चंद्रेश्वर की कविताएँ
चिरईं का दाना
(भोजपुरी अंचल की एक बहुश्रुत
और प्रसिद्ध लोककथा से प्रेरित
मेरी कविता )
चिरईं ने बहुत ही मशक्कत और मेहनत के बाद पाया था
दाल का एक दाना
वह दाना भी जा गिरा था
दुर्भाग्य से
एक खूँटे की दरार में
उसने दाना को दुबारा पाने के लिए
की पहले ख़ूब आरजू -मिन्नत
खूँटे से ही
पर जैसा कि ऐसे में
अक्सर होता है
वह खूँटा भी
बेईमान निकला
चिरईं पाने के लिए इंसाफ़
बढ़ी आगे और एक बढ़ई से कहा कि
खूँटे को दंडित करो
ताकि मिले मेरी मेहनत का दाना
जो अपने धारदार वसूले से
काट रहा था
गुट्ठल -गिरहदार लकड़ी
बढ़ई भी गया मुकर
फिर क्या था चिरईं ने
बिना देर किए
राजा के दरबार में लगाई गुहार
राजा ने भी बढ़ई को
बक़्श दिया
उसे दंडित करने की बात तो
बहुत दूर की बात थी
चिरईं राजा की फ़रियाद लेकर
रानी के पास गई
रानी भी चुप रहीं
राजा के नाम पर
चिरईं बहुत आक्रोश में थी
वह पहुँच गई फन काढ़े
गेहुँअन साँप के पास
कहा कि रानी ने इंसाफ़ नहीं किया
पूरा सुनाया पिछला क़िस्सा
कहा उससे कि रानी को डँसो
ताक़ि खुले राजा की
आँखों की पट्टी
मिले मेरा इंसाफ़
साँप भी सच में दोमुँहा ही
हुआ साबित
अनसुनी कर दी
चिरईं की बात
चिरईं अब पहुँची डंडे के पास
कहा उससे पिछला हाल
डंडे को कहा कि
मेरे साथ आओ
इंसाफ़ पाने की मुहिम में
हो जाओ शामिल
चलकर पीटो
फन काढ़े गेहुँअन साँप को
डंडा भी डरा हुआ था
बेबस था
था लाचार
किसी ताक़तवर या दबंग के इशारे पर ही
चलता था
करता था किसी पर
वार पर वार
इतने के बाद भी चिरईं
न रुकी
न विचलित हुई
न तनिक निराश
इंसाफ़ पाने की उसकी इच्छा
होती गयी बलवती
वह आगे
आग के पास गयी
और पूरा वृतांत सुनाकर
डंडे को भस्मीभूत कराना चाहा
पर आग में शेष नहीं बची थी
आग
आग के ख़िलाफ
चिरईं गयी समुद्र के पास
समुद्र चुप रहा
दिखा तटस्थ
चिरईं के पास राजा राम की तरह
तीर-धनुष नहीं था
कि वह डरता
चिरईं ने बिना विश्राम के
जारी रखा
अपना सफ़र इंसाफ़ का
वह विशालकाय श्यामवर्ण हाथी के पास
जाकर बोली
कि चलो सोख लो
बेईमान और जड़बुद्धि समुद्र को
जैसा कि चलन था
उस दौर में
किसी बेबस...
ग़रीब के लिए पाना इंसाफ़
था बेहद मुश्किल
हाथी भी भाग खड़ा हुआ ... तो
चिरईं गयी महाजाल के पास
महाजाल भी पड़ा रहा
निश्चेष्ट ...
अंत में थक -हारकर चिरईं गयी
एक निबल चूहे के पास
चूहा सहर्ष तैयार हो गया
बिना वक़्त गँवाये
कहा चलकर काटेंगे
महाजाल को
गुदरी -गुदरी बना डालेंगे
कमबख़्त को...
उसकी बता देंगे
औकात
फिर तो चूहे से डरकर
महाजाल ने कहा कि
छानेंगे विशालकाय श्यामवर्ण हाथी को
हाथी तैयार हुआ जब डरकर जाल से
सोखने को समुद्र
तो समुद्र ने कहा भयभीत होकर कि
चलो चिरईं चलकर बुझाते हैं
दुष्ट आग को
आग तैयार हुआ डरकर
जब डंडे को जलाने के लिए
तो डंडा तत्पर होकर निकल पड़ा
पीटने के लिए
गेहुँअन साँप को
गेहुँअन साँप ने डरकर पहले तो
प्रणाम किया
डंडे को
और निकल पड़ा राजमहल में
रनिवास की तरफ़
रानी को डँसने
रानी ने पहले तो चीखकर
साँप को
ठहरने के लिए कहा
और चिरईं को दिलाने इंसाफ़
पहुँची राजदरबार में
राजा ने कहा कि जब बात
इतनी संगीन है और
रानी को अचानक आना पड़ा
दरबार में तो वे ज़रूर बढ़ई को कहेंगे कि
जाकर अपने धारदार वसूले से
फाड़ दो खूँटा बाँस का
जिसमें फँसा है
चिरईं की मेहनत का दाना
दाल का
बढ़ई को देखते ही
भय से खूँटा तैयार हो गया
ख़ुद से फटने के लिए ...
इस तरह चिरईं ने पाया
अपना दाना मेहनत का
पाया इंसाफ़ ...
और फुर्र होकर निकल पड़ी
अपने घोंसले की तरफ़
जहाँ उसके चूजे
दाने के इंतज़ार में थे
भूख से होकर व्याकुल !
लोकगीत से रिश्ता
इस लोकगीत की
बहुत पुरानी धुन में
अब भी
ऐसा क्या है कि
जिसे गुनगुनाते
या गाते वक़्त
गला मेरा
भर आता है
टपक पड़ता है
लोर
लोचनों से
इस लोकगीत के
आखिरी चरण
वाक्य
या शब्द
तक जाते -जाते
भर उठता हूँ मैं
अद्भुत ताज़गी से
दर्द और उदासी में
डूबने के बावज़ूद
इस लोकगीत से
दर्द का
रिश्ता है
गहरा
लोक का
इस रिश्ते ने ही
होने नहीं दिया
जीने की बेहतर
लालसा को
निःशेष
कराल काल में
बियाबान में भी
इस लोकगीत की धुन को
समझना
उतरना है
गहरे लोक में
दुनिया के महान कवियों ने
लोकगीतों की धुनों को ही
आत्मसात कर रची
जो कविता
नए रंग और शिल्प में
नई अंतर्वस्तु के साथ
शामिल है उनके
नये राग में भी
अमरता की वहीं
बहुत ...
