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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

07 फ़रवरी, 2017

युव कवि अच्युतानंद मिश्र की कविताए

आज युव कवि अच्युतानंद मिश्र की कविताएँ.............................इस बेहद सँकरे समय में 
अच्युतानंद मिश्र 

वहाँ रास्ते खत्म हो रहे थे और
हमारे पास बचे हुए थे कुछ शब्द
एक फल काटने वाला चाकू
घिसी हुई चप्पलें
कुछ दोस्त

हमारे सिर पर आसमान था
और हमारे पाँवों को जमीन की आदत थी
और हमारी आँखें रोशनी में भी
ढूँढ़ लेती थीं धुँधलापन

हम अपने समय में जरूरी नहीं थे
यही कहा जाता था
गो कि हम धूल या पुराने अखबार
या बासी फूल या संतरे के छिलके
या इस्तेमाल के बाद टूटे हुए
कलम भी नहीं थे,
हम थे
और हम बस होने की हद तक थे

सड़क पर कंकरीट की तरह
हम खुद से चिपके हुए थे
हम घरों में थे
हम सड़कों पर थे
हम स्कूलों में और दफ्तरों में थे
हम हर जगह थे
और जमीन धँस रही थी
और नदियाँ सूख रही थीं
और मौसम बेतरह सर्द हो रहा था
और हम रास्तों के पास
जमीन के उस ओर चले जाना चाहते थे
हम मुक्त होना चाहते थे
और मुक्ति की कोई
युक्ति नहीं थी
अब तो धूप भी नहीं थी
पेड़ भी नहीं थे
पक्षी और बादल भी नहीं
आकाश और जमीन
और इनके बीच हम

हम अपने ही समय में थे
या किसी और समय में?
दोस्तों के कंधे उधार लेकर

हम तनने का अभिनय क्यों करते थे?

समय नर्म दूब की तरह
नहीं उग आया था हमारे गिर्द

हम फूल की तरह नहीं थे
इस धरती पर
हम पत्थरों की तरह
किन्ही पर्वतों से टूटकर नहीं आए थे
हमने सूरज की तरह तय की थीं
कई आकाशगंगाएँ

सितारे टूट कर गिरते
और हम अपने कंधे से धूल झाड़ते
चाँद की ओर पीठ किए बढ़ रहे थे

हमारी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में दर्ज होने लगे थे
कुछ गुमनाम नदियों के रास्ते
खुद के होने की बेचैनी
और रास्तों की तरह बिछने का हौसला भी था।

सभ्यता की शिलाओं पर
बहती नदी की लकीरों की तरह
हम तलाश रहे थे रास्ते
इस बेहद सँकरे समय में!

सिलिया चमारिन 
अच्युतानंद मिश्र 

सिलिया चमारिन अगर
चमारिन नहीं होती
तो वह डोमिन होती
डोमिन नहीं होती
तो वह मछुवारिन होती
अगर वह मछुवारिन नहीं होती
तो वह...
खैर वह कुछ भी होती
फिर भी वह सिलिया चमारिन ही होती

जैसे की पंडित मातादीन कुछ भी होते
मगर वह पहले पंडित मातादीन ही होते
और यह पूरा गाँव पांडे पुर ही होता

और यह पूरा देश भारतवर्ष

अगर पंडित मातादीन को बेटा होता
तो वह गोरा होता
पंडितायन गोरी थी
अगर सिलिया चमारिन को बेटी होती
तो वह काली होती
पंडित मातादीन काले थे

सिलिया चमारिन का छूआ
पंडित खा नहीं सकते थे
पंडितायन की सख्त हिदायत थी
पंडित उन्हें ना छुएँ

करिया चमारिन और
पंडित उज्जवल प्रकाश के जन्म
के बीच दो दिन का फर्क है

आखिर दो दिन में
कितने युग होते हैं ?

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