कात्यायनी
आम नागरिकों और मासूम बच्चों की
हत्या हार
की बदहवासी में बर्बर आक्रान्ता करते हैं ।
गाजा की ही
तरह लेबनान में भी इस्रायली जियनवादियों
ने नागरिकों और बच्चों
का नरसंहार किया था, पर
अंतत: उसे वहां अपमानजनक हार
का सामना करना पड़ा था। जो लेबनान में हुआ
था, वही गाजा में आज
हो रहा है।
गाजा में जल
रही प्रतिरोध संघर्ष की आग
अब पूरे फिलिस्तीन में
फैल गयी है।
कल पश्चिमी तट के 50000 फिलिस्तीनियों ने रामल्ला से यरूशलम तक मार्च किया। सात
लोगों की हत्या और कई
को जख्मी
करने के बावजूद इस्रायली सेना उन्हें
रोक नहीं सकी। पूरे फिलिस्तीन में
तीसरे इन्तिफादा की शुरूआत हो चुकी है । जो
सच्चाई पूरी दुनिया में
बार- बार प्रमाणित हुई है
और फिलिस्तीन में पिछले 66 वर्षों के
दौरान बार-बार
स्थापित हुई है, वही
एक बार फिर
गाजा में उभरकर सामने आयी
है कि बर्बरतम दमन भी
मुक्तिकामी जनता के हौसलों को तोड़ नहीं सकता। दुनिया के सबसे संहारक हथियारों के जखीरे भी जन
प्रतिरोध के सागर में डूब
जाते हैं।
फिलिस्तीन में
जन- प्रतिरोध के जिस नये
चरण की शुरुआत हुई है,
वह पूरे अरब जगत में
एक नये परिवर्तनकारी उथल-पुथल भरे दौर
का प्रस्थान बिन्दु बनने वाला है। अरब
देशों के शेख
और शाह तथा
अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ
नत्थी सरकारें एक स्वतंत्र फिलिस्तीन के अस्तित्व से
हमेशा ही आतंकित रहती आयी
हैं। उन्हे
यह भय सताता रहता है
कि फिलिस्तीनी मुक्ति की प्रेरणा से उनके देशों में भी
जनता उनकी भ्रष्ट-निरंकुश सत्ताओं के खिलाफ उठ खड़ी होगी। इसलिए वे हमेशा फिलिस्तीनी लक्ष्य
के साथ विश्वासघात करते आये हैं। दूसरी ओर
अरब देशों की जनता की फिलिस्तीनियों के साथ
हमेशा से गहरी सहानुभूति और
एकजुटता रही है।
सउदी अरब, कतर,
कुवैत और जार्डन के शाहों-शेखों से
लेकर मिस्र के राष्ट्रपति अल सिस्सी तक
को पिछले दिनों अरब
देशों में आये
जनउभार का भूत
लगातार सताता रहता है। उन
स्वत:स्फूर्त जनउभारों के दबाव को दमन, दुरभिसंधियों , बिखरे हुए नेतृत्व के अन्तरविरोधों को उभारने और उनमें अपने एजेण्ट घुसाने की शातिराना चालों और
बुर्जुआ संसदीय चुनावों का स्वांग रचकर विसर्जित तो कर
दिया गया,
लेकिन साम्राज्यवादी डकैत और अरब शासक यह भली-भांति जानते हैं कि सतह
के नीचे आग अभी भी
धधक रही है।
पूरा मध्यपूर्व एक टाइम बम बना
हुआ है।
गाजा नरसंहार के विरोध में समूचे मध्यपूर्व में जनता जैसे सड़कों पर उतर पड़ी, उससे अरब
शासकों में आतंक फैल गया। उनकी दिली ख्वाहिश थी कि
फिलिस्तीनी प्रतिरोध को जियनवादी कुचल दें,
और इससे समूची अरब जनता को एक
संदेश जाये। लेकिन जब ऐसा
नहीं हुआ तो
वे बदहवास हो गये ।
फिलिस्तीन के
पक्ष में सड़कों पर उमड़ी भीड़ ने
उन्हे बाध्य कर
दिया कि
वे इस्रायली हमले के विरोध में कम
से कम जुबानी जमा खर्च करें। इस
बीच मिस्र के राष्ट्रपति अल सिस्सी ने
'' शान्ति के मसीहा'' का चोगा पहनकर एक
युद्ध-विराम प्रस्ताव रखा
जो वास्तव में गाजा के लोगों के लिए
एक अपमानजनक आत्मसमर्पण का प्रस्ताव था। इस