पुरानी धुन!
रोज़ बनती दुनिया
(कवि आलोकधन्वा पटना के लिए)
प्रतिरोध के तरीके होते हैं
हज़ार -हज़ार
एक नौनिहाल रो-रोकर
पटक-पटककर
अपना हाथ -पाँव
पालने या बिस्तर पर
करता है दर्ज़
विरोध
एक असहाय औरत
विलाप के साथ-साथ
पीट -पीटकर
अपनी ही कोमल छाती
अपने गुस्से का करती है इज़हार...
बद्दुआएँ देती है ...
सरापती है...
एक अपाहिज
बुदबुदाहट में गालियाँ
करता है शामिल
गोया प्रार्थना कर रहा हो
कोई कविता-कहानी लिखकर
नाटक खेलकर
कोई लाठी चलाकर
तो कोई बंदूक उठाकर
करता है प्रतिकार
ऐसे भी होते हैं कुछ लोग
जो बैठ जाते हैं
अनशन पर
जैसे ईरोम शर्मिला
जैसे महात्मा गाँधी
जैसे वो दुबली-पतली
पगली -सी दिखने वाली
लड़की
जिसे पुलिस ले गयी उठाकर ज़बरन
हॉस्पीटल
यूनिवर्सिटी कैंपस से
कुछ और हैं जो
निकालते ही रहते हैं
जुलूस
नारे लगाते हैं
हाथों में तख़्तियाँ लिए
कभी-कभी मशाल लिए
तो कभी-कभी
चुप रहकर भी
कभी-कभी होते हैं
धरने-प्रदर्शन
महापुरुषों की मूर्तियों के निकट
चौक-चौराहों पर
कभी-कभी तो
विरोध दर्ज़ करने की
इस लंबी प्रक्रिया में
ऊब और अवसाद के चलते
किसान कर लेते हैं
आत्महत्याएँ
बेरोज़गारी के दंश से पीड़ित
नौजवान कर लेते हैं
आत्मदाह
मेरे गाँव के एक दबंग के सामने
'आक् थू' कहकर
किया था प्रकट
अपना विरोध एकबार
एक कमज़ोर हैसियत वाले
इन्सान
कलकतिया दुसाध ने
किसी दबंग क्या
एक से बढ़कर एक
आततायी शासक का
उड़ाती है पब्लिक
मखौल
नकल या मिमिक्री कर
कई बार तो कुछ रंग
बन जाते हैं
प्रतिरोध की
सशक्त अभिव्यक्ति
अब इस
काला रंग को ही लीजिए
इनदिनों इससे
डरने लगी है
पुलिस -मिलिट्री के दम पर
चलने वाली
सरकारें भी
दुनिया के किसी कोने में
कोई ऐसा हिंसक
या क्रूर शासक नहीं
जिस पर न हँसा जा सके
लतीफे और चुटकुले गढ़कर
या सुनाकर
इस 'रोज़ बनती दुनिया' की
रीति ही निराली है |
शायद ही दूसरा
अभी -अभी तो सीखा
ककहरा
अभी-अभी तो रटा
पहाड़ा
अभी-अभी तो जाना
शब्दों को लिखना
सही वर्तनी के साथ
उच्चारना उन्हें
सही -सही
अभी-अभी तो
पढ़कर कविता
बेचैन हुआ कुछ
अभी-अभी तो
देखा खिलना
सुर्ख़ गुड़हल का
अभी-अभी तो
निकला
तलाश में
गूलर के फूल के
अभी-अभी तो
दिखी
मुस्कान मुझे
एक मासूम बच्चे के
चेहरे पर
अभी-अभी तो पहचाना
बैनीआहपीनाला
के सात रंगों को
अभी-अभी तो
समझ पाया मैं
आपकी दुरभिसंधि
अभी-अभी तो
जान पाया मैं
उड़ते पहाड़ी तोते की
ज़ुबान
अभी-अभी तो
सुनायी पड़ा मुझे
अपने पड़ोस में
हाहाकार
अभी-अभी तो
दिमाग़ की नस
खुली
और पढ़ने लगा
बेबस चेहरों की लकीरें
...और इतने में ही
गुज़र गयी उम्र
आधी से भी ज़्यादा
शायद ही कोई इतना
ढीला -ढाला
सुस्त आदमी हो
दुनिया के किसी कोने में
शायद ही कोई दूसरा मिले
इतना अनाड़ी
कि ग़ाफ़िल
हर तरह से!
सुख छुपा रहता है ग़ाफ़िल की ज़िन्दगी में
जैसे पके सखुवा के
ज़मीन में पड़े
या गड़े
बोटे पर
नहीं होता असर
बरसात के पानी का
जैसे संगमरमर पर से
छलक -छलक जाता है
पानी
एकदम वैसा ही
होता जाता है
अधेड़ आदमी
ख़ुशियाँ नहीं टिकतीं
देर तलक
उसके पास
घंटे-आध घंटे भी
क़ामयाबी-दर क़ामयाबी के
बाद भी
दिखता है
उदास वह
दिखावटी गठरी
लादे
दुःख की
पीठ या कंधे पर
उम्रदराज़ होने के
साथ-साथ ही
वह चुराने लगता है
समय को
कुछ ज़यादा ही
अपने लिए
बेहद ख़ुदगर्ज़ बनकर
जबकि बचपन से जवानी तक
कितना ग़ाफ़िल रहा होता है
समय के साथ
वह
बचपन और जवानी का
गहरा नाता है
ग़ाफ़िल होने से
सच पूछिए तो
हक़ीकत है यही कि
सुख छुपा होता है
किसी ग़ाफ़िल की
ज़िन्दगी के
कोने -अंतरे में ही
ज़िम्मेदारी की गाड़ी
या हल में जुते
बैलों के लिए
नहीं होती वहाँ
कोई जगह !
