मित्रो आज आपके बीच कहानी - कछार प्रस्तुत है...और उस पर टिप्पणी भी....पहले टिप्पणी पोस्ट कर रहा हूँ...
और फिर..कछार
टिप्पणी
स्त्री जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों को एक बहुत ही सहज भाषा-शैली में उठाती है यह कहानी। ग्रामीण परिवेश में व्याप्त स्त्रियों की आपसी बातें, परस्पर ईर्ष्या, कानाफूसी और हास-परिहास के बीच एक स्वतंत्रचेता स्त्री के प्रति पारंपरिक समाज के पूर्वाग्रहों को बिना किसी अतिरिक्त तामझाम और आडम्बर के रेखांकित किया जाना कहानी का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन स्त्रियों की परस्पर बातचीत के बीच यदि रूपा और दुखंता फूआ के मनोविज्ञान को भी गहराई से विवेचित किया जाता तो कहानी ज्यादा प्रभावशाली होती। ग्रामीण परिवेश और वहां की बोली-वाणी का वर्णन जीवंत है। भाषा, परिवेश, बहाव, पठनीयता सब कहानी के लिए जरूरी होते हैं, इस कहानी में हैं भी। पर कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं होती। परिवेश और मन के द्वंद्वों को कहानी में और जगह मिलनी चाहिए थी, जिसके अभाव में यह एक साधारण कहानी बन के रह गई है और कुछ नया नहीं कह पाती।
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06:57, Jan 30 - Satyanarayan:
कहानी कछार
पूरा गांव इंतज़ार कर रहा था उसमें भी ख़ासतौर पर स्त्रियां।उन्हें रूपा के ससुराल से वापस भेज दिए जाने का इंतज़ार था।यह दृढ विश्वास स्त्रियों के मन में रूपा के विवाह केभीसालों पहले से उसके प्रति बना हुआ था किकिसी भी दिन रूपा ससुराल से भगाई जा सकती है । पुरुष भी कभी-कभी स्त्रियों के तिखरवाने पर हामी भर देते थे या अक्सर उन्हें झिड़क कर या अनसुना ही करके घर से निकल जाते थे। वे शायद इस मामले में या रूपा के बारे में उतनी गहराई से नहीं सोच पाते थे न ही इतनी जांच पड़ताल करने में अपना दिमाग खर्च करते थे । स्त्रियां भयवश शायद कुछ अधिक सोचतीं थी या उनके अपने दुःख उन्हें ऐसा सोचने के लिए बाध्य करते थे, क्या मालूम ! मगर बात की बात में गांव की तेज़-तर्रार लड़कियों को स्त्रियां मर्दमार कहा करतीं थीं.रूपा के लिए तो यहस्त्रियों का तकियाकलाम ही था - "अच्छी भली का तो गुजारा मुश्किल है, इस मर्दमार लड़की का गुज़ारा भला ससुराल में कहाँ होने वाला है" ।
दूसरी कहती " ससुराल में साल भर बीत जाए तो बड़ी बात होगी '। तीसरी कहती- " जो किसी से नहीं हारता वह अपनी संतान से हारता है। देखती नहीं हो राम नरेश की मेहरारू आँख मिला कर बात नहीं करती है " ।
चौथी कहती -"यहाँ थी तो यहाँ नाक में दम किया । माँ बाप की नाक कटा के गांव भर में घूमती रही और वहाँ तो बिना सास का घर ही मिल गया है ! सुना सास नहीं हैं, न ही घर में कोई दूसरी स्त्री है और इसके अंदर स्त्री के कोई गुण मौजूद हैंनहीं। अलबत्ता अवगुण ही भरे हैं "
पांचवी कहती "ससुराल में ये रह पायेगी ? घर को सराय बना देगी! बर्दाश्त करेगा कोई इसे ?घर से निकाल देंगें सब।"
छठी कहती -"यहाँ तो छुट्टा सांड थींवहाँ ये पांव देहरी के बाहर भी न निकाल पाएंगी"।सांतवी कहती -" पता नहीं महतारी कैसी थी. वह भी नैहर में ऐसी ही रही होगी तभी तो बेटी को रोक नहीं पायी। वह तो राम नरेश जैसा आदमी था जिसनेइसकोनाधा, नहीं तो एक तो रूप रंग और गढ़न अच्छी ही थी ऊपर से इतना दहेज़ लेकर आयी थी कि किसी की मजाल न होती बोलने की। तभी छठवीं फिर कह देती -" सच पूछो तो राम नरेश भी तो मौगा निकले जो हरदम अपनी मेहरारू केहीगुन गाते रहते हैं"।
सातवीं फिर कहती -"पूरा गांव थू थू करता है लेकिन रूपा की माँ के ऊपर कोई असर है कहीं । बेटी कभी किसी लडके के साथ पकड़ी जाती है तो कभी किसी के साथ। गांव भर में बात उड़ जाती है और इनको जैसे कुछ मालूम ही नहीं है। बेटी कोदुनिया कुछ भी कहे पर महतारी पर कोई असर ही नहीं होता । क्या मजाल जो बेटी पर कभी एक थप्पड़ भी उठाया हो। उलटा ये खा ले, वो खा ले करती रहती है " सबेरे सबेरे दुखंता फुआ की चौपाल में यह पंचायत अपनी खुमारी में लहरा रही थी .
