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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 जुलाई, 2010

वरवर राव हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। जन पक्षधरता उनकी कविताओं में पहली प्राथमिकता है। उनकी कविताएँ पहले भी इस ब्लॉग पर प्रकाशित की गयी है। इस बार भोपाल गैस त्रासदी पर उनकी 1985 में लिखी गयी कविता आपके लिए हाज़िर है, उम्मीद है आपको पसंद आयेगी..।

भोपालः धुएँ की नाली का धड़का

वरवर राव

प्राणवायु स्वयं बन जाती है ख़तरा
नज़र में छा जाता है अंधियारा
मौत बन जाता है माँ का दूध
ज़मीदारी की फ़सल का
जब साम्राज्यवाद ही बन जाए ख़ाद

तब
गाँवों का ख़ून छितर जाता है ज़मीन पर
जीवन के सार को
हर लेती है हरित क्राँति
नगर
मसल दिए जाते हैं
बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बाहों में
दलाल सुलगाते हैं चिमनियाँ
शहर के बीचों-बीच

देश के ह्रदय-अंगीठी में
फटता है टाइम बम
बुझती है निश्वासों की चिनगारियाँ
रह जाता है सबकुछ बनकर राख
अंधेरे में टटोलती ऊँगलियों में
नोट के काग़ज़ पकड़ा देता है ‘हाथ’
जब आबादियाँ बन जाती है मरघट
तो दुश्मन के दुःस्वप्न में
सवाल करने लगती हैं लाशें

जलती आँखें हक्का-बक्का हुई लाखों जाने
बदला लेने के लिए धधक उठती है
मरते जीते
बदन पर आग की लपटें सहते
लाखों जाने आग उगलेंगी
साम्राज्यवाद का नाम ही मौत है
यह दलाली राज खोलेंगी
सामूहिक हत्याएँ
विषवृक्ष को बिना उखाड़े
विष का गुण नहीं छुड़ा सकते
मृत्युशय्या पर से
ज़हरीली साँसे छोड़ते हुए
युद्ध को ही अपनी साँस बनाकर जीने वाले
साम्रज्यवाद को
गृहयुद्ध छेड़कर
लोग समाधि में गाड़ देंगे।

1-1-1985

अनुवादः आर.शांता सुन्दरी

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