प्रस्ताव को
हमास ने ठुकरा दिया
और अपने पुराने युद्धविराम
प्रस्ताव की
याद दिलाते हुए यह
सवाल उठाया कि इस्रायल 2012 में जो करार कर चुका है, उसका भी पालन क्यों
नहीं करता? हमास के तर्कों का सोशल मीडिया और
दुनिया भर के
बुद्धिजीवियों के जरिए काफी प्रचार हुआ और
अल सिस्सी की गद्दारी और अधिक नंगे रूप
में सामने आयी। अरब जनता के सामने पहले से
ही यह स्थिति स्पष्ट है कि
गाजापट्टी की चौतरफा घेरेबंदी और
इस्रायल की रोज-रोज की उकसावेबाजी की कार्रवाइयां समाप्त किये बिना , निर्दोष फिलिस्तीनी बंदियों की रिहाई के बिना और एकता सरकार बनने की राह
में इस्रायल द्वारा डाली जा रही बाधाओं को समाप्त किये बिना युद्धविराम का कोई
मतलब नहीं बनता। यह जनसमुदाय का दबाव ही था
जिसके चलते गाजा की मिस्र से लगी
सीमा की सीलबंदी में ढील
देते हुए पिछले दिनों अल
सिस्सी ने मानवीय सहायता ले
जा रही स्वयंसेवकों की एक
टीम को मिस्र के रास्ते गाजा में प्रवेश की इजाजत दे दी।
गाजा की जनता के बहादुराना प्रतिरोध ने अमेरिकी मध्यस्थता
में जियनवादियों
से समझौता करके सरकार चला रहे वर्तमान पी.एल.ओ. नेतृत्व की रीढ़विहीनता और घुटनाटेकू रवैये को भी और
अधिक बेनकाब कर दिया है। पश्चिमी तट पर कल
से जिस व्यापक जनउभार की शुरूआत हुई है, उससे यह स्पष्ट हो
गया है कि
आने वाले दिनों में वर्तमान पी.एल.ओ. नेतृत्व अपनी रही-सही साख
भी खोकर ज्यादा से ज्यादा अप्रासंगिक होता चला जायेगा और जनसंघर्षों की कोख
से नया जुझारू नेतृत्व
जन्म लेगा।
गाजा के बहादुराना प्रतिरोध ने इस्रायल के भीतर भी एक बड़ा बदलाव पैदा किया है।
नस्ली जुनून पैदा करने की जियनवादी शासकों की
तमाम कोशिशों के बावजूद पहली बार इतने बड़े पैमाने पर इस्रायल की यहूदी आबादी के
एक अच्छे-खासे हिस्से ने, जो
कि अमनपसंद है, सड़कों पर उतरकर गाजा नरसंहार का विरोध किया है, गाजा की एक
दशक से जारी घेरेबंदी को
समाप्त करने की मांग की है
तथा अनधिकृत क्षेत्रों में यहूदी बस्तियां बसाने का विरोध करते हुए
फिलिस्तीन की
आजादी के पक्ष में आवाज उठायी है।
यहां तक कि
बहुतेरे अवकाशप्राप्त सैनिकों ने भी इस्रायल की इस
एकतरफा नरसंहारी लड़ाई के दौरान 'रिजर्व ' की
भूमिका निभाने से मना कर
दिया है।
गाजा के नरसंहार और उसके शौर्यपूर्ण जन-
प्रतिरोध ने इराक, लीबिया, सीरिया और मिस्र की घटनाओं के बाद
समूचे मध्यपूर्व को एक
नयी डिजाइन में ढालने की अमेरिका और नाटो की परियोजना को भी पलीता लगाने का
काम किया है। मध्यपूर्व की तेल
सम्पदा पर
अपना कब्जा
बरकरार रखने के लिए ही
अमेरिका और पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप करके और
धार्मिक कट्टरपंथी ग्रुपों को भरपूर मदद देकर इराक और
लीबिया में तख्तापलट करवाये और सीरिया में गृहयुद्ध उकसाया। इसी उद्देश्य से
इन ताकतों ने अरब देशों के जनउभारों को कुचलने तथा उनमें फूट पैदा करके और
अपने एजेण्ट घुसाकर उन्हे विपथगामी बनाने और
विसर्जित करने का काम किया। सीरिया और
इराक के एक
बड़े हिस्से पर कब्जा जमाकर खुद को नया
