आज आपके लिए समूह के साथी अर्पण कुमार की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
आपकी टिप्पणियों का स्वागत है।
कविताएँ :
1. 'केंद्र'
केंद्र में रहना किसे अच्छा नहीं लगता
कौन नहीं चाहता 'शो-स्टॉपर' बनना
दुनिया की फैशन -परेड में
हाशिए से आप आगे बढ़ते जाएँ
केंद्र आपके पास आने लगता है
बस बढ़ना ज़रूरी है
और याद रखना
अपने आरंभ बिंदु को भी
क्योंकि दुनिया का कितना ही
ताक़तवर व्यक्ति कोई क्यों न हो
वह हरदम केंद्र में
बना नहीं रह सकता
जिसे केंद्रबिंदु कहा जाता है
दरअसल वह किसी स्थिर
ज्यामितीय संरचना का केंद्र नहीं होता...
उलटे वह इस परिवर्तनशील
समय और दुनिया में
स्वयं तेजी से बदल रहा होता है
वह पृथ्वी की तरह अपनी
धुरी पर घूम रहा होता है
और दूर किसी शक्ति पुंज के
चक्कर भी लगा रहा होता है
केंद्र में रहना, सत्ता में होना है
और सत्ता कब किसी
एक की होकर रही है
देश और विश्व के सत्ताधीशों को छोड़िए
परिवार का मुखिया भी
वक़्त के साथ बदलता है
घरों के डायनिंग टेबल
गवाह हैं इसके..
2. 'हँसी का बहनापा'
क्या कहता है
हँसी का यह बहनापा,
क्या ढूँढ़ते हैं हम
दो जोड़ी आँखों के
इस महासागर में,
एक बड़े कैनवस पर
बिखरे पड़े गुलाबी रंग की
इस थमती-चलती
सकुचाती-चहकती
हँसी को
ज़रा ध्यान से देखें
चित्रकार के हाथों से
उसकी कूँची
छूट कर
कहीं नीचे तो
गिर नहीं गई है!
देख रहे हो तो देखना
क्षितिज की ओर भी
दूध सी उजली
इस हँसी से
बादल अपने लिए उजास
उधार तो नहीं मांग रहा!
और इधर यह धरती
इतराती अपनी कोख पर
गोल गोल जो घूमती
चली जा रही है,
कहीं चक्कर खाकर
गिर न पड़े यह पगली माँ!
बड़ी बहन के ललाट की
एक नस उभर पड़ी है
तो छोटी बहन की आँखों का
काजल कुछ अतिरिक्त नम
हो आया है
यह बहनापा है
दो युवतियों का
यह युग का
सबसे खूबसूरत संयोग है
योगक्षेम है यह उनका
जो साथ रहेगा
तब भी,
जब वे साथ नहीं रहेंगी
एक दिन
इस तरह
एक आँगन में
कुलाँचें भरती
दो कंठों की
यह किलकारी
दो आँगनों में
बिखर जाएगी
वक़्त के साथ,
उनकी यह हँसी
सूरज की लाली है
और चाँद की चाँदनी
बिखरना
उसका स्वभाव है
और धर्म भी
जब वे हँसती हैं
तो लगता है
कि सृष्टि की कोई
अलौकिक शक्ति
उनमें आ गई हो,
उनकी हँसी में
हो न हो
कुछ तो है
ऐसी योगमाया
जो सुनाई पड़ती है
एक योजन से ही
मासूमियत पर
चहुँओर हो रहे
हमले के इस समय में
उनकी यह निर्दोषता
लड़ लेगी हर कलुषता से
और बचाए रख लेगी
सही सलामत
अपनी यह
लाख टके की हँसी
ठीक वैसे ही
जैसे सुबह की ओस
रात भर की कालिमा को
पीकर भी
बचाए रख पाती है
अपनी शुभ्रता
…...
3. 'आवारगी'
पहन पैंजनी थिरकती भावना में मैं हूँ
भूलती कभी भटकती गणना में मैं हूँ
कोई दूसरा इसे शायद ही समझ पाए
विहंसती तुम्हारी मूक वेदना में मैं हूँ
तेरी अलसायी थकी आँखों में मैं हूँ
तुझसे निर्वासित तेरी यादों में मैं हूँ
विस्मृति में भी जो भुलाए न भूले प्रिय
पुलकती सशंकित साखियों में मैं हूँ
शब्द दर शब्द तुम्हारी अनुरक्ति में मैं हूँ
श्याम बादल को चिरती दामिनी में मैं हूँ
तुम्हारी शोख़ी से शहतूत का रस टपके
गगन खिले चाँद की फाल्गुनी में मैं हूँ
ज़िंदगी में ग़र मिलना न अपना हो सका
ज़रा मत सोचो कि ज़ुल्म यह कैसा हुआ
प्रेम की टीस तो होती है प्रेम से भी घनी
वियोग फिर संयोग से यूँ नहीं बड़ा हुआ
जैसा भी जिया तुम्हारा ही नज़राना हुआ
जो न जी सका वो कोई अफ़साना हुआ
तुझसे कुछ लौ ऐसी लगी मेरी आवारगी!
