आज आपके लिए प्रस्तुत हैं कुछ ग़ज़लें। आपकी टिप्पणियों की उम्मीद के साथ...
ग़ज़ल :
1.
पीर हमारी भीगी माचिस तीली सी
जलती देह हमारी लकड़ी गीली सी
रूह भटक कर पैठी है जिस पिंजर में
उसकी सब दीवारें सीली-सीली सी
मेहमानों के आने तक ही हैं, जो हैं
फ्रिज़ में थोड़ी ख़ुशियाँ पीली-पीली सी
दूर हुए उनसे भी तो जी भर रोये
वो राहें जो साथ रहीं पथरीली सी
बेवा जिज्जी सी मयके में रहती हैं
यादें कुछ कुछ हँसमुख कुछ दर्दीली सी
मत आनंद गँवा रे मन सब धोखे हैं
दुनिया हो ज़हरीली या सपनीली सी
2.
छानी-छप्पर फूस- मड़ैया बाकी हैं
कहीं कहीं पर ताल तलैया बाकी हैं
भाई, मेरे गाँव गली में अब भी कुछ
बिरहा, कजरी,फाग गवैया बाकी हैं
कुछ तो बड़े मतलबी चतुर सयाने हैं
उनमें भी कुछ नेह निभैया बाकी हैं
टूट रहे विश्वासों की इस धरती पर
मरे जिए कुछ काँध देवैया बाकी हैं
कभी कभी सर पर छत जैसे लगते हैं
काकी-काका,भौजी- भैया बाकी हैं
3.
अपना ऐसा ही अफ़साना है भैया
पपड़ी ताजी ज़ख्म पुराना है भैया
कौन किसी की गलियों में डेरा डाले
ठहरे जब तक आबो -दाना है भैया
सब के होंठों पर है बात मोहब्बत की
अन्दर झाँको तो वीराना है भैया
उसने अब तक यारों के ही क़त्ल किये
मेरा जिस शै से याराना है भैया
बरसाती नदियों के जिम्मे खेत हुए
सपनों की ही फ़सल उगाना है भैया
अरबों के आश्रम वाले बाबा बोले
खाली हाथ जहाँ से जाना है भैया
हमने भी तो पत्थर को भगवान किया
अब किसको फ़रियाद सुनाना है भैया
4.
इतना भी नहीं टूट गया हूँ, यक़ीन रख
जब दे रहा है दर्द तो उसमें कमी न रख
मैं जिस्म के कर्ज़े उतारता चलूँ, ठहर
बेसब्र है तो रूह की गिरवी ज़मीन रख
कर दे मेरे नसीब में गुमनाम रास्ते
अपने सफ़र के वास्ते, राहें हसीन रख
अब वक़्त जा रहा है दुआएँ क़ुबूल कर
कुछ देर मुल्तवी तू मेरी छानबीन रख
'आनंद' कहीं राह में ठोकर भी खायेगा
जब भी गिरेगा उठके चलेगा यक़ीन रख
5.
काँप रहे हैं बच्चे थर थर थर मौला
इस दुनिया को रहने लायक कर मौला
जो ताक़त के पलड़े में कुछ हलके हैं
उनको भी करने दे गुज़र-बसर मौला
पहले मज़हब में बाँटा इंसानों को
देख बैठकर अब खूनी मंज़र मौला
आधी आबादी दुश्मन है आधी की
थोड़ा इन मर्दों को काबू कर मौला
ना तुझसे डरते न तेरी दुनिया से
तू खुद ही अपने बंदों से डर मौला
ताकत की सत्ता का नियम बना जबसे
उस दिन को मनहूस मुकर्रर कर मौला
ऐसा ही इंसान रचा था क्या तूने ?
ऊपर मीठा, अंदर भरा ज़हर मौला
जब जीवन ठगविद्या हो 'आनंद' नहीं
मुझको फिर छोटे बच्चे सा कर मौला
6.
शब्दों में धड़कन ले आओ
बातों में जीवन ले आओ
धरती पर आकाश न लाओ
जन तक जन गण मन ले आओ
बच्चे फिर गुड़ियों से खेलें
जाकर उनसे 'गन' ले आओ
थोड़ा कम विकास लाओ पर
बच्चों में बचपन ले आओ
जंग असलहों में लग जाए
ग़ज़लों में वो फ़न ले आओ
शहर बसाने वालों उसमें
अम्मा का आँगन ले आओ
मत ढूंढो ‘आनंद’ कहीं पर
केवल सच्चा मन ले आओ
परिचय:
नाम - आनंद कुमार द्विवेदी
जन्म- २२.११.१९६८ रायबरेली (उ. प्र.)