खलीफा घोषित करने वाला आतंकवादी संगठन आई.एस.आई.एस. का सरगना अल बगदादी दरअसल एक
अमेरिकी एजेण्ट है जिसने सी.आई.ए. और मोसाद से प्रशिक्षण हासिल किया है। सी.आई.ए. के
पूर्व कर्मचारी स्नोडेन के ताजा खुलासे ने इस
सच्चाई को
पुष्ट कर
दिया है। तरह-तरह के इस्लामी कट्टरपंथी गिरोहों को शह
देकर जन-प्रतिरोध संघर्षों को
विखण्डित-दिग्भ्रमित और विसर्जित करने का
यह अमेरिकी नुस्खा पुराना है, जो
अफगानिस्तान में
और अरब देशों में पहले भी आजमाया जा चुका है। अफगानिस्तान में
सोवियत साम्राज्यवाद-विरोधी जन प्रतिरोध को गलत दिशा में ले
जाने के लिए
वहां धार्मिक कट्टरपंथी गिरोहों को अमेरिका ने शह दिया। नजीबुल्ला
सरकार के पतन
के बाद इन
गिरोहों के आपसी संघर्षो ने
जब वहां गृहयुद्ध की स्थिति पैदा कर
दी तो अमेरिका ने पाकिस्तान में
तालिबानों के दस्ते तैयार किये और अल
कायदा का तालिबान के साथ
गंठजोड़ तैयार करके उन्हें
अफगानिस्तान में
घुसाया। जब अमेरिकी उद्देश्य
पूरा हो गया
और ये धार्मिक कट्टरपंथी गिरोह अमेरिका के
लिए ही भस्मासुर की भूमिका निभाने लगे
तो इन्हे
किनारे लगाकर अमेरिका ने अफगानिस्तान में
अपने पिट्ठू और पूर्व सी.आई.ए.
एजेण्ट करजई को सत्ता में बिठा दिया। धार्मिक कट्टरपंथी गिरोहों को शह
देकर प्रतिरोध संघर्षों को फूट
और विसर्जन का शिकार बनाना अमेरिका और सभी पश्चिमी साम्राज्यवादियों का पुराना आजमूदा नुस्खा है।
जब इन गिरोहों का काम
पूरा हो जाता है तो
अमेरिका इन्हे
जोर-शोर से
''आतंकवादी'' बताने लगता है और
सारी सहायता बंद करके ठिकाने लगाने में लग जाता है। धार्मिक कट्टरपंथी जुनून की अपनी गति होती है। कालान्तर में
वह साम्राज्यवादियों की इच्छा से स्वतंत्र आचरण करने लगता है और उनके लिए भस्मासुर बन जाता है। तब
साम्राज्यवादी उन्हे ठिकाने लगा देते हैं और
आसानी से ''जनतंत्र बहाली'' के
नाम पर देश-विशेष में अपनी पिट्ठू सरकार स्थापित कर देते हैं। वर्तमान समय में
अमेरिका की नीति पूरे मध्य-पूर्व में शिया-सुन्नी-कुर्द-दुर्ज-ईसाई आबादी के
बीच आत्मघाती-भ्रातृघाती गृहयुद्धों जैसी स्थिति पैदा कर देने की है ताकि साम्राज्यवाद और देशी बुर्जुआ सत्ताओं के विरुद्ध एकजुट जन
प्रतिरोध की विकासमान सम्भावनाओं को नष्ट किया जा सके। बाद में गृहयुद्ध जैसी स्थिति में मसीहा बनकर प्रवेश करना और
शांति-स्थापना और जनतंत्र-बहाली के
नाम पर अपने ऊपर निर्भर कमजोर बुर्जुआ सत्ताएं स्थापित करके अपना उल्लू
सीधा करना -- यही अमेरिका की वर्तमान मध्यपूर्व नीति है और
फिलहाल अल बगदादी इसका मुख्य मोहरा है। लेकिन गाजा नरसंहार के शौर्यपूर्ण प्रतिरोध के पक्ष में
पैदा हुई सर्व अरब जन-एकजुटता की भावना ने अमेरिकी मंसूबों पर
फिलहाल काफी हद तक पानी फेर दिया है। हालांकि अल बगदादी की मुहिम जारी है।
लेकिन आम अरब
जनता में एक
बार फिर साम्राज्यवाद विरोधी एकजुटता की
लहर हिलोरें मारने लगी है।
यह सवाल अरब जगत में
सड़कों पर उठने लगा है
कि दुनिया भर के मुस्लिमों के खलीफा होने का