फोटोग्राफ़र चंदू सिंह
सबकुछ था पहले की तरह
इसबार भी
धूप थी खिली-खिली
गुनगुनी
कॉफ़ी की गरमागरम
चुस्कियाँ थीं
नमकीन काजू के साथ
नाच -गाना था
हँसी -ठहाके थे
मौज़- मस्ती थी
फूल-माले थे
बुके थे
ऊनी कोट थे
स्वेटर थे
शर्ट थे
मफलर थे रंग-बिरंगे
अंदर इनर थे
बाहर गनर थे
साथ में
डिनर था
सबसे अंत में
कुछ पहले
मध्य रात्रि के
चाँद था चौदहवीं का
आसमान में बेताब
बनने को पूरा
गोल एकदम
मैदे की
काग़जी रोटी की तरह
दारू की थीं कई क़िस्में
मचलती बोतलों में
सबकुछ था
पहले की तरह
विगत वर्षों की तरह ही
नगर महोत्सव में
बस, नहीं था तो वो अपना
प्यारा फोटोग्राफ़र चंदू सिंह
जो हाल ही में गुज़र गया था
अचानक हृदयाघात से
जिसकी तस्वीरें टँगी रहती हैं
राजमहल की ऊँची दीवारों वाले
शयनकक्षों से लेकर
बनिए की दुकानों और
कई स्कूलों-कॉलेजों तक के
प्रधानाचार्यों
प्राचार्यों के कक्षों में भी
फिर भी मेरी निगाहें
तलाश रही थीं
अपने उस प्यारे फोटोग्राफ़र को
जिसके गुज़रने की कमी
खल रही थी
सिर्फ़ उसके परिवार को
जिसके जाने के बाद
नगर में नहीं हुई थी
कोई शोकसभा उसकी स्मृति में
काश! वह दिख जाता कहीं
एकबार फिर !
डुमराँव नज़र आयेगा मुग़ल सराय से
किशोरावस्था में सुना था
पहली बार
मुग़ल सराय का नाम
एक मुशायरे में
जब भोजपुरी-हिंदी के हास्य रस के
कवि बिसनाथ प्रसाद 'शैदा' ने सुनायी थी
अपनी एक कविता कि
"शैदा नज़र की रौशनी
बढ़ती है चाय से
डुमराँव नज़र आयेगा
मुगलसराय से"
अब जब सरकार
बदलने जा रही है
इस नाम को
तो एक इतिहास -संस्कृति का
बहुरंगी अध्याय
दफ़न होने जा रहा है
यह एक कवि के द्वारा बरता गया
चाय और मुग़ल सराय के
तुक का मामला ही नहीं
यह महज़ एक शब्द की
सुनियोजित हत्या भर नहीं
एक संस्कृति की हत्या भी है
यह स्मृतियों पर गिराना है
कोलतार पिघला हुआ
अब हत्यारे सिर्फ़
किसी निर्दोष इंसान की
हत्या ही नहीं करायेंगे
भीड़ से
उन्माद पैदाकर
वे शब्दों को भी मारकर
दफ़नाने के पहले
उन पर कानूनी चादर का
ओढ़ा देंगे
सफ़ेद कफन
यह एक ऐसी शताब्दी है
भीषण रक्तपात की
जहाँ इंसान से भी ज़्यादा
लहूलुहान हो रहे
शब्द
मारी जा रहीं भाषाएँ
जिसे हासिल करने में
गुजर जाती हैं
शताब्दियाँ !
बात में बात
किसी एक बात में
छुपी होती हैं
कई-कई बातें
बातों से निकलती जाती हैं
बातें ...
और ... और बातें
कुछ लोगों के स्वभाव में
होता है गढ़ना
बातें
वैसे कहा तो ये जाता है कि
बात गढ़ने से
बढ़ता जाता है
रूखड़ापन
जबकि लकड़ी
होती जाती है
चिक्कन
बात का बतंगड़ होते
सुना है
सुना है
बतरस के बारे में भी
जिसके लालच में
राधा धरती रहती थीं
कान्हा की मुरली
लुकाकर
सच ये भी है कि
बात जब बँटी जाती है
तो वह हो जाती है
भूतजेवर का बँटना
अगर इसे जानना है है
तो सुनिए
दो सगे शादीशुदा
भाइयों की बात
आपस की
दो पड़ोसियों या
दो पड़ोसी मुल्कों की
बात द्विपक्षीय
अगर हो उपस्थित
तीसरा पक्ष भी तो
तय माना जाता है
लंबा होना
इस भूतजेवर का
बातूनी होना तो
रहा है सदैव
होना एक क़ामयाब कलाकार
गर बातूनी का सितारा
हो बुलंद
तो कहीं भी होता है
पहुँच बनाना
आसान
उसके लिए
वैसे बात या बोली को
माना जाता है
गोली भी
बोली की गोली
करती है जख़्म गहरा
प्यार या लाग -डाँट की भी
होती हैं बातें
कुछ पिछली बातें होती हैं
पुराने चावल या आँवले के
अचार की तरह
जो पथ्य का करती हैं
काम
तो कुछ इतनी कसैली की
बिगाड़ देती हैं
जीवन का ज़ायका
कुछ बातों में होती है
इतनी ताक़त कि
उनके होते रहने से
कट जाती है
कठिन राह भी
बात का बन जाना
सभ्यता के आरम्भ में ही
बन गया होगा
एक मुहावरा
जो भी हो
कभी-कभी
बात कोई
एेसी भी होती है जो
दूर तलक जाती है
ज़ुबान से
निकलने के बाद !
लचीलापन
मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जी, हाँ
मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जितने से ढीला होकर
नाड़ा सरकने लगे
पजामे का
मैं बेहद मुश्किल वक़्त में भी
बनाए रखता हूँ
अपना धीरज
पर उतना भी नहीं
जितना एक गदहा
बनाए रखता है इसे
ताउम्र
मैं हँसता हूँ
पर हँसी मेरी
नहीं होती
सुनियोजित
मैं रो लेता हूँ पर
सायास नहीं
जो सहज ही मिला
वह रहा मुझे
स्वीकार
कुछ भी नहीं
हासिल किया मैंने
असहज होकर
नरम रहा पर
उतना भी नहीं
कि कोई चबा जाता
खीरे-कँकड़ी की तरह
गरम रहा पर
उतना भी नहीं कि
कोई संपर्क में आते ही
जल-भुन कर
बन जाता राख !