प्रकाशित कृति:
ग़ज़ल संग्रह ‘ फ़ुर्सत में आज’
(वर्ष २०१३, बोधि प्रकाशन जयपुर)
संप्रति : दिल्ली में एक निजी कंपनी में नौकरी
संपर्क : मोबाइल – 9910410436
मेल : anandkdwivedi@gmail.com
प्रस्तुति बिजूका
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टिप्पणियां:-
संजीव:-
बहुत बढिया "कांप रहे हैं बच्चे थर थर थर मौला" गजब पंक्ति है। पूरी गजल दुष्यंत के टक्कर की ही नहीं बल्कि उसके आगे की है। बधाई आनन्द जी। लिखते रहिए और पढाते रहिए।
पूनम:-
सचमुच बहुत ही सुंदर
बड़े ही शीतल बिम्ब
बहुत खूब
शुभकामनाये
मन को छू लेने वाली पंक्तिया है
नीलिमा शर्मा निविया:-
आनंद जी बहुत सुन्दर भावपूर्ण अर्थपूर्ण लिखते हैं आप । आपकी बुक मेरे पास है और कई बार पढ़ी हैं ।
किस किस मिसरे की तारीफ करूँ हर मक्ता मतला अपने आप में पूर्ण हैं
आपकी लेखनी को प्रणाम
आशीष मेहता:-
सत्य मेव जयते।
'बिजूका एक' पर पिछला पखवाड़ा दमदार पेशकशों से लबरेज़ रहा। अनुराधाजी एवं स्वप्निलजी की उम्दा कविताएँ, दिमाग सुन्न कर देने वाली 'न्याय', बेमिसाल मंटो के 'बेहया खत'। और फिर, श्री आनंदजी की गागर में सागर पंक्ति ....... "मत आनंद गवाँ रे मन, सब धोखे हैं।"
स्वप्निलजी की कुछ रचनाओं (मसलन, परिंदे कम होते जा रहे हैं/ सोने की खदानों की खोज में), 'न्याय' एवं 'चचा सैम को पाती' में (अपने अपने तईं) एक साम्य रहा..... समतावादी, .. मानवतावादी (यहाँ पल्लवीजी से सहमति, 'स्त्री धन' पर सहादत सामंती ही मिले, शायद वो समय ही कुछ ऐसा था, कुछ खास फर्क तो खैर आज भी नही है।)
मंटो के खत 'कालजयी' होना (ठहराना नहीं) ही द्योतक है, इस बात का कि "मानवतावाद" को "मानवता" की कमी निरंतर बनी हुई है, और यह कमी दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है।
खैर....., सत्य भाई की 'न्याय' से मार्मिक जुड़ाव रखती एक खबर, जो 1 जून को TOI Mumbai edition में पढ़ने को मिली, समूह पर साझा करना चाहता हूँ। (पोस्ट के साथ ही प्रेषित है।)
भारतीय परिदृष्य में देखें तो 'मुस्लिम' अल्प संख्या के सामने 'हिन्दु' स्वभाविक तौर पर बहुसंख्यक हो जाते है। फिर भगवा, चोटी, बजरंगी, शंकरसेना, यह दल, वह सबल, सभी अपने अपने दखल रखते हैं। हिन्दु-मुस्लिम कौमी एकता के असंख्य उजले उदाहरणों के बावजूद, कटु सत्य यही है कि भारत-पाक बंटवारा (और हिंसा) आपसी वैमनस्य की कोख में ही जन्मा। पर, कहानी 'न्याय' मुद्दा उठाती है व्यवस्था के खिलाफ, यह मसला पिछले दशक (या अधिक समय) से वैश्विक हो उठा है। My name is Khan (and I am not terrorist), शाहरुख दस बार बना लें...., Missileman पुनर्जन्म ले लें, अमेरिका उन्हें प्रवेश देते वक्त 'टटोलेगा-खंगालेगा' जरूर। अब, गेहू के साथ घुन पिस रहा है, या सिर्फ घुन ही पिस रहा है, इस पर विस्तृत चर्चा हो सकती है।
'न्याय' कसावट एवं किस्सागोई का अनुपम नमूना है। 'न्याय' के किरदार पर हुए 'अन्याय' को हकीकतन् अनगिनत व्यक्ति निरंतर झेलते रहे हैं,...अनेकानेक जीवन बर्बाद हुए हैं।