बस दो बरस पहले की ही बात तो थी।सबेरे चार बजे से ही गांव भर की स्त्रियां अलस उत्सुकता लिए सुदर्शन मिसिर के घर की ओर चली जा रहीं थीं । कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें या उनके पदचापों की आवाज़ के साथ पायल के घुंघुरुओं की छन-छन की आवाज़ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं। भोर से धुले चमकते हुए तारों की छांव पूरे गांव पर थी । उजाले की सुनगुनी शुरू हो गई थी । सुदर्शन मिसिर के घर के सामने घर के जवान लडके जो रात भर में दो घंटे सोकर जाग गए थे बारात के सुबह के नाश्ते और विदाई के सामानों की तैयारी में व्यस्त थे । औरतें चुपचाप खुले दरवाजे से दालान में घुसती घर के भीतरी हिस्से में दाखिल होती जा रहीं थीं। आँगन के बीच में पियरी के ऊपर लाल बनारसी गोटेदार चादर ओढ़े रूपा बैठी है। चुपचाप नीचे देखती हुई ,किसी सोच में डूबी हुई। सोने के मांग टीके का रंग, बड़ी सी नथनी का रंग , उसकी पियरी का रंग और उसकी नरम-नरम गोरी देह का रंग, तीनों एकसार हैं। जैसे तारों को आसमान में छोड़कर चाँद धीरे से सुदर्शन मिसिर के आँगन में आ बैठा था।
यह वही रूपा है यह पहचानना कठिन था । और ससुराल जाती रूपा को याद आ रहा था फकीरे। फकीरे के साथ गांव की कोई बँसवारी , गांव का कोई ऐसा पेड़ रुख नहीं , गांव की कोई गली कोई पोखरा, तालाब नहीं, जो छूट गया हो।वहाँ कहाँ मिलेगा फकीरे ! खेलते-खेलते दांव ही भूल गयी रूपा।जैसे आस्मां छूते छूते रह गई। अचानक जिंदगी शादी के सेवार में फंस गयी। उसने गांव की बहुत सी लड़कियों को विदा होते ससुराल जाते देखा था लेकिन उसके साथ भी यही होगा यह तो दूर दूर तक भी नहीं सोचा था ।
रूपा को वह शाम याद आ रही है जब बाबा ने माँ से कहा था- "घर परिवार बहुत अच्छा है,पूरा परिवार रूपा के मन के माफिक है. किसी दबाव में नहीं रहना होगा इसको . अब ब्याह की उम्र भी हो रही है,ऐसा घर-वर फिर मिले कि न मिले"। उसपर लगन लग गयी ! घर से बाहर आने-जाने के लिए अम्मा ने मना कर दिया । फकीरे , दीपक और राधेश्याम उसके सखा मिलने आये थे। तीनों उदास थे रूपा उनसे भी अधिक उदास थी । अब हमेशा के लिए उसका खेल बंद हो गया।यह कौन सी बात हुई। ससुराल में न पेड़ पर चढ़ेगी न लखनी पताई खेलेगी , न कबड्डी। लेकिन बाबा कहते हैं- बेटी, एक दिन हर लड़की की ज़िंदगी में ऐसा होता है जब बहते-बहते अचानक उसकी धार बदल जाती है लेकिन तब भी उसका लहलहाना घटता नहीं है। किसी और जमीन पर बहती है वह और धीरे धीरे वही उसका ठौर हो जाता है।नैहर तो लड़की की जिंदगी का कछार है .
"सब ठीक है, वहाँ जाकर तुमको अपने गुन से सबका दिल जीतना होगा। मेरी बेटी ऐसा कर लेगी "कहते कहते बाबा की आवाज रुँध क्यों जाती है !वह कहना चाहती थी पर जाने क्यों रुक गयी कि बाबा मेरा खेल ! अम्मा चुपचाप वहाँ से हट गयीं थीं। अजीब सा बिछोह था जिसमें एक उछाह था।घर झंकृत था ।
औरतें आँगन में बैठती जा रहीं हैं। औरतों की इतनी बड़ी संख्या की वजह है नहीं तो सबेरे ही तो सभी ज़रूरी काम निपटाने होते हैं जिन्हें छोड़कर औरतें यहाँ आ गयीं हैं। बदनाम और बदचलन रूपा को कैसा घर वर मिल रहा है यह देखने आने के लिए यह संख्या वृद्धि हुई है। हर घर से दो जनी नहीं तो किसी घर सेतीन जनी भी। नीरवता में कोई खुसफुसाहट मुखर हो जायेगी इस लिए सबनेभीगी-भीगी आँखों के साथएक बनावटी धैर्य भी ओढ़ रखा है।आजरूपा की विदायी है। ५। ३० का मुहूर्त निकला है। साज सामान तैयार है। दूल्हा आँगन में आने वाला है। रूपा और सिमट गयी है। कई जोड़ा आँखें देखने में लगी हैं कि देखें रूपा में लाज का प्रतिशत कितना है। उनकी निगाहों में रूपा की सुंदरता ऊपरी त्वचा भर है। लेकिन चमड़ी से घर नहीं चलता है। विदाई की बेला पास आती जा रही है। रूपा की माँ रोते-रोते खोइंचा भरा रहीं हैं। दूब , हल्दी, अक्षत ,पैसा पांच बार रूपा के आँचल में डालकर माथे पर टीकते टीकते उमड़ पड़ीं हैं। दूधो नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद देते हुए रूपा को भींच लेतीं हैं। रूपा सच में बहुत सुकुमार है यही सोचती उसके मंगल की कामना करते उनकी छाती दरक रही है लेकिन अपने घर लड़की को जाना ही होता है कब तक वे उसको अपने पास रख पाएंगीं। पूरे घर में औरतों के रोने की आवाज़ें भर गयीं हैं। विदाई पर रोना परम्परा है यह बात सारीं औरतें जानतीं हैं। जो नहीं रोयेगा उसको कठकरेजी कह दिया जाएगा , वे यह भी जानती हैं .
