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31 अक्तूबर, 2011
संघ राम की अंगूठी नहीं पहचानता
प्रियदर्शन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पता नहीं, अपने एक नेता, हरबंस लाल ओबेरॉय की अब याद होगी या नहीं। उन्होंने एक बहुत महत्त्वपूर्ण काम किया था- उन्होंने दुनिया भर से रामकथाओं से जुड़ी तस्वीरों और पोस्टरों का संग्रह इकट्ठा किया था। वे उनकी प्रदर्शनी भी लगाया करते थे। इन्हीं प्रदर्शनियों की मार्फत हमें पहली बार यह बात समझ में आई कि रामकथा कोई एक कथा नहीं है, राम की कई कथाएं हैं जो एक-दूसरे से कहीं-कहीं नितांत भिन्न भी हैं। उन्हीं दिनों यह समझ भी बनी कि राम की स्मृति का वितान इस देश में बहुत बड़ा है। रामकथा सिर्फ वाल्मीकि या तुलसी ने नहीं लिखी है, और भी कई-कई लोगों ने कई-कई भाषाओं में लिखी है, और यह कहानी जितनी लिखी जाती रही है, उससे ज़्यादा कही जाती रही है। यही नहीं, यह कहानी जितनी बार लिखी और कही गई, उतनी बार बदलती भी रही। राम, लक्ष्मण और सीता के सिर्फ़ किरदार ही नहीं बदले हैं, उनके आपसी रिश्ते भी बदले हुए हैं। कुल मिलाकर रामकथा लोकस्मृतियों में कई रूपों में मौजूद है- बताती हुई कि ढाई हज़ार वर्षों के दौरान भारतीय मानस पर उसकी छाप कितनी गहरी पड़ी है- सबके अपने-अपने राम हैं, सबकी अपनी-अपनी रामकथा है।
हरबंसलाल ओबेरॉय की तस्वीरों का वह संग्रह, अब पता नहीं कहां है और किस हाल में है। एक बात साफ़ है कि संघ में दीक्षित होने के बावजूद हरबंस लाल ओबेरॉय के भीतर वह धार्मिक इकहरापन नहीं रहा होगा जो उन्हें राम के एक ही रूप की अभ्यर्थना के लिए मजबूर करता। यह भी संभव है कि हिंदुत्व के इकहरे प्रतिमानों में फंसा संघ ख़ुद भी उस मिथक संसार की जटिलता समझने में नाकाम रहा हो जिससे उसकी अपनी विचारधारा को चुनौती मिलती। शायद यह अस्सी के दशक में छेड़ा गया राम मंदिर आंदोलन था जिसने पहली बार संघ परिवारियों का ध्यान इस तरफ खींचा कि न हिंदुत्व के बहुत सारे संस्करण होने चाहिए और न ही राम की बहुत सारी छवियां होनी चाहिए- बस एक ही हिंदुत्व और एक ही राम चाहिए जिसे अपनी राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से युद्धभूमि में उतारा जा सके।
इत्तिफाक से 1987 में, जब संघ परिवारी राम की एक ऐसी योद्धा छवि बनाने और अपने इकलौते मंदिर के लिए रामनामी ईंटे जुटाने में लगे थे, तभी लेखक और विद्वान एके रामानुजन का लेख, ‘थ्री हंड्रेड रामायंस, फाइव एग्जैम्पल्स ऐंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन’ पहली बार सामने आया। स्मृति, जनश्रुति, इतिहास, मिथक और चेतना को एक साथ समायोजित करता, रामकथा की लिखित और वाचिक परंपराओं को ‘टेलिंग’ यानी किस्सागोई की तरह देखता यह अनूठा लेख बताता है कि राम कितने बड़े हैं, कितनी तरह के हैं और कितने आयामों और युगों में फैले हैं। इस लेख को पहली बार पढ़ते हुए मुझे हरबंसलाल ओबेरॉय याद आए जिनके पास भी राम की कई छवियां थीं और एक छवि उस कथा की भी थी जिसमें राम-सीता भाई-बहन बताए गए थे।
इस लेख की खूबी यही नहीं है कि इससे हमें रामकथा के विविध रूपों की जानकारी मिलती है, बल्कि यह भी थी कि इससे इतिहास और परंपरा के बारे में हमारी दृष्टि कुछ साफ होती है। इसे उचित ही, दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए, इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। लेकिन 2008 में संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने इस नितांत सहिष्णुतापूर्ण लेख पर भी एतराज और हंगामा किया जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय से इस लेख पर राय मांगी। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस पर चार विशेषज्ञों की कमेटी बनाई जिनमें से तीन ने साफ तौर पर इस लेख को बेहद महत्त्वपूर्ण बताते हुए पाठ्यक्रम के लिहाज़ से भी ज़रूरी बताया। सिर्फ चौथे विद्वान की इस पर असहमति थी। कायदे से इस पर बहुमत से फ़ैसला होना चाहिए था, लेकिन हुआ नहीं। एकैडमिक काउंसिल ने लेख के ख़िलाफ़ फ़ैसला लिया। एकैडमिक काउंसिल के सिर्फ नौ सदस्य इस लेख के पक्ष में खड़े हुए, बाकी या तो ख़िलाफ़ दिखे या फिर खामोश, इस मासूम से लगने वाले बहाने के साथ कि इस राजनीति में उन्हें नहीं पड़ना है। इस तरह एक बहुत ही समृद्ध, शोधपूर्ण, बहुलतावादी और अपनी प्रकृति में नितांत समन्वयकारी पाठ दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए अस्पृश्य हो गया।