दावा करने वाला अल बगदादी गाजा के
मसले पर चुप
क्यों है
और ठीक इसी
समय इराक में गृहयुद्ध छेड़कर अमेरिका और इस्रायल के पक्ष को मजबूत क्यों कर
रहा है? नये
'' खलीफा'' की खिलाफत एक प्रहसन बन चुकी है। अल
बगदादी के द्वारा अमेरिकी मध्य पूर्व और खाड़ी क्षेत्र में अपनी जिस नयी
डिजाइन को अमली जामा पहनाने की जमीन तैयार कर
रहा था, उस
पर गाजा के बहादुर फिलिस्तीनियों की कुर्बानियों
ने काफी हद तक पानी फेर दिया है।
गाजा नरसंहार और उसक अदम्य प्रतिरोध के इन
दिनों ने आने
वाले दिनों में विश्व राजनीतिक परिदृश्य में
होने वाले कुछ अहम बदलावों के पूर्वसंकेत भी दिये हैं और
इन बदलावों को प्रारम्भिक
संवेग देने में एक अहम
भूमिका भी निभायी है। गत
शताब्दी के
साठ और सत्तर के दशकों के दौरान जब ख्रुश्चोवी संशोधनवाद की लहर
के ऐतिहासिक प्रतिगामी प्रभाव के बावजूद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की लहर
ऊफान पर थी
और माओकालीन चीन में लगातार प्रगतिपथ पर
अग्रसर नये-नये
समाजवादी प्रयोग पूरी दुनिया के मुक्तिकामी
जनों को प्रभावित कर रहें थे, तब
वियतनामी मुक्तियुद्ध
के पक्ष में , समूचे हिन्दचीन और कोरियाई प्रायद्वीप में अमेरिकी साम्राज्यवादी सामरिक हस्तक्षेप के विरोध में, क्यूबा की क्रान्ति को कुचलने की अमेरिकी साजिशों के
विरोध में, द.
अफ्रीका में जारी रंगभेदवादी सत्ता विरोधी मुक्ति संघर्ष तथा नामीबिया, जिम्बाब्वे, अंगोला आदि अफ्रीकी देशों में जारी मुक्तिसंघर्षों के पक्ष में, ईरान और निकारागुआ की क्रान्तियों
को कुचलने की अमेरिकी कोशिशों के विरोध में तथा
फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पक्ष में पूरी दुनिया के बड़े- बड़े जन
प्रदर्शनों का होना आम बात
थी। अमेरिका और यूरोप के मध्यवर्गीय युवा 1960 के दशक में
जब अपनी बुर्जुआ व्यवस्थाओं के
विरुद्ध अराजक रूमानी विद्रोह के रास्ते पर थे,
तब वे वियतनामी क्रान्ति , क्यूबा की क्रान्ति, फिलिस्तीन
और चीन के
पक्ष में भी
मुखर होकर आवाज उठाते थे। माओ और
चे के बिल्ले लगाना पश्चिमी विद्रोही युवाओं में
आम बात हुआ करती थी। उस
दौर के बाद
स्थितियों में भारी बदलाव आये
। चीन में
1976 में माओ की
मृत्यु के
बाद हुई पूंजीवादी पुनर्स्थापना , तीसरी दुनिया के देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की
विजय के बाद
स्थापित देशी बुर्जुआ सत्ताओं के क्रमश: भ्रष्ट और
निरंकुश रूप में
सामने आते जाना , गोर्बाचोव का
ग्लासनोस्त पेरेस्त्रोइका और फिर
सोवियत संघ तथा
उसके खेमे के विघटन के बाद एकछत्र अमेरिकी चौधराहट में पूरी दुनिया में
नवउदारवादी नीतियों का फैलाव -- इस घटनाक्रम विकास ने बीसवीं शताब्दी
के अन्तिम दो दशकों के दौरान यह
सिद्ध कर दिया कि इतिहास की प्रगतिमुखी धारा फिलहाली तौर पर
विपर्यय के भंवर में जा
फंसी है। गत
शताब्दी के
सातवें दशक के
अंत में क्रान्ति की लहर
पर प्रतिक्रान्ति
की लहर हावी हो गयी
और अंतिम दशक तक उसने अपना निर्णायक वर्चस्व