केकरा रोअला से गंगा नदी बहि गइलीं, केकरे जिअरा कठोर।
आमाजी के रोअला से गंगाजी बहि गइलीं, भउजी के जिअरा कठोर।
सखिया -सलेहरा से मिली नाहीं पवलीं, डोलिया में देलऽ धकिआय।
सैंया के तलैया हम नित उठ देखलीं, बाबा के तलैया छुटल जाय।
रूपा की भाभी सुलोचना औरतों का रोना-गाना सुनती रोती हुई रूपा को विदाई के लिए तैयार करने में जुटी है। अब अकेले कैसे कटेंगे इस घर में रात दिन। सास का बक्सा बंद करती, रोती अपनी ननद-सखी का जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। भाभी से भेंटकर अलग होते रूपा की रुलाई तोरोके नहीं रुक रही है । सबसे बढ़कर भाभी ही हो गयी ? गांव की औरतों को यह तो बिलकुल न भाया। शहर में पाली बढ़ी सुलोचनासमझ ही पाती थी कि औरतेंभेंटते समय गातीं हैं कि रोतीं हैं। लेकिन रूपा के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकली है। बस आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं उन्हीं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। सुदर्शन मिसिर से देर तक गले लगी रही रूपा और छोटे भाई के भी। कार खडी है। गहनों , भारी साडी से लदी-फंदी चेहरा ढंके गाड़ी में बैठी रूपा आज दूसरे ही रूप में है । सारी औरतें अपने अपने घर की ओर चल दीं। लेकिन दुखंता फुआ की दालान में चौपाल न लगे तो कैसे खाना पचे ए भाई ! गांव की नई लड़कियां भी बदमास हैं पीठ पीछे सुखंता फुआ कहतीं हैं और फुआ के सामने दुखंता फुआ।दुखंता फुआ बाल विधवा हैं और छोटी उम्र से ही नैहर ही उनका सब कुछ है। वहीं गुजर बसर है।
"अपने गांव घर का मान रख पायेगी"? अमरावती फुसफुसा ही पड़ीं इसका आदमी तो पहली रात ही इसके सारे कारनामे जान लेगा। आदमियों को बहुत तजुर्बा होता है। वे खायी खेली लड़की को एक निगाह में जान लेते हैं।"
"निगाह तो क्या बहिन देह कोई पराया मर्द जो छुवे भी रहेगा तो आदमी भला वह जाननलेगा " ? पारबता बोलीं - "उनको तो बहुत देह छूने का तजुर्बा न होता है।" सब खिलखिला कर ऐसे हंसने लगीं जैसे सबसे बड़ाकोईचुटकला हो गया और बहुत मजेदार बात कह दी हो पारबती ने।
"अपने गांव की इज्जत बचा के रखें हम लोग कुछ और थोड़े ही चाहते हैं। इस गांव की लड़कियां जहाँ भी गयीं हैं नाम कुनाम नहीं किया है। भले यहाँ कैसे भी रहीं हों तो क्या। अपने घर जाकर सब सह लिया और निभा लिया है" दुखंता फुआ बोलीं।
लालमणि बोली " इनको जिस दिन उसने पूरा चूस लिया बस उसी दिन निकाल बाहर करेगा। आखिर आवारागर्दी से बाज़तो आएंगीनहीं। मायके वालीवहाँमौज मिलेगी इनको भला ! जब आदत खराब हो तो कोई लाख रोकना चाहे रोक नहीं सकता है किसी तरह. सुना कई देवर हैं"।
मालती भी वहीँ आकर बैठ गयी है। औरतों के आधे चेहरे ढके हैं। सबकी बात सुनते मालती चिहुंक उठती है - "क्या ? घर बिना सास का है ? और ससुर "? "ससुर तो हैं। लेकिन ससुर क्या दिनभर इनकी रखवाली करेंगे . ये तो उड़ती चिड़ियाँ हैं" खखारती हुई रमोला बोल पड़ीं। दुखंता फुआ फिर बोलीं - "देखो किसी की भी लड़की हो बाकिर अपने घरे-दुआरे सुखी रहे लेकिन हाँ महतारी का करम भी कुछ होता है। इनकी महतारी को हम तब से जान रहे हैं जब से वे डोली से उतरीं। तभी हाथ पैर सब खुले थे ।कोई लाज-लिहाज ही नहीं था । बस मिसिर की इज्जत खातिर मुंह जरूर ढका रहा। हँसे तो इनको हँसी गांव के पच्छू के ढाल तक सुनाये। तो जब माई ऐसी तो धिया काहे न हो वैसी। उहे जौन कहावत है - जइसन माई वइसन धीया जइसन कांकर वइसन बीया।अपनी सास के साथ ऐसी बैठी रहतीं थीं जैसे कि पतोहू नहीं बेटी हों"।
आंसू सूखने के बाद औरतें दूसरे रूप में हैं . दुखंता फुआ के घर चाय चढ़ गयी है। सुड सुड चाय पीतीं वे जल्दी घर की ओर निकल लेना चाहतीं हैं।मनबदल गया है। सबेरे सबेरे खूब घूम-घाम हो गयी - अब घर चलें काकी। कह के सुनंदा उठी तो धीरे धीरे सारी औरतें गम्भीर और मंथर चाल से गांव गांव की पतली गली के नाली-पड़ोहा बचातीं अपने-अपने घरों की ओर चल दीं .
