यापन एवं अनुसंधान केन्द्र ओरछा के निदेशक।
समीक्षात्मक सभी पुस्तक प्रकाशित हैं ।
फोन नं. - 09425847022, 09340730564
इस प्रगतिशील कवि को मेरा समर्थन है।इनके विचारों से मैं आधुनिक विचारों के प्रति प्रेरित हुआ।आभार।
जवाब देंहटाएंशानदार रचनाएँ।
जवाब देंहटाएंमै कोई हिंदी कविता का आलोचक या समालोचक नही हूँ. हा कविता लिखने पढने काशौकीन अवश्य हूँ।दिनेश जी मुझसे उम्र मे करीब पच्चीस वर्ष छोटे हैं किन्तु लेखन मे सतायु से भी अधिक बडे हैं।मै जीवविज्ञानी हूँ इस लिए कविता के.कलेवर पर कोई टिप्पणियां. करने.का साहस एवं अधिकारी भी.नहीं हूं।हालांकि मुझे इस बात का गौरव अवश्य है किमै भाई के साथ मैं उठता बैठता हूँ।बिजूका कीसम्पर्ण कविताओं को पढने केबाद इतना मैं अवश्य कहूंगा कि बघेल खँडधरती एवं रीवा ए.पी.एस.कोएक साहित्यिक दिनकर मिल जाने से हिन्दी साहित्य का विकास अवश्य होगा।बार बार शमश एवं शुभाशीष। गिरिश विन्धय कोकिल रीवा
जवाब देंहटाएंGood sir..ji
जवाब देंहटाएंIswar ke peeche to likh diya aapne....
Ab likhiye kon hai is iswar ke aAge.?
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जवाब देंहटाएंबहुत ही शानदार
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