सुपारी लाल का बोलना ख़ुद की तारीफ़ में
ये सड़ा आलू... वो सड़ा टमाटर
ये काना बैंगन...वो ढीला चुकंदर
ये थसका कद्दू...वो घाव भकंदर
ये गबदू बैल... वो कटहा बंदर
जित देखो उत
लफंदर ही लफंदर
किसी की नाक टेढ़ी
किसी की गर्दन मोटी
किसी का पेट बड़ा तो
किसी का मुँह दहीबड़ा
कोई लंगड़ा... लूल्हा कोई
कोई गूँगा... बहरा कोई
मैं ही इसमें एक सुंदर
दिखता मैं ही
मस्त कलंदर
लहराता मानो समंदर
ये चूहा... वो छछूंदर
वक्ता मैं ही
और नेता निडर
बाबा भी कहलाता
मैं ही
ठहरा जो रियल
गॉड मैसेन्जर !
(जैसा कि अपनी तारीफ़ में बोले आज सुपारी लाल)
शहर मेरा
कुछ तो नहीं बदला
अंदर से मेरे
इस शहर में
पहले की तरह ही
खुले हैं दफ़्तर
जगह-जगह
जातीय संगठनों और सेनाओं के
अल्ट्रासाउंड के निजी
क्लीनिक भी बेशुमार
करने को कन्या भ्रूण हत्याएँ
सबके नायक हैं
अपने --अपने
बवाल कोई न कोई
रोज़
कभी किसी मकान
या भूमि पर
कब्ज़े को लेकर
कभी हत्या तो
कभी अपहरण को लेकर
फिर विरोध में सड़क जाम
बाज़ार बंद
फिर --फिर
बम विस्फोट ...
और गोली चलने की ख़बर
इसे
मामूली बात मानकर
सहज रहते हैं
स्थानीय लोग
अख़बारों की सुर्ख़ियों में
रहता आया है
बराबर
ये शहर
इस शहर में
ऐसे बहुत लोग हैं जो
सबकुछ के बाद भी
नहीं छोड़ना चाहते
वह लाठी
जो मिली है पुरखों से
उनको
वे जब तब कर लेते हैं
गर्व
भाँजकर लाठी ही
बिलावज़ह
पहले मिल भी जाते थे
एकाध कबीर
लिए लुकाठी हाथ
बीच बाज़ार में
अब तो गली-गली
राणा और सिकंदर
घाव हुआ भकंदर
जाने कब होगा सुंदर
ज़ज़्बाती शहर ये
सिर्फ़ बाहर से बेडौल होकर
कुछ और ज़्यादा फैल गया है
ये शहर
हो चला है गंदा
कुछ और ज़्यादा
ये शहर
आबादी हो गयी है
इसकी
कुछ और घनी
ज़्यादातर लोग
चीखते हैं अब
सिर्फ़
मनी-मनी-मनी !
गायें
गायें पगुरा रही हैं
बैठी -बैठी
गायें पूँछ हिला रही हैं
खड़ी-खड़ी
गायें गोबर कर रही हैं
गोशाला में से लेकर
सड़क तक पर
गायें चूम-चाट रही हैं
बछड़ों को
गायें रंभा रही हैं
ज़ोर -ज़ोर से
गायें बाल्टी भर दूध देकर
जा रही हैं चरने
कूड़ा के पहाड़ पर
गायें बीमार होती हैं
या होती हैं जब
शिकार
खोरहा रोग का
छोड़ देते हैं मुआर उनके
मरने के लिए
बीच सड़क पर
गायें होना बन जाता है
प्रतीक तब
निरीहता का
सरकारी गोशालाएँ भी बन जाती हैं
कब्रगाह अक्सर
गायों के लिए
पर सियासत तो देखिए
वह कितनी
असरदार है
हमारे देश में
इन गायों पर !
मृत्यु का ख़्याल
जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं अपने कई
अधूरे कामों के
बारे में
सोचने लगता हूँ
उस अधूरे संवाद के
बारे में भी
जो ट्रेन पकड़ने की
ज़ल्दबाजी में
न हो सका था पूरा
प्लेटफॉर्म पर
कि घर के दरवाजे़ पर
निकलते समय
बाहर
कुछ हड़बड़ी
कुछ दबाव में
तो आ ही जाता हूँ
मृत्यु के ख़्याल से
हो उठता हूँ
कुछ असहज
समय से पहले
मैं शुरू से ही रहा हूँ
आज़ाद और
आलसी मिज़ाज का
एक कविता लिखने में
तो करता हूँ
जाने कितनी
माथापच्ची
वक़्त लगाता हूँ
कितना
कि करता हूँ
बर्बाद
एक गड्डी नोट
गिनने में
सौ-सौ की
भूल जाता हूँ
गिनती
कई बार बीच में ही
जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं जगा होने पर भी
मलने लगता हूँ
आँखें अपनी
कोमल-कोमल
सहलाने लगता हूँ
कान अपने
बाँधने कि भींचने लगता हूँ
मुट्ठियाँ अपनी
बिस्तर छोड़
उठ खड़ा होता हूँ
खिड़की के पास
टहलने लगता हूँ
कमरे के बाहर
बरामदे में
अाधी रात में
उतारता हूँ
हलक के नीचे
ठंडे
पानी के दो घूँट
सोने के पहले
दुबारा
मृत्यु का डर
भगाता हूँ
देखकर अनगिनत
तारे आसमान में
कुछ हो लेता हूँ
नम-नम
बटोरता हूँ दम
इस दुनिया को छोड़कर
जाने का ख़्याल
लगता है कितना
अटपटा
और बेकार
जबकि किसे नहीं पता कि
जाना है ज़रूर
एक न एक दिन
इस दुनिया को छोड़कर !