एक साल बीत गया और रूपा की ससुराल से कोई शिकायती ख़त भी न आया. यह तो अब उलटा लगने लगा था। इस बीच अलबत्ता यह खबर ज़रूर आ गयी कि रूपा के बेटा हुआ है। जो सोचा वह न हुआ।अब औरतें मायूस होने लगीं हैं।उनकी पंचायत की लहकघट गयी थी
बेमौसम ही मौसम ठंढा हो गया था।पंचायत के लिए कोई तीखा चटपटा गर्म मसाला नहीं रहता तो स्त्रियों की दुपहरिया बेरंग हो जाती है। इस बीच उन्हें काम चलाने के लिए कई चटपटे मसाले मिले। गांव में लड़कियों की कमी कहाँ है। जब लड़कियों की कमी नहीं तो लड़कों कीक्यों होगी। जब दोनों हैं तो गर्मागर्म खबरें भी होंगीं ही लेकिन रूपा जैसी लड़की अपने अंजाम तक नहीं पहुंची यह सवाल गांव की छाजन में खोंस दिया गया है। समय समय पर सवाल छाजन से उतार कर टटोलने लगतीं हैं औरतें ।
रूपा बस एक बार दो दिन के लिए आयी तो खूब खुश और स्वस्थ थी। कुछ मोटी भी हो गयी थी . दो दिनों में ही वापस चली गयी। किसी से मिलने भी न गयी तो गांव की औरतें फुसुर फुसुर कर के रह गयीं। इतना घमंड हो गया है बेटा जो हुआ है। माँ बेटी के पांव जमीन परकहाँ हैं। देखती हो न राम नरेश की मेहरारू कितना हंस हंस सबसे बतियाती है , बाप रे, बोली में तो ऐसी चाशनी बहती है कि कौन न भूल तभी तो राम नरेश भी गुलाम हैं। हंसती है तो आँख भी हंसती है उसकी। तब सुरेखा ठमक कर बोली –
" लेकिन जब आँख में पानी नहीं है तो ऐसा हंसना किस काम का "।
रूपा विदा तो हो गयी आधा रास्ता ख़तम होते होते नैहर भी छूट गया। अब जहाँ जा रही है वहाँ की चिंता सताने लगी थी रास्ते भर रूपा को एक चिंता सताती रही। मर्दों के घर को सम्भालना बहुत कठिन होगा ।रह रह कर बगल में बैठे नए साथी को भी देख लेती थी।यह फकीरे जैसा नहीं लगता। पता नहीं कैसा होगा।
कैसे लोग होंगे। बड़के कक्का जैसे गुस्से वाले होंगे या उसके दोस्तों जैसे। उसको अपने सारे सखा याद आने लगे। यहाँ उसके चार देवर हैं लेकिन उसके दोस्तों जैसे थोड़े होंगे। यही सब सोचती डरती घबराती अम्मा की हिदायतें याद करती रूपा ने ससुराल में पांव रखा। पड़ोसकी देवरानी जिठानी जैसे रिश्तों ने उसको सम्भाला। रूपा को ससुराल के लोग भले लगे। रूपा को कोई क़ैद पसंद कहाँ लेकिन वह बिखरा हुआ घर। रूपा ने सब समेटना बटोरना शुरू किया कि एक छिन की भी फुर्सत नहीं मिली। एक सप्ताह के भीतर घर घर हो गया। सुई से लेकरकुदाल तक की जगह तय हो गयी। महेंद्र पांडे एकदम तृप्त हो गए उन्हें रूपा में बेटी का रूप मिलने लगा । घर पहले जैसा हो गया जैसा महेंद्र पांडे की पत्नी के जीते था। रूपा खुद भी हैरान। उसको तो घर के काम करने का शऊर नहीं था। वहाँ अम्मा माँ की डाँट खाती थी जब शामहोने पर धीरे से घुसती थी तब माँ बरसने लगती थी लेकिन तभी पिता आकर माँ की ऊंची आवाज़ पर अपनी शांत आवाज़ से ठंढा पानी डाल देते थे। " अरे, खेल घूम लेने दो लड़की को। ससुराल जाकर तो नहीं कर पायेगी न यह सब"। " नाक कटा रही है घूम घूम। बैताल बनी रहती हैदिनभर। तुम क्या जानो।"अम्मा गुस्से में कहती।
गांव की प्रपंची औरतों की आस निराशा में बदल गयी। लौटकर नहीं आयी रूपा। हाँ आयी तो उसकी तारीफ आयी। ससुर आये थे। रूपा ने घर को स्वर्ग बना दिया है । वह रूपा तो है ही आपने लक्ष्मी भी भेजी है। औरतें हक्का बक्का हैं। लेकिन अब फुआ की पंचायत में जोर परहै चर्चा । वे तो हवा के रुख के साथ बहतीं हैं।
अब प्रपंच में हवा दूसरी बहने लगी है लेकिन ऐसे जैसे उस लड़की में अवगुण होते तो ससुराल में टिकती ? अब औरतों में फूट पड़ रही है। तब जो यहाँ वहाँ लड़कों के साथ पकड़ाती थी उसका क्या ?
