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13 सितंबर, 2010
सूर्यास्त के बाद और सुर्योदय के पहले
तुषार
सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पहले
चाहे कितना ही घनघोर हो अँधेरा
सूर्यास्त के बाद
अमावस ही हो चाहे
कुल जमा वह भी एक दिन का
आधा ही हिस्सा होता है
द्वितियार्ध
सारे घन अँधकार के बावजूद
तमस तो है बस अंत की शुरुआत
उजाले का आगाज़
कापुरुषों के हाथों की बँदूकें
सीने पर वार करने का साहस
नहीं जुटा पाती उनमें
पीठ में बिंधी गोलियों के घावों से
धीरे-धीरे रिसता है रुधिर
प्राणों को बहा ले जाता है
अपने संग तिल-तिल
उत्तरी-खण्ड (नार्थ ब्लॉक) का भेड़िया
खीसें निपोरता
सत्ता मद में मत्त
सीने में छुपाये
अनमोल खनिजों के अंबार
धरती वहाँ
जनती है जंगल
हरित-आखेट औंधे मुँह धूल चाटता
जंगल के बाँस
उनके सीने में उतरते हैं तीर बन कर
धरती से निकला खनिज बन जाता फौलादी तीर की धार
जब तन कर खड़ा होता है
चिंतलनार
दँतेवाड़ा
देता है लुटेरों के दाँत उखाड़
हर बेकार हाथ
उजड़ा खेत
महुए का पेड़
राख की ढेर में तब्दील
हर सुनसान गाँव
हर भूखा पेट
हर कुचली अस्मत
इस जंगल राज में पैदा
बच्चा-बच्चा
बन जाता है ‘आज़ाद’
हर न बिकी क़लम
हर ज़मीरमंद ख़बरची
दस्तख़त में लिखता है नाम- हेमचन्द्र
रोके कब रुकती है भला
पहली किरण भोर की
सूर्योदय से पहले का अंधेरा
छँट जाता है
आततायी का सपना
हो जाता है चूर-चूर
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