मेरा स्वत्व देखो मुझसे कैसे बेगाना हुआ
4. 'नो मैन्स लैंड'
थोड़ा कम इंसान होना
शैतान होना है
थोड़ा अधिक इंसान होना
देवता होना
शैतान और देवता दोनों
हमारे भीतर हैं
एक-दूसरे से अभिन्न और
एक-दूसरे के पड़ोसी
जैसे हमारे फेफड़े
हमारे भीतर
जीती जागती
एक साबुत दुनिया होती है
जब तब होते रहते हैं
जिसके दो फाँक
शैतान और देवता
बसाते हैं जिनमें
अपने-अपने देश
अपनी सहूलियतों के हिसाब से
शैतानों और देवताओं के
इन दो देशों के बीच
नो मैन्स लैंड है
जिसकी बंज़र ज़मीन पर
इंसानियत की हरी घासें
जहाँ-तहाँ उगी हुई हैं
कितना सुकूनदायक है
उन हरी घासों के बीच बैठना
मगर कितना ज़रूरी है
इसके लिए
अपनी सीमाओं से
बाहर आना।
.........
5. 'कल्पना'
किसी के हौसले संग आई
तो उड़ान बन गयी
यथार्थ से मिली
तो मुस्कान हो गई
किसी की कूची में उतरी तो
'मोनालिसा' बन गई
चढ़ आई किसी
कवि की आँखों में
तो 'उर्वशी' बन गई
रेगिस्तान में दरिया हूँ
और दरिया में मिठास
विरह में मिलन हूँ
और मिलन में
मधुमास
मैं कहीं और नहीं
आप ही में हूँ
अपनी आँखों को
कोरा मत रखिए
उनमें बसा
लीजिए मुझे
मैं आपकी ही
कल्पना हूँ जी
...................
6. 'पिता के कंधे से टिककर'
(एक)
पिता के कंधे से लगकर
मुझे मेरा बचपन
याद आया
तब ये कंधे
इस तरह
कमजोर नहीं थे
बेतहाशा भीड़ में
इन्हीं कंधों पर चढ़कर
मैं रावण दहन
देखा करती थी
उम्र के साथ
मेरे जीवन में
कितने रावण आए
और गए
निपटती गई सबसे
मन में विश्वास की आग हो
तो रावण कितना ही
बड़ा क्यों न हो
उसे जलाया जा सकता है
पिता के कंधों पर सवार
एक नन्हीं लड़की ने
तब यही सबक सीखा था
आज अशक्त दिखते
पिता के इन्हीं कंधों ने
मुझे सशक्त बनाया ।
.....
(दो)
पिता
अकेले मेरे नहीं हैं
मगर जब भी
सर रखती हूँ
उनके कंधे पर
वे मेरे होते हैं
पूरे के पूरे
मेरी बाकी चार बहनें भी
यही कहती हैं मुझसे
सोचती हूँ
पिता एक हैं
फिर पाँच
कैसे बन जाते हैं!
....
(तीन)
यौवन की
केंचुली उतर आती है
मेरा बचपन
मेरे सामने होता है
पिता के कंधे से
जब लगना होता है
यही चमत्कार
बार बार होता है।
....
(चार)
पिता हैं अगर पर्वत
तो उससे निकली
मैं एक नदी हूँ
गंगा,
हुगली कहलाए
या पद्मा
उसका स्रोत
हिमालय ही रहेगा।
.....
(पाँच)
हम पाँच बहनों को
बड़ा करते पिता
खर्च बेहिसाब हुए
मगर
हम नदियों को
अपने साथ कुछ ऐसे
लपेटे रहे
कि पंजाब हुए।
कवि परिचय:-
अर्पण कुमार : जीवन वृत्त
‘नदी के पार नदी’ और ‘मैं सड़क हूँ’ काव्य संग्रह प्रकाशित और चर्चित। तीसरा काव्य-संग्रह ‘पोले झुनझुने’ और पहला उपन्यास ‘पच्चीस वर्ग गज़’नौटनल पर ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध और शीघ्र प्रकाश्य। आकाशवाणी दिल्ली और जयपुर से कविताओं-कहानियों का प्रसारण। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षाएँ,गज़लें, आलेख आदि प्रकाशित।दूरदर्शन के जयपुर केंद्र से कविताओं का प्रसारण। हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत। कई पुस्तकों के आवरण पर इनके खींचे छायाचित्रों का प्रयोग।
(प्रस्तुति: बिजूका)
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टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
हमारी किसी महिला मित्र की इन कविताओं में सहज जीवन चित्रों में मुद्दे की बात रखती हैं। मुझे तीसरी कविता की भाषा कुछ गढ़ी हुई लगी। शेष दो के मुकाबले।
तिथि:-
पहली कविता बहुत सामयिकऔर सटीक है। दूसरी कविता को पढ़ कर मुझे अपनी ही एक कविता याद आ गयी। तीसरी के लिए प्रज्ञा जी की बात से सहमत हूँ। रचनाकार को शुभकामनाएँ।
परमेश्वर फुंकवाल:-
अच्छी कविताएँ, विशेष कर पिता वाली। कल की कविताओं के मुकाबले ज्यादा सधी हुईं। कवि को बधाई।
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