चंद्रेश्वर
30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म।
कविता-संग्रह : 'अब भी' (2010), ‘सामने सेमेरे' (2018) प्रकाशित।
'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' (1994), 'इप्टाआन्दोलन: कुछ साक्षात्कार' (1998)) तथा 'बात पर बात और मेरा बलरामपुर' (संस्मरण) प्रकाश्य।
हिंदी की अधिकांश साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का प्रकाशन।
संपर्क
631/58 ज्ञान विहार कॉलोनी,कमता,
चिनहट, लखनऊ,उत्तर प्रदेश
पिन कोड - 226028
मोबाइल नम्बर- 07355644658
चंद्रेश्वर |
चिरईं का दाना
(भोजपुरी अंचल की एक बहुश्रुत
और प्रसिद्ध लोककथा से प्रेरित
मेरी कविता )
चिरईं ने बहुत ही मशक्कत और मेहनत के बाद पाया था
दाल का एक दाना
वह दाना भी जा गिरा था
दुर्भाग्य से
एक खूँटे की दरार में
उसने दाना को दुबारा पाने के लिए
की पहले ख़ूब आरजू -मिन्नत
खूँटे से ही
पर जैसा कि ऐसे में
अक्सर होता है
वह खूँटा भी
बेईमान निकला
चिरईं पाने के लिए इंसाफ़
बढ़ी आगे और एक बढ़ई से कहा कि
खूँटे को दंडित करो
ताकि मिले मेरी मेहनत का दाना
जो अपने धारदार वसूले से
काट रहा था
गुट्ठल -गिरहदार लकड़ी
बढ़ई भी गया मुकर
फिर क्या था चिरईं ने
बिना देर किए
राजा के दरबार में लगाई गुहार
राजा ने भी बढ़ई को
बक़्श दिया
उसे दंडित करने की बात तो
बहुत दूर की बात थी
चिरईं राजा की फ़रियाद लेकर
रानी के पास गई
रानी भी चुप रहीं
राजा के नाम पर
चिरईं बहुत आक्रोश में थी
वह पहुँच गई फन काढ़े
गेहुँअन साँप के पास
कहा कि रानी ने इंसाफ़ नहीं किया
पूरा सुनाया पिछला क़िस्सा
कहा उससे कि रानी को डँसो
ताक़ि खुले राजा की
आँखों की पट्टी
मिले मेरा इंसाफ़
साँप भी सच में दोमुँहा ही
हुआ साबित
अनसुनी कर दी
चिरईं की बात
चिरईं अब पहुँची डंडे के पास
कहा उससे पिछला हाल
डंडे को कहा कि
मेरे साथ आओ
इंसाफ़ पाने की मुहिम में
हो जाओ शामिल
चलकर पीटो
फन काढ़े गेहुँअन साँप को
डंडा भी डरा हुआ था
बेबस था
था लाचार
किसी ताक़तवर या दबंग के इशारे पर ही
चलता था
करता था किसी पर
वार पर वार
इतने के बाद भी चिरईं
न रुकी
न विचलित हुई
न तनिक निराश
इंसाफ़ पाने की उसकी इच्छा
होती गयी बलवती
वह आगे
आग के पास गयी
और पूरा वृतांत सुनाकर
डंडे को भस्मीभूत कराना चाहा
पर आग में शेष नहीं बची थी
आग
आग के ख़िलाफ
चिरईं गयी समुद्र के पास
समुद्र चुप रहा
दिखा तटस्थ
चिरईं के पास राजा राम की तरह
तीर-धनुष नहीं था
कि वह डरता
चिरईं ने बिना विश्राम के
जारी रखा
अपना सफ़र इंसाफ़ का
वह विशालकाय श्यामवर्ण हाथी के पास
जाकर बोली
कि चलो सोख लो
बेईमान और जड़बुद्धि समुद्र को
जैसा कि चलन था
उस दौर में
किसी बेबस...
ग़रीब के लिए पाना इंसाफ़
था बेहद मुश्किल
हाथी भी भाग खड़ा हुआ ... तो
चिरईं गयी महाजाल के पास
महाजाल भी पड़ा रहा
निश्चेष्ट ...
अंत में थक -हारकर चिरईं गयी
एक निबल चूहे के पास
चूहा सहर्ष तैयार हो गया
बिना वक़्त गँवाये
कहा चलकर काटेंगे
महाजाल को
गुदरी -गुदरी बना डालेंगे
कमबख़्त को...
उसकी बता देंगे
औकात
फिर तो चूहे से डरकर
महाजाल ने कहा कि
छानेंगे विशालकाय श्यामवर्ण हाथी को
हाथी तैयार हुआ जब डरकर जाल से
सोखने को समुद्र
तो समुद्र ने कहा भयभीत होकर कि
चलो चिरईं चलकर बुझाते हैं
दुष्ट आग को
आग तैयार हुआ डरकर
जब डंडे को जलाने के लिए
तो डंडा तत्पर होकर निकल पड़ा
पीटने के लिए
गेहुँअन साँप को
गेहुँअन साँप ने डरकर पहले तो
प्रणाम किया
डंडे को
और निकल पड़ा राजमहल में
रनिवास की तरफ़
रानी को डँसने
रानी ने पहले तो चीखकर
साँप को
ठहरने के लिए कहा
और चिरईं को दिलाने इंसाफ़
पहुँची राजदरबार में
राजा ने कहा कि जब बात
इतनी संगीन है और
रानी को अचानक आना पड़ा
दरबार में तो वे ज़रूर बढ़ई को कहेंगे कि
जाकर अपने धारदार वसूले से
फाड़ दो खूँटा बाँस का
जिसमें फँसा है
चिरईं की मेहनत का दाना
दाल का
बढ़ई को देखते ही
भय से खूँटा तैयार हो गया
ख़ुद से फटने के लिए ...
इस तरह चिरईं ने पाया
अपना दाना मेहनत का
पाया इंसाफ़ ...
और फुर्र होकर निकल पड़ी
अपने घोंसले की तरफ़
जहाँ उसके चूजे
दाने के इंतज़ार में थे
भूख से होकर व्याकुल !
लोकगीत से रिश्ता
इस लोकगीत की
बहुत पुरानी धुन में
अब भी
ऐसा क्या है कि
जिसे गुनगुनाते
या गाते वक़्त
गला मेरा
भर आता है
टपक पड़ता है
लोर
लोचनों से
इस लोकगीत के
आखिरी चरण
वाक्य
या शब्द
तक जाते -जाते
भर उठता हूँ मैं
अद्भुत ताज़गी से
दर्द और उदासी में
डूबने के बावज़ूद
इस लोकगीत से
दर्द का
रिश्ता है
गहरा
लोक का
इस रिश्ते ने ही
होने नहीं दिया
जीने की बेहतर
लालसा को
निःशेष
कराल काल में
बियाबान में भी
इस लोकगीत की धुन को
समझना
उतरना है
गहरे लोक में
दुनिया के महान कवियों ने
लोकगीतों की धुनों को ही
आत्मसात कर रची
जो कविता
नए रंग और शिल्प में
नई अंतर्वस्तु के साथ
शामिल है उनके
नये राग में भी
अमरता की वहीं
बहुत ...