“सब झूठ था जब हमने नहीं देखा अपनी आँख से तब झूठे न था"। " ए, बहिन तुम्हीं न आयी थी दौड़ती हुई कि भुसवल में पकड़ायी है"।रमोला और अमरावती के बीच विवाद हो गया।
"पागल हो ? उसकी अम्मा भी तो वहीँ थी। किसी ने झूठे जाकर उसकी अम्मा से कह दिया था कि तुम्हारी बेटी भुसवल में फकीरे के साथ है। तो इतना सुन के वे पगला गयीं थीं और दौड़ कर भुसवल में गयीं तो रूपा भूसा के ढेर के बीच में धंसी हुई थी । "और फकीरे ?" अमरावती नेपूछा।
"उसकी अम्मा जोर से चिल्लाई कि का कर रही है वहाँ । रूपा हंसी और बोली . अम्मा आओ न यहाँ से नीचे गिरने में बहुत मजा आ रहा है ? उसकी अम्मा तो गुस्से में
कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है
30.01.2015
और फिर..कछार
टिप्पणी
स्त्री जीवन की विडम्बनाओं और विसंगतियों को एक बहुत ही सहज भाषा-शैली में उठाती है यह कहानी। ग्रामीण परिवेश में व्याप्त स्त्रियों की आपसी बातें, परस्पर ईर्ष्या, कानाफूसी और हास-परिहास के बीच एक स्वतंत्रचेता स्त्री के प्रति पारंपरिक समाज के पूर्वाग्रहों को बिना किसी अतिरिक्त तामझाम और आडम्बर के रेखांकित किया जाना कहानी का सकारात्मक पक्ष है। लेकिन स्त्रियों की परस्पर बातचीत के बीच यदि रूपा और दुखंता फूआ के मनोविज्ञान को भी गहराई से विवेचित किया जाता तो कहानी ज्यादा प्रभावशाली होती। ग्रामीण परिवेश और वहां की बोली-वाणी का वर्णन जीवंत है। भाषा, परिवेश, बहाव, पठनीयता सब कहानी के लिए जरूरी होते हैं, इस कहानी में हैं भी। पर कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं होती। परिवेश और मन के द्वंद्वों को कहानी में और जगह मिलनी चाहिए थी, जिसके अभाव में यह एक साधारण कहानी बन के रह गई है और कुछ नया नहीं कह पाती।
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06:57, Jan 30 - Satyanarayan:
कहानी कछार
पूरा गांव इंतज़ार कर रहा था उसमें भी ख़ासतौर पर स्त्रियां।उन्हें रूपा के ससुराल से वापस भेज दिए जाने का इंतज़ार था।यह दृढ विश्वास स्त्रियों के मन में रूपा के विवाह केभीसालों पहले से उसके प्रति बना हुआ था किकिसी भी दिन रूपा ससुराल से भगाई जा सकती है । पुरुष भी कभी-कभी स्त्रियों के तिखरवाने पर हामी भर देते थे या अक्सर उन्हें झिड़क कर या अनसुना ही करके घर से निकल जाते थे। वे शायद इस मामले में या रूपा के बारे में उतनी गहराई से नहीं सोच पाते थे न ही इतनी जांच पड़ताल करने में अपना दिमाग खर्च करते थे । स्त्रियां भयवश शायद कुछ अधिक सोचतीं थी या उनके अपने दुःख उन्हें ऐसा सोचने के लिए बाध्य करते थे, क्या मालूम ! मगर बात की बात में गांव की तेज़-तर्रार लड़कियों को स्त्रियां मर्दमार कहा करतीं थीं.रूपा के लिए तो यहस्त्रियों का तकियाकलाम ही था - "अच्छी भली का तो गुजारा मुश्किल है, इस मर्दमार लड़की का गुज़ारा भला ससुराल में कहाँ होने वाला है" ।
दूसरी कहती " ससुराल में साल भर बीत जाए तो बड़ी बात होगी '। तीसरी कहती- " जो किसी से नहीं हारता वह अपनी संतान से हारता है। देखती नहीं हो राम नरेश की मेहरारू आँख मिला कर बात नहीं करती है " ।
चौथी कहती -"यहाँ थी तो यहाँ नाक में दम किया । माँ बाप की नाक कटा के गांव भर में घूमती रही और वहाँ तो बिना सास का घर ही मिल गया है ! सुना सास नहीं हैं, न ही घर में कोई दूसरी स्त्री है और इसके अंदर स्त्री के कोई गुण मौजूद हैंनहीं। अलबत्ता अवगुण ही भरे हैं "
पांचवी कहती "ससुराल में ये रह पायेगी ? घर को सराय बना देगी! बर्दाश्त करेगा कोई इसे ?घर से निकाल देंगें सब।"
छठी कहती -"यहाँ तो छुट्टा सांड थींवहाँ ये पांव देहरी के बाहर भी न निकाल पाएंगी"।सांतवी कहती -" पता नहीं महतारी कैसी थी. वह भी नैहर में ऐसी ही रही होगी तभी तो बेटी को रोक नहीं पायी। वह तो राम नरेश जैसा आदमी था जिसनेइसकोनाधा, नहीं तो एक तो रूप रंग और गढ़न अच्छी ही थी ऊपर से इतना दहेज़ लेकर आयी थी कि किसी की मजाल न होती बोलने की। तभी छठवीं फिर कह देती -" सच पूछो तो राम नरेश भी तो मौगा निकले जो हरदम अपनी मेहरारू केहीगुन गाते रहते हैं"।
सातवीं फिर कहती -"पूरा गांव थू थू करता है लेकिन रूपा की माँ के ऊपर कोई असर है कहीं । बेटी कभी किसी लडके के साथ पकड़ी जाती है तो कभी किसी के साथ। गांव भर में बात उड़ जाती है और इनको जैसे कुछ मालूम ही नहीं है। बेटी कोदुनिया कुछ भी कहे पर महतारी पर कोई असर ही नहीं होता । क्या मजाल जो बेटी पर कभी एक थप्पड़ भी उठाया हो। उलटा ये खा ले, वो खा ले करती रहती है " सबेरे सबेरे दुखंता फुआ की चौपाल में यह पंचायत अपनी खुमारी में लहरा रही थी .