यह शर्मनाक है और डरावना भी। यह हमारे समय और समाज में बढ़ रही अपढ़ता और असहिष्णुता दोनों का सूचक है। इसमें शक नहीं कि रामानुजन के लेख का विरोध करने वाले ज्यादातर लोगों ने वह लेख पढ़ा ही नहीं होगा। वह सलमान रुश्दी की रचनाओं की तरह किसी मान्यता को चिढ़ाने वाला लेख नहीं है और न ही तसलीमा नसरीन के लेखों की तरह किसी आक्रोश से भरा हुआ, वह बस एक सुंदर और सहिष्णु लेख है जिसे बहुत मेहनत और शोध से तैयार किया गया और जिसे पढ़ते हुए रामकथा या रामकथाओं की विराटता के प्रति सम्मान ही पैदा होता है। लेकिन खुद को रामभक्त और संस्कृति का पहरेदार बताने वाली ताकतों को ऐसे राम नहीं चाहिए क्योंकि वे उनकी क्षुद्र राजनीति के दायरे में समाते नहीं। हरबंसलाल ओबेराय आज इस अगर इस संघ परिवार में बचे होते तो ख़ुद को एकाकी और कई तरह के हमलों के बीच असुरक्षित पाते।
यह रामानुजन प्रसंग इस बात की नए सिरे से पुष्टि है कि विचार और अभिव्यक्ति की जो बुनियादी स्वतंत्रता है, उस पर हमले तीखे हुए हैं। असहिष्णु ताकतें अपना दाय़रा लगातार बढ़ा रही हैं और इसकी जद में आकर वे सारे उदार-अनुदार, सायास-अनायास पाठ कुचले जा रहे हैं जो उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाते। रामानुजन का लेख इसकी ताज़ा कड़ी भर है। ऐसी ही ताकतों के दबाव में इसके पहले मुंबई विश्वविद्यालय से रोहिंटन मिस्त्री के उपन्यास ‘सच अ लांग जर्नी’ को हटाया गया। यही वे लोग हैं जिन्होंने मक़बूल फिदा हुसेन जैसे गंगा-जमनी ही नहीं, कई और रंगों और परंपराओं की तूलिका साधने वाले कलाकार की पेंटिंग्स जलाईं और आखिरकार 90 पार की उम्र में उन्हें देश से बाहर रहने और वहीं मरने पर मजबूर किया। इन्हीं लोगों ने एक दौर में हबीब तनवीर के नाटकों पर हमले किए। यही लोग कश्मीर पर अलग राय रखने की वजह से प्रशांत भूषण के साथ हाथापाई करते हैं और अंत में ऐसे ही लोग दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन का लेख हटाए जाने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों को धमकी भी देते हैं कि उनसे अपने ढंग से निबटा जाएगा।
यह एक ख़तरनाक चलन है जो पूरे समाज पर अपनी तरह का सतहीपन लादना चाहता है। कविता, कहानी, लेख, विचार और शोध में उसे वही मंज़ूर है जिससे सपाट, अप्राश्नेय और अतार्किक किस्म की दक्षिणपंथी मूल्य संहिता की पुष्टि होती हो। सौंदर्य, सरोकार और बहुलता जैसे इसके लिए अजनबी शब्द हैं।
एके रामानुजन का लेख हनुमान की कहानी से शुरू होता है जो राम की खोई हुई अंगूठी खोजने निकले हैं। पाताल का राजा एक थाली में ढेर सारी अंगूठियां लेकर आता है और कहता है कि हनुमान अपने राम की अंगूठी खोज लें। हनुमान यह देखकर हैरान हैं कि सारी अंगूठियां राम की हैं। पाताल लोक का राजा बताता है कि वाकई जितनी अंगुठियां हैं, उतने राम हुए हैं। जब वह अपना समय पूरा कर लेते हैं तो उनकी अंगूठी उनके हाथ से निकल कर पाताल में पहुंच जाती है जिसे वह संभाल कर रख लेता है। इसके बाद दूसरे राम आते हैं और दूसरी अंगूठी आती है।
लेकिन संघ परिवार को राम की यह न ख़त्म होने वाली परंपरा मंज़ूर नहीं। वह अपने एक राम के पीछे पड़ा है और उसकी अंगूठी भी ठीक से पहचान नहीं पा रहा है। वह जैसे सारी अंगूठियां छीन कर छुपा लेना चाहता है। वह राम को लोकस्मृति और परंपरा की ज़मीन से उठाकर अपनी विचारधारा के दुर्ग में कैद करना चाहता है। लेकिन इससे राम दूर चले जाते हैं। डर बस इतना है कि वे इतने दूर न चले जाएं कि फिर लौट कर आ भी न सकें। अगर हम चाहते हैं कि राम लौटें तो हमें पहले रामानुजन को लौटाना होगा।
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