पुरानी धुन!
रोज़ बनती दुनिया
(कवि आलोकधन्वा पटना के लिए)
प्रतिरोध के तरीके होते हैं
हज़ार -हज़ार
एक नौनिहाल रो-रोकर
पटक-पटककर
अपना हाथ -पाँव
पालने या बिस्तर पर
करता है दर्ज़
विरोध
एक असहाय औरत
विलाप के साथ-साथ
पीट -पीटकर
अपनी ही कोमल छाती
अपने गुस्से का करती है इज़हार...
बद्दुआएँ देती है ...
सरापती है...
एक अपाहिज
बुदबुदाहट में गालियाँ
करता है शामिल
गोया प्रार्थना कर रहा हो
कोई कविता-कहानी लिखकर
नाटक खेलकर
कोई लाठी चलाकर
तो कोई बंदूक उठाकर
करता है प्रतिकार
ऐसे भी होते हैं कुछ लोग
जो बैठ जाते हैं
अनशन पर
जैसे ईरोम शर्मिला
जैसे महात्मा गाँधी
जैसे वो दुबली-पतली
पगली -सी दिखने वाली
लड़की
जिसे पुलिस ले गयी उठाकर ज़बरन
हॉस्पीटल
यूनिवर्सिटी कैंपस से
कुछ और हैं जो
निकालते ही रहते हैं
जुलूस
नारे लगाते हैं
हाथों में तख़्तियाँ लिए
कभी-कभी मशाल लिए
तो कभी-कभी
चुप रहकर भी
कभी-कभी होते हैं
धरने-प्रदर्शन
महापुरुषों की मूर्तियों के निकट
चौक-चौराहों पर
कभी-कभी तो
विरोध दर्ज़ करने की
इस लंबी प्रक्रिया में
ऊब और अवसाद के चलते
किसान कर लेते हैं
आत्महत्याएँ
बेरोज़गारी के दंश से पीड़ित
नौजवान कर लेते हैं
आत्मदाह
मेरे गाँव के एक दबंग के सामने
'आक् थू' कहकर
किया था प्रकट
अपना विरोध एकबार
एक कमज़ोर हैसियत वाले
इन्सान
कलकतिया दुसाध ने
किसी दबंग क्या
एक से बढ़कर एक
आततायी शासक का
उड़ाती है पब्लिक
मखौल
नकल या मिमिक्री कर
कई बार तो कुछ रंग
बन जाते हैं
प्रतिरोध की
सशक्त अभिव्यक्ति
अब इस
काला रंग को ही लीजिए
इनदिनों इससे
डरने लगी है
पुलिस -मिलिट्री के दम पर
चलने वाली
सरकारें भी
दुनिया के किसी कोने में
कोई ऐसा हिंसक
या क्रूर शासक नहीं
जिस पर न हँसा जा सके
लतीफे और चुटकुले गढ़कर
या सुनाकर
इस 'रोज़ बनती दुनिया' की
रीति ही निराली है |
शायद ही दूसरा
अभी -अभी तो सीखा
ककहरा
अभी-अभी तो रटा
पहाड़ा
अभी-अभी तो जाना
शब्दों को लिखना
सही वर्तनी के साथ
उच्चारना उन्हें
सही -सही
अभी-अभी तो
पढ़कर कविता
बेचैन हुआ कुछ
अभी-अभी तो
देखा खिलना
सुर्ख़ गुड़हल का
अभी-अभी तो
निकला
तलाश में
गूलर के फूल के
अभी-अभी तो
दिखी
मुस्कान मुझे
एक मासूम बच्चे के
चेहरे पर
अभी-अभी तो पहचाना
बैनीआहपीनाला
के सात रंगों को
अभी-अभी तो
समझ पाया मैं
आपकी दुरभिसंधि
अभी-अभी तो
जान पाया मैं
उड़ते पहाड़ी तोते की
ज़ुबान
अभी-अभी तो
सुनायी पड़ा मुझे
अपने पड़ोस में
हाहाकार
अभी-अभी तो
दिमाग़ की नस
खुली
और पढ़ने लगा
बेबस चेहरों की लकीरें
...और इतने में ही
गुज़र गयी उम्र
आधी से भी ज़्यादा
शायद ही कोई इतना
ढीला -ढाला
सुस्त आदमी हो
दुनिया के किसी कोने में
शायद ही कोई दूसरा मिले
इतना अनाड़ी
कि ग़ाफ़िल
हर तरह से!
सुख छुपा रहता है ग़ाफ़िल की ज़िन्दगी में
जैसे पके सखुवा के
ज़मीन में पड़े
या गड़े
बोटे पर
नहीं होता असर
बरसात के पानी का
जैसे संगमरमर पर से
छलक -छलक जाता है
पानी
एकदम वैसा ही
होता जाता है
अधेड़ आदमी
ख़ुशियाँ नहीं टिकतीं
देर तलक
उसके पास
घंटे-आध घंटे भी
क़ामयाबी-दर क़ामयाबी के
बाद भी
दिखता है
उदास वह
दिखावटी गठरी
लादे
दुःख की
पीठ या कंधे पर
उम्रदराज़ होने के
साथ-साथ ही
वह चुराने लगता है
समय को
कुछ ज़यादा ही
अपने लिए
बेहद ख़ुदगर्ज़ बनकर
जबकि बचपन से जवानी तक
कितना ग़ाफ़िल रहा होता है
समय के साथ
वह
बचपन और जवानी का
गहरा नाता है
ग़ाफ़िल होने से
सच पूछिए तो
हक़ीकत है यही कि
सुख छुपा होता है
किसी ग़ाफ़िल की
ज़िन्दगी के
कोने -अंतरे में ही
ज़िम्मेदारी की गाड़ी
या हल में जुते
बैलों के लिए
नहीं होती वहाँ
कोई जगह !