बस दो बरस पहले की ही बात तो थी।सबेरे चार बजे से ही गांव भर की स्त्रियां अलस उत्सुकता लिए सुदर्शन मिसिर के घर की ओर चली जा रहीं थीं । कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें या उनके पदचापों की आवाज़ के साथ पायल के घुंघुरुओं की छन-छन की आवाज़ के सिवा और कोई आवाज़ नहीं। भोर से धुले चमकते हुए तारों की छांव पूरे गांव पर थी । उजाले की सुनगुनी शुरू हो गई थी । सुदर्शन मिसिर के घर के सामने घर के जवान लडके जो रात भर में दो घंटे सोकर जाग गए थे बारात के सुबह के नाश्ते और विदाई के सामानों की तैयारी में व्यस्त थे । औरतें चुपचाप खुले दरवाजे से दालान में घुसती घर के भीतरी हिस्से में दाखिल होती जा रहीं थीं। आँगन के बीच में पियरी के ऊपर लाल बनारसी गोटेदार चादर ओढ़े रूपा बैठी है। चुपचाप नीचे देखती हुई ,किसी सोच में डूबी हुई। सोने के मांग टीके का रंग, बड़ी सी नथनी का रंग , उसकी पियरी का रंग और उसकी नरम-नरम गोरी देह का रंग, तीनों एकसार हैं। जैसे तारों को आसमान में छोड़कर चाँद धीरे से सुदर्शन मिसिर के आँगन में आ बैठा था।
यह वही रूपा है यह पहचानना कठिन था । और ससुराल जाती रूपा को याद आ रहा था फकीरे। फकीरे के साथ गांव की कोई बँसवारी , गांव का कोई ऐसा पेड़ रुख नहीं , गांव की कोई गली कोई पोखरा, तालाब नहीं, जो छूट गया हो।वहाँ कहाँ मिलेगा फकीरे ! खेलते-खेलते दांव ही भूल गयी रूपा।जैसे आस्मां छूते छूते रह गई। अचानक जिंदगी शादी के सेवार में फंस गयी। उसने गांव की बहुत सी लड़कियों को विदा होते ससुराल जाते देखा था लेकिन उसके साथ भी यही होगा यह तो दूर दूर तक भी नहीं सोचा था ।
रूपा को वह शाम याद आ रही है जब बाबा ने माँ से कहा था- "घर परिवार बहुत अच्छा है,पूरा परिवार रूपा के मन के माफिक है. किसी दबाव में नहीं रहना होगा इसको . अब ब्याह की उम्र भी हो रही है,ऐसा घर-वर फिर मिले कि न मिले"। उसपर लगन लग गयी ! घर से बाहर आने-जाने के लिए अम्मा ने मना कर दिया । फकीरे , दीपक और राधेश्याम उसके सखा मिलने आये थे। तीनों उदास थे रूपा उनसे भी अधिक उदास थी । अब हमेशा के लिए उसका खेल बंद हो गया।यह कौन सी बात हुई। ससुराल में न पेड़ पर चढ़ेगी न लखनी पताई खेलेगी , न कबड्डी। लेकिन बाबा कहते हैं- बेटी, एक दिन हर लड़की की ज़िंदगी में ऐसा होता है जब बहते-बहते अचानक उसकी धार बदल जाती है लेकिन तब भी उसका लहलहाना घटता नहीं है। किसी और जमीन पर बहती है वह और धीरे धीरे वही उसका ठौर हो जाता है।नैहर तो लड़की की जिंदगी का कछार है .
"सब ठीक है, वहाँ जाकर तुमको अपने गुन से सबका दिल जीतना होगा। मेरी बेटी ऐसा कर लेगी "कहते कहते बाबा की आवाज रुँध क्यों जाती है !वह कहना चाहती थी पर जाने क्यों रुक गयी कि बाबा मेरा खेल ! अम्मा चुपचाप वहाँ से हट गयीं थीं। अजीब सा बिछोह था जिसमें एक उछाह था।घर झंकृत था ।
औरतें आँगन में बैठती जा रहीं हैं। औरतों की इतनी बड़ी संख्या की वजह है नहीं तो सबेरे ही तो सभी ज़रूरी काम निपटाने होते हैं जिन्हें छोड़कर औरतें यहाँ आ गयीं हैं। बदनाम और बदचलन रूपा को कैसा घर वर मिल रहा है यह देखने आने के लिए यह संख्या वृद्धि हुई है। हर घर से दो जनी नहीं तो किसी घर सेतीन जनी भी। नीरवता में कोई खुसफुसाहट मुखर हो जायेगी इस लिए सबनेभीगी-भीगी आँखों के साथएक बनावटी धैर्य भी ओढ़ रखा है।आजरूपा की विदायी है। ५। ३० का मुहूर्त निकला है। साज सामान तैयार है। दूल्हा आँगन में आने वाला है। रूपा और सिमट गयी है। कई जोड़ा आँखें देखने में लगी हैं कि देखें रूपा में लाज का प्रतिशत कितना है। उनकी निगाहों में रूपा की सुंदरता ऊपरी त्वचा भर है। लेकिन चमड़ी से घर नहीं चलता है। विदाई की बेला पास आती जा रही है। रूपा की माँ रोते-रोते खोइंचा भरा रहीं हैं। दूब , हल्दी, अक्षत ,पैसा पांच बार रूपा के आँचल में डालकर माथे पर टीकते टीकते उमड़ पड़ीं हैं। दूधो नहाओ, पूतों फलो का आशीर्वाद देते हुए रूपा को भींच लेतीं हैं। रूपा सच में बहुत सुकुमार है यही सोचती उसके मंगल की कामना करते उनकी छाती दरक रही है लेकिन अपने घर लड़की को जाना ही होता है कब तक वे उसको अपने पास रख पाएंगीं। पूरे घर में औरतों के रोने की आवाज़ें भर गयीं हैं। विदाई पर रोना परम्परा है यह बात सारीं औरतें जानतीं हैं। जो नहीं रोयेगा उसको कठकरेजी कह दिया जाएगा , वे यह भी जानती हैं .