ऐसे ही एक शख्स हैं, निसारुद्दीन अहमद, जो 11मई को जयपुर जेल से छूटे हैं । ये 15 जनवरी, 1994 को गुलबर्गा (कर्नाटक) में हैदराबाद पुलिस द्वारा पकड़े गए थे। अपनी 43 साल के जिन्दगी का आधा हिस्सा खो चुके हैं। मैं इन जनाब का हमउम्र हूँ और पिछले हफ्ते 'न्याय' को शिद्दत से पढ़ चुका हूँ। सो, एक अजीब सिहरन है, व्यथा है ..... यह एक बेहद गम्भीर मसला है....... इससे कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रधानमंत्री कोई कवि हो ('न्याय' के कालखण्ड में) या 27000 करोड़ रुपए का मालिक डोनाल्ड ट्रम्प राष्ट्रपति हो ।
इस अखबारी खबर में कानून मंत्री की चिन्ता है। सन् 2006 (मालेगाँव), 2002 (अक्षरधाम) एवं 1993 (बाबरी बरसी) के हवाले हैं। कवि प्रधान मंत्री की केन्द्रीय सरकार ने 2001 एवं 2002 में क्रमश: 'संसद पर' एवं 'अक्षरधाम पर' आतंकी हमले देखे हैं। मोदी की राज्य सरकार ने 'गोधरा एवं प्रतिक्रियात्मक हादसों' में खासी मीडिया ट्रायल भी झेली है जिसका पूरी तरह से खत्म होना नामुमकिन है। गुजरात पुलिस को भी सर्वोच्च न्यायालय ने आड़े हाथों लिया।
इस खबर के बाकि दोनों हादसों के बेगुनाह मुस्लिम युवकों का पाला भी 'भटकी पुलिस' से ही पड़ा है, चाहे वह महाराष्ट्र की हो, आँध्र की हो या कर्नाटक की। संयोग से इन दोनों ही मामलों में केन्द्र सरकार एवं सभी राज्य सरकारें काँग्रेस की रही। उसी काँग्रेस की, जिसके साथ भी हैं और खिलाफ भी हैं। ......पर नतीजा वही,... जीते जी मौत। लाल... लाल... ठीक 'न्याय' के अन्तिम वाक्य की तरह.... मानो अन्तिम सत्य।
निसार जैसे कुछ और शरीर भी आजाद हुए हैं, सर्वोच्च न्यायालय के दखल पर। ऊपरवाला, इन शरीरों में प्राण फूँके। कुछ मंत्रियों को जरूर न्यायपालिका नागवार गुजर रही है, पर कई परिवारों ने न्यायालय को दुआएं ही दी होंगी, माफी के साथ साथ। और उन परिवारों का क्या, जो अपनों को आतंकी हमलों में खो चुके हैं।
इस खबर में प्रमुखत: व्यवस्था का सकारात्मक संज्ञान जाहिर है, जिसे आने वाले दिनों में (राजनैतिक तौर पर) घड़ियाली आँसू भी कहा जा सकता है।पर सजग जनतंत्र के लिए तो, यह एक उम्मीद ही है। [हालांकि, ट्रकों और वाल्स् (walls) को पढ़ें, तो देश सो रहा है।]
इस पोस्ट को साझा करने का एक प्रमुख कारण मेरी जद्दोजहद है, इस बात को समझने की कि 'साहित्य से राजनीति निकाल दें, तो क्या बचता है ?' साथी मार्गदर्शन करें।
वैसे, आसपास नज़र डालें तो, जनता के पैसे 'सरकारी' ढोल बजने में खर्च हो रहें है, साथ ही साथ अच्छा खासा मानव संसाधन सरकारी मलामत में भी खर्च हो रहा है। Gang war हो या जनक्रान्ति, किसके खिलाफ हो। प्रधानमंत्री मंत्री के, मुख्य मंत्री के, प्रशासन के, पुलिस के, भ्रष्टाचार के (जो सेना से न्यायपालिका तक पसरा है।), जातिगत और लैंगिक दुर्भाव के खिलाफ। पता नहीं, आज कोई सवाल उठाने का मन नहीं है। पर रविवार है, सो मन की बात की जा सकती है।
सत्य भाई के स्वास्थ्य लाभ की शुभेच्छाओं के साथ। आशीष मेहता
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