फोटोग्राफ़र चंदू सिंह
सबकुछ था पहले की तरह
इसबार भी
धूप थी खिली-खिली
गुनगुनी
कॉफ़ी की गरमागरम
चुस्कियाँ थीं
नमकीन काजू के साथ
नाच -गाना था
हँसी -ठहाके थे
मौज़- मस्ती थी
फूल-माले थे
बुके थे
ऊनी कोट थे
स्वेटर थे
शर्ट थे
मफलर थे रंग-बिरंगे
अंदर इनर थे
बाहर गनर थे
साथ में
डिनर था
सबसे अंत में
कुछ पहले
मध्य रात्रि के
चाँद था चौदहवीं का
आसमान में बेताब
बनने को पूरा
गोल एकदम
मैदे की
काग़जी रोटी की तरह
दारू की थीं कई क़िस्में
मचलती बोतलों में
सबकुछ था
पहले की तरह
विगत वर्षों की तरह ही
नगर महोत्सव में
बस, नहीं था तो वो अपना
प्यारा फोटोग्राफ़र चंदू सिंह
जो हाल ही में गुज़र गया था
अचानक हृदयाघात से
जिसकी तस्वीरें टँगी रहती हैं
राजमहल की ऊँची दीवारों वाले
शयनकक्षों से लेकर
बनिए की दुकानों और
कई स्कूलों-कॉलेजों तक के
प्रधानाचार्यों
प्राचार्यों के कक्षों में भी
फिर भी मेरी निगाहें
तलाश रही थीं
अपने उस प्यारे फोटोग्राफ़र को
जिसके गुज़रने की कमी
खल रही थी
सिर्फ़ उसके परिवार को
जिसके जाने के बाद
नगर में नहीं हुई थी
कोई शोकसभा उसकी स्मृति में
काश! वह दिख जाता कहीं
एकबार फिर !
डुमराँव नज़र आयेगा मुग़ल सराय से
किशोरावस्था में सुना था
पहली बार
मुग़ल सराय का नाम
एक मुशायरे में
जब भोजपुरी-हिंदी के हास्य रस के
कवि बिसनाथ प्रसाद 'शैदा' ने सुनायी थी
अपनी एक कविता कि
"शैदा नज़र की रौशनी
बढ़ती है चाय से
डुमराँव नज़र आयेगा
मुगलसराय से"
अब जब सरकार
बदलने जा रही है
इस नाम को
तो एक इतिहास -संस्कृति का
बहुरंगी अध्याय
दफ़न होने जा रहा है
यह एक कवि के द्वारा बरता गया
चाय और मुग़ल सराय के
तुक का मामला ही नहीं
यह महज़ एक शब्द की
सुनियोजित हत्या भर नहीं
एक संस्कृति की हत्या भी है
यह स्मृतियों पर गिराना है
कोलतार पिघला हुआ
अब हत्यारे सिर्फ़
किसी निर्दोष इंसान की
हत्या ही नहीं करायेंगे
भीड़ से
उन्माद पैदाकर
वे शब्दों को भी मारकर
दफ़नाने के पहले
उन पर कानूनी चादर का
ओढ़ा देंगे
सफ़ेद कफन
यह एक ऐसी शताब्दी है
भीषण रक्तपात की
जहाँ इंसान से भी ज़्यादा
लहूलुहान हो रहे
शब्द
मारी जा रहीं भाषाएँ
जिसे हासिल करने में
गुजर जाती हैं
शताब्दियाँ !
बात में बात
किसी एक बात में
छुपी होती हैं
कई-कई बातें
बातों से निकलती जाती हैं
बातें ...
और ... और बातें
कुछ लोगों के स्वभाव में
होता है गढ़ना
बातें
वैसे कहा तो ये जाता है कि
बात गढ़ने से
बढ़ता जाता है
रूखड़ापन
जबकि लकड़ी
होती जाती है
चिक्कन
बात का बतंगड़ होते
सुना है
सुना है
बतरस के बारे में भी
जिसके लालच में
राधा धरती रहती थीं
कान्हा की मुरली
लुकाकर
सच ये भी है कि
बात जब बँटी जाती है
तो वह हो जाती है
भूतजेवर का बँटना
अगर इसे जानना है है
तो सुनिए
दो सगे शादीशुदा
भाइयों की बात
आपस की
दो पड़ोसियों या
दो पड़ोसी मुल्कों की
बात द्विपक्षीय
अगर हो उपस्थित
तीसरा पक्ष भी तो
तय माना जाता है
लंबा होना
इस भूतजेवर का
बातूनी होना तो
रहा है सदैव
होना एक क़ामयाब कलाकार
गर बातूनी का सितारा
हो बुलंद
तो कहीं भी होता है
पहुँच बनाना
आसान
उसके लिए
वैसे बात या बोली को
माना जाता है
गोली भी
बोली की गोली
करती है जख़्म गहरा
प्यार या लाग -डाँट की भी
होती हैं बातें
कुछ पिछली बातें होती हैं
पुराने चावल या आँवले के
अचार की तरह
जो पथ्य का करती हैं
काम
तो कुछ इतनी कसैली की
बिगाड़ देती हैं
जीवन का ज़ायका
कुछ बातों में होती है
इतनी ताक़त कि
उनके होते रहने से
कट जाती है
कठिन राह भी
बात का बन जाना
सभ्यता के आरम्भ में ही
बन गया होगा
एक मुहावरा
जो भी हो
कभी-कभी
बात कोई
एेसी भी होती है जो
दूर तलक जाती है
ज़ुबान से
निकलने के बाद !
लचीलापन
मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जी, हाँ
मैं लचीला हूँ
पर उतना नहीं
जितने से ढीला होकर
नाड़ा सरकने लगे
पजामे का
मैं बेहद मुश्किल वक़्त में भी
बनाए रखता हूँ
अपना धीरज
पर उतना भी नहीं
जितना एक गदहा
बनाए रखता है इसे
ताउम्र
मैं हँसता हूँ
पर हँसी मेरी
नहीं होती
सुनियोजित
मैं रो लेता हूँ पर
सायास नहीं
जो सहज ही मिला
वह रहा मुझे
स्वीकार
कुछ भी नहीं
हासिल किया मैंने
असहज होकर
नरम रहा पर
उतना भी नहीं
कि कोई चबा जाता
खीरे-कँकड़ी की तरह
गरम रहा पर
उतना भी नहीं कि
कोई संपर्क में आते ही
जल-भुन कर
बन जाता राख !