केकरा रोअला से गंगा नदी बहि गइलीं, केकरे जिअरा कठोर।
आमाजी के रोअला से गंगाजी बहि गइलीं, भउजी के जिअरा कठोर।
सखिया -सलेहरा से मिली नाहीं पवलीं, डोलिया में देलऽ धकिआय।
सैंया के तलैया हम नित उठ देखलीं, बाबा के तलैया छुटल जाय।
रूपा की भाभी सुलोचना औरतों का रोना-गाना सुनती रोती हुई रूपा को विदाई के लिए तैयार करने में जुटी है। अब अकेले कैसे कटेंगे इस घर में रात दिन। सास का बक्सा बंद करती, रोती अपनी ननद-सखी का जाना बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। भाभी से भेंटकर अलग होते रूपा की रुलाई तोरोके नहीं रुक रही है । सबसे बढ़कर भाभी ही हो गयी ? गांव की औरतों को यह तो बिलकुल न भाया। शहर में पाली बढ़ी सुलोचनासमझ ही पाती थी कि औरतेंभेंटते समय गातीं हैं कि रोतीं हैं। लेकिन रूपा के मुंह से आवाज़ भी नहीं निकली है। बस आँखों से अविरल आंसूं बह रहे हैं उन्हीं पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। सुदर्शन मिसिर से देर तक गले लगी रही रूपा और छोटे भाई के भी। कार खडी है। गहनों , भारी साडी से लदी-फंदी चेहरा ढंके गाड़ी में बैठी रूपा आज दूसरे ही रूप में है । सारी औरतें अपने अपने घर की ओर चल दीं। लेकिन दुखंता फुआ की दालान में चौपाल न लगे तो कैसे खाना पचे ए भाई ! गांव की नई लड़कियां भी बदमास हैं पीठ पीछे सुखंता फुआ कहतीं हैं और फुआ के सामने दुखंता फुआ।दुखंता फुआ बाल विधवा हैं और छोटी उम्र से ही नैहर ही उनका सब कुछ है। वहीं गुजर बसर है।
"अपने गांव घर का मान रख पायेगी"? अमरावती फुसफुसा ही पड़ीं इसका आदमी तो पहली रात ही इसके सारे कारनामे जान लेगा। आदमियों को बहुत तजुर्बा होता है। वे खायी खेली लड़की को एक निगाह में जान लेते हैं।"
"निगाह तो क्या बहिन देह कोई पराया मर्द जो छुवे भी रहेगा तो आदमी भला वह जाननलेगा " ? पारबता बोलीं - "उनको तो बहुत देह छूने का तजुर्बा न होता है।" सब खिलखिला कर ऐसे हंसने लगीं जैसे सबसे बड़ाकोईचुटकला हो गया और बहुत मजेदार बात कह दी हो पारबती ने।
"अपने गांव की इज्जत बचा के रखें हम लोग कुछ और थोड़े ही चाहते हैं। इस गांव की लड़कियां जहाँ भी गयीं हैं नाम कुनाम नहीं किया है। भले यहाँ कैसे भी रहीं हों तो क्या। अपने घर जाकर सब सह लिया और निभा लिया है" दुखंता फुआ बोलीं।
लालमणि बोली " इनको जिस दिन उसने पूरा चूस लिया बस उसी दिन निकाल बाहर करेगा। आखिर आवारागर्दी से बाज़तो आएंगीनहीं। मायके वालीवहाँमौज मिलेगी इनको भला ! जब आदत खराब हो तो कोई लाख रोकना चाहे रोक नहीं सकता है किसी तरह. सुना कई देवर हैं"।
मालती भी वहीँ आकर बैठ गयी है। औरतों के आधे चेहरे ढके हैं। सबकी बात सुनते मालती चिहुंक उठती है - "क्या ? घर बिना सास का है ? और ससुर "? "ससुर तो हैं। लेकिन ससुर क्या दिनभर इनकी रखवाली करेंगे . ये तो उड़ती चिड़ियाँ हैं" खखारती हुई रमोला बोल पड़ीं। दुखंता फुआ फिर बोलीं - "देखो किसी की भी लड़की हो बाकिर अपने घरे-दुआरे सुखी रहे लेकिन हाँ महतारी का करम भी कुछ होता है। इनकी महतारी को हम तब से जान रहे हैं जब से वे डोली से उतरीं। तभी हाथ पैर सब खुले थे ।कोई लाज-लिहाज ही नहीं था । बस मिसिर की इज्जत खातिर मुंह जरूर ढका रहा। हँसे तो इनको हँसी गांव के पच्छू के ढाल तक सुनाये। तो जब माई ऐसी तो धिया काहे न हो वैसी। उहे जौन कहावत है - जइसन माई वइसन धीया जइसन कांकर वइसन बीया।अपनी सास के साथ ऐसी बैठी रहतीं थीं जैसे कि पतोहू नहीं बेटी हों"।
आंसू सूखने के बाद औरतें दूसरे रूप में हैं . दुखंता फुआ के घर चाय चढ़ गयी है। सुड सुड चाय पीतीं वे जल्दी घर की ओर निकल लेना चाहतीं हैं।मनबदल गया है। सबेरे सबेरे खूब घूम-घाम हो गयी - अब घर चलें काकी। कह के सुनंदा उठी तो धीरे धीरे सारी औरतें गम्भीर और मंथर चाल से गांव गांव की पतली गली के नाली-पड़ोहा बचातीं अपने-अपने घरों की ओर चल दीं .