स्थापित कर लिया । हालांकि जनता के संघर्ष कभी रुके नहीं(रुकते भी नहीं), लेकिन प्रतिकूल वैश्विक परिवेश में वे
पराजित और विसर्जित होते रहे। इस दौरान भी , अपने नेतृत्व
के मुख्य हिस्से की गद्दारी और आत्मसमर्पण के बावजूद फिलिस्तीनी जन अपनी मुक्ति के
लिए लड़ते रहे। पहले और दूसरे इन्तिफादा जैसे अभूतपूर्व जनउभार इसी प्रतिकूल वैश्विक परिवेश में हुए। नयी शताब्दी में , हालांकि प्रतिक्रान्तिकारी
लहर हावी बनी रही, लेकिन कुछ ऐसी
घटनाएं भी घटीं जिन्होंने आने वाले दिनों के
पूर्वसंकेत दे दिये। एक, लातिन अमेरिका में
साम्राज्यवाद विरोधी जन- प्रतिरोध की लहर
ने नवउदारवाद के सामने चुनौती पेश करने की शुरुआत कर दी।
दूसरे, विश्व पूंजीवाद के असाध्य ढांचागत संकटों का विस्फोट पहले दशक के
उत्तरार्द्ध में अमेरिका और यूरोप में गम्भीर
मंदी के रूप
में हुआ और
दशकों बाद ऐसा
हुआ कि भारी जन सैलाब सड़कों पर
उमड़ पड़ा। साथ ही जो
चीन पूंजीवादी मानकों से सबसे तेज गति
से विकसित हो रहा था,
वहीं आम जनता का प्रतिरोध भी सबसे तेजी से
विकसित हुआ। रूस और पूर्वी यूरोपीय देशों में भी
आर्थिक संकट ने सामाजिक संकट का रूप
ले लिया। तीसरी बात, विश्व पूंजीवाद के गहराते संकट के
दौर
में विश्व बाजार में भागीदारी के लिए अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा फिर से
मुखर होने लगी है, नये
अन्तरराष्ट्रीय समीकरण बनने लगे हैं
तथा रूस और
चीन अपना नया ब्लाक
बनाकर अमेरिकी वर्च्रस्व को
चुनौती देने की तैयारियों में लग गये
हैं।
इसी बदलते विश्व परिवेश में गाजा का नया
घटनाक्रम विकसित हुआ है और
लगभग चार दशकों बाद ऐसा
नजारा सामने आया है कि
पूरी दुनिया के सैकड़ों शहरों में लाखों लाख लोग
जियनवादी नस्ली
नरसंहार का विरोध करते हुए
गाजा के संघर्षरत लोगों के
पक्ष में सड़कों पर उतर
आये हैं। फिलिस्तीनी मुक्ति के पक्ष में यह
अन्तरराष्ट्रीय एकजुटता अपने आप में
बहुत कुछ बताती है। इसके महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निहितार्थ हैं। इसमें भविष्य के अहम
पूर्वसंकेत छिपे हुए हैं।
पश्चिमी देशों के शासक स्वयं अपने देशों की
जनता के इन
विरोध-प्रदर्शनों
से हैरान-परेशान हैं । मध्यपूर्व और फिलिस्तीन को
लेकर उनकी आम सहमति टूटने लगी है
और उनमें मतभेद पैदा होने लगे हैं। अमेरिका की
यहूदी आबादी का एक हिस्सा भी
जियनवाद का विरोध करने लगा
है और परम्परागत रूप
से डेमोक्रेटिक
पार्टी का समर्थक और इस्रायल को बढ़-चढ़कर वित्तीय मदद देने वाला यहूदी मूल
के अमेरिकी पूंजीपतियों का धड़ा भी सकते में है।
यूरोप और अमेरिका के बुद्धिजीवी इस्रायल का अकादमिक बायकाट कर रहे
हैं। वहां के बहुतेरे कलाकार, लेखक, छात्र और मानवाधिकारकर्मी स्वयंसेवक दस्ते
बनाकर गाजा कूच का आह्वान कर रहे
हैं और यह
दबाव बना रहे हैं
कि मिस्र उन्हे गाजा में प्रवेश की इजाजत दे। लेबनान के बाद,
इस्रायल गाजा में तो हार
ही रहा है,
उसक सरपरस्त पश्चिमी देश भी नीतिगत स्तर
पर अपने देशों के भीतर एक लड़ाई हार रहे
हैं।
अमेरिका और पश्चिमी देशों की
तमाम कोशिशों के बावजूद, कमोबेश 1980 के
