मित्रों आज याद करते हैं शेर मोहम्मद खां यानी इब्ने इंशा को
जन्म १९२७ लुधियाना में
प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में ही हुई १९४९ में कराची आ बसे और वहीं उर्दू कालेज से बीए किया। माता पिता ने शेर मोहम्मद खां नाम दिया लेकिन बचपन से ही स्वयं को इब्ने इंशा कहना और लिखना प्रारंभ कर दिया और इसी नाम से प्रसिद्ध हुए।
उर्दू के प्रख्यात कवि और व्यंग्यकार। लहज़े में मीर की खस्तगी और नज़ीर की फ़कीरी। मनुष्य की स्वाधीनता और स्वाभिमान के प्रबल पक्षधर।
आपकी उर्दू रचनाओं में हिन्दी के प्रयोगों की भरमार है। हिंदी ज्ञान के बल पर शुरू में आल इंडिया रेडियो पर काम किया। बाद में कौमी किताबघर के निर्देशक, इंगलैंड स्थित पाकिस्तानी दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री और फिर पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे।
११ जनवरी, १९७८ को लंदन में कैंसर से मृत्यु।
प्रमुख पुस्तकें : उर्दू की आख़िरी किताब (व्यंग्य) चाँद नगर, इस बस्ती के इस कूचे में (कविता), बिल्लू का बस्ता, यह बच्चा किसका है (बाल कविताएँ)
वे मशहूर कवि थे। जगजीत सिंह ने इनकी कई गजलों को अपनी आवाज दी है। उर्दू की आखिरी किताब एक क्लासिक रचना है। उन्होंने इसमें तमाम अनुशासनों की हदें तोड़ दी हैं। एक साथ ही वे व्यंग्य की तीखी धार और हास्य बोध से चकित कर देते हैं।
प्रस्तुत हैं उनकी चंद ग़ज़लें....
१.
उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा
वो शहर वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा
वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगी
वो दर्द के उठा था यहाँ याद रहेगा
हम शौक़ के शोले की लपक भूल जायेंगे
वो शमा-ए-फ़सुर्दा का धुआँ याद रहेगा
कुछ मीर के अब्यात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे
इक दर्द का था जिन में बयाँ याद रहेगा
जाँ बख़्श सी थी उस गुलबर्ग की तरावात
वो लम्स-ए-अज़ीज़-ए-दो-जहाँ याद रहेगा
हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे
तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा
२.
और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का
सुबह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का
झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अक्सर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का
अपनी ज़ुबाँ से कुछ न कहेंगे छुपे ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का
एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुँचा गली गली
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का
दर्द का कहना चीख़ उट्ठो दिल का तक़ाज़ा वज़अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़तदारों का
३.
रात के ख़्वाब सुनायें किसको रात के ख़्वाब सुहाने थे
धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे
ज़िद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग
होंठ उनके ग़ज़लों के मिसरे आँखों में अफ़साने थेये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी
इससे उनको मिलना था तो इसके लाख बहाने थे
हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने
हम क्यूँ उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे
वहशत की उनवान हमारी इनमें से जो नार बनी
देखेंगे तो लोग कहेंगे 'ईंशा' जी दीवाने थे
४.
कल चौदवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा
हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किये
हम हँस दिये हम चुप रहे मंज़ूर था परदा तेरा
इस शहर में किससे मिलें हम से तो छूटी महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तेरा
कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जायें मगर
जंगल तेरे पर्बत तेरे बस्ती तेरी सहरा तेरा
हम और रस्म-ए-बन्दगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तेरा ऐ हुस्न-ए-बेपरवा तेरा
दो अश्क जाने किसलिये पल्कों पे आ कर टिक गये
अल्ताफ़ की बारिश तेरी इकराम का दरिया तेरा
ऐ बेदारेग़-ओ-बेअमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तेरी वहशत सही हम को सही सौदा तेरा
तू बेवफ़ा तू महरबाँ हम और तुझ से बद-गुमाँ
हम ने तो पूछा था ज़रा ये वक़्त क्यूँ ठहरा तेरा
हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तेरा दामन कभी थामा तेरा
हाँ हाँ तेरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख़्स के अशार से शोहरा हुआ क्या क्या तेरा
बेशक उसी का दोश है कहता नहीं ख़ामोश है
तू आप कर ऐसी दवा बीमार हो अच्छा तेरा
बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा रुसवा तेरा शायर तेरा "ईन्शा" तेरा
५.
जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो
सारी दुनिया अक़्ल की बैरी कौन यहाँ पर सयाना हो
नाहक़ नाम धरें सब हमको दीवाना दीवाना हो
तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शरमाना हो
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो
नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो
तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शरमाकर होंट
हम को ज़हर पिलाने वाली अमरित भी पिलवाना हो
हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम
जिससे दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो
सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग
मीर,नज़ीर,कबीर' और ' ईन्शा' का एक घराना हो
प्रस्तुती-रूचि गांधी
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