सुपारी लाल का बोलना ख़ुद की तारीफ़ में
ये सड़ा आलू... वो सड़ा टमाटर
ये काना बैंगन...वो ढीला चुकंदर
ये थसका कद्दू...वो घाव भकंदर
ये गबदू बैल... वो कटहा बंदर
जित देखो उत
लफंदर ही लफंदर
किसी की नाक टेढ़ी
किसी की गर्दन मोटी
किसी का पेट बड़ा तो
किसी का मुँह दहीबड़ा
कोई लंगड़ा... लूल्हा कोई
कोई गूँगा... बहरा कोई
मैं ही इसमें एक सुंदर
दिखता मैं ही
मस्त कलंदर
लहराता मानो समंदर
ये चूहा... वो छछूंदर
वक्ता मैं ही
और नेता निडर
बाबा भी कहलाता
मैं ही
ठहरा जो रियल
गॉड मैसेन्जर !
(जैसा कि अपनी तारीफ़ में बोले आज सुपारी लाल)
शहर मेरा
कुछ तो नहीं बदला
अंदर से मेरे
इस शहर में
पहले की तरह ही
खुले हैं दफ़्तर
जगह-जगह
जातीय संगठनों और सेनाओं के
अल्ट्रासाउंड के निजी
क्लीनिक भी बेशुमार
करने को कन्या भ्रूण हत्याएँ
सबके नायक हैं
अपने --अपने
बवाल कोई न कोई
रोज़
कभी किसी मकान
या भूमि पर
कब्ज़े को लेकर
कभी हत्या तो
कभी अपहरण को लेकर
फिर विरोध में सड़क जाम
बाज़ार बंद
फिर --फिर
बम विस्फोट ...
और गोली चलने की ख़बर
इसे
मामूली बात मानकर
सहज रहते हैं
स्थानीय लोग
अख़बारों की सुर्ख़ियों में
रहता आया है
बराबर
ये शहर
इस शहर में
ऐसे बहुत लोग हैं जो
सबकुछ के बाद भी
नहीं छोड़ना चाहते
वह लाठी
जो मिली है पुरखों से
उनको
वे जब तब कर लेते हैं
गर्व
भाँजकर लाठी ही
बिलावज़ह
पहले मिल भी जाते थे
एकाध कबीर
लिए लुकाठी हाथ
बीच बाज़ार में
अब तो गली-गली
राणा और सिकंदर
घाव हुआ भकंदर
जाने कब होगा सुंदर
ज़ज़्बाती शहर ये
सिर्फ़ बाहर से बेडौल होकर
कुछ और ज़्यादा फैल गया है
ये शहर
हो चला है गंदा
कुछ और ज़्यादा
ये शहर
आबादी हो गयी है
इसकी
कुछ और घनी
ज़्यादातर लोग
चीखते हैं अब
सिर्फ़
मनी-मनी-मनी !
गायें
गायें पगुरा रही हैं
बैठी -बैठी
गायें पूँछ हिला रही हैं
खड़ी-खड़ी
गायें गोबर कर रही हैं
गोशाला में से लेकर
सड़क तक पर
गायें चूम-चाट रही हैं
बछड़ों को
गायें रंभा रही हैं
ज़ोर -ज़ोर से
गायें बाल्टी भर दूध देकर
जा रही हैं चरने
कूड़ा के पहाड़ पर
गायें बीमार होती हैं
या होती हैं जब
शिकार
खोरहा रोग का
छोड़ देते हैं मुआर उनके
मरने के लिए
बीच सड़क पर
गायें होना बन जाता है
प्रतीक तब
निरीहता का
सरकारी गोशालाएँ भी बन जाती हैं
कब्रगाह अक्सर
गायों के लिए
पर सियासत तो देखिए
वह कितनी
असरदार है
हमारे देश में
इन गायों पर !
मृत्यु का ख़्याल
जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं अपने कई
अधूरे कामों के
बारे में
सोचने लगता हूँ
उस अधूरे संवाद के
बारे में भी
जो ट्रेन पकड़ने की
ज़ल्दबाजी में
न हो सका था पूरा
प्लेटफॉर्म पर
कि घर के दरवाजे़ पर
निकलते समय
बाहर
कुछ हड़बड़ी
कुछ दबाव में
तो आ ही जाता हूँ
मृत्यु के ख़्याल से
हो उठता हूँ
कुछ असहज
समय से पहले
मैं शुरू से ही रहा हूँ
आज़ाद और
आलसी मिज़ाज का
एक कविता लिखने में
तो करता हूँ
जाने कितनी
माथापच्ची
वक़्त लगाता हूँ
कितना
कि करता हूँ
बर्बाद
एक गड्डी नोट
गिनने में
सौ-सौ की
भूल जाता हूँ
गिनती
कई बार बीच में ही
जैसे ही आता है
ख़्याल
मृत्यु का मेरे मन में
मैं जगा होने पर भी
मलने लगता हूँ
आँखें अपनी
कोमल-कोमल
सहलाने लगता हूँ
कान अपने
बाँधने कि भींचने लगता हूँ
मुट्ठियाँ अपनी
बिस्तर छोड़
उठ खड़ा होता हूँ
खिड़की के पास
टहलने लगता हूँ
कमरे के बाहर
बरामदे में
अाधी रात में
उतारता हूँ
हलक के नीचे
ठंडे
पानी के दो घूँट
सोने के पहले
दुबारा
मृत्यु का डर
भगाता हूँ
देखकर अनगिनत
तारे आसमान में
कुछ हो लेता हूँ
नम-नम
बटोरता हूँ दम
इस दुनिया को छोड़कर
जाने का ख़्याल
लगता है कितना
अटपटा
और बेकार
जबकि किसे नहीं पता कि
जाना है ज़रूर
एक न एक दिन
इस दुनिया को छोड़कर !
चंद्रेश्वर
30 मार्च 1960 को बिहार के बक्सर जनपद के एक गाँव आशा पड़री में जन्म।
कविता-संग्रह : 'अब भी' (2010), ‘सामने सेमेरे' (2018) प्रकाशित।
'भारत में जन नाट्य आन्दोलन' (1994), 'इप्टाआन्दोलन: कुछ साक्षात्कार' (1998)) तथा 'बात पर बात और मेरा बलरामपुर' (संस्मरण) प्रकाश्य।
हिंदी की अधिकांश साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का प्रकाशन।
संपर्क
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