एक साल बीत गया और रूपा की ससुराल से कोई शिकायती ख़त भी न आया. यह तो अब उलटा लगने लगा था। इस बीच अलबत्ता यह खबर ज़रूर आ गयी कि रूपा के बेटा हुआ है। जो सोचा वह न हुआ।अब औरतें मायूस होने लगीं हैं।उनकी पंचायत की लहकघट गयी थी
बेमौसम ही मौसम ठंढा हो गया था।पंचायत के लिए कोई तीखा चटपटा गर्म मसाला नहीं रहता तो स्त्रियों की दुपहरिया बेरंग हो जाती है। इस बीच उन्हें काम चलाने के लिए कई चटपटे मसाले मिले। गांव में लड़कियों की कमी कहाँ है। जब लड़कियों की कमी नहीं तो लड़कों कीक्यों होगी। जब दोनों हैं तो गर्मागर्म खबरें भी होंगीं ही लेकिन रूपा जैसी लड़की अपने अंजाम तक नहीं पहुंची यह सवाल गांव की छाजन में खोंस दिया गया है। समय समय पर सवाल छाजन से उतार कर टटोलने लगतीं हैं औरतें ।
रूपा बस एक बार दो दिन के लिए आयी तो खूब खुश और स्वस्थ थी। कुछ मोटी भी हो गयी थी . दो दिनों में ही वापस चली गयी। किसी से मिलने भी न गयी तो गांव की औरतें फुसुर फुसुर कर के रह गयीं। इतना घमंड हो गया है बेटा जो हुआ है। माँ बेटी के पांव जमीन परकहाँ हैं। देखती हो न राम नरेश की मेहरारू कितना हंस हंस सबसे बतियाती है , बाप रे, बोली में तो ऐसी चाशनी बहती है कि कौन न भूल तभी तो राम नरेश भी गुलाम हैं। हंसती है तो आँख भी हंसती है उसकी। तब सुरेखा ठमक कर बोली –
" लेकिन जब आँख में पानी नहीं है तो ऐसा हंसना किस काम का "।
रूपा विदा तो हो गयी आधा रास्ता ख़तम होते होते नैहर भी छूट गया। अब जहाँ जा रही है वहाँ की चिंता सताने लगी थी रास्ते भर रूपा को एक चिंता सताती रही। मर्दों के घर को सम्भालना बहुत कठिन होगा ।रह रह कर बगल में बैठे नए साथी को भी देख लेती थी।यह फकीरे जैसा नहीं लगता। पता नहीं कैसा होगा।
कैसे लोग होंगे। बड़के कक्का जैसे गुस्से वाले होंगे या उसके दोस्तों जैसे। उसको अपने सारे सखा याद आने लगे। यहाँ उसके चार देवर हैं लेकिन उसके दोस्तों जैसे थोड़े होंगे। यही सब सोचती डरती घबराती अम्मा की हिदायतें याद करती रूपा ने ससुराल में पांव रखा। पड़ोसकी देवरानी जिठानी जैसे रिश्तों ने उसको सम्भाला। रूपा को ससुराल के लोग भले लगे। रूपा को कोई क़ैद पसंद कहाँ लेकिन वह बिखरा हुआ घर। रूपा ने सब समेटना बटोरना शुरू किया कि एक छिन की भी फुर्सत नहीं मिली। एक सप्ताह के भीतर घर घर हो गया। सुई से लेकरकुदाल तक की जगह तय हो गयी। महेंद्र पांडे एकदम तृप्त हो गए उन्हें रूपा में बेटी का रूप मिलने लगा । घर पहले जैसा हो गया जैसा महेंद्र पांडे की पत्नी के जीते था। रूपा खुद भी हैरान। उसको तो घर के काम करने का शऊर नहीं था। वहाँ अम्मा माँ की डाँट खाती थी जब शामहोने पर धीरे से घुसती थी तब माँ बरसने लगती थी लेकिन तभी पिता आकर माँ की ऊंची आवाज़ पर अपनी शांत आवाज़ से ठंढा पानी डाल देते थे। " अरे, खेल घूम लेने दो लड़की को। ससुराल जाकर तो नहीं कर पायेगी न यह सब"। " नाक कटा रही है घूम घूम। बैताल बनी रहती हैदिनभर। तुम क्या जानो।"अम्मा गुस्से में कहती।
गांव की प्रपंची औरतों की आस निराशा में बदल गयी। लौटकर नहीं आयी रूपा। हाँ आयी तो उसकी तारीफ आयी। ससुर आये थे। रूपा ने घर को स्वर्ग बना दिया है । वह रूपा तो है ही आपने लक्ष्मी भी भेजी है। औरतें हक्का बक्का हैं। लेकिन अब फुआ की पंचायत में जोर परहै चर्चा । वे तो हवा के रुख के साथ बहतीं हैं।
अब प्रपंच में हवा दूसरी बहने लगी है लेकिन ऐसे जैसे उस लड़की में अवगुण होते तो ससुराल में टिकती ? अब औरतों में फूट पड़ रही है। तब जो यहाँ वहाँ लड़कों के साथ पकड़ाती थी उसका क्या ?
“सब झूठ था जब हमने नहीं देखा अपनी आँख से तब झूठे न था"। " ए, बहिन तुम्हीं न आयी थी दौड़ती हुई कि भुसवल में पकड़ायी है"।रमोला और अमरावती के बीच विवाद हो गया।
"पागल हो ? उसकी अम्मा भी तो वहीँ थी। किसी ने झूठे जाकर उसकी अम्मा से कह दिया था कि तुम्हारी बेटी भुसवल में फकीरे के साथ है। तो इतना सुन के वे पगला गयीं थीं और दौड़ कर भुसवल में गयीं तो रूपा भूसा के ढेर के बीच में धंसी हुई थी । "और फकीरे ?" अमरावती नेपूछा।
"उसकी अम्मा जोर से चिल्लाई कि का कर रही है वहाँ । रूपा हंसी और बोली . अम्मा आओ न यहाँ से नीचे गिरने में बहुत मजा आ रहा है ? उसकी अम्मा तो गुस्से में
कहानी प्रज्ञा पाण्डेय जी की है..और टिप्पणी जयश्री जी की है
30.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल
आज देखा। कहानी अधूरी लगी है। तब टिप्पणी का कोई मतलब नहीं हुआ। अनुरोध है कि किसी की भी कहानी लगाई जाए तो लेखक का इतना सम्मान तो ज़रूर हो कि कहानी पूरी लगाई जाए।
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