दशक के पूर्वार्द्ध तक अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में इस्रायली जियनवादी अलग-थलग थे ।
उनका हुक्का-पानी बंद था। नवउदारवाद के दौर
में उसका यह अलगाव तेजी से टूटा। तीसरी दुनिया के बहुतेरे देशों से
उसके व्यावसायिक और सामरिक सहकार के
सम्बन्ध
प्रगाढ़ हुए। गौरतलब है कि
कभी फिलिस्तीन के पक्ष में अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर सर्वाधिक मुखर रहने वालों में
से एक, भारत आज इस्रायली हथियारों का
सबसे बड़ा खरीदार है और
आंतरिक सुरक्षा के मामलों में अमेरिकी एजेंसी एफ.बी.आई. के बाद
'मोसाद' भारत का सबसे बड़ा मददगार है। इस अवैध प्रणयलीला को
नरसिंह राव की
कांग्रेसी सरकार ने शुरू किया था जिसे अटल सरकार ने आगे
बढ़ाया और अब
मोदी सरकार नयी ऊंचाइयों तक ले जाना चाहती है।
इस प्रगाढ़ता के पीछे केवल भारतीय बुर्जुआ वर्ग के हितों और अन्तरराष्ट्रीय समीकरणों का पहलू ही काम
नहीं कर रहा
है। इसका एक विचारधारात्मक पक्ष भी है। सभी
फासिस्टों का
आपस में वैचारिक नैकट्य स्वाभाविक है। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ की
जितनी निकटता नात्सियों के नस्लवाद से है,
उतनी ही निकटता जियनवादियों के नस्लवाद से भी
है। यही नहीं, इस मामले में ओसामा, मुल्ला
उमर, अल बगदादी भी इन्हीं के चचेरे-ममेरे भाई
ठहरते हैं। जिस मोदी सरकार ने गाजा नरसंहार पर
संसद में चर्चा तक कराने से इन्कार कर दिया था, उसी
को यदि संयुक्त राष्ट्रसंघ में
फिलिस्तीन के
पक्ष में मत
देना पड़ा तो इसका मुख्य कारण यह था
कि दिल्ली सहित भारत के दर्जनों शहरों में
गाजा नरसंहार के विरोध में जो पचासों प्रदर्शन हुए
और पूरी दुनिया में फिलिस्तीन के
पक्ष में सड़कों पर जो
एक नयी लहर
दिखाई पड़ी, उसके दबाव की अनदेखी करना मोदी के लिए असंभव था। उसे
'ब्रिक्स' सहित अन्य
देशों के साथ
अपने रिश्तों का भी
ध्यान रखना था।
ऐसे मुर्दादिल बुद्धिजीवियों की कमी
नहीं , जो इस
बर्बर नरसंहार के समय भी
घरों में बैठे रहे और
ऐसे जन-प्रदर्शनों को रस्म अदायगी बताते हुए कहते रहे कि
दिल्ली या
लखनऊ के प्रदर्शनों से गाजा में भला
क्या फर्क पड़ेगा। ऐसे
लोग इतिहास की गति और
विश्व जनता की
सक्रिय एकजुटता के प्रभाव को एकदम नहीं समझते। दिल्ली, मंगलूर, मुंबई, श्रीनगर, कारगिल, लखनऊ से लेकर दुनिया के
कई सौ शहरों के लाखों-लाख इंसाफपसंद लोग जब
सड़कों पर उतर
पड़े तो इससे निश्चय
ही विश्व स्तर
पर न केवल जियनवाद के
विरुद्ध, बल्कि उसकी सरपरस्त साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध एक माहौल तैयार हुआ है।
इस माहौल ने भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के बुर्जुआ शासकों पर
अमेरिका और सभी
साम्राज्यवादी ताकतों पर तथा
जियनवादी बर्बरों पर प्रभावी ढंग से दबाव बनाया है।
वे सोचने लगे हैं और
फिलहाली तौर पर
ही सही ,पीछे कदम खींचने की राह
ढूंढ़ने लगे हैं। जितनी ही
वे देर करेंगे, उतना ही
फंसते जायेंगे।
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